रविवार, 12 दिसंबर 2010

'.गे' का रोल करना क्या कोई अपराध है??

युवराज पाराशर
ज्यादातर लिखने-पढनेवाले लोंग छोटे शहरो से ही आते हैं...और बड़े गर्व से कहते हैं...'मैं तो छोटे शहर का हूँ' या किसी की तारीफ़ में भी कहते हैं..'उसके अंदर एक छोटे शहर का आदमी है'. मैं भी यह जुमला जब-तब अपने महानगर में जन्म-पले बढे दोस्तों के ऊपर फेंक देती हूँ. वे लोंग कहते/कहती भी  हैं, इतने वर्ष  महानगर में रहने के बाद भी खुद को छोटे शहर का कहती हो...मेरा  रेडीमेड जबाब होता है..' ग्रोइंग एज' तो वहीँ गुजरा .पर कभी -कभी छोटे शहर की  कुछ मानसिकता बहुत दुखी कर जाती है और सोचने पर मजबूर  कर देती है क्या छोटे शहर का सब-कुछ उजला-साफ़-धुला-पुंछा  ही है?

कुछ दिनों पहले 'आगरा' शहर की  एक खबर पढ़ी. वहाँ  का एक नवयुवक, मुंबई के ग्लैमर वर्ल्ड में अपनी जगह बनाने आया. उसने प्रतिष्ठित 'Gladrags competition भी जीता. यह प्रतियोगिता सर्वश्रेष्ठ पुरुष मॉडल  के चुनाव के लिए की जाती है. (लड़कियों के लिए सुपर मॉडल  प्रतियोगिता  होती है जिसे सबसे पहले 'विपाशा बसु' ने जीता था और आज वे एक सफल अभिनेत्री  हैं) उसने कई बड़ी कंपनियों  के लिए मॉडलिंग  की परन्तु अंततः फिल्मो में काम करना ही उनका लक्ष्य होता है.
युवराज  पाराशर को भी एक फिल्म मिली, "डोंट नो वाई, ना जाने क्यूँ. " यह फिल्म 'गे रिलेशनशिप' पर आधारित थी. इसी विषय पर एक अंग्रेजी फिल्म बनी थी." ब्रोकबैक माउन्टेन" इस फिल्म को पूरी दुनिया में बहुत सराहा गया. इसे  कई ऑस्कर अवार्ड भी मिले. यह हिंदी फिल्म भी इसी पर आधारित थी.

भारत में 'गे संबंधो' पर बनी यह पहली सीरियस फिल्म थी. 'दोस्ताना' वगैरह में भी इस विषय को लिया गया है,पर वहाँ कॉमेडी है और उसके नायक सचमुच 'गे' नहीं हैं. इस फिल्म को सिडनी फिल्म फेस्टिवल,लंडन फिल्म फेस्टिवल, न्यूयार्क फिल्म फेस्टिवल में दिखाने के लिए चुना गया. सिडनी फिल्म फेस्टिवल में इसे "viewer's choice award ' भी मिला.स्वीडन,आयरलैंड,
नॉर्वे, टर्की, फिलिपिन्स आदि कई  देशों में इसे वहाँ की  भाषा में डब करके दिखाया गया. फिल्म के दोनों हीरो, युवराज पाराशर और कपिल शर्मा को कोलंबिया यूनिवर्सिटी में लेक्चर के लिए भी बुलाया गया.

लेकिन  युवराज पाराशर के घरवालो को उसकी इस सफलता से किंचित भी प्रसन्नता नहीं हुई. युवराज पाराशर  ने पहले तो अपने घरवालो से यह बात छुपाये रखी कि वह एक 'गे' का रोल कर रहा है. पर जब फिल्म रिलीज़ होने के बाद घर वालो को पता चला कि उसने एक 'गे' का रोल किया है तो वह बहुत नाराज़ हुए. अपने बेटे से सारे नाते तोड़ लिए, यही नहीं उसके पिता ने एक कदम आगे जाकर कोर्ट में  'युवराज पाराशर ' को बेदखल भी कर दिया. पिताजी ने अखबार को दिए अपने इंटरव्यू में कहा कि ,"उसकी माँ रो रो कर बेहाल हो गयी है...वो डिप्रेशन में है. रिश्तेदार और पड़ोसी हमारा मजाक उड़ाते हैं. हमारा घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया है. अब कोई लड़की उस से शादी नहीं करेगी. इसीलिए मैं यह कदम उठाने को मजबूर हो गया हूँ" और अपने ही बेटे का परित्याग  कर दिया. वे चाहते तो गर्व से अपने बेटे की सफलता से लोगो को अवगत करवा सकते थे. उन्हें सच्चाई बता सकते थे. बाकी लोगो के मस्तिष्क  पर छाया भ्रम दूर कर सकते थे.


सर्वप्रथम तो उनकी अनुमति से या फिर अपनी मर्जी से ही बेटे ने जब ग्लैमर वर्ल्ड में कदम रख ही दिया तो इस तरह की बातों के लिए उन्हें मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए था. और बेटे को बेदखल करते वक्त उन्होंने यह भी नहीं सोचा, कि उसकी दुनिया वैसे ही कठिन और संघर्ष भरी है. उसपर से उन्होंने उसका एक मानसिक सहारा भी छीन लिया. वह भी बिना किसी अपराध के. एक 'गे लड़के' का रोल करना क्या अपराध की  श्रेणी में आता है?


वैसे भी इस विषय को लेकर लोगो में बहुत भ्रांतियां हैं. मैने कई लोगो को कहते सुना है कि यह सब पश्चिम की देन है..हमारी संस्कृति में यह सब कभी नहीं था. पर अगर नहीं था तो 'समलैंगिक' शब्द कैसे बना? एक बार एक सहेली से बात हो रही थी, वो कैथोलिक है और 'रायपुर' से है. उसका कहना था, कि उसके माता-पिता और उसके सास-ससुर जानते ही नहीं कि इस तरह के सम्बन्ध भी होते हैं या ऐसे शब्द भी हैं. मुझे लगता है,अवगत तो सब हैं पर इसके बारे में बात नहीं करते या फिर ना जानने का दिखावा करते हैं. यानि कि पाखण्ड . इस्मत चुगताई ने शायद १९४० में लेस्बियन संबंधो  पर आधारित एक कहानी लिखी थी 'लिहाफ' उसके लिए उन्हें काफी विरोध सहने पड़े. पर अब 2010 है...और मानसिकता वहीँ की
वहीँ .

जबकि महानगरो में ,कम से कम से कम मुंबई में लोग खुले विचार के हैं. मेरे बेटे को नाटको का शौक  है. उसने एक नाटक फेस्टिवल में भाग लिया था. उसका रोल एक जमूरे का था. और तेल लगे बाल, घुटनों तक की पैंट पहने उसने बेलौस अच्छी एक्टिंग की थी. एक दूसरे नाटक में एक बच्चे ने एक 'गे' का रोल किया था.' गोल्ड मेडल ' उस 'गे' का रोल करनेवाले को मिला. कई लोगो में मतभेद था कि 'जमूरे' ने ज्यादा अच्छी एक्टिंग की थी.माँ होने के नाते स्वाभाविक है मुझे भी ऐसा ही लगता. पर फिर मैने सोचा,एक तो उस लड़के ने ऐसा रोल करने की हिम्मत की, जबकि वह बच्चा सिर्फ सत्रह साल का था. और दूसरे इस से जागरूकता भी बढ़ेगी और लोंग इसे अस्पृश्य नहीं मानेंगे. उसके मेडल रिसीव करते ही हॉल तालियों से गूँज  उठा और इसमें उसके माता-पिता की तालियाँ भी शामिल थीं

 

आखिर ऐसा क्या है कि एक ही तरह की घटना एक जगह तो माता-पिता से तालियाँ दिलवाती हैं और दूसरी तरफ बेदखली? जबकि आज संचार साधनों के माध्यम से पूरा विश्व ही एक गाँव बन गया है. फिर मानसिकता में यह अंतर क्यूँ है? जबकि मेरा निजी अनुभव यह है कि पत्र-पत्रिका, छोटे शहरो वाले लोग ज्यादा पढ़ते हैं. वहाँ हर नुक्कड़ कोने पर पत्रिकाओं की दुकान मिल जायेगी. जबकि यहाँ मुंबई में या तो स्टेशन पर मिलेंगी या कहीं दूर-दराज किसी एक जगह पर. पढने का कतई शौक नहीं है यहाँ के लोगो को. पर वह एक अलग मुद्दा है. छोटे शहरो में आज भी नवयुवक ज्यादातर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लगे होते हैं और उसके लिए उन्हें पत्रिकाएं पढनी ही पढ़ती हैं. लेकिन जब वहाँ के लोंग , इतनी पत्रिकाएं पढ़ते हैं फिर वो जागरूकता  क्यूँ नहीं है? चीज़ों को स्वीकारने की विशाल हृदयता क्यूँ नहीं है?? आजकल तो टी.वी. के माध्यम से भी हर तरह की  खबर घर-घर पहुँच रही है. फिर भी इस तरह की घटनाएं देखने को मिलती हैं. यह बहुत ही दुखद है.

56 टिप्‍पणियां:

  1. अपराध तो ख़ैर… जाने दीजिये…एक कलाकार के लिये हर चरित्र चुनौती होता है लेकिन इम कूढ़मगज़ समाज में जो हो सो कम है। रहा सवाल गे होने न होने इसका स्वीकार होने न होने का तो मुझे न तो ये बेकार का मुद्दा लगता है, न ही बहुत महत्वपूर्ण्…हद से हद यह अपर मिडल क्लास की सेक्सुअल च्वायस का मामला है। हाँ यह वर्ग हमेशा भूल जाता है कि और भी ग़म हैं ज़माने में…

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  2. रश्मि जी,

    दरअसल छवि की चिंता में इस तरह की पोस्टें ब्लॉगजगत में ज्यादातर लोग नहीं लिखते यह एक सच्चाई है। आपने इतने बोल्ड विषय पर इतनी अच्छी तरह से लिखा इसके लिये सबसे पहले बधाई स्वीकारें।

    जहां तक गे रिलेशन पर फिल्मों में रोल की बात है तो यह उसी तरह से लेना चाहिए जैसा कि बाकी रोल्स निभाना पड़ता है जैसे कुली का, बूटपालिश वाले का, या कैसा भी। उसे लेकर इतना सिरियस स्टेप उठाना कि अपने बेटे से संबंध तोड़ लेना थोडा ज्यादती है। लेकिन इसमें उन मां बाप का भी पूरा दोष नहीं है। उन्हें भी अपने छोटे से कस्बे या जिले की मानसिकता के हिसाब से ही समझ या कहें विचार व्यवहार रखना पड़ता है। हम शहर वाले ही कहां इतने खुल पाये हैं कि इस पर ज्यादा कुछ ओपनली कह सकें।

    ऐसे में इस बंदे के माता पिता संभवत: स्थिति से अच्छी तरह धीरे धीरे अवगत हो जांय और उसके निभाये गये इस रोल को बाकी के एक्टिंग प्रोफेशन की तरह ही लें।

    बाकि तो पहले फिल्मों में काम करना भी एक किस्म की बदनामी मानी जाती थी, लेकिन लोगों में धीरे धीरे समझ विकसित हुई और अब देखिए कि लोग फिल्मों में काम करने के लिये न जाने क्या क्या कर गुजरते हैं।

    एक अलग ही मुद्दा और उस पर बेहद संतुलित ढंग से अपने विचार रखने के लिये पुन: बधाई स्वीकारें। आशा है ऐसे विषयों से नाक भौं सिकोड़ने और अपनी छवि मेकर की चिंता में घुले जा रहे ब्लॉगर थोड़ा खुल कर लिखेंगे... पढ़ेंगे।

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  3. तकनीकी विकास के साथ-साथ जीवन मूल्यों की अवधारणाएं बदल रही हैं, समय के अभाव में एक रचनाकार से इस दायित्व की अपेक्षा की जाती है कि वह रचना में जीवनानुभवों और घटनाओं को समकालीन समय के समांतर विश्लेषित करे।
    आपने ऐसा ही किया है।
    इसका मतलब यह नहीं कि मैं मेरे बेटे के इस रोल पर मेडल पाने पर ताली बजाने वाला हूं, अग्र वह ऐसा रोल किया तो मैं भी उसे घर से ही निकाल दूंगा। अरे करना ही है तो वीर पुरुष का करे मर्द का करे।

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  4. बात छोटे शहर या बड़े शहर के होने या नहीं होने से नहीं है।
    पोरबंदर जैसे छोटे शहर से निकल कर लोग गांधी जैसा विचार दे सकता है, और कलाम जैसा राष्ट्रपति भी उदाहरण है, अनगिनत उदाहरण है।
    बात यह है कि किस मानसिकता को तुम बढावा दे रहे हो।
    बात प्रकृति के विरुद्ध आचरण करने वालों की है। ऐसे लोगों के मानसिक उपचार की ज़रूरत है, और वैसा ही दिखाने की भी। न कि उन्हें हीरो की तरह प्रोजेक्ट करने की।

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  5. सब लोग जानते हैं और इस बदली हवा को देख भी रहे हैं लेकिन स्वीकारना कोई नहीं चाहता इस बदलाव को.

    अच्छी सुद्रद प्रस्तुति.

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  6. पुराने शहरों की पुरानी अवधारणायें टूटने में समय लगेगा।

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  7. @ मनोज जी,

    इसका मतलब यह नहीं कि मैं मेरे बेटे के इस रोल पर मेडल पाने पर ताली बजाने वाला हूं, अग्र वह ऐसा रोल किया तो मैं भी उसे घर से ही निकाल दूंगा। अरे करना ही है तो वीर पुरुष का करे मर्द का करे....

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    is it ????

    यदि आपके हिसाब से वीर पुरूष या मर्द का ही रोल करना उचित है तो विलेन या खराब छवि वाले का रोल कौन निभायेगा।

    सब लोग राम का ही रोल करेंगे तो रावण का भी तो रोल निभाने वाला कोई चाहिये कि नहीं ?

    याकि आदर्श चित्रण हेतु बिना रावण के ही रामलीला रची जायगी :)

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  8. जब घरवालों को इस बात पे आपत्ति नहीं थी कि बेटा फिल्मों में काम कर रहा है तो फिर रोल मिलने में किस तरह कि आपत्ति..
    सतीश जी ने ठीक कहा है
    "जहां तक गे रिलेशन पर फिल्मों में रोल की बात है तो यह उसी तरह से लेना चाहिए जैसा कि बाकी रोल्स निभाना पड़ता है जैसे कुली का, बूटपालिश वाले का, या कैसा भी। उसे लेकर इतना सिरियस स्टेप उठाना कि अपने बेटे से संबंध तोड़ लेना थोडा ज्यादती है।"

    वैसे मैंने ब्रोकबैक माउन्टेन या डोंट नो वाई, ना जाने क्यूँ दोनों फिल्मे नहीं देखी है लेकिन तारीफ़ सुन रहा हूँ..

    बहुत ही बोल्ड पोस्ट लिखा है आपने..बहुत अच्छा लगा कि ऐसे विषयों पे भी इतने अच्छे से लिखा जा सकता है.

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  9. गे/लेस्बियन सम्बन्ध मुझे अप्राकृतिक लगते हैं - aberration. Incest तो फिर भी प्राकृतिक है।
    ... केवल फिल्म में 'गे' का अभिनय करने के लिए पिता का पुत्र से सम्बन्ध तोड़ देना तो महामूर्खता है। देखिएगा बाद में जब वह अपनी मूर्खता से मुक्ति पा जाएगा, फिर से आत्मज को अपना लेगा। यह मूर्खता भी परिवेशजनित है।
    मनुष्य का व्यवहार परिवेश से भी निर्धारित होता है। समाज में जहाँ कि दूसरे के कथित 'फटॆ' में टाँग अड़ाने की आदत सी है, ऐसे पाखंडी कर्म जीवन को आसान बनाते हैं। बाद में जब तूफान गुजर जाता है और जनता दूसरे फटों के साथ व्यस्त हो जाती है तो पाखंड का खंड भी हो जाता है। घर से भाग कर विवाह किए हुए जोड़ों को त्यागना और फिर एकाध वर्ष बाद अपना लेना उसी श्रेणी में आता है।
    प्रश्न यह है कि समाज में ऐसी प्रवृत्तियाँ हैं ही क्यों? विविधता और समय का सभी जगह समान रूप से गतिमान न होना कारण हैं। ऐसे समाज भी हैं जहाँ आप ऐसा लेख लिख ही नहीं पातीं और लिखतीं तो कोई फतवा जारी हो जाता। मुद्दे को पूरी समग्रता में देखना चाहिए।
    हाँ, ऐसा घटित होना ठीक नहीं है। लेकिन क्या कीजिएगा, बहुत कुछ ठीक नहीं होता और हम चलते रहते हैं।
    साधुवाद! साहस के लिए।
    -बेड़ियों को तोड़ने की पहल होनी चाहिए-

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  10. बहुत कुछ बदल गया है ,बहुत कुछ बदल रहा है ..जल्दी ही बहुत कुछ और बदल जायेगा..
    वक्त वक्त की बात है बस.

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  11. अभिनय तो अभिनय होता है उसे उसी रूप में लेना चाहिए ...
    यह माता -पिता की ज्यादती है उस बच्चे के प्रति ......
    युवराज पाराशर को चाहए कि वह माता-पिता को साबित कर दिखाए कि वह एक अच्छा अभिनेता है .....!!

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  12. आपकी इस पोस्‍ट के दो हिस्‍से हैं। एक है समलैंगिक संबंध और दूसरा है समलैंगिक व्‍यक्ति का अभिनय करना।
    *
    जहां तक पहले का सवाल है उस पर शायद यहां बहस नहीं हो रही है। अगर होगी तो बहुत सी बातें निकलेंगी। अब रहा सवाल अभिनय का। तो यह तो फिल्‍म में जो चरित्र रचा गया है,उसकी बात है। अभिनय करने से तो व्‍यक्ति समलैंगिक या गे नहीं हो जाएगा।
    *
    जिस बंदे की बात हो रही है उसका नाम युवराज है या राजीव।

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  13. अभिनय की वज़ह से बेदखल करना सही नहीं ।
    लेकिन विषय से सहमत होना अलग बात है ।
    जाने क्यों लोग अप्राकृतिक संबंधों को इतना उकसाने में लगे हैं ।

    वैसे यह विषय बेहद संवेदनशील और विस्तृत है । इस पर जल्दी ही एक पोस्ट लिखने की कोशिश रहेगी ।

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  14. रश्मि जी, मैंने अपनी पोस्ट के लिए एक विषय चुना था जो अभी हाल की घटना और फिर एक पुरानी घटना से जुड़ा था. पहले पुरानी घटनाः
    आप ने माँ बाप की बात कही, जो वाक़ई छोटे शहर से हैं और फ़िल्मों मे काम करने के भी विरोधी रहे होंगे और अब तक होंगे. मैं बात करने जा रहा हूँ दिलीप कुमार और सुचित्रा सेन की. ये तो कलाकार हैं, इनके अंदर तो हर रोल एक चुनौती की तरह होना चाहिये. लेकिन मेरी सूरत तेरी आँखें फिल्म में दिलीप साहब ने काम करने से मना कर दिया था, क्योंकि उसमें एक बदसूरत कुबड़े व्यक्ति का रोल करना था जो उनकी छवि से मेल नहीं खाता था. बाद में अशोक कुमार ने वो रोल किया.
    सुचित्र सेन ने सारी उम्र बाङला फिल्मों में हीरोइन का रोल ही किया और जब उम्र ढ़लने लगी तो उन्होंने काम करना बंद कर दिया. कारण कि वो स्वयम् को माँ के रोल में सहन नहीं कर पा रही थीं. सिर्फ इतना ही नहीं, फिल्में छोड़ने के बाद से आज तक उनकी कोई फोटो किसी पत्रिका में नहीं छपी, यहाँ तक कि उन्होंने पद्म पुरस्कार और दादा साहब फालकेपुरस्कार लेने से मना कर दिया, क्योंकि इसके लिये उन्हें फोटो खिंचवानी होती और पब्लिक प्लेस में आना होता. वो घर से बुर्क़ा पहन कर निकलती हैं, ऐसी बातें उनके पड़ोस में रहने वाले बताते हैं.

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  15. .... पिछली टिप्पणी से जारी
    सारे कलाकार संजीव कुमार की तरह नहीं होते कि जब गब्बर सिंह की खोज पूरी नहीं हुई तो गब्बर बनने को तैयार हो गए थे और नया दिन नई रात में कोढ़ी और स्त्रैण चरित्र करने को भी ( यह रोल भी दिलीप साहब ने इसी कारण से ठुकरा दिया था). इनके विषय में लोग कहते थे कि ये पैदायशी बूढ़े थे.
    और अभी हाल की घटना, जब मेरे बेटे को मिज़ल्स हुआ और चेहरे पर कई दाने हो गए थे. उसने घर के सारे आईनों पर काग़ज़ चिपका दिया, यह कहकर कि मुझे अपना बदसूरत चेहरा नहीं देखना.
    जब कलाकारों और बच्चों का अपनी इमेज को लेकर, जो कि बिल्कुल वस्तविक नहीं है, ये नज़रिया है तो, एक छोटे से गाँव या क़स्बे में रहने वाले माँ बाप की सोच अगर ऐसी है तो हो सकती है. हाँ सही या ग़लत की बात उसके बाद ही पैदा होती है. वैसे मनोविज्ञान और तर्क में बहुत अंतर है.

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  16. कोई नहीं, माता-पिता ज्यादा दिन तक गुस्सा थोड़ा रहेंगे। वैसे इस मुद्दे पर अभी और लिखा जाना चाहिए।

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  17. @सलिल जी,
    यह बात उनके पड़ोसियों ने कही होगी पर मैने टी.वी. पर रीमा सेन (मुनमुन सेन की बेटी ) को एक इंटरव्यू में ये बात कहते सुनी थी. और इतनी दूर क्यूँ जाएँ..हमारे अमिताभ बच्चन जी क्या बिना विग पहने कभी पब्लिक में आते हैं??

    पर यहाँ मुद्दा बिलकुल अलग है....बेटे को बेदखल कर देना कि उसने ऐसा रोल क्यूँ किया...बेहद अफसोसजनक है.

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  18. रश्मि जी,
    कलाकार के रूप में इस प्रकार के रोल अदा करना तो शायद सामाजिक अपराध के दायरे में नहीं रखा जाना चाहिए.

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  19. रश्मि जी! मैं उसी मानसिकता की बात कर रहा हूँ..जब इतने बड़े बड़े स्थापित कलाकार अपनी स्क्रीन इमेज और पब्लिक इमेज के प्रति इतने जागरूक हैं तो वो बेचारे गँवई या छोटे शहर के लोग ठहरे. पड़ोसियों को कहते शर्म आती होगी कि बेटा ये रोल कर रहा है.. और बेदखली की बात तो एक क्षणिक निर्णय है और अख़बार वालों का फितूर.. शोले के डायलॉग की तर्ज़ पर.. जब मन से गुस्सा उतरेगा या आवेग ठण्डा होगा तो उसे बेटा मान ही लेंगे..

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  20. और हाँ... सुचित्रा सेन कलकत्ता में मेरे पड़ोस में रहती थीं...

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  21. जहाँ तक अभिनय करने की बात है और उस कारण से माता पिता ने युवराज को बेदखल कर दिया है ..यह युवराज के साथ अन्याय ही है ..लेकिन सलिल जी की बात को देखें तो पहली पिक्चर में ऐसा तोल करने की वजह से घर वाले अपने जान पहचान वालों को क्या बताएँ ? शायद यही मानसिकता उन पर हावी होगी ...असल में छोटे शहरों में आज भी लोंग एक दूसरे को जानते पहचानते हैं ...बड़े शहरों में आप कैसे रह रहे हैं , क्या कर रहे हैं किसी को कोई सरोकार नहीं होता ...

    अब एक अलग बात जो इस पोस्ट में कही है ...
    वैसे भी इस विषय को लेकर लोगो में बहुत भ्रांतियां हैं. मैने कई लोगो को कहते सुना है कि यह सब पश्चिम की देन है..हमारी संस्कृति में यह सब कभी नहीं था...
    यदि इतिहास उठा कर देखेंगे तो इस विषय पर बहुत कुछ मिलेगा ...

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  22. युवराज के पिता और परिवार की ये नाराज़गी अस्थायी है...युवराज की दूसरी कोई फिल्म हिट होने दीजिए, यही रिश्तेदार उसके कसीदे पढ़ते नहीं थकेंगे...

    दरअसल छोटे शहरों (आगरा कोई छोटा शहर नहीं है, शायद गैर महानगर शहर कहना ज़्यादा सही रहेगा) में सामाजिक तौर पर आज भी....लोग क्या कहेंगे...पर बहुत ध्यान दिया जाता है...आगरा के लिए जो विस्मयकारी है, वो अब दिल्ली और मुंबई के लिए सामान्य है...यहां सड़कों पर निकाली जाती है...सब अपने काम, अपनी ज़िंदगी में व्यस्त (मस्त) हैं...किसी के पास ये सोचने की भी फुर्सत नहीं कि दूसरा क्या कर रहा है...इसलिए महानगर अब समाज-प्रधान नहीं व्यक्ति-प्रधान होते जा रहे हैं...विकास का एक चेहरा ये भी है, इसे कोई चाहे या न चाहे, पश्चिम की तरह हमें भी स्वीकार करना होगा...

    जय हिंद...

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  23. गे के हक मै तो हम भी नही, यह कोई अच्छी मानसिकता नही, ओर पश्चिम के देशो मे भी इसे आम लोगो मे अच्छा नही समझा जाता, हमारे भारत मे आधुनिकता के नाम पर इसे परोसा जाता हे, तो हम गांवार ही कहला ले गे लेकिन इतने आधुनिक नही बनेगे, बाकी आप ने रोल की बात की तो आज के बच्चे फ़िल्मो से भी बहुत कुछ सीखते हे, इस फ़िल्म को देख कर देखने वालो पर क्या असर होगा? ऎकटिग चाहे कितनी भी अच्छी की हो....आज ही कही पढा हे कि सचिन ने २० करोड ठुकरा दिये शाराब का विग्यापन नही किया, इस लिये इस के मां बाप ने सही किया. धन्यवाद

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  24. रश्मी जी,

    बधाई, एक ज्वलंत विषय को चर्चा देने के लिये।

    पहले तो मनोज जी और सलील जी से सहमत।

    @दुनिया वैसे ही कठिन और संघर्ष भरी है. उसपर से उन्होंने उसका एक मानसिक सहारा भी छीन लिया. वह भी बिना किसी अपराध के. एक 'गे लड़के' का रोल करना क्या अपराध की श्रेणी में आता है?

    परिवार के लिये भी उसी तरह दुनिया कठिन और संघर्ष भरी होती है। उसके मानसिक सहारे की तो हम बात करते है पर परिवार के मानसिक आघात पर हम नहिं सोचते, क्यों? समाज परिवार को फर्क पडता है, यदि गीतो में मुन्नी व शीला नामों के मात्र प्रयोग से कई परिवारों की स्थिति दुविधाजनक हो जाती है तो फ़िर यह तो उस परिवार से सीधा सम्बन्ध है।
    परिवार को दुविधा की स्थिति से, ऐसे अभिनय से इनकार कर बचाया भी जा सकता है। इस विषय पर अनावश्यक फ़िल्में न बनाकर भी समाज का हित किया जा सकता है। यदि फ़िल्में और अभिनेता कईं विषयो पर समाज में जागरूकता लाने का श्रेय लेते है तो यह भी उनका कृतव्य है कि वे समाज में बुरी चीजों को भी महिमामण्डित न करे।
    अभिनेता को पिता द्वारा बेदखल कर देना अवश्य ज्यादती है। पर अब बेदखल कर देने से परिवार को कोई लाभ होने वाला नहिं था। निश्चित ही अभिनेता ने यह प्रयास नहिं किया होगा कि यह मात्र अभिनय ही है। या पिता को उस स्थिति तक ले आया हो जहां पिता ऐसा दुष्कर निर्णय ले।

    @चीज़ों को स्वीकारने की विशाल हृदयता क्यूँ नहीं है??

    क्यों समाज स्वीकार करले? अगर इन रिश्तो का समाज में पाया जाना सच्चाई भी है तो भी यह अप्रकृतिक है, कोई आदर्श नहिं, कि इनका फ़िल्म आदि माध्यमो से प्रसारित होना चाहिए, और लोग उसे देखकर स्वीकार करे और उसे एक सम्मानजनक आधार बक्शे।

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  25. फिल्मों या नाटकों में पात्र का चरित्र चित्रण कैसा है , इससे उसे निभाने वाले व्यक्ति के चरित्र से क्या सम्बन्ध है ..खलनायक का पत्र करने वाले अधिकांश कलाकारों का जीवन साफ़ सुथरा रहा है जबकि हीरो के रोंल निभाने वाले वास्तविक जीवन में कम खलनायकी नहीं करते ....सिर्फ ऐसे चरित्र निभाने के कारण घर से बेदखल कर देना छोटी सोच या समझ की बात है ...
    रहा समाज में ऐसे संबंधों की बात तो ये सम्बन्ध रहे हैं पुरातन काल से ही ...छोटे शहरों में इन पर बात दबे ढके शब्दों में ही होती हैं... इन रिश्तों में शारीरिक सम्बन्ध अप्राकृतिक माने जा सकते हैं और इन रिश्तों के दुष्परिणाम जगजाहिर हैं अब तो चाहे ये रिश्ते किसी भी संस्कृति की उपज रहे हों ....!

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  26. आज फिर आया हूं, सुबह-सुबह। इसलिए कि एक अखबार में स्म्पादकीय में पढा कि मेरा रोल मोडेल, क‍इयों के लिए भगवान समान, सचिन तेंदुलकर ने सिर्फ़ २० करोड़ सालाना आय प्राप्त करने वाले विज्ञापन में ‘रोल’ करने से मना कर दिया है। इसमें उन्हें महज नशे का उत्पाद बनाने वाली कम्पनी का विज्ञापन करना था। सचिन ने हमारे सामने आदर्श प्रस्तुत किया है। आज लोग कहीं से भी कुछ भी करके धन कमाना चाहते हैं, उन्हें ज़रा भी ध्यान नहीं है कि इससे देश और समाज पर क्या असर होगा।
    इस आलेख के साथ यह उदाहरण इसलिए भी फिट बैठता है क्योंकि इस दौर में जहां आज की औलादें पैसे के लिए बूढे मां-बाप को घर से निकालने में शर्म नहीं करतीं, वहीं सचिन ने अपने पिता से सालों पहले किए वादे को निभाने के लिए भारतीय विज्ञापन जगत का एक बड़ा ऑफर ठुकरा दिया। रोल के लिए कैसे भी दृश्य देने और देश की प्रतिष्ठा तक को दाव पर लगा देने वाले लोगों को सचिन के इस फैसले से सबक लेना चाहिए।

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  27. abhinay kshetra ke liye ek aam baat hai, maa-baap pata nahin kyon is baat ko itna serius le rahe hain

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  28. @राज जी एवं मनोज जी,
    सचिन तो खैर इतनी अपार सफलता प्राप्त करने के बाद भी इतने humble और down to earth हैं कि भगवान का स्वरुप ही हैं. जब आपलोगों ने उनके २० करोड़ ठुकराने की बात का जिक्र किया है तो इस परिप्रेक्ष्य में बैडमिन्टन के वर्ल्ड चैम्पियन 'गोपीचंद' को भी याद कर लेना चाहिए जिन्होंने पेप्सी और थम्स अप के विज्ञापन का ऑफर ठुकरा दिया था क्यूंकि यह पेय बच्चों के लिए हानिकारक है. और यह उनकी ज़िन्दगी का इतने पैसे देनेवाला पहला और इकलौता बड़ा ऑफर था.

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  29. लेख में दो मुद्दे है एक गे सम्बन्ध दूसरा गे की भूमिका | जहा तक गे की भूमिका की बात है तो परिवार ने संभवतः समाज के व्यवहार के चलते किया है लडके की प्रसिद्धि जल्द ही इस दूरी को कम कर देगा |

    रही बात गे संबंधो की तो मुझे भी नहीं लगता की ये केवल पश्चिम की देन है और ये बहुत बुरा भी नहीं है | लेकिन कुछ साल पहले टीवी पर मसहुर सेक्सोलाजिस्ट डॉ कोठारी का एक इंटरव्यू देखा था उसमे उन्होंने बताया की भारत में जितने भी लोग खुद को गे मानते है या समलैंगिग सम्बन्ध बनाते है उसमे एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जो नासमझी में , कम ज्ञान की वजह से, अपने से बड़ी उम्र के लोगों द्वारा अपने फायदे के लिए बरगलाने के कारण , और कनफूजन में ये सम्बन्ध बना लेते है या खुद को गे समझने लगते है |

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  30. nahin apradh nahin haen gae kaa rle karna aur gae hona bhi apradh nahin kanun ki nazar mae ab

    samaj agar kanun aur samvidhan ko maaney to behtar hoga lekin samaj apne niyam banataa haen aur maantaa haen

    samaj kae niyam vyakti sae vyakti , jaati sae jaati aur dharma sae dharm thathaa ling sae ling kae liyae farak hotey haen JO GALat HAEN

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  31. बात दूसरी तरफ बह चली तो मैं आज से कई दशक पहले जाना चाहता हूँ जब शायद पहली बार किसी ने ऐसा किया था.. प्रसिद्ध फुटबॉल खिलाड़ी पेले ने करोड़ों का विज्ञापन करने से सिर्फ इसलिए मना कर दिया था कि वह पेय उनके विचार में घटिया था...
    वर्ना आज तो जो कैल्विन क्लीन के अण्डरगार्मेण्ट्स पहनते हैं,वो अमूल और वीआईपी के कॉमर्शियल करते दिखते हैं!!

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  32. अरे बाबा रे.......... अच्छी खासी बहस चल पड़ी है.... ऐसे लगता है टीवी स्टूडियो का दृश्य चल रहा है........

    रश्मि जी, आप बधाई की पात्र है, कि ऐसे सवेदनशील टोपिक पर की-बोर्ड तोडा है..... जहां आकार हमारा तथाकथित प्रगतिशील समाज भी रूढ़ हो जाता है..

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  33. ऐसा नहीं है कि गेयता (गे'यता') हमारे समाज को अप्रिय है ! विरोध सिर्फ ये कि अपने घर में नहीं होनी चाहिए !

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  34. अब आप इसे दोमुंहापन कहें या कुछ और ? इस प्रकरण में उल्लिखित परिवार में रंगमंचीय संस्कारों का अभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है !

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  35. आज के दौर में इस तरह की बातें लोकप्रियता बटोरने के लिए भी हो सकती हैं ... क्योंकि एक्टिंग और वास्तविकता का अंतर आगरा जैसे महानगर में कोई जानता न होगा ... ऐसा लगता नही ... और अगर सच में ही गे की एक्टिंग की वजह से घरवाले नाराज़ हैं तो ये बेवजह ही है ... गे होनकोई जुर्म नही है ... इस तरह की बातों को बेवजह ही तूल दी जाती है मीडीया पर ... अगर ऐसी बहुत सी बातों को मीडीया न उठाए तो समाज का ज़्यादा भला होगा ...

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  36. बहस तो पूर्ण यौवन पर है और हम तो अब आ पाए। यह सब व्‍यक्ति व्‍यक्ति पर निर्भर करता है। समाज की मान्‍यताएं तीव्रता से बदल रही हैं तो अब सोचने के तरीके में भी बदलाव आ रहा है। बस अच्‍छी पोस्‍ट है।

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  37. फ़र्क तो आ रहा है मगर उतनी तेज़ी से नही ……………॥नही तो पहले लोग इस बारे मे बात भी नही करते थे मगर आज हमारे बच्चे भी हमारे सामने बात कर लेते है इस बारे मे तो फ़र्क आ रहा है मगर वक्त लगेगा सब स्वीकारने मे।

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  38. मेरे कमेंट की एक पंक्ति में एक शब्द छूट गया है...उसे ऐसा पढ़ा जाए...

    यहां सड़कों पर queer parade निकाली जाती है...

    जय हिंद...

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  39. विचार भिन्नता हो सकती है किन्तु इस विषय पर घर से बेदखली का पिता का निर्णय तो ?

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  40. अच्छी पोस्ट है रश्मि. देर से आई, तो पोस्ट पढने के बाद सारे कमेंट भी पढे. पोस्ट में दो विषय समाहित हो गये हैं, जैसा कि अनेक साथियों ने लिखा ही है.
    तो ये दोनों विषय दो भिन्न-भिन्न पोस्ट के मोहताज हैं. उम्मीद है, तुम लिखोगी.
    फ़िल्म में तो लोग शिखंडी का रोल भी करते हैं, तो क्या उन्हें भी उनके परिजन निकाल देंगे? अभिनय तो अभिनय है. वास्तविक गे के साथ कैसा व्यवहार हो, कैसा नहीं, जब उन पर आधारित पोस्ट लिखोगी तब बताउंगी :):)

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  41. गे जैसी विकरिती को बढावा देना भी अनुचित है मै त्प इता के पक्ष को सही मानती हूँ। जो बात हम अपने घर मे अच्छी नही समझते वो दूसरे घर के लिये अच्छी कैसे कह सकते हैं। बहुत कुछ आजकल भी हमे अपने घरों मे बदला नही है चाहे दुनिया मे कुछ भी बदल गया हो। धन्यवाद।

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  42. abbal to film dekhni hogi ki Yuvraaj ne jis film me kaam kiya uska uddeshya kya tha.. sandesh kya tha. Aur kahne me hichak nahin ki is vishay par abhi tak meri koi paripakv soch nahin ban paayi.. haan abhi tak man yahi kahta hai ki ye unnatural sexual relations na sirf culture balki science ke according bhi kai beemariyon ko janmane wale hain isliye ghrina yogya hain aur yadi koi unke samarthan me khada hota hai to wo bhi utna hi doshi hai.. dekhte hain shayad samay ke sath is soch me 'sudhar' aaye.. :)

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  43. प्राचीन मानसिकता को टूटने में समय तो लगेगा ही।

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    दिल्‍ली के दिलवाले ब्‍लॉगर।

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  44. koi bhi charitra nibhana galat nahi, balki kamaal hai use sahi dhang se utaar dena

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  45. रश्मि जी आपके आलेख की विषय वस्तु युवराज के प्रति उसके मातापिता के असहिष्णु व्यवहार पर आधारित है कि उन्होंने उसे बेदखल कर उचित किया या अपने बेटे के साथ अन्याय किया ! इस सन्दर्भ में मेरे विचार से दोनों ही पक्ष दया और सहानुभूति के पात्र हैं ! बेटे ने अपनी पहली ही फिल्म में ऐसी भूमिका निभाई जो पूरे समाज के सामने माता-पिता के लिये शर्मिंदगी का कारण बन गयी ! भारतीय परिदृश्य में, विशेष कर छोटे शहरों में, मनुष्य अभी भी एक सामजिक प्राणी पहले है ! और संभव है युवराज के माता-पिता के लिये भी यह विषय अन्य कई लोगों की तरह घृणास्पद हो ! फिर अपने बेटे को ऐसा रोल करते देख वे कैसे गौरवान्वित होते ! और कहीं न कहीं युवराज के साथ भी अन्याय हुआ है क्योंकि उसने केवल अभिनय ही तो किया था कोई अपराध तो नहीं !

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  46. मुझे बरसो पहले कहीं पढा पाकिस्तान का एक किस्सा याद आ गया कि एक नाटक मे एक पति पत्नी ने पति पत्नी का रोल किया और उसमे तलाक का एक दृश्य था । नाटक के बाद समाज के लोगो ने कहा कि आपने तो पत्नी को तलाक दे दिया अब आप साथ मे कैसे रह सकते है ? इस पर बहुत बवाल मचा ।
    तो हमारा समाज अभी भी अभिनय और वास्तविकता मे फर्क नही करता है ।
    इसी बात को हम कहानी और इतिहास पर भी लागू कर सकते हैं । हमारा यह समाज कहानियों को सत्य मे घटित मानता है और उस आधार पर लडता झगडता है ।
    ऐसे लोगों के साथ यही सलूक किया जाये कि उनका बहिष्कार किया जाये । उस बेटे को चाहिये कि वह अपने माँ बाप से कहे कि मै तुम्हे अपनी ज़िन्दगी से खारिज करता हूँ ।

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  47. छोटी जगह की संस्कृति और महानगरों की संस्कृति में बहुत अंतर है. यहाँ घर वाले ही नहीं पड़ोसी और दोस्त भी इंसान की निजी जिन्दगी में दखल रखते हैं. अभी पिछली पीढ़ी इतनी बोल्ड नहीं हो पाई है
    फिर भी बच्चों को जिस क्षेत्र में हम भेज रहे हैं उसकी संभावनाओं से हमें अवगत होना चाहिए. युवराज के पिता ने गलत किया या सही ये दृष्टिकोण उनका अपना है इसलिए हम इस पर टिप्पणी नहीं कर सकते हैं. वह खुद में बहुत आहत हुए होंगे. तभी उन्होंने ऐसे कदम उठाया होगा. कल जब गुस्सा ख़त्म हो जायेगा तो सब ठीक हो जायेगा.

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  48. विचारोत्तेजक आलेख के लिए बधाईयाँ

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  49. रश्मि जी
    सर्वप्रथम आपको बहुत बधाई आपने एक ऐसे विषय पर कलम चलायी जिसके बारे में बात करना सभ्य समाज द्वारा मान्य नहीं है..दूसरे आपने बहुत निष्पक्षता से अपने विचार रखे..उसके लिए आपको साधुवाद..जो मुद्दा आपने इस पोस्ट के माध्यम से उठाया है.. वह है दोहरे मापदंडों का मुद्दा...समाज के भय से अपने ही बेटे को लानत मलानत करना कोई समझदारी नहीं ...'गे' होने को सपोर्ट करना एक अलग मुद्दा है और वह व्यक्तिगत विचारों पर निर्भर करता है... इस पोस्ट में सिर्फ यही मुद्दा है कि ओढ़े हुए मूल्यों के पीछे नैसर्गिक रचनात्मकता को क्यूँ दरकिनार किया जाता है... सभी के ठप्पे लगने क्यूँ जरूरी होते हैं किसी एक व्यक्ति के क्रियाकलापों पर... परिवार कि इकाई क्यूँ ऐसे समय संबल नहीं बन पाती एक इंडिविजुअल के लिए... क्या अर्थ रह गया फिर परिवार का... जब उस युवक को मानसिक और भावनात्मक संरक्षण नहीं मिला अपने ही माता पिता द्वारा ....

    बहुत सामयिक मुद्दा उठाया है आपने .. मेरी बधाई और शुभकामनाएं स्वीकार करें

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  50. अभिनय तो अभिनय होता है उसे उसी रूप में लेना चाहिए .

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  51. ज्यादा नहीं कह सकता। यह विषय मुझे अटपटा सा लगता है।

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  52. ये कैसी मानसिकता हुई कि जब कोई आतंकवादी का रोल करता है/ या अपराधी का रोल करता है तो ठीक...मगर गे का रोल करे तो बाप घर से निकाल दे-अदाकारी तो अदाकारी है.


    बाकी तो सामाजिक मान्यताओं की बात है. शायद समय के साथ बदले.


    वैसे मैं तो इनके सबसे बड़े अंतर्राष्ट्रीय उत्सव में नाच भी आया हूँ :)

    http://udantashtari.blogspot.com/2008/11/blog-post_07.html

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  53. एक और इसी विषय पर अलग नजरिये से दर्ज पोस्ट:

    http://udantashtari.blogspot.com/2009/08/blog-post_13.html


    :)

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  54. रश्मि जी
    बहुत अच्छा विषय है... कलाकार तो सिर्फ़ एक किरदार अदा करता है...जैसे कोई नायक या खलनायक बनता है... ये किरदार निभाने से कोई नायक या खलनायक नहीं बन जाता... अगर ऐसा होता तो कोई भी रावण या कंस का किरदार नहीं निभाता सभी राम और कृष्ण बनना ही पसंद करते...
    ठीक इसी तरह लड़के ने 'गे' का किरदार निभाया है... इस भूमिका के लिए उसके साथ ज़्यादती करने को किसी भी सूरत में जायज़ नहीं ठहराया जा सकता है...

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