गुरुवार, 28 दिसंबर 2017

काँच के शामियाने पर 'उषा भातले जी' एवं 'अश्विनी कुमार लहरी' की टिप्पणी

उषा भातले जी ने किताब भले ही देर से मंगवाई पर मिलते ही पढ़ डाली और पढ़ते ही प्रतिक्रिया भी दे दी।
आपने बड़ी सटीक और समीक्षा की है,बहुत बहुत शुक्रिया ।

"काँच के शामियाने "
लगभग दो सालों से " कांच के शामियाने " की समीक्षाएं पढ़ रही हूँ।कभी सोचा नहीं था कि लेखिका ही मेरे लिये बुक कर देंगी😊 धन्यवाद रश्मिजी ।
पुस्तक पर सुधा अरोड़ा जी की भूमिका से लेकर अब तक की सारी समीक्षाएं पूरे मनोयोग से पढ़ीं ,और एक औरत के संघर्ष की इस दुःखद कहानी से हर बार इतना जुड़ जाती थी कि पूरी बात जानने की इच्छा होती थी,आख़िर उसका पति ऐसा क्यों करता है ? शादी के इतने सालों बाद भी उसका व्यवहार ऐसा क्यों है कि नायिका को अपने बच्चों के साथ अलग रहने का निर्णय लेना पड़ा ?
मुझे लगता है ,राजीव के इस तरह के व्यक्तित्व के निर्माण की नींव बचपन में ही पड़ गई थी ,जहाँ दादी के लाड़- प्यार ने उसकी हर इच्छा पूरी करने में सहयोग दिया ,उसका अहम तब चोट खा गया जब जया ने उसका विवाह प्रस्ताव ठुकरा दिया । लेकिन अपने अहम की संतुष्टि के लिये जया से शादी और उसे प्रताड़ित करने में उसे स्वयं क्या मिला ? अंत में अकेलापन ? ऐसे मानसिक रोगियों को इलाज की आवश्यकता है ,लेकिन पहल कौन करे ?
जया के संघर्ष के बारे में तो सभी समीक्षाओं में पढ़ा था ,लेकिन माँ ,बहिन ,सास और ननद के रूप में दूसरी महिलाओं की मानसिकता को समझने की कोशिश की । बहिनें जया से सहानुभूति रखते हुये भी पूरी तरह से साथ नहीं दे पायीं ,क्योंकि उनकी अपनी विवशताएँ ( पराश्रित होना) थीं । ननद के ताने स्वाभाविक थे ,क्योंकि उसकी सुंदरता से तुलना जो की जा रही थी ? सास तो अपनी सास के जमाने से ही बेटे की ज़िद के आगे हथियार डाल चुकी थीं। माँ ,जिसने बेटी के दृढ़ प्रतिज्ञ होने के बाद उसका साथ दिया ,उनका डर भी स्वाभाविक था , क्योंकि वह जानती थी पति को छोड़कर आने वाली महिला को समाज के दूसरे पुरुष कैसी लोलुप नज़रों से देखेंगे । अपनी बेटी को खाई से बचाने के लिये उसने कुँए में ही पड़े रहने की सलाह दी ,इस उम्मीद में कि शायद हालात सुधर जाएं ?
माँ और बहिनें जया के लिये जो नहीं कर पायीं ,वो बेटी की पंक्तियों ने कर दिया ,उसमें जीने का संचार और उस नर्क से बाहर निकलने की हिम्मत ।
सतही तौर पर ही सही लेकिन एक समस्या को और छुआ है रश्मि जी ने ,विवाह में लड़के की नौकरी के अनुसार दहेज । राजीव के पिता और भाई के रूखे व्यवहार का मुख्य कारण यही था । इसके लिये लड़कियों के माता - पिता भी उतने ही जिम्मेदार हैं ,जो पद की नीलामी में बोली लगाने पँहुच जाते हैं ।
हालांकि अब हालात सुधर रहे हैं ,लड़कियाँ आत्मनिर्भर हो रही हैं ,फिर भी जया जैसी लड़कियों से केवल सहानुभूति जताने की बजाय समाज को उनका साथ देना होगा , ताकि किसी और राजीव की ऐसा करने की हिम्मत ना हो ।

फेसबुक परइनबॉक्स में बहुत ज्यादा तो नहीं पर फूल पत्ती के साथ गुड मॉर्निंग,गुड नाईट और सुवचन वाले पोस्टर मिलते ही अश्विनी कुमार लहरी के संदेश पर मेरी नज़र ही नहीं पड़ी थी। कोई आपकी पुस्तक मंगा कर पढ़े ,अपनी प्रतिक्रिया लिख कर भेजे और आप पढ़ें भी ना ये तो बहुत बड़ी गुस्ताखी है,सो सॉरी अश्विनी 
रहते हैं। इस वजह से इनबॉक्स में झांकना ही छोड़ दिया है। कल जब किसी का पता ढूंढने के लिए स्क्रॉल किया तो पाया
मैंने पहले भी कहा है जब इस उपन्यास को कोई पुरुष पढ़ता और पसन्द करता है तो मुझे अतिरिक्त खुशी होती है। उस पर युवा लोग पढ़ें तो हिंदी के प्रति उम्मीद बची रहती है। ये संवेदनशीलता बनाये रखिएगा अश्विनी, बहुत शुक्रिया आपका 
"प्रणाम मैम ...आपका बहुत बहुत धन्यवाद इस उपन्यास के लिए ,ये पुस्तक मैंने बहुत पहले मंगायी थी लेकिन किन्ही कारणों से इसको पढ़ नहीं पा रहा था लेकिन जब इसको पढ़ा तो बिना खत्म किये रुक भी न सका।
आपने काफ़ी सधे हुए शब्दों का जो ताना बाना बुना है क्या कहने और समाज का सजीव चित्रण इस उपन्यास में बख़ूबी दर्शाया जो कि समाज मे आये दिन देखने और सुनने को मिल जाते हैै । अंत तक ये उपन्यास हमें बाँधे रखता है ...ऐसे ही आशा करता हूँ कि आपके औऱ उपन्यास मुझे ऐसे ही पढ़ने के लिए मिलते रहेंगे ।"

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (30-12-2017) को "काँच से रिश्ते" (चर्चा अंक-2833) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    क्रिसमस हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बढ़िया समीक्षा ... बधाई सहित शुभकामनाएं :(

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