हर साल 31 दिसंबर को कोई न कोई बचपन के उन भूले-बिसरे दिनों की याद दिला ही देता है और हम सोचते हैं ,हम भी लिख लिख कर उन दिनों को जरूर याद करेंगे {पढ़ना आपकी मजबूरी :)} . उम्र कितनी भी हो जाए पर बचपन के वे चमकीले दिन अपनी चमक नहीं खोते और यादों की गठरी में नगीने से चमकते रहते हैं.
सतीश चन्द्र सत्यार्थी ने जब फेसबुक पर ये लिखा ,"बचपन में गांव में एक जनवरी के दिन हम बच्चा पार्टी मिलके पिकनिक करते थे. कोई अपने घर से आटा लाता था, कोई आलू, कोई तेल-मसाले. और गाँव से बाहर मैदान वगैरह में जाके ईंट वगैरह जोड़कर चूल्हा बनाया जाता था और खाना बनता था - पूरी, परांठे, आलूदम, खीर. किसी को बनाना तो आता नहीं था तो खाना अक्सर जल जाता या कच्चा रह जाता था. लेकिन उस दिन हम बच्चा पार्टी एकदम प्राउड, सेल्फ-डिपेंडेंट टाइप रहते.
सबके घर में उससे बेहतर खाना बना होता उस दिन लेकिन हमलोग घरवालों के सामने एकदम चौड़े रहते कि आज घर में नहीं खायेंगे. हमलोगों का खुद का मस्त खाना बन रहा है. घरवाले और आस-पड़ोस वाले भी मजे लेते कि हमलोगों को भी थोडा चखाओ भई. लेकिन जिसने पिकनिक में आलू-आटा-नगद या कोई और सामान न दिया हो या खाना बनाने, बर्तन धोने में योगदान न दिया हो उसको भोजन स्थल के 500 मीटर के दायरे में फटकने की भी इजाजत नहीं होती थी.
पिकनिक ख़त्म होने के बाद कालिख से काला हुआ बर्तन लेकर घर आने पर गालियों और डंडे की भरपूर संभावना होती थी. उस बर्तन को चुपके से रसोई के गंदे बर्तनों के ढेर में सरका देना कोई हंसी-खेल का काम नहीं था. उसके लिए हाई लेवल की प्रतिभा और कंसेन्ट्रेशन चाहिए होता है, गुरु.
इसे पढ़कर ,इसी से मिलती जुलती याद मुझे भी हो आयी .
उस साल नव वर्ष पर ,हम ढेर सारे भाई-बहन गाँव में थे. और हमने पहली जनवरी को पिकनिक मनाने की सोची. .मैं और नेतरहाट में पढने वाले राजू भैया ही सबसे बड़े थे ,जरूर हम दोनों में से ही किसी का आइडिया रहा होगा. मैं चाहूँ तो सारा क्रेडिट खुद ले सकती हूँ क्यूंकि राजू भैया को तो ये सब याद भी नहीं होगा (शायद ) . पर मैं ईमानदार हूँ, ऐसा करुँगी नहीं. :) हमने ईया-बाबा के सामने अपनी इच्छा रखी . और हमारे दादा-दादी हम बच्चों की हर इच्छा पूरी करते थे .(तब इच्छाएं भी तो कितनी मासूम होती थीं ) .घर के पास ही एक नयी फुलवारी बनी थी, जिसमें छोटे-छोटे आम-लीची -अमरुद-महुए-आंवले के कलम (पौधे ) लगे थे . हम रोज शाम को पौधों को देखने जाते कि वे कितने बड़े हो गए हैं . उस फुलवारी में ही पिकनिक मनाने की इजाज़त मिल गयी . हमने गोभी-मटर वाली खिचड़ी बनाने की सोची. चाची जिन्हें हम छोटी मम्मी कहते हैं ने बनाने की विधि बता दी और सारा सामान दे दिया. पास में रहने वाली दो बहनें बेबी-डेज़ी पूरे समय हमारे साथ रहती थीं ,सो वे भी शामिल हो गयीं . बाहरी बरामदे में...अहाते में गाय-बैलों की देखभाल करने वाले 'प्रसाद काका' और 'शालिक काका' के बच्चे हमेशा जमे रहते और हमारा कोई भी काम दौड़ कर पूरा किया करते थे .वे भी साथ हो लिए. पन्द्र-सोलह बच्चों का काफिला, रसद, बर्तन, जलावन की लकडियाँ, चटाई-चादर सब लेकर फुलवारी की तरफ रवाना हो गया . घर पर कह दिया गया 'हमारा खाना नहीं बनेगा' .
हम सबकी औसत उम्र ग्यारह-बारह साल की थी. किसी ने रसोई में कभी कदम नहीं रखा था .पर आत्मविश्वास से लबरेज़ थे कि 'हम सब कर लेंगे' . ईंटें लाकर चूल्हा बनाया गया .पर लकड़ी तो सुलगे ही न .सबने कोशिश कर ली, फूंक मार-मार कर ,आँखें धुएं से भर जाएँ पर एक लपट न उठे . आखिर पास के खेतों में काम कर रहे बिजली या फूलदेव किसी ने तो आकर मदद की और लकडियाँ जल उठीं . बड़ा सा पीतल का बर्तन (जिस पर मिटटी का लेप लगा था ताकि बर्तन न जले ) चढ़ा दिया गया . (इस बार मेरा बेटा गाँव गया था तो इतने बड़े बर्तन देखकर हैरान रह गया . बोला, "ऐसे बर्तन तो caterers के पास होते हैं ". आज के बच्चे हलवाई शब्द भी नहीं जानते )
आस-पास तमाशा देखने वाले छोटे छोटे बच्चों की भीड़ खड़ी थी . चाची के के बताये निर्देशानुसार खिचड़ी पकती रही. (इतना याद तो नहीं, पर जरूर बनाने में फूलदेव ने मदद की होगी ) बीच बीच में आपसी झगडा , रूठना-मनाना ...फिर ये कहते घर की तरफ चले जाना कि 'हमें नहीं मनाना पिकनिक ' और फिर आधे रास्ते से ही लौट आना. सब चलता रहा . जब खिचड़ी पक गयी तो एक मुश्किल हुई.. हमें घेर कर खड़े छोटे-छोटे दर्शकों के बीच बैठकर सिर्फ हमलोग कैसे खा लें , इसलिए उन्हें भी बिठाया गया और केले के पत्ते पर खिचड़ी परोसी जाने लगी. अब खिचड़ी अच्छी बनी थी या बच्चे भूखे थे ,थोड़ी देर में ही हमें डर लगने लगा कि खिचड़ी कम न पड़ जाए . मैं और राजू भैया परसने का काम कर रहे थे और आखिर में हुआ ये कि हम दोनों के लिए खिचड़ी नहीं बची. तब तक दिन के चार बज चुके थे . हमारा काफिला सरो सामान के साथ वापस लौट चला. मैंने और भैया ने तय किया कि 'हमने नहीं खाया है', ये घर पर नहीं बतायेंगे . बर्तन आँगन में रखा गया और बाकी बच्चे बाहर खेलने लगे. तय किया था , 'नहीं बताएँगे' पर भूख तो भूख होती है, हम दोनों किचन में जाकर डब्बे टटोलने लगे . छोटी मम्मी की अनुभवी आँखें समझ गयीं और उन्होंने पूछ लिया ,"भूख लगी है ?" हम तो चुप लगा गए पर खेलने से ब्रेक लेकर पानी पीने आयी संध्या ने जोर से बोल दिया, "इनलोगों के लिए तो खिचड़ी बची ही नहीं .इनलोगों ने सबको खिला दिया...और वो गाँव के बच्चों के नाम गिनाने लगी कि कौन कौन खड़ा होकर देख रहा था ." उन दिनों गाँव में गैस तो थी नहीं , और काकी शाम का खाना बनाने के लिए .मिट्टी का चूल्हा और रसोई मिटटी से लीप रही थीं. हमारे लिए कुछ बनाया नहीं जा सकता था सो हमें दही -चूड़ा (पोहा ) का भोग लगाना पड़ा. जो हम दोनों को ही बहुत पसंद था .
इसके बाद गाँव में हर साल पिकनिक मनाने का चलन शुरू हो गया . जब भी मैं गाँव जाती तो पिकनिक के किस्से सुनती. अब लडकियां बड़ी हो रहीं थीं और खाना बनाना सीख गयी थीं .अब खिचड़ी की जगह खीर-पूरी-सब्जी या पुलाव-आलूदम बनता . शुरू में सारे बच्चे मिलकर पिकनिक मनाते थे. फिर लड़के लड़कियों के अलग ग्रुप हो गए. एक बार दोनों ग्रुप आस-पास ही पिकनिक मना रहे थे. और लड़कियों ने जाकर लड़कों की कुछ मदद कर दी. पास से गुजरते किसी बुजुर्ग ने देख लिया ,अब उनके पेट में दर्द कैसे न हो...उन्होंने गाँव में जाकर हंगामा कर दिया .एकाध माता-पिता अपनी बेटियों को पिकनिक के बीच से उठा कर ले गए. फिर वे घर के आस-पास अपनी नज़रों के सामने ही पिकनिक की इजाज़त देने लगे . फिर भी पहली जनवरी को पिकनिक मनाना बंद नहीं हुआ. (शायद अब भी मनाया जाता हो...इस बार घर पर फोन करुँगी तो पूछूंगी, )
मेरी पिकनिक तो फुलवारी से अब छत पर शिफ्ट हो गयी थी. महल्ले के सारे बच्चे मिलकर छत पर लकड़ी के बुरादे वाले चूल्हे पर गोभी मटर वाली खिचड़ी बनाते. ज्यादातर काम पड़ोस वाली प्रतिमा दी ही करतीं. जो हम सबसे उम्र में बड़ी थीं, पर हमेशा हमारे साथ खेलतीं. हम सब तो उबले आलू छीलने ,पानी लाने और सामान ढोने जैसे काम ही करते. रूठना-मनाना यहाँ भी बहुत होता. ज्यादातर इसलिए कि 'हमें कोई काम नहीं करने दिया' :) .
अब तो समय के साथ पिकनिक का स्वरुप ही बदल गया है . बड़े शहरों में तो पिकनिक का मतलब...सी-बीच या गार्डेन में रेडीमेड या घर से बना कर लाये पैक्ड खाने के साथ म्यूजिक-डांस ,गेम्स यही सब होता है. या फिर barbeque . बुरा यह भी नहीं. दौड़ती भागती ज़िन्दगी से कुछ पल चुरा कर सबके साथ हंस बोल लें ,इतना भी काफी है .
आप सब की ज़िन्दगी में भी ऐसे खुशियों भरे पल की भरमार हो...आगामी वर्ष सारी इच्छाएं पूरी करे और निष्कंटक गुजरे.
नव वर्ष की अनंत शुभकामनाएं !!
मजा आया पढ़के रश्मि दी.. :)
जवाब देंहटाएंलड़कों वाली पिकनिक का तो अनुभव था.
लड़कियों की पिकनिक का भी आइडिया मिला.
हमारा गाँव कुछ ज्यादा रुढ़िवादी था. लड़की किसी लड़के से बात कर ले... असंभव. :)
किसी ख़ास से बात नहीं कर पाने का अफ़सोस अब तक है क्या :)
हटाएंराज को राज ही रहने दिया जाए तो बेहतर है ;)
हटाएंअच्छा ! तो उसका नाम राज़ था :)
हटाएं;)
हटाएंमस्त यादें
जवाब देंहटाएंशुक्रिया पाबला जी :)
हटाएंएकदम से आपने 2013 को पूरा रिवाइण्ड करके वहाँ पहुँचा दिया जहाँ अब हम अपने बच्चों के माध्यम से भी नहीं पहुँच पाते हैं.. वे भी बड़े हो गये हैं.. सचमुच इन्हीं सब यादों के लिये ही हमारा मन कहता है - आया है मुझे फिर याद वो ज़ालिम गुज़रा ज़माना बचपन का!!
जवाब देंहटाएंबिलकुल सलिल जी, उन दिनों की याद तो कभी दिल से जानेवाली नहीं.
हटाएंआपको भी नव वर्ष की शुभकामनाएं !!
जवाब देंहटाएंसमय के साथ साथ बदलाव आना तो निश्चित है पर आज की पिकनिक औत तब की पिकनिक का सबसे बड़ा बदलाव है की तब कम खर्च और मिलजुल के साथ पिकनिक मन जाती थी पर अब के बच्चे ऐसा नहीं कर पाते ... बहुत अच्छा लगा आपका संस्मरण .. नव वर्ष की मंगल शुभकामनायें ...
जवाब देंहटाएंकभी कभी छोटी छोटी बातें बड़ी यादें बन जाती है हर नववर्ष मे हम बहने सोचते की इस बार रात मे देर तक नहीं जागेंगे। पर टीवी देखते देखते वक़्त का पता ही नहीं चलता। फिर रात मे १२ बजे के बाद भूख लगती, तो फटाफट सोनू दीदी सेवैया की खीर बनती और हम लोग रात की रोटियों के साथ उसकी party बनाते। आजकल की fake partys मे वो बात नहीं लगती। सच मे जैसे ´दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात दिन´
जवाब देंहटाएंअरे वाह !
जवाब देंहटाएंतुमने तो बहुत कुछ याद दिला दिया। जब भी ऐसी पिकनिक में जाते थे सबसे पहले माचिस और नमक याद रखते थे नहीं तो पिकनिक वाली जगह में पहुँच कर बड़ी फ़जीहत होती थी। हमारे ज़माने में तो फ़स्ट जनवरी का मतलब ही पिकनिक था :)
बचपन की पिकनिक का आनंद ही कुछ और था। सब कुछ मिलकर बनाना, रूठना मनाना , सरस्वती पूजा और भाई दूज भी पिकनिक से होते थे !
जवाब देंहटाएंस्मृतियों के तार छेड़ दिए तुमने !
रोचक !
हमारे यहाँ उसे खिचड़ी नहीं तहरी कहते है । बचपन की ढेर सारी यादो को ताजा कराती पोस्ट , मै भी संयुक्त परिवार में रही हूँ जहा ढेर सारे भाई बहन थे और उनके साथ मिल कर कुछ करना अपने बल बूते उसकी तो बात ही कुछ और थी , हम लोग दीवाली पर छत पर छोटा घर बनाते थे , और उसके पूरा होने पर गृह प्रवेश में खुद खाना बनाया जाता था , हमारा नंबर चौथा था शुरू में ज्यादातर निचे से सामान लाने कि ही ड्यूटी लगती थी बहुत बाद में खाना बनाने का नंबर लगा ।
जवाब देंहटाएंby the way hum bachpan mein samajhte the ki picnic ka matlab yaa to chidiyakhana yaa fir kumhrar ya fir gaandhi maidan.... :) yaad hai na ye teeno aapko... :)
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