आजकल जो कहानी लिख रही हूँ...उसका कथानक कुछ इतना गंभीर और दर्द भरा है कि पढ़ने वालों का मन भारी हो जा रहा है...फिर लिखनेवाले पर क्या गुजरती होगी...इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है. सोचा अपने कहानी लेखन को एक ब्रेक दे दूँ...वैसे भी जब जब फिल्म 'थ्री इडियट्स' देखती हूँ...अपने हॉस्टल में की गयी कुछ ऐसी ही शरारतें याद हो आती हैं. जबकि स्कूल-कॉलेज में मैं कोई शरारती -शैतान लड़की नहीं थी...अब इस ब्लॉग जगत में क्या इमेज है, पता नहीं. .जब कभी कोई कमेन्ट में 'झांसी की रानी' का तमगा दे जाता है .तो रुक कर एक बार सोचती हूँ..अच्छा तो ऐसा समझते हैं लोग...कोई नहीं..
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हॉस्टल में अकेले कभी कोई शरारत नहीं की..ना ही कभी सजा ही मिली...पर सामूहिक शरारतों का हिस्सा हमेशा ही रहती थी...और सामूहिक सजा भी भुगती है....पर अक्सर हम पकडे ही नहीं जाते 'थ्री इडियट्स' फिल्म में चोरी चोरी प्रिंसिपल के कमरे में घुसने का जो दृश्य है..ऐसा ही कुछ हमने भी किया था.
हम देखते कि रिजल्ट के पहले अक्सर हमारी चेक की हुई कॉपियाँ प्रिंसिपल के रूम में रखी जातीं. कभी किसी चपरासी को तो कभी किसी टीचर को कॉपियों का गट्ठर प्रिंसिपल के रूम में ले जाते देखते हम. स्कूल की छुट्टी हो जाने के बाद भी हम हॉस्टल में रहने वाली लडकियाँ स्कूल के बरामदे में टहलतीं रहती थीं और प्ले ग्राउंड में खेला करतीं . उस समय स्कूल के प्यून क्लास रूम के दरवाजे बंद कर रहे होते .एक दिन हमने देखा हमारा प्यून भोला..प्रिंसिपल का केबिन बंद कर रहा है. 'भोला'..हम हॉस्टल की लड़कियों के लिए बाज़ार से सामान लाने के लिए नियुक्त था. (हमें गेट के बाहर पैर भी रखने की इज्जाज़त नहीं थी ) लिहाजा भोला से हमारा हमेशा वास्ता पड़ता .सारी लडकियाँ उसे 'भोला जी' बुलातीं ..तब इतनी अक्कल नहीं थी..अब सोचती हूँ..जरूर बेचारा ब्लश कर जाता होगा..
हमने उस से कहा...हमें जरा प्रिंसिपल के रूम में जाकर कॉपियाँ देखने दे कि हमें कितने नंबर मिले हैं (अब रिजल्ट के पहले नंबर जान लेने का अलग ही थ्रिल होता है) .पर भोला ने सख्ती से मना कर दिया और कमरे में ताला लगा चला गया. हम भी मायूस हो लौट रहे थे कि पीछे से आकर उसने कहा...'एक दरवाजे की सिटकिनी उसने नहीं लगाई है...और दोनों पल्ले बस यूँ ही भिड़ा कर छोड़ दिया है.' पर उसने ताकीद की कि..शाम थोड़ी और गहरी हो जाए तब जाएँ और तुरंत निकल आए कोई गड़बड़ ना करें. (प्रिंसिपल का केबिन काफी बड़ा था और उसमे दो दरवाजे थे .एक दरवाजे की अंदर से सिटकनी लगाकर दूसरे दरवाजे पर बाहर से ताला लगा दिया जाता था )
हम छः सात लडकियाँ चोरी चोरी उस दरवाजे से अंदर गयीं और कॉपियाँ उलट-पुलट कर अपने अपने नंबर देखे...अपने नंबर बढ़ाने जैसा कोई ख्याल भी किसी को नहीं आया. (आजकल के बच्चे होते तो शायद ये भी कर गुजर गए होते ) वहाँ फोन रखा देख..अपने घर फोन करने के लालच पर काबू पाना भी मुश्किल था. पर अधिकाँश लोगो के यहाँ उन दिनों फोन नहीं था. मेरे यहाँ भी पापा के ऑफिस में ही था...जहाँ फोन करने की मेरी हिम्मत तो बिलकुल नहीं थी. इतने सवाल पूछे जाते कि सारा भेद खुल जाता. हमारी दो सीनियर उषा दी और लीना दी ने अपने अपने घर फोन किए..पर डर के मारे दो लाइन बात करके ही फोन रख दिया...फोन पकडे हुए उनके कांपते हाथ आज भी नज़रों के सामने हैं. 'थ्री इडियट्स' का ही एक और डायलॉग भी वहाँ फिट बैठता है...'जितना दुख अपने फेल होने का नहीं होता...उस से ज्यादा दुख अपने दोस्त के फर्स्ट आने पर होता है.' मेरे क्लास की वैदेही और मैं दोनों ही अंदर जाते वक्त बड़े उत्साहित थे...साथ साथ अपने क्लास की कॉपी ..ढूंढी ...पर बाहर निकलते वक्त वैदेही का मुहँ सूजा हुआ था...वो बात भी नहीं कर रही थी क्यूंकि उसके नंबर मुझसे कम आए थे.
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हमारे हॉस्टल के कैम्पस में फलों के भी ढेर सारे पेड़ थे...पीछे की तरफ एक लीची का भी पेड़ था...लाल लाल लीची हमें बड़े लुभाते पर मैट्रन दी की सख्त हिदायत थी...कोई लीची को हाथ भी नहीं लगाएगा..अभी खट्टी होगी...अच्छी तरह पक जाए तो तुडवा कर लड़कियों में भी बांटी जायेगी. एक चपरासी उसकी पहरेदारी के लिए भी तैनात था. पर हमें सब्र कहाँ...फिर एक रात मौका देखकर धावा बोला गया...और ढेर सारी लीची तोड़ कर हमने कमरे में छुपा दिए. दूसरे दिन मैट्रन दी ने बड़ा अफ़सोस किया..पता नहीं कौन तोड़ कर ले गया इस से अच्छा वो हम लड़कियों को ही तोड़ लेने देतीं. हम भी चेहरा लटकाए पर नीची नज़रें किए एक दूसरे को इशारे कर मुस्कराते रहे. उस खट्टी मीठी लीची जैसा स्वाद फिर नहीं मिला .
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एक बार पूनम की रात थी. पूरी सृष्टि ही चाँदनी से नहाई हुई थी. हमलोगों के कमरे के सामने फैले मैदान के हरे दूबों के सिरे चांदी से चमक रहे थे. मैं और सुधा देर रात तक पढ़ाई करने के बाद गप्पें मार रहे थे. हमारी नज़रें बार बार खिड़की से बाहर उस बिखरी चांदनी पर ठहर जातीं और हमने कहा..'चलो बाहर एक चक्कर लगा के आते हैं'. दरवाज़ा खोल हम निकल पड़े...थोड़ी देर झूले पे बैठे निरखते रहे इस छटा को..फिर हमने सोचा उस ठंढी घास पर थोड़ा टहला जाए....अभी एक चक्कर लगा...कमरे की तरफ आ ही रहे थे कि खट से मैट्रन के कमरे की बत्ती जल गयी....हम भाग कर दबे पाँव अपने कमरे में आ अपने अपने बिस्तर पर लेट गए. मैट्रन दी ने बाहर निकल दरबान को पुकारा. फिर दोनों लोग काफी देर तक फील्ड का मुआयन करते रहे.
दूसरे दिन हमें पता चला...हमारे टहलने से ओस से भीगी घास पर निशान बन गए थे...जिसकी तरफ हमारा ध्यान ही नहीं गया था. और मैट्रन , दरबान हैरान थे कि कौन आकर घास पर घूम रहा था. लड़कियों के बीच भूत का किस्सा भी खूब चला...कि जरूर भूत होंगे..कुछ लड़कियों ने तो दावा किया कि वे हर रोज़ सफ़ेद कपड़ों में घूमते हुए भूत को देखती हैं.
किस्से तो अभी भी कितने सारे याद आ रहे हैं....पर और किस्से फिर कभी...
jeevan ke rochak kisse
जवाब देंहटाएं@ स्कूल-कॉलेज में मैं कोई शरारती-शैतान लड़की नहीं थी।
जवाब देंहटाएंअविश्वसनीय! चेहरे से तो शैतान की परनानी लगती हो! हाँ! सफाई देने में माहिर हो ..यह बात मानी जा सकती है। बहरहाल मज़ा आ गया, आनन्दम..आनन्दम...आनन्दम....
ओह!! तो मेरे परनाती का नाम भी डिसाइड हो गया.."शैतान " :):)
हटाएंओये ...मनु , फिर से झांसी की रानी :)
जवाब देंहटाएंचलो हम ही कमेन्ट बदले दें अबकी ...
झांसे की रानी से बेहतर झांसी की रानी या फिर झांसी की रानी ने झांसे से बेचारे भोला को जी कहकर फांसा :)
वैदेही का मुंह सूजा इसलिए कि उस बेचारी को पहले से पता था कि रश्मि एक दिन ये बात सबको बता देगी :)
पहले तो ये 'मनु' का संबोधन समझ नहीं आया...
हटाएंफिर ध्यान आया..ओह! ये तो 'लक्ष्मी बाई' के बचपन का नाम था ..
यानि कि आपने ठप्पा ही लगा दिया इस नाम पर ..हा हा पर हम शिकायत नहीं कर रहे..:)
स्कूल-कालेज के क्या-क्या दिन याद दिला दिए इस पोस्ट ने...
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जय हिंद...
.फिर लिखनेवाले पर क्या गुजरती होगी.......................ओह!! हाय,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,आजकल जरा खुद अमरीका आया हूँ..जरा सहज हो जाऊँ इन सर्व्वोचों के संग...फिर तक का समय दो तो पढ़ेंगे यह लिखने वाली की व्यथा भी...अभी तो बताने आये थे कि तुम याद तो हो ही मुझे!! :)
जवाब देंहटाएंआपने बताया था समीर जी..आपकी व्यस्तता समझ सकती हूँ...
हटाएंकोई नहीं..आराम से पढ़िए
पर ये वाली पोस्ट पढ़ी या नहीं..:):)
अहा, हॉस्टल की यादें ताजा कर गयी आपकी पोस्ट..
जवाब देंहटाएंहॉस्टल में तो कभी रहा नहीं.. लेकिन शायद अगले दो महीनों बाद रहने का अवसर मिले.. गर्ल्स हॉस्टल को अक्सर जेलखाना कहते अपने दोस्तों से सुना है.. लेकिन उनके कैदियों की शरारतें पहली बार देख सुन रहा हूँ.. :)
जवाब देंहटाएंschool, college aur hostel ke din hote hi itne yaadgar hai ki bhulaye hi nahi ja sakte...kabhi bhi yaad aa jate hai aur chahre par muskurahat aa jati hai :)
जवाब देंहटाएंकहानी से ब्रेक अच्छा लगा .
जवाब देंहटाएंहॉस्टल की शरारतें याद कर अक्सर हंसी भी आती है और ये भी लगता है -- कैसी कैसी नादानी करते थे .
मज़ेदार रहे सब संस्मरण .
वाकई स्कूल और कॉलेज के दिन की तो बात ही कुछ और होती है जब भी याद आटें हैं एक मोहक सी मुस्कान बिखर जाती हैं होंटों पर आपकी इस पोस्ट से भी वही हुआ :)आभारसमय मिले कभी तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है http://mhare-anubhav.blogspot.co.uk/
जवाब देंहटाएंThank God!!..:)
जवाब देंहटाएंखट्टी मीठी लीची की मुस्कान अपने चेहरे पर भी आ गई ... ब्रेक बनता था .
जवाब देंहटाएंहाँ ये ब्रेक अच्छा रहा..और किस्से मस्त..
जवाब देंहटाएंआप कमाल हैं दीदी..इतनी बदमाशियां करती थीं आप लोग मिलकर...
आपसे अच्छे तो हम लोग थे :D
हास्टल के दिन भी क्या दिन होते हैं .... !!!
जवाब देंहटाएंमजा आया आपकी हॉस्टल से जुड़ी यादें पढ़कर। अगर लड़कों के हॉस्टल की तुलना में देखा जाए तो ये सब सभ्य शरारतें हैं। हम चाहें भी तो उन दिनों का किस्सा बयाँ नहीं कर सकते। एक बार इंजीनियरिंग कॉलेज की छुट्टियों में वापस आकर बहनों को कुछ ऐसी घटनाओं की थोड़ी बहुत जानकारी दे रहे थे तो पिताजी के कान में भी कुछ बातें पड़ गयीं। फिर तो उन्होंने हमारे जीजाजी से जो ख़ुद एक इंजीनियर से हमारे गलत सोहबत में बिगड़ने की आशंका ज़ाहिर की। जीजाजी का जवाब था निश्चिंत रहें लड़्का सही रास्ते पर जा रहा है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी तरह अंदाज़ा है...आप लडकों की शरारतों का...:)
हटाएंअभिषेक से कहने ही वाली थी..कितने शरीफ थे आपलोग मालूम है..हमें :)
कभी होस्टल में नहीं रहा.. इसलिए जब भी अपने किसी दोस्त से या फिल्मों में ये सब देखता हूँ तो मेरा मुँह भी सूज जाता है (वैदेही से भी ज़्यादा) कि मेरे पास सुनाने को कुछ नहीं..!! मजेदार वाकये.. वे दिन याद करके आज भी हँसी आ जाती होगी!!
जवाब देंहटाएंकॉलेज के दिनों की याद ताज़ा कर दी. कॉलेज के दिनों की याद भी अब तभी आती है जब कुछ दोस्त या सहेलियां साथ मिल बैठें. उसके बाद ही किस्सों की पोटली खुलती है. मजेदार पोस्ट मन हल्का करने के लिये सर्वोत्तम है.
जवाब देंहटाएंkahani se break bada rochak raha... kuch aur kisse sunaiye..
जवाब देंहटाएंरोचक विवरण ..... खट्टी मीठी स्मृतियों भरे दिन....
जवाब देंहटाएंहॉस्टल और कॉलेज के दिनों की यादें और शरारतें लुभावनी होती ही हैं , कुछ कडवी यादों के साथ भी !
जवाब देंहटाएंसीधे -सादे दिखने वाले जब शरारतें करते हैं तो भयंकर ही करते हैं :)
गंभीर कहानी के बीच यह हल्का फुल्का ब्रेक भी अच्छा लगा ...
सुन्दर संस्मरण्।
जवाब देंहटाएंहोस्टल कभी रहा नहीं ...पर कई बार कई अनुभव पढ़ के लगता है जीवन की सबसे बड़ी गलती हो गयी ... कोई न कोई झांसी की रानी तो नज़र आ ही जाती ...
जवाब देंहटाएंवाह ...कितनी रोचकता है इसमें ... बहुत बढि़या।
जवाब देंहटाएं:-)
जवाब देंहटाएंमुझे कभी मौका नहीं मिला हॉस्टल में रहने का...........
काश...........
चलिए आपके अनुभव से ही खुश हो लें....
-अनु
पुरानी बातो को याद करके मन को गुदगुदा लेने का अपना ही मज़ा है, आपके ब्लॉग के बहाने हमें अपना भी बचपन याद आ गया,
जवाब देंहटाएंधन्यवाद,
सूर्या
बहुत दिनों बाद ब्लाग पर आना हुआ है। ढेर सारी पोस्ट पढ़ने को पड़ी है, उन्हें ही टटोल रही हूँ। इतने में ही आपकी पोस्ट पर नजर गयी। देखते ही पढ़ डाला। हॉस्टल के किस्से नयी ताजगी दे गए। इन्हें जारी रखे। कभी बचपन को भी याद करना बड़ा अच्छा लगता है। आपकी कहानी इतनी दर्दभरी है कि उसे पढ़ना मेरे जैसे के बस का नहीं है। इसलिए क्षमा चाहती हूँ।
जवाब देंहटाएंएक तो ऐसे ही गर्मियों में हॉस्टल बहुत याद आता है, ऊपर से याद बहुत पुरानी तो हो तो और अधिक।
जवाब देंहटाएंतिस पर आप ऐसा लिख देतीं हैं।
अच्छा है, कहानी पढने के लिए बैठ नहीं पा रहा एक-मुश्त, पर इसका लोभ संवरण नहीं हुआ।
उफ़! कितने टिकोरे, कितना महुआ-जामुन, और कितनी लू। :)
आभार आज बहुत गहरा है, रख लीजिये। :)
काश ! हम भी हॉस्टल में रहते...:P मज़ेदार पोस्ट...आपको देख कर लगता नहीं कि आप इतनी बदमाश रही होंगी...:D :P
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