ये पोस्ट उन सभी भाइयों को समर्पित है जन्होने किसी ना किसी कारण अपनी बहन को खो दिया है.
राखी के अवसर पर सबका मन ख़राब ना हो,इसलिए ये कविता काफी पहले ही पोस्ट कर रही हूँ. राखी पर एक खुशनुमा पोस्ट लिखूंगी....वादा :)
राखी का ऋण
पूरी बाहँ की कमीज़ पहने घूमा मैं,रक्षा बंधन के दिन,
बहना तुम बिन
बचपन बीता ,
सुहाग का जोड़ा ओढ़े
चली गयी तुम
संबंधों की मरीचिका में ,वहाँ
मृगी सी छली गयी तुम
धूप ने जब जब तुम्हारा
मन सुलगाया
लिखा तुमने
सकुशल हो
पत्र तुम्हारा जब भी आया
दुर्गन्ध, ओह! वह दुर्गन्ध
जली हुई देह की
होठों पे
अम्मा का नाम
आँखों में याद
बाबूजी के नेह की
किंकर्त्तव्यविमूढ़ सा
खड़ा हूँ, चुपचाप संबंधों की मरीचिका में ,वहाँ
मृगी सी छली गयी तुम
धूप ने जब जब तुम्हारा
मन सुलगाया
लिखा तुमने
सकुशल हो
पत्र तुम्हारा जब भी आया
दुर्गन्ध, ओह! वह दुर्गन्ध
जली हुई देह की
होठों पे
अम्मा का नाम
आँखों में याद
बाबूजी के नेह की
किंकर्त्तव्यविमूढ़ सा
यही सोच कटेंगे,अब
हर पल छिन
चुका नहीं पाया ,मैं
राखी का ऋण
बस स्तब्द्ध हूँ ..क्या कहूँ ? सोचा भी नहीं जा रहा .
जवाब देंहटाएंअभी मैं राखी पर कुछ लिखने की सोच ही रही थी कि आपकी पोस्ट आ गयी। बहुत ही मर्मान्तक कविता है। लेकिन ये ही भाई जब पति बनते हैं तो क्रूर क्यों हो जाते हैं?
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक कविता प्रस्तुत कर दी है आज तो ....
जवाब देंहटाएंमर्मान्तक , दहेज़ की बलिवेदी, ना जाने कितने भाइयो की कलाई सुनी कर जाती है हर साल . मानवता के नाम पर कलंक लेकिन अभी भी निरंकुश.
जवाब देंहटाएंइस कविता और पोस्ट ने ना सिर्फ रुलाया बल्कि दहलाया ज्यादा है... दहेज़ उत्पीडन की इस भयावहता को आज सभी महसूस करते हैं पर रोकने को आगे कितने बढ़ते हैं.. ऊपर से अब कोर्ट की दादागिरी
जवाब देंहटाएं.. तकलीफ यही है कि जो इसे दुखद और दर्दनाक बोलेंगे उनके हाथ भी दहेज़ के कीचड़ में सने ही होंगे कभी ना कभी.. लेने में नहीं तो देने में ही....
बहुत मार्मिक मुद्दा उठाया हैं आपने.
जवाब देंहटाएंक्या कहूँ, कुछ समझ में नहीं आ रहा हैं.
चुप हूँ, मौन धारण करता हूँ उनकी आत्मा की शान्ति के लिए, जो असमय चले गए.
धन्यवाद.
WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM
रश्मि जी...
जवाब देंहटाएंआपकी कविता ने दिल में दर्द भर दिया...
जो नहीं हो उसका दर्द फिर भी कम होता है, और अगर होके भी खो जाए तो उसका दर्द तो असहनीय ही होता है..
दीपक...
दुखद हैं ऐसे प्रकरण ...
जवाब देंहटाएंबहन को ससुराल से माल बटोर लाने की शिक्षा देने वाले भाई -भौजाई खुद अपने घर में निर्मम हो जाते हैं ...
दुर्गन्ध, ओह! वह दुर्गन्ध
जवाब देंहटाएंजली हुई देह की
होठों पे
अम्मा का नाम
आँखों में याद
बाबूजी के नेह की ...
बहुत मार्मिक ... असीम वेदना है इस रचना में ...
काश दहेज के दानव ये सोच सकें की उनकी भी बहन है कहीं न कहीं .....
भिगो गयी ये रचना अंदर तक ...
हाँ यह रिश्ते ही तो है ...
जवाब देंहटाएं"राखी का ऋण"............कैसे कोई चुका सकता है…………बेहद मार्मिक्।
जवाब देंहटाएंउल्लिखित घटना हौलनाक थी ! निंदनीय है !
जवाब देंहटाएंएक सार्थक कारण से लिखी गई कविता के लिए आपका आभार !
बहुत ही दर्दनाक कविता ।
जवाब देंहटाएंअच्छा किया पहले ही लगा दिया ।
रश्मि कविता अच्छी लगी किन्तु शीर्षक से सहमत नहीं हूँ। यह किस ऋण की बात कर रही हो? स्नेह के रिश्ते में ऋण कहाँ से आया? यदि भाई द्वारा कोई ऋण चुकाकर ही मुझे जीवन मिलता हो तो धिक्कार है ऐसे जीवन पर, नहीं चाहिए ऐसा जीवन।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
बहुत मार्मिक कविता प्रस्तुत कर दी..!
जवाब देंहटाएंलेकिन यह समाज की सच्चाई भी तो है...
अगर भाई अपनी बहन का दुःख समझ जाएँ तो ज़रूर दूसरे की बहन का भी दुःख समझ जायेंगे...
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
कवि के प्रति आभार व्यक्त करती हूँ..उनके मन के उदगार मन में हलचल मचा गए हैं...
सच क्हूं तो मै एक दम से हेरान रह गया कि कोई अपनी पत्नि को भी जला सकता है? एक तुच्छ चीज के लिये..... अजीत जी की बात से सहमत हुं, जब कोई भी भाई पति बने तो उसे ख्याल रहे कि उस की भी बहन है....एक दम से सुन्न रह गया मै तो
जवाब देंहटाएंमार्मिक कबिता है रश्मि जी! बस कुछ नहीं कहने का अनुमति दीजिए!!
जवाब देंहटाएंबस स्तब्द्ध हूँ ..क्या कहूँ ? सोचा भी नहीं जा रहा .....
जवाब देंहटाएंआजकल मैं कमेन्ट चोर हो गया हूँ.... मैं जानता हूँ अभी आप दोनों मुझे कहेंगीं......... 'चोट्टा कहीं का'
hi hi hi hi hi hi .....
दिल को छू लेने वाली पंक्तियाँ, अजित जी की बात भी विचारणीय है दोहरे मानदंड अपनाने वाले लोगों के लिए क्या हो सकता है? अपनी बहन बहुत प्रिय और दूसरे की बहन ?????
जवाब देंहटाएंओह!!
जवाब देंहटाएंकोई शब्द नहीं!!!
धर्मयुग में पढी हुई कविता.....बीस साल तो धर्मयुग के प्रकाशन को बन्द हुए हो गये...यानि? कुछ नहीं बदला...आज भी यही सब हो रहा है... बहुत मार्मिक रचना.
जवाब देंहटाएंश्रीमति अजीत गुप्त जी की बात भी सही है .. लेकिन ये ही भाई जब पति बनते हैं तो क्रूर क्यों हो जाते हैं?
जवाब देंहटाएंऊपर लिखा गद्य-प्रसंग मन को दुखी करता है | इस दिन पर फुल बांह के कपड़े की व्यथा के मूर्त अनुभव से पहनने वाला कितना और किस तरह गुजरा होगा , हम तो बस इसका अनुभव ही कर सकते है ! सोचनीय !
जवाब देंहटाएंआँसू टपका गयीं आप।
जवाब देंहटाएंआपकी संवेदना का शुरू से ही क़ायल रहा हूँ ...इस कविता को प्रस्तुत कर आपने हम सभी को स्तब्ध कर दिया है!!
जवाब देंहटाएंहमज़बान यानी समय के सच का साझीदार
पर ज़रूर पढ़ें:
काशी दिखाई दे कभी काबा दिखाई दे
http://hamzabaan.blogspot.com/2010/08/blog-post_16.html
शहरोज़
राखी के दिन कविता का इंतज़ार रहेगा,
जवाब देंहटाएंफ़िलहाल इस कविता पे कहने के लिए कुछ नहीं है..क्या कहूँ?
किंकर्त्तव्यविमूढ़ सा खड़ा हूँ, चुपचाप....
जवाब देंहटाएंमैं भी.. कुछ कहने को नहीं है.
कुछ कहने को नहीं है.... " ):-
जवाब देंहटाएंstabdh ? nahin , kuch anchahe lamhe aankhon se gujar gaye ... per achhi hun
जवाब देंहटाएंaapkee kavitaa aur prastutikaran to laajawaab hai hee ajit ji ne jo mudaa uthaaya hai us par bheman bahut sochtaa hai
जवाब देंहटाएंयही सोच कटेंगे,अब
जवाब देंहटाएंहर पल छिन
चुका नहीं पाया ,मैं
राखी का ऋण
किस वेदना से और पीड़ा से गुज़रा होगा वो भाई
क्या कहा जाए ?
कविता की पहली पंग्क्ति ही असहज, करती है, उद्वेलित करती है, एक कटु सच है और ऐसे सच हमें पसंद हैं. यह याद रह जायेगी.
जवाब देंहटाएं२. मृगी सी छली गयी तुम
३. दुर्गन्ध, ओह! वह दुर्गन्ध
जली हुई देह की
होठों पे
अम्मा का नाम
शुक्रिया
हे ,मन दुखी हो गया ,,अगली पोस्ट प्लीज !
जवाब देंहटाएंआँखे भीग गई इस कविता को पढ़ते हुए |मार्मिक |
जवाब देंहटाएंमार्मिक तो है ही…इसमें दुख की एक ऐसी अन्तर्गुंफित लय है कि उदासी देर तक भीतर जगह बना लेती है…और सोचने के लिये मज़बूर करती है…
जवाब देंहटाएंमार्मिक तो है ही…इसमें दुख की एक ऐसी अन्तर्गुंफित लय है कि उदासी देर तक भीतर जगह बना लेती है…और सोचने के लिये मज़बूर करती है…
जवाब देंहटाएंरचना संवेदित करती है ।
जवाब देंहटाएंप्रशंसनीय ।
जिसकी भी कविता है उसे बहुत बहुत साधुवाद ! इसे पढ़ के बिलकुल स्तब्ध और नि:शब्द हूँ ! इस दर्द से गुजरने वाले हर भाई के लिये आँखें नाम हैं ! आपने इसे पढवाया कैसे इसके लिये आपका धन्यवाद करूँ समझ नहीं पा रही हूँ ! केवल बहुत अच्छी ही नहीं असाधारण रचना है यह ! धन्यवाद !
जवाब देंहटाएंदुखद हैं ऐसे प्रकरण ...
जवाब देंहटाएंअब हमारी बहनें स्वयं भाईओं की रक्षा करने की तैयारी में हैं वे किसी मदद के लिए किसी की मुहताज नहीं है
जवाब देंहटाएंमेरी दो बेटियाँ हैं तो क्या वे अरक्षित रह जाएंगी
लड़किओं को अब अपनी रक्षा के लिए भाईओं का मुहं नहीं ताकना चाहिए