शनिवार, 6 अगस्त 2011

इक था बचपन...बचपन के प्यारे से दोस्त भी थे...

ब्लॉग ,गुजरे लम्हों को याद करने का एक बहाना सा बन गया है...सारे संस्मरण गुजरी यादों के सागर ही तो हैं....जिनमे डूबना-उतराना मुझे कुछ ज्यादा ही भाता है.


जब फिल्मो से जुड़े संसमरण लिख रही थी...उसी समय सोच लिया था...इसी तर्ज़ पर ..अपने दोस्तों...विद्यालयों  और किताबों से जुड़े संस्मरण भी लिखूंगी...और  'फ्रेंडशिप  डे' से उपयुक्त और कौन सा अवसर हो सकता है...दोस्तों पर लिखने का...
वैसे , इस तरह की पोस्ट लिखने की प्रेरणा 'अभिषेक 'के ब्लॉग से मिली...उसने जितनी अच्छी तरह अपने दोस्तों के बारे में लिखा है...मुझे संदेह है कि मैं उतना अच्छा लिख पाउंगी..पर कोशिश से क्यूँ बाज़ आऊं :)


 मेरी प्रारम्भिक शिक्षा 'रांची' में हुई. 'चिल्ड्रेन्स  एकेडमी' में एडमिशन हुआ था...उन दिनों 'जूनियर के.जी.', 'सीनियर के.जी'. नहीं..'के.जी वन', 'के जी टू' होते थे...इसलिए याद है क्यूंकि  अपनी मौसी -मामा को ऊँची कक्षाओं में और कॉलेज में देख मैं बड़ी निराश होकर कहती.."हम तो अभी के जी.टुइए में हैं..." और इस बात को कई बार दुहराया जाता.
 तब शायद मैं 'के जी टुइए' में थी..तभी एक दोस्त बनी.."मसूदा' सिर्फ नाम ही याद है...चेहरा बिलकुल भी नहीं याद. :( एक बार मैं बुखार के कारण स्कूल नहीं गयी थी...और मसूदा ने चार लाइन  वाली नोटबुक से पेज निकाल दो पंक्ति की एक  चिट्ठी लिखी थी..."डियर रश्मि...हाउ आर यू ..मसूदा " इतने में ही पेज भर गया था. :) और अपने चपरासी के हाथों वो चिट्ठी भेजी...पूरे घर भर में वो चिट्ठी हाथो- हाथ घूमती रही..नाना-मामा-मौसी सब हंस-हंस कर पढ़ते रहे...और सबसे चर्चा करते रहे. और मुझे उनकी ये हरकत बहुत ही अजीब लगी थी( नागवार भी गुजरी  थी) ...कि मेरे नाम की चिट्ठी की इतनी  चर्चा क्यूँ हो रही है...जबकि मेरी मौसी अपने पास में रहने वाली सहेली  को रोज ही कुछ ना कुछ लिखकर मेरे हाथो भेजती थी..'ये किताब भेज दो..तो  वो नोट्स भेज दो..'तब तो उनकी चिट्ठी कोई नहीं पढता...तब नहीं पता था कि ..तीन-चार साल के बच्चों का यूँ आपस में लेटर भेजना बड़ा अटपटा लगा होगा.

मसूदा के पिता का ट्रांसफर हो गया और वो स्कूल छोड़ चली गयी....इसके बाद एक फ्रेंड याद है, 'विनीता' . उस से ज्यादा उसके 'सेंटेड रबर' याद हैं...उसके इरेज़र के किनारे हरे रंग के और सुगन्धित होते थे...और उसकी नज़र बचा मैं उसे सूंघ लिया करती थी...शायद घर पर कभी फरमाईश नहीं की होगी..वर्ना ननिहाल में पूरी कर ही दी जाती..पर नानी ने इतनी  उपदेशात्मक कहानियाँ सुना-सुना कर जैसे ब्रेन वाश ही कर दिया था कि...किसी की नक़ल..बराबरी नहीं करनी चाहिए...ये ..वो..पता नहीं..क्या क्या जिंदगी में नहीं करना चाहिए (हाय!! आज के बच्चे.. ना तो  नानियों को सीरियल देखने से फुरसत  है कि वे कहानियाँ सुनाएँ....ना ही बच्चों को अपने होमवर्क और कार्टून नेटवर्क से कि वे कहानियाँ सुनें ) 

एक बार मेरी मौसी ने मुझे एक सुन्दर सी गुड़िया बना कर दी थी...जरी की साड़ी में लम्बे बालों वाली गहनों से सजी गुड़िया. मैं उसे अपने छोटे से स्टील के बक्से में छुपा, स्कूल ले गयी थी... विनीता को दिखाने.(जब अपने बच्चों के टिफिन बॉक्स उनके स्कूल बैग में डालते उनके खिलौने...दिख जाते थे तो अपने दिन याद आ जाते थे , ये सिलसिला शायद पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है )  विनीता भी अपने बक्से में एक हरे रंग का पत्थर लाई थी मुझे दिखाने के लिए...जो उसके पिताजी कहीं टूर पर गए थे तो लेकर आए थे. मैने उस पत्थर के बदले में वो गुड़िया विनीता को दे दी. बचपन में  मैं कोई टॉम बॉय नहीं थी..पर गुड़ियों से भी कभी नहीं खेलती..इसीलिए शायद गुड़िया से मोह नहीं रहा हो...पर मेरी मौसी आज तक सुनाती है कि इतने प्यार से और इतनी मेहनत से उसने गुड़िया बनाई थी...और मैने पत्थर के एक टुकड़े के बदले में किसी को दे दिया.:)  विनीता काफी दिनों तक हमारे घर में याद की जाती रही ...अपने पुकार के नाम ' बुन्नु' के कारण. मेरी एक मौसी को वो नाम इतना पसंद था कि कई साल बाद अपनी बेटी का नाम उन्होंने 'बुन्नु' रखा...

मेरा छोटा भाई भी जब स्कूल जाने की उम्र का हुआ तो मैं पापा की पोस्टिंग वाले शहर में आ गयी...और एक ही स्कूल में हम दोनों का नाम लिखवाया गया...वहाँ एक ही साल पढ़ी...कुछ दोस्त भी बने...माधुरी..अशोक..हरेकृष्ण..कंचन..पर कुछ ख़ास यादगार नहीं घटा...इतना ध्यान है कि पता नहीं क्यूँ और किस विषय पर ...मैने  एक कार्टून बनाया था और उस पर लिख दिया कंचन...क्लास में सब तो बहुत हँसे थे..पर कंचन बेहद नाराज़ हो गयी थी...और मुझसे बात करना बंद कर दिया था...और वो दिन और आज का दिन...फिर कभी कोई कार्टून नहीं बनाया...कंचन को कभी ये पता भी नहीं चल पाया होगा कि मेरे अंदर के उभरते कार्टूनिस्ट को हमेशा के लिए ख़त्म करने में उसका हाथ है { अब कहने में क्या जाता है...:) }

एक साल के बाद ही पापा का उस शहर  से तो ट्रांसफर हो गया पर कहीं पोस्टिंग नहीं हुई थी...(ये बात प्राइवेट नौकरी वाले समझ ही नहीं पाते कि सरकारी नौकरियों में ऐसा होता है) हमारा साल ना खराब हो इसलिए हमें गाँव भेज दिया गया. और अंग्रेजी स्कूल के थर्ड स्टैण्डर्ड के बाद मेरा नाम सीधा छठी कक्षा  में लिखवा दिया गया. ये कहा जाता था कि अंग्रेजी मीडियम  का स्टैण्डर्ड ऊँचा होता है. मेरे क्लास में सिर्फ चार लडकियाँ थीं और मेरी उम्र से बहुत बड़ी...वे तभी से अपने दहेज़ की  तैयारियों में जुटी हुई  होतीं. गाँव में लडकियाँ थोड़ी बड़ी हुई नहीं कि उन्हें क्रोशिया और सूई धागा थमा दिया जाता था...अपने भावी घर को सजाने संवारने के लिए वे टेबल क्लॉथ...तकिया के खोल..चादरें... फोटो फ्रेम बनने में जुट जातीं.. जिनमे  हनुमान जी...बत्तख..खरगोश वगैरह काढ़े जाते ...दसवीं पास करते ही या स्कूली पढ़ाई के दौरान ही उनकी शादी कर दी जाती....और तब तक बक्सा भर कर उनके हाथ की कारीगरी के नमूने तैयार हो जाते. 

मेरा मन उन दिनों सिर्फ खेलने -कूदने में ही रहता था....लिहाज़ा...तीसरी-चौथी में पढ़ने वाली  बेबी-डेज़ी..अनीता..सुनीता..मीरा..राजकुमार...दीपक..भोला..वगैरह ही मेरे दोस्त होते.. स्कूल से आते ही फ्रॉक  के घेरे में थोड़ा भूंजा डाल कर फांकते हुए लडकियाँ मेरे घर  धमक जातीं. लड़के पैंट के पॉकेट में भूंजा डाले होते. अब शहर से आने के कारण इस तरह फ्रॉक में भूंजा खाना मुझे नहीं रुचता...और उन्हें ये बात अजीब सी लगती. मुझे तैयार होने में थोड़ी देर लगती पर वे लोग इंतज़ार करते...फिर तो अँधेरा होने तक..हमलोग कबड्डी, बुढ़िया कबड्डी... इक्खट दुक्खट..कित-कित  खेला करते....कभी कभी गुल्ली डंडा भी....आस-पास के सारे बच्चे हमारे घर के सामने इकट्ठे होते..और बेतरह शोर मचाते....दादा-दादी कुछ नहीं कहते...लेकिन हमारे यहाँ काम करनेवाली काकी...जरूर कहतीं..'लग गईल ..मैना झोंझ" 

बेबी,डेज़ी...मैं और मेरा भाई 'नीरज' साथ में स्कूल जाया  करते थे. एक बार घनघोर बारिश हो रही थी...हमारे पास रेनकोट थे..पर मुझे पहनने में इतनी शर्म आ रही थी...क्यूंकि बेबी,डेज़ी के पास नहीं थे...वे दोनों केले के बड़े बड़े पत्तों से खुद को ढक कर बारिश से बचने की नाकाम कोशिश करतीं...और मैं सर झुकाए बारिश के पानी से तो बच जाती पर शर्म से पानी पानी होती आगे बढ़ जाती. आज भी...गाँव की उस पगडण्डी पर फ्रॉक में केले के पत्ते ओढ़े वो छोटी सी लड़की आँखों के आगे साकार है. स्कूल में ना के बराबर उपस्थिति होती...और एक क्लासरूम बंद कर के दोनों बहने और कुछ और भीगी हुई लडकियाँ...सिर्फ समीज पहने...खिड़की के पल्ले पर अपने फ्रॉक सूखने को डाल देतीं...और हम उसी क्लास में इक्खट दुक्खट खेलना शुरू कर देते.

एक बार कुछ दोस्तों की आपस में लड़ाई हो गयी. और मैने पता नहीं किस दोस्त का साथ देने के लिए अपने सर की...झूठी कसम खा ली...सबने मेरा विश्वास कर लिया...सुलह हो गयी....लेकिन मैं अंदर से बुरी तरह डर गयी....कि अब मैने झूठी कसम खाई है...अब तो मर ही जाउंगी...और मैं दालान में जाकर चुपके -चुपके रोती..कि मेरे परिवार वाले... मेरे दोस्त..सब मुझे याद करके कितना रोयेंगे..( तब 'मिस'करने जैसे शब्द पता नहीं थे...भाव पर वही थे) पर मरने से डर नहीं लगता क्यूंकि उस समय मेरे लिए मृत्यु का अर्थ था...'आँखे बंद कर सो जाना और मर जाना ' ....रोज रात में यही सोच कर  सोती....कि सुबह तक तो मैं मर जाने वाली हूँ..पर पूरे एक हफ्ते तक...सुबह आँखें  खुलने  पर खिड़की से प्रसाद काका को बाहर झाड़ू लगाते....गाय -बैलों को दाना-पानी देते ....दादा जी को दातुन करते हुए आस-पास वालों से बातें करते देखती तो राहत मिलती  कि अब तक झूठी कसम ने असर नहीं किया है....और तब से ही ये कसम-वसम  मानना छोड़ दिया :)

(वे मेरे सारे दोस्त जहाँ भी हों उनके स्वस्थ-सुखी जीवन के लिए हज़ारों दुआएं...आप सब मित्रों को भी 'फ्रेंडशिप डे' की हार्दिक शुभकामनाएं.)

43 टिप्‍पणियां:

  1. भावुक कर गया संस्मरण.. आज मुझे अपने एक बचपन के दोस्त की याद आ रही है... डमरू धर स्वेन .. उड़ीसा का था... उसके बाबूजी गुज़र गए थे सो उसे जाना पड़ा था स्कूल और शहर छोड़ कर अपने गाँव .. गंजाम के पास... छटी कक्षा में थे... मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामना..

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  2. सेंटेड रबर मैं भी (दोस्तों के) सूघा करता था, अपने पास तो होती नहीं थी।

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  3. मुझे तो याद ही नहीं आता कि हम गुड्डे गुड़ियों से कभी खेले भी। पर हां, कपड़ों (पुराने) को जोड़-मोड़ कर कनिया बनाते थे, काजल से आंख और आलता से ओठ आदि बनाकर।

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  4. अलग सी दुनिया, अलग से लोग - रोचक!

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  5. उस ज़माने में यह बड़ी आम बात थी कि हर लड़की के हाथ में धागा और क्रोशिया होता था और उस पर मछली, सुग्गा आदि ही बनते थे।

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  6. सब जगह दोस्त ही तो छाये हुए हैं.. दोस्तों के बारे में सुनना, लिखना, पढना सब कुछ अच्छा लगता है...मैं अपने सारे दोस्तों से बहुत करीब हूँ...
    अभी अभी मैंने भी एक पोस्ट दोस्तों की याद में लिख मारी है और पता है दीदी कोइन्सिदेन्स देखिये हमको भी प्रेरणा उसी सोर्स से मिली है, लेकिन नाम लिखना भूल गया पोस्ट में... :(
    दोस्तों की दुनिया अनोखी ही होती है, पोस्ट तो आप दोनों की शानदार है...
    एक बार पढके मन नहीं भरा है दोस्तों के ऊपर लिखी सभी पोस्ट्स को बुकमार्क कर रहा हूँ... दुबारा पढूंगा..

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  7. बहुत रोचक संस्मरण, कबड्डी और कित-कित तक तो ठीक है, गुल्ली-डंडा ( गिल्ली ) पर आपत्ति है। हम लड़कियों को उसमें शामिल नहीं करते थे। चोट लग जाता तो ...!

    हैप्पी फ़्रेण्डशिप डे!

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  8. @मनोज जी...
    सिर्फ ...गुल्ली डंडा ही नहीं..पेड़ पर चढ़ना..पुआल के ढेर पर से कूदना...ये सब भी खूब होता था...तब तक...लड़के-लड़कियों वाला भेद नहीं आया था.

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  9. हम तो कित-कित भी खूब खेले हैं... :))

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  10. दीदी, आप मुझे शर्मिंदा कर रही हैं..आपने मेरे से कहीं बेहतर लिखा है..

    ये पोस्ट ने भी एक तरह से अभी मेरे लिए एक सपोर्ट सिस्टम का काम किया....

    वैसे इरेजर मैं भी सूंघता था.. :)

    सही में रिफ्रेशिंग पोस्ट..और मौका भी परफेक्ट..

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  11. बड़े ही रोचक संस्मरण हैं जी।

    सभी का बचपन अमूमन इस तरह के वाकयों से दो चार होता रहता है। यहां मुम्बई मे तो गले पर हाथ रख 'गल्ला शप्पथ' वाला जुमला बखूबी बोला जाता है :)

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  12. वैसे,

    "ब्लॉग ,गुजरे लम्हों को याद करने का एक बहाना सा बन गया है...सारे संस्मरण गुजरी यादों के सागर ही तो हैं....जिनमे डूबना-उतराना मुझे कुछ ज्यादा ही भाता है."

    - मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ है. :)

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  13. ये तो पूरे संस्मरण मोड में आ गयीं हैं आप -अच्छा लगा !बचपन के दिन भुला न देना -:)

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  14. इक है बचपन और बचपन के दोस्त जो भुलाए नहीं भूलते और रश्मि आपने फिर याद दिला दिए..साथ ही याद आ गए ज़िन्दगी के हर मोड़ पर मिले प्यारे दोस्त...पल भर की खुशी देने वाले दोस्त भी याद आ गए.....

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  15. उस समय मेरे लिए मृत्यु का अर्थ था...'आँखे बंद कर सो जाना' ....

    हा...हा...हा......

    बचपन में मैं भी सोचा करती थी बीमार होने के कितने फायदे हैं ....ढेर सारे फल ....सेवा -सुरक्षा , स्नेह ....
    अब तो बिमारी भी काम बंद नहीं करवाती ....

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  16. बहुत बढिया संस्‍मरण .. बचपन के‍ दिन भी क्‍या दिन होते हैं .. मित्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं !!

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  17. मित्रता दिवस की शुभकामनायें..बढ़िया लिखा है आपने..

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  18. बड़ा प्यारा लगा संस्मरण ..... सच में दोस्ती की दुनिया ही प्यारी है.... शुभकामनायें आपको भी मित्रता दिवस की ....

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  19. बचपन के दिन भी क्या दिन थे...

    जय हिंद...

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  20. विद्यालयों और किताबों से जुड़े संस्मरण...

    यह वास्तव में ही बहुत अच्छा विचार है.

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  21. मित्रता दिवस पर पुराने मित्रों को याद कर आपने इस दिन को सफल बना दिया ।
    बहुत अच्छे संस्मरण हैं ।
    स्कूल के समय के मित्र बस याद बन कर ही रह जाते हैं । आज मिलें भी तो शायद पहचान भी न पायें ।
    शुभकामनायें ।

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  22. इतनी सहजता होती है आपके लेखन में कि पढ़ते पढ़ते हर कोई अपनी यादों में गुम हो जाता है.... आज के दिन की विशेष शुभकामनायें

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  23. बेहतरीन संस्मरण याद कर कर के लिखें हैं आपने, अपनी तो याददाश्त इतनी कमजोर है कि बहुत से कॉलेजियन मित्रों के नाम भी याद नहीं ।

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  24. A very very happy friendship day to you too Rashmi ji . वाकई आपके संस्मरण ने हमें भी अपने बचपन की ना जाने कितनी छोटी बड़ी वीथियों की सैर करा दी ! इस मीठी सी पोस्ट के लिये आभार !

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  25. आपके संस्मरण दिल को छू जाते हैं. बहुत सुंदर.

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  26. अच्छा लगता है मित्रों की बातें करना।

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  27. रश्मि जी!
    कमाल का एक्शन रिप्ले है यह पोस्ट!! अफ़सोस ये एक्शन रिप्ले तो हो सकता है, रिवाइंड नहीं हो सकता. इन्हें याद तो किया जा सकता है पुनः जिया नहीं जा सकता.. आज मित्रता दिवस के अवसर पर आपने सभी को दिलों में झांकने को मजबूर कर दिया है कि वे भी अपने यादों की कोठारी खोलें और खोजें उन विस्मृत मित्रों को!!

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  28. GGShaikh said:
    सारे संस्मरण गुज़री यादों के सागर ही तो हैं...
    यह पंक्ति और आलेख पसंद आया...

    आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया...

    पिता का तबादला शहर राजकोट में हुआ...तब मैं सातवीं कक्षा में था. हमारी स्कूल थी "चौधरी हाईस्कूल".
    हमारी क्लास में एक काफी ब्रीलीअंट लड़का था. पढ़ाई में पूरी कक्षा में प्रथम...अन्य इतर प्रवृत्तियों
    में भी सबसे आगे. स्टेज फिअर जैसा उसे कुछ था ही नहीं. जब कभी आसपास से गुजरता तो अन्य विद्यार्थी उसके होने
    की अचूक नोटिस लेते... जैसे किसी सेलिब्रिटी की ली जाती है...नाम था अश्विन व्यास.

    पर मैं हैरान, पूरी स्कूल के विद्यार्थी हैरान और शिक्षकगण भी हैरान...!
    सारी स्कूल में मुझे ही उसने अपना दोस्त चुना था...एक मात्र दोस्त, और किसी से उसे कोई सरोकार ही नहीं...
    दोपहर, स्कूल की लंच रिसेस में स्कूल के विशाल प्रांगण के दूर वाले छोर पर एक घना गोल तने का विशाल पेड़ था,
    उसके नीचे बैठ हम दोनों लंच लेते...संगीत क्लास में, सांझ की बेला में वह मेरी राह देख बैठा रहता.. हमारे अंध संगीत शिक्षक
    भी उसकी प्रतिभा से आश्वस्त. जितना संगीत वह जानता उतनी उसकी सारी बारीकियां, रागों की पकड़-परख मुझे सिखाता-
    बताता. मेरी ऊँगली पकड़ उसने मुझे लाईब्ररी की सीढ़ियां चढ़ाई, क्या पढ़ना है वह बताया...नेशनल ज्योग्राफी मेगेजिन
    तब निकलती थी, उसके कई अंक मेरे सामने उसने रखे. साहित्य, पर्यावरण, नई-नई वैज्ञानिक उपलब्धियाँ, विश्व यात्राओं, विश्व मानवों
    इत्यादि के बारे में उसने सभी कुछ मुझे बताया-सिखाया और जगाया मुझ में शोख़ अच्छी फिल्में देखने का...
    मैं खुद भी तब जीवन की जीवंत संभावनाओं से लबालब था...मेरा क़ल्ब सदा जाग्रत रहता. ग्रास्प करता गया सहज ही वह सब
    कुछ जो उसने मुझे बताया. मुग्ध भी था और मुताहस्सर भी अपने बिना कंठी बाँध इस गुरु-दोस्त से. (यह सब बिना अतिशयोक्ति
    के आज लिख रहा हूँ).

    फ़िर साम्प्रदायिकता या कम्यूनल फीलिंग्स की बू तक उसमें न थी.

    बहरहाल एक और तबादला पिता जी का, और हम दोस्त खो गए...उसके बाद भी अश्विन को ढूंढने की कई बार, कई तरह की
    कोशिशें की पर अश्विन का पता आजतक न चल सका... मध्यमवर्गीय था. अपने घर वह एक बार मुझे ले गया था, पर आज वहां का नाम पता याद नहीं...

    मित्रता-दिवस पर उस खोये दोस्त को मेरा अक़ीदत भरा सलाम...
    और अन्य सभी दोस्तों को इस दिवस पर सप्रेम शुभकामनाएं.

    ( रश्मि जी बचपन की यादों की ओर तुमने ही मुखरित किया... अब कुछ तो भुक्तो ... !)

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  29. खूब भालो......मज़ा आ गया. अपने बचपन में सैर करती रही तुम्हारा संस्मरण पढते हुए :). अपने इन संस्मरणों को श्रृंखलाबद्ध पोस्ट करो न.

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  30. कितना रोचक, कितना मीठा!
    :)
    आप ऐसे लिखतीं हैं कि अपना सब याद हो आता है।

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  31. के जी टुइये की सहेलियाँ अगर फिरसे मिल जायें तो ?

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  32. रश्मि जी, बहुत अच्छा लिखा है...
    बस एक शेर अर्ज़ है-
    सुनाते रहना परियों की कहानी
    ये बचपन उम्र भर खोने न देना.

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  33. इक्खट दुक्खट :-)

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  34. रश्मिजी आपकी पोस्‍ट तीन दिन बाद पढ़ पा रही हूँ। कारण रहा कि दो दिन दिल्‍ली में थी और कल ब्राडबैण्‍ड सरकारी छुट्टी पर था। आज आपकी पोस्‍ट पढ़ी, सच है बचपन की नि:स्‍वार्थ दोस्‍ती का आनन्‍द कुछ और ही होता है। हम सब की भी ऐसी ही मित्रता बनी रहे, यही आकांक्षा है।

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  35. तुम्हरी याददाश्त भी गजब है ...मैं तो बहुत कुछ भूल गयी हूँ ...
    तुम्हरे भूजे की खुशबू ललचा रही है , बॉम्बे में कहाँ मिलता होगा !

    कल मैं भी कॉलेज में अपनी एक सिनिअर से 26 साल बाद मिली , मगर बहुत धुंधली सी यादें थी !

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  36. @ वाणी
    मिलता है ना मुंबई में भी...मल्टीप्लेक्स में आकर्षक पैकेट में ५० रुपये के थोड़े से पॉपकॉर्न (मकई का भूंजा)
    और दुकानों पर पैकेट में बंधे चने...

    हाँ, पर वो सोंधी खुशबू और वो बेफिक्री कहाँ...

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  37. 'फ्रेंडशिप डे' की हार्दिक शुभकामनाएं....चलो, इसीऊ बहाने झूठी कसम खाना तो छूटा!!! :)

    वैसे असर कर जाती झूठी कसम...तो यह सब कौन लिखता????

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  38. वाह! मजा आ गया। कितने अच्छे दिन थे बचपन के। आपकी इस पोस्ट से मेरी भी कितनी ही यादें तरोताजा हो गईं।
    इस पोस्ट के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई और थैंक्स।

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  39. बालपन ,बालमन ,बाल -औतुसुक्य का सहज भण्डार है ,विश्लेषण परक यह संस्मरण .
    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
    Wednesday, August 10, 2011
    पोलिसिस -टिक ओवेरियन सिंड्रोम :एक विहंगावलोकन .
    व्हाट आर दी सिम्टम्स ऑफ़ "पोली -सिस- टिक ओवेरियन सिंड्रोम" ?


    सोमवार, ८ अगस्त २०११
    What the Yuck: Can PMS change your boob size?

    http://sb.samwaad.com/
    ...क्‍या भारतीयों तक पहुंच सकेगी जैव शव-दाह की यह नवीन चेतना ?
    Posted by veerubhai on Monday, August ८

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  40. बहुत दिनों से आपकी नई पोस्ट की प्रतीक्षा है। कई दिनों से ऑनलाइन भी नहीं दिखतीं ...?!

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  41. yeh post padhte huye main bhi apna bachpan aur purane din yaad karne lagi. nice one

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  42. आपके संस्मरण मन को पुरानी यादों में खींच कर ले गए ... लगता है बचपन की बहुत सी बातें हर इलाके में एक सी होती हैं .. साझा होती हैं ...

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फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...