आने वाले दिन बहुत ही व्यस्तता भरे हैं... पारिवारिक और सामाजिक जिम्मेवारियों के अलावा कहानी की अगली किस्त पोस्ट करनी है...आकाशवाणी से भी एक कहानी की फरमाइश है और डेड लाइन है..२६ मार्च (एक महीना पहले ही उनलोगों ने बता दिया था...पर तब तो लगता है..अभी बहुत समय है..कहानी की रूप-रेखा तैयार है पर फिर भी 9 में मिनट उसे फिट तो करना बाकी ही है ) फिर भी .एक विषय इतना मन में इतना उथल-पुथल मचा रहा है कि उस पर लिखे बिना किसी और विषय पर लिखने से उंगलियाँ इनकार कर दे रही हैं.
अनुरूप ने पहले दिन ये भी आरोप लगाया कि सागरिका ने उसपर कई बार हमले किए...तस्वीरों में सागरिका ना तो इतनी शक्तिशाली दिखती हैं और ना अनुरूप पिद्दी से. जरूर दोनों बहस करते हुए आमने-सामने आए होंगें और हो सकता है दोनों ने ही एक दूसरे पर हमले किए हों. हाँ, यहाँ सागरिका सर झुकाकर चुप नहीं बैठी होंगी पर यह तो ऐसा ही हुआ कि किसी को धकेलते हुए दीवार तक ले जाओ..फिर वह बचाव के लिए कुछ करे तो उसे मानसिक रोगी घोषित कर दो.
"नहीं मैडम खाना तो खा चुकी है"
"तो ज़रुर उसके बच्चे से अलग किया होगा"
" तो क्या करे ,सारे दिन बच्चे के पास ही बैठी रहेगी तो फिर आप लोगो को घूमने कौन ले जायेगा |
देखा मैंने कहा न ज़रुर कोई तकलीफ़ होगी तभी वो चिल्ला रही है उसके बच्चे से उसे अलग करोगे तो क्या वोचिल्लाएगी नहीं |
शायद सबकी नज़र नॉर्वे में एक भारतीय दंपत्ति के बच्चों के कस्टडी की लड़ाई पर बनी हुई है. जहाँ आठ महीने पहले अनुरूप और सागरिका भट्टाचार्य के तीन वर्षीय बेटे 'अभिज्ञान' और एक वर्षीय बेटी ' ऐश्वर्या ' को अपने माता-पिता के संरक्षण से लेकर फ़ॉस्टर केयर में दे दिया गया था. टी.वी. अखबारों में इस केस के बहुत चर्चे रहे...भारतीय सरकार ने भी इस केस में रूचि ली और विदेश मंत्रालय के दो अधिकारी इस समस्या को सुलझाने नॉर्वे सरकार से बातचीत करने नॉर्वे जाने वाले थे. पर उन्हें अपनी यात्रा कैंसिल करनी पड़ी क्यूंकि दो दिन पहले...अनुरूप भट्टाचार्य ने मिडिया से यह कहा कि उनकी पत्नी मानसिक रोगी है और उसपर हमला किया है. वे अपनी पत्नी से अलग होना चाहते हैं. एक दिन बाद ही वे अपने बयान से पलट गए और कहा कि ' वे बहुत मानसिक तनाव में थे इसलिए ऐसा कह डाला...पति-पत्नी में कोई मतभेद नहीं है"
यानि कि मानसिक तनाव हुआ...नाराज़गी हुई तो पत्नी को पागल करार दे दिया??. अखबारों में ये ख़बरें भी आ रही हैं कि पत्नी सचमुच डिप्रेशन में है. तो ऐसी स्थिति में कौन सी महिला डिप्रेशन में नहीं होगी? वो विदेश में है जहाँ उसके पास उसके अपने करीबी लोग नहीं हैं जिनसे अपना दुख-दर्द बाँट सके. पिछले आठ महीने से उसके दुधमुहें बच्चे उस से अलग हैं. उसके बाद से ही अनिश्चय की स्थिति बनी हुई है कि बच्चे उसे मिलेंगे या नहीं? टी.वी. ..अखबारों से बातचीत में बार-बार उन्हीं बातों का दुहराव कि कैसे उस से बच्चे ले लिए गए....यह सब उसे मानसिक तनाव नहीं देगा?
कुछ दिन पहले बच्चों के नाना-नानी यानि कि सागरिका के माता-पिता ने दिल्ली में नॉर्वे के एम्बेसी के सामने प्रदर्शन भी किए थे और तब खबर यह थी कि बच्चे नाना-नानी को सौंपे जाएंगे. फिर खबर ये आई कि बच्चे अपने चाचा यानि अनुरूप के भाई को सौंपे जाएंगे. हो सकता है..सागरिका चाहती हों..बच्चे उनके माता-पिता को सौंपे जाएँ. और सागरिका का कहना है कि उनसे कहा जा रहा है..वे एक एग्रीमेंट पर साइन कर दें कि बच्चों के चाचा ही उनके गार्जियन होंगें. सागरिका के इनकार करने पर अनुरूप ने उन्हें धमकी दी...घर से निकल जाने को कहा. और फिर मिडिया में सागरिका को मानसिक रोगी करार दिया. जबकि सागरिका और उसके पिता का कहना है ...सागरिका पर उसके पति अक्सर हाथ उठाते रहे हैं.
अगर ये आरोप-प्रत्यारोपों की बात जाने भी दें. इतनी दूर से भी इतना तो समझ में आता है...कि वो औरत गहरे मानसिक तनाव में रहती होगी. भारत में नौकर-कामवालियों की सुविधा के बावजूद भी तीन साल और एक साल के बच्चों की देख-रेख में कितनी परेशानियां आती हैं. ये उस उम्र के बच्चों की माँ ही समझती है. जबकि यहाँ रिश्तेदारों का भी सहारा होता है. बच्चों को पालने के साथ-साथ पड़ोसियों..सहेलियों..से गप-शप भी होती है..अपने अनुभव भी बांटे जाते हैं...जिस से निश्चय ही स्ट्रेस से मुक्ति मिलती है. पर विदेश में ऐसा माहौल मिलना मुश्किल है. और उस पर से तीन वर्षीय अभिज्ञान autism का शिकार है. माँ को यह स्वीकारने में ही बरसों लग जाते हैं कि भगवान ने उनके बच्चे के साथ ही ऐसा क्यूँ किया?? अगर किसी माँ को सिर्फ एक बच्चे की ही देखभाल करनी हो जो विकलांग हो फिर भी सहेलियों- रिश्तेदारों की सहायता-सहानुभूति के बावजूद माँ चरम तनाव का शिकार हो जाती है. जबकि यहाँ सागरिका को ऐसे असंवेदनशील माहौल में अभिज्ञान के साथ एक वर्षीय ऐश्वर्या की भी देखभाल करनी पड़ रही थी.
इन सबके साथ एक अवस्था होती है post partum depression की जिसे भारत में कोई तवज्जो नहीं दी जाती. पर शरीर चाहे अमरीकी हो ब्रिटिश हो या भारतीय...उसे दर्द का अहसास तो एक सा ही होता है. कहते हैं प्रसव के बाद एक महिला ,महीनो तक डिप्रेशन की शिकार रह सकती है. शायद हमारी पिछली पीढ़ी इस बात को ज्यादा अच्छी तरह समझती थी और तभी...प्रसव के बाद, चालीस दिनों तक स्त्री को गृह-कार्य.. उसके झंझटों से अलग रखा जाता था. उसे बढ़िया खानपान दिया जता था...उसके शरीर मालिश की जाती थी...यानि कि उसकी अच्छी तरह देखभाल की जाती थी. परन्तु आज की स्थिति से सब अवगत हैं. हॉस्पिटल से घर आते ही स्त्रियाँ काम-काज में लग जाती हैं. सागरिका की भी बेटी एक साल की ही थी. निशचय ही ऐसी प्रतिकूल परस्थितियों में वो post partum depression से भी गुजर रही होगी. कोई super woman या कहें super human being ही ऐसी प्रतिकूल परिस्थितयों में भी बिलकुल सामान्य रह सकता है. पर बिना औरत की स्थिति को समझे उसे मानसिक रोगी घोषित कर देना बहुत आसान है.
अनुरूप ने पहले दिन ये भी आरोप लगाया कि सागरिका ने उसपर कई बार हमले किए...तस्वीरों में सागरिका ना तो इतनी शक्तिशाली दिखती हैं और ना अनुरूप पिद्दी से. जरूर दोनों बहस करते हुए आमने-सामने आए होंगें और हो सकता है दोनों ने ही एक दूसरे पर हमले किए हों. हाँ, यहाँ सागरिका सर झुकाकर चुप नहीं बैठी होंगी पर यह तो ऐसा ही हुआ कि किसी को धकेलते हुए दीवार तक ले जाओ..फिर वह बचाव के लिए कुछ करे तो उसे मानसिक रोगी घोषित कर दो.
खैर यहाँ अनुरूप भी कम मानसिक तनाव में नहीं हैं और शायद आवेश में सागरिका को सबक सिखाने की सोच मिडिया में पति-पत्नी के बीच तनाव की बात कह गए. अगले दिन ही अपनी बात से मुकर भी गए पर इस क्रम में अपनी और भारत सरकार की सारी मेहनत पर पानी फेर गए. नॉर्वे ने कस्टडी केस की सुनवाई बंद कर दी और अब तो उनके पास कारण भी है कि बच्चों के माता-पिता में आपसी सौहार्द नहीं है और ऐसे माहौल में बच्चों का विकास सही तरह से नहीं हो सकता.
हालांकि बच्चों के माता-पिता की ऐसी मानसिक स्थिति तक पहुंचाने के जिम्मेवार नॉर्वे सरकार की CWS ( child welfare services ) ही है. एक अमेरिकन अखबार ने सही ही कहा है...'Norway Drives the Parents Crazy'. उन्हें इस पहलू को भी ध्यान में रखना चाहिए. क्या नॉर्वे के दूसरे दम्पत्तियों के बीच आपसी तनाव नहीं होते? इस दंपत्ति का तनाव इस चरम अवस्था तक पहुँच गया कि मिडिया तक बात पहुँच गयी.
नॉर्वे के ही एक पत्रकार का एक आलेख पढ़ा जिसमे उन्होंने लिखा है कि 'नॉर्वे में बच्चों के हित की रक्षा के कानून बहुत कड़े हैं परन्तु नॉर्वे सरकार की गलती ये है कि वे विदेशियों को इस क़ानून से सही तरीके से अवगत नहीं कराते. यही वजह है कि बहुत सारे विदेशी बच्चे नॉर्वे में 'फॉस्टर केयर' में दे दिए जाते हैं. करीब बीस रशियन बच्चे भी फ़ॉस्टर केयर में है. एक लड़का ८ वर्ष पूर्व माँ से छीन लिया गया और माँ को जबरदस्ती उसके स्वदेश वापस भेज दिया गया. नॉर्वे में रह रही ही एक विदेशी महिला दो साल से अपने बेटे से नहीं मिल पाई है.
बस प्रार्थना है की अनुरूप-सागरिका के साथ ऐसा ना हो. शायद उन्हें अपने बच्चे वापस मिल जाएँ. वे भारत लौट आएँ तो अनुकूल परिस्थितियों में अपने देश के माहौल .अपने करीबियों के बीच रहकर उनके आपसे रिश्ते भी सुधर जाएँ और बच्चों को भी अपने माता-पिता वापस मिल जाएँ.
इन सारी बातों ने मुझे अपने बचपन की एक घटना याद दिला दी. तब मैं स्कूल में थी. मेरी एक सहेली थी मीता . उसकी माँ एक हंसमुख महिला थीं. पड़ोसियों से.. हम बच्चों से बहुत ही प्यार से बात करती थीं. पिता कड़क स्वभाव के लगते थे. बच्चों से ज्यादा बात नहीं करते थे. पर तब अक्सर सारे पिता ऐसे ही होते थे..घर में कम और बाहर ज्यादा बातें किया करते थे. इसलिए हमें कुछ अलग सा नहीं लगता .
एक दिन हम उसके घर के पास ही खेल रहे थे कि उसके घर से ऊँची-ऊँची आवाजें सुनाई देने लगीं. मीता ..उसका छोटा भाई और हम कुछ बच्चे बाहर दरवाजे के पास दुबक कर सुनने लगे. मीता के नाना-नानी आए हुए थे . उसकी माँ जोर-जोर से ऊँची आवाज़ में बोल रही थीं.." ये इतना मारते-पीटते हैं...आपलोग कभी कुछ नहीं कहते..वगैरह वगैरह.." मीता के पिता गरज रहे थे, "ये पागल हो गयी है..कुछ भी बोलती है..इसे पागलखाने में भर्ती कराना पड़ेगा " मुझे लगा...उसके नाना-नानी उनका विरोध करेंगें...पर शब्दशः तो नहीं याद पर दोनों अपनी बेटी को ही दोषी ठहरा रहे थे कि "उसे गुस्सा क्यूँ दिलाती हो..आदि..आदि "...मीता की माँ के मन में शायद बहुत दिनों का गुबार जमा था..वे बोलती जा रही थीं...इस पर उसके माता-पिता भी उसके पति के सुर में सुर मिलाने लगे कि ऐसे बोलोगी तो सचमुच तुम्हे पागलखाने में भर्ती कराना पड़ेगा" ये सुनते ही...मीता और उसका छोटा भाई दौड़ कर अंदर जाकर माँ से लिपट कर रोने लगे. उसकी माँ उन्हें लेकर भीतर चली गयीं. सब शांत हो गया. हम बच्चे लौट आए. कुछ दिनों बाद उसके नाना-नानी चले गए और मीता की माँ हमसे वैसे ही प्यार से पेश आती रहीं.
कभी कभी कॉलोनी की महिलाओं की खुस-फुस कानों में पड़ जाती कि बेचारी के मायके वाले ही साथ नहीं देते तो वो क्या करे ..पर वे दिन अपनी दुनिया में ही मगन रहने वाले थे .हम सब भूल गए. इतने दिनों बाद आज ये घटना याद आ गयी कि अगर स्त्री प्रतिकार करे...विरोध करे तो उसे झट से पागल घोषित कर दो.
अभी हाल में ही राजस्थान गई थी तो वहा जा कर ऊंट की सवारी तो करनी ही थी , मेरे बैठने के बाद जब पति देव अपने ऊंट पे बैठने लगे तो वो जोर जोर से चिल्लाने लगी और दोनों ऊँटो के मालिक हाथों से उसका मुंह बंद करने लगे जब मैंने कहा की ये क्यों चिल्ला रही
"औरत है न इसलिए ज्यादा चिल्लाती है "
निश्चित रूप से ये सुनने के बाद मेरे अंदर की औरत या कह लीजिये नारीवाद को जागना ही था | मैंने भी जवाब दिया की "औरत यू ही नहीं चिल्लाती है ज़रुर कोई तकलीफ़ होगी तभी चिल्ला रही है , क्या भूखी है " "नहीं मैडम खाना तो खा चुकी है"
"तो ज़रुर उसके बच्चे से अलग किया होगा"
" तो क्या करे ,सारे दिन बच्चे के पास ही बैठी रहेगी तो फिर आप लोगो को घूमने कौन ले जायेगा |
देखा मैंने कहा न ज़रुर कोई तकलीफ़ होगी तभी वो चिल्ला रही है उसके बच्चे से उसे अलग करोगे तो क्या वोचिल्लाएगी नहीं |
इतने ज्वलंत विषय पर आपकी पोस्ट सचमुच विचारणीय है ! मुझे तो नार्वे की चाइल्ड वेलफेयर सोसाइटी का यह क़ानून समझ में ही नहीं आता कि अच्छी देख रेख ना हो रही हो तो बच्चों को माता पिता से छीन लिया जाए ! इतने छोटे-छोटे बच्चों को माँ से अलग कर वे बच्चों को कितना संत्रास देते हैं क्या कभी इस तथ्य पर भी वे विचार करते हैं ? गरीब से गरीब माँ का बच्चा भी अपनी माँ के आँचल की छाँह में खुद को बादशाह समझता है भले ही उसे भरपूर खाने को मिले या न मिले ! इसमें कोई शक नहीं कि नॉर्वे सरकार ने एक खुशहाल परिवार को टूटने के कगार पर पहुंचा दिया है जो बेहद दुखद है ! यह पूरा प्रकरण किसीके लिए भी हितकारी नहीं है ! ना माता पिता के लिए, ना बच्चों के लिए ना ही नॉर्वे के क़ानून एवं छवि के लिए ! इतनी संवेदनशील पोस्ट के लिए आभार !
जवाब देंहटाएंरश्मि, दो पहले ये खबर पढी थी और मेरे मन में भी ऐसे ही कुछ भाव उठे थे. साल भर से जो मां अपने बच्चों से दूर है, वो निश्चित रूप से पति को कुछ कारगर न करने के लिये समय-समय पर भावावेश में चिल्लाती होगी, शायद उस चिल्लाने को ही मानसिक बीमारी करार दिया गया. या क्या पता नार्वे सरकार अपने बचाव में अनुरूप-सागरिका पर क्या दवाब बना रही हो, जिसके चलते ऐसा बयान अया. हालांकि दूसरे ही दिन अनुरूप ने अपने बयान का खंडन भी कर दिया. तुमने जो बचपन की घटना लिखी है, तो शत-प्रतिशत ऐसा ही होता है. कुछ न कर पाने की दशा में असहाय स्त्री केवल चिल्लाती है, कि शायद उसकी सुनवाई हो जाये, लेकिन ुसे उसके पति के द्वारा ही पागल घोषित कर दिया जाता है. बहुत तकलीफ़देह है ये.
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों से ये खबर को युहीं कहीं कहीं देख-पढ़ रहा था, और कुछ खास मुझे इस बारे में पता भी नहीं था नाही जानने की कोशिश की मैंने...ये भी तय था की अगर आप ये पोस्ट ना लिखती तो मैं सही ढंग से जान भी नहीं पाता इसके बारे में..
जवाब देंहटाएंबहुत भावुक सी संवेदनशील सी पोस्ट है..ऐसे पोस्टों पर मैं अपनी राय आसानी से लिख ही नहीं पाता...
रश्मि जी आपके इस लेख को पढ़ने के बाद ...नारी मन कि विवशता को बहुत अच्छे से समझा जा सकता हैं ....पुरुष कभी भी कोई भी इलज़ाम लगा कर उसे पागल घोषित कर देता हैं .....ये बेबसी ...उफ्फ्फ्फ़
जवाब देंहटाएंआज अभी मैंने भी नारी मन की बात को कविता के रूप में लिखा ...
http://apnokasath.blogspot.in/2012/03/blog-post_23.html
जो आवाज़ तुम उठाती हो ... क्रांति के बीज बड़ी सफलता से बोटी हो . विचार करने पर विवश करती हो .... दहल जाता है मन
जवाब देंहटाएंसंवेदनाओं को झकझोरती हुई प्रस्तुति.....
जवाब देंहटाएंइसी विषय से जुड़ी मैंने भी एक पोस्ट लिखी थी पर अब लग रहा है की असली कारण और हालात क्या हैं, ये समझ नहीं आ रहा है ....
जवाब देंहटाएंसच है...हम भी लगातार इस खबर पर नजर रखें हुए हैं...मन विचलित होता है पर करें क्या....बस...देखो..क्या होता है!!
जवाब देंहटाएंइस स्थिति के लिये मुकदमा नार्वे सरकार पर चलना चाहिये।
जवाब देंहटाएंअनुरूप और सागरिका से उसके बच्चों को दूर किया गया , यह तकलीफदेह है ,प्रार्थना है कि उन्हें उनके बच्चे वापस दिलाये जायें....ऐसी स्थिति में उन दोनों का मानसिक तनाव से गुजरना लाजिमी है !
जवाब देंहटाएंमानसिक तनाव में इंसान चीखते चिल्लाते हैं ही , हमारी सामाजिक परिस्थितयों के मद्देनजर स्त्रियाँ ज्यादा तनाव सहती रही हैं , मगर तेजी से बदलते समाज में आजकल स्त्री -पुरुष दोनों ही समान रूप से तनाव का सामना करते हैं !
किसी परिस्थिति विशेष में जैसे प्रियजन की मृत्यु , लगातार मिल रही असफलता , पारिवारिक रिश्तों में खटास , प्रेम में धोखा , विवाह या बच्चे के जन्म के बाद होने वाले परिवर्तन आदि अनेक कारण हैं तो डिप्रेशन को बढ़ाते हैं और ऐसे व्यक्तियों को सहानुभूति की आवश्यकता होती है ....जैसे एक ही सिक्के के दोनों पहलू होते हैं वैसे ही कई केसेज में मरीज अपनी जिम्मेदारियों से बचने के लिए , अपनी गलतियों पर पर्दा डालने के लिए भी डिप्रेशन के जबरदस्त शिकार होने का दिखावा करते हैं !
नार्वे की घटना तो इतनी दुखद है कि जब भी इस घटना के बारे में सोचती हूँ मन में एक हूक से उठने लगती है। यह कैसा अत्याचार है? इस विकसित और सभ्य कहलाने वाली दुनिया में एक माँ के ऊपर कैसा तो अत्याचार है। भारत सरकार भी अपने बच्चे दूसरे देश को दे रही है और कुछ नहीं बोल रही है। क्या हम ऐसे ही समाज की कल्पना कर रहे हैं जहाँ बच्चे सरकार की सम्पत्ती होंगे।
जवाब देंहटाएंकभी कभी लगता है पढ़ के चुपचाप निकल पता तो कैसा रहता।
जवाब देंहटाएं:(
बहुत ही सही कहा है आपने .. विचारणीय प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंतनाव हर जगह होता है...उससे डिसट्रैकशन का बहाना नहीं मिलता इन देशों में...पश्चिमी देशों में बच्चे बहुत कीमती माने जाते हैं...और इस चक्कर में सरकार ओवरप्रोटेक्टिव हो जाती है...जिसके कारण भलाई की जगह बुराई ही हो जाती है...कानून भावनात्मक मूल्यों को कोई महत्व नहीं देता...उनके लिए या तो बात सही है या गलत...और इन देशों में गफलत के लिए कोई जगह नहीं है...सागरिका के पति का ये केसुअल attitute बहुत ही गैरजिम्मेदाराना रहा...
जवाब देंहटाएंमुझे उन दोनों के प्रति सहानुभूति है परन्तु, दोनों पर खुद को दिम्मेदार माँ-बाप साबित करने की जिम्मेदारी आती है...जिस तरह उन्होंने खुद को गैरजिम्मेदार प्रोजेक्ट किया है...सरकार कोई रिस्क नहीं लेगी...अगर एक बार बच्चे सरकार के संरक्षण में आ जाते हैं, तो सरकार उनकी सुरक्षा की जिम्मेदार होती है...अब अगर बच्चे इस दंपत्ति को सौपें जाते हैं और कुछ भी ऐसा हो जाता है, जिससे बच्चों की ज़िन्दगी को खतरा हो जाता है..तो सरकार जवाबदेह मानी जायेगी...और वो उनके लिए बहुत मंहगा पडेगा...इसलिए सरकारी अधिकारी ऐसा कोई रिस्क नहीं लेंगे...
बच्चों के प्रति कानून इन पश्चिमी देशों में लगभग ऐसा ही है...इनके बारे में अनभिज्ञता, हम जैसे लोगों के लिए चौकाने वाला होता है...इसमें कोई शक नहीं ये बहुत ही मार्मिक और दुखद परिस्थिति है...ईश्वर उनकी मदद करे...और इससे भी ज्यादा, वो संयमित रह कर खुद की मदद करें...
विचारणीय आलेख्………सही समय पर सही कदम उठाना जरूरीहोता है।
जवाब देंहटाएंदुखद प्रसंग है. अंत क्या होगा पता नहीं. उम्मीद है कि सब कुछ ठीक हो.
जवाब देंहटाएंइस प्रसंग को बहुत संवेदनशीलता के साथ परखा है आपने। वाकई बच्चों से अलग किया जाना एक मर्मांतक दुख होता है, जो सिर्फ मनुष्यों ही नहीं, पशु-पक्षियों पर भी लागू होता है। बढ़िया लेख.. उम्मीद है आगे भी आपके विचार ऐसे ही पढ़ने को मिलते रहेंगे..
जवाब देंहटाएंजब ये खबर पहली टीवी पर देखी तब ही लगा की बात बस उतनी सी नहीं है जीतनी के बच्चे के माँ बाप बता रहे है क्योकि ये नार्वे में रहने वाला कोई पहला भारतीय परिवार नहीं है और न ही वहा की सरकार हर किसी के घर में जा कर बच्चो का हाल देखती होगी निश्चित रूप से किसी ने शिकायत की होगी और कारण बस ये दो बाते तो नहीं होंगी जो बताई जा रही है । अब अन्दर की खबरे सामने आ रही है बच्चे मिलने से पहले ही पति द्वारा अपनी पत्नी और शादी के बारे में इस तरह का बयान देना काफी हद तक उसे शक के घेरे में ला रहा है की बात असल में कुछ और है , वो बाते भी सामने आ जाएँगी कुछ दिनों बाद तब उन लोगो को भी जवाब देना होगा जो इस मामले में अपने भारतीय संस्कृति की दुहाई दे दे कर नार्वे की सरकार को कोस रहे थे ।
जवाब देंहटाएंरही बात तनावों की तो रश्मि जी एक बड़ा पुराना नियम है पुरुषो को तनाव मत दो या लेने मत दो, उन्हें भला बुरा मत कहो, उनकी गलती उन्हें मत बताओ , उनकी तरह उंगली कर मत करो वरना वो तनाव में आ जायेंगे हार्ट अटैक आ जायेगा दिल की बीमारी हो जाएगी रक्त चाप बढ़ जायेगा डिप्रेशन में आ जेंगे उनका आत्मविश्वास कम हो जायेगा आदि आदि और स्त्री को चाहे कितना भी दुख दर्द दो तकलीफ में रखो उसे तो सहने की आदत होती है उन्हें सहना आना चाहिए वो स्त्री जो है यदि चिल्लाती है तो पागल है मनोरोगी है । मुझे लगता है की वास्तव में अब स्त्रियों को बस चिल्लाने ( बेचारी इसके आलावा कुछ कर ही नहीं पाती )की जगह कुछ करना शुरू कर देना चाहिए सहना छोड़ देना चाहिए । काश की सागरिका ने पति की मार ( जैसा की उसके पिता ने कहा ) खाने और भला बुरा सुनने के बाद भी वहा रह चिल्लाने के बजाये उसे छोड़ बच्चो को ले भारत आ जाती तो उसे शायद आज अपने बच्चो से अलग नहीं होना पड़ता ।
@अंशुमाला जी,
हटाएंमैने इस घटना से सम्बंधित नेट पर अखबारों में जितनी भी खबर उपलब्ध है..सब पर नज़र डालने की कोशिश की है. यही बात उभर कर आई है कि नॉर्वे में बच्चों के पालन-पोषण के कानून बहुत सख्त हैं. CWS के अधिकारी हर छोटे बच्चे के माता-पिता पर नज़र रखते हैं...उनका घर भी विजिट करते हैं और रेकॉर्ड करके सारे साक्ष्य भी इकट्ठे करते हैं.
उसपर से इस दंपत्ति का पुत्र ;अभिज्ञान' austisism का शिकार है. जिसे स्पेशल केयर की जरूरत है. अजनबी माहौल ..घर का सारा काम..दो छोटे बच्चों की देखभाल...अपनों से दूर..सागरिका...वहाँ के स्टैण्डर्ड से बच्चों की देखभाल नहीं कर पाती होगी. और यही वजह है कि बच्चों को फ़ॉस्टर केयर में दे दिया गया. अब जैसे हम अपने रोते-जिद करते छोटे बच्चों को जोर से ' चुsssप' कहकर डांटकर चुप करा देते हैं. अब नॉर्वे में यह बहुत बड़ा अपराध हो जायेगा. सागरिका के लिए यह भी कहा गया कि पार्क में वो बेटी को गोद में बिठाकर कहीं दूर देख रही थी..बच्ची की तरफ उसका ध्यान नहीं था. हमारे लिए जो बातें बिलकुल आम हैं..वहाँ के लिए अपराध की श्रेणी में आते हैं.
और सिर्फ अकेला यही परिवार यह सब नहीं भुगत रहा...हाल में ही दूसरे देशों में भी नॉर्वे के इस कदम के खिलाफ प्रदर्शन हुए हैं. कई विदेशी बच्चे फ़ॉस्टर केयर में रह रहे हैं.
अनुरूप भट्टाचार्य ने एक आम भारतीय पुरुष की तरह व्यवहार कर सारी कोशिशें बेकार कर दीं. वे भूल गए कि वो उनका अपना देश भारत नहीं है...जहाँ अब तक ज्यादातर पुरुष खुद को सर्वेसर्वा ही समझते हैं और स्त्री को एक मशीन से ज्यादा कुछ नहीं.
"काश की सागरिका ने पति की मार ( जैसा की उसके पिता ने कहा ) खाने और भला बुरा सुनने के बाद भी वहा रह चिल्लाने के बजाये उसे छोड़ बच्चो को ले भारत आ जाती तो उसे शायद आज अपने बच्चो से अलग नहीं होना पड़ता ।"
खबर तो यह भी पढ़ी कि सागरिका बच्चों के साथ भारत वापस लौट आना चाहती थी...पर एक विदेशी धरती पर अगर पति ना चाहे तो अकेली पत्नी के लिए ऐसे कदम उठाना संभव है??
और आम भारतीय नारी के अभिभावकों की तरह उसके माता-पिता ने भी यही सलाह दी होगी..'एडजस्ट करो ...समय के साथ सब ठीक हो जायेगा "
यहाँ माता-पिता भी तभी साथ देते हैं,जब पानी सर से गुजर जाता है.
विदेशों में बसे भारतीयों के साथ जब इस तरह की समस्याएँ आती हैं तो इसके सही कारणों का पता भी ढंग से नहीं लगता.. इस तरह के मामलों में आरोप-प्रत्यारोप सुनकर यह पता लगाना भी मुश्किल हो जाता है कि वास्तविकता क्या है और दोषी कौन है.. अब देखिये पहले उस महिला को मानसिक तौर पर विक्षिप्त घोषित कर दिया और बाद में उसी महिला और पति के करारनामे पर दस्तखत (एक मानसिक तौर पर विक्षिप्त महिला कैसे करार करेगी) के बाद चाचा को अभिभावक नियुक्त कर दिया गया/जाएगा..
जवाब देंहटाएंमाता-पिता की बात जाने दें, तो भी उन बच्चों की सोचकर बहुत दुःख होता है.. सबके होते हुए भी अनाथों का सा जीवन जीने को बाध्य हैं.. आपने एक बेहद संवेदनशील मुद्दा उठाया है.. हमेशा की तरह!!
रश्मि जी
जवाब देंहटाएंनियम कड़े होने की बात तो मै भी मानती हूँ किन्तु एक आधे घंटे के लिए किसी जाँच पड़ताल के लिए आये अधिकारी के सामने अच्छे बने रहना कोई मुश्किल काम नहीं है , मैंने भी अखबारों में पढ़ा था की पति पत्नी में अत्यधिक लड़ाई होती थी जिसकी शिकायत पड़ोसियों ने की और फिर बेटे की बीमारी बच्चो को वहा से ले जाने का एक बड़ा कारण बन गया होगा । कही ये भी पढ़ा की बिलकुल उसी समय अनुरूप का इस तरह का बयान देना जब भारत सरकार की मदद से बच्चे मिलने ही वाले थे चाचा को, कही ऐसा तो नहीं अनुरूप पत्नी और बच्चो दोनों की जिम्मेदारी से भाग रहे है बच्चे सरकार के पास है और पत्नी को पागल कह दिया जिस आधार पर उन्हें आसानी से तलाक मिल सकता है और शायद खर्चा कुछ भी नहीं देना पड़ेगा पता नहीं कहा नहीं जा सकता है ।
रही बात बच्चो की तो भारत की स्थित बहुत ही ख़राब है अपनी १५-१६ साल की लड़कियों को खाड़ी देश में बेचने वालो को ही बेटी बचा कर सौप दी जाती है , कुछ समय पहले पढ़ा होगा मुंबई में हफ्ते भर की बेटी के गले में पत्थर मिला मुश्किल से जान बची और शक होने के बाद भी बेटी उसी माँ बाप के पास भेज दी गई , तो एक जगह बच्चे बदलने का इल्जाम लगा और जब डी एन ए से उन्ही की बेटी साबित हुई तब भी वो लेने के लिए तैयार नहीं हुए और सरकार आज भी उन्हें बेटी देने की कोशिश में लगी है , ब्लॉग पर खुलेआम १६ साल तक के बच्चो को मारने को बुरा नहीं कहा जाता है , बच्चो में डर पैदा करने को अच्छा माना जाता है सब कहूँ तो लिस्ट लम्बी हो जाएगी । असल में हम सभी भारत में बच्चो के साथ इतना बुरा व्यवहार करते है, उन्हें अपनी जागीर की तरह रखते है की दूसरो के बनाये कोई भी नियम जो बच्चो की देखभाल से हो हमें बहुत ही कड़े लगते है । जब कोई विदेश जाता है तो वह के ट्रैफिक नियम तक को बड़ी जल्दी सीख और समझ जाता है और उस कारण होने वाली कम दुर्घटनाओ की बढाई करते नहीं थकता किन्तु बच्चो के लिए बनाये नियम सभी को बुरे और कड़े लगने लगते है । वैसे मेरा मानना है की इस मामले में भी बहुत सी सच्चाई सामने नहीं आई है दोनों में से किसी के भारत आने पर ही असली बात बाहर आएगी ।
आपने सही कहा। लेकिन अनुभवी अधिकारियों को धोखा देना उतना आसान नहीं जितना ऊपर से लगता है। हम लोग वहाँ नहीं थे, न ही हमें मामले की पूरी जानकारी है। आधी-अधूरी रिपोर्ट्स और एकपक्षीय बयानों के आधार पर अपनी राय बनाना भावुकता मात्र ही है। बिना कुछ जाने इस पूरे किस्से को भारत, भट्टाचार्य परिवार, सागरिका आदि के प्रति पक्षपात भर समझना एक बड़ी तस्वीर का केवल फ़्रेम देखने जैसा है। बाल-सुरक्षा के कानूनों के पीछे बाल-कल्याण का सदुद्देश्य है और ऐसे कड़े कानूनों की वजह से अगणित बच्चों का जीवन बर्बाद होने से बचाया जा सका है। खुशी की बात यह है कि बच्चे भारत वापस आ गये हैं। उनके सुखद भविष्य के लिये शुभकामनायें!
हटाएंइन सब में एक बात तो तय है की कुछ न कुछ बात तो है पति पत्नी के बीच में ... कुछ न कुछ तनाव तो है ... हो ससकता है बच्चों की दूरी ने ये तनाव और बढा दिया हो ... पर जो भी हो इस समस्या को जल्दी ही सुलझा के दोनों बच्चों को माँ को सौंपना जरूरी है अभी बच्चों और माँ दोनों के हित में ये ही सही है ...
जवाब देंहटाएंइस खबर से वाकिफ़ हूँ। नार्वे के हिसाब से यह ठीक हो सकता है पर भारत के हिसाब से यह नार्वे सरकार की खुलेआम गुण्डागर्दी है। किसी भी परिवार के नैसर्गिक अधिकार को छीनने का अधिकार किसी भी देश की सरकार को नहीं होना चाहिये। यह मामला इसी आधार पर अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में ले जाया जाना चाहिये। अपने बच्चों को पालने और उन्हें संस्कार देने का हमारा अपना नितांत निजी अधिकार है इसमें किसी का हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं है। निश्चित ही भट्टाचार्य परिवार जिस मानसिक त्रासदी से गुज़र रहा है उसकी कल्पना भी मुश्किल है। इस पूरे प्रकरण में सर्वाधिक यंत्रणा सागरिका को झेलनी पड़ रही है और सर्वाधिक क्षति बच्चों को।
जवाब देंहटाएंरश्मि जी,
जवाब देंहटाएंइस प्रकरण पर सबसे संतुलित लगी आपकी यह पोस्ट.आपकी और अंशुमाला जी की इस बात से बिल्कुल सहमत हूँ कि महिलाओं को बडी आसानी से पागल या मानसिक रोगी बता दिया जाता हैं.अब क्या करें हमारे समाज में महिलाओं की भूमिका ही ऐसी हैं कि न वो कोई शिकायत कर सकती हैं न अपना कोई हक जता सकती हैं बल्कि उसका काम पुरुषों के अहम को सहलाना ही होता हैं.लेकिन किसी बात की अति हो जाने पर वह कोई आवाज उठाए तो उसे मानसिक रोगी बता दिया जाता हैं क्योंकि पुरुष जानता हैं कि उसकी बात जायज हैं.
वहीं एक पारंपरिक सोच ये भी हैं कि पुरुष तार्किक होते हैं और महिलाएँ संवेदनशील यानी वो दिल से काम से काम लेती हैं और पुरुष दिमाग से(वैसे मैं इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं) लेकिन हमने तर्क को तो महत्तव दिया हैं पर संवेदनशीलता को कोई गुण ही नहीं माना जबकि इसका महत्तव कहीं ज्यादा हैं.और वैसे भी अगर हमारा दिमाग काम करना बंद कर दे तो भी हम किसी तरह जी तो लेंगे मानसिक रोगी होकर ही सही, लेकिन हमारे दिल ने दो सैकेंड के लिए भी धडकना बंद कर दिया तो हमारा अस्तित्व ही नहीं रहेगा.