गुरुवार, 23 अगस्त 2012

किन किन चीज़ों के लिए आखिर लड़ें महिलाएँ??

चोखेरबाली, ब्लॉग  पर आर.अनुराधा जी की इस पोस्ट ने तो बिलकुल चौंका दिया. मुझे इसकी बिलकुल ही जानकारी नहीं थी कि 1859 में केरल की अवर्ण औरतों को शरीर के उपरी भाग को ढकने का अधिकार मिला. यानि कि अब वे अंगवस्त्र या ब्लाउज पहन सकती थीं. इसके पहले ऊँची जाति की स्त्रियों को भी घर के भीतर और मंदिर में  ब्लाउज पहनने की इजाज़त नहीं थी...और निम्न  जाति की स्त्रियों को कहीं भी अंगवस्त्र पहनने की मनाही थी. 

ब्लाउज पहनने पर ऊँची जाति के पुरुष लम्बे डंडे पर छुरी बाँध कर उस ब्लाउज को फाड़ दिया करते थे. कई बार वे ऐसी औरतों को रस्सी से बांधकर पेड़ पर लटका दिया करते थे..ताकि दूसरी औरतों को सबक मिले. धीरे धीरे समय बदलने लगा....केरल के लोगों में श्रीलंका में जाकर चाय बगान में काम करने , बेहतर आर्थिक स्थिति ,इसाई धर्म परिवर्तन आदि से जागरूकता फैली और औरतें शालीन कपड़े पहनने लगीं. पुरुषों का पुनः विरोध शुरू हुआ तो सारी स्त्रियों ने मिलकर इसका सामना किया और वे पूरे कपड़े पहनकर बाहर निकलने लगीं. (slut walk की याद आती है...जब बेतुकी बंदिशें लगाई जाती  हैं तो ऐसी ही प्रतिक्रियाएँ होती हैं. ).

आखिर पचास साल के संघर्ष के बाद 1859   में स्त्रियों को यह अधिकार मिले कि वे अपने शरीर का उपरी हिस्सा ढँक सकती हैं यानि कि ब्लाउज पहन सकती हैं .

1859 यानि करीब डेढ़ सौ साल पहले इसका अर्थ बहुत पुरानी  बात नहीं है, यह. हमारे परदादा -परनाना के समय की ही बात है. क्या स्त्रियों का अपनी इच्छानुसार अपने लिए ही कोई निर्णय लेना,सदा से पुरुषों को खटकता आया है. समय के अनुसार वे नहीं बदल सकतीं? उन्हें अपनी पुरानी स्थिति में बदलाव का कोई हक़ नहीं? पहले पूरे कपड़े पहने तो क्यूँ पहने..और अब पूरे कपड़े क्यूँ नहीं पहने यानि ना जीते चैन ना मरते चैन. 

प्रसिद्द कथा-लेखिका 'शिवानी ' ने अपने शान्तिनिकेतन के दिनों के संस्मरण  में लिखा था कि 'शान्तिनिकेतन में बहुत सारी आदिवासी महिलाएँ घास काटने आया करती थीं. शिवानी जी और उनकी सहेलियों ने उनके लिए ब्लाउज सिले और उन्हें पहनने को दिए. उन महिलाओं  ने पहनने के बाद , वे ब्लाउज निकाल कर उन्हें वापस कर दिए कि उन्हें इसे पहनने में शर्म आती है. ' अभी अनुराधा जी की ये पोस्ट पढ़कर मुझे ये घटना याद आ गयी. जरूर उन्हें सामजिक अस्वीकृति का ही डर होगा...इसीलिए ये हिचक होगी. 

कुछ समय पहले तक स्त्रियों का चप्पल पहनना, छाता लेना भी सहज स्वीकार्य नहीं था. मेरे बचपन  की ही बात है...मेरे पिताजी की पोस्टिंग एक छोटे से कस्बे में हुई थी. उस इलाके में घरों में झाडू -बर्तन  करने वाली बाइयां चप्पल नहीं पहनती थीं. एक काम वाली बाई  ने चप्पल पहनना शुरू किया था, उसकी बहुत आलोचना होती थी. मेरे घर एक बूढी औरत छोटे-मोटे काम करने आती थी.वो हमेशा कहती..'वो तो चप्पल पहन कर घूमती है..जैसे महारानी हो कहीं की..कहती है..पैर जलते हैं...मेरी इतनी उम्र हो गयी..हमारे पैर तो नहीं जले कभी.' मेरी उनसे अक्सर बहस हो जाती. अब यहाँ लोग ये ना कहने लगें, स्त्री ही स्त्री की दुश्मन होती है. उनके समाज में ही स्त्रियों को चप्पल पहनने का प्रचलन नहीं होगा .चप्पल पहनने वाली स्त्रियों की आलोचना की जाती होगी. इसीलिए और उन बूढी महिला का रिएक्शन भी स्टीरियो टाइप ही होगा.

सामाजिक प्रचलन का ख्याल तो हमारी भूतपूर्व प्रधान मंत्री 'इंदिरा गांधी' को भी रखना पड़ता था. वर्षों पहले,धर्मयुग में 'पी.डी. टंडन' का एक संस्मरण पढ़ा था. इंदिरा गांधी को धूप बिलकुल बर्दाश्त नहीं होती थी और उन्हें अपने चुनावी दौरों के लिए गाँव -कस्बों में धूप  में जाना पड़ता था. पर वे छतरी नहीं लेती थीं क्यूंकि गाँव में औरतों के छतरी लेने का प्रचलन नहीं था. और शायद अपने चुनावी दौरों में  वे उनमे से एक दिखना चाहती थीं. एक बार वे कार से उतर कर चिलचिलाती धूप में सभा-स्थल की तरफ जा रही थीं . पी.डी. टंडन भी साथ थे...उन्होंने छाता  आगे बढ़ाया  पर इंदिरा जी ने मना कर दिया और कहा.."हम स्त्रियों के पास अपना छाता है'...उन्होंने सर पर आँचल रख कर छोटा सा घूँघट निकाल लिया. पी.डी. टंडन ने तुरंत कैमरे से तस्वीर खींच ली. उस संस्मरण के साथ, इंदिरा गांधी की वो तस्वीर भी छपी थी. (शायद नेट पर भी उपलब्ध हो वो तस्वीर) .अब उस इलाके में जिस स्त्री ने भी पहली बार छतरी ली होगी..उसे तो ना जाने कितनी बातें सुननी पड़ी होंगी..कितना विरोध सहना पड़ा होगा. 

पता नहीं...ये सब सोच सोच कर ही एक थकान सी तारी हो जाती है,मन पर. किन किन चीज़ों के लिए आखिर लड़ें  महिलाएँ??. ब्लाउज पहनने के अधिकार के लिए,..चप्पल पहनने के लिए....छतरी लेने के लिए... इतनी छोटी-छोटी चीज़ों के लिए भी उन्हें लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ती है...ताने सुनने पड़ते हैं..प्रताड़नायें झेलनी पड़ती हैं...विरोध सहना पड़ता है. फिर बड़ी चीज़ों के लिए तो उनका संघर्ष दुगुना-चौगुना-सौ गुणा  हो जाएगा..बहुत ही त्रासदायक स्थिति है. 

बस हौसला बना रहे...बहुत लंबा है,सफ़र और मंजिल बहुत दूर. दरख्तों का साया भी नहीं..पैरों तले समतल जमीन भी नहीं...आस-पास खुशनुमा वातावरण भी नहीं...जंगली जानवरों से बचते,उसी कंटीली खुरदरी जमीन पर लहुलुहान पैरों से चलकर आने वाली पीढ़ियों के लिए रास्ते बनाने हैं...कि उन्हें तो मंजिल मिले. 

83 टिप्‍पणियां:

  1. औरतों के संघर्ष की गाथा लिखने के लिए ज्यादा दूर जाने की ज़रुरत नहीं है ..अपने परिवार की बड़ी बूढियों के क़िस्से काफी है समझने के लिए ..जो बातें पुरुषों को सहज है उनके लिए नारी को संघर्ष करना पड़ता है ..ऊपर से ये सब इतना ज्यादा समाज में भर चुका है ..उसे नोर्मल प्रक्टिस समझा जाता है... उसके सुबह उठने से लेकर बात करने बैठने सोने खाने हर बात के नियम है ...कुछ मिठाइयाँ इस लिए नहीं खा सकती क्योंकि बेटे की माँ है ....

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    1. OMG !!ये तो पता नहीं था...कौन कौन सी मिठाइयां,सोनल??...और किस प्रदेश में.?? मैं ऐसी ही प्रतिक्रियाओं की अपेक्षा कर रही थी कि पता चले..आज भी कहाँ-कहाँ पर कैसी कैसी बंदिशें अब तक हैं.

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    2. मेरे ससुराल में बेटे की मां पेठा नहीं खाती ...ना मिठाई ना सब्जी (अब की पीढ़ी सब खाती है ) सासू माँ ने जब बताया तो मैं भी चौक गई थी

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    3. और जानती हो सोनल पेठा क्यों नहीं खाती थीं ये पुत्रवती महिलायें? क्योंकि पेठा सफ़ेद कद्दू से बनता है, और सफ़ेद कद्दू की बलि दी जाती है :) लम्बी कहानी है इसकी भी :)

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    4. वो कहानी भी शेयर की जाए

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    5. Kaddoooooooo is my favorite veggie !!!!. My mother makes very nice Pumpkin with raw mango ( amchoor ) and sometimes with Tamarind ( imli ). Rashmi Ma'm , I request you to write 1 post specifically on different recipes of Pumpkin . There are various ways to prepare Pumpkin . It would be nice to learn Pumpkin because it seems the readers of your blog belong to different parts of country , so they will contribute spicy comments :-)

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    6. हाँ रश्मि ज़रूर शेयर करूंगी :)

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  2. अब ये बातें पुरानी हो चुकी रश्मि जी . अब लड़कियां / महिलाएं ऐसे कपडे पहनती हैं की देखने वाले को ही शर्म आ जाए . हालाँकि इस मामले में अभी भी बहुत विभिन्नता है . महिलाओं का पहनावा उनके सामाजिक स्तर पर भी निर्भर करता है . बहुत अधिक अमीर और बहुत अधिक गरीब - कम से कम कपड़ों में काम चला लेती हैं .
    मंदिरों में पुरुषों की तानाशाही भर्त्सनीय है .

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    1. ये बातें सिर्फ महानगरों..बड़े शहरों के लिए पुरानी हो गयी हैं...काश !! हमारे देश के हर गाँव..हर कस्बे के लिए ये सब गए दिनों की बातें हो जातीं.

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    2. दलितों के साथ जो हुआ - उससे हमारा हिंदू समाज कमजोर ही हुआ है.. जातिवय्व्स्था कभी किसी जमाने में फायदे ले लिए बनाई होगी, परन्तु इसने समाज का नुक्सान ही किया है.

      @डॉ दराल ने जो बात कही है - हो सकता है कि वो पोस्ट से हट कर हो, परन्तु ये सत्य है कि आज की तथाकथित मोड युवा के कपड़ों को गाइड लाइन की आवश्यकता है...

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    1. क्यों भावना जी? आप भी तो इसी समाज में रहती होंगी. बस जरा यहाँ वहाँ नजर डालिए और स्त्री होने की सजा अपने आस पास देखिए.
      घुघूतीबासूती

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  4. बात चली तो बताते चले कि आज भी देखा है , कभी सब्जी खरीदने खड़े हुए और छोटा सा कद्दू लिया पूरा साबुत तो आस पास वाली कहेंगी इसको तुम मत काटना, अगर बैंगन में दो बैंगन जुड़े हुए या फिर केले में ऐसे ही जुड़े हुए तो काटने के लिए मना किया जाता है . ये उनका दर्शन है जो अपने घर में बड़े बूढों से सुनाती चली आ रही हैं.

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    1. सुनती चली आ रही हैं...पर तर्क देकर इस बात का विरोध नहीं करतीं...बल्कि आने वाली पीढ़ियों को भी इसी अंधविश्वास की थाती सौंप जाती हैं.

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    2. नहीं आज की पीढ़ी अन्धविश्वास को मानती ही नहीं उन्हें तर्क सहित समझाना पड़ता है , ये बंधन कई दशकों पहले के हैं, हाँ आदिवासियों और शिक्षा से दूर अभी ये अन्धविश्वास पल रहे हें.

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  5. जैसे रात को पहरेदार आवाज लगाते थे, 'जागते रहो', मैं कहूँगी कि हमें आवाज लगानी चाहिए 'लड़ते रहो।'
    १९३५ में जब माँ विवाह कर गाँव गईं तो उन्हें अपनी स्वतंत्रता के साथ अपने जूते, सैंडल व चप्पल भी स्त्री होने की सजा में त्यागने पड़े।
    घुघूती बासूती

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    1. घुघूती जी के कमेन्ट को हमारा भी माना जाए !

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    2. ओह!! तो ये स्त्रियों के चप्पल ना पहनने की बात ऊँची जातियों में भी थी. वैसे स्त्री की क्या ऊँची और क्या नीची जात..एक ही जाति होती है

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    3. घुघूती जी को दिया गया प्रत्युत्तर आपके लिए भी समझा जाए :)

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  6. अभी तो और भी लंबा रास्त्र भी तय करना है स्त्रियों को ... पुरुष मानसिकता अभी भी बरकरार है ... कभी कभी तो लगता है की ये एक सतत प्रक्रिया की तरह है ... कुछ नए हक मिल जाएंगे नई बंदिशें भी लग जायंगी ...

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    1. बहुत कड़वी पर सच्ची बात कह दी आपने..पुरानी बेड़ियाँ उतरती नहीं कि कई नई बेड़ियाँ आ जाती हैं.

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  7. रश्मि, आपके ब्लॉग पर लगता है am pm गड़बड़ा गए हैं। कृपया ठीक कर लीजिए। अन्यथा लोग सोचेंगे कि सुबह ३ बजे हम स्त्री विमर्श करने लगती हैं।
    घुघूती बासूती

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    1. दक्षिण भारत में पहले रिवास था कि पति की थाली में ही खाना खाना होता था पत्नि को..उसका बचाया हुआ....एकदम नागवार गुज़रा..
      फिर माँ ने बताया कि उसके पीछे एक अच्छाई निहित थी कि इस तरह पाती अपनी थाली भरवा कर अपनी पत्नि का भर पेट भोजन सुनिश्चित कर लेता था...
      ढेरों बातें हैं मगर अब भी ,जो हजम नहीं होतीं...
      सस्नेह
      अनु

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    2. GB
      पोस्ट पर का A M तो ठीक कर दिया..कमेन्ट वाला नहीं पता चल रहा..कैसे करते हैं...लेती हूँ किसी की मदद.

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    3. दक्षिण ही नहीं...उत्तर भारत में भी ऐसा रिवाज़ था और क्या पता...आज भी कहीं अस्तित्व में हो.

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  8. अबूझमाड़ और दक्षिण बस्तर के अनेक क्षेत्रों की महिलायें और पुरुष आज भी बहुत ही कम... नाम मात्र के वस्त्र पहनते हैं। वन और गिरि क्षेत्रों के लोग वस्त्रों को अधिक महत्व आज भी नहीं देते। पता नहीं ह्वेनसांग ने अपनी भारत यात्रा में यहाँ के लोगों को किस स्थिति में देखा होगा? सन 1800 में भारत में साक्षरता दर योरोप से कई गुना अधिक यानी 97% थी ..ऐसा ब्रिटिश दस्स्तावेज़ों में उल्लेखित है। आश्चर्य है कि इतने साक्षर भारत में महिलाओं की स्थिति ऐसा थी ? मैंने सुना है कि दक्षिण भारत के कुछ समाज मात्र सत्तात्मक हुआ करते थे, तब भी ऐसी स्थिति कि वस्त्र पहनने की अनुमति नहीं?

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    1. यही तो आश्चर्य की बात है..केरल में मातृसत्तात्मक समाज है...फिर भी वहाँ ऐसी परम्पराएं पलती रहीं.

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    2. स्त्रियोंके वस्त्र न पहनने की हर घटना को उसके खिलाफ न माना जाए। जैसे कि अबूझमाड़ की वनवासी महिलाओं (पुरुषों में भी) में कपड़े कम या न पहनने की अलग कहानी है। वहां तो स्त्री विमर्श जैसे किसी मसले की (मेरी जानकारी में) कोई जरूरत ही नहीं है। दिक्कत तब है जब कि किसी की इच्छा के विरुद्ध उसे शर्मनाक स्थिति में डाला जाए। वैसे कविवर के उपन्यास चोखेर बाली में भी बाली की मित्र को अंग्रेजी चलन की नकल पर उसका पति पहली-पहली बार ब्लाउज सिलवा देता है। अन्यथा बाकी औरतें ब्लाउज नहीं पहनतीं।

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  9. क्या प्रतिक्रिया दूं ??!! हर किसी क्षेत्र में महिलायें आज भी बहुत दबी हुयी हैं .
    अब व्यथा कथा लिखने से बेहतर है , अपनी हैसियत के हिसाब से विरोध की कोशिश करते रहो . Keep fighting .

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  10. शुक्रिया कि आपकी वजह से अनुराधा जी का आलेख भी पढ़ पाई। वाकई अलग-अलग जगहों में अलग-अलग प्रतिबंध (परंपराओं के नाम पर) हैं, लेकिन कॉमन चीज बस यह है कि ऐसे सभी प्रतिबंध स्त्रियों पर ही थोपे जाते हैं...

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    1. सत्य वचन..कॉमन बस यही है..स्त्रियों को ही झेलना पड़ता है...आज तक भी.

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  11. बिलकुल चौंका देने वाली और हतप्रभ कर देने वाली तत्कालीन व्यवस्था |आभार

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  12. Waise bhala ho angrejo ka.....stree swatantrataa k liye bahut se kaam kiye. :D

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    1. पर कब तक...अनंतकाल तक?

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    2. प्रवीण जी, इस लड़ाई में पुरुषों की भूमिका भी सुनिश्चित की जाए :)

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  14. rashmi ji

    naari ko aaptti bhi karni ho to purush ki pasand ki karni hotii haen

    maenae isiiliyae hameshaa kehaa hae alekh jagiyae , naari ko sashkat kijiyae aur kahin bhi kisi bhi naari kae prati , naari jaati kae prati anadar daekhiyae to sab kuchh bhul kar

    VIRODH DARJ KIJIYAE

    naari kae chitro ko daekhiyae hatvaaiiyae

    kyuki IGNORE KARNAE SAE kuchh nahin hotaa

    lijiyae yae link daekhiaye
    http://amit-nivedit.blogspot.in/2012/08/blog-post_22.html

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    1. ignore karne se apna samay bachta hai...bas yahi hota hai...aur bekaar ka sardard nahin mol lena padta.

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  15. रश्मि, स्त्री की वर्जनाओं की क्या कहें? आज बहुत सारी महिलाएं हम लोगों जैसी स्वतन्त्र भी हैं, जो अपने विचार खुल के प्रकट कर पाती हैं, लेकिन आज भी गाँवों या छोटे शहरों की मानसिकता बहुत नहीं बदली है. तमाम वर्जनाएं आज भी अपनी जगह मौजूद हैं. पता नहीं कैसे कैसे अंधविश्वास जड़ें जमायें हैं. देख-सुन के मन खराब हो जाता है. कोशिश इन मिथकों को तोड़ने की ही करती हूँ, लेकिन पीढ़ियों से जमे ये अंधविश्वास पता नहीं कब ख़त्म होंगे :( ये अलग बात है, की आज महिला की स्थिति में बहुत सुधार आया है. पुरुष मानसिकता भी बदली है.

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    1. बदलाव तो आया ही है..किसे इनकार पर शिकायत इसकी कछुए की सी गति से है.

      जब डेढ़ सौ साल पहले केरल की स्त्रियों का विरोधस्वरूप पूरे कपड़े में घर के बाहर निकलने की बात सुनी तो याद आ गयी...गुवाहाटी वाली घटना इस घटना पर कॉलेज की लड़कियों के एक ग्रुप को कहते सुना.."दूसरे दिन गुवाहाटी की एक-एक लड़की को स्कर्ट में सड़कों पर आ जाना चाहिए...देखें ये मवाली अपने अंदर के जानवर को कैसे जगाते हैं.."

      स्थितियाँ बदल रही हैं..घटनाओं का स्वरुप बदल रहा है...संघर्ष तो यथावत जारी है.

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  16. किसी भी प्रथा के पीछे कभी एक संयत विचार रहा होता है। लेकिन कालांतर में वह रुढ़ि बनकर शोषण,प्रताड़ना बनकर दिखाई पड़ता है। जैसे महावीर स्वामी ज्ञान प्राप्ति के बाद इतना हल्का महसूस करते थे कि कपड़े उन्हें भार मालूम होने लगे,सो उन्होंने कपड़े त्याग दिए। लेकिन उनके पीछे चलने वाले लोगों ने कपड़े उतार कर स्वयं को मुनि कहना शुरु कर दिया। तो हमें किसी प्रचलन का मूल समझना होगा। अनु जी भी कुछ ऐसा ही संकेत कर रही हैं।

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    1. हाँ, अक्सर ऐसा ही होता है ,बिना सोचे -समझे आँखें बंद कर उन प्रथाओं का पालन किया जाने लगता है.

      एक प्रसंग सुना था ,एक ऋषि थे , उनके पास के बिल्ली थी,वे जब भी यज्ञ करते ,वो विघ्न डालती. इसलिए उसके गले में रस्सी डाल,वे उसे पास ही बाँध देते. उनके शिष्यों ने भी उन्हें ऐसा करते देखा था और उनकी मृत्यु के पश्चात, बिल्ली के नहीं रहने पर भी वे कहीं से एक बिल्ली ढूंढ कर लाते,उसे पास में बाँध कर ही यज्ञ शुरू करते. यह परंपरा कई पीढ़ियों तक चलती रही.

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  17. मैंने भी अनुराधा जी का लेख पढ़ा था. लेकिन ये जानकारी मुझे पहले से थी. इसीलिये बहुत आश्चर्य नहीं हुआ.
    औरतें हर युग में अलग-अलग स्तर पर अलग-अलग अधिकारों के लिए लड़ती आयी हैं. कभी उन्हें डराकर चुप करा दिया गया, तो कभी भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल करके.
    आज भी वही होता है. दिल्ली की लड़कियों के आधुनिक पहनावे को लेकर लोग भारत की सारी युवतियों को संस्कृति का दुश्मन बता देते हैं, वहीं दिल्ली से कुछ सौ किलोमीटर दूर बागपत में औरतों को मोबाइल रखने और लड़कियों को जींस पहनने पर पंचायतें फतवा जारी कर देती हैं.
    मेरी भतीजी डी.यू. में पढ़ती है, जींस-टॉप पहनती है और गाँव जाती है, तो जींस यहीं छोड़ जाती है. खुद उसके पिता उसे जींस पहनने से मना करते हैं क्योंकि गाँव में 'अच्छा नहीं लगता.' लड़कों को कोई रोक नहीं.वो कहीं भी कैसे भी कपड़े पहनें.
    और हाँ, कद्दू हमारी अम्मा भी भाई से ही कटवाती थी. कहते हैं कद्दू लड़का होता है :)

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    1. यही तो मुश्किल है,अराधना..
      किसी विधि चैन नहीं स्त्रियों को.छोटी से छोटी चीज़ भी उन्हें बिना लम्बी लड़ाई लड़े, हासिल नहीं होती.

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  18. ऐसी अनगिनत परम्पराएँ और नियम हैं जो हैरान तो ज़रूर करते हैं | हमारे आसपास भी खूब बिखरे पड़े हैं ऐसे उदाहरण .....

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    1. अब उन परम्पराओं में बदलाव आने चाहियें .

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  19. तुम्हारी पोस्ट पढ़कर कुछ ध्यान में आया , शेयर कर रही हूँ . राजस्थान के शेखवाटी अंचल में महिलाओं के विशेष लहंगा ओढ़नी पहनने में एक अजीब सा रिवाज़ है . चेहरा पूरा घूंघट में ,और सामने छाती बिलकुल खुली ( हालाँकि ये महिलाएं खुखरी हाथ और जबान में लिए हुए ही चलती है , मजाल है किसी की जो ...) ...मेरी बहुत बहस हो जाती थी इन महिलाओं से कि ये क्या रिवाज़ है , अच्छा ख़ासा चेहरा छिपाना और जो ढकना है उसे ही उघाडा जाए ...क्या पता इस प्रथा का लिंक तुम्हरी पोस्ट से हो !
    ऐतराज और उस पर होने वाले संघर्ष की दशा और दिशा जरुर बदली है , मगर कई बार लगता है कि गोल चक्कर में ही घूम रहे हैं !

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    1. कितनी अजीब सी बात है..पर औरतों को ही इस बदलाव की शुरुआत करनी चाहिए .
      पर उनके भीतर इस बदलाव की ताकत और समझ ..शिक्षा से ही आएगी

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    2. शेखावटी यात्रा के दौरान मैंने भी ऐसा ही देखा था और बहुत अजीब लगा था ...

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    3. "जो ढकना है उसे ही उघाडा जाए" "शेखावटी यात्रा के दौरान मैंने भी ऐसा ही देखा था और बहुत अजीब लगा था ..."

      ऐसी सभी टिप्पणियां मुझे पुरुषवादी विचारों को पोषित करती लगती हैं। यहां भी वही, अपनी इच्छा की बात है। कोई महिला अपना सीना भी छुपाए तो क्यों? क्या वह उसके शरीर का कई शर्मनाक हिस्सा है, जिसे कोई देख ले तो औरत शर्मिंदा रहे?

      अपने शरीर के हिस्सों पर शर्मिंदा होना भी हमें पुरुषों ने ही सिखाया है, उन्होंने ही तय किया है कि जो किसी जगह पर छिपाया जाना है, वही कहां उघाड़ना भी है। घर-परिवार में चुन्नी लो, शरीर ढको, लेकिन चमकीली पत्रिकाओं, विज्ञापनों में खूब उघाड़ो। पुरुष एक साथ दो लगाम थामे हैं और हमें दौड़ा रहे हैं। हम मूर्ख औरतें उनके लगाम का इशारा होने पर हांफती-थकती भी दौड़ती चली जा रही हैं।

      मैं अपने स्तन/सीना क्यों छुपाऊं, जबकि उन्होंने ऐसी कोई गलती नहीं की। न ही मैंने ऐसी कोई गलती की कि मैं अपने शरीर को लेकर शर्मिंदा होऊं। पुरुष गर्मियों में क्वार्टर पैंट में, ढीले-ढाले बरमूडा में, सैंडो बनियान में 'कूल' लगते हैं, उन्हें किसी की शर्म की चिंता नहीं करनी पड़ती। मेहमान घर पर आ जाएं तो उन्हें संकोच नहीं होता (होना भी नहीं चाहिए) लेकिन औरतें क्यों दरवाजा खोलने से पहले चुन्नी लेने घर के भीतर भागती हैं? अपना शरीर अगर शर्म का विषय है तो हमारा पूरा वजूद भी, क्योंकि शरीर नहीं, तो हम कहां। हमें अपने शरीर पर, वह चाहे जैसा है, चाहे जिस आकार-प्रकार में है (या नहीं है- जैसे कि मेरे स्तन- जी, मैं बताना चाहती हूं कि मेरे दोनों स्तन कैंसर के इलाज के लिए निकाल दिए गए और मुझे अपने शरीर को इस तरह स्वीकारने और किसी के सामने आने में कभी कोई परेशानी नहीं होती) गर्व करना सीखना होगा, तभी हम इसकी इज्जत कर पाएंगे और अपना सम्मान पुरुषों से छीन कर ले पाएंगे। वरना बदलाव सिर्फ चुन्नी का कपड़ा, रंग या स्टाइल बदलने तक ही सीमित रह जाएगा।

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  20. रश्मि तुम्हारे articles बढ़िया और सहज तो होते ही हैं (जो की एक बहुत बड़ी खूबी है लेखन की ) इसलिए बड़ा मज़ा आता है उन्हें पढने में ..लेकिन ज्यादा मज़ा आता हैं..उसके बाद की प्रतिक्रियाओं में ...सबका अपना दृष्टिकोण ...सबका अपना अपना contribution and the ensuing dialogue that takes place ....It is a great pleasure..Keep it up.

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  21. आपकी पोस्ट से कई ऐसी बातें पता चली जो कम से कम मेरे लिए तो बहुत नई है खासकर ये कद्दू वाली बात।वैसे एक तरीके से अच्छा है कि ऐसी बेसिरपैर की बातो का प्रचार अब उतना नहीं होता।पुरुष महिला को वैसा ही बनाना चाहता है जैसा वह उसे देखना चाहता है संस्कृति धर्म आदि बस बहाना है और ऐसा केवल हमारे यहाँ नहीं होता मैंने जापान के बारे में सुना था कि यहाँ छोटी छोटी बच्चियो को ऐसे तंग जूते पहनने को दिए जाते थे ताकि उनके पैरों का आकार न बढ़ सके।
    लेकिन कुछ तो ऐसा करना होगा कि महिलाओं के लिए समाज की सोच बदल सके।नई पीढ़ी को जो सामाजिक ट्रेनिंग महिलाओं के खिलाफ दी जा रही है इसके प्रति सतर्क रहकर बदलाव की कोशिश करनी होगी क्योंकि यह ट्रेनिंग खासकर लड़कों को बहुत असरदारर ढंग से दी जा रही है।

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  22. मैंने लड़कों की ट्रेनिंग की बात की है तो चलिए अपना एक छोटा सा अनुभव शेयर करता हूँ।मैं पिछले साल जिस कंपनी में काम करता था वहाँ यूपी के रहने वाले मेरे एक मैनेजर थे स्वभाव के बहुत अच्छे।मेरा बल्कि हम सभी जूनियर्स का उनके साथ एक तरह से दोस्ताना संबंध था।एक दिन मैं कैटीन में उनके साथ कॉफी पी रहा था तभी महिलाओं को लेकर ही कोई बात चल गई उन्होंने बातों ही बातों में मुझे सीख देनी शुरू कर दी कि राजन कोई औरत को एक बार आपने सिर पर चढ़ा लिया तो फिर वो कभी नहीं उतरेगी अगर अपनी इज्जत करवाना चाहते हो तो उन्हें जितना हो सके दबाकर रखो।जब उन्हें लगा कि मैं उनकी बातों पर ज्यादा ध्यान नहीं दे रहा तो उन्होंने एक तरह से मेरा मजाक उडाते हुए कहा कि तुम अभी बच्चे हो अभी तुम्हारी शादी भी नहीं हुई लेकिन जब हो जाएगी तब कुछ समय बाद मेरी बातें याद आएँगी।थोड़ी इधर इधर की बातों के बाद में उन्होंने अपनी जेब से एक चाबी निकालकर दिखाते हुए कहा कि ये मेरे उस कमरे की चाबी है जिसमें टीवी रखा है।क्या करें कंट्रोल करना पड़ता है हम यहाँ मेहनत करते है और बीवी आराम से घर पर बैठी टीवी देखती रहती है।मैं तो बस उसकी शकल ही देखता रह गया कुछ कहते बना ही नहीं।

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    1. आपका यह अनुभव तो शॉकिंग है. ओह!! आज भी ऐसे लोग हैं.

      वे महाशय ऑफिस में काम करते हैं,कैंटीन में चाय भी तो पीने जाते हैं, सहकर्मियों से गप-शप भी तो करते हैं.
      पर उनकी पत्नी टी.वी. नहीं देख सकती. बहुत ही दुखद है उनका ऐसा सोचना.
      लोग ये भी नहीं सोचते कि महिलाओं के गृह - कार्य में कितनी एकरसता है..वही रोटी-दाल-चावल बनाना ..कपड़े धोना -सुखाना..घर की साफ़-सफाई.
      एक सा काम वे वर्षों से करती आ रही हैं, उन्हें भी तो बदलाव चाहिए.

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  23. I am puzzled !!
    एक बार कुछ उल्टा सोच कर देखिये . मान लो महिलायों को कपडे पहनना ज़रूरी होता और पुरुषों को कपडे ना पहनने की छुट होती . तब हम यह कहते स्त्रियों पे ये ज़ुल्म क्यूँ .. उन्हें भी आज़ादी है खुले बदन घूम सकने की . तब हम कपड़ों के विरोध में प्रदर्शन करते और कपडे ना पहनने कि स्वतन्त्रता प्राप्त करते .
    The point here is not to make rules for any gender . M i right ?

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    1. Absolutely right U r..Its not abt clothes or anything...just about dominance. Male or female, if they r mature they can take their own decision . nobody has the right to impose one's view on others or dictate other's life .

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  24. रश्मि जी नमस्कार...
    आपके ब्लॉग 'अपनी उनकी सबकी बातें' से लेख भास्कर भूमि में प्रकाशित किए जा रहे है। आज 24 अगस्त को 'किन-किन चीजों के लिए लड़ें महिलाएं' शीर्षक के लेख को प्रकाशित किया गया है। इसे पढऩे के लिए bhaskarbhumi.com में जाकर ई पेपर में पेज नं. 8 ब्लॉगरी में देख सकते है।
    धन्यवाद
    फीचर प्रभारी
    नीति श्रीवास्तव

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  25. लड़ने से बेहतर है करे ... कोई बोले तो चुपचाप यूँ देखे कि सुना नहीं -

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  26. हमारे गांव में दकियानूसी मान्यता थी कि औरत अगर नींबू के पेड़ को छू दे तो वो पेड़ फलेगा नहीं। भला स्त्री जिसे ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ कृति माना जाता हो और जो जगज्जननी हो, उसका स्पर्श क्या किसी पेड़ को फलने से रोक सकता है? नाश हो एसे समाज का और ऐसे धर्म का।

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    1. पता नहीं किस तरह और किस बात का भय है जो स्त्रियों पर बंधन लगाने के लिए उकसाता रहता है.

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  27. हमारे यहाँ नारियल कोई महिला नहीं फोड़ सकती है हा एक बार क्रैक आ जाये फिर कोई बात नहीं.

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    1. ऐसे रिवाजों का स्त्रियों को ही विरोध करना चाहिए .

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  28. बहुत पहले टीवी पर संजय खान का टीपू सुल्तान देखा था उसमे इस किस्से से मिलता जुलता किस्सा दिखाया गया था , जब वो केरल गया तो उसने देखा की वो हाथी पर बैठा था और उसके दोनों तरह खड़ी महिलाओ ने बस ब्लाउज और लुंगी ही पहन रख था ऊपर से कोई टुपट्टा नहीं लिया था इस पर उसे काफी आश्चर्य होता है क्योकि देश के अन्य भाग में महिलाए ऐसे कपडे नहीं पहनती थी तो उसे बताया जाता है की इन महिलाओ को चुन्नी लेने की इजाजत नहीं है ,उसने तुरंत ये निर्देश दिया की ये नियम बदला जाये |
    मात्र आज से ३० साल पहले मुंबई में रह रहे उत्तर भारत के एक ऊँची जाती के व्यक्ति अपनी बहु को निर्देश दे रखे थे की किचन में खाना बनते और परोसते समय वो ब्लाउज नहीं पहनेगी , इस किस्से को सुना तो दो बाते मन में आई पहली की ससुर जी का चरित्र कैसा था , दूसरी कही ये जाति वाला बात तो नहीं है की कपडे सिलने वाला दर्जी छोटी जाति का होता है , फिर ये भी लगा की कपडे बनाने का काम भी छोटी जाति वाले ही करते है ( एक मोटा मोटी माने तो ) फिर ये परहेज कैसा |
    हमारे यहाँ भी है की जब आप को पहली संतान पुत्र हो तो भगवन को धन्यवाद कहने के तहत किसी एक फल या सब्जी का त्याग करना होगा हमरा यहाँ कद्दू तो खाते है किन्तु लौकी नहीं , हमारी बुआ खीरा तो खाती है ककड़ी नहीं | कई बार कुछ नियमो का पालन बिना किसी सोच के कर लिया जाता है क्योकि हमारे घर में समाज के दृष्टिकोण से लड़को का जो महत्व होता है वो तो है किन्तु लड़कियों को भावनात्मक रूप से और यहाँ तक की घर में फैसले लेने में लड़कियों को महत्व दिया जाता है लड़को को नहीं और आदर सम्मान भी , यहाँ तक की जिस गणेश चौथ पर बस पुत्र होने वाली स्त्रिया ही व्रत रखती है वहा मेरी दादी घर की सभी महिला को व्रत रखवाती है ये कह कर की ये व्रत संतान के लिए है बस पुत्र के लिए नहीं फिर भी ये त्यागने वाला नियम माना गया , हा मेरी दीदी ने और उसके बाद किसी ने इस त्यागने वाले नियम का पालन नहीं किया है |

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    1. ऐसे फैसले लेने की छूट देने का क्या महत्व है...जहाँ सिर्फ ये तय करना हो कि क्या खाना है..क्या नहीं.
      महत्वपूर्ण फैसलों का अधिकार मिले, तो कोई बात हो.

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    2. रश्मि जी
      आज तो आप ने अपने मिया मिठ्ठू बनने का मौका दिया है सोच रही हूं छोडू नहीं :)
      मेरे घर में जब से मैंने होश संभाला था तब से ही अपने दादी को घर का सर्वोच्च के रूप में देखा और उनके ५ माता भक्त पुत्र , ( तीन पुत्रिया नहीं क्योकि वो बड़ी समझदार थी और जरुरत पड़ने पर माँ के साथ बड़े भाइयो की बात काट भी देती थी और ये हिम्मत बस उन्ही में थी ही ही ही ही ही ) तो घर के हर फैसले वो करती थी और बाद में ये अधिकार ४ पुत्रो से छोटी बेटियों को मिला | एक बार आप की पोस्ट पर अली जी ने कहा था की एक माँ ही अपने बेटियों को आगे लाने का काम कर सकती है, तो वही हमारे घर में भी था , पुरुष एक ही काम करते थे " बोला पैसा कितना चाहिए " मतलब बाकि चीजो को तुम लोग देख लो भला बुरा दोनों के जिम्मेदार लड़किया ही होंगी , मुझे याद है उस ज़माने में जब बुआ ने बी एच यु में एम ए करने की इच्छा जाहिर की तो एक टिपिकल बड़े भाई की तरह चाचा ने दादी से कहा की नहीं पढ़ना है क्योकि कल को उतनी दूर से आने में जरा भी देर हुई तो तुम हम लोगों को इसे लाने के लिए उतनी दूर भेजोगी ,( पुत्र बस इस तरह के कारण ही दे सकते थे ) दादी ने बुआ की पीएच डी वहा से पूरी करवाई , यहाँ तक की मेरा छोटा भाई पढाई क्या करेगा ये हम दोनों बहनों ने तय किया ( शुरू में उसे पसंद नहीं था क्योकि वो पापा की तरह बिजनेस करना चाहता था किन्तु आज बहुत खुश है किन्तु क्रेडिट हमें नहीं मिलता है :( ) संभवता इसकी दो वजहे है एक तो घर में दादी के बाद सभी को बड़ी बेटी है और अक्सर बड़े बच्चो को घर के फैसलों में साथ लिया जाता है , दूसरे सभी लड़किया पढाई और समझदारी में लड़को से होशियार थी और अपने साथ ही दूसरो के लिए भी फैसले लेने की हिम्मत उनमे थी |

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    3. अंशुमाला ,
      यह तो सचमुच गर्व करनेवाली बात है और प्रेरक भी. आपकी दादी को नमन . यह भी कई घरों का सच है ,जहाँ माँ की इच्छा को ही सर्वोपरि माना जाता है और उनसे सलाह ली जाती है. हम सब स्त्रियाँ जो यहाँ खुलकर अपने मन की बात कह पा रही हैं...यह कहने की स्वतंत्रता ,खुद को अभिव्यक्त करने की क्षमता, शिक्षा सब हमें अपने घर की उदार नीति के तहत ही मिला है.

      पर यहाँ जिक्र पूरे समाज का है..जहाँ हर घर में इस तरह की स्वतंत्रता मौजूद नहीं है. अमुक सब्जी नहीं काटना...अमुक मिठाई नहीं खाना..नारियल नहीं फोड़ना..(जिनका जिक्र लोगो ने टिप्पणियों में किया है...मुझे तो इन सबकी कोई जानकारी नहीं थी ) निश्चय ही इन नियमों का पालन स्त्रियाँ ही करती हैं और करवाती हैं...पुरुषों का इनमे कोई हाथ नहीं होता. (उन्हें ये सब पता भी नहीं होता होगा) . इसीलिए कहा कि इन छोटी-मोटी चीज़ों के निर्णय लेने की स्वतंत्रता का कोई महत्त्व नहीं.
      ये सारे अंधविश्वास भी धीरे-धीरे छाँट जायेंगे जब स्त्रियों को शिक्षा का अधिकार मिलेगा और उनमे जागरूकता आएगी. ये सब देश के हर गाँव कूचे के लिए कहा गया है.

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    4. पहली बार आपके ब्लाग पर आई और महिला मुक्ति पर चल रही वार्ता में शामिल होने का लोभ संवरण नहीं कर पा रही।
      यहां पर जितनी भी तरह की प्रथाएं बताई गई हैं , वो सभी प्रथाएं देख सुन कर आगे बङ़ती हैं।यदि हम सचमुच यह चाहते हैं कि इन प्रथाओं का अंत हो तो सबसे पहले अपनी आने वाली पीढी़ से छुपाये रखना होगा। किसी भी परिवार में बच्चों के प्रति प्रेम के चलते अगर उसे इन बुराईयों से बचा सकें तो इन बुराईयों को विलुप्त होते देर नहीं लगेगी, हाँ, निर्णय तो स्वयम् महिलाओं को ही लेना होगा।बडे़ शहरों में स्थिति काफी बदली है पर गांव में अब भी शिक्षा की आवश्यकता है।
      बहुत बडा़ बदलाव लाने से पहले हर एक को अपने स्तर पर कोशिश करनी होगी। स्त्रियों को एक दूसरे की मदद के लिये आगे आना होगा। स्वयम् पर यह विश्वास रखना होगा कि वे जो कुछ कर रही हैं वो सबके हित में है।

      आपको बधाई रश्मि जी इस पोस्ट के लिये।

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  29. मुझे बहुत देर हो गयी.. खैर! बंगाल में कोलकाता को निकाल दें तो एक बहुत बड़ा इलाका ग्रामीण ही है.. मैंने वहाँ रहकर भी देखा है कि वहाँ की ग्रामीण महिलायें आज भी उपरिवस्त्र नहीं पहनती हैं.. मैं जहाँ रहता था वहाँ पास में एक परिवार था कोलकाता में, उनकी बहु सुबह की रसोई बनाते समय ब्लाउज नहीं पहनती थीं.. ससुर का चरित्र अच्छा था, क्योंकि पुरुष (उस स्त्री का पति भी) रसोई में नहीं जाते थे.

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    1. सलिल जी
      "चरित्र की बात इसलिए की कि ये बात कोई १०० साल पुरानी नहीं है मात्र ३० साल पहले कि है और मुंबई जैसी जगह की है किसी गांव खेत की नहीं जहा समाज का डर या परम्परा आदि की बात की जा सके, उस पर से यहाँ बड़े घर नहीं होते थे एक ही कमरे में रहते थे और रसोई वही सामने होती थी जहा बहु को वो खाना बनाते सब करते वो देख सकते थे "
      ऊपर दी ये टिप्पणी मैंने पहले ही चोखेर बाली पे दी थी यहाँ भी दे रही हूं , जैसा की आप ने कह कि "क्योंकि पुरुष (उस स्त्री का पति भी) रसोई में नहीं जाते थे " इसी कारण मैंने भी चरित्र कि बात कहै थी मै भी उत्तर भारत से हूं वहा घर बड़े होते है ससुर जेठ से तो सामना ही नहीं होता बहुओं का और जब वो घर में आते भी है तो आवाज लगा देते है ताकि बहुए घूँघट कर ले या हट जाये वहा इस तरह की परम्पराव का पालन किया जा सकता है किन्तु मुंबई की स्थिति ऐसी नहीं थी वहा तो आप घर में है तो बहु सामने ही होते है यहाँ पर इस तरह की पम्पराओ का पालन करना बहुत ही अजीब लगता है | बहुत सी जनजाति है जहा महिलाओ हर समय इस तरह के कपडे पहनती है किन्तु जहा की बात मै कर रही हूं वहा तो उनकी बहु हर समय ब्लाउज पहनती है किन्तु जब खाना बनाना या परसना हो तो उसे उतार दो काम करते समय तो साड़ी को इस तरह संभालना की शरीर अच्छे से ढंका रहे ये संभव नहीं है | मेरे अपने ससुराल में गांव में रह रही बहुओं के लिए सारे नियम थे किन्तु मेरे लिए सभी को ख़त्म कर दिया गया पहली बार ही ससुर जी यहाँ आये तो साफ कहा की ये सर पर पल्ला आदि करने की जरुरत नहीं है मुंबई के छोटे घर में नहीं हो पायेगा , ना तुम आराम से रह पाओगी ना मुझे यहाँ आते अच्छा लगेगा अच्छा होगा ये सब परम्पराए आदि ना ही करो, पर्दे से साथ ही ना जाने कितनी परम्पराए मैंने कभी की ही नहीं जबकि गांव में जा कर उसी ससुर के सामने सब करती थी क्योकि वहा बाकि समाज आदि भी था | समय और जगह के हिसाब से व्यक्ति को बदल जाना चाहिए ऐसी मेरी नीजि राय है |

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  30. किस किस की कहें और क्या क्या कहें । यह तो हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता वाली बात है । हमारे गाँव में जो महिला झाडू लगाने आती है अब बूढी हो चुकी है पर मेरी याद में उन्होने कभी चप्पल नही पहनी । चाहे काँटे कंकड भरी राह हो या गर्मियों की दोपहरी । मैं हमेशा टोकती थी कि मामी ( माँ का मायका होने के नाते वहाँ की लगभग सभी महिलाएं मेरी मामी होतीं हैं)तुम चप्पलें क्यों नही पहनती । पहले नही पहनी तो क्या हुआ अब तो पहनो । समय बदल चुका है । लेकिन वह वसन्ती मामी आज भी नंगे पाँव ही चलने को अपना धर्म समझती है ।यह बन्दिशों का ही तो नतीजा है ।

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  31. बहस बहुत लम्‍बी हो गयी है,यह सच है कि महिलाओं केा बहुत लड़ना पड़ता है। भारत में ही नहीं और केवल हिन्‍दुओं में ही नहीं अपितु सारी दुनिया में म‍िहलाओं को लड़ना पड़ा है। यूरोप में महिलाएं चर्च के अधीन थी और पादरियों के कब्‍जे में नहीं आने पर उन्‍हें डायन घोषित ि‍कया जाता था। इसी कारण वहां महिला मुक्ति आन्‍दोलन चला।

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  32. एक बेहतरीन आलेख...
    रश्मि जी, आपका दर्द भी सही और दर्द की वजह भी सही. पितृसत्ता में
    महिलाओं की त्रासदी के बीज बहुत गहरे पडे हुए हैं...आप पेड को तो काटते
    रहो पर फिर भी बीज तो फलते-फूलते और विकसित होते ही रहेंगे...

    आज भी पढी-लिखी शालीन महिलाओं को पुरुषों द्वारा ही आंकी हीडन
    रेखा को पार करते देख पुरुष की आँखों में अनायास गुस्सा आ जाता है,
    आँखें दिखाना या फिर कुछ नहीं बन पाए तो आँखें फेर लेना(वे भी गुस्से
    का ही प्रकार है) आए दिन देखा जा सकता है... और महिलाओं के लिए रह जाती
    है अपराध-भाव ग्रस्त विवशता भरी...जबकि वैसी बातें महिलाओं
    का सरल-सहज रोज़मर्रा का सा व्यवहार ही होता है... लाक्षणिकता ही होती
    है...

    Manzil door hai par kya rukjaana koi ilaaj hai...!

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  33. पहली बार आपकी पोस्ट पे कमेन्ट कर रही हूँ , क्या करूँ रुका नहीं गया ....सच में बहुत सी परम्पराएँ आज भी गावों में ही नहीं शहरों में भी ऐसी हैं जो बहुत अजीब हैं.... मेरा घर तो बनारस में है एक गाँव में पर मुझे बहुत सी बंदिशों के बारे तब तक नहीं पता था जब तक मैं दिल्ली नहीं आयी.... इसके पीछे कारन ये भी हो सकता है की मेरी दादी बहुत सरल स्वभाव की थीं... मम्मी और daddy ने भी कभी हमे लड़की नहीं समझा ....और मैं घर में सबसे बड़ी हूँ...और हम तीन बहने ही हैं तो हमलोगों को किसी बंदिश में नहीं रखा गया पर बाकि गाँव की लड़कियों को देख के बुरा लगता था...हर जगह भेदभाव था लड़के और लड़कियों में.....कुछ घरों में लड़कियों को दूध पिने को नहीं दिया जाता था और मक्खन और घी खाना मन था....मुझे ये बातें नहीं पता थी, मुझे घर का बना मख्खन बहुत पसंद था और मैं खा रही थी.....मेरी दादी मुझे खिला रही थी तभी गाँव की एक बुआ आयी और बोली की इतनी बड़ी हो गयी है लड़की अभी तक मक्खन खाती है....ये सब लडको को खाना चाहिए लड़कियों को नहीं ....बहुत बुरा लगा मुझे पर दादी ने फिर भी खाने दिया और बुआ को भी बोला की हमारे लिए तो हमारी बेटियां ही बेटे भी हैं.....तब से हमेशा मुझे गर्व होताहै की अच्छा हुआ मुझे ऐसे दादा दादी और मम्मी दद्दी मिले......पर जब दिल्ली आयी तो बहुत से नए नियम पता चले....जैसे एक बार मेरी एक दोस्त ने मुझे नारियल तोड़ने से मना कर दिया था ...जबकि अपने घर में हमेशा नारियल मैं तोडती थी.....और भी बहुत किस्से हैं ऐसे

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  34. bahut si dakiyanusi riwaaj kaise bana kyon bana ye ab charcha kar ke kya hasil hoga... haaan inme se bahut kuchh badalne ki jarurat hai... aur badal bhi raha hai...!

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  35. औरतों को हर छोते से छोटे अधिकार को पाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ा है | ये संघर्ष अभी भी जारी है अभी भी हर समाज में कई ऐसी सामाजिक मान्यताएं हैं जिन्हें तोड़ने में सामजिक अवहेलना का शिकार होना पड़ता है | जिसके लिए बहुत हिम्मत की जरूरत होती है | सहज शैली में लिखा गया आपका लेख बहुत अच्छा लगा ... वंदना बाजपेयी

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