शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

हंगामा है क्यूँ बरपा...बस एक फिल्म ही तो है ,"आरक्षण"


पिछले कुछ दिन...सबकी तरह हमारे भी बहुत ही व्यस्त रहे....बड़े करीब से जनतंत्र की धड़कन  सुनने को मिली. आगे क्या होगा...ये तो किसी को नहीं पता...पर लोगों को अपने अंतर की आवाज़ का अहसास तो हुआ..कि वो आज भी जिंदा है...बुलंद है...और  ग्लास हाउस में रहने वालों को सुनने के लिए मजबूर कर सकती है.

स्कूल के दिनों में ही ये पंक्तियाँ लिखी थीं....काश!!  इस बार ये सच ना हों

तूफ़ान तो आया  बड़े  जोरों  का,  लगा  बदलेगा  ढांचा
मगर चंद  पोस्टर,जुलूस और नारों के सिवा क्या हुआ

हर मुहँ को रोटी,हर तन को कपडे,वादा तो यही था
दि
ल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ


इस बीच, मौका लगा तो फिल्म,'आरक्षण' भी देख डाली. काफी विवाद हुए, हैं, इस फिल्म को लेकर....ब्लॉग पर पोस्ट्स भी जरूर लिखी गयीं होंगी..पर कुछ घरेलू व्यस्तताओं की वजह से, ना तो मैं ब्लॉग पर इस फिल्म के विषय में कुछ पढ़ पायी ना ही..अखबारों में. अच्छा ही हुआ...मेरे ऊपर कोई विचार हावी नहीं हो पाए. 

पर मेरी समझ में नहीं आया...इतना हंगामा किस बात पर??...'आरक्षण' हमारी दुनिया का सच तो है ही...क्यूँ है??...होना चाहिए?? ..नहीं होना चाहिए??..इस पर सबके दीगर विचार हैं और इस फिल्म में अलग-अलग पात्रों ने ..इन्ही विचारों को स्वर दिया है,बस इतना ही.
 ये सारे मुद्दे हमारे समाज में विद्यमान हैं...और इन पर खूब  बहसें भी होती हैं... प्रकाश झा ने बड़ी कुशलता से इन सारे मुद्दों की एक झलक इस फिल्म में दे दी है. पूरी फिल्म, इसी मुद्दे पर आधारित नहीं है. लेकिन अपनी तरफ ध्यान आकृष्ट कर सोचने को जरूर मजबूर करती है.

फिल्म वही बरसो पुराने  बॉलिवुड फौर्मुले....."बुराई पर अच्छाई की जीत" पर आधारित है. और इसे दर्शाने का माध्यम चुना गया है..मशरूम की तरह उगते कोचिंग क्लासेज़ को. एक मोटी रकम लेकर ये कोचिंग क्लासेज़ बच्चों और उनके अभिभावकों के मन में एक सुनहरे भविष्य का ख्वाब बो देते हैं और इसी की वजह से कॉलेज में अध्यापक पढ़ाते नहीं. 
पिछड़े वर्ग के कमजोर विद्यार्थियों का पक्ष लेने के आरोप में एक कॉलेज के प्रिंसिपल 'अमिताभ बच्चन, को अपने पद से इस्तीफ़ा देना पड़ता है. विलेन बने 'मनोज बाजपेई ' अब नए प्रिंसिपल हैं और बिलकुल फ़िल्मी स्टाईल में धोखा देकर... अमिताभ के घर में ही अपना कोचिंग इंस्टीच्यूट चलाते हैं.( एक ही शहर में रहते हुए ये प्रिंसिपल साहब को पता नहीं चलता, आश्चर्य का विषय है. :)) 



प्रिंसिपल का बंगला छोड़ने के बाद,अमिताभ अपने परिवार के साथ एक तबेले में जाकर आस-पास के गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने लगते हैं. इसकी प्रेरणा अवश्य ही "पटना ' के सुपर थर्टी क्लासेज़ से ली गयी है. यहाँ तक कि नाम भी 'सुपर तबेला' क्लासेज़ रखा गया है. 



शायद लोगों को इस सुपर थर्टी क्लासेज़ के बारे में पता होगा...



पटना में  'आनंद कुमार'   नामक एक सज्जन ने 2002 में एक कोचिंग क्लास की स्थापना की, जिसमे गरीब वर्ग के ३० मेधावी बच्चों को वे चुनते हैं. 
सुपर थर्टी के आनंद कुमार  

और फिर उन्हें मुफ्त में रहने, खाने  और पढ़ने की सुविधा प्रदान करते हैं. आनंद कुमार   की माँ 'जयंती देवी' इन सब बच्चों के लिए खाना बनाती हैं. ये सारे बच्चे मजदूरों के..खोमचे वालों के..रिक्शा खींचने वालों के बच्चे हैं. 2002 में जब उन्होंने इस कोचिंग संस्थान की शुरुआत की थी, तब से अब तक 242 छात्र आई.आई.टी. की परीक्षा में सफल रहे हैं. 2008 से पूरे तीस  के तीस  बच्चे आई.आई .टी. की  परीक्षा में सफल आते रहे हैं. 



2003 से 2006 तक छात्र, आनंद कुमार के घर के पास एक टीन के शेड में पढ़ते थे, इसके बाद उन्होंने अपने स्कूल में उन्हें शिफ्ट कर दिया जहाँ वे इन बच्चों के ऊपर आने वाले खर्च को पूरा करने के लिए अपेक्षाकृत संपन्न बच्चों को कोचिंग देते हैं. 

आनंद कुमार, एक जाने-माने गणितज्ञ  हैं...उनके पेपर्स कई अंतर्राष्ट्रीय जर्नल्स में प्रकाशित हो चुके हैं. 1994 में उन्हें कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी से 'रिसर्च' का ऑफर आया था. पर पैसों की कमी की वजह से वे नहीं जा सके. और उसके बाद से ही उन्होंने संकल्प कर लिया कि वे कुछ ऐसा करेंगे कि पैसे के अभाव में गरीब मेधावी बच्चे उच्च शिक्षा से वंचित ना हों और उन्होंने 'सुपर थर्टी' की परिकल्पना कर ली. पर सरकार से और बड़े बड़े उद्योगपतियों से मिली मदद की पेशकश  को उन्होंने ठुकरा दिया है.
इस कोचिंग क्लास को Times Magazine ने  " Best of  Asia 2010 "चुना है.

( किसी विदेशी फिल्म मेकर द्वारा सुपर थर्टी पर बनाई गयी documentary   भी देखी थी..जिसमे उस टिन शेड के आस-पास बेतरह गन्दगी बिखरी पड़ी थी...और होस्टल में दो बच्चे अपनी अपनी किताब खोले पढ़ रहे थे. बीच में एक कटोरी में भुने चने रखे थे...जिसे दोनों बीच-बीच में खा रहे थे..)

अमिताभ बच्चन भी इसी तर्ज़ पर सैफ अली खान, प्रतीक बब्बर और अपनी बेटी के साथ मिलकर बच्चों को मुफ्त कोचिंग देते हैं. बच्चों के अच्छे रिजल्ट देखकर 'मनोज बाजपेई' की कोचिंग क्लास से भी सारे बच्चे 'सुपर तबेला ' क्लासेज़ का रुख कर लेते हैं. अब कुछ नेताओं के साथ मिलकर इस तबेले को तुडवा कर एक सरकारी गोदाम बनवाने की साजिश की जाती है. 

और आजकल देश की सड़कों पर जो दृश्य देखे जा रहे हैं...वे ही परदे पर साकार हो रहे थे. हज़ारों की तादाद में लोग निहत्थे बुलडोज़र के सामने खड़े हो जाते हैं. इस विशाल जनमानस को देख, नेता-व्यवसायी-भ्रष्ट प्रिंसिपल का नेक्सस बेबस हो जाता है. और तभी कॉलेज कि ट्रस्टी हेमा मालिनी अवतरित होती हैं और सबकुछ ठीक हो जाता है.

परन्तु अगर प्रकाश झा, कोचिंग क्लास की पढ़ाई की तुलना में कॉलेज में दी जाने वाली शिक्षा की श्रेष्ठता साबित करते...तो समाज की असली भलाई होती पर वे एक फिल्म बना रहे थे...जिसे सफल बनाने के लिए बहुत सारे कम्प्रोमाइज़ करने पड़ते हैं. फिल्म के दिखाए जाने वाले प्रोमोज में भी बस आरक्षण से सम्बंधित दृश्य ही बार-बार दिखाए 
जा रहे हैं..

फिल्म कई जगह बेहद संवेदनशील हो जाती है और दर्शकों का मन द्रवित कर जाती है.

अमिताभ बच्चन के अभिनय की प्रशंसा के लिए अब शब्द मिलने मुश्किल हैं...पिछड़ी जाति के सैफ अली खान...को जिसे बचपन से उन्होंने सहारा दिया था,उच्च शिक्षा लिए अमेरिका भी भेजा...उसे जब कॉलेज का अनुशासन भंग करने के लिए डांट कर गेट आउट कहते हैं...तो गुस्से से भरा चेहरा पल भर में असीम दर्द में तब्दील हो जाता है...कॉलेज छोड़ते समय पलट कर उस कॉलेज को देखना... सारे भाव बिना एक शब्द बोले ही व्यक्त हो जाते हैं. 

दीपिका आजकल के युवा बच्चों की तरह..अपने आदर्शवादी पिता को बहुत कुछ कह जाती हैं कि उन्होंने विश्वास कर घर अपने दोस्त के बच्चों को दे दिया...और अब बेघर हो गए. उसे एक ग्रेस मार्क नहीं लेने  दिया..और वो मेडिकल में जाने से वंचित रह गयी...पर बाद में पछताते हुए वो जब पीछे से अमिताभ को जकड़ कर रोती है तो हॉल में कई आँखें गीली हो जाती हैं.



'आरक्षण' के विषय पर सैफ और दीपिका में दूरी आ जाती है...तो  दोनों के उदास चेहरे ...अँधेरा...बारिश और बैकग्राउंड में बजता गीत..हॉल में सन्नाटा  सा ला देते हैं.


एक और बड़ा प्यारा सा दृश्य है फिल्म ,का..जहाँ अमिताभ सुबह चार बजे उठ कर कुछ बच्चियों को रिविज़न करवाने जाते हैं...कमरे में एक तरफ पिता सोए हुए हैं.....जिस तख़्त पर माँ सो रही हैं..उसी पर एक किनारे अमिताभ बैठ कर उन  बच्चियों को पढ़ाते  हैं. (मैने तो नहीं देखा...पर अपने गाँव के एक शिक्षक के बारे में सुना है वे यूँ ही चार बजे उठ जाते थे और बोर्ड के इम्तिहान की तैयारी करनेवाले बच्चों के घर का चक्कर लगाते थे और खिड़की से आती हुई आवाज़ से अंदाजा लगाते थे कि वे बच्चे पढ़ रहे हैं या नहीं..जिस घर की खिड़की से आवाज़ नहीं आई फिर तो वे नहीं...उनकी छड़ी बोलती थी )



अमिताभ की पत्नी के रूप में तन्वी आज़मी और बेटी के रूप में दीपिका 

पादुकोणे का अभिनय बहुत ही सहज है. सैफ ऐसे intense role  में 

अच्छे लगते हैं और अच्छा निभाया है उन्होंने. सम्पान घर के युवा..छात्र प्रतीक बब्बर के रोल पर ज्यादा मेहनत नहीं की गयी हैं. मनोज बाजपेयी ने तो भ्रष्ट प्रिंसिपल का रोल कुछ ऐसे निभाया है...कि दर्शक नफरत करने लगें उनसे. 

निर्देशन अच्छा है....पर स्क्रिप्ट थोड़ी ढीली है...इंटरवल के बाद फिल्म  धीमी हो जाती  है. इस फिल्म में गीत -संगीत की ज्यादा गुंजाईश नहीं थी..पर 'मौका..मौका...गीत होठों पर चढ़ने वाला है. 

28 टिप्‍पणियां:

  1. अमिताभ व आनन्द दोनों महान है।
    फ़िल्म भी देखनी है अभी।

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  2. हम्म देखी मैंने भी ...सहमत ..ऐसी ही लगी ...

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  3. तूफ़ान तो आया बड़े जोरों का लगा बदलेगा ढांचा
    मगर चंद पोस्टर,जुलूस और नारों के सिवा क्या हुआ

    --काश कि ये सच न हो इस बार!!


    फिल्म देखना बाकी है ...सुपर ३० के बारे में बहुत सुना...

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  4. फिल्म तो नहीं देखी है किन्तु प्रकाश जहा की फिल्मो की प्रसंसक हूं राजनितिक विषयों पर उनकी पकड़ बहुत अच्छी है | और सुपर थर्टी के बारे में तो आज सभी जानते है |

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  5. फिल्म के बारे में देखने के बाद ही कहूँगा.. आराम से देखता हूँ फ़िल्में.. सुपर थर्टी के पार्श्वा में बस यही कहना चाहूँगा कि जब मैं पहली बार कलकत्ता गया और जब मुझसे मेरी क्वालिफिकेशन पूछी गई, तो मैंने ईमानदारी से अपनी सारी डिग्रियां बता दीं.. सुनने वालेको कोइ खुशी नहीं हुई और उनकी प्रतिक्रया यही थी कि बिहार में चोरी से इम्तिहान पास किये जाते हैं और पैसे से डिग्रियां मिलती हैं.. कालान्तर में सच साबित हुआ..
    सुपर थर्टी ने वो कर दिखाया जिसे असंभव कहा जा सकता है और सच पूछिए तो नेपोलियन ने तो सिर्फ कहा था आनंद जी ने कर दिखाया कि असंभव शब्द मूर्खों के शब्दकोश में पाया जाता है!!
    हर बार की तरह गहन विश्लेषण!!!

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  6. फिल्म देखी है ...प्रकाश झा जितना खुलकर किसी विषय पर फिल्म बनाते हैं वो आरक्षण के साथ नहीं कर पाए..... अच्छी समीक्षा ...मुझे भी ऐसा ही लगा

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  7. फ़िल्म तो हम भी अभी तक देख नहीं पाये हैं, जल्दी ही देखते हैं। बस फ़िल्म को फ़िल्म की तरह देखना चाहिये।

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  8. आरक्षण पर बवाल ज्यादातर इंटेशनल करवाया गया लगा। राजनीतिक दलों को कुछ तो अपनी बात कहनी थी सो बवाल हो गया। बाकि फिल्म का लेटर हाफ आरक्षण की बजाय कोचिंग सिस्टम पर केन्द्रित हो गया जिसे कि प्रोमों में कहीं जाहिर नहीं किया गया। भावुकता वाले कुछ क्षण फिल्म में बहुत अच्छे से फिल्माये गये हैं। विशेषत: जब विपरीत परिस्थितियों में सैफ का फोन दीपिका के पास आता है..... दीपिका जब पीछे से अमिताभ को भावुक हो जकड़ लेती है.....एक ब्राईट स्टूडेंट की फीस जुटाने के लिये अमिताभ की जद्दोजहद.....दूधवाले की बेटी के अच्छे नंबर आने पर उसके प्रिंसिपल का तबेले में आकर अमिताभ से मिलना....काफी अच्छे दृश्य हैं जिनका कि कहीं फिल्म क्रिटिक्स ने जिक्र नहीं किया न किसी अखबार में न किसी इंटरव्यू में। जबकि मेरे ख्याल से ये फिल्म के बेहद सशक्त हिस्से थे।

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  9. फ़िल्म नहीं देखी थी। आज देख ली (आपकी समीक्षा का इंतज़ार रहता है। इसे पढ़ना और फ़िल्म देखना मेरे लिए दोनों एक समान है)।

    आरक्षण के मुद्दे पर कुछ नहीं बोल सकता। मुझे इस विषय पर जो कहना था “फ़ुरसत में ... बूट पॉलिश” के ज़रिए कह चुका हूं। जिसे आपने पढ़ा है। सो आपको कम से कम मेरे विचार मालूम हैं।

    सुपर थर्टी एक आन्दोलन है। सफल आन्दोलन है।

    इस विषय पर एक संस्मरण शेयर कर लूं ?

    यूपीएससी के साक्षात्कार में एक एंग्लोइंडियन महिला जो नौर्थ इस्ट से थीं हमारे बोर्ड की चेयरमैन थीं और उनसे इस बिहारी का पाला पड़ गया। जब उन्होंने अपने उच्चारण में थाज महाल के बारे में पूछा तो मुझे समझने में पांच बार पार्डन मैम बोलना पड़ा और तब उन्होंने कहा आर यू फ़्रोम बिहार? मेरे स्वीकार करने के बाद उन्होंने ऐसा मुंह बिचकाया कि जैसे बिहार से होना मेरी ग़लती हो। बगल वाले को इशारा किया कि तुमही इससे पूछो। तीस प्रतिशत से भी कम अंक दिए। वो तो लिखित परीक्षा के अंक इतने थे कि चुन लिया गया, वरना उन्होंने कोई कसर न छोड़ी थी ...! आज सुपर थर्टी के माध्यम से तीस के तीस छात्र जो ग़रीब तबके के हैं चुने जा रहे हैं एक टॉप लेवेल के इम्तहान में तो सच में दिल से ख़ुशी होती है।

    आभार आपका इस हृदयस्पर्शी पोस्ट के लिए।

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  10. आरक्षण पर आपकी समीक्षा का इंतजार था। लेकिन यह आपने नहीं लिखा कि देखने लायक है या नहीं। वैसे प्रकाश झा की "राजनीति" देखी थी, बहुत निराश किया था। राजनीति के नाम पर उस फिल्‍म में गेंगवार थी ऐसे ही मुझे लगता है कि आरक्षण के नाम पर कोचिंग कक्षाओं का मामला है। प्रसिद्धि पाने के लिए ही इस नाम का उपयोग किया गया है।

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  11. ये फिल्म नहीं देख पाया अब तक तो कुछ कह नहीं सकता। हाँ हर सच्चाई की तरह सुपर 30 की भी अपनी सच्चाई है :)

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  12. वही बात.......

    लगता है फिल्म देखनी पड़ेगी.... वैसे मैं खारिज कर के बैठा था.

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  13. फिल्म अच्छी है और समीक्षा भी.. कई स्थान पर अतिनाटकीयता हो गई है.. कुल मिला कर देखने लायक फिल्म तो है ही... सुपर थर्टी एक हकीकत है जो असंभव सा लगता है...

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  14. सुपर थर्टी के बारे में कई बार पढ़ा है , हाल ही में कोई अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला है या नामित हुए हैं ...
    फिल्म की कहानी बेटी ने सुनायी थी , यहाँ पढना और अच्छा लगा ! फिल्म देखने की इच्छा होने लगी है !

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  15. बढिया समीक्षा है रश्मि. इस फिल्म को देखने का मन इसके रिलीज़ के पहले से बनाये हूं, अब और भी बन गया :)

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  16. तूफ़ान तो आया बड़े जोरों का, लगा बदलेगा ढांचा
    मगर चंद पोस्टर,जुलूस और नारों के सिवा क्या हुआ |
    हर मुहँ को रोटी,हर तन को कपडे,वादा तो यही था
    दिल्ली जाकर जाने उनकी याददाश्त को क्या हुआ |
    आपकि इस शायरी ने हर सवाल के जवाब को थम सा लिया दोस्त जी अब तो बस इंतज़ार है ये देखने का कि आगे इसका अंजाम क्या होगा |

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  17. पोस्‍ट की बेतरतीब प्रस्‍तुति content का मजा कम कर रही है, शायद HTML पर edit करना होगा.

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  18. रश्मि जी, फ़िल्म देखकर ऐन यही बात अपने ज़ेहन में आई थी...
    ’हंगामा है क्यूं बरपा’ :)

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  19. 'आरक्षण' फिल्म पर एक बेहतरीन नजरिया प्रस्तुत किया आपने। फिल्म में दो-चार झोल है, मगर फिल्म बनाने वालों की नेक नीयत की तारीफ की जानी चाहिए। मुझे कई दिन से लग रहा था कि आप इस फिल्म पर जरूर कुछ लिखेंगी।
    वैसे सही बात है, हंगामा है क्यूं बरपा।

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  20. सुपर थर्टी के बारे में बहुत सुना है...समीक्षा पढ़ने के बाद फिल्म देखते हैं अब..

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  21. फिल्म देखी कल रात, और कम से कम नाम बिलकुल पसंद नहीं आया। पूरी फिल्म देख के लगा, इस फिल्म का नाम कम से कम 'आरक्षण' तो नहीं ही होना चाहिए।
    हाँ! कुछ दृश्य वाकई अच्छे बन पड़े हैं पर खैर, जैसा कि आपने भी कहा है, एक फिल्म ही तो है। अपेक्षाएं नहीं लगायीं जाएँ तो देखी जा सकती है आराम से।
    सुपर थर्टी के बारे में अपनी राय सुरक्षित रखूँगा, जैसे कि अभिषेक जी कहते है "हर सच्चाई की तरह सुपर 30 की भी अपनी सच्चाई है"

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  22. आनंद कुमार की सफलता में आईपीएस अफसर अभयानंद का भी बड़ा योगदान रहा है...इस वक्त बिहार के एडीजी अभयानंद फिजीक्स में महाय्रत रखते हैं...तीन साल पहले वो सुपर थर्टी से अलग हुए...अभयानंद ने ये फैसला इस प्रयोग को ज़्यादा बड़ा सामाजिक परिवेश देने के लिए किया...मुस्लिमों में तालीम के मामले में बच्चों को पिछड़ा देखते हुए अभयानंद अब रहमानी थ्रटी के नाम से कोचिंग दे रहे हैं...इस साल आईआईटी के लिए उनके पंद्रह छात्रों में से तीन सफल हो पाए...लेकिन शुरुआत में इतना भी कम नहीं है...

    सैल्यूट टू आनंद कुमार और अभयानंद...

    जय हिंद...

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  23. यह फिल्म देखने की बड़ी इच्छा है ! अमिताभ का अभिनय तो बेमिसाल होता ही है कहानी का कंटेंट बहुत आकर्षक लग रहा है इसलिए उत्सुकता अधिक है !

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  24. कल भी आई थी आपकी ये बेहतरीन फिल्म समीक्षा पढ़ गई थी
    बस टिप्पणी से पहले ही उठना पड़ गया ...
    आपके विवरण से तो फिल्म देखने का मन हो रहा है
    पर मेरे लिए तो ये संभव नहीं ...
    खैर आप गज़ब की समीक्षा करती हैं
    बिलकुल फिल्म समीक्षों की तरह
    आपने फिल्म के एक-एक पहलू पर गौर किया है
    सतीश पंचम जी ने कुछ और खुलासा किया
    आभार .....!!

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  25. कुल मिला कर फिल्म अपने को बहुत पसंद आई ... अमिताभ ने नए आयाम फिर से छुवे हैं इस फिल्म में .. फिल्म का राजनीतिकरण क्यों हुवा पता नहीं ...

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  26. तूफ़ान तो आया बड़े जोरों का, लगा बदलेगा ढांचा
    मगर चंद पोस्टर,जुलूस और नारों के सिवा क्या हुआ
    यथार्थ तो यही है ...
    फिल्म और आरक्षण पर एक गंभीर विमर्श!

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  27. पता नहीं क्यों राजनीति और आरक्षण, दोनों ही फिल्मों में अंत में प्रकाश झा ने बेकार का कुछ ज्यादा ही मसाला डाल दिया...
    आरक्षण ने तो सेकण्ड हाफ में अपना ट्रैक ही चेंज कर लिया...मुझे फिल्म कुछ एक कारणों से कुछ ज्यादा पसंद नहीं आई..हाँ सबने अभिनय बहुत अच्छा किया...

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