हॉस्टल से छुट्टियों में घर जाती तो टी.वी.पर भी फिल्म देखने का मौका मिलता पर मैं कभी आराम से बैठकर फिल्म नहीं देख पाती. वज़ह? सबके बैठने की व्यवस्था करती,मुझे ही जगह नहीं मिलती. बीच की टेबल हटाकर दरी बिछाई जाती,जिसपर पास-पड़ोस के बच्चे बैठते, सोफे पर पापा के मित्र विराजमान रहते, दरवाजे के बाहर कुछ कुर्सियां लगाईं जातीं जिसपर मम्मी और आस पड़ोस की लड़कियां बैठती, मैं कभी दरवाजे के बाईं तरफ से झांकती कभी दायीं तरफ से.तसल्ली से बैठकर देखना कभी मयस्सर नहीं हुआ. गर्मी की छुट्टियों में ननिहाल में हम सब भाई बहनों का कुनबा जुटता तो किराए पर वी.सी.आर.मंगवाई जाती. पूरी रात जागकर हम तीन तीन फिल्मे देखा करते और सुबह बड़े लोगों से नज़रे बचाकर आपस में कहते,'किसी भी फिल्म का कुछ भी याद नहीं' :)लेकिन फिर कुछ ही दिनों बाद फिर से वी.सी.आर.मंगवाने की जिद करते.
समस्तीपुर से पापा का ट्रान्सफर 'गिरिडीह' हो गया. यहाँ बिलकुल पड़ोस में
ही एक सहेली मिल गयी 'रूबी'. भगवान शायद पहले से ही इन्तजाम करके रखते थे या अगर स्पिरिचुअल गुरु 'दीपक चोपडा'या आजकल के युवाजनों की गीता 'The secret' के रचयिता 'Rhonda Byrne' के शब्दों में कहें तो शायद ये 'Law of Attraction ' था.उम्र के हर पड़ाव पर मुझे सामान रूचि वाले मित्र हमेशा मिलते रहे. गिरिडीह के सिनेमा हॉल ज्यादा ख़ूबसूरत,ज्यादा बड़े और साफ़ सुथरे थे. वहाँ कई फिल्म प्रोड्यूसर्स के टेनिस कोर्ट, स्विमिंग पुल युक्त बंगले भी हैं. ' थियेटर भी उन्ही लोगों द्वारा निर्मित था. 'नदिया के पार ' की नायिका 'साधना सिंह ' की शादी भी गिरिडीह के ही एक प्रोड्यूसर से हुई है. ( वहाँ अबरख (mica) की खानें हैं ..)


अक्सर हॉल खाली ही हुआ करता और डी.सी.में सिर्फ हम दो सहेलियां ही होती थीं. एक बार एक मजेदार वाकया हुआ. जूही चावला की कोई फिल्म थीं और वो हाथ में चाकू लिए विलेन से जूझ रही थीं. मैं सीन में एकदम इन्वॉल्व हो गयी थी कि अचानक फ़ूड स्टॉल के एक छोटे से बच्चे ने आकर पूछा 'कोल्ड ड्रिंक' लेंगी और मैं इतनी जोर से डर गयी कि आजतक सोचती हूँ, मैं चिल्लायी कैसे नहीं?
बिहार में आपराधिक गतिविधियों और लड़कियों की असुरक्षा को लेकर हमेशा बातें की जाती हैं।पर मैंने बिहार के छोटे शहरों में सहेलियों के साथ बिना किसी एस्कॉर्ट के फिल्मे देखी हैं और कभी किसी अशोभनीय घटना का सामना नहीं करना पड़ा. छेड़छाड़ तो दूर ,कभी फब्तियां भी नहीं कसी गईं. हाँ कभी कभी फिल्म 'हासिल' की तरह...हमारे रिक्शे के पीछे-पीछे साईकिल चला,लड़के चुपचाप हमें घर तक छोड़ जाते.:)

शादी के बाद थियेटर में फिल्मे देखना तो बंद ही हो गया. यूँ भी उन दिनो दिल्ली में थियेटर जाने का रिवाज़ नहीं
था और वी.सी.आर. पर फिल्मे देखने की सुविधा भी थी. हमलोग मयूर विहार के 'नवभारत टाइम्स अपार्टमेन्ट ' में रहते थे. वहाँ सारे फ्लैट्स...पत्रकार,लेखकों के थे . दो फ़्लैट के बाद ही 'विष्णु खरे' रहते थे. उनकी सुपुत्री "प्रीति खरे' ने टी.वी. सीरियल्स में काम करना शुरू कर दिया था. कई टी.वी. कलाकार उनके घर आते-जाते दिख जाते. प्रीति खरे' ने 'अनन्या खरे' नाम से फिल्म देवदास में देवदास की भाभी की भूमिका निभाई है.
जाहिर है, साहित्यिक रूचि वाले लोग हों तो वीडियो लाइब्रेरी में कला फिल्मे भी मिलेंगी. जिन जिन फिल्मो को देखने की इच्छा थी, सारी फिल्मो के कैसेट उपलब्ध थे. एक इतवार को मैं दीप्ती नवल और सुरेश ओबेराय अभिनीत , 'पंचवटी' देख रही थी,लाइब्रेरी से कोई कैसेट मांगने आ गया...मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ...."इस तरह की फिल्मे कौन देखता है??"..पतिदेव ने कहा , "यहाँ तुमसे भी बड़े बड़े दिग्गज हैं." बात तो सही थी.....पतिदेव ने मज़ाक में ही सही, लेकिन कला फ़िल्मों के महत्व को मेरी नज़रों में और बढ़ा दिया.
उन दिनों 'इजाज़त " और शेखर कपूर एवं डिम्पल कपाडिया अभिनीत "दृष्टि' कई कई बार देखी गयी थी (दृष्टि तो फिर से एक बार देखने की इच्छा है..अगर DVD मिल गयी तो यहाँ कहानी जरूर सुनाउंगी :)}
पर जल्दी ही वहाँ से घर बदल कर हम एक बिलकुल व्यावसायिक इलाके में आ गए, वहाँ..'कला फिल्मो ' का नाम लेती तो वीडियो लाइब्रेरी वाला अबूझ सा देखता रह जाता. उसने कभी नाम ही नहीं सुने थे,उन फिल्मो के. कई फिल्मे देखने से रह गयीं...जिनका अफ़सोस आज तक है. उनमे एक राखी अभिनीत "परोमा ' भी है. (उन दिनों के हिसाब से बहुत ही बोल्ड विषय था, एक मध्यमवर्गीय गृहणी और एक नवयुवक के बीच पनपती कुछ कोमल भावनाएं...और नवयुवक उसे खुद को सफल गृहणी से अलग एक नारी के रूप में देखने को विवश करता है)
(जारी...)
वो भूली दांस्ता लो फिर याद आ गई। हर फिल्म से जुड़ी कितनी बातें हैं। हर बात पहले वाली से जुदा।
जवाब देंहटाएंसंस्मरण रूपी रेल इंजन तो खूबसूरत नज़ारे दिखाता हुआ चलता हुआ आनन्द दे रहा है...आगे का इंतज़ार
जवाब देंहटाएंहे भगवान …………फ़िल्मो की दीवानी…………लगता है सारी फ़िल्मो की कहानी हम यहीं सुन लेंगे……………अच्छी चल रही है फ़िल्मी यात्रा संस्मरण के साथ्।
जवाब देंहटाएंमजा आ गया आपकी पोस्ट पढ़कर। ईमानदारी से कहूँ, मुझे तो मालूम ही नहीं था कि प्रीति खरे, विष्णु खरे जी की सुपुत्री हैं। आपने जिन फिल्मों के नाम गिनाये उनमें से कई फिल्में मेरी भी फेवरिट हैं।
जवाब देंहटाएंbhoolte bhagte chhanon ko pakad pana aasaan nahin hota..lekin aap yun kamyab zaroor hui hain.
जवाब देंहटाएंkhoob!
shahroz
कितनी अच्छी अच्छी फिल्मों का ज़िक्र किया है ... पर सबसे दिलचस्प वाकया है , बीच की टेबल हटाकर दरी बिछाई जाती,जिसपर पास-पड़ोस के बच्चे बैठते, सोफे पर पापा के मित्र विराजमान रहते, दरवाजे के बाहर कुछ कुर्सियां लगाईं जातीं जिसपर मम्मी और आस पड़ोस की लड़कियां बैठती, मैं कभी दरवाजे के बाईं तरफ से झांकती कभी दायीं तरफ से.तसल्ली से बैठकर देखना कभी मयस्सर नहीं हुआ. गर्मी की छुट्टियों में ननिहाल में हम सब भाई बहनों का कुनबा जुटता तो किराए पर वी.सी.आर.मंगवाई जाती. पूरी रात जागकर हम तीन तीन फिल्मे देखा करते और सुबह बड़े लोगों से नज़रे बचाकर आपस में कहते,'किसी भी फिल्म का कुछ भी याद नहीं' :)लेकिन फिर कुछ ही दिनों बाद फिर से वी.सी.आर.मंगवाने की जिद करते.....
जवाब देंहटाएंये दिन कितने जबरदस्त थे , याद रहे ना रहे , पर हाय क्या दिन थे वो भी क्या दिन थे !
आपके संस्मरण के साथ हम भी खोते चले गए !
जवाब देंहटाएंये यादें होती ही ऐसी हैं !
अच्छा लगा पढ़कर !
बेहतरीन....अभी भी इतनी ही फिल्में देखती हो क्या? सुन्दर संस्मरण चल रहा है.
जवाब देंहटाएंफिल्म देखने को वर्ल्ड रिकार्ड तो नहीं बनाना है ना? यह रेल तो फिल्मी रेल हो गयी है।
जवाब देंहटाएंलग रहा है फिल्म के रूमानी रिनासां का आख्यान चल रहा हो -
जवाब देंहटाएंसही शब्द अभ्रक है या अबरक ? मैं भ्रमित हो गया ?
@वंदना
जवाब देंहटाएंकुछ ऐसा ही संस्मरण किताबो को लेकर लिखने का मन है....
तब क्या कहोगी..."किताबों की दीवानी"...पर वो तो हम सब हैं ना...:)
@समीर जी,
जवाब देंहटाएंअभी तो तीसरा भाग बाकी ही है...:)
एक डाउट है. विकिपीडिया के अनुसार: "Sadhana Singh married into the Royal family of Varanasi after this movie's success." ये कुछ दिनों पहले ही पढ़ा था. कोहबर की शर्त किताब पढने के बाद फिल्म पर भी थोडा रिसर्च कर रहा था तो :)
जवाब देंहटाएं@अभिषेक ,
जवाब देंहटाएंहमने तो यही सुना था कि उनकी शादी गिरिडीह में हुई है. वे गिरिडीह आयीं भी थीं.
अब कुछ और लोग (खासकर गिरिडीह वाले ) इस पर प्रकाश डालें तो सही बात पता चले.
आपका इंजन तो सच में पूरी यादों की रेलगाड़ी लिये दौड़ रहा है। मौलिक स्टाईल है आपका, तारीफ़ ठीक ही सुनी-पढ़ी है आपकी।
जवाब देंहटाएंइनमे से कितनी फिल्मों के बारे में कुछ पता ही नहीं है मुझे तो.... अच्छा संस्मरण फिल्मों से जुड़ी यादों का .....
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट है आपका !मेरे ब्लॉग पर जरुर आए ! आपका दिन शुब हो !
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Shayari Dil Se
मन में बसे भाव सदा ही अपने जैसे भाव खींच लेते हैं।
जवाब देंहटाएंवाह जी क्या बात हे, यादे ही यादे, बहुत सुंदर लगा बीते पलो को जान कर, धन्यवाद
जवाब देंहटाएंरश्मि जी,
जवाब देंहटाएंअतीत के ऐसे लम्हे हम सभी ने संजोकर रखे हैं...
जब आप अपनी खास शैली में बयान करती हैं, तो यादें ताज़ा हो जाती हैं.
कई प्रसंग बहुत रोचक बने हैं.
@ पूरी रात जागकर हम तीन तीन फिल्मे देखा करते और सुबह बड़े लोगों से नज़रे बचाकर आपस में कहते,'किसी भी फिल्म का कुछ भी याद नहीं'
जवाब देंहटाएं*** हर घर की कहानी ...:)
आपकी पसंद क्या कहने,
जवाब देंहटाएंजिस आत्मीयता से आप कहानी ... नहीं नहीं संस्मरण सुनाती हैं कि लगता है आंखों के सामने चलचित्र सा सब कुछ घट रहा हो। उन बच्चों के साथ कभी हम भी दरी पर बैठ जाते हैं, तो कभी नदिया के पार चले जाते हैं।
जवाब देंहटाएंसमस्तीपुर तो अपना घर-दुआर है ही, गिरिडीह से दिल्ली तक के सफ़र में कभी भी कथावाचक का साथ नहीं छूटा।
जो एक और विशेषता मैंने नोट की वह यह कि एक-दो लाइन में जो आप किसी फ़िल्म का सारांश लिख देती हैं वह आपके एक अच्छी फ़िल्म समीक्षक होने का बहुत बड़ा प्रमाण है।
ये पोस्ट इतना ‘एबज़ॉर्बिन्ग’ है कि मन नहीं करता ब्रेक लेने का। आप अगली भाग शीघ्रातिशीघ्र पोस्ट करें।
कोल्ड ड्रिंक लेंगीं ?
जवाब देंहटाएं@हा..हा ..ना शरद जी...
जवाब देंहटाएंआजकल गला खराब रहता है. उम्र हो गयी है...अब :)
यादों के झरोखे से अतीत में झांकना बहुत अच्छा लगता है ! उस ज़माने में,(मेरा ज़माना आपसे भी शायद १५-२० साल और अधिक पुराना तो ज़रूर होगा),मनोरंजन का एकमात्र साधन फ़िल्में ही हुआ करती थीं ! तब फ़िल्में भी यादगार बनती थीं ! मदर इंडिया, दो बीघा ज़मीन, हीरा मोती, भाभी, मधुमती, महल, बैजू बावरा और भी ना जाने कितनी ! आज की फ़िल्में इनके सामने ट्रैश नज़र आती हैं ! 'इजाज़त' मेरी भी बेहद फेवरेट फिल्म है ! मधुर स्मृतियों को जगाने के लिये आपका आभार !
जवाब देंहटाएंऔर यहाँ हम अपने आप को "फ़्लॉप फ़िल्मों के मसीहा" समझे बैठे थे।
जवाब देंहटाएंआपके संस्मरण रोचक लगतें हैं जो आपकी उस समय की भावनाओं और सोच को प्रदर्शित करते चलते है.
जवाब देंहटाएंलगता है रेल मंथर गति से चलती जा रही है .दृश्य एक के बाद एक आते चले जाते है.
मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.'सरयू' स्नान का न्यौता है आपको.
बिहार के बारे में तुमने ये बहुत अच्छी बात लिखी की अपराधिक माहौल में भी लड़कियों के लिए काफी सुरक्षित रहा है ...वास्तव में वहां अपराध का कारण दो वर्गों के बीच आर्थिक असंतुलन ही अधिक रहा है !
जवाब देंहटाएंक्रमशः का मतलब है अभी डब्बे और भी जुड़ेंगे , जुड़े हुए हैं हम भी !
बचपन में ले गई आप ..राखी गुलज़ार अभिनीत परोमा मैंने देखि है ..पता है मैंने अंत नहीं देखा क्योंकि मैं अंत नहीं देखना चाहती थी
जवाब देंहटाएंइश्क पर ज़ोर नहीं का ये गाना मेरा सबसे पसंदीदा है...
जवाब देंहटाएंमहबूबा...तेरी तस्वीर किस तरह मैं बनाऊं....
जय हिंद...
वी सी आर पर तीन तीन पिक्चर तो हम भी देखा करते थे बचपन में ... क्या ज़माने होते थे वो भी ... आज लगता है की कुछ पराया सा माहॉल है अपने आस पास ... आपने अपने संस्परण में कई पुरानी पुरानी फ़िल्मो की यादें ताज़ा कर दी हैं ... कभी कभी उन्हे दुबारा देखने का दिल करता है ... पर रोज़ की मारामारी में ऐसा ख्याल बस ख्याल बन कर ही रह जाता है ...
जवाब देंहटाएंreally Assam
जवाब देंहटाएंreally Assam....................
जवाब देंहटाएंपहले पैरा तो मुझे भी एक दम से कई साल पीछे ले गया :)
जवाब देंहटाएंमजा आ गया इन फिल्मों की बातें सुनकर,
जवाब देंहटाएंविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
मेरी पसंदीदा फिल्मों में से एक कृष्णा शाह की "सिनेमा सिनेमा" को फिर से जीने जैसा अनुभव!!
जवाब देंहटाएंरोचक है आपका यह सफ़र, अच्छा है कि मुझे दो भाग एक साथ पढने को मिल रहे हैं। :)
जवाब देंहटाएंखूब आनंद आ रहा है आपके संग इस संस्मरणात्मक रेलयात्रा में...
जवाब देंहटाएंजारी रखें...
फिल्म नदिया के पार में इस उपन्यास की आधी कहानी ही प्रयोग हुई थी .उपन्यास की बाकी कहानी को लेकर नदिया के पार पार्ट 2 बननी चाहिए, जैसे पिछले वर्ष सचिन और राजश्री की फिल्म अखियों के झरोखों से फिल्म का पार्ट 2 फिल्म जाना पहचाना बनी थी, वैसे उपन्यास की बाकी कहानी क्या है
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