बुधवार, 18 दिसंबर 2013

संवेदनहीनता की परकाष्ठा

मिशेल अपने पिता के साथ (इनसेट में स्वर्गीय डा. मयूर मेहता )
कुछ दिनों से पोस्ट  लिखने से खुद को जबरन रोक रखा था. एक दूसरे  कार्य को अंजाम देना था (लिखने का ही ) पर अफ़सोस की बात  वो भी नहीं कर रही (नहीं हो पा रहा, ऐसा क्यूँ लिखूं,मैं कर ही नहीं रही. ) .एक दो विषय , उथल-पुथल मचा रहे थे,दिमाग में.  सोचा लिख ही डालूं , और एक निर्णय के साथ कंप्यूटर ऑन किया .आदतवश पहले फेसबुक पर नज़र डाली और सुबह ही अखबार में पढी एक खबर शेयर करने का मन हो आया. सोचा, उस खबर पर फेसबुक का लिंक देकर पोस्ट लिखने में जुट जाउंगी. वो खबर कुछ यूँ थी :
 
"तिरपन वर्षीय 'डॉक्टर मयूर मेहता' अपने स्कूटर से शाम को वापस घर जा रहे थे . उनका स्कूटर पास से गुजरती एक मोटरसाइकिल में जरा सा टच हुआ और बाइक पर सवार लड़के ,उन्हें भला-बुरा कहने लगे. इन्होने भी जबाब दिया. झड़प हुई और उनमें से एक लड़के ने चाक़ू निकाल कर उनके पैर पर वार कर दिया. खून बहने लगा . वे गिर गए पर फिर से संभल कर स्कूटर पर सवार हो चल पड़े. वे  लड़के भाग गए. पर उनके पैर से खून बहना बंद नहीं हुआ था और कुछ दूर जाने के बाद वे स्कूटर से सड़क के किनारे गिर पड़े .लोगों की भीड़ जमा हो गयी . पर सब बस देखते रहे कोई उनकी सहायता करने नहीं आया. दूर से उन्नीस वर्षीया एक लड़की मिशेल ये सब देख रही थी. उसने अपनी स्कूटी पार्क की और उन सज्जन की सहायता के लिए आयी . उनके ज़ख्म पर अपना स्कार्फ बाँधा , ऑटो रिक्शा रोकने की कोशिश करने लगी. पर कोई रिक्शा नहीं रुक रहा था . इस बीच करीब ४०-५० लोगों की भीड़ जमा हो गयी थी. पर कोई आगे नहीं बढ़ रहा था . आखिर उस लड़की ने गुस्से में पत्थर से एक ऑटो का शीशा तोड़ दिया . ऑटो रिक्शा को रुकना पड़ा. यह देख, थोड़े लोग भी सक्रिय हुए. डॉक्टर साहब को उठा कर  ऑटो में डालने में  और अस्पताल ले जाने में उस लड़की की मदद की . पर इन सबमें कीमती समय नष्ट हो चुका था .अत्यधिक खून बह जाने की वजह से डॉक्टर को बचाया नहीं जा सका. मिशेल  ने कोशिश तो की पर लोगों की संवेदनहीनता ने उसकी कोशिश कामयाब नहीं होने दी "
 (पूरी खबर यहाँ पढ़ी जा सकती है )  

इस खबर को शेयर करते हुए मैंने यह भी लिखा था क्या तमाशा देखने वाले ४०-५० लोग अपराधी नहीं है ? वे लोग किसी इन्सान को यूँ सड़क पर धीरे धीरे मौत की तरफ बढ़ते देखते रहे और तमाशबीन  बने रहे. इस पर कुछ ऐसी प्रतिक्रियाएं आयीं जो कुछ सोचने पर मजबूर कर गयीं. लोगों का कहना है कि "वे लोग नहीं ये सिस्टम दोषी है. हमारी आदत होती है कि हम सिस्टम से नहीं  लड़ते और आसानी से मासूम लोगों को दोष दे देते हैं. जो संयोगवश  घटनास्थल पर होते हैं .उन्हें दोष देना आसान होता है क्यूंकि वे पहले ही अपराधबोध से पीड़ित होते हैं और दोष दिए जाने पर प्रतिकार नहीं कर पाते. हम सिस्टम को दोष नहीं देते क्यूंकि सिस्टम को दोषी कहेंगे तो हमें उनसे लड़ना  पड़ेगा, क़ानून बदलना पड़ेगा आदि आदि."

उनकी बात अपनी जगह सही है . लोग इसलिए आगे नहीं आते क्यूंकि पुलिस , अदालत के चक्कर  में वे पड़ना नहीं चाहते. पर यह सब तो बाद की बात है. आप अपनी आँखों के सामने किसी को यूँ मरता हुआ देख कैसे सकते हैं ? क्या आप इंसान हैं ? अगर हैं तो किस तरह के इन्सान हैं ? आपसे तो जानवर अच्छे  जो अपने घायल साथी के लिए कुछ नहीं कर पाते पर  संवेदना से उसके घाव तो चाटते  हैं.

सड़क के किनारे  कोई जख्मी पड़ा होता है लोग मुहं फेर सर्र से निकल जाते हैं. इन्सानियत पर गहरा धब्बा यह भी है.....पर यह तो संवेदनहीनता की परकाष्ठा है कि घेरा बना कर  समूह में खड़े हैं और किसी घायल का खून बहता देख रहे हैं. यहाँ  तो अकेले किसी पर कोई दोषारोपण नहीं होने वाला था .चार लोग मिलकर उस घायल को उठाते, दूसरे चार लोग जबरदस्ती कोई कार या ऑटो रुकवाते . एक कोई आगे बढ़ता तो दुसरे लोग साथ आ ही जाते . आखिर उस लड़की ने कोशिश की तो लोग आगे आये  ही. पर किसी एक इंसान का आगे बढना बहुत मुश्किल हैं. हम सब इतने खुदगर्ज हैं ,पुलिस अदालत की बात तो बाद में दिमाग में आयेगी .पहली चीज़ तो आएगी..कपडे खराब  हो जायेंगे ,गाड़ी गन्दी हो जायेगी.. घर पहुँचने  में देर हो जायेगी. अमुक की पार्टी में जाना है,शादी में जाना है...रात में इन चक्करों में देर हो गयी तो सुबह ऑफिस पहुंचना मुश्किल होगा, जरूरी मीटिंग छूट जायेगी...वगैरह ..वगैरह.

हमें क्या मतलब...वो हमारा कोई तो नहीं लगता .और इन सब बातों के लिए सिस्टम दोषी नहीं है. हमारी संवेदनाएं मर गयी हैं . खुद से आगे हम देखते ही नहीं. परले दर्जे के खुदगर्ज हैं हमलोग. तबतक इंतज़ार करते हैं जबतक कोई अपना जख्मी न हो. यही अपने  भाई-भाभी ,माता-पिता,चाचा-चाची हों तो समय,पैसा पास में होगा ,.पुलिस अदालत के चक्कर सब मंजूर होंगे. पर अनजान लोगों के लिए हम बिलकुल असंवेदनशील हो जाते हैं. कभी कभी तो लगता है...हम सब इतने  व्यक्तिवादी क्यूँ हैं ? क्या हमारे जीवन-दर्शन ही ऐसे हैं कि बस हम अपना ही सोचते हैं .
,सिस्टम को दोषी ठहरा देना और खुद हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना....यहाँ तक कि चुपचाप किसी को मरते देखते रहना .  वो लड़की मिशेल या ऐसे लोग जो सहायता के लिए आगे आते हैं ,वे भी इसी सिस्टम का ही हिस्सा हैं. पर उनके अन्दर संवेदनाएं कैसे जिंदा हैं ? वे सिस्टम का क्यूँ नहीं सोचते ?
 

अब सारी उम्मीद इसी युवा पीढ़ी से है. हमारी पीढ़ी तो स्वार्थियों की पीढ़ी है . बहुत लोग युवा पीढी की बहुत शिकायत करते हैं. उनपर तरह तरह के आरोप लगाए जाते हैं .पर मुझे इस पीढ़ी से बहुत उम्मीदें हैं. कम से कम  ये पीढ़ी मुखौटे लगाकर नहीं घूमती . मेरे आस -पास, मेरी बिल्डिंग , कॉलोनी, फ्रेंड्स, रिश्तेदारों के बच्चे जो अब युवा हैं . ब्लॉगजगत-फेसबुक पर सक्रिय युवा चेहरों के अन्दर बहुत संवेदनशीलता दिखती है और कुछ करने की चाह भी (मौक़ा मिलने  पर वे करते भी हैं ) .यह भी सही है ये पूरे समाज का एक बहुत छोटा सा हिस्सा हैं ,पर छोटा ही सही ,हैं तो ...कल ये हिस्सा बड़ा भी होगा .

हो सकता है ,ऐसा लगे मैं बहुत आशावादी हूँ , पर थोड़े से जो बदलाव दिख रहे हैं, उनकी बिना पर ही सोचती हूँ कि आनेवाला समय ,इतना रुखा ,इतना आत्मकेंद्रित नहीं होगा. वैसे सोच समझ कर तो ये खबर शेयर नहीं की .पर जब सोचती हूँ कि क्यूँ की ??तो यही लगता है...शायद अवचेतन मन में हो कि जो भी इसे पढ़े और उसके सामने कभी ऐसा कोई हादसा हो तो उसे  ये प्रकरण याद आ जाए और वो सहायता करने से पीछे न हटे.

36 टिप्‍पणियां:

  1. बिलकुल सच्ची मनोदशा बयान की है भीड़ की मनोदशा की .... समाधान तो हर समस्या का है ,बस दिक्कत तो पहला कदम उठानी की ही होती है .... पर आज की युवा पीढ़ी अपेक्षाकृत अधिक संवेदनशील है इस परिप्रेक्ष्य में .....

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    1. पहल करने से सब डरते हैं ,जबकि होना ये चाहिए कि जो पहला व्यक्ति घटना स्थल पर हो, उसे ही पहला कदम बढ़ाना चाहिए.

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  2. इसी नवम्बर की ही बात है. रात के साढ़े तीन बज रहे थे. अपने दोस्त कि पत्नी को एयरपोर्ट छोड़ने के लिए अपने दोस्त के साथ मैं भी जा रहा था. उतनी रात गए अकेले उन्हें जाने देना ठीक नहीं लगा था सो मैं भी साथ हो लिया. घर से आधे किलोमीटर जाने पर ही अचानक से सामने आते मोटरसायकिल को गिरते देखा. भाग कर गया उन्हें उठाने. एक लड़का और एक लड़की थे, दोनों गिरे हुए, दोनों ही का चेहरा लहू-लुहान था और दोनों ही बेहोश. पहले उन्हें होश में लाया. कई टैक्सी ड्राइवर वहां से गुजरते हुए वहां रुके, और जैसे ही उन्हें बोलता की इन्हें पास के अपोलो पहुंचा दो, पैसा मैं अभी दे देता हूँ, वैसे ही भाग जाते.. हमारी कार सामान से भड़ी हुई थी.. अंततः मैं गुस्से में जो भी वहां रुकता था उन्हें गालियाँ देने लगा(मुझे याद नहीं कि इससे पहले कब और किसे मैंने गालियाँ दी हो). दिमाग काम नहीं कर रहा था, 100 डायल किया, और उम्मीद से कहीं अधिक आगे बढ़कर बैंगलोर पुलिस ने मदद की.. पांच मिनट के भीतर-भीतर एम्बुलेंस लेकर पुलिस वहां थी.

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    1. मुझे याद है, प्रशांत तुमने फेसबुक पर जिक्र किया था कि पहली बार 100 डायल किया और पांच मिनट में एम्बुलेंस आ गयी . पर ये डिटेल नहीं पता थे. अच्छा हुआ यहाँ बताया ,दूसरे लोगों को भी प्रेरणा मिलेगी. और इतने अच्छे काम के लिए बहुत बहुत शाब्बासी .वैसे मुझे पूरी उम्मीद थी कि ऐसे सिचुएशन में तुम कुछ ऐसा ही करते.

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    2. वैसे जानती हैं दीदी, मुझे उन दोनों से थोड़ी भी सहानुभूति नहीं हुई थी. फिर भी मैं जो कर सकता था वह किया.
      सहानुभूति नहीं होने का कारण -
      १. वे दोनों ही नशे में धुत्त थे. दोनों के ही मुंह से अल्कोहल कि भयंकर दुर्गन्ध आ रही थी.
      २. दोनों में से किसी के पास हेलमेट नहीं था.
      वैसे पहला कारण ही बहुत है उनसे सहानुभूति नहीं होने कि क्योंकि यह ड्रिंक & ड्राईव का केस था.

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  3. मेरा कमेन्ट कहीं गम हो गया लगता है. अभी अभी किया था मगर दिखा नहीं.. :-/

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    1. दोनों कमेन्ट दिख रहे हैं, मॉडरेशन की मजबूरी है....तम्हें वजह पता ही है .:(

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    2. हम्म.. दरअसल पहले कमेन्ट के समय मुझे मोडेरेशन वाली सूचना भी नहीं दिखी थी. इसलिए यह दूसरा कमेन्ट किया..

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  4. रश्मि जी,मिशेल ने जो किया वह सचमुच काबिले तारीफ है लेकिन इसमें युवा प्रोढ बुजुर्ग शहरी ग्रामीण जैसी कोई बात नहीं कोई भी संवेदनशील या असंवेदनशील हो सकता है।हमारे मोहल्ले के पास की ही बात है एक कबाडी अपने कबाड में से कुछ कारतूसों में से पीतल निकालने के लिए उन पर हथोडे से चोट कर रहा था कि इसमें विस्फोट हो गया।वह लहूलुहान हो तडपने लगा आसपास भीड जुट गई पर कोई आगे न आया बाद में एक रिटायर्ड फौजी ने उसे उठाया और उसीके हाथ वाले ठेले में लिटाकर कॉलोनी के ही क्लीनिक ले गये।मगर उस व्यक्ति को बचाया न जा सका क्योंकि तब तक बहुत खून बह चुका था ।अगले दिन अखबार से पता चला कि उस फौजी व्यक्ति के एक ही हाथ था फिर भी उन्होंने अकेले ही ठेला खींचा और कबाडी को उसके घर से बाहर निकाल लिया जबकि बाकी लोग यह सोचकर डर रहे थे कि कहीं और विस्फोट न हो जाए।दरअसल कुछ लोग सक्षम होने पर भी आगे नहीं आते तो कुछ खतरों की भी परवाह नहीं करते ।

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    1. यही तो, केवल कुछ लोगों में ही ये ज़ज्बा क्यूँ होता है . और युवा लोगों की बात इसलिए कि क्यूंकि आनेवाला ज़माना उन्हीं का है. अब तक के हाल तो दिख ही रहे हैं. फेसबुक पर इस खबर पर कुछ लोगों ने यह भी कहा था , 'हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं...ऐसे असंवेदनशील लोगों की तादाद ही बढ़ने वाली है ' इसलिए कहा कि युवाओं से बहुत उम्मीदें हैं. अब तक तमाशबीन ही ज्यादा होते हैं, आने वाले समय में इक्का दुक्का लोग सहायता के लिए नहीं बढ़ें बल्कि ज्यादा से ज्यादा लोगों में ऐसा ज़ज्बा हो

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  5. यदि स्‍वयं में चाह हो तो कोई भी व्‍यवस्‍था आड़े नहीं आती। हमने तरह-तरह के बहाने ईजाद कर लिए हैं, बस उन्‍हीं का सहारा लेते रहते हैं। अपना कर्तव्‍य प्रत्‍येक इंसान भूल चुका है। सबसे बड़ा बहाना तो भगवान को लेकर है, भगवान की ऐसी ही मर्जी थी, बस हो गया खेल खत्‍म।

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    1. बिलकुल अजित जी,
      ये बहाने ही हैं ....उसकी मौत ऐसे ही लिखी थी...भगवान की यही मर्जी थी....हम बीच में कैसे आ सकते हैं.

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  6. पता नहीं इन मौके पर लोग संवेदनहीन कैसे हो जाते हैं , पहले कानून की मजबूरी होती थी , मगर अब तो ऐसी कोई बन्दिशें भी नहीं है। दिल्ली से जयपुर लौटती बस का भी एक अनुभव है , बस पलटने के बाद राह चलते ट्रक वाले ट्रक से सर बाहर निकालते और पूछते , कितने मरे और आगे बढ़ जाते।
    ऐसी ही एक घटना जयपुर में हुई थी , जब लोग अनदेखा कर गुजर गए , मगर वहीं बहुत सी दुर्घटनाओं में लोगो को मदद करते भी देखा। घटनाओं पर अच्छी और बुरी प्रतिक्रिया पर मैंने भी लिखा था।

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    1. किसी अनजान के लिए संवेदना रहती ही नहीं.:(

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  7. रश्मिजी मेरी जिंदगी में २ घटनायें हुई है.
    एक तो मेरी बेटी के बस से एक्सीडेंट होने का. उस वक़्त वहाँ खड़े सभी लोगो ने उसको सहारा दिया था एक लड़की ने जो उसी बस से आगे जाती थी वही उतर कर मेरी बेटी को PG तक पहुँचाया था और काफी देर तक रुकी भी थी. ये घटना दिल्ली की है.
    दूसरी घटना लगभग ३० वर्ष पुरानी है. मेरे पापा स्कूटर से एक जगह से दूसरी जगह जा रहे थे कि उनका एक्सीडेंट हो गया. पापा बेहोश थे और साथ वाले के पैर पर स्कूटर पड़ा था। उस सुनसान जगह पर दूर दूर तक कोई नहीं था वहाँ से गुजरने वाले २ सज्जनो ने उनको सहारा दिया दूर से पानी ला कर पिलाया और बस में बैठा कर स्कूटर को खींच कर अपने घर ले गए।
    ये दोनों केस मुझे सामान्य जनता में भरोसा दिलाते हैं.

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    1. सचमुच ऐसी घटनाएं ही बिलकुल निराश नहीं होने देतीं.

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  8. असंवेदनशील होना हम बच्चो को खुद सिखाते हैं। उनको कमजोर हम खुद बनाते हैं। असंख्य बार हम हैं किसी भी मुसीबत में मत पड़ो। एक असम्वेदनशील समाज निर्माण हमने खुद किया हैं। हमारे ऊपर आंच ना आये दूसरा जल जाए तो भी क्या।

    आज से तकरीबन २० साल पहले गाजियाबाद के एक नामी स्कूल से बच्चा किडनैप हुआ , बहुत से बच्चो के सामने उसको एक कार में उठा कर ले गए

    पुलिस के सामने किसी बच्चे ने कुछ नहीं कहा सब चुप रहे। फिर एक बच्ची ने पुलिस से कहा मैने देखि हैं कार , मैने नंबर भी नोट किया हैं , आप लिख लो , और मेरे दोस्त को छुड़ा कर लाये। उस बच्ची के बोलने के बाद पुलिस उस किडनेप किये हुए बच्चे को खोज पाई।

    उस बच्ची के माँ - पिता ने उसको डांटा कि तुम ही क्यूँ बोली , और क्युकी वो रिश्ते में मेरी भांजी थी मुझे भी कहा गया कि उसको समझाऊ कि आगे से पुलिस से कुछ ना कहे और कहे मुझे अब कुछ याद नहीं।

    मेरा सिंपल जवाब था मेरी कजिन बहन से कि क्या तुमने इस को सच बोलना , किसी से ना डरना सिखाया हैं , बहन ने कहा हां इस मेरी भांजी बोली मौसी इसी लिये तो मुझे बताना पड़ा मेरी मम्मी अब पता नहीं क्यूँ डर रही हैं

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    1. ये बिलकुल सही बात कही आपने. हम ही अपने बच्चों को स्वार्थी होना सिखाते हैं...'तुम्हे क्या जरूरत थी बीच में पड़ने की ....और लोग भी तो थे...चुप रहा करो...अपने काम से मतलब रखो ' ..और ये बहुत गलत है...अगर बच्चे किसी की सहायता करते हैं तो उनकी तारीफ़ करनी चाहिए ...उन्हे प्रेरित करना चाहिए.

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  9. दो तीन किस्से बताती हूँ , तिन साल पहले भाई का एक्सीडेंट हुआ था पुलिस उन्हें अस्पताल पहुँचाने वाले पर ही शक करने लगी की उन्ही की कार से हुआ है , हमारा गन्दा सिस्टम ,
    उसके एक साल बाद मेरी माँ दिल्ली में ऑटो से जा रही थी , उसने युवक को गिरे देखा एक्सीडेंट हुआ था उन्होंने ऑटो वाले से कहा की रुको उसे अस्पताल पहुंचाते है वो ऑटो और तेज करके फलाईओवर पर चला गया माँ दुहाई देती रही कि उसके बेटे को भी किसी ने बचाया था , इच्छा है पर इच्छा शक्ति नहीं ,
    उसी के कुछ समय बाद मै और मेरे पति राजस्थान गए उदयपुर जाते समय अंदर गांव की और जा रहे थे रास्ते में एक लड़का बाईक के साथ गिरा पड़ा था , गांव की कुछ बुजुर्ग महिलाए आने जाने वाले को रोक रही थी सभी देशी विदेश टूरिस्ट की गाड़िया थी कोई रुक नहीं रहा था , मैंने अपने गाड़ी वाले को रोकने को कहा उसने इंकार कर दिया तो मैंने चिल्ला कर उसे रोकने को कहा पति उतर कर गए उसे उठाया किनारे बिठाया ज्यादा चोट नहीं लगी थी कच्ची सड़क के कारण शारीर छिल गया था , बेटी गोद में सो रही थी मै कार में ही थी मैंने ड्राइवर से कहा जरा मदद करो प्राथमिक स्वस्थ केंद्र तक तो ले चलो उसने साफ मना कर दिया की कार उसकी नहीं है और मालिक कभी इसकी इजाजत नहीं देंगे उलटा कहने लगा कि मैडम जल्दी कीजिये चार घंटे का सफ़र करके जिस मंदिर को देखने जा रही है वो बस आधे घंटे में बंद हो जायेगा , इस बिच कई गाड़िया आती रही और जाती रही रुका कोई नहीं , कुछ विदेशी तो सर बाहर निकाल कर अफसोस जता रहे थे किन्तु देशी तो उसकी भी जहमत नहीं उठा रहे थे तभी एक मोटरसाइकल पर एक और व्यक्ति आया समभवतः वो स्थानीय व्यक्ति रहा हो और मदद करने लगा उसने हाथ जोड़ कर मेरे पति से कहा कि आप जाइये वो उसे देखा लेगा , बाद में पति ने बताया कि वो शराब के नशे में धुत था और भैसो से टकरा कर गिर गया था । कभी कभी मदद करने वाला भी असहाय होता है , और साला शराबी गिरा पड़ा है कि मानसिकता भी कई बार लोगो में होती है ।
    तिन दिन पहले ही पति मित्र की दूकान में गए जाते ही वहा काला धुँआ निकलता देखा मित्र ने दूकान बंद कि और सब माल से बहार आ गए पति ने झट फायरबिग्रेड को फोन कर दिया , वो आये भी और अपना कम भी किया पति जब घर आये तो मित्र का फोन आया की उसी मॉल में तम्हारी बहन का भी शॉप है उसे मत बताना कि कॉल तुमने किया था नहीं तो सब मुझसे बुरा मना जायेंगे , क्योकि फायरब्रिगेड अब उन पर जुर्माना लगाएगा , फायर सिस्टम को चेक करेगा , कुछ समय पहले भी आग लगी थी तब उन लोगो ने खुद ही बुझा लिया था , शायद इसे कहेंगे होम करत हाथ जलत
    हम सभी एक जैसे नहीं हो सकते है ये कुछ करने का जस्बा ही तो कुछ लोगो को सभी से अलग बनाता है बाकि तो ज्यादातर हम जैसे आम डरपोक लोग ही है , जैसा कि रचना जी ने कहा कि संस्कार तो हमी देते है ना कि किसी के लफड़े में मत पड़ो , हमरी संवेदनशीलता या तो अपनो के लिए जागती है , या तब जब हम वहा नहीं होते है :(

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    1. आपके द्वारा उद्धृत सारी घटनाएं, हमारे ही समाज का हिस्सा हैं. एक जगह लोग मदद के लिए भी आते हैं और वहीँ ज्यादातर लोग मुहं फेर कर चले जाते हैं...सबलोग एक जैसे तो नहीं हो सकते पर आशा ही कर सकते हैं कि मदद करने वाले हाथों में इजाफा हो.

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  10. हे भगवान, लोग घायल के स्थान पर स्वयं को रखकर सोचें।

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    1. यही तो सोचने वाली बात है कि ऐसा लोग क्यूँ नहीं सोचते .

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  11. हमारे आसपास सब ऐसे ही अधिक हैं !

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  12. जब जब अती होती है तो वह बदलाव का संकेत भी होता है ... आक्रोश ऐसे ही जन्म लेता है और आग की तरह फ़ैल जाता है ... युवा पीड़ी इतनी भी संवेदनहीन नहीं ...

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    1. आशा है ,हम खुद से आगे बढ़कर सोचना शुरू करेंगे .

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  13. व्यक्तिगत संवेदनशीलता का सिस्टम से कोई लेना देना नहीं है । हमसे सिस्टम है सिस्टम से हम नहीं। दुर्घटनायें हुईं नहीं कि लोगों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है, अधिकतर तमाशबीन ही होते हैं कोई इक्का दुक्का ही मददगार होता है.। मुझे वो एड याद आ रहा है निरमा वाला जिसमें ३-४ लडकियां एक गाड़ी को कीचड़ से निकालतीं हैं । समाज का बिलकुल सही चेहरा दिखाता है वो विज्ञापन।

    मुझे याद है मेरे बाबा-माँ मेरे पास कैनेडा आये हुए थे, घर के अंदर का मौसम और बाहर के मौसम में बहुत ज्यादा फर्क होता है यहाँ। जाड़े के दिन थे मेरे बाबा बिना ढंग से कपडे पहने हुए बाहर चले गए मुझे पता ही नहीं चला, मैं ऑफिस के लिए निकलने ही वाली थी कि घंटी बजी घर की, एक अनजान अंग्रेज भागता हुआ आया था और बताया आपके घर में जो बुजुर्ग रहते हैं वो रस्ते में गिर गए हैं मैंने उनको आपके घर के सामने अक्सर खड़े देखा है इसलिए उनको पहचान गया । उस व्यक्ति से मेरी कोई जान पहचान नहीं थी । हम सभी भागे, वहाँ पहुँच कर देखा मेरे बाबा चार-पांच रजाइयों में लिपटे चार-पाँच गोरियों की गोद में लेते हुए थे :) अगले ही पल एम्बुलेंस भी पहुँच चुकी थी, उन्हीं लोगों ने एम्बुलेंस भी बुलवा दिया था । अब अगर वो सभी भी सिस्टम के चक्कर में रहते तो मेरे बाबा कहीं और निकल लिए होते।

    मानुष की जान किसी भी सिस्टम से ज्यादा कीमती है उसे इस कचरे सिस्टम की भेंट चढ़ने देना क्रिमिनल होगा। असंवेदनशील और हृदयहीन लोगों के पास सड़क पर दुर्घटनाग्रस्त होकर तड़पते इंसान की मदद के लिए रुकने का वक्त नहीं है ?? और हम खुद को सभ्य कहते हैं ?? किसी दुर्घटनाग्रस्त इंसान की मदद नहीं करना उसे मरने के लिए छोड़ देना, क्रिमिनल ऑफेंस माना जाना चाहिए । कहीं कोई एक्सीडेंट हो गया है तो क्या हम ये सोचेंगे कि अरे अब हम पहले लोकपाल बिल, ३७७ या दामिनी मूवमेंट की तरह रैली निकाल लें, कानून में संशोधन करवा लें फिर इसको देखेंगे। धन्य हो प्रभु ! इस तरह की दलील देना कायरता है । अपने दिल की आवाज़ को सुना जाए, ये सोचा जाए अगर उस व्यक्ति कि जगह हमारा अपना कोई होता, या हम खुद होते तो हम उस नासपीटी भीड़ से क्या उम्मीद करते। जो हम उस भीड़ से उम्मीद करेंगे वही हमें भी करना चाहिए, जहाँ ऐसा सोचेंगे संवेंदनशीलता के तूफ़ान को कोई नहीं रोक सकेगा।
    बहुत अफ़सोस की बात है कि एक इंसान की जान तमाशबीनों के सामने तमाशा बन कर निकल गई और लोग तमाशा ख़तम पैसा हजम करते अपने घर चले गए।

    संवेदनशीलता के लिए परमिट नहीं मिलता वो बस होती है और यकीन कीजिये काम भी करती है.…आज आप एक अच्छा काम दुसरे के लिए करेंगे कल आपके लिए कोई दूसरा करेगा, फिर हमारे धर्म में तो अच्छे-बुरे काम का पूरा लेखा-जोखा होता है :)

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    1. "किसी दुर्घटनाग्रस्त इंसान की मदद नहीं करना उसे मरने के लिए छोड़ देना, क्रिमिनल ऑफेंस माना जाना चाहिए । "
      मैंने दो बार ऐसा ही कुछ लिखकर कि "तमाशा देखने वालों को ही कोई दंड देने का प्रावधान होना चाहिए ताकि आगे से लोग सिर्फ तमाशबीन न बने रहें...कुछ करें "डीलीट कर दिया क्यूंकि पता है, इतनी बड़ी जनसंख्या वाले देश में इसकी अपेक्षा करना व्यावहारिक नहीं. यहाँ दोषियों को ही सजा नहीं मिलती या दस साल बाद मिलती है तो तमाशबीनों के लिए किसी सजा की अपेक्षा आकर्ण बेवकूफी है.
      पर सच है, व्यवस्था को दोष वही लोग देते हैं, जो कुछ करना नहीं चाहते .जिनमें संवेदना होती है और किसी की मदद करने का ज़ज्बा ...वे व्यवस्था के क़ानून बदलने का इंतज़ार नहीं करते .

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  14. रश्मिजी,

    आप बहुत अच्छा लिखती है। मुझे नहीं पता इस बात के बारे मे मैं क्या लिखू पर भारत मे हर तरह के लोग मिलते है। करीब १५ साल पहले एक दुर्घटनाग्रस्त मोटर साइकल सवार को बचा कर मेरे पापा ने अस्पताल पहुचाया उसने उस समय तो बहुत शुक्रिया अदा किया पर तीन साल बाद पापा के रेटिरेमेण्ट के बाद हमे कोर्ट से नोटीस आया की उसने पापा के खिलाफ केस किया है मुश्किलो से मामला रफा दफा हुआ

    ऐसे लोग होते है पर फिर भी मैं अपने आपको दूसरो की मदद करने से रोक नहीं पाती... बहरहाल अभी मे जर्मनी मे हूँ और यहा जब भी साइकल चलते हुए गिर जाती हूँ कोई ना कोई सहारा दे कर उठा देता है और पूछ लेता है की क्या तुम ठीक हो?

    काश लोगो को फिर से इंसानियत याद आ जाये।

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    1. शुक्रिया Indian soul {(पर indian soul तो हम सब ही हैं :)}
      ये तो बहुत ही कटु अनुभव हो गया...बचाने वाले पर ही केस कर दिया...ऐसे लोग भी होते हैं ..तभी तो लोग किसी की मदद करने से डरते हैं. एक आदमी ऐसा करता है और बाकी के सौ लोग उसकी ऐसी हरकत से डर जाते हैं.
      फिर भी किसी की मदद से पीछे नहीं हटना चाहिए ....कितनी अच्छी बात है..लोग सिर्फ सहारा देकर उठाते ही नहीं ...बल्कि हाल भी पूछ लेते हैं.
      हमारी भी यही प्रार्थना है कि लोग इन्सानियत का पाठ न भूलें .

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  15. मेरा कमेन्ट यहाँ नहीं दिख रहा है दीदी...शायद पोस्ट नहीं हुआ होगा...फिर से लिख रहा हूँ...

    मेरे मौसा जी के साथ अभी दो महीने पहले यही हुआ था...वो ऑफिस के वक़्त पर घर से निकले और सरिता विहार , दिल्ली (मथुरा रोड, जहाँ सुबह ११ बजे ट्रैफिक बहुत जबरदस्त होती है, ऑफिस जाने वालों की...) के आसपास उनका एक्सीडेंट हुआ..वो बाईक से थे, और पीछे से आती हुई एक ट्रक ने उनके बाईक को भयानक टक्कर दे मारी थी...सड़क के किनारे ही वो इंजर्ड होकर गिरे रहे...जाहिर है काफी खून बह गया था...करीब पंद्रह बीस मिनट तक वो वैसे ही वहां पड़े रहे थे, लोग देख भी रहे होंगे शायद लेकिन कोई मदद को आगे नहीं आ रहा था....फिर अंत में एक सरदार जी ने अपने गाडी में बिठाकर उन्हें अपोलो हॉस्पिटल पहुंचाया...अपोलो हॉस्पिटल जो की जहाँ एक्सीडेंट हुआ वहाँ से मात्र दो किलोमीटर की दुरी पर था...लेकिन मौसा जी को बचाया नहीं जा सका...डॉक्टर्स ने कहा की अगर पांच मिनट पहले भी यहाँ लाया जाता इन्हें तो हम कुछ और कोशिश कर सकते थे...
    सरदार जी ने कहा बाद में की हॉस्पिटल के गेट तक पहुँचने तक उन्हें थोड़ा होश था...लेकिन गाड़ी से उतारकर उन्हें जब ले जाया जा रहा था तब उनको बिलकुल भी होश नहीं था....

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    1. ओह्ह !! कितने अफ़सोस की बात है....इसीलिए तो इतनी चिढ होती है लोगों की ऐसी असंवेदनशीलता पर .

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  16. Few years back, at CST or some other station, a passenger was hit by the train. Another person had bought a new handycam and he was shooting the incident, instead of avoiding the mishap by warning the passenger. Not only that a news channel purchased the footage and the same was running in the name of EXCLUSIVE CLIPPING. Height of insensitivity!!
    My sincere homage to departed Doctor (he would have saved several lives) and blessings to the brave daughter of India!!

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  17. हमारी ऐसी संवेदनहीनता पूरी सामाजिकता से ही भरोसा उठा देती है .... यह विचारणीय पहलू है ...

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  18. आपकी सलाह पूरी तरह अनुकरणीय है|
    एकपुरानी घटना मुझे भी याद आगयी

    मेरी सहकर्मी अध्यापिका एक दिन स्कूल देर से आयीं तो सभी ने देर से आने का कारण पूछा, उन्हों ने बताया वह अपनी गाड़ी से स्कूल आ रही थीं रस्ते में एक लड़की स्कूटी से जा रही थी तभी पीछे से आरही गाड़ी ने उसे टक्कर मार दी वह लड़की गिर गयी गाड़ी वाला भाग गया मेडम पीछे से आरही थी उसने देखा तो गाड़ी साइड में लगाकर उसके पास पहुंची उसे उठाया उसकी स्कूटी को भी साइड करवाया। लड़की ठीक थी कोई चोट नहीं लगी थी फिर भी मेडम ने उससे मदद कि पेशकश कीतो लड़की बोली - मेडम दो हजार रुपए निकालो आपने ही तो मुझे टक्कर मारी है नहीं तो पुलिस बुलाती हूँ ....

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