गुरुवार, 6 सितंबर 2012

आखिर कितने सोने-हीरे के मुकुट भगवान की मूर्तियाँ पहनेंगीं?



हाल में ही टी.वी. पर  देखा, समाचार पत्रों में पढ़ा . शिरडी के साईं बाबा को कोई भक्त एक करोड़ २७ लाख रुपये का हीरा, श्रद्धास्वरूप चढ़ा गया. उसे नीलाम  करने पर मंदिर को डेढ़ करोड़ रुपये मिलने की आशा है. वैसे भी पूरे साल देश के कोने कोने से लोग आते हैं और अपनी श्रद्धा और सामर्थ्यानुसार  रुपये,सोना ,चांदी अर्पण कर जाते हैं. 

शिरडी के जो बाबा फकीरों की तरह रहे, आज उनके लिए १००  किलो सोने का सिंहासन बनाया गया है जिसकी कीमत २७  करोड़ है.  ३० लाख का मुकुट है तो आस-पास के खम्भों ,छत वगैरह की सजावट ७५ लाख के सोने की है. भक्तों द्वारा लगभग ४५० करोड़ रुपये और ३०० किलो सोना चढ़ाया गया है.

तिरुपति बाला  जी मंदिर में तो इस से भी ज्यादा चढ़ावे चढ़ाए जाते हैं. ५०  हज़ार करोड़ रुपये की संपत्ति है, उनके पास
सालाना आमदनी करीब १७ करोड़ रुपये और  १००  किलो सोने की है. एक सिर्फ रामनवमी के दिन ५ करोड़ रुपये चढ़ाए गए.
 १३३ करोड़ तो सिर्फ वहाँ  अर्पित किए गए बालों की बिक्री से प्राप्त होते हैं.

मुंबई में गणपति उत्सव के दौरान 'लाल बाग़ के राजा ' ,लाल बाग़ एक स्थान हैं..जहाँ सबसे ऊँची गणपति की मूर्ति स्थापित की जाती है और बहुत महात्म्य है उनका. १८ घंटे तक क्यू  में खड़े होकर लोग दर्शन करने जाते हैं. दस दिनों  में ही करोड़ों रुपये चढ़ाए जाते हैं. सोने का हार, लौकेट,गणपति की मूर्ति. 
२०११ में इन दस दिनों में  करीब १५ करोड़ रुपये और ७ किलो सोना चढ़ाया गया.

सिद्धिविनायक मंदिर में भी करीब ४०० करोड़ रुपये और २०० किलो  का सोना चढ़ाया गया  है.

अब सवाल ये है कि इन  पैसों का होता क्या है.?अगर ट्रस्ट  बनाए जाते हैं तो ट्रस्ट कौन से सेवा कार्य करते हैं ? आम लोगों को इसकी कितनी जानकारी है ? और इन पैसों के हिसाब-किताब में कितनी पारदर्शिता है ?

मैने नेट पर से कुछ जानकारी  लेने की कोशिश की. बस शिरडी के साईं बाबा के ट्रस्ट द्वारा किए  गए सेवा कार्य की जानकारी मिली. भारत के कई शहरों में उनके द्वारा बनाए गए कैंसर हॉस्पिटल, अनाथालय, विकलांगों के लिए स्कूल, मूक-बधिर स्कूल आदि  की स्थापना की गयी है. अब कितनी सच्चाई है, इन सबमे ये नहीं पता. क्यूंकि यह जानकारी स्वयं ट्रस्ट द्वारा उपलब्ध कराई गयी है. 

मुंबई के सिद्धि विनायक मंदिर  ट्रस्ट में कई धांधलियों के आरोप की वजह से 2004 में मुंबई हाईकोर्ट ने एक कमिटी बनाई .रिटायर्ड जज वी.पी. टीपनीस  उसके हेड नियुक्त किए गए. कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में ट्रस्ट में कई अनियमितताओं की बात कही. और बताया कि ट्रस्ट किसी भी नियम का अनुसरण नहीं करता . ट्रस्ट से लाभान्वित वही लोग होते हैं , जिन्हें ट्रस्टी  या कोई मंत्री या नेतागण रेकमेंड करते हैं. वो  ज्यादातर रूलिंग पार्टी के होते हैं. 
अब इसमें आम गरीब जनता की पहुँच कैसे हो? उन्हें कोई लाभ कहाँ से मिले? कमोबेश  हर मंदिर के ट्रस्ट की असलियत यही होगी. 

आज ये सब लिखने का ख्याल इसलिए आया क्यूंकि एक महिला की परेशानी देख, मन बहुत ही दुखी है. हमलोग मॉर्निंग वाक  पर जाते हैं. वहीँ रास्ते में वो अपने  जूस का स्टॉल लगाती  हैं. करेले,नीम,अदरक,तुलसी वगैरह का जूस कई प्रातः भ्रमण वाले बड़े शौक से पीते हैं. कई बार हम भी चले जाते हैं और हमारी अक्सर बातचीत हो जाती है. उनका बेटा बहुत ही अच्छा फुटबॉल  प्लेयर है.( एक बार मैने एक पोस्ट में जिक्र किया भी था कि उनके बेटे के स्कूल की टीम और शाहरूख खान के बेटे के स्कूल की टीम के बीच मैच था. खेल का मैदान ही है, जहाँ शाहरुख के बेटे और एक ऑटो रिक्शा चलाने वाले का बेटा एक साथ खेल सकते हैं ) . करीब एक  साल पहले वो जरा लंगड़ा कर चलने लगा...बायाँ हाथ भी कांपने लगा...बाईं तरफ को सर झुक सा गया था. डॉक्टर  ने बताया कि गर्दन के पास एक ट्यूमर है. जो मस्तिष्क की तरफ जाने वाली नस पर दबाव  डाल रहा है, ऑपरेशन करना होगा. उस बच्चे के पिता ऑटो-रिक्शा चलाते हैं. हम सब फ्रेंड्स  ने और भी लोगों ने यथासंभव मदद की . ऑपरेशन  हो गया लेकिन डॉक्टर  ने ये भी कहा था..एक ऑपरेशन और करना होगा. उस समय तो दो महीने के आराम के बाद लड़का स्वस्थ हो गया. उसने दसवीं की परीक्षा भी दी  ७०% लेकर पास भी हो गया. कॉलेज में एडमिशन भी हो गया है.

पर अब फिर से उसे परेशानी होने लगी है. डॉक्टर ने जल्द से जल्द ऑपरेशन के लिए कहा है. पर उसमे तीन लाख रुपये लगेंगे. हमलोग भी कोई इतने धन्ना सेठ तो हैं नहीं...कितनी मदद कर पायेंगे?? वो कई ट्रस्ट के पास जा रही है. कोशिश कर रही है. सिद्धिविनायक मंदिर वाले ट्रस्ट  ने कह दिया है, वे सिर्फ कैंसर और हार्ट पेशेंट की ही मदद करते हैं. मंत्रालय से उसे पंद्रह हज़ार रुपये दिए गए हैं. यहाँ के  एम.एल.ए  ने पांच हज़ार रुपये दिए हैं. जबकि वो एक मराठी है. अभी हमलोग भी कोशिश कर रहे हैं ,फंड्स इकट्ठा करने की...कामयाबी मिलेगी ही. पर ये एक अकेले इसी बच्चे की बात तो नहीं है...जाने कितने लोग सही इलाज के अभाव में कष्ट उठाते रहते हैं. 
जब इन मंदिरों में इतने रुपये का चढ़ावा चढ़ाया जाता है तो वे कुछ रकम  ऐसे जरूरतमंदों की मदद के लिए क्यूँ नहीं रखते ? 

मुंबई में ही और भी कई मंदिर हैं जहाँ अच्छी खासी रकम चढ़ावे के रूप में जमा होती है . उन पैसों को इन गरीबों के इलाज के लिए देना चाहिए. इसमें उन्हें धांधली की आशंका हो कि कई लोग झूठ बोल कर पैसे ले सकते हैं तो जेनुइन केस की जांच के लिए वे नागरिकों  को नियुक्त सकते हैं . कई रिटायर्ड लोग हैं, हाउस वाइव्स हैं. वे लोग छानबीन कर के सही लोगों का पता कर सकते हैं कि किसे सचमुच में जरूरत है. वैसे भी डॉक्टर की चिट्ठी..जांच की सारी रिपोर्ट के बाद ही कोई भी ट्रस्ट पैसा देती है.

ये बात इसलिए और भी खलती है क्यूंकि मैं जहाँ रहती हूँ वहाँ आस-पास बहुत सारे चर्च  हैं और वे इस तरह के सेवाकार्य करते रहते हैं. उनके ट्रस्ट द्वारा संचालित एक बढ़िया हॉस्पिटल है, उसमे कैथोलिक गरीबों का मुफ्त या बहुत ही मिनिमम चार्ज लेकर इलाज़ होता है. हर चर्च गरीबो को अच्छी रकम  देकर उनकी मदद करता है. मैने एक पोस्ट लिखी थी कि कैसे दिन  में घर घर बर्तन मांजने वाली और शाम को सर पर टोकरी लेकर मछली बेचने वाली एक महिला का बेटा कई दिनों तक ICU  में रहा. और फिर ठीक होकर घर चला गया.

यहाँ मेरी  किसी धर्म को श्रेष्ठ बताने की मंशा नहीं है.  पर किसी भी धर्म की अच्छी बातों का अनुसरण हम क्यूँ नहीं कर सकते? मंदिरों में चढ़ाए गए पैसों  का सही कार्य के लिए उपयोग हो और जरूरत मंदों की  मदद की जाए. तो कितने ही आँखों के आँसू  पोंछे जा सकेंगे और कितने ही लोगों को जीवनदान मिल सकेगा. कई साधनविहीन लोग इन सुविधाओं का लाभ उठा सकेंगे. 

मेरी व्यक्तिगत राय तो यही है कि इस तरह लाखों  का दान देने के बदले, दान देने वाला व्यक्ति अपने आस-पास के जरूरत मंदों की मदद क्यूँ नहीं करता?  अगर ईश्वर की कृपा से उसका काम  सफल होता है तो उन्हीं ईश्वर का नाम लेकर ,उन्हीं के  नाम पर लोगो की मदद कर सकता है. क्यूंकि उन्हें भी यह जानकारी तो है कि वे जो इतना धन भगवान को अर्पण कर रहे हैं .उस धन का हो क्या रहा है? आखिर कितने सोने-हीरे के मुकुट भगवान की मूर्तियाँ पहनेंगीं? वो पैसा मंदिर की देख-रेख करने वाले ही अपनी जेब के हवाले कर रहे हैं. 

लोग कहते हैं, दान गुप्त होने चाहिए तो अगर लोग चाहें  तो पता भी ना चले कि किसने किसकी मदद की. बहुत अफ़सोस होता है एक तरफ यूँ जरूरत मंदों को पैसों पैसों  का मोहताज होते देख और दूसरी तरफ मंदिरों में सोने चांदी की ढेरियाँ और रुपयों की गड्डियों की थाक देख. 

44 टिप्‍पणियां:

  1. गोलमाल है भई सब गोलमाल है

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  2. ये गुप्त दान करने वालों की मानसिकता वाकई अजीब है...ठीक है करोड़ों का काला धन बाटेंगें तो खुद धरा जायेंगे....मगर लाखों में तो दान कर सकते हैं...ज़रूरतमंदों को जाकर चोरी छुपे दे आयें....
    सच्ची राम जाने...इनके भीतर क्या है.
    बढ़िया पोस्ट रश्मि...
    बधाई.

    अनु

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  3. आपसे पूरी सहमति है.जब प्रत्येक मनुष्य भगवान का ही रूप है तो चढ़ावा उस भगवान को क्यों नहीं जो हमसे बात करता है हमारी तरह ही अपने पैरों से धरती पर चलता है.न कि ऊंचे आकाश में रहता है न ही अदृश्य है

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  4. रश्मि जी हिन्दू मंदिर भी तमाम सेवा कार्य करते हैं... उनकी कुछ प्राथमिकताएं होती हैं जैसे किसी मंदिर ने तय कर लिया है की वो सिर्फ आँख के रोगियों की ही मदद करेगा तो वहां से हार्ट का मरीज निराश ही लौटेगा... जबकि चर्च का एक ही नियम है जो भी आये उसे मदद करो या मदद करने जैसा दिखो ताकि उनके मन में ईशायत के भाव जगाये जा सकें...

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  5. हमारी सोच में रचा बसा यह विरोधाभास भी एक विडंबना ही है.....

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  6. हमारे सारे शास्त्रो में भी तो यही है कि गरीबों-दुखियों की मदद करना ही सच्चा पुण्य है... पर लोग नहीं समझते तो क्या किया जाए...

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  7. किसी धन्ना सेठ के पास इतनी फुर्सत नहीं होती कि वह यह देखे कि किसे ज़रूरत है किसे नहीं. ये लोग भगवान् को घूस खिलाकर अपने पाप धोना चाहते हैं. इसके अलावा मंदिर में चढावा अक्सर गुप्त होता है, जो इनलोगों के काले धन को खपाने का माध्यम बन जाता है. कोफ़्त होती है ये सब देखकर.

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  8. पोस्ट बहुत अच्छी लिखी और बहुत ही अच्छे मुद्दों को उठाया है | मेरे मन में भी यही विचार आते है की यदि सब कुछ भगावन का दिया है तो हम तुक्ष मनुष्य उसे ये रु पैसे आदि चढ़ा कर क्या जाताना चाहते है खासकर साईं जैसे सादा जीवन जीने वाले फकीर पर इस तरह का चढ़ावा बिल्कुल भी नहीं पचता है | इस विषय पर चाहते हुए भी कभी लिखा नहीं क्योकि भगावन के प्रति मेरी भावना सभी जानते है कोई उसे विषय पर गंभीरता से नहीं सोचेगा उम्मीद है आप की कही बातो पर लोग गौर करेंगे और मंदिरों की दान पेटी में अक्सर दस बीस रु डालते समय ये याद रखेंगे की भगवान को इसकी जरुरत नहीं है अच्छा हो किसी जरुरत मंद को दे दिया जाये (पूरे साल भगवान पर कर रहे खर्च को जोड़े तो वो अच्छी खासी रकम बनेगी ) भगवान को तो मन की पूरी आस्था के साथ हाथ भी जोड़ लिया जाये या याद कर लिया जाये तो उतना ही बहुत है | मराठी वाद का झंडा खड़ा करने वाले राजनीतिक पार्टी के पास जाइये क्या वो कोई मदद नहीं कर रहे है , वैसे कई ट्रस्ट है मंदिरों के अलावा क्या उनसे संपर्क किया | आप ने जो सहयोग दिया है और दे रही है वो बहुत सराहनीय है |

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  9. सच में गंभीर समस्या है | समझ में ही नहीं आता की ऐसा क्यों होता है और वैसा क्यों नहीं होता :( आशा है उस बच्चे के ओपरेशन के पैसों का इंतज़ाम हो जाए...| किन्तु समस्या एक से बहुत अधिक बच्चों की है ....|

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  10. इसीलि‍ए तो भगवान (Deity) को भी इन्‍कम टैक्‍स एक्‍ट में व्‍यक्‍ति माना है जि‍से आम आदमी की तरह ही टैक्‍स लगता है /:-)

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  11. बिल्कुल सही कहना है आपका... धन्ना सेठों की तो छोड़िए एक आम मध्यवर्गीय व्यक्ति भी मंदिरों या पंडों पुजारियों को दान देने के नाम पर अच्छे खासे पैसे खर्च कर लेगा, लेकिन रिक्शेवालों, ठेलेवालों से एक-एक रुपये के लिए लड़ेगा। यह धर्म को लेकर हमारी स्वार्थी मानसिकता का परिणाम है कि धर्म के नाम पर हम जो खर्च करेंगे, उसके बदले हमें कुछ मिलेगा, और कुछ नहीं तो पुण्य ही सही। लेकिन किसी जरूरतमंद की मदद करने से पहले हम दस बार सोचेंगे।

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  12. सच में रश्मि एक बहुत सुन्दर बात अपने पोस्ट के ज़रिये बताई तुमने ....अगर और धर्मों में यह चीज़ हो सकती है तो हिन्दू धर्म में क्यों नहीं ...और मंदिरों में आया दान अगर गरीब, मुफलिसों और ज़रुरत मंदों के काम आये तो वास्तव में इश्वर की सही मायने में सेवा होगी ...क्या इतनी सी बात लोगों के समझ में नहीं आती ....या फिर समझना ही नहीं चाहते क्योंकि निहित स्वार्थ सिद्धि के रास्ते में यह उदार भाव एक बहुत बड़ा रोड़ा बनकर खड़ा हो जायेगा ...अगर ऐसा है तो बड़े दुःख की बात है ....

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  13. "अंदर मूरत पर चढ़े घी पूरी मिष्ठान ;
    बाहर खड़ा देवता सब से मांगे दान !!"

    निदा फ़जली साहब के इस दोहे मे आज के युग की पूरी सच्चाई छिपी हुई है ! दिक्कत लोगो की सोच की भी है जो मंदिरों मे तो करोड़ो का चंदा बड़े आराम से दे देते है पर किसी जरूरतमंद की मदद करने को आसानी से तैयार नहीं होते !



    मुझ से मत जलो - ब्लॉग बुलेटिन ब्लॉग जगत मे क्या चल रहा है उस को ब्लॉग जगत की पोस्टों के माध्यम से ही आप तक हम पहुँचते है ... आज आपकी यह पोस्ट भी इस प्रयास मे हमारा साथ दे रही है ... आपको सादर आभार !

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  14. रश्मि जी प्रसंशा करता हूँ आपके इस लेखन की ...अकूत सम्पति है हमारे धर्मस्थानों आस्था के केन्द्रों के पास एक निजी विचार मेरा कृपया राजनीति प्रेरित न समझें ...जितना विदेशों में जमा काला धन है उससे हजारों गुना ज्यादा संपत्ति देश के महंतों और मठों और सन्यासियों के यहाँ है ...क्या उसे देश के काम नहीं आना चाहिए !

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  15. अंधभक्ति, अंधश्रद्धा, और अंधविश्वासों का देश है ये रश्मि. यहाँ जीवितों पर भरोसा कम, मंदिरों पर ज्यादा किया जाता है. किसी अस्पताल को कोई भक्त कभी करोड़ों दान करते नहीं सुना गया. दक्षिण भारत के सभी प्रसिद्द मंदिरों के पुजारियों के शरीर सोने जेवरों से लदे रहते हैं. श्रीविष्णु मंदिर से अथाह संपत्ति निकली थी. लेकिन उस सबका इस्तेमाल पता नहीं कहाँ होता है.

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  16. रश्मि, कौन नहीं चाहेगा कि सबको इलाज मिले, कि कोई इलाज की कमी से असहाय महसूस न करे या असमय न मर जाए, कि लोग अच्छे कामों के लिए दान दें और दान का पैसा सद्कर्मों में ही लगे?
    हमारी यह अपेक्षा कि कोई सेठ वहाँ दान करे जो हमें उचित लगे क्या सही है? सेठ या आम व्यक्ति वहीं दान करेगा जहाँ उसे ठीक लगेगा। यदि हमें उनकी पसन्द गलत लगती है तो हम स्वयं ऐसी संस्थाओं को दान दें जो हमें ठीक लगती हैं व अन्य को भी उन संस्थाओं में दान देने को प्रेरित करें। यहाँ यह आवश्यक है कि हममें से कुछ संस्थाओं के हिसाब किताब पर भी ध्यान रखें। यदि हम विश्वसनीय संस्थाएँ खड़ी करेंगे तो दान देने वाले भी आगे आएँगे।
    जब तक हमारे माता पिता मन्दिर के कार्यों में हस्तक्षेप रखते थे तो मन्दिर स्कूल, धर्मशाला आदि चलाते थे किन्तु आज हम मन्दिरों की समितियों के सदस्य बनने को तैयार नहीं हैं तो वहाँ क्या होता है इसका ध्यान हम कैसे रख सकते हैं? राजनीति की ही तरह मन्दिर प्रबन्धन से भी हम अपने हाथ मैले नहीं करने चाहते।
    एक और बात। जहाँ तक मेरी जानकारी है भारत के सभी बड़े हिन्दु मन्दिरों के ट्रस्ट में राज्य सरकारों का पूरा हस्तक्षेप है। Through the Hindu Religious and Charitable Endowment Act (HRCE Act) of 1951, state governments have appointed managers to the boards of temples for better administration, while mosques and churches are completely autonomous.
    Post-independence state control of TTD was solidified by a series of legislations passed in 1951, 1969, 1979, 1987 before the Office of Profit constitutional amendment in 2006. To date the affairs of TTD continue to remain hostage to politics in Andhra Pradesh with the incumbent government appointing bureaucrats to manage its affairs in response to recent political controversies.
    The debate over the newly-discovered wealth of Thiruvananthapuram’s Padmanabhaswamy temple is an opportunity to revisit a debate India barely had in 1949. Much of the angst behind political Hindutva on the issue of proselytism arises from the fact that while Christian evangelical NGOs can funnel millions of dollars of foreign funds towards the larger goal of proselytisation, Hindu wealth locked up in trusts is hostage to government interference and corruption, instead of being leveraged towards socio-religious welfare programmes of Hindu choice. There is also angst over the failure of Hindu institutions to invest in making the large body of Hindu thought and knowledge relevant to modern times by creating new knowledge assets—digital assets, physical universities and new schools of thought with the potential for inter-generational impact.
    http://pragati.nationalinterest.in/2011/08/a-secular-state-that-runs-hindu-temples/

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  17. तिरुपति देवस्थान द्वारा निमनलिखित संस्थाएँ चलाई जाती हैं....
    http://tirupatibalajitemple.com/article/id/141/facilities/tirupati-balaji
    TTD maintains the following hospitals and dispensaries at Tirupati, Tirumala and Tiruchanur for the benefit of its employees, pilgrims and the local population.


    Aswini Hospital, Tirumala

    Central Hospital, Tirupati

    Dispensary at the Vaikuntam Queue Complex, Tirumala

    Employees Dispensary in Tirumala

    Dispensary at INC, Tirupati

    Dispensary at Sri Padmavathi Ammavari Temple, Tiruchanoor

    Health Centre at Padmavathi Women's College, Tirupati

    Dispensary in Bairagipatteda

    Besides, the following medical facilities are available in Tirupati.


    Sri Venkateswara Institute for Medical Sciences - A superspeciality hospital

    Balaji Institute of Surgery, Rehabilitation & Research for the Disabled

    Sri Venkateswara Poor Home

    Sri Venkateswara Ayurvedic College & Hospital

    Sri Srinivasa Ayurveda Pharmacy

    Pilgrims are given free medical aid at the Aswini Hospital near Seshadri Nagar in Tirumala.

    Health and Sanitation


    It is one of TTD's priorities to ensure hygienic conditions both at Tirumala and Tirupati. The quality of food supplied at all TTD canteens and private hotels at Tirumala is constantly checked by food inspectors.

    The Quality Control Department operates out of a fully-equipped laboratory at Tirumala, to ensure the supply of pure drinking water, and the use of good-quality provisions.

    TTD also takes measures to prevent the spread of contagious diseases in Tirumala and Tirupati.

    Food

    At Sri Venkateswara Canteen Complex Wholesome vegetarian meals are provided free of cost to devotees, in the Sri Venkateswara Canteen Complex, from 1000 hrs to 2300 hrs, everyday. You can avail of this facility on production of the free meal coupon which is distributed inside the temple after worshipping the Lord. About 20,000 piligrims avail this facility every day.



    Other charitable Activities


    Balaji Institute of Surgery, Research and Rehabilitation for the Disabled

    Sri Venkateswara Poor Home

    Sri Venkateswara Bala Mandir

    Sri Venkateswara Institute of Medical Sciences

    Sri Venkateswara School for the Deaf, Dumb and Blind

    Sri Venkateswara Training Centre for the Handicapped

    Educational activities

    Literary Research

    Publications
    और देखिए :
    माता अमृतानन्दमयी मठ
    http://en.wikipedia.org/wiki/Mata_Amritanandamayi_Math

    घुघूती बासूती

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  18. हमारा परिवार, विशेषकर मेरी छोटी बेटी पशुप्रेमी हैं। वह पशु शेल्टर से लाई बिल्लियाँ पालती है व उनपर काफी खर्च करती है। हमारे लिए, विशेषकर उसके लिए, हमारे कुत्ते बिल्ली हमारे परिवार के सदस्य हैं। उनपर वैसे ही खर्चा किया जाता है जैसे अन्य सदस्यों पर। यह बात उसके कुछ सहकर्मियों को पचती नहीं। वे कहते हैं कि इतना ही पैसा तुम किसी अनाथ पर खर्च करतीं तो बेहतर होता।
    वह पूछती है कि ठीक है तुम्हारी आस्था अनाथों की सेवा में है तो तुम उनपर क्यों नहीं खर्च करते? मैंने बिल्लियों को घर दिया है तुम अनाथ बच्चे को दे दो। वे आश्चर्यचकित हो कहते हैं मैं कैसे इतना खर्च व ध्यान रख सकता /सकती हूँ? वह कहती है कि फिर तुम अनाथालय को उतना दान दे दिया करो जितना मैं बिल्लियों व शेल्टर पर खर्च करती हूँ। तब भी वे बगलें झाँकने लगते हैं कि हम इतना पैसा कैसे व क्यों खर्च करें?

    अब यह पूछना बेकार है कि जब तुम उन लोगों पर पैसा नहीं खर्च कर सकते जो तुम्हारे अनुसार बिटिया के पैसे /दान के अधिकारी हैं तो फिर तुम्हें उसे ज्ञान देने का क्या अधिकार? ध्यान रहे कि बिटिया व उसके सहकर्मी बराबर पैसा कमाते हैं। और यह भी कि वह अपनी महरी के एक बच्चे के अच्छे मँहगे स्कूल की फीस, पुस्तकों व अन्य सभी खर्चे उठाती है। उसके जीवन स्तर को ऊँचा उठाने में लगातार सहायता करती है, उसे बराबर मानती है। ये सब बातें भी उसके सहकर्मियों को नहीं पचती।
    घुघूती बासूती

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  19. मुझे तो यही लगता है कि हम भारतीय जो दान नहीं देते उसके कुछ कारण हैं, एतिहासिक व सामयिक.
    विदेशियों के शासन में गुलाम रहकर हम स्वयं इतने दयनीय हो गए कि अन्य की क्या सहायता करते? मेरी पीढ़ी तक लोग निश्चिन्त नहीं थे कि उनका परिवार सुरक्षित पल जाएगा, बुढ़ापा ठीक से कट जाएगा. अब जब वे सुरक्षित व आत्मविश्वासी हो रहे हैं तो दान भी कर रहे हैं।
    हमने अपने आस पास इतना भ्रष्टाचार व धोखा देखा है कि किसी संस्था की सहायता करने में डरते हैं कि कहीं यह किसी को मालामाल तो नहीं कर रहा, किसी गरीब की सहायता से डरते हैं कि कहीं वह हमारा मूर्ख तो नहीं बना रहा।
    आशा है कि अगली पीढ़ी इस असुरक्षा से निकल खुले हाथ सहायता करेगी।
    घुघूती बासूती

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  20. बहुत सुन्दर पोस्ट,काबिले तारीफ ।
    मेरे नए पोस्ट - "क्या आप इंटरनेट पर मशहूर होना चाहते है?" को अवश्य पढ़े ।धन्यवाद ।
    मेरा ब्लॉग पता है - harshprachar.blogspot.com

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  21. @घुघूती बासूती,
    अगर कोई अपनी सदिच्छा से कहीं दान करता है, तो किसी को क्या आपत्ति हो सकती है. मैं खुद अपने कुत्तों पर खर्च करती हूँ, जिसे उपयोगितावादी लोग बेवकूफी समझते हैं. लेकिन मंदिरों में हज़ारों का गुप्तदान दरअसल काला धन होता है, जिसे दानकर धन्नासेठ लोग अपने पाप धोना चाहते हैं.

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  22. (१)
    आयकर विभाग से छुपाई गई रकम ही गुप्त दान हो , इसकी संभावनायें ज्यादा बनती हैं ! ऐसा लगता है कि चोरी / नंबर दो की कमाई और अपने बुरे कारनामों के अपराध बोध से मुक्त होने के नाम पर इस तरह के दान दिए जाते होंगें ! यहां घुघूती जी को संबोधित मुक्ति जी के कथन से पूर्ण सहमति कि गुप्त दान दरअसल काला धन होता है !

    (२)
    इस तरह के दान से सिद्ध होता है कि 'दानदाता' को ईश्वर के कण कण होने में विश्वास नहीं , वह अपने आस पास के मनुष्यों में परमात्मा के अंश नहीं देखता ,उसकी मदद नहीं करता बल्कि प्रतीकात्मक रूप से पूजे गये परमात्मा का इस्तेमाल अपने अपराध बोध से मुक्त होने के लिए करता है ! और 'खुद के समाज विरोधी उपक्रमों' में इस बहाने से प्राप्त आभासीय ईश्वरीय अनुग्रह की कामना करके, निरंतर डटा रहता है !

    (३)
    यह मानवीय स्वभाव है कि वह अपने ही समूह को आदर्श मानता है और तुलनात्मक रूप से अन्य समूहों को कम आदर्श ! इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता ! हालांकि अपने समूह की भक्ति वाली इस प्रवृत्ति से हटकर चिंतन महत्वपूर्ण है / श्रेयस्कर है !
    पर समूह भक्ति निंदनीय नहीं है क्योंकि किसी भी स्तर पर सही वह मनुष्य को व्यक्तिवाद से ऊपर उठाती है !

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  23. अच्छा लगा ये सार्थक विचार विमर्श !

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  24. इतना ज्यादा गुप्त दान देने वाला को दान वीर नही होता, वो तो महा कमीना होता हे जो गरीब लोगो का खुन पी पी कर इतना धन जुटा लेता हे, ओर फ़िर जब बिमार होने लगता हे या घाटा पडने लगता हे तो भगवान के यहां रिश्वत के रुप मे यह सब चढाता हे, गुप्त इस लिये रखता हे की कही छापा ना पड जाये, फ़िर यह साई बाबा कोन सा भगवान हे ... इसे तो हिंदु लोगो ने भेड चाल के चलते इतना महान बना दिया... क्योकि हमारी हिंदू कोम मे से ८०% लोग हर जगह मुंडी झुकाने ओर तेयार रहते हे, जरा ध्यान से देखे कितने नये भगवान हमारे धर्म मे आ गये हे... हर कोने मे बेठे हे...

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    1. राज जी,
      साईं बाबा के ऊपर बहुत लोगों की श्रद्धा है...आपकी बातों से उन्हें ठेस पहुँच सकती है.
      आप विश्वास ना करें पर जो लोग विश्वास करते हैं,उन्हें बुरा लग सकता है.

      आपकी तरफ से मैं पाठकों से क्षमा मांगती हूँ.

      हटाएं
    2. राज भाटिया जी,साई बाबा के लिए जो आपने कहा उससे मैं बिल्कुल असहमत हूँ जितना मैं जानता हूँ उनकी तुलना आज के फर्जी भगवानों से नहीं की जा सकती पर फिर भी आपकी ये बात बिल्कुल सही है कि ज्यादातर आम हिंदू धर्मभीरु हो गया है।किसीके भी सामने सिर झुका देता है इसीलिए हर गली में कोई न कोई बाबा महाराज दीदी अम्मा आदि मिल ही जाता है कई बार इनकी उल्टी सीधी सलाह पर भी लोग अपनी मेहनत की कमाई उड़ा देते हैं।भक्ति श्रद्धा विश्वास अपनी जगह सही है लेकिन अंधभक्ति और अंधविश्वास नहीं।

      हटाएं
  25. लेख और विभिन्न मतभेद टिप्पणियाँ ... लगता है सब कुछ गडबड झाला है ... क्या सही है क्या गलत इस आलेख और थोड़ी सी बहस से नहीं निकलने वाला .. व्यापक बहस और व्यापक नीति बनाने की आवश्यकता है इसके तहत ... नहीं तो जो व्यक्तिगत स्तर पर करना चाहता है वो करता है .. करता रहता है ... आगे भी करेगा ...

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  26. निदा साहब का शे'र:
    बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान,
    अल्लाह तेरे एक को, इतना बड़ा मकान!!
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    और दूसरी बात "गुप्त-दान" पर:
    फिल्म 'बाज़ार' में एक मासूम बच्ची को एक अरब के हाथों बेचने का 'नेक काम' करने के बाद स्मिता और नसीर के बीच इस अपराध बोध को लेकर अंतरात्मा की धिक्कार से बचने के लिए तंजिया कमेन्ट कि मज़ार पर चादर चढ़ा देंगे!
    /
    हमने भगवान को ऐसा ही बना दिया है. इसीलिये मैं किसी तीर्थ पर नहीं जाता.. क्या लगता है कि भगवान वहाँ पाए जाते होंगे???

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    1. सलिल जी,
      सिर्फ दरगाह या मजार पर चादर ही क्यूँ,
      अपने अपराधबोध को छुपाने के लिए लोग मंदिरों में प्रसाद चढाते हैं...तीर्थयात्रा पर जाते हैं.
      हर धर्म में इस तरह का आचरण मौजूद है.

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    2. मैंने फिल्म के डायलॉग का ज़िक्र किया है.. उसमें दरगाह की ही बात कही गयी है..!! बाक़ी तो आपने लिखा ही है विस्तार से!! और मैंने भी अपने कमेन्ट की समापन पंक्तियों में..!!

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  27. अभी एक कमेन्ट मुझे प्रकाशित करने के बाद डीलीट करना पड़ा क्यूंकि शुरूआती पंक्तियाँ पढ़ने के बाद मैने पब्लिश कर दिया था .
    पर फिर पाया कि उस कमेन्ट में किसी विशेष धर्म पर कटाक्ष निहित है.
    कृपया यहाँ किसी भी धर्म पर या भगवान पर कोई कटाक्ष ना करें.
    ऐसे कमेन्ट प्रकाशित नहीं किए जायेंगे.

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  28. मंदिरों में चढ़ाए गए पैसों का सही कार्य के लिए उपयोग हो और जरूरत मंदों की मदद की जाए. तो कितने ही आँखों के आँसू पोंछे जा सकेंगे और कितने ही लोगों को जीवनदान मिल सकेगा. कई साधनविहीन लोग इन सुविधाओं का लाभ उठा सकेंगे. मंदिरों में चढ़ाए गए पैसों का सही कार्य के लिए उपयोग हो और जरूरत मंदों की मदद की जाए. तो कितने ही आँखों के आँसू पोंछे जा सकेंगे और कितने ही लोगों को जीवनदान मिल सकेगा. कई साधनविहीन लोग इन सुविधाओं का लाभ उठा सकेंगे.
    ऐसा हो जाए तो बहुत ही अच्छा होगा ! सहमत हूँ आपसे !

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  29. कोटा के पास रावतभाटा में चारभुजा जी का एक मंदिर है जो वहाँ की जनता में बहुत महत्व रखता है. अभी कुछ समय पूर्व ही मुझे पता चला कि उस मंदिर का मालिक सारा पैसा ले जाता है और पंडित को भी कुछ नहीं देता है (यह मंदिर राज्य द्वारा अधिग्रहित नहीं किया गया है) और वो मालिक शराब में सारा धन उड़ा देता है. ये सुन कर लगा कि इस मंदिर में जो भी दान किया जाये वो दानपेटी में न डाल कर सामने रखी थाली में डालना ही बेहतर है.( वैसे मुझे मंदिर जाना और वहाँ पैसे चढ़ाना आदि में विश्वास नहीं है)

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  30. काला धन और अपराधबोध से मुक्ति वाली बातें सही है लेकिन ये भी सही है कि ज्यादा पैसे वाला ज्यादा डरा रहता है किसी अनिष्ट की आशंका से इसीलिए किसी पंडे आदि के कहने पर कही भी चढ़ावा चढ़ा देता है कुछ भक्तों की तो ये सोच रहती है कि भगवान हमारी परीक्षा लेना चाहता है कि तू मेरे नाम पर कितना कर सकता है।पर यदि कोई सही काम करता है तो भी लोग खोट निकालते ही है।गुजरात भूकंप के बाद जब विवेक ऑबेराय ने एक गाँव को गोद लिया तो लोग आज तक उसकी आलोचना करते हैं कि विवेक ने प्रचार के लिए ऐसा किया।जबकि उस समय ज्यादातर आम लोगों ने मदद के नाम पर क्या किया था?घर में से फटे पुराने कपड़े निकाल कर दे दिए जबकि जरूरत तो धन की थी लेकिन इससे दोनों काम हो गए घर का कचरा भी साफ हो गया और पुण्य कमाने का खुशनुमा एहसास भी हो गया।फिर विवेक ऑबेराय को ही क्यो दोष दिया जाए।

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  31. समाज का अर्पित समाज को ही अर्पण हो, ईश्वर गवाह बने कि दुरुपयोग न हो..

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  32. इसमें शक नहीं कि विभिन्न धार्मिक स्थलों पर भारी मात्रा में काला धन सफ़ेद करने के लिए गुप्त धन के रूप में चढ़ाया जाता है , यह किसी एक ख़ास धर्म अथवा पंथ के लिए सही नहीं है !
    अपने मेहनत से कमाए धन का सदुपयोग कौन कैसे करे , उनकी अपनी इच्छा ..जैसे कि कुछ लोंग किसी गरीब की सहायता करने की बजाय कुत्ते बिल्लियों पर खर्च करना ज्यादा पसंद करते हैं .
    बेशक हमें उन लोगो पर भी अंगुली नहीं उठानी चाहिए जो करोडो रूपये एक मकान को सजाने में लगा देते हैं , ज्वेलरी या जूतों गोदाम भर लेते हैं ,उनका पैसा , उनकी मर्जी है ना भई !!!!!

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  33. वाणी गीत जी,
    है न आश्चर्य की बात की ९९ प्रतिशत लोग गरीबों की सहायता करना चाहते हैं किन्तु गरीबों की फिर भी सहायता नहीं हो पाती. न जाने क्यों? कहीं इसलिए तो नहीं की वे मदद करना चाहते नहीं अपितु करवाना चाहते हैं. वे दान देना नहीं चाहते, दान देने वालों को बताना चाहते हैं कि किसे और कैसे दान करें.

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    1. अगर ९९ प्रतिशत लोग इतने अमीर होते कि लाखों करोड़ों का दान दे पाते तो फिर बात ही क्या थी.

      लेकिन सच तो यही है...जिनके पास भावना होती है..साधन नहीं...और ज्यादातर साधन -संपन्न लोग भावनाविहीन होते हैं.

      हमारा तो ये भी कहना है..काला धन आखिर जनता का ही है ना..जिसे अनुचित तरीके से कमा कर तिजोरियां भर ली गयी हैं तो उन तिजोरियों को जरूरत मंदों के ऊपर ही लुटाओ.
      जिनके पैसे हैं..उन्हें ही वापस करो...ना कि अपने पाप धोने के काम में लाओ.

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  34. @ घुघूती जी
    ऐसा कहाँ होता है ... अमीर लोंग तो अक्सर दिखा -दिखा कर सहायता या पुण्य कर्म करते हैं , आये दिन चेक , शॉल- कम्बल, वृक्षारोपण करते हुए तस्वीरें देखी जा सकती है .
    कुछ ऐसे लोंग जो सहायता करना चाह्ते हैं , मगर साधनविहीन होने के कारण नहीं कर पते , वे अवश्य ऐसा करते हैं कि उन लोगो को बता दे कि उन्हें सहायता किससे मिल सकती है .
    एक निर्मम सत्य यह भी है दान के लिए फैलाये हाथों में रकम भले ही ठसके के साथ दे दी जाती हो , मगर यदि कोई इंसान अपनी मेहनत से संघर्ष करते हुए जीवन यापन कर रहा है तो उसकी मदद करने में हाथों में बड़ा दर्द होता है ...जैसे कि अक्सर रिक्शे वालों , सब्जी वालों , रद्दी खरीदने वालों के साथ देखा जा सकता है !

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  35. "एक निर्मम सत्य यह भी है दान के लिए फैलाये हाथों में रकम भले ही ठसके के साथ दे दी जाती हो , मगर यदि कोई इंसान अपनी मेहनत से संघर्ष करते हुए जीवन यापन कर रहा है तो उसकी मदद करने में हाथों में बड़ा दर्द होता है ...जैसे कि अक्सर रिक्शे वालों , सब्जी वालों , रद्दी खरीदने वालों के साथ देखा जा सकता है !"
    - वाणी जी की इस बात से मैं अक्षरशः सहमत हूँ।

    दान/चैरिटी/भिक्षा न तो पाना कठिन है न ही देने वालों की कमी।
    हाँ मदद माँगना, और माँगने पर मिल जाना सचमुच पीठ पर पहाड़ ढोने जैसा है।

    बाकि मंदिरों में दान को लेकर तो इतना कुछ विमर्श हो ही चुका है।

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  36. एकदम सही बात है दीदी...बिलकुल सहमत हूँ आपसे...!!

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  37. धर्म के नाम पर सारी दुनिया में जो पैसे का खेल हो रहा है, वह निश्चित रूप से बन्‍द होना चाहिए। चर्च भी अछूता नहीं है, उसके पास अपार सम्‍पत्ति है। वह भी अन्‍य मन्दिरों की तरह केवल कुछ प्रतिशत ही सेवा कार्यों में लगाता है शेष तो धर्मान्‍मरण में ही व्‍यय होता है। यदि व्‍यक्ति स्‍वयं निश्‍चय कर ले कि मैं किसी भी धार्मिक स्‍थल पर चढ़ावा नहीं चढ़ाऊँगा तो ही समस्‍या का हल है।

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