सूरज प्रकाश जी..अपने खजाने के साथ |
अब तक सुन रखा था, कम्बल बँट रहे हैं...लड्डू बँट रहे हैं...भोजन बँट रहा है...पर पुस्तकें बँट रही हैं, वो भी साहित्यिक पुस्तकें..और अपनी पसंद की पुस्तकें चुन लेने की छूट भी है...यह एक अनोखी खबर थी. जब सतीश पंचम जी ने बताया तो सहसा विश्वास नहीं हुआ...पर उन्होंने जाने-माने साहित्यकार सूरज प्रकाश जी के आलेख का लिंक भी दिया...जिसमे उन्होंने जिक्र किया था कि वे अपनी चार हज़ार संग्रहित पुस्तकें इच्छुक पाठकों को देना चाहते हैं...उनकी इस दरियादिली पर मन नतमस्तक हो उठा.
जब मैने ब्लोगिंग शुरू ही की थी....तभी सूरज प्रकाश जी से एक ब्लोगर मीट में मिलने का सुयोग प्राप्त हुआ था. पर उसके बाद उनसे कोई संवाद नहीं हुआ. सतीश जी....फेसबुक के माध्यम से उनके संपर्क में थे. पर मेरे मन में पुस्तकें लेने की अदम्य इच्छा के साथ-साथ कुछ संकोच भी विद्यमान था. कोई परिचय नहीं...संवाद नहीं..और सीधा पुस्तकें लेने पहुँच जाऊं. सतीश जी से मैने सूरज जी के यहाँ जाने की इच्छा तो जताई पर कन्फर्म नहीं किया था. कॉलेज में मुझे सब कहते थे, 'रश्मि को किताबों की खुशबू आती है'...किसी ने कितनी भी छुपाकर कोई किताब रखी हो..मेरी नज़र पड़ ही जाती थी.. और यहाँ चार हज़ार किताबों की खुशबू ने तो जैसे दिल-दिमाग पर कब्ज़ा कर लिया था..पर हिचकिचाहट भी पीछा नहीं छोड़ रही थी. और जैसे मुझे इसी ऊहापोह से उबारने के लिए वंदना अवस्थी दुबे की इंदौर जाने वाली ट्रेन लेट हो गयी और वो चैट पर मिल गयी...जैसे ही उसे मैने सूरज जी के आलेख का लिंक दिया और अपने असमंजस का जिक्र किया, उसने तुरंत कहा..'तुम्हे जरूर जाना चाहिए..ऐसा अवसर नहीं छोड़ना चाहिए...मैं मुंबई में होती तो जरूर जाती'..और मैने जाने का निर्णय ले लिया ...(शुक्रिया सतीश जी और वंदना ..दोनों का..जिनके प्रोत्साहन से मुझे इतनी नायाब पुस्तकें मिलीं)
जब सतीश जी को अपने निर्णय की जानकारी दी...तो उन्होंने सुबह दस बजे ही निकलने की बात की....अब हम गृहणियों के लिए जरा मुश्किल होता है, इतनी जल्दी घर से निकलना...जब सतीश जी से अपनी दुविधा बतायी तो वे बारह बजे चलने को तैयार हो गए.
दूसरे दिन मैं आराम से रोज की तरह घर के काम निबटा रही थी...और सतीश जी का फोन आ गया कि..उन्हें दोपहर को कुछ जरूरी काम आ गया है.....इसलिए उन्हें तो दस बजे ही निकलना पड़ेगा ...फिर से मन दुविधा में...सामने घर बिखरा पड़ा था..पर नज़रों के सामने तो बार-बार शेल्फ में सजी पुस्तकें ही घूम रही थीं. और मैने सोच लिया..'घर अपने संवरने का इंतज़ार कर सकता है..पर शेल्फ पर सजी पुस्तकें मेरा इंतज़ार नहीं करेंगी..' सबकुछ वैसा ही फैला हुआ छोड़ ,मैं झट से तैयार होकर निकल पड़ी ...और सतीश जी से पहले ही पहुँच गयी. सूरज जी बड़ी आत्मीयता से मिले..और बातों के दरम्यान उन्होंने बताया कि " अपनी 'चार हज़ार बेटियों' को उन्होंने अपने घर से विदा करने का निर्णय ले लिया है" बड़ी सटीक उपमा दी उन्होंने..सच ही तो है....इतने दिन किताबें उनके घर की रौनक बनी रहीं...अब वे दूसरे लोगों को सीख देने..उनका जीवन संवारने जा रही थीं.' वे बता रहे थे...'बहुत ही कठिन निर्णय था यह...पर मैने फैसला कर लिया...कि इन पुस्तकों का लाभ अब दूसरों को भी उठाने का मौका देना चाहिए '
मुझसे उन्होंने मेरी रूचि की किताबें पूछीं..जाहिर था...कहानियाँ लिखती हूँ..तो मेरी रूचि कहानी संग्रह--उपन्यासों में ही थीं. अंदर के कमरे में चारों तरफ करीने से सजी किताबें रखी थीं.....शेल्फ पर...तख़्त पर...जमीन पर किताबों का अम्बार लगा हुआ था. मैं mesmerized सी खड़ी थी. दिनों बाद मैं हिंदी की इतनी सारी पुस्तकें एक साथ देख रही थी.{मुंबई में तो अंग्रेजी ..मराठी..गुजराती का ही बोलबाला है..:( } कई लेखकों के लेखन से 'धर्मयुग' के जरिये परिचय हुआ था. प्रियंवद, गोविन्द मिश्र, संजीव, मिथिलेश्वर, सुषमा मुनीन्द्र, मंजूर एहतेशाम, मेहरुन्निसा परवेज, प्रियरंजन...आदि की किताबें देख सब की सब पढ़ने का मन हो रहा था. एकाध पलट कर देखा...और लिखा हुआ पाया..'इनकी पहली कहानी धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी' . प्रेमचंद,जयशंकर प्रसाद इलाचंद्र जोशी, मोहन राकेश...जैसे लेखकों की किताबें तो मैने कॉलेज की लाइब्रेरी में ही खंगाल डाली थीं. पर इन लेखकों को पत्रिकाओं में ही पढ़ा था. सबकी किताबें सामने थीं और चुनना मुश्किल हो रहा था. सतीश पंचम जी भी पधार चुके थे और जमीन पर आसान जमाये...मनोयोग से पुस्तकें चुनने में व्यस्त थे. उन्हें भी वही मुश्किल हो रही थी...कौन सी चुनें, कौन सी छोड़ें.
सूरज जी, मुझे किताबों का ज़खीरा दिखा कर अन्य लोगो की सहायता करने चले गए. लाइब्रेरी के लिए भी लोग पुस्तकें लेने आए थे....सूरज जी पुस्तकें चुनने में , उनकी मदद कर रहे थे . कौन सी किताबें बच्चों के लिए अच्छी रहेंगी..कौन सी शिक्षकों के लिए...उन्हें बता रहे थे.
कुछ बांगला भाषी लोग भी थे...हिंदी साहित्य में उनकी रूचि देख बहुत ही अच्छा लग रहा था. उन्हें धर्मवीर भारती की 'अंधायुग ' चाहिए थी...सूरज जी ने अपने हाथों से एक-एक किताब रखी थी...उन्हें पता था, वो पुस्तक वहीँ कही हैं...पर मिल नहीं रही थी..मुझे भी मन्नू भंडारी की 'आपका बंटी' फिर से एक बार पढ़ने का मन था...सूरज जी ने बताया कि वो पुस्तक भी है...पर पुस्तकों के अम्बार में कहीं गुम हो गयी थी. उनलोगों के चले जाने के बाद...' अंधा युग' दो किताबों के बीच दबी हुई मिल गयी....क्या पता मेरे जाने के बाद 'आपका बंटी' भी मिल गयी हो. :(:(
वहाँ अंग्रेजी की भी काफी किताबें थीं...पर उनमे मेरी कोई रूचि नहीं थी...मुंबई में अंग्रेजी की किताबें तो आसानी से मिल जाती हैं...एक सज्जन अंग्रेजी के प्रख्यात लेखकों की किताबें ढूंढ रहे थे...सूरज जी उनकी सहायता कर रहे थे. मैने भी सबसे ऊपर वाली शेल्फ में एक किनारे..'बोरिस पेस्टर्नेक' की 'डा. जीवागो' रखी देखी थी..झट से बता दिया. सूरज जी ने थोड़े संकोच से कहा, 'वो किसी ने फोन करके कहा है...अलग रखने को' उन्हें लगा, शायद मेरी भी रूचि है...पर मैने ये किताब अपने ग्रेजुएशन के इम्तहान के दिनों में पढ़ी थी...और डांट भी खाई थी..' कहानी थोड़ी थोड़ी भूल भी गयी हूँ..पर डांट पूरी की पूरी याद है..:) एक तिपाई पर भी कुछ किताबें अलग कर के किसी के लिए रखी हुई थीं. मन बार-बार देखने को हो रहा था...कौन सी किताबें हैं..पर सख्ती से रोक लिया खुद को..क्या फायदा...मेरी पसंद की कोई किताब होगी तो बेकार अफ़सोस होगा.
खजाने का अंश जो मैं ले आई. |
सूरज जी ने बताया था...प्रति व्यक्ति दस किताबें और पुस्तकालयों के लिए सौ किताबों की सीमा उन्होंने तय की है. ताकि ज्यादा से ज्यादा पुस्तक प्रेमी इस अवसर का लाभ उठा सकें . दस किताबों की सीमा, हम कब का पार कर चुके थे...बार-बार किताबों की अदला बदली करते. एक निकालते दूसरी रखते. फिर मैं किताबों से अलग हट कर खड़ी हो गयी...जितना ही देखूंगी ,उतना ही मन में लालच आएगा. सतीश जी भी पेशोपेश में थे. उन्होंने अपनी किताबें गिनी और कहा...ये तो बारह हो गयीं...सूरज जी ने सदाशयता से कहा 'कोई बात नहीं..दो किताबें 'रूंगा' में ले लीजिये." अब 'रूंगा' मेरे लिए नया शब्द था. सूरज जी ने समझाया..'जैसे दुकान से हम सामान लेने के बाद कहते हैं..थोड़ा एक्स्ट्रा दे दो...इस एक्स्ट्रा को 'रूंगा' कहते है' . मैने तुरंत कहा, "मैने तो रूंगा लिया ही नहीं" सूरज जी ने हँसते हुए कहा.."आप भी ले लीजिये' और मैने जिन दो किताबों पर हाथ फेर फेर कर वापस रख दिया था..जल्दी से उन्हें भी अपनी जमा की पुस्तकों में शामिल कर लिया. सतीश जी ने कहा. हमारे गाँव में 'रूंगा' के लिए 'घलुआ' शब्द प्रयुक्त करते हैं. 'घलुआ' तो मैने सुन रखा था..पर मुझे लगता था...इसका अर्थ है 'मुफ्त में ले लेना..' आज सही अर्थ पता चला...और 'घलुआ' और 'रूंगा' का सही अर्थों में प्रयोग करते हुए हमलोग दो किताबें ज्यादा ले आए.
किताबें चुनने के बाद उनपर स्टैम्प लगाने की बारी थी. स्टैम्प पर एक बहुत सुन्दर संदेश लिखा हुआ था..."ये किताब पढ़कर किसी और पुस्तक प्रेमी को दे दें" इसका अक्षरशः पालन करने का इरादा है. इस पोस्ट के साथ , मैने वहाँ से ली गयी पुस्तकों की तस्वीर लगाई है. आपलोगों को जो भी पुस्तक पढ़ने की इच्छा हो, बता दें...उन्हें वह किताब मिल जायेगी. {पर मेरे पढ़ने के बाद :)}
सुन्दर संदेश वाला स्टैम्प |
बातचीत भी चल रही थी और सूरज जी बता रहे थे कि अपने ब्लॉग पर लिखा उनका यह आलेख हिन्दुस्तान के 54 एडिशन में छपा है. और काफी प्रतिक्रियाएँ आ रही हैं. एक महिला ने लिखा है..'किताबें समेटने का इतना अच्छा मौका और मैं इस मौके से हज़ार किलोमीटर दूर :( :( काश मुझे कुछ किताबें मिल सकतीं !!"... सूरज जी ने मेल करके उक्त महिला से उनकी पसंद की किताबों के नाम मांगे और उन्हें भेजने के लिए किताबें अलग कर के रख दी हैं . मेरे घर आने के बाद वंदना अवस्थी का फोन आया...यह जानने के लिए कि 'मैं किताबें लेने गयी थी या नहीं?' और बातों में पता चला..जिन महिला का जिक्र सूरज जी कर रहे थे...वो वंदना मैडम ही थीं. मैने उसे लिंक दिया और हज़ार मील दूर बैठे ही उसने मुझसे पहले ही मेल करके अपने नाम की किताबें बुक कर लीं और मुझे तिपाई पर अलग रखी किताबों को बस निहार कर ही संतुष्ट हो जाना पड़ा..:(:( {कोई नहीं...वंदना के पढ़ने के बाद उस से मैं वो किताबें मंगवा लूंगी, सतीश जी से भी किताबें एक्सचेंज करनी हैं.. :)}
सूरज प्रकाश जी के चेहरे पर संतुष्टि और प्रसन्नता के भाव देखकर अंदाज़ा हो रहा था कि 'लेने से कहीं ज्यादा ख़ुशी, देने में होती है' कोटिशः धन्यवाद सूरज जी..आपसे बहुत कुछ सीखने को मिला.
लौटते हुए मैं सोच रही थी...फेसबुक पर किताबों की तस्वीर लगा कर एक थैंक्स का मैसेज लिख दूंगी...जो लोग ब्लॉग नहीं पढ़ते...उन्हें भी पता चल जाएगा और वे भी सूरज जी के इस महत्वपूर्ण कार्य से प्रेरणा ले सकेंगे. पर मेरे इंटरनेट कनेक्शन ने ही धोखा दे दिया...कल दिन भर गायब रहा..और पोस्ट लिखने में सतीश पंचम जी बाजी मार ले गए. उनकी पोस्ट यहाँ देखी जा सकती है.
सतीश जी की पोस्ट सुबह पढ़ी थी। आपने भी अच्छी रिपोर्टिंग करी है। बढ़िया संदेश देती साहित्य सेवा।
जवाब देंहटाएंअद्भुत !
जवाब देंहटाएंसूरज प्रकाश जी ने बड़ा नेक कार्य किया है , पुस्तकें वितरित करके ।
ज्ञान को जितना बनता जाए , उतना ही बढ़ता है ।
बधाई और शुभकामनायें ।
उधर वंदना जी आपसे बतिया कर यात्रा पर निकली....इधर आप सूरज जी के यहां बार बार वो तिपाई वाली किताबें ही देखती रह गईं......बाद में पता चला कि वे किताबें वंदना जी के लिये ही थीं :)
जवाब देंहटाएंयानि वो महेन्द्र कपूर जी का गीत बिल्कुल सटीक रहा -
अभी अलविदा मत कहो दोस्तो
न जाने फिर कहाँ मुलाक़ात हो.....
काश, हम भी होते वहाँ पर।
जवाब देंहटाएंबढ़िया संदेश देती साहित्य सेवा।
जवाब देंहटाएंसही अर्थों में साहित्य के भीष्मपितामह... एक पूजनीय व्यक्तित्वा.. मेरी ओर से उनके चरणों में प्रणाम!!
जवाब देंहटाएंसूरज प्रकाश जी को मेरा नमन !
जवाब देंहटाएंसचमुच प्रशंसनीय काम है और विचार भी।
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पर रश्मि जी हमारा यह पुस्तक प्रेम केवल मुफ्त में मिल रही किताबों के प्रति ही क्यों है। जो किताबें सूरजप्रकाश के पास हैं वे तो किसी दुकान से भी खरीदी जा सकती हैं। निश्चित ही उनके खजाने में कुछ दुर्लभ किताबें भी होंगी जो शायद न मिलें।
@राजेश जी,
जवाब देंहटाएंयही तो रोना है....मुंबई में दुकानों पर या किसी बुक फेयर में भी हिंदी की किताबें नहीं मिलतीं...हाँ, ऑनलाइन मंगवाई जा सकती हैं...मैने मंगवाई भी हैं...और यकीन मानिए अगर ये किताबें मुफ्त में नहीं होतीं तब भी मैं इन्हें देख कर खरीदने का लोभ संवरण नहीं कर पाती..
हाल में ही मेरे घर के पास की लाइब्रेरी बंद हो रही थी. मैने और मेरे बेटे ने ढेर सारी किताबें खरीदी वहाँ से...ये साल विदा लेते हुए कुछ मनपसंद उपहार देकर जा रहा है :)
मुंबई में रहते हुए भी मैं उज्जैन और इंदौर से हिन्दी की किताबें मंगवाता था । अब यहाँ बैंगलोर में तो आलम और भी बुरा है, हिन्दी की किताबें देखने को नहीं मिलती हैं, बस प्रकाशकों और ऑनलाईन वेबसाईटों से मिल जाती हैं। अगर हम भी मुंबई में होते तो हम भी इस मौके पर वहीं होते और नागार्जुन और मुक्तिबोध की कुछ किताबें ले लिये होते।
जवाब देंहटाएंपहले पढ़ लिया होता तो मुंबई में रहने वाले अपने 4-5 कजिन्स को भेज देती लेने :)
जवाब देंहटाएंसूरजप्रकाश जी की दरियादिली पर अचम्भा और गर्व हो रहा है ...सहेजी हुई पुस्तकों को यूँ ही बाँट देना इतना आसान नहीं है !
रश्मि, जब तुमने सूरज जी की योजना के बारे में बताया, तो मुझे लगा कि मेरे पंख होते तो मैं उड़ के मुम्बई पहुंच गयी होती. तुमने सूरज जी का लिंक दिया, तो बस अफ़सोस की स्थिति में सूरज जी की पोसट पर कमेंट कर आई. जवाब की तो मुझे उम्मीद ही नहीं थी. लेकिन ट्रेन में मेल चैक करने लगी तो सूरज जी का मेल मिला . सोचो मेरा क्या हाल हुआ होगा?
जवाब देंहटाएंपूरा श्रेय तुम्हें जाता है रश्मि. न तुम बतातीं, न मैं ये लाभ ले पाती.
0- राजेश जी, जिसे किताबों का मोह होता है, वो केवल मुफ़्त की किताबों के भरोसे नहीं रहता. वैसे भी ऐसे कितने लोग हैं जो किताबें मुफ़्त में देते हैं?
0- रश्मि, सतीश जी को बी मेरा धन्यवाद कहो.
पंचम जी से खबर मिल चुकी थी, मुझे लगता है कि इस मनोदशा में हर सच्चा पुस्तक प्रेमी पहुंचता है. हां, लेकिन ऐसा कर नहीं पाता, जो सूरजप्रकाश जी ने किया है.
जवाब देंहटाएंसतीश जी की पोस्ट पर भी पढा, अच्छा लगा।
जवाब देंहटाएंसूरज प्रकाश जी,रश्मिजी और वंदना जी कृपया अन्यथा न लें। मेरे मत में तो किताबें न तो मुफ्त में ली जानी चाहिए और न ही दी जानी चाहिए। आखिर किताबें बनाने में भी श्रम लगता है।
जवाब देंहटाएंराजेश जी,
जवाब देंहटाएंमेरे विचार से कुछ बातें मूल्याधारित या दाम से थोड़ा हटकर होती हैं। सौगात या किसी के द्वारा सदिच्छा से दी गई वस्तु को दाम लगाकर लेना या देना मेरे विचार से उचित नहीं है।
हां, इसे व्यापारिक नजरिये से आगे कहीं लाभ लेने की मंशा हो तो मुफ्त में किताबें लेना जरूर गलत है....लेकिन यहां सभी लोग साहित्य रसिक हैं....न कहीं व्यापारिक भावना है न कुछ लाभार्जन का मंतव्य.....सो इस मामले में मुझे कुछ गलत नहीं लगा।
सूरज प्रकाश जी का निर्णय केवल लाभ हानि तक सीमित न रहकर बल्कि उससे कहीं आगे विस्तृत आयाम लिये हुए है। उनके इस निर्णय की झलक उस स्टैम्प में मिल सकती है जिसमें उन्होंने लिखा है - "ये पुस्तक पढ़ कर किसी और पुस्तक प्रेमी को दे दें"।
यह विस्तृत एंव अलग दृष्टिकोण ही सूरज प्रकाश जी जैसे विशाल हृदयी लेखकों को हम सब से हटकर एक अलग मुकाम पर दर्शाता है।
बहुत ही सराहनीय ..आपके लिए शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंसुंदर एवं सराहनीय कार्य, सूरज प्रकाश जी ने नामारुप कार्य किया। ज्ञान का प्रकाश जहाँ तक फ़ैलेगा वहाँ तक अज्ञान का अंधेरा दूर भागेगा।
जवाब देंहटाएंसाधुवाद
सूरज प्रकाश जी का ये कदम तो सच मे सराहनीय है ऐसा करने के लिये काफ़ी हिम्मत चाहिये होती है …………तुम खुशकिस्मत हो रश्मि जो उस खज़ाने मे से अनमोल मोती सहेज लायीं पढकर हमें भिजवा देना ताकि हम भी पढ सकें और आगे दूसरे पुस्तक प्रेमियों को दे सकें। :))))
जवाब देंहटाएंराजेश जी, किताबें बनाने में श्रम और पैसा दोनों ही लगता है. लेकिन कितने लोग हैं जिन्हें किताबें खरीदने के लिये मिल पाती हैं?
जवाब देंहटाएंकितने लोग हैं जो किताबें खरीद पाते हैं या जिनके शहर में साहित्यिक पुस्तकों की दुकान उपलब्ध है? तब क्या फ़ायदा किताबों के प्रकाशन से ही यदि चंद लोगों तक ही उन्हें सीमित रह जाना हो? सूरज जी के इस प्रयास की जितनी प्रशंसा की जाये कम है. खरीदी हुई किताबों को इस तरह भेंट कर देने के लिये बहुत बडा दिल चाहिये.
अनुकरणीय। किताबे पढ़कर किसी अन्य पुस्तकप्रेमी को पास करने का मेसेज भी अच्छा है। काश ! हम भी वहाँ होते :)
जवाब देंहटाएंरश्मि जी आप ने हमें फ़ोन कर के नहीं बताया हमें बहुत खराब लग रहा है…:) काश हम भी वहां होते। खैर अब उस स्टेंप को याद रखियेगा और पढ़ने के बाद हमें पास ऑन कीजिएगा…:)हम किताबें भी लेने आयेगें और हमें भूल जाने की भरपाई के रुप में चाय में पियेगें…॥:) सतीश जी से भी यही कह रहे हैं।
जवाब देंहटाएंसूरजप्रकाश जी की उदारता एवं साहित्य सौरभ को दूर दूर तक पहुंचाने के लिये उनकी इस अभूतपूर्व पहल के बारे में जानकर बहुत प्रसन्नता हुई ! उनका अनुकरण करना भी हर एक के लिये आसान नहीं है क्योंकि ऐसा करने के लिये भी बहुत बड़ा दिल चाहिये ! वरना तमाम ऐसे साहित्यप्रेमी भी हैं जिनके पास वृहत् निजी लाइब्रेरीज़ हैं जिनकी किताबों को वे तमाम उम्र सीने से लगाए बैठे रहते हैं लेकिन किसीको पढने के लिये नहीं दे पाते ! सूरजप्रकाश जी जैसे विलक्षण व्यक्ति ऐसे लोगों के लिये वास्तव में सूर्य के समान ही प्रखर एवं प्रकाशवान हैं ! आप खुशनसीब हैं जो उनकी इस उदारता से लाभान्वित हो सकीं ! आपके आलेख से सूरजप्रकाश जी के बारे में जानकर बहुत अच्छा लगा व उनके प्रति मन अगाध श्रद्धा से भर उठा !
जवाब देंहटाएं@अनीता जी,
जवाब देंहटाएंअब तो हम आपको जबरदस्ती पढवायेंगे....इसी बहाने आपके चरण रज जो पड़ेंगे हमारे द्वारे ...:)
पुष्पा भारती की 'शुभागता' ख़त्म भी कर ली...तो कब आ रही हैं,लेने ?:):)
किताबों को इंसान की सच्ची मित्र कहा जाता है...
जवाब देंहटाएंसूरज प्रकाश ने बेटियों से उपमा देकर भावुक कर दिया...
उनकी इस पहल के लिए बधाई...
आपकी पोस्ट बहुत अच्छी रही...
और हां...इस रूंगे को कुछ जगह ’लुभाव’ भी कहा जाता है...पहले समय में दुकानदार बच्चों को अपनी दुकान तक खींच लाने के लिए इस ’मंत्र’ का प्रयोग करते रहे हैं :)
aree ye uncle to sahi ke santa clause ban gye...hai na di..but mai apna gift lene se rah gyi:( ...but mujhe yakin hai ki aap stamp ka palan jarur karengi :)
जवाब देंहटाएंओह अनुपम कार्य है। मुझे भी प्रेरणा मिली है।
जवाब देंहटाएंयह आप लोगों के पुस्तक प्रेम को उजागर करता है वर्ना इतना होने पर भी कुछ लोग यही चाहते रहे कि खुद सूरज प्रकाश जी उनके घर तक आकर किताबे दे जायं जिससे आने जाने पर भी उनकी दमड़ी खर्च न हो!
जवाब देंहटाएंऔर मुझे भी यकीन है की दीदी उस स्टैम्प मेसेज का पालन जरूर करेंगी...वैसे पहले से यहाँ कई लोग नज़रे लगाये बैठे हैं किताबों पर(including ojha babu and shubham ji) :D
जवाब देंहटाएंलेकिन मैंने तो फेसबुक पर सबसे पहले वो किताबें अपने नाम बुक्ड कर ली थी..
रश्मि जी, आपके आलेख के लेबल्स में मेहरुन्निसा परवेज़ का नाम देख कर बहुत सारी यादें ताज़ा हो गयीं ! १९६२ से लेकर १९६६ तक हम लोग मध्य प्रदेश में जगदलपुर में थे ! उन दिनों ये भी वहीं थीं ! इनके पतिदेव श्री रऊफ खान परवेज़ वहाँ एडवोकेट थे और अच्छे शायर भी थे ! ये भी लिखती थीं ! मेरे पिताजी वहाँ जज थे और मेरी मम्मी भी कवियित्री थीं ! समानधर्मी काम और समानधर्मी रुचियों के कारण हम लोगों के परिवारों के बीच बहुत मधुर सम्बन्ध थे और अक्सर मिलना जुलना होता था ! फिर पिताजी के ट्रांसफर के बाद सब आँधी में उड़े पत्तों की तरह बिखर गये ! आपके पास यदि उनकी कोई पुस्तक आदरणीय सूरज प्रकाश जी के संकलन में से उपलब्ध हो तो कृपया उसे पढ़ने के बाद क्यू में मेरा नाम भी जोड़ लीजियेगा ! मेहरून्निसा जी का नाम यहाँ देख कर बहुत खुशी हो रही है ! सधन्यवाद !
जवाब देंहटाएं@साधना जी,
जवाब देंहटाएंशायद आपको उनके बेटे 'समर' के बारे में ज्ञात होगा...सत्रह वर्ष की नादान उम्र में ईश्वर ने उसे अपने पास बुला लिया...उसी से जुड़े बहुत ही मार्मिक संस्मरण मेहरुन्निसा परवेज ने 'समर ' नाम की शीर्षक वाली कहानी संग्रह में लिखे हैं.....यह किताब तो अब आपकी हुई..
आप उनसे जुड़े संस्मरण अपने ब्लॉग पर लिखिए ना...हम सब लाभान्वित होंगे.
किस्मत वाली हैं आप ... अपनी इच्छा अनुसार नगीने खोज लाई हैं ... ये बहुत ही महान कार्य है ... और एक प्रकार से भाषा, राष्ट्र और पढ़ने वालों की सच्ची सेवा है जो सूरज प्रकाश जी कर रहे हैं ... काश हम भी मुंबई में होते ...
जवाब देंहटाएंआपको २०१२ की बहुत बहुत मंगल कामनाएं ...
saraahniye.
जवाब देंहटाएंअनुकरणीय है सूरज जी का यह कार्य।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लगा।
बहुत प्रेरक प्रस्तुति...नव वर्ष की हार्दिक शुभकामनायें !
जवाब देंहटाएंआप सूरजप्रकाश जी की इस बात को ध्यान में रखियेगा " यह किताबें पढ़कर किसी और को दें "
जवाब देंहटाएंतो मैं कब आऊँ ?