गुरुवार, 5 अगस्त 2010

फिल्म 'उड़ान' : एक नई ज़िन्दगी की, नए सपने की

फिल्म उडान देखने की योजना तीन बार बनी पर हर बार कुछ ना कुछ अड़चन आती गयी आखिरकार आज देख ही ली,और मन को झकझोर गयी यह फिल्म. कई लोगों ने समीक्षा की होगी और अपनी अपनी नज़र से देखा होगा.

पर मुझे पूरी फिल्म में यही लगता रहा,अगर माँ ना हो तो एक बच्चे की ज़िन्दगी कैसी अज़ाब हो जाती है.१७ वर्षीय रोहन आठ साल तक हॉस्टल में अकेला रहता है और उसके पिता उस से मिलने नहीं जाते.माँ जिंदा होती तो यह संभव था? वो और उसके चार दोस्त हॉस्टल से भागकर सिनेमा देखने जाते हैं. वहाँ एक उम्रदराज़ व्यक्ति को एक स्त्री के साथ प्रेम प्रदर्शन करते देख आवाजें कसते हैं और वह आदमी उनका वार्डेन निकलता है,ये दोस्त भागते हैं, एक दोस्त के पैर में मोच आ जाती है ,पर उसके कहने पर भी ये उसे छोड़ कर नहीं भागते और पकडे जाते हैं. स्कूल से इन्हें  निकाल दिया जाता है.

और अब असली कहानी शुरू होती है, रोहन घर आता है तो पता चलता है उसका छः साल का एक छोटा भाई भी है. जिसे शायद जन्म देते ही उसकी माँ गुज़र गयी थी. राम कपूर रोहन के स्नेहिल चाचा हैं.उनके घर पर रोहन के भविष्य की बात होती है और उसके पिता अपना फैसला सुनाते हैं कि उसे आधे दिन उनकी फैक्ट्री में काम करना होगा और उसके बाद इंजीनियरिंग कॉलेज में पढाई करनी होगी .रोहन कहता है, उसे इंजिनियर नहीं बनना ,वह साहित्य पढना चाहता है  और उसके पिता उसपर हाथ उठाते हैं...कि 'एक तो स्कूल से निकाल दिया गया,अब जबाब देता है'. वह भागता है तो उसे गिराकर उसके पिता मारते हैं .चाचा किसी तरह बीच-बचाव करते हैं.

उसके पिता बहुत सख्त हैं वे कुछ नियम समझाते हैं...घर में रहना है तो उन्हें पापा की जगह सर कह कर बुलाना होगा, नीची नज़र कर बात करनी होगी, किसी बात का उल्टा जबाब नहीं देना होगा और फैक्ट्री में काम और इंजीनियरिंग कॉलेज में   पढ़ाई करनी होगी (यहाँ निर्देशक  ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि बिना बारहवीं पास किए कोई बच्चा कैसे इंजीनियरिंग में  कॉलेज में दाखिला ले सकता है?? उसके पिता कहते हैं  ,उन्हें कई जगह हाथ जोड़ने पड़े,सिफारिश करनी पड़ी...फिर भी यह नामुमकिन सा लगता है. इतनी ख़ूबसूरत और यथार्थवादी फिल्म के निर्माता-निर्देशक से इस चूक की उम्मीद नहीं थी हालांकि इस से फिल्म के कथानक पर कोई असर नहीं पड़ता)

सुबह सुबह वे रोहन को उठा जॉगिंग के लिए ले जाते हैं, पुश-अप्स करवाते हैं और छोटा बेटा अर्जुन, स्टॉप वाच लिए अकेला गेट पर खड़ा उनकी टाइमिंग पर नज़र रखता है. यह फिल्म मुख्य पात्र 'रोहन' के गिर्द घूमती है पर वह छोटा मासूम अर्जुन काफी सहानुभूतियाँ  बटोर ले जाता है.रोहन के तो फिर भी हॉस्टल में मित्र थे पर यह छोटा बच्चा तो अकेला, उस तानाशाह पिता की ज्यादतियां सहता रहा.

रोहन को कवितायेँ और कहानियाँ लिखनी पसंद थीं.जो कि अक्सर अपने बेटे के लिए बड़ा सपना देखने वाले मध्यमवर्गीय पिता को नागवार गुजरता है. बस यहाँ रोहन के पिता कुछ ज्यादा सख्त हैं और उसके बचाव या उसके मन की बात समझने वाली माँ भी नहीं है.रोहन फैक्ट्री में काम करता है और कॉलेज में अकेला इधर उधर बैठा ,कविताएँ लिखा करता है.या फिर एक बड़े से मैनहोल में सर घुसा अपने पिता की बातें जोर जोर से दुहरा कुछ सुकून पाने की कोशिश करता है.

एक बार चाचा के साथ,ये लोग पिकनिक पर जाते हैं और चाचा  रोहन के लेखन की  तारीफ़ करते हुए उसे  इक कविता सुनाने के लिए कहते हैं.रोहन के पिता मना करते हैं फिर भी वे सिफारिश करते हैं कि,"भैया वह इतना अच्छा लिखता है , उसने नॉवेल भी लिख रखी है." रोहन अपने मन की बात कविता में ढाल कर बहुत सुन्दर ढंग से कहता है...जिसका सार यही है कि "आपने आँखों के परदे हटाकर कभी देखने की कोशिश ही नहीं की  कि मैं क्या चाहता हूँ " पर उसके पिता कहते हैं .."यह कविता 'सरिता' या 'गृहशोभा' में छप जाएगी या कोई अठन्नी देकर चला जायेगा ,इस से ज्यादा कुछ नहीं होगा " हर लिखने-पढने वाले का शौक रखनेवालों को जीवन के किसी मोड़ पर ऐसी बातें सुनने को मिल ही जाती हैं. हर मध्यमवर्गीय माता-पिता को यह डर लगा रहता है कि कहीं उनका बच्चा ,कविता-कहानी में उलझ कर अपना कैरियर ना चौपट कर ले.

जहाँ इतनी कठोरता ,इतनी बंदिशें होती हैं वहाँ कुंठा भी अपने रास्ते ढूंढ लेती  है और रोहन पिता के पर्स से पैसे चुराकर रात में कार निकाल एक बार में चला जाता है,वहाँ उसके कुछ सीनियर उसकी रैगिंग करना शुरू करते हैं पर फिर दोस्त बन जाते हैं. (यह दृश्य कुछ कमजोर लगा...हंसी भी नहीं आई) दोस्तों के साथ अक्सर वह रात में घूमना शुरू कर देता है.एक बार बार में मार-पीट भी कर लेता है और अपने पुराने दोस्तों को फोन करके  बताता है. इस उम्र में यह थ्रिल शायद   सबसे अच्छी लगती है. एक दोस्त कहता है.."पापा तो कुछ बोलते ही नहीं,न्यूजपेपर पढ़ते रहते हैं और माँ,मुहँ फुलाए रहती है...बात ही नहीं करती ' यह स्थिति किसी भी बच्चे के लिए बहुत त्रासदायक है.

रोहन अपने दोस्तों से कहता  भी है, कि वह जब हर सब्जेक्ट में फेल हो जायेगा तो उसे इंजिनियर कैसे बनायेंगे? और वह सचमुच फेल हो जाता है.इधर उसका छोटा भाई स्कूल में चिढाये जाने पर दो लड़कियों को मारता है. उसकी कुंठा भी तो कहीं निकलेगी? प्रिंसिपल उसके पिता को फोन करती है कि उसे आकर घर ले जाएँ.पिता की बिजनेस मीटिंग चल रही है और लाखों की डील फाइनल होनेवाली है.पर उसे छोड़ उन्हें स्कूल जाना पड़ता है,उस बच्चे को वह इतना मारते हैं कि वह बेहोश हो जाता है और उसे हॉस्पिटल में भरती करना पड़ता है.पर वह रोहन से और डॉक्टर से झूठ कहते हैं कि वह सीढियों से गिर गया है. (निर्देशक ने इतनी मेहरबानी की कि यह दृश्य दिखाए नहीं,उसकी पीठ पर पड़े निशानों से पता चला) पर रोहन वह निशान देख,समझ जाता है. उसके पिता रोहन को छोटे भाई का ख्याल रखने को कह 3 दिन के लिए कलकत्ता चले जाते हैं.हॉस्पिटल में रोहन , छोटे भाई को कविताएँ,कहानियाँ सुनाया करता है और धीरे धीरे दूसरे पेशेंट्स, नर्स,डॉक्टर,तमाम लोग रूचि से उसकी कहानियाँ सुनने लगते हैं. इसी बीच उसके पिता उसका रिजल्ट लेकर आते हैं और उसे खींच कर उठा कर  ले जाते हैं और बहुत बुरा-भला कहते हैं.

उसके पिता कहते हैं,अब वे दूसरी शादी कर लेंगे, अर्जुन को हॉस्टल भेज देंगे और उसे कॉलेज के बदले पूरा समय अब फैक्टरी में बिताना होगा.

रोहन अपने दोस्तों को फोन करता है.वे बताते हैं कि तीनो दोस्त एक दोस्त के पिता के रेस्टोरेंट में काम करते हैंऔर काफी मुनाफा हो रहा है.वे उस से भी कहते हैं "तू भी बॉम्बे आ जा..सब मिलकर मजे करेंगे" वह दूसरे दोस्तों को भी बात करने को बुलाता है..पर रोहन अपनी ज़िन्दगी की परेशानियों से इतना दुखी है कि दोस्तों की ख़ुशी से चहकती आवाज़ सुन नहीं पाता और फोन रख देता है.यह दृश्य बहुत ही टचिंग है. और रजत बरमेचा ने बहुत ही मार्मिक अभिनय किया है.

पिता की  शादी की बात सुनकर छोटा भाई समझाने आता है और कहता है,अर्जुन को हॉस्टल मत भेजिए, हमें दे दीजिये.इसपर वह उन्हें बहुत भला-बुरा कहते हुए व्यंग्य कर देते हैं कि "तुम्हारा अपना बच्चा तो कोई है नहीं" छोटा भाई जाने लगता है तो रोहन उनके पीछे दौड़ता है, कि मुझे भी अपने साथ ले चलिए. पर वे उसे समझाते हैं कि उसे अर्जुन के लिए इस घर में रुकना चाहिए.अर्जुन का  और कोई नहीं. जब वह लौटता है तो देखता है...उसके पिता उसकी लिखी कविताओं और कहानियों की कॉपियाँ जला रहें हैं. (यह वो सीन था, जब मैने आँखों पर हाथ रख लिए ...नहीं देख पायी यह दृश्य ,अक्सर जब खून-खराबे का दृश्य हो तो मैं नहीं देख  पाती...पहली बार महसूस  हुआ कि लिखी इबारतें भी वही महत्त्व रखती हैं....हालांकि बाद में ख़याल आया कि उस बच्चे के चेहरे का एक्सप्रेशन देखना चाहिए था कि कितना निभा पाया  वह इस दृश्य  को...वैसे निराशा नहीं होती...उसने जैसे इस पात्र को जिया है )

उसके पिता,एक बच्ची की माँ से मिलवाते हैं कि वे उस से शादी करने जा रहें हैं. सब मिलकर रोहन की 18th birthday मनाते हैं. पिता , दादा जी की घड़ी रोहन को विरासत में देते हैं इस ताकीद के साथ कि वह हमेशा चलती रहें. रोहन के सीनियर्स उसे कहते हैं कि क्या वह ज़िन्दगी भर,अपने पिता की फैक्ट्री में नौकरी करेगा, छुप कर कवितायेँ लिखेगा और लड़कियों की तरह रोयेगा.रोहन एक झील के पास कार लेकर जाता है और एक रॉड  ले गाड़ी के सारे शीशे और गाड़ी को भी तोड़ डालता है.यहाँ एक भी डायलौग  नहीं है पर रोहन की पूरी body language   बोलती है कि "अब और उसे कोई क्या सजा देगा...कर लो जो करना है"

एक पुलिसमैन उसे पुलिस स्टेशन ले जाता है.उसके पिता आते हैं,पूछते हैं "वो कहाँ है? रोहन आशा भरी नज़रों से  उन्हें देखता है. पुलिसमैन उसकी तरफ इशारा करता है तो वे कहते हैं "ये नहीं...मेरी गाड़ी" रोहन को गंदे दीवारों और गंदे कम्बल में लॉक-अप में रात गुजारनी होती है.

सुबह उसे छोड़ दिया जाता है.वह अपने घर जाता है, तैयार होता है और बैग ले निकल पड़ता है. पिता की नई पत्नी और उसके रिश्तेदार घर में बैठे होते  हैं.पिता के पूछने पर कहता है ,"मैं घर छोड़ कर जा रहा हूँ"

"मेरी शादी से खुश नहीं हो ??"

" खुश हूँ कि अब आपकी भड़ास कहीं और निकलेगी ..और अर्जुन को बेल्ट से मार खाकर हॉस्पिटल नहीं जाना पड़ेगा " रोहन सबके सामने कह देता है.

पिता उसके पीछे दौड़ते है और सीढियों पर उसे मारते हैं,इस बार रोहन भी पलट कर एक जोर का पंच उन्हें देता है.पिता उसके पीछे दौड़ते हैं...और एक लम्बी चेज़  होती है,पिता-बेटे के बीच.आखिरकार इतने जॉगिंग के बाद भी पिता की उम्र सामने आ जाती है और वे रोहन को नहीं पकड़ पाते. रोहन दिन-भर घूमता हुआ,अपने चाचा के घर जाकर उन्हें बताता है...कि मैं बॉम्बे (हाँ,इस फिल्म में मुंबई नहीं कहा गया है..और लगता है..राज ठाकरे के कानों तक नहीं पहुंची )
  जा रहा हूँ,मैं चौकीदारी  कर लूँगा पर वापस घर नहीं  जाऊंगा"

वह माँ के साथ अपने बचपन की फोटो देखता है...सोचता रहता है और सुबह अपने घर की तरफ आता है.वहाँ अर्जुन हॉस्टल जाने के लिए तैयार बैठा है और उसके पिता ऑटो लाने गए हैं.रोहन  पिता की दी हुई घड़ी और एक चिठ्ठी रखता  है, जिसमे लिखा है
"मैं इस कूड़ेदान  में अर्जुन को नहीं छोड़ सकता, उसे अपने साथ ले जा रहा हूँ और उसका भविष्य उज्जवल बनाऊंगा.आप अपने नए परिवार के साथ खुश रहिये"
प्यार (पर इस शब्द का अर्थ तो आपको पता नहीं )
आपका बेटा
रोहन

और अर्जुन पहली बार हँसते, बात करते, उछलते हुए  सड़क पर अपने बड़े भाई का हाथ पकडे चल रहा है...यही है नई ज़िन्दगी की तरफ उनकी उडान.

इस फिल्म का लेखन और निर्देशन बेमिसाल है. एडिटिंग  भी कमाल की है.एक भी सीन फ़ालतू नहीं लगता. कठोर पिता की भूमिका में "रोनित रॉय' का अब तक का सर्वश्रेष्ठ अभिनय है.राम कपूर अपनी छोटी सी भूमिका में फिल्म की बोझिलता कम करते हैं. रोहन के किरदार में "रजत बरमेचा' और अर्जुन के किरदार में 'आयान  बोरादिया' ने बहुत ही बढ़िया अभिनय किया है पर इसका श्रेय निर्माता 'अनुराग कश्यप' एवं निर्देशक 'विक्रमादित्य मोतवाणी' को जाता है. सुना है रजत को एक महीने तक टी.वी. ,मोबाइल और अपने दोस्तों से दूर रखा गया ताकि वह इस बच्चे रोहन जैसा महसूस कर सके. जो उसने बखूबी किया है.उसके चेहरे के भाव ही बोलते हैं.

शायद 'पिता' का इतना कठोर होना थोड़ी अतिशयोक्ति लगे .पर दुनिया में इतना कुछ घटता रहता है कि किसी बात पर अब हैरानी नहीं होती.बस यही दुआ है ईश्वर से कि किसी बच्चे की माँ छीन लें तो सिर्फ उसका शरीर ही ले जाएँ.उसका ह्रदय उसके पिता के दिल में स्थापित कर दें.

37 टिप्‍पणियां:

  1. अच्छा लिखा हैं आपने. मुझे पसंद आया.
    लेकिन मुझे लगता हैं कि--"आपने शायद कुछ ज्यादा ही लम्बा लिख दिया हैं. कृपया थोड़ा कम (छोटा) लिखने का प्रयास करे. बाकी, लिखा अच्छा हैं."
    धन्यवाद.
    WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM

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  2. मैं तो यही कहूंगा-----आमीन! मां का हृदय पिता के दिल में...। वाह...अच्छा लिखा।

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  3. यानि कि अब फिल्म देखना ही होगा ... अब एक कवि के बचपन का दृश्य .... नही नही ...अपने साथ ऐसा बिलकुल नही हुआ ... जो हुआ उस पर फिल्म तो बन ही नही सकती ... वैसे अनुराग का डायरेक्शन तो अच्छा होता है ... मुझे लगता है उस ने प्राइवेट 12 वी की परीक्षा दी होगी । लेकिन मुझे एक बच्ची याद आ गई जिसने इस तरह का जीवन जिया है , सौतेली माँ और पिता का इसी तरह का व्यवहार । खैर कहानियाँ तो इर्द गिर्द बिखरी पड़ी है .. । ऐसे विषयों पर फिल्मे बननी चाहिये । लेकिन वह कवितयें कहानियाँ जलाने का दृश्य .. मै भी नही देख सकता । अच्छा हुआ आपने बता दिया ... तो फिल्म देख ली जाये इससे पहले की बॉम्बे की जगह मुम्बई हो जाये ?

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  4. नहीं शरद जी, रोहन, स्कूल से निकाला गया और सीधा कॉलेज में एडमिशन...ये कुछ समझ में नहीं आया .कुछ तो एक्सप्लेन करना चाहिए था,जैसे जब अचानक कार चलाने लगता है तो बताता है कि छुट्टियों में वह प्रिंसिपल की गाड़ी साफ़ करता था और चलाता भी था.

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  5. बहुत बढ़िया जी बहुत बढ़िया.....अब तक उड़ान नहीं देख पाया लेकिन अब देखना पड़ेगा।

    पोस्ट भी बैलेंस्ड लगी है। ज्यादा कहीं पर बेवजह का नैरेशन नहीं दिख रहा मुझे। जहां तक कविताएं और कहानीयों के जलाए जाने की बात है तो यह सोचिए कि कल को कहीं हमारा गूगल बाबा....अपने कजिन ब्लॉगर को लेकर कहीं बैठ गया तब हमने जो इतना सारा लिखा है....उस वक्त हमारी क्या हालत होगी....बेहतर है कि बैकअप लेते रहा जाय :)

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  6. बहुत सुन्दर और विस्तृत समीक्षा. तमाम दृश्य साकार हो गये. फ़िल्म देखते समय अब इन दृश्यों को खास तौर से देखूंगी. अच्छी फ़िल्में बीच-बीच में आती रहें, तो मायानगरी पर भरोसा बना रहता है. :)

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  7. hmmm, aapki is sameeksha ke baad to film dekhni hi padegi jee, shukriya parichay karwane ke liye is film se, dekhte hain agli fursat me hi,
    shukriya

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  8. वास्तव में मन को छू जाने वाली फिल्म है और साथ ही तुम्हरी लिखी कुछ पंक्तियाँ ...
    जैसे ..लिखने का शौक रखने वाले को कभी न कभी यह सब सुनना पड़ता है ...मध्यमवर्गीय अभिभावकों का डर ...आदि आदि ..
    एक बच्चे के लिए मां का नहीं होना बहुत ही कष्टकारी है ...मगर मुझे लगता है माँ के होते हुए भी उसका हृदयहीन,स्वार्थी , (सिर्फ अपने बारे में , अपनी खुशियों के बारे में सोचना) होना ज्यादा तकलीफदेह होता है ...
    आपकी रचनाओं को (जैसी भी हों ) जलाया जाना अपनी आँखों से अपनी चिता जलते हुए जैसा ही होता होगा ...और यदि ये खुद ही जला दी जाएँ तो ....!
    कुछ दृश्य मैं भी नहीं देख पायी ...जैसे हरियाणा में डबवाली में हुआ अग्निकांड ...तिरंगे में लिपटे कारगिल से लौटे जवान ...आदि-आदि

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  9. @ रश्मि जी ,
    फिल्में देखना छोड़े हुए वर्षों बीत गये आज आपकी आँखों से फिल्म देखी ,पिता की क्रूरता के बाद फिल्म का अंत अपील करता है !
    फिल्म में कुछ झोल जरुर होंगे जैसा कि आपने बताया लेकिन मेरा व्यक्तिगत मत है कि फिल्म और सीरियल्स देखते वक्त दिमाग को आराम करने देना चाहिए यानि कि ...
    फिल्म यथार्थवादी हो कि नहीं दर्शक यथार्थवादी जरुर होने चाहिए :)

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  10. मैं पता नहीं किन कारणों से फिल्म नहीं देख पा रहा, दो तीन पार प्लानिंग कर चूका हूँ...अब तो देखनी ही परेगी...कितनों से बड़ाई सुन चूका हूँ ..
    और अब आप..
    वैसे आपने सही नहीं किया, लगभग पूरी कहानी ही बता दी...अब फिल्म देखने में कहाँ वो मजा आएगा...:P हद होती है किसी बात की :P

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  11. रश्मि जी...
    आप ब्लॉग जगत की फिल्म समीक्षक साबित हो रही हैं...पर अच्छी बात यह है की आप उन्हीं फिल्मों की समीक्षा करती हैं जो आपके विवेक के तराजू पर खरी उतरती है...आप इसके लिए प्रशंसा की पात्र हैं...

    आपकी समीक्षा से हम से पाठकों को भी हर फिल्म की कहानी का चल-चित्र दिख जाता है जो किन्हीं कारणों से सिनेमा हाल अथवा सी डी पर फिल्म देखने का मौका नहीं पाते...

    आगे भी ऐसे ही समीक्षा करती रहें...ये हमारा अनुरोध है...

    दीपक....

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  12. मुझसे पूछिए... कि एक बिन माँ का बच्चा ... कैसा फील करता है... ? फिल्म में तो फिर भी माँ ज़िन्दा है... लेकिन हम जैसों को कैसा लगता होगा... जिनकी माँ बचपन में ही चलीं जातीं होंगी... अगर आप इस फिल्म का ओरिजिनल देखेंगीं ना ...तो हफ्ते भर तक आँखों में आंसू ही रहेंगें.... मैं हिंदी फ़िल्में सातवीं क्लास से देखना छोड़ दिया... क्यूंकि सब hollywood की रिमेक ही होतीं हैं... तो फिर क्यूँ ना ओरिजिनल ही देखी जाएँ....इस फिल्म को मैंने आज से ५ साल पहले ही देखा था... और आज भी मेरे पास यह सेव है... जब मूड होता है... तो ज़रूर देखता हूँ... जब यह फिल्म देखा था तो बिलकुल ऐसा लगा था जैसे ...यह मेरे ही ऊपर बनायीं गयी है... मैंने इसका रिविऊ पढ़ा है... हिंदी में भी अच्छी बन पड़ी है... आपको अब फिल्म एनालिस्ट बन जाना चाहिए... कितनी सफाई और खूबसूरती से आपने फिल्म का एनालिसिस किया है...आपके इस टैलेंट को सैल्यूट.... एक फिल्म और आई थी... टोटली इंडियन मूवी थी... जिसे... विनय शुक्ल जी ने बनाया था... नाम था "घिर्री" ... वो भी फिल्म देखिएगा... शायद 1986 में आई थी...

    बहुत अच्छी लगी आपकी यह पोस्ट...
    --
    www.lekhnee.blogspot.com


    Regards...


    Mahfooz..

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  13. ओह पूरी कहानी ही बता दी आपने,अब फिल्म क्या देखना!

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  14. @अरविन्द जी @ अभी
    मुझे लग रहा था कुछ लोग यह शिकायत करेंगे.पर जिन्हें यह फिल्म देखनी है वे मेरा नुस्खा आजमाया करें. मुझे जो फिल्म देखनी होती है,उसका रिव्यू मैं कभी नहीं पढ़ती और फिल्म देखने के बाद जरूर पढ़ती हूँ.
    और यह फिल्म कोई जासूसी फिल्म नहीं है कि अंत जानकर मजा किरकिरा हो जाए....बहुत कुछ है इस फिल्म में...अभिनय, आवाज़ का दर्द...सिचुएशन, चेहरे के भाव जिसे चंद पंक्तियों में क्या...शब्दों में ढाला ही नहीं जा सकता.सिर्फ देखकर ही महसूस किया जा सकता है.

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  15. बहुत बढ़िया समीक्षा ...लेकिन थोड़ा इस तरीके से पेश होती की फिल्म देखने की जिज्ञासा जागृत होती ....अभी ऐसा लग रहा है की फिल्म तो देख ली .....

    खैर फिर भी निर्देशन देखना है तो फिल्म देखनी ही होगी.....आभार

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  16. अरे वाह अपने तो पूरी फिल्म ही दिखा दी ..अच्छा है पैसे बच गए :) ..
    पर नहीं अब आपने इतना कुछ कह दिया है तो देखनी तो पड़ेगी ही :)
    बढ़िया समीक्षा की है एक और विधा आपकी झोली में :)

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  17. फ़िल्म तो देखने काबिल हूँ नहीं, तुमने बड़ा उपकार किया की ये पोस्ट डाली, बिल्कुल फिल्मी क्रिटिक के अंदाज में. इसके लिए आभार . लिख नहीं सकती लेकिन आँखों से पढ़ सकती हूँ.

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  18. आपने सही कहा दी.. फिल्म मैंने अभी तक देखी तो नहीं पर आपकी समीक्षा से भी यही सवाल मेरे मन में उठा था कि स्कूल से निकाल दिया गया फिर इंजीनियरिंग कैसे???? वैसे ये चलन आमिर खान का चलाया भी लगता है क्योंकि काफी हद तक ३ इडियट्स भी यथार्थ से परे ही है, आपको सच लगे या झूठ.. और अब हिन्दी सिनेमा यथार्थ से दूर भागने ही लगा है तो क्या किया जाये..
    यहाँ भी फिल्म में सर वाली बात हज़म नहीं हुई.. दूसरी बात मुझे हमेशा से ये खटकती है कि क्या खूबसूरत दिखने वाले, गोरे-चिट्टे लड़के ही हीरो होते हैं? क्या असल जीवन में जो कला या कमज़ोर या बदसूरत हुआ वो हीरो नहीं होगा.. फिर ये फ़िल्मी दुनिया चेहरे की चमक के पीछे क्यों खोये रहते हैं जबकि खुद ही ये भी कहते हैं कि 'दिल को देखो चेहरा ना देखू.. चेहरे ने लाखों को लूटा..'
    पढ़कर लगा कि निर्देशक कुछ जगह पर यह तय नहीं कर पाया कि उसे पिता को एक कठोर आदमी दिखाना है या दुनिया से डरकर अपने बच्चों को भटकने ना देने की चाह पाले एक अनुशासित इंसान.
    कहानी हल्की सी लचर जान पड़ती है लेकिन जैसा आपने सुझाया है कि अभिनय जबरदस्त है तो बाकी बुराइयां देखकर बताता हूँ.. क्या करुँ ऐसे ही फ्रस्टेशन निकालता हूँ कि इन लोगों ने मुझे कभी ब्रेक क्यों नहीं दिया.. :P

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  19. अब यह फ़िल्म जरुर देखेगे.... वेसे बिना मां के बच्चा हमेशा आधुरा ही रहता है, ओर यहां तो पिता ही जालिम सिंह बना फ़िरता है

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  20. बढ़िया फिल्म समीक्षा , अगर अनुराग कश्यप उत्तर भारतीय है तो , स्कूल के बाद इंजीनियरिंग हो सकती है , क्योकि ज्यादातर उत्तर भारतीय प्रदेशो में १२ वी कक्षा तक को स्कूली शिक्षा ही बोला जाता है.

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  21. आप बहुत अच्छा लिखती है, क्यों ना ब्लॉग जगत में एक-दुसरे के धर्म को बुरा कहने के ऊपर कुछ लिखें. किसी को बुरा कहने का किसी को भी बिलकुल हक नहीं है. लोगो का दिल दुखाना सबसे पड़ा पाप है.

    मुझे क्षमा करना, मैं अपनी और अपनी तमाम मुस्लिम बिरादरी की ओर से आप से क्षमा और माफ़ी माँगता हूँ जिसने मानव जगत के सब से बड़े शैतान (राक्षस) के बहकावे में आकर आपकी सबसे बड़ी दौलत आप तक नहीं पहुँचाई उस शैतान ने पाप की जगह पापी की घृणा दिल में बैठाकर इस पूरे संसार को युद्ध का मैदान बना दिया। इस ग़लती का विचार करके ही मैंने आज क़लम उठाया है...

    आपकी अमानत

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  22. @दीपक
    तुम्हे यकीन नहीं होगा,फिल्म हॉल से निकलते ही हम सहेलियाँ यही बात कर रहें थे कि हमेशा ऐसे रोल के लिए गोरे-चिट्टे ,ख़ूबसूरत,मासूम से लड़के को लेते हैं ताकि लोगों की सहानुभूति मिले. शुरुआत में चार लड़कों को देखकर भी हम समझ गए थे कि इसमें हीरो कौन होगा?
    'मासूम' फिल्म भी हम याद कर रहें थे कि उसमे भी नीली ऑंखें, गुलाबी होठ वाले नाजुक से लड़के को लिया था कि सारे दर्शक, करुणा से छलछला जाएँ.
    मैने भी कोई ऐसी फिल्म देखी,जिसमे लड़का बहुत ही साधारण शक्ल सूरत का हो तो जरूर यहाँ शेयर करुँगी.(वैसे याद करने की कवायद जारी है :))
    आजकल इतने बेसिर पैर की फिल्मे बनती हैं कि कोई फिल्म जरा सी भी लीक से हटकर हो तो पसंद आ जाती है.
    तुम्हारे कहने पर मैं भी यही सोच रही थी कि आखिर निर्देशक दिखाना क्या चाहते थे...शायद यही कि दुनिया से डरा हुआ,बच्चों को ऊँचे पद पर आसीन ,अति अनुशासित ज़िन्दगी देने की ख्वाहिश उसे इतना कठोर बना देती है.
    पर देख लो...फिल्म अच्छी है...खासकर जगह जगह...रोहन के द्वारा पढ़ी जाती कविता की पंक्तियाँ....काश मुझे याद रह जातीं :(

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  23. @आशीष जी
    हमें भी पता है, कि उत्तर भारत में बारहवीं तक स्कूल में ही रहना होता है..पर स्कूल से निकाले जाने पर सीधा इंजीनियरिंग कॉलेज??...बात कुछ हज़म नहीं हुई...क्यूंकि वह बीच का गैप नहीं दिखाया गया है..कि उसने प्रायवेट से परीक्षाएं दीं या ऐसा ही कुछ.

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  24. @संगीता जी, एवं शिखा
    कोई पैसे नहीं बचे आपलोगों के या जिज्ञासा नहीं ख़त्म हुई...आप दोनों कवियत्री हैं...इतनी सुन्दर कविताएँ पढता है वो रोहन...उसी खातिर देख लीजियेगा...(वैसे am sure...देखने के बाद कहेंगी,..अरे रश्मि ने तो ये सब बताया ही नहीं...बहुत कुछ बाकी है,बाबा...अब देख ही लीजिये...

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  25. @फिल्मो में तो किशोर कब गबरू जवान हो जाते है ये भी नहीं दिखाते , हो सकता है की निर्देशक उसके स्कूलिंग और अभियांत्रिकी में प्रवेश के बीच के समय को दिखाना फिल्म की कहानी के लिए इतना जरुरी ना मानता हो.अब दर्शक इतने जागरूक तो होते ही है की बीच के समय खंड को समझ ले.

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  26. काफ़ी अच्छी समीक्षा की है और देखने की उत्कंठा उत्पन्न हो गयी है।

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  27. बहुत विस्तार से , सभी बारीकियों को प्रस्तुत किया है आपने । रश्मि जी , बड़ी ध्यान से फिल्म देखती हैं आप । हमें तो बाहर निकलते ही याद नहीं रहता कि फिल्म का नाम क्या था ।
    वैसे अब तो कम ही अवसर आता है ऐसा ।

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  28. हॉस्टेल में भेजे जाने वाले बच्चों में कई के घर का यही हाल होता है। मैं कई दिन से हॉस्टेल में रहने वाले बच्चों पर लिखने की सोच रही थी।
    फिल्म की समीक्षा इतनी बढ़िया की है कि लगता है कि हम भी फिल्म देख आए।
    घुघूती बासूती

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  29. @रश्मि जी,
    अरे दी मैंने तो मजाक में कहा था ;)
    आपकी बात सही है - अभिनय, आवाज़ का दर्द...सिचुएशन, चेहरे के भाव जिसे चंद पंक्तियों में क्या...शब्दों में ढाला ही नहीं जा सकता.सिर्फ देखकर ही महसूस किया जा सकता है...

    फिल्म मैं देख के ही रहूँगा, सोमवार को जा रहा हूँ फिल्म देखने..और मैं भी फिल्म रिव्यू फिल्म देखने के बाद ही पढता हू..वैसे मुझे इस बात से कुछ फर्क नहीं पड़ता की फिल्म रिव्यू कैसी रही है, हाँ बस ये जरूर है की ये देखता हूँ फिल्म को कितने स्टार मिले हैं :D :D

    फिल्म देखने के बाद लगभग २-३ वेबसाइट पे फिल्म रिव्यू पढ़ता हूँ, ऐसे ही :)

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  30. लगता है की रोहन को मंमी के प्यार की प्यास लगा। अब वही
    मिल
    नहीं सकता, लेकिन अपने छोटे भाई को प्यार करने से
    दूसरा प्यार प्रापत किया। रोहन के पिता कैसे अपनी प्यास भर जाएगा
    ...। आश है जापान में यह फ़िलम देख सकूँ

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  31. आपने इतनी जिज्ञासा जगा दी है कि अब तो फिल्म देखे बिना लगता है चैन नहीं मिलेगा ! आपकी समीक्षा काबिले तारीफ़ है ! जीवन में अपने आस पास इतनी वीभात्सताएं देखने, पढने और सुनने को मिल जाती हैं कि कुछ भी असंभव नहीं लगता ! कहानी मार्मिक लग रही है ! मानवीय संवेदनाओं से भरपूर ऐसे कथानक मुझे हमेशा आकर्षित करते हैं !
    बेहतरीन लेखन के लिये बधाई !

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  32. पता है मैं भी ये फिल्म नहीं देख पा रही हूँ. कोई साथ जाने के लिए है ही नहीं. फिल्म की कहानी से तो मैं पहले ही परिचित थी, पर आपने सच में बहुत अच्छी समीक्षा की है.
    आपने लिखा है न कि अगर माँ चली जाए तो अपना दिल पिता को दे जाए. हमारे साथ बिल्कुल ऐसा ही हुआ था. बाऊ ने कभी हमें अम्मा की कमी महसूस नहीं होने दी थी.

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  33. सही कहा आपने,पूरी फिल्म में बस एक जगह यह चूक रह गयी कि ग्यारहवीं,बारहवीं बताने के बदले डायरेक्टर ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई बताई...वैसे जिस जगह पर उसने क्लास करते हुए दिखाया ,यह जमशेदपुर का इंटर कोलेज है,जिसमे सिर्फ प्लस टू की पढाई होती है..

    जमशेदपुर के बहार के लोगों के लिए तो यह एक फिल्म है...लेकिन हमारे लिए तो लाजवाब फिल्म के साथ साथ जबरदस्त बोनस भी है ,क्योंकि इसमें दिखाए सभी स्थान/लोकेशन हमारे चिरपरिचित हैं... हमारे उत्साह की तो कोई कल्पना नहीं कर सकता...
    वैसे आज भी इन जैसे शहरों में यह सब बहुत आम है..यह कहानी सत्य के अत्यंत निकट है...और आँखें खोलने ,सोचने को बाध्य करने वाला भी...

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  34. समीक्षा से ये तो साफ है कि इसकी कथा आपको दिल से छू गई। मैंने नेट पर कई जगह पढ़ा कि कई लोगों को फिल्म में प्रयुक्त कविताएँ फिल्म से भी ज्यादा अच्छी लगीं।

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  35. इसे पहले पढ़ा था लेकिन फ़िल्म का विश्लेषण तुमसे अच्छा कोई लिख ही नही सकता बेहद शानदार तुम्हे धुभकसमनाएं

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