सोमवार, 2 दिसंबर 2013

साथ निभाने की जिम्मेवारी क्या सिर्फ एक पक्ष की है ??

तलाक /डिवोर्स जैसे शब्द लोगों को बहुत असहज कर जाते हैं. ये शब्द सुनते ही मस्तिष्क थोडा सजग, आँखें उत्सुक और कान चौकन्ने हो जाते हैं. जन्म-विवाह-मृत्यु की तरह इसे सामान्य रूप में नहीं लिया जाता. शब्द ही ऐसा है, दो लोग जो एक साथ जीने की तमन्ना  ले जीवन शुरू  करते हैं...सुख दुःख में साथ  निभाने का वायदा करते हैं अब एक दूसरे से अलग रहना चाहते हैं.
 
सैकड़ों साल पहले,हमारे समाज में  जब वैवाहिक संस्था का निर्माण हुआ था . आदिम जीवन पद्धति छोड़ कर दो लोगों ने साथ रहने का फैसला किया तब जीवन भर साथ निभाने की जिम्मेवारी दोनों पक्षों की रही होगी  .फिर धीरे धीरे पुरुष इस जिम्मेवारी से खुद को मुक्त करता गया और परिवार बनाए रखने  की जिम्मेवारी स्त्री के कंधे पर डाल दी गयी . शायद इसलिए भी कि स्त्री शारीरिक रूप से कमजोर रही है और आर्थिक रूप से पति पर निर्भर . श्रम वह भी पुरुषों से कम नहीं करती थी/है पर शिकार करके  लाना, खेतों में हल चलाना जैसे शारीरिक श्रम वाले कार्य पुरुष ही करते थे और वे खुद को श्रेष्ठ समझने लगे. एक पत्नी के रहते उन्होंने दूसरी स्त्री से विवाह करना शुरू कर दिया .जबकि ज़िन्दगी भर साथ निभाने का वायदा तो पहली पत्नी के साथ था ,लेकिन उन्होंने  आसानी से वो कसम तोड़ दी जबकि स्त्री ने आजीवन उसे निभाया .
 
हम अपनी पौराणिक कथाओं में पढ़ते रहे हैं ,"एक राजा की चार रानियाँ थीं " और इसे सहज रूप से स्वीकार करते रहे हैं. बचपन में पढ़ा, एक रुसी लेखिका का इंटरव्यू याद आ रहा है (जरूर धर्मयुग में ही पढ़ा होगा ) जिसमे उन्होंने कहा था ,"हमने कई हिंदी पौराणिक कथाओं  के रुसी  अनुवाद किये हैं पर हमें अपने बच्चों को ये समझाने में कि एक राजा की दो/तीन/चार रानियाँ थीं  बहुत मुश्किल होती है " तब मैंने पहली बार जाना था कि कुछ समाज ऐसे भी हैं जहां एक समय में एक राजा की एक ही रानी होती है.
इसके उलट हमने कभी किसी कथा  में ये नहीं पढ़ा कि एक रानी थी, उनके चार राजा थे .या एक स्त्री थी उसके दो पति थे . (द्रौपदी का उदाहरण बिलकुल अलग है और यहाँ भी द्रौपदी की  मर्जी से उसके पांच पति नहीं बने थे ) .
 
पौराणिक काल से यह प्रथा चलती आ रही है और मैंने भी अपनी आँखों से दो पत्नी वाले कई लोग देखे हैं . दुसरे समाजों /देशों में तलाक/डिवोर्स  की प्रथा क्यूँ आयी कब आयी ,किस कारण से आयी मुझे जानकारी नहीं है पर ये जानकारी जरूर है कि हमारे  यहाँ ऐसी कोई प्रथा नहीं थी कि अगर किसी भी कारण शादी नहीं निभ रही है तो पति-पत्नी अलग हो जाएँ . पति जरूर अलग हो जाता  था (घर अलग न हों पर कमरा तो अलग हो ही जाता था ) और नयी स्त्री के साथ अपना आगामी जीवन व्यतीत  करता था पर स्त्री उसके नाम की माला जपते ही अपना इहलोक और परलोक  संवारती रहती थी. पत्नी अगर उसे संतान (या पुत्र रत्न ) न दे पाए, रोगी हो, या उसमें कोई भी कमी दिखे तो पुरुष को झट दूसरी स्त्री के साथ शादी की अनुमति थी.पर पति शराबी/कामी/दुराचारी जो भी हो पत्नी से यही अपेक्षा की जाती थी  कि हर हाल में वो पति की सेवा करे ,उसका साथ निभाये . तलाक/डिवोर्स जैसा कोई प्रावधान हमारे समाज में नहीं था कि ऐसे पति से मुक्त होकर स्त्री स्वतंत्र रूप से अपना जीवन  बिताए . या फिर पति बिना एक स्त्री से मुक्त हुए दूसरी स्त्री से शादी न कर सके . इसीलिए ऐसा कोई शब्द भी हमारे यहाँ प्रचलित नहीं है. जब ऐसी स्थिति की ही कल्पना नहीं है तो कोई शब्द कैसे निर्मित होता.

जब यह  कानून अस्तित्व में आया  तो शब्द भी गढ़ा गया 'विवाह-विच्छेद ' पर इसे सामाजिक मान्यता मिलने में शायद सौ साल से अधिक ही  लगेंगे . क़ानून यह भी है कि एक पत्नी के रहते ,दूसरी स्त्री से शादी नहीं की जा सकती. पर जिस तरह हमारे देश में हर क़ानून का पालन किया जाता है, वैसा ही हाल इस कानून का भी है . जो लोग सरकारी नौकरी में हैं, उन्हें भी डर नहीं तो दूसरे व्यवसाय वालों के लिए कुछ कहा ही नहीं  जा सकता. मैं जब दस-ग्यारह साल की थी एक साल अपने गाँव में पढ़ाई की थी ..हमारे पडोसी एक सरकारी स्कूल में शिक्षक थे , तीन-चार साल शादी के हो गए थे और उन्हें कोई संतान नहीं थी. बड़े धूमधाम से उनकी दूसरी शादी हुई. पूरा गाँव शरीक हुआ. उनकी पहली पत्नी भी क्यूंकि उनसे वायदे किये गए थे कि 'मालकिन तो तुम ही होगी ,आनेवाली तो तुम्हारी  नौकरानी बन कर रहेगी' . पर उस विवाह का एक दृश्य मुझे याद है , उनकी पहली पत्नी आँगन में बैठी अपने ही पति की शादी में खूब ढोलक बजा कर दूसरी औरतों के साथ गीत गा रही थीं. मैं अपनी दादी के साथ गयी और पता नहीं दादी को देखते क्या हुआ ,वे रोने लगीं. मेरी दादी ने उन्हें छाती से चिपटा लिया  और काफी देर तक वे जोर जोर से रोती रहीं. नयी बहु आ गयी ,और धीरे धीरे पहली पत्नी पर अत्याचार शुरू हो गए. उन्हें रसोई में आने की इजाज़त नहीं, खाना नहीं दिया जाने लगा, कमरे में बंद रखा जाने लगा. वे मिडल पास थीं यानी कि सातवीं तक पढ़ी हुई थीं. उन्हें पढने का शौक था ,खिड़की से मुझसे किताबें  मांगती और कहतीं कि उन्हें खाना नहीं दिया गया. नंदन-पराग और धर्मयुग के बीच छुपा कर  कई बार उन्हें चिवड़ा -गुड और खजूर (आटे से बना ) देने जाती. एक बार अपने रूखे बाल दिखा कहने लगीं,'तेल नहीं है लगाने को ' छोटी शीशी में उन्हें तेल भी छुपा कर दे आयी थी. फिर कुछ दिनों बाद वे मायके चली गयीं .(या  ससुराल से निकाल दिया गया )..वहाँ  भी ठौर नहीं मिला . पास के शहर में छोटी मोटी नौकरी करने लगीं ,कुछ कुछ मानसिक संतुलन भी खो दिया था. सबके मजाक की वस्तु बनी रहतीं और फिर उनकी अल्प आयु में ही मृत्यु हो गयी . एक ज़िन्दगी तो चली गयी. जबकि उनके पति अपनी पत्नी और चार बच्चों के साथ आज भी सुखपूर्वक जीवन बिता रहे हैं .

हमारे गाँव में ही एक बूढ़े मास्टर साहब थे .जिन्होंने अपने इकलौते बेटे की शादी एक गाँव की लड़की से कर दी . लड़के ने शादी तो कर ली पर पत्नी को कभी अपने साथ अपनी नौकरी पर नहीं ले  गया .वहां दूसरी शादी कर ली और अपना घर बसा लिया .पहली पत्नी ताउम्र अपने सास-ससुर की सेवा करती रही .

ये तो मेरे बचपन के किस्से हैं . जब मैं कॉलेज में थी . हमारे घर से चार घर छोड़ सरकारी कॉलेज के एक प्रोफ़ेसर साहब थे ,उनकी पत्नी को कोई बीमारी हो गई थी और वे चलने फिरने से लाचार  हो गयी थीं, व्हील चेयर पर ही चलतीं .उन्हें ,उनके घर को और उनके दो छोटे बेटों को संभालने पत्नी की छोटी बहन साथ रहती थी.  .प्रोफ़ेसर साहब ने दूसरी शादी कर ली अक्सर शाम को दूसरी पत्नी के साथ छत पर टहलते नज़र आते और पत्नी की छोटी बहन घर के सारे काम करती.

ऎसी तमाम सच्ची घटनाएं हैं  समाज में ,जहाँ सिर्फ और सिर्फ स्त्रियों को ही दुःख झेलने पड़े हैं .शादी होते ही स्त्री के लिए उसके माता-पिता के घर के दरवाजे बंद हो जाते हैं और अगर पति दूसरी शादी कर ले .फिर भी स्त्री को सबकुछ सहकर वहीँ रहना है क्यूंकि उस से तो यही अपेक्षा है कि 'डोली गयी तो अब अर्थी ही उठनी चाहिए " . उसे तो दान कर दिया गया है...और दान की हुई वस्तु कोई वापस नहीं लेता, अब उसका नया मालिक उसके साथ जो चाहे करे. इसी वजह से पति को भी छूट मिली होती है ,उनकी मनमानी चलती  है और स्त्रियाँ समझौते पर समझौते करती चली जाती हैं.
 

पति चाहे जैसा हो, स्त्री को उसे स्वीकार कर ज़िन्दगी भर निभाना ही पड़ता है. हमारी धार्मिक कथाओं में ,फिल्मों में अक्सर दिखाया जाता है ,पति वेश्यागामी था , अब असाध्य रोग से पीड़ित है, पर पत्नी उसे पीठ पर लादकर छिले घुटनों से पहाड़ी पर बने मंदिर तक चढ़ कर जाती है....निर्जल  व्रत रखती है...पूजा करती है और उसका पति ठीक हो जाता है. अगर प्रेम हो तो ये सब करने में कोई बुराई नहीं. पर यह हमेशा एकतरफा ही क्यूँ होता है ? पति कभी अपनी पत्नी के लिए इतने व्रत-उपवास क्यूँ नहीं करता ?...इतने कष्ट क्यूँ नहीं उठाता ?? क्या साथ  निभाने की जिम्मेवारी सिर्फ एक पक्ष की है, दोनों पक्षों की नहीं है ?? कुछ पति भी अपनी पत्नी का ख्याल रखते हैं . पर उनकी संख्या बहुत ही कम  है और यहाँ बहुसंख्यक  लोगो की स्थिति पर चर्चा हो रही है.
अब तलाक का प्रावधान  आ गया है..पर समाज में अब भी इसे अच्छी नज़र से नहीं  देखा जाता. तलाकशुदा स्त्रियों को बहुत कुछ झेलना पड़ता है.

  पर ये बातें सुनने में लोगों को अच्छी नहीं लगतीं. उन्हें हमारी भारतीय संस्कृति जहाँ 'नारी को देवी का रूप दिया गया है ' उस पर आंच आती दिखती है. .हम भी भारतीय ही हैं. हमें भी अपनी संस्कृति की कुछ बातों पर नाज़ हैं,पर जो कमियाँ हैं , उस पर भी तो बात करनी होगी, उन्हें छुपाते ही रहेंगे तो उन्हें दूर करने के उपाय कैसे ढूंढें जायेंगे .

34 टिप्‍पणियां:

  1. समाज को एक रूप व एक रंग न समझा जाये। पति पत्नी का संबंध समाज में सहजीवन का मान्य स्वरूप है। अपवादों को यथानुसार अलग थलग कर निपटाया जाये, उन्हें नियम मानकर विवाह की संस्था पर प्रश्न न उठाये जायें?

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    1. प्रवीण जी,
      शुक्रिया टिपण्णी के लिए. मैंने जो उदाहरण दिए हैं, वे अपवाद नहीं हैं...बहुतायत में हैं तभी तो उन पर चर्चा करने की जरूरत समझी. विवाह संस्था पर प्रश्न नहीं उठाये जा रहे...उसमे सुधार की बात कही जा रही है...कि बस एक ही पक्ष न पिसता रहे .
      वैसे ब्लॉगजगत में ही वैवाहिक संस्था की उपयोगिता पर एक लम्बी चर्चा हुई थी और कुछ नामचीन ब्लॉगर (जिनकेआप नियमित पाठक हैं ) इस संस्था को ख़त्म करने की वकालत कर रहे थे ,इसी मुद्दे पर कि वैवाहिक संस्था ने स्त्रियों की स्थिति बहुत ही दयनीय बना दी है. और अकेली मैं वहां वैवाहिक संस्था के पक्ष में अपने विचार रख रही थी. उसे ख़त्म करने की नहीं, उसमें सुधार लाने की बात कर रही थी...जो आज भी कर रही हूँ.

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  2. ब‍करियों के झुण्‍ड में एक बकरा छोड़ दिया जाता है और गायों के झुण्‍ड में एक सांड। शायद यही मानसिकता या शारीरिक बनावट मनुष्‍य भी समझते हैं। वे महिलाओं को केवल संतानोत्‍पत्ति के लिए ही यौन सम्‍बन्‍ध की बात करते हैं, शायद कुछ हद तब सही भी हो। जब कि स्‍वयं को यौन सम्‍बंधों के लिए हर पल योग्‍य मानते हैं। विवाह संस्‍था के कारण इस मानसिकता पर अंकुश लगा था लेकिन फिर भी दो विवाह तो अमूमन देखे ही जाते थे। वर्तमान में विवाह नहीं हैं तो लिविंग रिलेशनशिप है। जनजाति क्षेत्र और ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं पर भी कोई प्रतिबंध नहीं है, वे भी कभी भी अन्‍य के साथ नाता जोड़ सकती हैं।

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    1. सही कहा ,अजित जी,
      जनजाति क्षेत्र की स्त्रियाँ कहीं ज्यादा स्वतंत्र हैं. हालांकि शारीरिक प्रताड़ना वे भी झेलती हैं पर फिर भी ऐसे पति को छोड़ कर जाने के लिए वे स्वतंत्र होती हैं और छोड़ भी देती हैं. सारी परंपरा का बोझ तो मध्यमवर्गीय स्त्रियाँ ही ढोती हैं.
      उच्च वर्ग में भी अक्सर पुरुष तलाक ले अपने से आधी उम्र (या बहुत छोटी ) की कन्या से विवाह कर लेते हैं .तलाक तो बाद में होता है...जब यह सम्बन्ध पनप रहा होता है तब तो वे शादी शुदा रहते हैं और अपनी पत्नी के साथ धोखा ही कर रहे होते हैं. और स्त्रियाँ अकेली रह जाती हैं...अमृता सिंह, मोना कपूर, सारिका ,रीना ...न जाने कितने उदाहरण हैं.

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  3. रश्मि जी

    आप ने शायद दो दिन पुरानी खबर नहीं पढ़ी , लोक अदालत ने पत्नी और वो के बिच संपत्ति के साथ पति को भी बाकायदा कानूनन बाँट दिया जिसके तहत पति पत्नी के साथ वो भी घर में रहेगी तिन अलग कमरो में जिसमे पति के कमरे का दरवाजा दोनों के कमरो में खुलेगा और बंधे हुई दिन वो दोनों के साथ गुजरेगा। अब हिन्दू विवाह का वो नियम कहा गया जिसके तहत पति के एक समय में एक ही विवाह करने और निभाने का नियम है , कानून खुद ही अपने कानून को तोड़ रहा है , जब कानून का ये हाल है तो समाज को क्या कहे । अपने पैरो पर खड़ी महिलाए भी तलाक न लेने हर हाल में पति के साथ रहने का दबाव सहती है , और अपनी तरफ से विवाह को बचाने का प्रयास भी करती है , उसके लिए मैरिज कॉउंसलर के पास भी जाने के लिए तैयार रहती है , किन्तु पति ज्यादातर नहीं जाते , रेडियो में एक ऐसे ही कॉउंसलर ने बताया की ज्यादातर पति ही काउंसलिंग से भागते है , सम्भवतः वो जानते है की उन्हें ही सुधरने की सलाह दी जायेगी । जब दो भाई आपस में लड़ते है तो उन्हें बड़े आराम से अलग हो जाने की सलाह दे दी जाती है किन्तु स्त्री को हर हाल में ही पति के साथ रहने और शादी निभाने के लिए कहा जाता है । बड़े आराम से धर्म बदल कर दूसरा विवाह तक कर लिया जाता है और समाज में कोई हलचल नहीं होती है , यहाँ तक की पत्नी को ऐसे सम्बन्धो के खिलाफ क़ानूनी कार्यवाही भी करने नहीं दिया जाता है कहा जाता है की जो मिल रहा है उसे ही लेकर शांत रहो। लोग बैठ कर बाते तो करते है की बेचारी का पति बड़ा ख़राब है , किन्तु कोई भी ये नहीं कहता कि उसे अलग हो जाना चाहिए , मुश्किल वही एक है पति के ऊपर आर्थिक रूप से निर्भर होना ।

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    1. अंशुमाला,
      इस खबर का जिक्र फेसबुक पर या शायद आपके ही ब्लॉग पर टिप्पणियों में पढ़ा था. अजीब सा फैसला है. महिलाओं का आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर न होना, किसी का सपोर्ट न मिलना...और बच्चों की चिंता...ये ही कारण हैं कि वे सबकुछ सहकर भी साथ रहने को मजबूर हो जाती हैं .

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    2. न्यायालय के इस फैसले पर हतप्रभ रह जाना पड़ा , विवाहित स्त्री के अधिकार पर कुठाराघात जैसा यह निर्णय विवाह संस्था और स्त्रियों को भी नुकसान ही अधिक पहुंचाएगा !

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    3. हिन्दू विवाह पद्धति में सात फेरों के वचन दोनों पक्षों के लिए लगभग समान ही है , परन्तु कब इसमें से कुछ वचन कुछ लोगो के लिए सुलभ हो गए , दुर्लभ हो गए , कहा नहीं जा सकता। यकीनन हिन्दू विवाह पद्धति में विवाह दो व्यक्तियों ही नहीं , दो परिवारों की सामूहिक जिम्मेदारी है।

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  4. स्त्री शारीरिक बनावट से सामाजिक सोच के आगे कमज़ोर है
    पर मानसिक क्षमता उसकी कोमल काया को मजबूत बनाती है ! साथ की जिम्मेदारी दोनों पक्षों की है,सात फेरों में बंधे मंत्र दोनों के लिए होते हैं - पर सम्पूर्ण भार किसी भी एक पक्ष पर डाल - सिर्फ आलोचनात्मक नज़रिये के साथ चलना सम्बन्ध को तोड़ता है, हास्यास्पद बनाता है !
    अनुमान के पंख द्रुत गति से उड़ते हैं, कारण-परिणाम से निर्विकार लोग अपनी सोच को पुख्ता करते हैं ! भुक्तभोगी ही जाने सच क्या,झूठ क्या ! सफाई और कहानी का कोई औचित्य नहीं,क्योंकि अपने को परफेक्ट समझकर चलनेवाले मूर्ख होते हैं !
    कोई प्यासा जी लेता है
    कोई प्यासा मर जाता है
    कोई परे मरण-जीवन के
    कड़वा प्रत्यय पी लेता है …

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  5. पढ़ लिया................विचारों से सहमत हूँ...अपने विचार बाद में रखती हूँ...विस्तार से.अभी एक लेख लिख रही हूँ तकरीबन इसी मुद्दे पर....

    अनु

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    1. प्रतीक्षा रहेगी तुम्हारे विचार की ...पहले लेख पूरा कर लो .

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  6. समस्या है तो बहुत बड़ी और शायद महिलाओं के आत्मनिर्भर होने न होने से भी जुड़ी है।हालाँकि सामाजिक दबाव तब भी अपना काम करता ही है।और ऐसा नहीं है सिर्फ महिलाओं पर बल्कि पुरुषों पर भी।आपको ये गलतफहमी है कि पुरुषों पर दबाव नहीं होता हाँ यह बात जरूर है कि उन्हें घरेलू हिंसा से नहीं गुजरना पड़ता लेकिन ऐसे मामले जहाँ सचमुच तलाक जायज लगता है वहाँ वो भी तलाक नहीं ले पाते ऐसे मामले शहर और गाँव दोनों में है।लेकिन निश्चित रूप से महिलाओं और आत्मनिर्भर महिलाओं को भी ज्यादा सहना पड़ता कई बार महिला सक्षम होते हुए भी तलाक नहीं लेती शायद उन्हें यह लगता होगा कि प्यार से धीरे धीरे पति को सुधार लेंगी पर उन्हें पता होना चाहिए कि गधों का काम सदैव दुलत्ती मारना ही होता है।और जो समाज की परवाह नहीं करते वो कई बार ऐसे मामलों मे भी तलाक ले लेते है या लेना चाहते हैं जिनमें नहीं लेना चाहिए जैसे पति खराटे बहुत लेता है या मुझे सास के पैर छूने को कहता है या पत्नी मायके बहुत जाती है या खाना अच्छा नहीं बनाती आदि।काउंसलर्स और वकीलों के पास ऐसे सैकड़ों केस रोज आने लगे हैं।

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    1. राजन,
      मैंने पहले ही कहा है कि जब बहुसंख्यक लोग पीड़ित होते हैं तभी उस पर चर्चा की जरूरत समझी जाती है. बिलकुल कई बार पुरुष भी तलाक नहीं ले पाते...सामाजिक दबाव से ज्यादा वहाँ मामला ये होता है कि पत्नी तलाक देने को तैयार नहीं होती और जज के सामने वे तलाक लेने के कारणों को सिद्ध नहीं कर पाते. पर अक्सर ऐसा उन्हीं मामलों में होता है जहाँ स्त्रियाँ अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होती है....या फिर उन्हें अपने परिवारवालों का सपोर्ट मिलता है. इस से इनकार नहीं कि कुछ मामले ऐसे भी भी होते हैं जहा पत्नी क्रूर होती है और पति को सहना पड़ता है.आपने खुद माना है कि निश्चित रूप से महिलाओं और आत्मनिर्भर महिलाओं को भी ज्यादा सहना पड़ता कई बार महिला सक्षम होते हुए भी तलाक नहीं लेती (या शायद ले नहीं पाती...बच्चों का सोच कर भी )
      "पति खराटे बहुत लेता है या मुझे सास के पैर छूने को कहता है या पत्नी मायके बहुत जाती है या खाना अच्छा नहीं बनाती "...ये सारे तर्क भले ही दिए जाएँ पर इस आधार पर उन्हें कभी भी तलाक नहीं मिल सकता...वैसे मुझे लगता है...इनके पीछे छुपी कोई गहरी बात होती है...महज ये कारण नहीं होते.

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  7. तथाकथित पिछडी जाति के स्त्री पुरुषों का अपने विवाहित प्रेमी प्रेमिका के साथ बिना शादी रह लेने के मामले नये नहीं है।वैसे कथित अगडी जातियों में भी यह सब होता रहा है लेकिन उतने खुले रूप में नहीं।अभी कुछ समय पहले एक विधायक पति पत्नी का भी मामला सामने आया था ।मुटुक जूली मामला भी कुछ ऐसा ही था ।लेकिन लोक अदालत ने जो फैसला दिया है वह तो अनोखा ही है।ऐसे लग रहा है जैसे इस मामले का बहुत दिन से कोई हल निकालने की कोशिश हो रही थी लेकिन जैसे ही सुप्रीम कोर्ट ने लिव इन को लेकर उदारता दिखलाई वैसे ही लोक अदालत के जज साहब ने भी अति उत्साह में उच्चतम न्यायालय की नजीर को ढाल बना ये फौरी फैसला दे मारा पर हमारी अदालतों का भी यह रवैया है कि वे कई बार दूरगामी परिणामों को ध्यान में नहीं रखती अब जब तक कि दो चार बकरे हलाल नहीं हो लेंगे तब तक कोई सुधार का कोई तरीका खोजा नहीं जाएगा।अच्छा होगा कि विवाह और लिव इन संबंधी कानूनों की समीक्षा अभी से की जाए और समाज के सभी वर्गों खासकर महिलाओं की राय भी ली जाए ।

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    1. क़ानून तो बन जाते हैं पर वकील और यहाँ तक कि जज भी अपनी मर्जी से उसे इन्टरप्रेट करते हैं. अगर सभी क़ानून का सही रूप से पालन हो तो शायद रामराज्य ही आ जाए .( वैसे ये कहावत ही है...रामराज्य में भी तो सीता ,बेघर की गयीं...उनके बच्चों को बहुत दिनों तक पिता का प्यार नहीं मिला...और जब पिता का प्यार मिला तो माँ के प्यार से वंचित हो गए...सीता को धरती में समा जाना पड़ा )...किसी भी काल में सबके लिए एक परफेक्ट समाज का होना असंभव सा ही लगता है .

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    2. राजन जी

      कोर्ट ने हाल ही के एक मामले में साफ कहा है की लिव इन की मान्यता के लिए ये जरुरी है की दोनों विवाहित नहीं हो , दस साल से साथ रह रहे एक जोड़े में से स्त्री को मुआवजा पाने का हक़ नहीं दिया क्योकि पुरुष विवाहित था और मुआवजा पाने का क़ानूनी हक़ पत्नी को है , जबकि लोक अदालत में व्यक्ति विवाहित है फिर भी न केवल दूसरी औरत को बराबर का संपत्ति का अधिकार दिया गया बल्कि सौ कदम आगे बढ़ कर एक ही घर में रहने का भी आदेश दे दिया , ये तो मामले को कोर्ट ले जाने वाली स्त्री के लिए घाटे का सौदा रहा । किसी कि राय लेने की आवश्यकता ही नहीं है कोर्ट ने पहले ही साफ कर दिया है की समाज में बिना विवाह पति पत्नी का दर्जा पाने के लिए या विवाह से जुडी कोई सुविधा पाने के लिए साथ रहने वाले दोनों अविवाहित हो , हमेसा साथ रहते हो न कि बस घूमते फिरते हो या वीकेंड पर साथ रहते हो , लम्बे समय से साथ रहा रहे हो और समाज में एक दूसरे को पति पत्नी के रूप में परचित भी कराते हो ( मतलब की जीवन साथी के रूप में न कि पति और पत्नी कह कर सम्बोधित करना ) उन्ही लिव इन रिश्तो को मान्यता मिलेगी ।

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    3. हमारी रिश्ते की एक मौसी है , विवाह के पहले मौसी मौसा एक दूसरे को पसंद करते थे , कित्नु किसी कारन दोनों का विवाह एक दूसरे से नहीं हो सका , मौसी का विवाह जिससे हुआ वो एक नंबर का शराबी और बदमास निकला , एक बेटी होने के बाद जब बेटी को भी मारने पीटने लगा तो मौसी उनका घर छोड़ कर चली आई और कभी वापस नहीं गई , जबकि मौसा की जिससे शादी हुई उनकी बच्चे को जन्म के समय मौत हूँ गई ,मौसी के घर छोड़ कर आने के बहुत बाद , दोनों ने साथ रहना शुरू कर दिया बिना विवाह माँ बताती है की कुछ ही लोगो ने हो हल्ला किया बाकि सभी ने कुछ भी नहीं कहा , आज दोनों को साथ रहते ४० साल से ऊपर हो गए दोनों को अपने पहले जीवन साथी से बच्चे थे और बाद में भी एक बेटा बेटी हुए सभी की शादी कर दी है और दोनों बेटो के साथ रहती है । आज भी उनके कदम को कोई गलत नहीं मानता है और न ही उनके विवाह किये बिना साथ रहने को ( उस बात का आज कोई वजूद ही नहीं है ) । लडकिया हिम्मत करे तो आसानी से अपनी नरक भरे जीवन से बाहर आ सकती है ,अच्छे लोग अपने आप साथ देते है और कुछ लोग बुरा कुछ कहेंगे ही किन्तु याद रखे की वो लोग आप कि परेशानी कम करने नहीं आयेंगे , और न ही आप के बच्चो की रक्षा करने ।

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    4. अंशुमाला ,
      आपने तो मुझे एक और वाकया याद दिला दिया. मेरे गाँव में तो बड़ी सारी कहानियां छुपी हुई हैं...वो भी हमारे घर के आस-पास वाले घरों की. मैं तो पूरे गाँव को जानती भी नहीं, वरना और कितनी ही बातें निकल कर आतीं. मेरे जन्म से पहले की ही बात है, हमारे गाँव में एक नर्स अपने बेटे के साथ किराए पर रहने आयीं . एक सम्मानित घर के सबसे बड़े लड़के के साथ उनका अफेयर हुआ और दोनों साथ रहने लगे . इन दोनों के भी एक बेटा और बेटी हैं जो मेरी उम्र के हैं .पूरे गाँव ने उन्हें उनकी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया .वे दूसरी जाति की थीं फिर भी गाँव में उनका मान-सम्मान था. शादी-ब्याह, व्रत त्यौहार सबमें वे शरीक होतीं. और सबसे अच्छी बात कि उन्हें उनके नाम से जाना जाता क्यूंकि गाँव में शुरू में उनका वही परिचय था ...वे औरों की तरह किसी की पत्नी नहीं कहलातीं ,उनकी अपनी पहचान थी. वे घूँघट भी नहीं करतीं , पूरे गाँव में घूमतीं. आज वे दोनों पति-पत्नी इस दुनिया में नहीं हैं..पर उनके पहले पति के पुत्र को भी जमीन जायदाद में पूरा हिस्सा हासिल है.
      ये तो सही है, जो लडकियां समाज की परवाह नहीं करतीं ,वे सबकुछ हासिल कर लेती हैं. फिर भी यही कहूँगी कि अगर कोई स्त्री कमजोर है...विरोध नहीं कर पाती ,इसका अर्थ ये नहीं कि उसे चुपचाप सहना पड़े. ये स्थिति बदलनी चाहिए.
      बस में अगर एक लड़की को कोई कुहनी मारता है और वो पलट कर थप्पड़ लगा देती है,तो बड़ी अच्छी बात है ...पर वो लड़की जो थप्पड़ नहीं लगा पाती, और कोने में सिमटते हुए लगातार ज्यादती बर्दाश्त करती रहती है...उसे भी दोष नहीं दिया जा सकता. कई बार घर का माहौल ऐसा होता है कि लड़कियों को कुछ बोलने नहीं दिया जाता, उनमें आत्मविश्वास की कमी होती है, इसलिए स्थिति ही बदलनी चाहिए कि किसी को भी सहन न करना पड़े.

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    5. घूम कर बात वही आ जाती है , जब तक परिवार ये विश्वास नहीं दिलाता की हम तुम्हारे साथ है बेटी तब तक उस में हिम्मत नहीं आने वाली है , उसे दबा कर और इस सोच के साथ पाला जायेगा कि गलती हर हाल में लड़की की ही है बदनामी उसकी ही होनी है , सहन करना उसका धर्म है , तो स्थिति नहीं बदलने वाली है । ये स्थिति बदले तो अपने आप पुरुषो में ये जिम्मेदारी आएगी की विवाह को बनाये रखने की जिम्मेदारी उनकी भी है यदि पत्नी को कष्ट हुआ तो वो भी मुझे छोड़ कर जा सकती है । उम्मीद पर दुनिया कायम है , चाहत बस इतनी है कि इन विषयो से हमारी बेटियो का सामना न हो और वो एक बराबरी की दुनिया में सम्मान से जीवन बिता सके ।

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    6. अंशुमाला जी,सबकी राय लेनी इसलिए जरूरी है क्योंकि खुद सुप्रीम कोर्ट ने राय माँगी है(कैसे दी जाए ये रचना जी बता पाएँ)।ये स्थिति इसलिए आई है क्योंकि ऐसे संबंध चाहे स्त्री बनाए या पुरुष उन्हें कानून अपराध ही नहीं मानता।ये लिव इन ही है।हाँ यदि कोई अविवाहित महिला किसी विवाहित पुरुष के साथ लंबे समय तक रहे तो भी उसे पत्नी वाले लाभ नहीं मिलेंगे हालाँकि उनकी संतान होती है तो उसे मिलेंगे।कानून इसे समाज के लिए स्वस्थ परंपरा नहीं मानता पर अपराध भी नहीं मानता पर लोक अदालत ने संपत्ति का बँटवारा आदि किस तर्क से किया यह अभी तक समझ नहीं आया शायद तीनों के बीच किसी समझौते को ही इसका आधार बनाया गया है।और रश्मि जी,मैं उन मामलों की बात कर रहा हूँ जो कोर्ट जाते ही नहीं।साबित करने की बात तो बाद में आएगी।यहाँ ज्यादा दिन तक पत्नी का मायके रहना बदनामी की बात हो जाती है वो तलाक क्या लेंगे और साबित करने को तो कई बार महिला भी नहीं कर पाती तो क्या मामला झूठा है?वैसे तलाक लेना अब उतना मुश्किल भी नहीं रहा।

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  8. जिस दिन समानता होंगी उस दिन ये सब खुद बंद होगा
    समानता यानि अगर तलाक शुदा पुरुष के लिये एक अविवाहित स्त्री का रिश्ता आ सकता हैं तो तलाक शुदा स्त्री के लिये भी एक अविवाहित पुरुष का रिश्ता आ सकता हैं
    समानता अगर विधुर का विवाह एक सामान्य बात होती हैं और जरुरत भी तो विधवा का विवाह भी सामान्य बात और जरूरत ही होनी चाहिए

    और इस समानता कि बात को सबसे पेहले स्त्रियों को अपनी कंडीशनिंग तोड़ कर अपने कम्फर्ट ज़ोन से बाहर आ कर एक दूसरे के साथ खड़े होकर समझना और मानना होगा

    स्त्री स्वतंत्र हैं ये बात स्त्री को सबसे पेहले समझनी होगी जिस दिन वो स्वतंत्रता मांगना छोड़ कर कानून और संविधान कि भाषा बोलेगी उस दिन समाज बदलेगा

    मुद्दो पर जिस तरह हम सब साथ हो जाते हैं वो अपने आप में मिसाल बनता जा रहा हैं और आप देखिये अब इसी ब्लॉग जगत में हैम सब को टारगेट करती पोस्ट धीरे धीरे कम हो रही हैं और वो सब जो कभी नारी पर तंज कसते थे आज चुप हैं जैसे हैम लोगो ने इस ब्लॉग जगत को उसकी संकीण मानसिकता से छुटकारा दिलवाया हैं बस वैसे ही अपने आस पास अपने घरो में हमें ये करना ही होगा

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  9. जब मैं पढ़ती थी तब किसी के बारे में सुना था कि वो शराबी पति से मार खाती थी और कमाती भी वो ही थी तो मेरी त्वरित प्रतिक्रिया ये थी कि वो छोड़ क्यों नहीं देती पर जवाब ये मिला कि बाकि दुनिया से बचने के लिए वो पति की मार सहन करती है. मेरा मतलब ये है कि एक ये भी वजह है महिलाये सब सहन करके भी पति के साथ रहती है अकेली औरत पर डोरे डालने वाले कम नहीं होते।

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    1. आपका कहना शत प्रतिशत सही है ...तलाकशुदा महिलाओं के इतने सारे अनुभव पढ़े हैं कि सर शर्म से झुक ही जाता है...हाल की ही बात है...एक पचास वर्षीय तलाकशुदा उच्च पद पर काम करने वाली एक महिला को पति से अलग होने के बाद किराए का फ़्लैट मिलने में बहुत मुश्किल हो रही थी .कोई सोसायटी (बिल्डिंग वाले ) एक अकेली महिला को फ़्लैट देने को तैयार नहीं...वो भी मुम्बई जैसे शहर में .

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  10. हर समस्या का हल कानून के पास नहीं है ..... विशेषकर महिलाओं को सशक्त करने और अस्मिता के साथ जीने के लिए जो वातावरण चाहिए उसमें समाज कि सोच और व्यव्हार की भूमिका अधिक है .....

    आपके विचरों से सहमति है

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  11. बिलकुल जो कमियां हैं उनपे खुल के बात होनी चाहिए .. तब ही कोई समाधान निकलेगा उन बुराइयों का ... समाज को सुधार उसमें रहने वाले लोगों से ही हो सकता है ...

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  12. What you have mentioned is true... But there is a commom thread among all the examples.. MIDDLE CLASS.. We are the hypocrites.. We care for LOG KYA KAHENGE.. WE feel economic dependability.. But there is a lower strata of society where women do not care for their husbands if ignored.. I have seen a woman who started living with another man (now known as HIS wife) 'coz her husband tortured her. When asked about this decision, dhe told MEHANAT KARE LA HAI MALKINI T KAAM MIL JAYI. AREY HAMRA KONO DARKHAS AUR APPLIKESAN LIKHE PADTAYI" I was surprised and litetally bowed to her!!
    The reasons are more ECONOMIC and Psychological like lacking determination. (The heroine of your serial story).
    Once this has been overpowered or where it has been possible MARRIAGE has been replaced by LIVE IN!!

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  13. रश्मि जी बहुत सारगर्भित लेख लिखा है आपने. सच है कि बहुत सी महिलाएं केवल लोकलाज और सामजिक दबाव के चलते तलाक जैसा बड़ा कदम नहीं उठा पाती हैं और जीवन भर तकलीफ झेलती जाती हैं. ऐसे बहुत से उदाहरण हमारे आस पास मिल जायेंगे. सलिल जी के बात से सहमत हूँ कि यह ज्यादातर मध्यमवर्ग में देखने को मिलता है. निम्नवर्ग की महिलाएं इतनी चिंता नहीं करती समाज की.
    देखा जाए तो विवाह नामक इस संस्था में ढेरों कमियां है पर इसका कोई विकल्प भी नहीं है. लिव इन सम्बन्ध की अपनी समस्याएँ हैं और इसे विकल्प तो कतई नहीं माना जा सकता है.

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  14. http://hindibloggerscaupala.blogspot.in/ के शुक्रवारीय ६/१२/१३ अंक में आपकी रचना को शामिल किया जा रहा हैं कृपया अवलोकनार्थ पधारे ............धन्यवाद

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  15. बात सिर्फ हिम्मत की है । अगर औरत में हिम्मत है समाज से टकराने की, ईंट का जवाब पत्थर से देने की तो मार-दुत्कार सहने की ज़रुरत नहीं है । मैं तो कहती हूँ हर औरत को खुद को इतना क़ाबिल बनाना चाहिए कि औरत के बिना पति का काम न चले और उसे ये भय रहे कि अगर मेरी पत्नी मुझे छोड़ गयी तो मैं कैसे रहूँगा ! निम्नवर्गीय परिवार की महिलाएँ इसीलिए तो नहीं डरतीं, न समाज से न पति से । उनको मालूम है, आर्थिक रूप से वो अपने पति पर कभी निर्भर नहीं रहतीं, बल्कि वो पालतीं हैं अपने पतियों को । मजे में कमाती हैं और बिंदास रहतीं हैं । मध्यवर्ग में ही समाज का डर और पति का खौफ़ रहता है । अधिकतर मध्यमवर्गीय परिवारों की पत्नियाँ हिंदी फिल्मों की हीरोईन की तरह पति को सुबह उठायेंगीं, अपने हाथों से नास्ता कराएँगी, ऑफिस का बैग पकड़ायेंगी, रुमाल थमाएँगी, पति को दरवाज़े तक छोड़ कर आएँगी, पप्पी-शिप्पी करेंगी और दिन भर 'पिया का घर है ये रानी हूँ मैं घर की गाएँगी। कुछ दिनों तक तो ये सब ठीक चलता है, फिर पति लापता होने लगता है । और एक दिन पता चलता है कि पति किसी और की सजनी का सहेला को गया और उसके साथ चलता हो लिया। औरत जब स्वावलम्बी होती है तो पति भी उससे डरता है । रोज़ ऑफिस-शोफीस जाओ, कुछ पैसे-वैसे कमाओ और अपने पति को भी कुछ टेंशन दो । दिन भर घर में रह कर, सज-धज कर इंतज़ार करोगे, उसको महसूस कराओगे कि तुम्हारे चरणों के सिवा मेरा और कोई ठिकाना नहीं है, तो वो तुम्हें सचमुच अपने चरणों में पहन लेगा। उसे महसूस कराओ कि तुम्हारी तरह मेरे लिए इम्पोर्टेन्ट मेरा काम भी है, मेरी नौकरी भी है । उसे महसूस कराओ कि No one is indispensable। पति को ऐसा नहीं लगना चाहिए कि उसके बिना पत्नी कुछ भी नहीं है । सारी पवार हम खुद ही एक ही इंसान के हाथों में दे देंगे तब वो निरंकुश बनेगा ही ! अपनी ज़िन्दगी, अपने पति और अपने परिवार का कंट्रोल हर औरत को अपने हाथ में रखना चाहिए। और अगर ख़ुदा-न-खास्ते तलाक़-वलाक लेना ही पड़ा तो दूसरे पति की क्या ज़रुरत है, दूसरा पति भी आखिर पुरुष ही होगा। ये भी तो हो सकता है आसमान से गिरे और खजूर पे अटके। अनादिकाल से ये ज्यादती जो चली आ रही है अब वक्त आ गया है इसे बदल देने का ।
    शर्मायी-सकुचाई, घबराई-इतराई लड़की कि इमेज तोड़ो और एक कॉन्फिडेन्ट लड़की/औरत बनो, जिसके साथ कुछ भी करने से पहले हर इंसान एक बार सोचे कहीं मैं बर्रे के छत्ते में हाथ तो नहीं डाल रहा, तभी कुछ बनेगा, समझे न !

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    1. तुम्हारी टिपण्णी तो अपने आप में एक पोस्ट ही बन गयी है .
      दिन भर 'पिया का घर है ये रानी हूँ मैं घर की गाएँगी ' ...ये पढ़कर तो हंसी ही नहीं रुक रही :):)

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  16. तुमने एक समस्या बताई और हमारे मिज़ाजे-शरीफ में जो समाधान आया ऊ हम लिख दिए । लेकिन ये समाधान भी पूरा सही नहीं है.। कई ऐसे उदाहरण हैं जहाँ अच्छी खासी आर्थिक और सामाजिक रूप से सशक्त महिलाओं ने भी दूसरी महिलाओं के घर तोड़े हैं ये कहना भी ज्यादती होगी कि सिर्फ पुरुष ही जिम्मेदार होते हैं, आखिर जो दूसरी बीवी बनतीं हैं वो भी औरत ही होतीं हैं और पहली औरत का ही घर तोड़तीं हैं। अब हमसे ये बताओ इन अफसराओं के लिए क्या सारी दुनिया के गन्धर्व मर गए थे जो ये इन पुरुषों की दूसरी बीवियां बनी हैं :
    सारिका
    शबाना आज़मी
    श्रीदेवी
    शिल्पा शेट्टी
    करिश्मा कपूर
    करीना कपूर
    हेमा मालिनी
    किरण राव
    विद्या बालन
    लारा दत्ता
    रविना टण्डन
    इत्यादि इत्यादि

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    1. एक पोस्ट लिखी थी , रिश्ते....वफ़ा... ऐतबार...तेज हवाओं में जैसे जलते चिराग बहुत लम्बा विमर्श हुआ था .पर समाधान तो कुछ वहाँ भी नहीं निकल पाया...बस कारणों का विश्लेषण ही किया जाता रहा. तुम्हारे कमेंट्स नहीं हैं वहां , जरूर तुम तब साउथ अफ्रिका में रही होगी ,तभी की पोस्ट है.

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  17. गंभीर समस्या पर सामयिक और सटीक आलेख...बहुत बहुत बधाई...

    नयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी

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  18. अभी कुछ दिनों पहले सौभाग्यवश मुझे चैनल वी पर आने वाले लव किया तो डरना क्या कार्यक्रम देखने का अवसर मिला. जैसा की नाम से ही जाहिर होता है यह कार्यक्रम प्रेमी जोड़ों के इर्द-गिर्द घूमता है. इस प्रोग्राम में ऐसे लवर्स शामिल किए जाते हैं जो एक-दूसरे से प्रेम का करने का दम तो भरते हैं लेकिन वे यह भी भली-भांति जानते हैं कि उनकी पसंद उनके अभिभावकों को किसी भी रूप में पसंद नहीं आएगी. इसके पीछे अभिभावकों की रुढ़िवादी मानसिकता या अलग-अलग जाति या धर्म का होना एक बड़ा कारण बनते हैं. इस कार्यक्रम में शामिल होकर प्रेमी जोड़े नेशनल टेलिविजन के माध्यम से अपने अभिभावकों के समक्ष अपने प्रेम का इजहार करते हैं. फिर चाहे टेलिविजन पर सबके सामने उनके माता-पिता उन्हें कितना ही मारे-पीटे या गाली-गलौज करें वह अपने प्रेमी के लिए प्रतिबद्ध रहकर उम्र भर साथ निभाने का वचन निभाते हैं.


    खैर मेरा उद्देश्य इस कार्यक्रम के प्रति दिलचस्पी पैदा कर इसकी टीआरपी बढ़ाने का बिलकुल नहीं है. लेकिन इस शो ने मुझे ना चाहते हुए भी यह सोचने के लिए विवश कर दिया है कि इस तरह परिवार वालों से लड़-झगड़ कर या उन्हें मजबूर कर प्रेम विवाह करने के बाद खुशहाल तो नहीं रहा जा सकता लेकिन इस विवाह का सबसे बड़ा नुकसान किसे होता है?


    उपरोक्त कार्यक्रम के जिस एपिसोड ने मुझे यह लेख लिखने के लिए प्रेरित किया उसमें एक लड़का, जिसका परिवार बेहद सामान्य और घरेलू मानसिकता वाला था, एक ऐसी मॉडर्न लड़की से विवाह करना चाहता था जिसे अपना जीवन अपने अनुसार जीने की आदत है. पेशे से मॉडल उस लड़की को छोटे कपड़े पहनना, रात-रात भर पार्टी करना और बिना पूछे दोस्तों के साथ घूमने-फिरने का शौक है. उल्लेखनीय है कि वह विवाह के बाद भी अपनी इन शौकों को छोड़ना नहीं चाहती थी.


    लड़का, लड़की के स्वभाव और अपने परिवार की पसंद को बहुत अच्छी तरह समझता है. वह जानता था कि लड़की कभी भी उसके परिवार के अनुसार खुद को ढाल नहीं पाएगी, लेकिन वह अपने प्यार को पाने के लिए अपने अभिभावकों को राजी करवाने की पूरी-पूरी कोशिश कर रहा था. परिवार के बड़ों ने उसे बहुत डांटा लेकिन अभी भी उसने हार नहीं मानी है.


    अगर ऐसे जोड़े किसी तरह विवाह बंधन में बंध भी जाते हैं तो उनके प्रेमपूर्वक रहने की संभावना बहुत कम या ना के बराबर ही होती हैं. हमारी सामाजिक व्यवस्था के अनुसार विवाह के पश्चात बेटी को अपने पिता का घर छोड़कर पति के घर जाना होता है. ऐसे में अगर वह लड़की प्रेम विवाह करने जा रही हैं तो निश्चित है कि वह लड़के के स्वभाव और आर्थिक स्थिति से पूरी तरह आशवस्त होने के बाद ही विवाह करने का निर्णय लेती है. अगर माता-पिता इस रिश्ते से राजी ना भी हो तो भी वह थोड़े मनमुटाव के बाद बेटी की खुशी के लिए इस रिश्ते को मंजूरी दे देते हैं. उन्हें लगता है कि अगर लड़का उसे शादी के बाद खुश रखेगा तो इसमें कोई परेशानी नहीं है.


    love marriages लेकिन लड़के के मामले में यह विपरीत सिद्ध होता है. क्योंकि विवाह के पश्चात लड़का अपनी पत्नी के साथ अभिभावकों के साथ रहता है. अगर उसके अभिभावकों को यह लड़की पसंद ना हुई या किसी कारण वश उन्होंने पूरी आत्मीयता के साथ अपनी वधु को स्वीकार नहीं किया तो निश्चित है परिवार में हर समय कलह या मनमुटाव का वातावरण बना रहेगा. यह उस लड़की को भले ही ज्यादा परेशान ना करें लेकिन उस परिवार का बेटा अपनी पत्नी और माता-पिता के बीच के लड़ाई-झगड़ों में पूरी तरह फस जाता है. वह ना तो उस लड़की को कुछ कह सकता है और ना ही अभिभावकों के समक्ष अपनी परेशानी बयां कर सकता है. वह लड़की स्वभाव के बारें में पहले से ही जानता था, इसीलिए ऐसे स्वभाव वाली युवति के साथ संबंध रखना उसकी मजबूरी बन जाती हैं.


    प्रेम-विवाह में प्राय: देखा जाता है कि पत्नियां अपने पति पर पूरी तरह हावी हो जाती हैं. उन्हें संबंध को निभाना अपनी जिम्मेदारी हीं बल्कि पति की मजबूरी लगने लगता है. प्रेम-विवाह करने वाले पुरुषों के विषय में अकसर पत्नियां यह समझने लगती हैं कि उनके प्रेमी ने उनसे इसीलिए विवाह किया है क्योंकि वह उनके बिना नहीं रह सकतें. इसीलिए घर में कलह ज्यादा बढ़ जाने या खुद को मनचाही स्वतंत्रता ना मिलने पर वह पति को अलग होने के लिए कहती हैं और बिगड़ते हालातों को संभालने के लिए बेटे को अपने परिवार से अलग होना ही पड़ता है.


    प्रेम संबंध और विवाह में बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण अंतर होता है. प्रेम संबंध निभाना उतना जटिल कार्य नहीं होता जितना एक गलत जीवनसाथी के साथ वैवाहिक जीवन बिताना. अभिभावक अपने बच्चों के लिए कितने सपने देखते हैं, उसकी खुशी के लिए अपनी जरूरतें तक त्याग देये हैं. लेकिन उस बच्चे का एक गलत कदम उन्हें जीवन भार के दुख दे जाता है. ऐसे हालातों के मद्देनजर यह कहना कदापि गलत नहीं होगा कि प्रेम-विवाह करने के बाद अगर किसी को नुकसान होता है तो वह मात्र उस लड़के को जिसने परिवार वालों की मर्जी और इच्छाओं को पीछे छोड़ दिया.

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