सोमवार, 12 दिसंबर 2011

वह सब जो कहना बाकी रह गया, अच्चन --- जया मेनन (अतिथि पोस्ट)



'जया चेची' मेरी सहेली 'राजी' की कजिन हैं. हम सब भी उन्हें चेची ही कहते हैं...(मलयालम में दीदी को चेची कहा जाता  हैं.) .वे  'जया चेची' से ही इतनी प्रचलित हो गयी हैं कि  अब उनका नाम 'जया मेनन' की जगह 'जया चेची' ही हो गया है. उन्हें पढ़ने का अतिशय शौक है. वे इतनी घोर बुद्धिजीवी  हैं कि कई बार उनके फेसबुक स्टेटस पढ़ कर चुपचाप निकल आना पड़ता है..समझ में ही नहीं आता,वहाँ क्या लिखा जाए.:(. पिछले दो साल के लिए  वे हैदराबाद में थीं .वे बता रही थीं  कि वहाँ वक्त काटने के लिए उन्होंने ढेर सारी किताबें पढ़ीं. वे एक किताब ख़त्म करतीं और फिर उसके विषय में विस्तार से अपने विचार 'लैपटॉप ' पर लिखतीं.इस तरह कई किताबों के विषय में लिखा और एक दिन उनका 'लैपटॉप ' क्रैश हो गया. उनका सारा लिखा हुआ नष्ट हो गया. सच मानिए, जया चेची से कम अफ़सोस मुझे नहीं हुआ. (हम सब, अपना लिखा हुआ गुम हो जाने का दर्द समझते हैं ). और मैने उनसे कहा...'आपने मुझे क्यूँ नहीं मेल कर दिए वो सारे आलेख?". या खुद की आई  डी  पर ही मेल कर देतीं   ..कम से कम सुरक्षित तो रहता '. लगे हाथों  मैने फरमाइश  भी कर डाली  {एक सच्चे ब्लॉगर  की तरह :)} कि अब से वे कुछ भी लिखें  तो  मुझे मेल कर दें ..उसे मैं अपने ब्लॉग पर  डालूंगी . जया चेची ने  बताया , अपने पिता  से सम्बंधित एक संस्मरण उन्होंने लिख  रखा  है....उसे वे भेज  सकती  हैं' . जया चेची ने  तो वादा निभाते हुए तुरंत ही मुझे अंग्रेजी में लिखा वो आलेख मेल कर दिया....पर मै इतने  दिनों बाद उसका  अनुवाद कर पायी . इतनी गहरी संवेदनाओं से भरे इस आलेख का अनुवाद करना भी जैसे एक दर्द के दरिया से गुजरना था. जया चेची की लेखन शैली बहुत ही ख़ूबसूरत और प्रभावशाली है..पता नहीं कितना न्याय कर पायी हूँ...पर एक कोशिश जरूर की है.

हमारी गर्मी की छुट्टियाँ , हमेशा ननिहाल में गुजरती थी...जो एक द्वीप पर स्थित एक छोटा सा ऊंघता  हुआ सा शहर था .वहाँ सिर्फ नाव के द्वारा ही जाया  जा सकता था. मेरी माँ अपने माता-पिता की  इकलौती संतान थीं...वहाँ ना तो हमारे नाज़ नखरे उठाने वाले मामा-मौसी होते ना ही उनके उनके बच्चे जिनके साथ हम खेल सकते. ऊँची ऊँची दीवारों वाला बड़ा सा घर था, जहाँ शाम के सात बजते ही गहरा अन्धकार छा जाया  करता..ऊँचे ताखों पर रखे लैम्प की लम्बी लम्बी परछाइयां दीवारों पर गिरतीं और हम बच्चे सहम से जाते. हम बेसब्री से छुट्टियाँ ख़त्म होने का इंतज़ार करने लगते कि कब छुट्टियाँ ख़त्म हों...और कब हम अपने रेलवे कॉलोनी के दोस्तों संग धमाचौकड़ी मचा सकें.

परन्तु उसके पहले हम इंतज़ार करते, त्रिचूर  में स्थित अपने ददिहाल में कुछ दिन गुजारने का..जहाँ हमारी बुआ, चाचा और उनके बच्चों का एक  भरापूरा संयुक्त परिवार था. वहाँ हमलोग  बाहर घूमते,पहाड़ों पर चढ़ते ,तालाब में नहाते. गर्मी की दुपहरी लम्बी और उमस भरी होती,उसमे तालाब का शांत, नीला,शीतल पानी हमें जैसे इशारे से बुलाता और हम खिंचे चले जाते. घर की महिलाएँ दोपहर की नींद ले रही होतीं और हम बच्चों को पूरी आज़ादी होती,अपनी मर्जी अनुसार अपना समय बिताने की. वहाँ बच्चों पर पूरा भरोसा किया जाता. खाने..पहनने..घूमने में उनकी पसंद हमेशा सर्वोपरि रखी जाती...पर इस आज़ादी का कभी किसी बच्चे ने गलत फायदा नहीं उठाया. सारे बच्चों ने अच्छी शिक्षा ग्रहण की और ऊँची ओहदों पर कार्य करते हुए जिम्मेदार नागरिक बने. 

गर्मी की दोपहर में उस छोटे से तालाब से हमारा मन जल्दी ही ऊब गया और हम पास के नहर में तैरने जाने लगे. नहर में कई जगह शटर लगे हुए थे जो नहर में पानी के बहाव को नियंत्रित करते. एक दिन हमारे बड़े भाई को एक शरारत सूझी और उन्होंने एक शटर उठा दिया. थोड़ी ही देर में पानी का तेज बहाव मेरी छोटी बहन को बहा कर दूर ले गया....भाई तुरंत उसे बचाने को लपके. पानी के बहाव के साथ बहन तक पहुंचना तो आसान था. पर धारा की विपरीत दिशा में तैरते हुए बहन को खींच कर लाने में उन्हें बहुत मशक्कत करनी पड़ी. किनारे तक पहुँच कर वे बेदम से हो गए. पर घर पर किसी बच्चे ने इस घटना के बारे में मुहँ नहीं खोला....और हम फिर से छोटे से तालाब में ही तैरने जाने लगे परन्तु कुछ ही दिन बाद ऊब कर फिर से नहर में जाना शुरू कर दिया पर दुबारा शटर से छेड़खानी की हिम्मत किसी ने नहीं की.

मेरे पिता के घर में सबको किताबें पढ़ने का बहुत शौक था. घर के हर कमरे में किताबें बिखरी रहतीं, चाहे ड्राइंग रूम हो...किचन या फिर स्टोर रूम. किताबों से परिचय मेरा वहीँ हुआ.साहित्य वहाँ सबकी रगों में बसा हुआ था. मेरी बुआ लोग..दोपहर में सोने या यूँ ही गप्पे मारने की जगह 'वल्लतोल' और कुमारणआशन  को पढ़ा करतीं. घर में कागज़ के टुकड़े यहाँ-वहाँ पड़े होते जिसपर घर के सदस्यों ने 'हाइकु' लिखे होते. पतीले में कड़छी चलाती घर की महिलाएँ, कविताएँ गुनगुनाती रहतीं. ऐसे माहौल में रहते हुए भी 'अच्चन ' मेरे पिता दसवीं तक की ही शिक्षा प्राप्त कर पाए.

जबकि उन्होंने राज्य में तीसरा स्थान प्राप्त किया था. उन्हें स्कॉलरशिप मिलने वाली थी.पर नियमों में कुछ बदलाव हुए और स्कॉलरशिप की स्कीम में लड़कियों को वरीयता देने का नियम बना जिसके तहत छठी स्थान प्राप्त एक लड़की को वो स्कॉलरशिप दे दी गयी. पिता के ऊँची शिक्षा प्राप्त करने और अच्छी नौकरी पाने के सपने धराशायी हो गए. उन्हें रेलवे में एक बुकिंग क्लर्क के रूप में ज्वाइन करना पड़ा. अपनी तनख्वाह से ढेर सारी किताबें खरीदने की उनकी इच्छा भी सीमित रह जाती क्यूंकि उन्हें अपने माता-पिता की देखभाल भी करनी पड़ती . फिर भी जब भी थोड़े पैसे बचते ..वे किताबों पर खर्च कर देते. 

ऊँची शिक्षा का अवसर उन्होंने गँवा दिया था परन्तु अपनी इच्छा शक्ति और लगन से उन्होंने कई भाषाएँ सीखीं. रेलवे की नौकरी के दौरान उन्होंने हिंदी की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की. पचहत्तर साल की उम्र में कन्नड़ सीखी. वे कन्नड़ भाषा में छपी चंदामामा की कहानियाँ पढ़ते और कठिन शब्दों को समझने का प्रयास करते. अपने जीवन के अंतिम पड़ाव में वे अरबी सीख रहे थे क्यूंकि उनके दोनों बेटे खाड़ी के देशों में कार्यरत थे. मलयालम, हिंदी,अंग्रेजी,संस्कृत, कन्नड़ पर उनका सामान अधिकार था. पिताजी को नृत्य कार्यक्रम देखने का बहुत शौक था. उन्हें नृत्यकला की गहरी समझ थी. मेरे बेटे को उनसे यह शौक विरासत में मिला है. वह बचपन से ही आँखों में चमक लिए कथकली नृत्य बहुत ध्यान से देखता है. 

पिताजी के बचपन और स्कूल के कई किस्से हमेशा हमारी पारिवारिक महफ़िल में सुने सुनाए जाते. पिता जी बचपन से ही बहुत ही जिज्ञासु प्रवृति के थे. वे जिज्ञासावश अपने शिक्षकों से कई सवाल पूछते और शिक्षक इसे उनकी धृष्टता समझ सजा दे डालते. पिताजी के मजाकिया स्वभाव..सबकी मदद करने की प्रवृति के कई किस्से किवदंती की तरह हमारे परिवार में प्रचलित थे . 

छुट्टी के दिन 'अच्चन  'का ज्यादातर समय अपने टाइपराइटर  पर गुजरता. वे छद्मनाम से एक साप्ताहिक राजनितिक पत्रिका में नियमित आलेख लिखा करते थे. वे माँ के हाथों की मीठी चाय सिप करते रहते और बिजली की सी गति से शब्दों को टाइप करते जाते. फिर भी मेरी स्मृति  में, एक पत्रिका में आलेख लिखते लेखक की जगह महल्ले के बच्चों को पूरे मनोयोग से कहानी सुनाते पिता की छवि ही ज्यादा उज्जवल है. 

मेरी माँ और पिता में अद्भुत सामंजस्य था. माँ एक अनुशासन प्रिय अभिभावक की भूमिका निभातीं और पिता एक सहृदय काउंसिलर की. पिता में अपने विचारों के प्रति पूरी दृढ़ता थी  पर अपने बच्चों के मामले में वे बहुत कमजोर पड़ जाते. कॉलोनी  के लोग जब उन्हें तेज कदमो से घर के बाहर चहलकदमी करते देखते तो समझ जाते आज उनका कोई बच्चा अब तक घर नहीं लौटा है. उन्होंने कभी हमसे ऊँची आवाज़ में बात नहीं की ना ही कभी कोई सजा दी. पर अपने किसी कृत्य के लिए हम उनकी आँखों में इतनी निराशा देखते कि हम प्रतिज्ञा कर लेते कि अब ऐसी गलती फिर कभी नहीं करेंगे. 
माँ बहुत ही स्ट्रोंग थीं. माता-पिता दोनों का व्यक्तित्व बिलकुल ही अलग था. हमने कभी उन्हें झगड़ते या बहस करते नहीं देखा. प्राथमिक शिक्षा प्राप्त...साधारण रंगरूप....साधारण व्यकतित्व वाली माँ के प्रति पिता के मन में इतना आदर-सम्मान देखकर मैं हमेशा हैरान रह जाती. परन्तु यह माँ के अंदर की ही शक्ति थी जो पिता को सुदृढ़ रखने में सहायता करती. पिता जी के लिए माँ के मन में इतना आदर-सम्मान था कि पिता, उसके आलोक में खुद को ज्यादा सुदृढ़  महसूस कर पाते. अगर माँ को कभी पिता की तरफ से संवेदनाओं में कमी महसूस हुई भी हो तो उन्हें शिकायत करते कभी नहीं देखा. पिता जी की साहित्यिक अभिरुचि ने माँ को भी प्रभावित किया था और वे प्रचलित संगीत की जगह एम.एस. सुब्बुलक्ष्मी को सुनतीं और फिल्मों की जगह 'चित्रा विश्वेश्वरण 'के नृत्य कार्यक्रम देखा करतीं.

जब २००१ के अगस्त में पिता जी ,अपने बेटे के पास कुवैत जाने से मना करने लगे तो हमने इसे गंभीरता से नहीं लिया. हमें लगा उनकी छोटी-मोटी तकलीफें...बेटे के पास जाकर ठीक हो जायेंगी और फिर वहाँ वर्ल्ड क्लास मेडिकल फैसिलिटी भी है. किन्तु एक हफ्ते के बाद ही बड़े भाई ने फोन करके बताया कि 'डॉक्टर ने फेफड़ों के कैंसर' की शंका जताई है. मैं अपनी नासमझी में ये समझ बैठी कि इतनी बड़ी उम्र में कैंसर नहीं होता. डॉक्टर को ग़लतफ़हमी हुई है...'अच्चन '  को कोई छोटी-मोटी बीमारी होगी जो जल्दी ही ठीक हो जायेगी. पर कुछ जांच के बाद कन्फर्म हो गया कि उन्हें 'लंग्स कैंसर' ही था जो अंतिम स्टेज में था  

हमारे लिए ये गहरा सदमा था. बेटे तो उनके पास थे पर उनकी बेटियाँ उनसे बहुत दूर भारत में थीं. तीन महीने सिर्फ फोन के सहारे कट गए. वे दिन मेरी माँ और भाई के लिए दुस्वप्न जैसे थे. कीमोथेरेपी की वजह से वे बिस्तर से लग  गए थे. एक पैर के बाद अपना दूसरा पैर जमीन पर रखने से डरते. ठीक से देख नहीं पाते...उनकी आवाज़ लडखडाने लगी थी. उनकी याददाश्त कमजोर पड़ गयी थी. ८२ वर्ष की उम्र में वे पचास साल पहले पढ़ी कविता शब्दशः सुना देते . मलयालम,हिंदी, अंग्रेजी , संस्कृत के किसी  भी शब्द का अर्थ बता देते पर अब उनके दिमाग में कोई शब्द ही नहीं बचे थे.अपने फेवरेट बच्चे का नाम याद करने के लिए उन्हें संघर्ष करना पड़ता.

माँ के लिए वे बहुत ही कठिन दिन थे. उनका वजन लगातार गिरने लगा. आँखें कोटरों में धंस गयीं. सारे बाल सन से सफ़ेद हो गए. माँ एक रोबोट में बदल गयी थीं.

बड़ी मिन्नतों के बाद वहाँ के डॉक्टर ने पिताजी को केरल लाने की अनुमति दी. १८ नवम्बर २००१ को उन्हें 'अल हमरा' हॉस्पिटल कुवैत से डिस्चार्ज कर दिया गया. जब एयरपोर्ट पर मैने उन्हें स्ट्रेचर पर देखा तो मुझे गश आ गया. पिता जी मुझे पहचान नहीं पा रहे थे पर मेरा चेहरा देखते ही उनके चेहरे पर एक चमक आ गयी थी...और उनके मुहँ से बस इतना ही निकला..'ओs'. कुछ ही दिनों में ,'अमृता हॉस्पिटल' के डॉक्टर को ये विश्वास हो गया कि हॉस्पिटल में रहने के कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकलने वाले  बल्कि पारिवारिक माहौल में शायद उनकी याददाश्त लौट आए और वे शायद ज्यादा अच्छा महसूस कर सकें 

मेरी बड़ी बहन दिल्ली से आ गयी. भाइयों को कुवैत वापस लौट जाना था. उन्हें पता था कि अब वे दुबारा अपने पिता से नहीं मिल पायेंगे. जाते वक़्त उनका पिताजी से चिपट कर रोना...किसी पाषाण ह्रदय को भी पिघला देता. अब पिताजी की देखभाल उनकी बेटियों के जिम्मे थी.,मानो.. पिता कोई भेदभाव नहीं रखना चाहते थे और बेटों के साथ बेटियों को भी अपनी सेवा का पूरा मौका दिया. 
हम पिता की हर छोटी-मोटी जरूरत का ध्यान रखते .उन्हें स्नान कराते...उनकी दाढ़ी बना देते. माँ एक पल को भी उनके पास से नहीं हटतीं..जबकि उनका सारा काम मैं और मेरी बड़ी बहन ही  किया करते. बड़ी बहन, बिलकुल टूट सी गयी थी..वो पिता जी की सबसे लाडली थी और अपनी इमोशनल जरूरतों के लिए हमेशा पिता जी पर निर्भर करती थी. पिता उसके सपोर्ट सिस्टम जैसे थे. छोटी होने पर भी मुझे ही   मजबूती दिखानी पड़ती. पिता जी का आराम-चैन जैसे मेरे लिए एक ऑब्सेशन की तरह हो गया था. मैं दीन-दुनिया भुलाकर उनकी सेवा में लगी रहती. एक दिन ना जाने कैसे एक चींटी पिता जी की पीठ पर चढ़ कर काटती रही. पिता जी ने गले से तरह तरह की आवाजें निकाल कर हमें ध्यान दिलाना चाहा पर हमने समझने में बहुत देर लगा दी.  उस दिन मैने भगवान से पिता जी को इस पीड़ा से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना तक कर डाली. 

ग्यारह  जनवरी को वे चुपचाप नींद में ही हमेशा के लिए चले गए...बिना किसी से विदा लिए. माँ से भी नहीं. अंतिम दिनों में वे बहुत कुछ कहने की कोशिश करते पर कह नहीं पाते. माँ रो पड़तीं. वो ओजस्वी वक्ता...जिसकी बातें..कहानियाँ..महल्ले के बच्चे...बड़े सब मंत्रमुग्ध होकर सुनते थे. उनके कहने का रोचक अंदाज़ और आवाज़ का उतार-चढ़ाव सुननेवालों को बाँध लेता था. पर अब उनकी बात कोई समझ नहीं पाता. 

पिताजी के जाने के बाद..माँ बिखर सी गयी थीं..जबकि उन्हें पता था...एक दिन ऐसा आने ही वाला था और शायद उन्होंने ईश्वर से उन्हें इस कष्ट से मुक्ति के लिए प्रार्थना भी की थी..फिर भी वे पिता जी का जाना स्वीकार नहीं कर पा रही थीं. उन्हें दवा देकर सुलाना पड़ा. अगली सुबह ही दोनों भाई कुवैत से आ गए. उन्होंने इस आघात को सहने के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार कर लिया था. पर मेरी बड़ी बहन खुद को नहीं संभाल पा रही थी. बार -बार मुझसे पूछती..'पिताजी को खाना खिला दिया...उन्हें दवा दे दी' उसके हाथ हवा में लहरा रहे थे और आँखें चढ़ी हुई थीं. आज उसे संभालने वाला उसका सपोर्ट सिस्टम चला गया था. आज भी वह,हर मौके पर उनकी कमी महसूस करती है. 

वे कई मायनों में एक legend  थे. एक साधारण मनुष्य पर एक असाधारण मस्तिष्क के स्वामी. नई  तकनीक उन्हें प्रभावित करती. हमेशा कुछ नया सीखने को तत्पर रहते. हर वस्तु में उनकी गहरी रूचि होती. जो आस-पास वालों को भी उसमे समाहित कर लेती. उनके मन में कभी किसी के लिए दुराव नहीं था...सबके लिए दया भाव रहता और हमेशा वे सबकी सहायता के लिए तैयार रहते. 

पर क्या यह सब कभी मैने उनसे कहा? कभी कहा कि मैं उन्हें कितना प्यार करती हूँ?? कितना आदर-सम्मान है उनके लिए मेरे मन में?? मुझे नहीं लगता..कभी मैने ये सब कहा,उनसे. काश.एक दिन और ईश्वर दे देता और मैं यह सब उनसे कह पाती.

मुझे नहीं पता था, मैं अपने अच्चन  को इतना प्यार करती हूँ. अक्सर माता-पिता के प्यार पर हम अपना अधिकार समझते हैं और उसे फॉर ग्रांटेड ले लेते हैं. उसकी अहमियत नहीं समझते और मुझे लगता है , आगे भी हमेशा ऐसा ही चलता  जाएगा.  यह स्थिति ऐसी ही बनी रहेगी बिना किसी सुधार के....बिना किसी स्पष्टीकरण के..बिना कुछ कहे.

31 टिप्‍पणियां:

  1. जयाचेची और उनके अच्चन से जुड़े संस्मरण ने भावुक कर दिया...अनुशासनप्रिय माँ और पिता का स्वभाव ऐसा कि मुझे मेरे पिता याद आ गए...
    रश्मि आपकी लेखनशैली की कायल तो हमेशा से हूँ जो उसी अवस्था में ले जाती है जिसका वर्णन होता है...

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  2. रिश्‍तों और भावों की उष्‍मा से लबालब.

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  3. tumse anyay ho hi nahi sakta ... tumhari kalam ko chhuker yaaden sajiv ho uthti hain . ab jaya chechi khush hongi , kahengi- der per durust

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  4. बड़े ही रोचक ढंग से प्रस्तुत किया है, माँ और पिता को अपना अपना दायित्व बाँटना पड़ता है।

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  5. जीवन से जुड़ा ... ज़िन्दगी के सारे रंग समेटे सुंदर संस्मरण ...... हृदयस्पर्शी बातें

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  6. बेहद भावुक संस्मरण है। लिखने की शैली और अनुवाद दोनों ही अभिव्यक्ति में सफल रहे। दरअसल अनुवाद में कभी कभी परिवेश की वजह से या प्रचलित बोलचाल की वजह से मूल भाव प्रकट होने में अस्पष्टता सी रहती है लेकिन यहां लेखन स्पष्ट रहा।

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  7. अक्सर माता-पिता के प्यार पर हम अपना अधिकार समझते हैं और उसे फॉर ग्रांटेड ले लेते हैं....सच में.


    भावुक कर गया इनका इस तरह याद करना.

    जया चेची के और आलेख पढ़वाईये.

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  8. अत्यंत मर्मस्पर्शी संस्मरण है जया जी का ! कितनी अद्भुत बात है ना आलेख में वर्णन जया जी के माता पिता भाई बहनों का है लेकिन पढ़ते समय उनके पिताजी के उल्लेख के साथ मेरे ज़ेहेन में मेरे अपने बाबूजी और माताजी के उल्लेख के साथ मेरी अपनी माँ के चहरे तैरते रहे और आँखों को नम करते रहे ! बहुत ही भावपूर्ण आलेख है जया जी का ! आपके अनुवाद ने भी पूरी तरह न्याय किया है कथ्य के साथ ! बहुत भावुक कर दिया आज सुबह सुबह ! इस अनुपम प्रस्तुति के लिये आभार !

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  9. जया चेची को पढ़ते पढ़ते मेरे अपने पापा भी ज़ेहन में घूमते रहे...

    रश्मि बहना, ये ब्लॉगिंग का एक और सकारात्मक रूप है जहां मातृभाषाओं की बाध्यता खत्म कर एक-दूसरे के करीब पहुंचा जा सकता है...आपका आभार...

    जय हिंद...

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  10. rashmi, thanks. i feel that this is one example of the translation going one rung above the original. loved it.

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  11. दीदी, अगर मैं गलत नहीं हूँ तो परसों जो आपने अपना फेसबुक स्टेट्स लगाया था वो इसी संस्मरण के बारे में था..
    अब समझ सकता हूँ की आपने वैसा क्यों लिखा था..

    बहुत ही खूबसूरत और इमोशनल पोस्ट!

    जया चेची को मेरा नमस्ते कहियेगा :)

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  12. जीवन भर आत्‍मसम्‍मान से भरा गरिमापूर्ण जीवन जीने वाले व्‍यक्तियों का अंतिम समय इस तरह पीड़ा में क्‍यों गुजरता ? जया जी का यह संस्‍मरण पढ़कर मुझे अपने पिता के अंतिम दिन याद आ गए।
    *
    आपने वाकई सुंदर अनुवाद किया है। पर इतना सुंदर लिखने के लिए तो बधाई जया जी को जाती है।

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  13. Rashmi.....no words...i am still recovering, the tears are still flowing....he was my uncle and a very beloved one at that.....as jayachechi says i too stil miss him.....we loved him so much, but never said it to him....my father's older brother, he was such a loving, lovable person.....

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  14. "वह सब जो कहना बाकी रह गया"...
    जया जी, इस आलेख में जो कुछ भी कहा गया है उसको पढ़ने के बाद तो लगे ही नहीं कि जैसे "कुछ भी कहने को बाकी रहा हो..".गहरी पारिवारिक संवेदनाओं और साहित्यिक रुचि से सराबोर इस आलेख का अनुवाद भी वैसा ही हुआ है कि जिसे पढ़ते हुए लगे ही नहीं कि "यह अनुवाद है"...वह भी अंग्रेजी भाषा से किया गया अनुवाद ...रश्मि जी यहाँ तुम्हारा श्रम बिल्कुल
    दिखे...और कथन व संवेदन से तुम्हारा तादात्म्य अविभाज्य-सा...

    "घर के हर कमरे में किताबें बिखरी रहती...साहित्य वहां सब की रगों में बसा हुआ था...". साहित्य पदार्थ से इतनी लगनी...! उदगार खुश भी करे और प्रभावित भी. संस्कारिता के लिए इतना काफी नहीं है कि परिवार में
    किताबें खरीदी जाती हो और उन्हें पढ़ा भी जाता हो...और जया जी के पिता जी के बारे में तो कुछ कहते "न बन पाए...!".वे सकर्मक प्रेरणा-पुरुष थे...जिनिअस थे. और उनकी अम्मा भी वैसी ही उस जीवंत सामाजिकता की धारक और अपने पति की गुणानुरक्त. आलेख पढ़ते हुए कहीं-कहीं तो लगे कि उस परिवार की प्रशंसा करना शायद हैसियत से भी कम पडे...

    माता-पिता और अपने परिवार को लेकर लिखा यह एक सन्नद्ध दस्तावेज़ है...या कि एक 'लघु-आत्मकथा'...!
    पर पारिवारिक स्नेह और अंतरंगता से लगे यहाँ 'लघुतम' कुछ भी नही.

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  15. Rashmi....i have no words.....its too emotional....the tears are still flowing....he was my uncle, and a very beloved one at that....i still miss him too.....my dad's older brother and so similar to him in so many ways....i remember all those stories.....though i was not directly a party to them....we loved him dearly, but like jayachechi, never said it to his face....but i am sure he knew....

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  16. यह लेख बहुत भाया। जया जी को आभार जो आपके माध्यम से उन्होंने हमें यह पढ़ने का अवसर दिया। अनुवाद करना बहुत कठिन काम है जिसे आपने बखूबी निभाया रश्मि!
    घुघूती बासूती

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  17. बहुत मर्मस्पर्शी संस्मरण...आँखें नम कर गया..

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  18. पता नहीं क्यों लेकिन अक्सर लोंग माता -पिता को फॉर ग्रांटेड ही लेते हैं ..जब तक सब जरूरतें पूरी कर सके तब तक उनपर सहर्ष अधिकार और बाद में घर में पड़ा एक फालतू सामान, यही लोंग सज धज कर दिन भर अपनी मर्जी का समय बिताने के बाद समाज में बड़े शान से कहते हैं हम तो परिवार में साथ रहते हैं या ये कहते हुए मिल जायेंगे क्या करें बूढ़े सास ससुर/माँ बाप की सेवा से फुर्सत ही नहीं मिलती ...घिन होती है मुझे ऐसे लोगों से !

    ऐसे में इनके मर्मस्पर्शी आलेख और पिता-माता के प्रति गहन आदर और प्रेम ने भावुक कर दिया !

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  19. रिश्तों की अहमियत और भावनाओं से ओतप्रोत शब्दों का मेरे दिल पर भी इतना असर हुया कि आँखें नम हो गयी। फिर इतने दिनो बाद तो तुम्हारे सामने आयी हूँ । याद मुझे भी आप सब की बहुत आती है लेकिन अभी सेहत इतनी अच्छी नही कि बहुत समय दे पाऊँ। शुभकामनायें। ज्या चेची और अच्चन जी जैसे लोग जीवन मे बहुत महत्व रखते हैं।

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  20. जया चेच्ची का संस्मरण दिल को छूने वाला था वेलियच्छन का जीवन वृत्तान्त पढकर मन भर आया.. केरल मेरा पहला प्यार रहा है.. ऐसे लोगों से भरा हुआ, जिन्होंने दृढ संकल्प के बल पर क्या नहीं हासिल किया..
    त्रिशुर से तिरुवनंतपुरम तक अर्थात गुरुवायुर से अनंतशयन के दर्शन तक और तकषी शिवशंकर पिल्लै से लेकर एम्.टी. वासुदेवन तक.. सब दिल में बसे हैं..
    जया चेच्ची को लिखना चाहिए रेगुलर!! वेलियच्छन को मेरी श्रद्धांजलि!!

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  21. बहुत ही सुन्दर संस्मरण |आपका ब्लॉग मैं लिंक कर रहा हूँ ताकि आपकी सुन्दर लेखनी का तत्काल आनंद ले सकूं |तकनीक लापरवाह भी बना देती है मैंने ब्लोगिंग में आने के बाद डायरी में कवितायें लिखना बंद कर दिया यद्यपि प्रिंट निकाल लेता हूँ |दुबारा आपको बधाई और शुभकामनायें |

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  22. परिवार का इतना प्‍यार देखकर अभिभूत हूँ। यह प्‍यार ही परिवारों को वापस जोड़ सकेगा। बहुत अच्‍छा संस्‍मरण।

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  23. रश्मि जी ,इस पोस्ट को पढ़ते समय मुझे लगा जैसे आप जया जी के नहीं मेरे पिता की बात कर रही हैं इत्तेफ़ाक़ देखिये कि मेरे बाबा(पिताजी) भी रेल्वे में थे और उन्हें भी लंग्स कैंसर ही था और जब पता चला तो अंतिम स्टेज आ चुकी थी ,पता चलने के बाद केवल २ महीने मिले हमें उन के साथ
    बहुत भावुक कर दिया इस पोस्ट ने

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  24. मन को छू गयी ये पोस्ट .... बहुत ही सुंदर सस्मरण.

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  25. इस बढ़िया संस्मरण और परिचय के लिए आपका आभार !

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  26. अंतिम पंक्तियाँ भिगो गयीं अंदर तक ... ये सच है की माता पिता को हम हमेशा फॉर ग्रांटेड लेते हैं ... ये संस्मरण भावुक कर जाता है ... कुछ अपने आँखों के सामने आ जाते हैं पढ़ने के बाद ...

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  27. किसी अपने का विछोह आसान नहीं होता। एक पूरा युग लग जाता है सम्भलने में। ईश्वर सब को शक्ति दे कि सत्य का सामना कर सकें। आलेख का सन्देश बहुत सुन्दर है, अपनी सद्भावनाओं को व्यक्त करने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहिये।

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