बुधवार, 7 सितंबर 2011

पीक आवर्स" में मुंबई लोकल ट्रेन में यात्रा

(गणपति उत्सव की गहमागहमी और आकाशवाणी के तकाजों ने कुछ इतना व्यस्त कर रखा है कि ब्लॉगजगत में कुछ लिखने-पढने का समय ही नहीं मिल पा रहा...और आकाशवाणी ने याद दिला दी इस पोस्ट की जिसे दो वर्ष पहले' मन का पाखी ' ब्लॉग पर पोस्ट किया था और इस ब्लॉग पर री-पोस्ट करने की सोच ही रही थी.....  तो मौका भी है और दस्तूर भी फिर  चल पड़िए मेरे साथ मुंबई-लोकल की यात्रा के लिए )

मुंबई में रहनेवाले आम लोगो का कभी न कभी लोकल ट्रेन से वास्ता पड़ ही जाता है..वैसे सुना तो है  कि नीता अम्बानी भी साल में एक बार अपने बच्चों को लोकल ट्रेन में सफ़र करने के लिए जरूर भेजती थीं ..ताकि वे जमीन से जुड़े रहें. मुझे तो वैसे भी लोकल ट्रेन बहुत पसंद हैं. कार की यात्रा बहुत बोरिंग होती है,अनगिनत ट्रैफिक जैम...सौ दिन चले ढाई कोस वाला किस्सा. इसलिए जब भी अकेले जाना हो या सिर्फ बच्चों के साथ,ट्रेन ही अच्छी लगती है. और ऐसे समय पर जाती हूँ जब ट्रेन में आराम से जगह मिल जाती है. चढ़ने उतरने में परेशानी नहीं होती.

वैसे जब बच्चे छोटे थे तो अक्सर काफी एम्बैरेसिंग भी हो जाता था. एक बार अकेले ही बच्चों के साथ जा रही थी...बच्चे अति उत्साहित.हर स्टेशन का नाम जोर जोर से बोल रहे थे..शरारते वैसी  हीं और सौ सवाल, अलग. छोटे बेटे कनिष्क ने बगल वाली कम्पार्टमेंट करीब करीब खाली देख पूछा "वो कौन सी क्लास है?".
मैंने कहा,"फर्स्ट क्लास".
"हमलोग उसमे क्यूँ नहीं बैठे"
"उसका किराया,ग्यारह गुना ज्यादा है. और यहाँ आराम से जगह मिल गयी है"(सेकेण्ड क्लास का अगर 10 रुपये होता है तो फर्स्ट क्लास का 110 रुपये ,लेकिन  पास बनवाने पर बहुत सस्ता पड़ता है और ऑफिस ,कॉलेज जाने वाले,पास लेकर फर्स्ट क्लास में ही सफ़र करते है)

फिर उसने पूछा,'ये कौन सी क्लास है.?"
मैंने कहा "सेकेण्ड"
"थर्ड क्लास कहाँ है?"
"थर्ड क्लास नहीं होता"

कुछ देर सोचता रहा फिर चिल्ला कर बोला,"अच्छा !! थर्ड क्लास में तो हमलोग पटना जाते हैं",(उसका मतलब थ्री टीयर ए.सी.से था )पर मैंने कुछ नहीं कहा,सोचने दो लोगों को कि मैं थर्ड क्लास में ही जाती हूँ.अगर एक्सप्लेन करने बैठती तो चार सवाल उसमे से और निकल आते.

जब मैंने 'रेडियो स्टेशन' जाना शुरू किया तो नियमित ट्रेन सफ़र शुरू हुआ..मेरी रेकॉर्डिंग
हमेशा दोपहर को होती,मैं आराम से घर का काम ख़त्म कर के जाती और चार बजे तक वापसी की ट्रेन पकडती. स्टेशन से एक सैंडविच लेती,एक कॉफ़ी और आराम से हेडफोनपर  गाना सुनते,कोई किताब पढ़ते.एक घंटे का सफ़र कट जाता.

एक दिन मेरी दो रेकॉर्डिंग थी.अक्सर जैसा होता है..लेट हो रही थी,मैं...आलमीरा खोला तो एक 'फुल स्लीव' की ड्रेस सामने दिख गयी.सोचा,चलो वहां का ए.सी.तो इतना चिल्ड होता है कोई बात नहीं.'शू रैक' खोला और सामने जो सैंडल पड़ी थी,पहन कर निकल गयी.ऑटो में बैठने के बाद गौर किया कि ये तो पेन्सिल हिल की सैंडल है. पर फिर लगा..स्टेशन से दस मिनट का वाक ही तो है.और मुझे कभी ऊँची एडी की सैंडल में परेशानी  नहीं होती.इसलिए चिंता नहीं की.

एक रेकॉर्डिंग के बाद.रेडियो ऑफिसर ने यूँ ही पूछा, "आप कुछ ज्यादा वक़्त निकाल सकती हैं,रेडियो स्टेशन के लिए?"मैंने कहा..."हाँ..अब बच्चे बड़े हो गए हैं तो काफी वक़्त है मेरे पास".मुझे लगा कुछ और असाईनमेंट देंगे. उन्होंने कहा,"फिर प्रोडक्शन असिस्टेंट के रूप में ज्वाइन कर लीजिये. क्यूंकि हमारे प्रोडक्शन असिस्टेंट ने किसी वजह से रिजाइन कर दिया है. आप अब यहाँ के सारे काम समझ गयी हैं".मैं कुछ सोचने लगी.ये मौका तो बडा अच्छा था. मुझे यहाँ के लोग और माहौल भी अच्छा लगता था. समय भी था पर एक समस्या थी. मेरा बेटा दसवीं में आ गया था. बोर्ड के एक्जाम के वक़्त यूँ घर से दूर रहना ठीक होगा?...यही सब सोच रही थी कि उन्होंने मेरी ख़ामोशी को 'हाँ' समझ लिया (मेरे बेटे का फेवरेट डायलौग ,जब भी उसकी किसी अनुपयुक्त मांग  पर गुस्से में चुप रहती हूँ तो कहता है.'आपकी ख़ामोशी को मैं हाँ समझूं ?:)")..यहाँ भी मेरी चुप्पी को हाँ समझ लिया गया. श्रुति नाम की एक अनाउंसर से उन्होंने रिक्वेस्ट किया, इन्हें जरा 'लाइब्रेरी','ट्रांसमिशन रूम'.'ड्यूटी रूम' सब दिखा दो. मुंबई का आकाशवाणी भवन काफी बडा है. दो बिल्डिंग्स हैं. स्टूडियो और ऑफिस अलग अलग. एक तिलस्म सा लगता है. श्रुति ने भी बताया कि जब वे लोग ट्रेनिंग के लिए आए थे तो एक लड़के ने आग्रह किया था,"प्लीज, हमें सबसे पहले ऑफिस का एक नक्शा दे दीजिये. पता ही नहीं चलता कौन सा दरवाजा खोलो और सामने क्या आ जायेगा.लिफ्ट,स्टूडियो,या ऑफिस."

श्रुति के साथ घूमते हुए अब मेरे पेन्सिल हिल ने तकलीफ देनी शुरू कर दी थी.और स्टूडियो भ्रमण जारी ही था. ट्रांसमिशन रूम में देखा,ऍफ़,एम् की एक 'आर. जे.'एक गाना लगा,सर पर हाथ रखे किसी सोच में डूबी बैठी है. मैंने सोचा ,अभी गाना ख़त्म होगा और ये चहकना शुरू कर देगी.सुनने वालों को अंदाजा  भी नहीं होगा,अभी दो पल पहले की इसकी गंभीर मुखमुद्रा का.

राम राम करके स्टूडियो भ्रमण ख़त्म हुआ, तो मेरी जान छूटी. मेरी रेकॉर्डिंग रह ही गयी. अब तो मन हो रहा था...सैंडल उतार कर हाथ में ही ले लूँ.. आकाशवाणी भवन से निकल...नज़र दौड़ाने लगी कहीं कोई 'शू इम्पोरियम' दिख जाए तो एक सादी सी चप्पल खरीद लूँ.पर ये 'ताज' और 'लिओपोल्ड कैफे' का इलाका था. यहाँ बस बड़े बड़े प्रतिष्ठान ही थे. कोई टैक्सी वाला भी इतनी कम दूरी के लिए तैयार नहीं होता.(इस इलाके में ऑटो नहीं चलते)खैर ,दुखते पैर लिए किसी तरह स्टेशन पहुंची और आदतन एक सैंडविच और कॉफ़ी ले ट्रेन में चढ़ गयी.सारी सीट भर गयीं थी....सोचा चलो कुछ देर में कोई उतरेगा तो सीट मिल ही जाएगी..मैं आराम से पैसेज में एक सीट से पीठ टिका खड़ी हो गयी.यह ध्यान ही नहीं रहा कि ये ऑफिस से छूटने का समय है,भीड़ का रेला आता ही होगा.क्षण भर में ही कॉलेज और ऑफिस की लड़कियों का रेला आया  और  एक एक इंच जगह भर गयी. मैं तो बीच में पिस सी गयी..हाथ की सैंडविच तो धीरे से बैग में डाल दिया.पर कॉफ़ी का क्या करूँ?चींटी के सरकने की भी जगह नहीं थी कि दरवाजे तक जाकर फेंक सकूँ. उस पर से डर की कहीं गरम कॉफ़ी किसी के ऊपर एक बूँद,छलक ना जाए .फुल स्लीव में गर्मी से बेहाल....पसीने से तर बतर मैंने गरम गरम कॉफ़ी गटकना शुरू कर दिया. मुंबई के लोग कभी भी किसी को नहीं टोकते वरना देखने वालों के मन में आ ही रहा होगा,'ये क्या पागलपन कर रही है'.पर सबने देख कर भी अनदेखा कर दिया.अब ग्लास का क्या करूँ.?धीरे से बैग में ही डाल लिया. बैग में दूसरी स्क्रिप्ट पड़ी थी...पर होने दो सत्यानाश....कोई उपाय ही नहीं था.

.ट्रेन अपनी रफ़्तार से दौड़ी जा रही थी.हर स्टेशन पर उतरने वालों से दुगुने लोग चढ़ जाते,मैं थोड़ी और दब जाती.और सीटों पर बैठे लोग तो सब अंतिम स्टॉप वाले थे. मेरी स्टाईलिश सैंडल के तो क्या कहने.जब असह्य हो गया तो मैंने धीरे से सैंडल उतार दी.पर मुंबई की महिलायें अचानक मेरी हाईट डेढ़ इंच कम होते देख भी नहीं चौंकीं. पता नहीं नोटिस किया या नहीं.पर चेहरा सबका निर्विकार ही था.तभी मेरे बेटे का फोन आया.और हमारी बातचीत में दो तीन बार रेकॉर्डिंग शब्द सुन,पता नहीं पास बैठी लड़की ने क्या सोचा.झट खड़ी होकर मुझे बैठने की जगह दे दी.(शायद मुझे कोई गायिका समझ बैठी:)..मैं बिना ना नुकुर किये एक थैंक्स बोल कर  बैठ गयी.और सैंडल धीरे से सीट के अन्दर खिसका दिया.मेरा भी अंतिम स्टॉप ही था.सब लोग उतरने लगे पर मुझे बैठा देख,चौंके तो जरूर होंगे,पर आदतन कुछ कहा नहीं.सबके उतरते ही मैंने झट से सैंडल निकाले और पहन कर उतर गयी.

पर मेरा ordeal यहीं ख़त्म नहीं हुआ था.स्टेशन से बाहर एक ऑटो नहीं. बस स्टॉप की तरफ नज़र डाली तो सांप सी क्यू का कोई अंत ही नज़र नहीं आया. मेरे साथ एक एयर होस्टेस भी खड़ी थी.उसे भी मेरी तरफ ही जाना था.संयोग से किसी कार्यवश ऑफिशियल कार की जगह 'पीक आवर्स' में लोकल से आना पड़ा था,उसे..बेजार से हम खड़े थे... खाली ऑटो भी तेजी से निकल जा रहें थे. एक पुलिसमैन पर नज़र पड़ते ही,उस एयर होस्टेस ने शिकायत की. पर उसने एक शब्द कुछ नहीं कहा. मुझे बडा गुस्सा आया,ये लोग तो हमारी सहायता के लिए हैं.और इनकी बेरुखी देखो.पर जैसे ही 'ग्रीन सिग्नल' हुआ.उस पुलिसमैन ने बड़ी फ़िल्मी स्टाईल में चश्मा उतार जेब में रखा और एक रिक्शे को हाथ दिखा रोका,और आँखों से ही हमें बैठने का इशारा किया.बोला फिर भी एक शब्द नहीं. औटोवाला कुड़ कुड़ करता  रहा ,मुझे  उस तरफ  नहीं  जाना था  .पर हम दोनों कान में तेल डाले बैठे रहे .

दूसरे दिन का किस्सा भी कम रोचक नहीं. मैंने घर आकर हर पहलू से विचार किया और सोचा,इस ऑफर को स्वीकार नहीं कर सकती. यहाँ कामकाजी महिलायें बच्चों के बोर्ड एक्जाम आते ही एक महीने की छुट्टी ले,घर बैठ जाती हैं.और मैं अब ज्वाइन करूँ? रेडियो में इतनी छुट्टी तो मिल नहीं सकती.लिहाज़ा ये अवसर भी खो देना पड़ा...
{जब बड़ा बेटा दसवीं में था..एक कॉलेज में वोकेशनल  कोर्स के अंतर्गत...पेंटिंग सिखाने का ऑफर मिला था..जिसे भी नहीं स्वीकार कर सकी थी ...ईश्वर भी शायद ऐसे वक़्त अवसर प्रदान कर मेरा इम्तहान ही लेते हैं :(} दूसरे दिन बिलुकल  सादी सी चप्पल और आरामदायक कपड़े पहन,कर 'ना' कहने को गयी. एक 'एलीट' स्कूल के बच्चे आए हुए थे और एक नाटक की रेकॉर्डिंग चल रही थी. मुझे देखते ही उस ऑफिसर ने थोडा बहुत समझाया और मुझ पर सारी जिम्मेवारी सौंप चलता बना. मुझे मुहँ खोलने का मौका ही नहीं दिया. इन टीनेजर्स बच्चों ने पच्चीस मिनट के प्ले की रेकॉर्डिंग में तीन  घंटे लगा दिए.एक गलती करता सब हंस पड़ते. दस मिनट लग जाते,शांत कराने में..फिर बीच में किसी को खांसी आती,छींक आती,प्यास लगती तो कभी बाथरूम जाना होता. उन बच्चों के साथ आए टीचर भी परेशान हो गए थे...पर बेबसी जता रहे थे कि डांट भी नहीं सकता...करोड़पतियों...ट्रस्टियों के  बच्चे हैं...जिनके अनुदान से स्कूल चलता है. 

जब अपनी रेकॉर्डिंग ख़त्म करके, मैंने इस ऑफर को स्वीकार करने में अपनी असमर्थता जताई तो ऑफिसर  हैरान रह गए,बोले..'पहले क्यूँ नहीं बताया.?' क्या कहती,आपने मौका कब दिया.?' कोई बात नहीं' कह कर मन ही मन कुढ़ते अपनी दरियादिली दिखा दी.

आज फिर पीक आवर्स था.पर इस बार अपनी ड्यूटी ख़त्म कर श्रुति भी साथ थी. मैं स्टेशन पर उसे बता ही रही थी कि महिलायें भी चलती ट्रेन में दौड़कर चढ़ती हैं. श्रुति ने कहा,',हाँ चढ़ना ही पड़ता है,वरना सीट नहीं मिलती' तभी ट्रेन आ गयी...और श्रुति भी दौड़ती हुई चलती ट्रेन में चढ़ गयी. मेरी हिम्मत तो नहीं थी,पर ईश्वर को कुछ दया आ गयी.और ट्रेन रुकने पर चढ़ने के बावजूद मुझे बैठने की जगह मिल गयी.पर श्रुति से मैं बिछड़ गयी थी और हमने नंबर भी एक्सचेंज नहीं किया था.दरअसल, मैं अक्सर अपना प्रोग्राम ही सुनना भूल जाती हूँ. श्रुति ने कहा था.अनाउंस करने से पहले वो sms कर याद दिला देगी.पर मुझे इतना पता था कि स्टेशन आने से एक स्टेशन पहले ही गेट के पास खड़ा होना पड़ता है क्यूंकि ट्रेन सिर्फ आधे  मिनट के लिए रूकती है.अगर आप गेट के पास ना खड़े हों तो नहीं उतर पाएंगे. श्रुति का स्टेशन आने से पहले मैं भी गेट के पास पहुँच गयी और नंबर एक्सचेंज किया. श्रुति ने जोर से जरा आस पास वालों को सुनाते हुए ही कहा...'हाँ आपके प्रोग्राम की अनाउन्समेंट से पहले,फ़ोन करती हूँ आपको'. मैं मन ही मन मुस्कुरा पड़ी.चाहे कितने भी मैच्योर हो जाएँ हम.आस पास वालों की आँखों में अपनी पहचान देखने की ललक ख़त्म नहीं होती.

34 टिप्‍पणियां:

  1. कितना जीवंत ..लगा आपके साथ ही खड़ी हूँ , हील वाली चप्पलों ने कई बार फसाया है फैशन की मार बहुत बुरी होती है मुई पसंद भी यही आती है दर्द भी यही देती है ..... :-)

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  2. खूबसूरत पोस्ट.. पेन्सिल सैंडल की व्यथा अच्छी लगी... महिलाओं को बहुत त्याग करना पड़ता है कैरियर को लेकर... रोचक लेखन...

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  3. अरे बाप रे, पेन्सिल हील! ऐसा लगा कि दुबले के दो आषाढ़। बहुत जीवंत विवरण था। बधाई।

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  4. बहुत रोचक विवरण रहा लोकल और रेडियो स्टेशन का ।
    वी आई पी / सेलेब्रिटी होने का अहसास तो सबको भाता है ।

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  5. पढ़कर लग रहा है कि गाँव का जीवन तो स्वर्ग के जैसा है, जीवनशैली कभी कभी सताने लगती है।

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  6. बहुत बढिया पोस्ट है रश्मि. तुम्हारी बेहतरीन पोस्टों में से एक :) पहले जब पढी थी, तब भी मज़ा आया था, आज और भी ज़्यादा मज़ा आया. और हां, मैं इसीलिये हील्स पहनती ही नहीं :) हमेशा फ़्लैट चप्पल :) :)

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  7. याद आ गया अंधेरी से चर्च गेट तक का सफर... और भूलता नहीं वो दृश्य, जब पीक ऑवर में एक लडकी चलती ट्रेन पकडने के क्रम में प्लेटफोर्म पर धडाम से गिर पड़ी.. और चोट को भूलकर अगले ही पल भागती हुयी (हाथ में सैंडिल लिए) भागती ट्रेन में चढ गयी..

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  8. ऐसा लगा जैसे साथ साथ ही थी पूरे सफ़र में..रोचक और सजीव वर्णन...

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  9. हील की सैंडिल का जिक्र होते ही मुझे ये पोस्ट याद आती है और एक कविता भी !

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  10. कल 09/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  11. जब-जब सैंडविच पढ़ा. मुझे लगा आप अपनी हालत बयां करने वाली हैं :)
    एक बार चला हूँ मैं भी. मैंने तो सुना था कि वो पीक आवर नहीं था. पर उसके बाद दुबारा चढ़ने की हिम्मत नहीं है. वैसे अभी तक मौका भी नहीं आया उसके बाद :)

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  12. दूसरों के जीवंत संस्मरण पढ़ते ही कुछ वैसे ही अपने याद आने लगते हैं....एक बार चर्च गेट से बिरार वाली ट्रेन में अंधेरी के लिए चढ़ गया ...उतर नहीं पाया अंधेरी में ....ऐसा अँधेरा जीवन में फिर कभी नहीं देखा!:(

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  13. हील वाले फुटवियर नहीं पहने कभी...डरती हूँ।

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  14. सैंडिल उतारने में बहुत देर लगा दी आपने।
    *
    आकाशवाणी भोपाल में तीन-चार बार रिकार्डिंग के लिए जाना हुआ है। सच कह रही हैं आप तिलिस्‍म की तरह ही लगते हैं स्‍टूडियो।
    *
    यह तो बताएं कि आपको किस स्‍टेशन पर सुना जा सकता है।

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  15. @अभिषेक,
    जब-जब सैंडविच पढ़ा. मुझे लगा आप अपनी हालत बयां करने वाली हैं :)

    हाहा सैंडविच तो आप हुए थे...तीन महिला ब्लोगर्स के बीच....एक अखबार की खबर भी बन गए थे...इतनी जल्दी भूल गए...:)

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  16. @राजेश जी,

    मीडियम वेव ११४० किलो हर्ट्स पर....

    लेकिन शायद महाराष्ट्र से बाहर नहीं सुना जा सकता {वैसे भी आजकल रेडियो किसके पास होता है...:)}

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    1. होता है न! बस्तर के आदिवासी गाँवों में यह दुर्लभ उपकरण आपको देखने को मिल जायेगा। और सच्ची में .... वे लोग सुनते भी हैं।
      मैं आज तक कभी भी अपना कार्यक्रम रेडियो पर नहीं सुन सका। है न कमाल की बात!

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    2. मुम्बई के लोग कमाल के होते हैं ...थोड़ी-बहुत चोट की परवाह नहीं करते। वह लड़की अगर ट्रेन के नीचे भी गिरती तो भी कुछ न कुछ पकड़कर लटकती हुयी अपने गंतव्य तक पहुँचकर ही दम लेती।

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  17. अरे ये तो मैं पढ़ चूका हूँ...एक दिन आपके उस ब्लॉग का चक्कर लगा रहा था...तभी पढ़ा था...वैसे दीदी अभी भी आप स्टाईलिश सैंडल पहनती हैंऊँचे हील वाली? :P

    जब मैं पहली बार मुंबई गया था न तो दादर स्टेशन से हमें कुर्ला के लिए ट्रेन लेनी थी...शाम के सात बज रहे होंगे...और भीड़ इतनी थी की मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी ट्रेन पे चढ़ने की...करीब आधे घंटे तक खड़ा रहने के बावजूद हिम्मत नहीं जुटा पाया...तो फिर दादर से टैक्सी कर के कुर्ला आया :P

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  18. bahot khoobsoorati ke saath aapne 'aapbeeti' likhi hai.....lag raha tha hum lokal train men hain.

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  19. आपकी पोस्‍ट का प्रवाह तो बिल्‍कुल सुपरफास्‍ट ट्रेन की तरह होता है, पढ़ने वाला उस प्रवाह में बहता चला जाता है। एक सांस में ही आपकी पोस्‍ट पढ़ डाली। मुम्‍बई लोकल के अनुभव को जीवन्‍त कर दिया है आपने इस पोस्‍ट में।

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  20. मैं तो लोकल ट्रेन में सफर करने से बहुत डरती हूँ .....इसके पीछे भी एक कहानी है ,खैर आपका विवरण पढ़कर ऐसा लग रहा था जैसे मैं भी आपके ही साथ हूँ

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  21. बहुत ही दिलचस्प संस्मरण ! आपके साथ हमने भी पीक अवर्स में मुम्बई की लोकल ट्रेन की जॉय राइड का मज़ा ले लिया ! बहुत मज़ा आया ! आभार !

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  22. इसे कहते हैं जीवन्त संस्मरण।
    आपके साथ एक-एक पल था। कमाल की लेखनी।

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  23. कई स्‍टेशन पार कर लिए इस धड़ाधड़ पोस्‍ट ने.

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  24. सोच रहा हूं रश्मि बहना को नॉनस्टाप ख़बरें पढ़ने का मौका मिले तो अच्छे अच्छे एंकर्स की छुट्टी कर दे...

    जय हिंद...

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  25. दक्षिण मुंबई में रहने का ये फायदा है ( हा भले इस चक्कर में आप को माचिस की डिबिया जैसे घरो में क्यों ना रहना पड़े ) की आप हमेसा भीड़ की उलटी दिशा में चलते है आफिस जाते समय रोज लोकल ट्रेनों का सामना होता था और कई साल पहले ७ जुलाई को ट्रेनों में बम ब्लास्ट के बाद ट्रेनों के बंद होने के बाद शहर का नजारा कितना भयानक होता है वो भी झेला है और ये बात भी बिल्कुल सही कही की जब आप को लोकल से जाना है तो आप को अपने ड्रेस के साथ ही जूते चप्पलो का भी ध्यान रखना पड़ता है | वैसे हर किसी के बस की बात नहीं है लोकल पकड़ना बाहर वाले तो हल्की भीड़ में भी चढ़ उतर नहीं पाएंगे |

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  26. 2001 में मैंने भी यात्रा की है, कूछ कर हैंडल पकड़ने के चक्‍कर में एक बार तो टपकते-टपकते बचा था। :)
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    क्‍यों डराती है पुलिस ?
    घर जाने को सूर्पनखा जी, माँग रहा हूँ भिक्षा।

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  27. आदरणीया रश्मि जी बहुत ही रोचक ढंग से लिखी रोचक जानकारी पढ़ने में मजा आया |आपका दिन शुभ हो |

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  28. ओह... आपकी पेंसिल हील वाली संडल..

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  29. पहले भी पढ़ा था और तब भी और आज भी हँसे इस पर: सोचने दो लोगों को कि मैं थर्ड क्लास में ही जाती हूँ......:)

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  30. हमें आपके ट्रैफ़िक अंकल जी बहुत अच्छे लगे " बातें कम और काम ज़्यादा" के नारे को और इम्प्रूव करते हुये "चुप-चुप रहना काम ज़्यादा करना" को उन्होंने कितने व्यावहारिक तरीके से पेश किया। अबकी से मिलेंगे तो उन्हें मेरी तरफ़ से जयराम जी की बोल देना।
    और ख़रीदो हील वाली चप्पल, अभी क्या हुआ... जब पीठ, कमर और सिर में दर्द शुरू होगा तब मत कहना कि पहले क्यों नहीं बताया था। ये बबुनी लोग भी कमाल करती हैं, पीक ऑवर में लोकल ट्रेन का सफ़र और चप्पल पेंसिल हील वाली। आख़िरी स्टॉपेज वाली ट्रेन कई बार उधर (शायद सात नम्बर पर) ही रुक जाती है ..अब चलिये वहाँ से आधा फ़र्ल्लांग पैदल।
    वैसे लोकल में चढ़ने-उतरने का मेरे पास एक ईज़ाद किया नुस्ख़ा है। बस आपको इतना करना है कि ट्रेन के गेट के पास आकर खड़े भर होने की ज़रूरत है बाकी काम भीड़ का रेला ख़ुद कर देगा।
    ट्रेन की गर्मी ..फ़ुल स्लीव की ड्रेस ..गरमागरम कॉफ़ी....(और टपकता पसीना) भई वाह! क्या कहने कॉफ़ी के। ये हिम्मत आप ही कर सकती हैं। इस हिम्मत के लिये आपको सलाम! नमस्ते!!सतश्री अकाल!!! और हाँ! ये जो डिस्पो कप को मोड़ कर पर्स में रख लिया ..भई कमाल का आइडिया है, इसके लिये एक बार फिर सलाम! नमस्ते!!सतश्री अकाल!!!
    और आख़िर में बाय-बाय!! टा-टा!!!! अरे ज़ल्दी करो न!फ़ास्ट वाली निकल जायेगी फिर स्लो में जाना पड़ेगा। हाँ चप्पल की चिंता मत करो फेक दो यहीं।

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