शनिवार, 4 अगस्त 2012

निश्छल सी दोस्ती के पावन से दिन

 "मैं कभी बतलाता नहीं.....पर अँधेरे से डरता हूँ, मैं माँ...मेरी माँ .."..फिल्म 'तारे ज़मीन पर '  का यह गीत,  पाषाण ह्रदय को भी द्रवित कर देता है. किसी प्रोग्राम में टी.वी.पर. ..स्टेज पर या पारिवारिक महफ़िल में ही किसी ने भी डूब कर गाया  इस गीत को तो सुनने वालों की आँखें छलक उठती हैं.   फिल्म में तो इसका फिल्मांकन और भी मर्मस्पर्शी है. एक छोटा सा बच्चा हॉस्टल में अकेला अपनी माँ को याद कर उदास है...रो रहा है और बैकग्राउंड में यह गीत बज रहा है. पर मैं  जब भी इस गीत का फिल्मांकन देखती हूँ...मन तो भीगता है..पर कुछ जोर का खटक भी जाता है.

हॉस्टल में ऐसा कभी होता ही नहीं कि कोई नया बच्चा आए और सब उसे अकेला छोड़ दें. जैसा कि इस फिल्म में दिखाया गया है...वो बिस्तर पर अकेला बैठा है..आस-पास बच्चे उछल-कूद,मस्ती कर रहे हैं पर कोई उसकी तरफ ध्यान नहीं दे रहा..ऐसे ही मेस में भी खाने के टेबल पर आस-पास के बच्चे चहक रहे हैं...और इस बच्चे से कोई बात नहीं कर रहा. जबकि असलियत में बिलकुल इसका उल्टा होता है (कहा जा सकता है...फिल्म वाले इतनी छूट ले सकते हैं...पर जब फिल्म की इतनी तारीफ़ होती है,उसे अवार्ड्स मिलते हैं....फिल्म  यथार्थवादी कही जाती है तो ये छोटी बातें खटक  जाती हैं ) .मुझे कुछ ज्यादा ही खटकती हैं क्यूंकि मैं भी उसी उम्र में हॉस्टल में गयी थी...और मेरा अपना अनुभव बिलकुल अलग था . मेरे बाद भी हर साल, हॉस्टल में नई लडकियाँ आतीं और बाकी सब उन्हें घेर कर खड़ी हो जातीं....उनसे तरह-तरह के सवाल पूछे जाते...कभी भी कोई उन्हें एक पल को भी अकेला नहीं छोड़ता. 

मेरा हॉस्टल जाना भी अनायास  ही हुआ. अब मौका भी है तो दस्तूर क्यूँ ना निभा दूँ {शेखी बघारने की :)} . मुझे नेशनल स्कॉलरशिप मिली थी और स्कॉलरशिप की शर्त थी कि अमुक स्कूल में ही पढना है..सो हॉस्टल में एडमिशन हो गया. पर पिताजी हमेशा की तरह व्यस्त थे..मुझे हॉस्टल पहुंचाने के लिए छुट्टी नहीं ले पा रहे थे. सेशन शुरू हो गया था.और एक दिन मैं बरामदे में खड़ी  हो अपने बाकी फ्रेंड्स को स्कूल जाते देख रही थी...ऑफिस जाते हुए पापा की नज़र मुझ पर पड़ी और ऑफिस से उन्होंने चपरासी से माँ को संदेश भेजा कि "तैयारी कर लें...दोपहर की ट्रेन से मुझे हॉस्टल  छोड़ने जाना है ."..माँ तो घबरा ही गयीं..पर खैर,तैयारी तो पूरी थी ही..और आज के स्कूल की तरह नखरे भी नहीं थे...कि ये चाहिए.. वो चाहिए...

हॉस्टल में कई कमरे थे और बीच में एक बड़ा सा हॉल था. मुझे हॉल में ही एक बेड मिला था. माँ के सामने ही बिस्तर बिछा उस पर नई चादर बिछा दी गयी थी. { प्याजी रंग की धारी वाली चादर थी..ये भी याद है..:)} मेरे मन में मिक्स्ड फीलिंग्स थीं. परिवार से बिछड़ने का दुख भी हो रहा था..रोने में शर्म भी आ रही थी..और एक नए माहौल में सिर्फ लड़कियों के बीच रहने  का अलग सा रोमांच भी हो रहा था. मेरी माताश्री ने मुझे थोड़ा एम्बैरेस भी कर दिया था, मेट्रन से यह कह कर कि' इसे अपने बाल कंघी करने और कपड़े धोने नहीं आते ' . मेट्रन ने आश्वस्त किया "कोई बात नहीं...सब सीख जाएगी ..बड़ी लडकियाँ उसकी मदद कर देंगीं. मेरे शहर की ही एक पूर्वपरिचित और सीनियर थीं, 'उषा जयसवाल'. उन्होंने भी माँ को दिलासा दिया..'वे मेरा पूरा ख्याल रखेंगी.." ...जाते समय जब पिताजी ने कुछ नोट और कुछ छुट्टे पैसे दिए तो 'कभी हम खुद को कभी हथेली पर पड़े  पैसे को देखते हैं" वाला हाल हुआ...आजतक पैसे तो मिले ही नहीं थे कभी, वो भी इत्ते सारे....अब ये अलग रोमांचकारी अनुभव .

पैरेंट्स के जाने के बाद लड़कियों ने मुझे घेर लिया...तरह तरह के सवाल कर रही थीं. जब 'स्टडी आवर' आया तो  स्टडी  रूम में सब अपनी किताबें खोल कर बैठ गयीं. पाठ्य-पुस्तकें  मेरे पास भी जरूर होंगीं...पर मैं नंदन या पराग ही  पढ़ रही थी..इतना मुझे पक्का याद है...क्यूंकि मेट्रन के राउंड  लगा कर जाते ही...कुछ लडकियाँ मेरे पास आ कर पत्रिका को  उलट-पुलट कर देखने लगी थीं. 
डिनर के बाद जब कमरे में सब सोने आए, रूम की हेड (हर रूम की एक हेड हुआ करती थीं ) ज्योत्स्ना दी ने बड़े प्यार से बातें की और कहा,' मसहरी ( mosquito net )निकालो..तुम्हारे बिस्तर पर लगा दें .' मैने मसहरी निकाल कर बिस्तर पर रखा ही था कि दूसरे कमरे से तीन -चार लडकियाँ आ गयीं ( हॉस्टल में किसी नई लड़की के आते ही अक्सर ऐसा होता ..सब उसे देखने..उस से मिलने आते  ) .
कुछ देर उनलोगों ने मुझसे बातें की {क्या क्या बातें की..ये अब याद नहीं..:( } फिर आपस में कहा...'इसे अपने रूम में ले चलते हैं...एक बेड खाली है...एक नई लड़की आनी ही है...इसको ही ले चलते हैं..मेट्रन दी से बात करके सुबह शिफ्ट कर लेंगे " वे लोग चली गयीं. 

मैं तो अबूझ सी खड़ी थी. पर ज्योत्सना दी बहुत नाराज़ हो गयीं...अपनी दूसरी रूम मेट्स से कहने लगीं..'ये लोग ऐसा ही करती हैं...कोई अच्छी लड़की आई  नहीं कि उसे अपने रूम में ले जाती हैं...मेट्रन दी भी उनकी बात मान लेती हैं " और ज्योत्सना दी मारे गुस्से के अपने बिस्तर पर लगी मसहरी  में चली गयीं. मुझे कोई हेल्प नहीं की. बाकी लड़कियों ने भी उनके डर से या फिर ये सोचकर कि अब मैं उनके रूम में रहने वाली तो हूँ नहीं..मसहरी लगाने में मेरी मदद नहीं की. मुझे तो कुछ आता ही नहीं था...मैं यूँ ही बिस्तर पर लेट कर फिर से 'पराग' पढ़ने लगी. मेरे शहर वाली 'उषा दी' मुझे देखने आयीं...कि "मैं ठीक हूँ ना.." उनसे भी ज्योत्सना दी ने गुस्से में कहा.."चंद्रा दी लोग इसे अपने रूम में ले जा रही हैं..." उन्होंने कुछ जबाब नहीं दिया...मुझसे कहा.."मेरे  रूम में चलो....बिना मसहरी के सोवोगी तो मच्छर उठा ले जायेंगे "

दूसरे दिन मैं अभी ब्रश ही कर रही थी..कि सुबह ही मेरा सारा सामान चंद्रा दी ने अपने रूम में शिफ्ट करवा लिया. अपना पूरा स्कूली-हॉस्टल जीवन मैने उसी कमरे में बिताया. और फिर जब मैं टेंथ में आई तो वो 'रश्मि दी' का रूम कहलाने लगा. ज्योत्सना दी से भी बाद में अच्छी दोस्ती हो गयी..कोई वैमनस्य नहीं रहा. इस रूम में सबने मेरा बहुत ख्याल रखा. चंद्रा  दी मेरे कपड़े..मेरा बॉक्स संभाल देतीं. रानी दी मेरा  कबर्ड व्यवस्थित कर देतीं...मेरे बाल कंघी कर के संवार देतीं.  मेरे पैसे का हिसाब भी वे ही लोग रखतीं . अनीता दी ने तो कितनी ही बार मेरे कपड़े भी धो दिए. मैं बाल्टी में भिगो कर आती और वे जाकर साफ़ कर देतीं. एक बार केमिस्ट्री के एग्जाम के पहले मैं बहुत नर्वस हो गयी थी और रोने लगी कि 'मुझे कुछ याद नहीं..मैं फेल हो जाउंगी" अनीता दी ने अपनी पढाई छोड़कर मुझे रिवाइज़ करवाया...और डांट भी लगाई कि "सब याद है, क्यूँ घबरा रही हो."  अंजू मेरी जूनियर थी...पर बहुत प्रोटेक्टिव थी. घंटो हमलोग स्कूल के बरामदे में टहला करते और  झूठ-मूठ की हांकते ..कि हमारे घर के बगीचे में ये फूल हैं...ये पेड़ हैं..:) सबके साथ रहकर इतना लगाव हो गया था कि जब हम छुट्टियों में घर जाते तो एक-दूसरे को लम्बे-लम्बे ख़त लिखा करते. 

हॉस्टल में सुबह साढ़े पांच बजे उठकर, प्रार्थना फिर व्यायाम...नाश्ता..पढ़ाई...खाना और फिर स्कूल. स्कूल से आकर नाश्ता फिर दो घंटे मैदान में खेलना कम्पलसरी ..फिर प्रार्थना..पढ़ाई.. डिनर और फिर दस बजे बत्ती बंद. एग्जाम के दिनों में कैसे चोरी चोरी मेट्रन दी के सो जाने के बाद हमलोग बत्ती जलाकर पढ़ते थे. नाश्ता -खाना तो खैर बहुत ही खराब था...जिक्र के लायक भी नहीं. पर दूसरी एक्टिविटीज़ में हम इतने व्यस्त रहते थे कि हमारा इस तरफ ध्यान भी नहीं जाता. पर अब सोचकर हंसी आती है...खाना ऐसा (पौष्टिक तो ज़रा भी नहीं..घी,दूध,फल, हरी सब्जी का नामोनिशान नहीं ) लेकिन हमलोग खेल-कूद ..व्यायाम कितना किया करते थे. अक्सर स्कूल में भी एक पीरियड गेम का होता था. और आज के बच्चे पिज्जा..बर्गर..मैगी के शौक़ीन लेकिन फिजिकल एक्टिविटी नदारद. 

प्रत्येक शनिवार की शाम पढ़ाई से छुट्टी और सांस्कृतिक कार्यक्रम हुआ करते थे. शायद ही हमारी हिंदी पाठ्य-पुस्तक की कोई कहानी हो जिसका नाट्य रूपान्तर कर हमने नाटक ना किया हो. ज्यादातर ये काम मेरे जिम्मे ही होता था..शायद लेखन के बीज वहीँ से पड़े. वैदेही,सुधा, नीला आदि  बहुत अच्छा नृत्य करती थी और सुषमा,अमृता ,निशा, साधना...बहुत अच्छा गाती थीं. शाम का अंत हमेशा अन्त्याक्षरी से होता. मेस की घंटी हमें सुनायी ही नहीं देती {शायद इसलिए भी कि उस दिन खिचड़ी मिला करती थी :)} कमला बाई बडबडाती हुई हमें बुलाने आती. 

कई डे स्कॉलर्स से भी अच्छी दोस्ती थी. शर्मिला ढेर सारे बाल पॉकेट बुक्स लाती थी. ममता,शिल्पा,वंदना नई नई फ़िल्में देख कर आतीं और हमें मय एक्टिंग के पूरी कहानी सुनातीं. सरिता-वंदना-संगीता -शिल्पा और मेरा एक ग्रुप था. स्कूल आवर्स में हम हमेशा साथ होते पर इम्तहान के दिनों में आपस में कम्पीटीशन भी बहुत होते थे. सब ऐसे एक्ट करते जैसे कुछ आता ही नहीं. एक दूसरे को शक की निगाहों से देखा करते और जब रिजल्ट आता तो एक दूसरे पर ताने कसते..'पढ़ा नहीं था..फिर नंबर कैसे आ गए??" 


नवीं-दसवीं में सुधा और अमृता मेरी पक्की सहेलियाँ बन गयीं थीं. हम तीनो को किताबें पढ़ने का चस्का लग चुका था. 'गुनाहों का देवता' पढ़कर कितना रोये थे हम :)...उन्ही दिनों ईनाम में मुझे "रोमियो जूलियट" और भगवती चरण वर्मा की 'चित्रलेखा' मिली थी .(तब चित्रलेखा क्या समझ आई होगी..) घर पर पैरेंट्स को ईनाम में मिली 'रोमियो-जूलियट ' दिखाते हुए शर्म भी आ रही थी. और स्कूल वालों पर गुस्सा भी कि इतनी कंजूसी करते हैं..ईनाम में लाइब्रेरी से लाकर पुस्तकें बाँट देते हैं...कप या मेडल नहीं खरीद सकते जिसे हम घर में सजा सकें ..लोगों को भी पता चलता. अब सोचती हूँ...किताब से बढ़कर दूसरा और क्या अच्छा ईनाम हो सकता है.

सरस्वती पूजा की तैयारियाँ हमेशा याद आती हैं...दिनों पहले से हम व्यस्त हो जाते...चंदा इकट्ठा करना...अल्पना बनाना..कलश पेंट करना...पूरी रात जागकर प्रसाद की प्लेट लगाना और सजावट करना. सरस्वती-पूजा के बाद होली की छुट्टी तक रोज रात में सोयी हुई लड़कियों के बालों में गुलाल  डाल देना...सफ़ेद पेंट से उनकी दाढ़ी-मूंछे बना देना. फिर वो मैदान में कबड्डी खेलते हुए सुर्खी(लाल-मिटटी जिस से हम मैदान के बीचोबीच सरस्वती देवी की मूर्ति तक एक चौड़ा रास्ता बनाते थे और उसपर चौक पाउडर से अल्पना)  से होली खेलना...और उसके बाद मेट्रन दी से डांट खाना और फिर सजा भी भुगतना...वे भी क्या दिन थे...हॉस्टल  की कितनी ही बातों का  जिक्र अपनी कई पोस्ट में कर चुकी हूँ...पर बातें हैं कि ख़त्म नहीं होतीं :)

जब दसवीं  के बाद हॉस्टल छोड़कर आने लगी तो पूरे हॉस्टल की लडकियाँ गेट तक छोड़ने आई थीं..और सब हिचकियाँ भर रही थीं ( दसवीं की हर लड़की के घर जाते समय यही दृश्य होता था ) इस बार भी मुझे रोने में शरम आ रही थी...पर स्थिति विपरीत थी...जब हॉस्टल आई थी तो  लड़कियों के सामने झिझक हो रही थी..और इस बार पैरेंट्स के सामने. 

(ये संयोग ही है कि पिछले साल के फ्रेंडशिप डे पर के.जी.क्लास से लेकर हॉस्टल आने तक के पहले की दोस्ती की यादें लिखी थीं और उसके बाद ही ये पोस्ट लिखने की सोची थी...पर आज फ्रेंडशिप डे के दिन ही उसे लिखने का  मुहूर्त हुआ.यानि कि कॉलेज के दोस्तों की यादें .अब अगले फ्रेंडशिप डे पर...यानि कि पक्का ये भी है कि अगले एक साल तक ब्लोगिंग करती रहूंगी :)
बहरहाल..मेरे भूले-बिसरे-पुराने दोस्तों के साथ आप सब दोस्तों को भी मित्रता दिवस की अनेक...असीम...अशेष...अनंत...अपरिमित शुभकामनाएं )

52 टिप्‍पणियां:

  1. दोस्ती के संस्मरण तो बस भिगो जाते हैं मन को |

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  2. आप इतनी प्यारी और ढेर सारी बातें करती हैं कि कौन आपसे दोस्ती करना नहीं चाहेगा!:)
    हैप्पी फ्रेंडशिप डे। आपने यह नहीं लिखा कि किस उम्र में और किश कक्षा में आप हॉस्टल गईं?

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    1. ग्यारह साल की थी..और कक्षा आठ में हॉस्टल में एडमिशन लिया था...मैने जानबूझकर जिक्र नहीं किया कि कहीं बात यहीं पर ना अटक जाए...फिर वो कहानी भी सुनानी पड़ेगी..
      वैसे ,अब लोग हंसने ना लगें कि तब तक अपनी पोनी टेल बनाने नहीं आती थी...पर सच तो यही है कि नहीं आती थी...:(

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  3. हमारे पास भी छात्रावास के किस्सों का खजाना है, आपके संस्मरण सुन बहने को आतुर होने लगे, सब के सब।

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    1. बहने दीजिये अविरल फिर...रोक कर क्यूँ रखा है..:)

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  4. तारे जमीन का बच्चा दीदियों के हास्टल में नहीं गया था और लड़के लोग घुन्नों / अंतर्मुखियों / कट के रहने वालों की परवाह नहीं करते और जो थोड़ी बहुत मान मनव्वल हुई भी होगी वह फिल्म में जोड़ना ज़रुरी नहीं मानीं गयी :)

    खाने को छोड़ कर आपका हास्टल और स्कूल अच्छा लगा कम से कम वे बच्चों को किताबें उपहार में तो देते थे ना :)

    हास्टल से घर गए दिनों के लम्बे लंबे खतों की बानगी देखने मिल सकती है क्या ? अगर मुमकिन हो तो सार्वजनिक करियेगा !

    आपका संस्मरण बड़ा प्यारा है बस एक ही इच्छा है काश आपके स्कूल /हास्टल / रूम का नाम 'दी स्कूल' 'दी हास्टल' 'दी रूम' होता :)

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    1. अली जी,

      ये बात आपकी मैं नहीं मान सकती. बच्चे सब एक जैसे होते हैं...लड़के हों या लडकियाँ...बस उनमे ही तो जेंडर विभेद नहीं आता.
      बहिर्मुखी...अंतर्मुखी तो बाद में पता चलता है...स्कूल या हॉस्टल में आते ही नए बच्चे से सब बातें करते हैं. फिल्म में बस इस गीत को मार्मिक बनाने के लिए ऐसी सिचुएशन बतायी गयी थी.
      मेरा छोटा भाई तो छठी क्लास में ही हॉस्टल चला गया था, उसके भी अनुभव मेरे जैसे ही हैं.

      खतों को संभाल कर नहीं रखने का अफ़सोस तो मुझे भी है...पर तब स्कूल में कहाँ, यह सब होश था.

      "दी' का जिक्र भी खूब किया :)..पर वैसा ही रिवाज था सभी सीनियर्स के नाम के साथ 'दी' लगाकर पुकारा जाता था. ब्लॉग में दीदी भैया कहने की बड़ी आलोचना होती है. जबरन नहीं, पर अगर स्वतः किसी के लिए दीदी का संबोधन मुख पर आए तो मुझे ये गलत नहीं लगता. मुझे तो जब आराधना,अनु सिंह चौधरी..प्रशांत,अभिषेक,दीपक...रश्मि दी कहते हैं तो स्कूल-कॉलेज के दिन याद आ जाते हैं...:)

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  5. अब तो ब्‍लाग-बंधुत्‍व में दुनिया सिमट आई है.

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  6. जीवन में सदैव रंग भारती रहेंगीं ये दोस्तों से जुड़ी यादें , सुंदर संस्मरण ..... शुभकामनायें

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  7. फ्लैश बैक में बचपन के दिनों को जब भी हम जीते हैं, ऐसे ही दोस्तों के खजाने निकल कर सामने आते हैं. उन दोस्तों की यादें खुद को भी उस समय में ले जाती हैं और हमें अपना खोया हुआ बचपन फिर से जीने का अवसर मिल जाता है!!
    बहुत ही भावपूर्ण यादें समेटी हैं आपने, मेरे तीन दोस्त थे और आज भी तीनों साथ हैं!! पटना जाता हूँ तो मिलकर फिर से बच्चे बन जाते हैं हम.

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    1. ब्लॉगजगत में आपकी वापसी का स्वागत है, सलिल जी.
      आपकी कमी खल रही थी.

      आपलोग भाग्यशाली हैं...ऐसा सौभाग्य हम लड़कियों का नहीं होता...एक तो मैने हॉस्टल में पढ़ाई की फिर पिताजी की जॉब भी ट्रांसफर वाली थी...कितने ही दोस्त बने और बिछड़े. लडकियाँ शादी कर ससुराल चली जाती हैं...उनके सरनेम भी बदल जाते हैं. नेट पर भी ढूंढना मुश्किल.

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  8. मित्रता दिवस की आपको शुभकामनाएं। इतने प्‍यारे बचपन की भी आपको बधाई।

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  9. चलो भूले बिसरों को भी याद कर लिया इस मित्रता दिवस के बहाने से. सुंदर और मनोरंजक संस्मरण.

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  10. देख ली ए शेख़ी भी ....बालों में कंघी करना और कपड़े धोना तक नहीं आता था :)) और रोने तक में शर्म आती थी। :((
    बहरहाल ...एक बुतुरू सी और बहुत प्यारी सी बच्ची के दर्शन हुये इस संस्मरण में।
    हाँ ! एक बात तो बता दो,बालों में कंघी करना सीखा कि नहीं अभी तक ? :))

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    1. अब सब सच-सच लिख दिया तो मजाक तो ना उड़ाइए आप...:)

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  11. ्रोचक संस्मरण्………… मित्रतादिवस की हार्दिक शुभकामनायें

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  12. दोस्ती कि खुबसूरत अभिवयक्ति.....

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  13. दोस्त मिल जाते हैं ... पर स्वभाव भी होता है ... आत्मकेंद्रित और बाह्यमुखी ! शुरू से अंत तक की यादें इस दिन को विशेष बना गयीं

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    1. दोस्ती ही तो एक ऐसी दौलत है...जो सबके नसीब में होती है...अमीर-गरीब..अच्छा-बुरा..अंतर्मुखी-बहिर्मुखी...:)

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  14. aapko abhi भी sari ladkiyon के nam yad hain ! adbhut !
    वैसे haustal me rahne se aatm wishwas बहुत आ जाता है .
    badhiya sansmaran .

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    1. हाँ दराल जी. नाम तो मुझे अपनी के.जी. की दोस्त का भी याद है...मसूदा और बुन्नु....इनका जिक्र मैने पिछले साल की फ्रेंडशिप डे पर लिखी अपनी पोस्ट में किया था. ..:)

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  15. didi abhi ek cafe mein baithkar ye post padh raha hun aur lagatar muskura raha hun..log kahin paagal na samjjhe mujhe ;)
    aapki is tarah ki post padhna kitna achha lagta hai ye bata nahi sakta main....bahut bahut achhi aur anmol yaaden sameti hain is post mein aapne...ab mujhe ek post likhne ka man kar raha hai aaj..dekhiye aaj raat mein ho sake to likhta hun...

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    1. अभी,
      शायद तुम्हे याद हो...पिछले साल की 'फ्रेंडशिप डे' पर लिखी अपनी पोस्ट में मैने जिक्र किया था कि वैसी पोस्ट लिखने की प्रेरणा तुमसे ही मिली थी...:) {इस पोस्ट में लिंक भी दिया है...बाद में देख लेना )
      अब हिसाब बराबर हो गया लगता है....:)

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    2. बिलकुल याद है दीदी...हाँ अब हिसाब बराबर हो गया है...वैसे मैंने लिखना शुरू कर दिया है वो पोस्ट..शायद आज या कल तक डाल दूँ ब्लॉग पर... :)

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  16. कभी होस्टल में रहना तो नहीं हुवा .. पर दोस्ती भूले नहीं भूलती वो भी उस समय की ...भूली बिसरी यादों को आज के दिन ताज़ा करने और करवाने का शुक्रिया ...

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    1. सच है...उस उम्र की दोस्ती हमेशा याद रहती है...

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  17. होस्टल की यादें भुलाये नहीं भूलतीं - अपनी बेवकूफियाँ किसी से कहते नहीं बनतीं पर बाद में हँसी आती है.
    बड़ा प्यारा संस्मरण !

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  18. achchha lagta hai dusron se aise sansmaran sun kar...:)
    hamne to bora (sack) chhap school me padhai ki:-D
    aapne ye nahi bataya ki kis age se aapne hostel ki padhai start ki...
    happy friendship day!!:)

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  19. जब फ्रेंड थे तो फ्रेंडशिप डे नाही
    और जब फ्रेंडशिप डे है तो फ्रेंड नाही |
    फ्रेंडशिप डे से हमारी मुलाकात मुंबई आने के बाद हुए , मुलाकात तब हुई जब मित्र बनाना ही छोड़ दिया :(
    पुराने में बस दो ही संपर्क में है नये बने है ( असल में तो वो मेरी बेटी के फ्रेंड्स की मम्मिया है ) पर वो बात नहीं है , बड़े होने के बाद जुबान का वही बचपन वाला स्वाद क्यों नहीं रहता है |
    ६ साल पहले बहुत याद करती थी सभी मित्रो को बचपन को अब पता नहीं सब बिटिया के आने से भूल गई हूं या सभी को जानबूझ कर भुला दिया है |
    यहाँ ब्लॉग पर बहुत सी बाते होती है किन्तु किसी को मित्र बनाते , कहते पता नहीं डर लगता है | फिर भी मित्रता दिवस की बधाई देर से ही सही |

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    1. @यहाँ ब्लॉग पर बहुत सी बाते होती है किन्तु किसी को मित्र बनाते , कहते पता नहीं डर लगता है |

      अब डर क्यूँ लगता है भला....कुछ ना होगा..'अनुभव' तो होगा..अच्छा या बुरा.:)
      कोई जरूरी नहीं कि दोस्ती की मियाद ताउम्र हो..वक्त बदल जाता है..प्राथमिकताएं..रुचियाँ बदल जाती हैं...दोस्त भी बदल जाते हैं..
      कोई नहीं...जबतक दोस्त थे..तबतक तो वक़्त अच्छा गुजरा....वो अहसास..वो अनुभव तो आपके पास ही रहते हैं.
      मुझे नहीं लगता आपको डरना चाहिए....अब ये रिस्क ले ही लीजिये ..कर डालिए दोस्ती..बस दोस्ती से कोई बड़ी उम्मीद ना पालिए..:):)

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    2. अंशुमाला, यही डर क्या तुम्हें मेरे फोन व पता देने पर भी बात करने से रोक रहा है? गिने चुने महीने ही यहाँ हूँ अंशु, फिर मुम्बई से गायब हो जाऊँगी।
      और मेरी उम्र की मित्र प्रायः भयावह नहीं होती, माँ की याद भले ही दिला दे।
      घुघूती बासूती

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  20. बहुत रोचक और मीठे संस्मरण!
    मेरा ख़ास प्रिय हिस्सा यह रहा "मेस की घंटी हमें सुनायी ही नहीं देती {शायद इसलिए भी कि उस दिन खिचड़ी मिला करती थी :)" Ditto!

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  21. हॉस्टल की खट्टी मीठी यादें हमेशा साथ होती है . शुरू में असहज करने वाला माहौल बहुत जल्दी अपना हो जाता है , मेरे भी बहुत से काम मेरी रूममेट्स बहुत प्यार से करती थी , ब्रीफकेस जमाना , कपड़ों की तुरपन , बाल सुलझाना (इतने घने थी कि अपने आप सुलझते ही नहीं थी ) , कपड़े सिमटना , आदि आदि . आज भी पुरानी फ्रेंड का फोन आता है तो सबसे पहले यही पूछती है कि बाल सुलझाती हो या वैसे ही उलझे रहते हैं . मित्र बदलते रहते हैं , खट्टे तीखे मीठे अनुभव भी होते हैं मगर मित्रता में विश्वास छूटता नहीं !
    रोचक संस्मरण !

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  22. रश्मी जी नमस्कार...
    आपके ब्लॉग 'आपकी, उनकी, सबके बातें' से लेख भास्कर भूमि में प्रकाशित किए जा रहे है। आज 7 अगस्त को 'निश्छल सी दोस्ती के पावन से दिन' शीर्षक के लेख को प्रकाशित किया गया है। इसे पढऩे के लिए bhaskarbhumi.com में जाकर ई पेपर में पेज नं. 8 ब्लॉगरी में देख सकते है।
    धन्यवाद
    फीचर प्रभारी
    नीति श्रीवास्तव

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  23. रश्मि, अलग अलग स्कूलों के हॉस्टल के अलग अलग नियम होते हैं। मेरी बिटिया के पूर्ण रूप से रेजिडेन्शियल स्कूल में पैसे रखना, खाने की सामग्री रखना, निश्चित संख्या से अधिक सिविल ड्रेस रखना मना था। माता पिता कमरे तक नहीं जा सकते थे। लड़के सहपाठी एक पुल के पार नहीं जा सकते थे। दाखिला लेने के बाद छः सप्ताह तक स्कूल व हॉस्टेल के बाहर के संसार, परिवार से भी सम्बन्ध रखना, पत्र लिखना, मिलना मना था।
    जीवन में पहली बार उसे अपने से दूर कर रही थी वह भी यह जानते हुए कि छः सप्ताह तक मैं यह न जान पाऊँगी कि उस पर क्या गुजर रही है। वह दृष्य कभी भूल नहीं पाती। और हाँ उसके स्कूल में हमारी जानपहचान का कोई छात्र या छात्रा नहीं थी।
    घुघूती बासूती

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  24. आप मेरी भी दोस्त हैं .... मेरे लिए फक्र की बात है .... मुझसे दोस्ती कर आपको भी अफसोस नहीं होगा ....!!
    हॉस्टल का तो नहीं दोस्ती की खट्टी - मीठी और नमकीन जिन्दगी मैंने भी जी है .... :D

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  25. बहुत मधुर संस्मरण है रश्मि जी ! वो बड़े ही खुशनसीब होते हैं जिन्हें जीवन में अच्छे दोस्त मिल जाते हैं ! इस दौलत से ईश्वर ने मुझे भी खूब नवाजा है ! आज भी मैं 10th क्लास की परम प्रिय सहेली के संपर्क में हूँ जिससे मेरा प्रथम परिचय सन १९६२ में हुआ था ! जीवन की इस शाम में जब भी उसके साथ फोन पर बात हो जाती है मुझे कई दिनों तक खुश रहने के लिये पुख्ता वजह सी मिल जाती है ! कुछ विलम्ब से ही सही मित्रता दिवस की आपको ढेर सारी शुभकामनायें ! वैसे मैंने अपने गीतों के ब्लॉग 'तराने सुहाने' और फेस बुक वाल पर सबको फ्रेंडशिप डे की बधाई दे दी थी ! सुन्दर संस्मरण के लिये आपका आभार एवं धन्यवाद !

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  26. u r here too... :)
    http://anaugustborn.blogspot.in/2012/08/the-b-team.html

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  27. हॉस्टल में बिताए ये पल हर किसी की ज़िदगी की अनमोल धरोहर होते हैं।

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  28. छात्रावास के मधुर संस्मरण।
    शायद मैं नौवी कक्षा में होउंगा, एक डरा सहमा का लडका हमारी कक्षा में आया (शायद अपने पिता के स्थानतरण से) और मैने उसे सहमा देखकर ही तत्काल मित्रता का हाथ बढ़ाया। दो साल तक हम अच्छे मित्र रहे। आज भी उसे याद करता हूँ, उसके बाद कोई सम्पर्क न रहा, पता नहीं कहां होगा?

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  29. पता चला है कि आप एमडीडीएम कॉलेज में भी पढ़ी हैं.. वहां पर भी हॉस्टल में थीं क्या? हां तो वहां के भी अनुभव शेयर कीजिएगा। मैं भी वहीं पढ़ी हूं, हालांकि हॉस्टल में कभी नहीं रह पाई, न स्कूल में, न कॉलेज में।

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