हम इंग्लैण्ड से पहला टेस्ट बुरी तरह हार गए और हमारी टीम के दो खिलाड़ी इंजर्ड भी हो गए....क्रिकेट हो..या हॉकी-फुटबौल या फिर टेनिस...बार-बार हमारे खिलाड़ी घायल होते रहते हैं....ऐसा नहीं है कि विदेशी खिलाड़ी घायल नहीं होते...फिर भी स्टेमिना में तो हमारे खिलाड़ी उनसे मात खा ही जाते हैं और ख्याल आता है....इसकी वजह कहीं बचपन और किशोरावस्था में पौष्टिक आहार की जगह, उनका साधारण खान-पान तो नहीं??
अपने 'मन का पाखी' ब्लॉग पर खेल से सम्बंधित तीन पोस्ट की एक श्रृंखला सी ही लिखी थी. दो तो पहले ही इस ब्लॉग पर पोस्ट कर चुकी हूँ....
सचिन के गीले पॉकेट्स और पचास शतक
गावस्कर के स्ट्रेट ड्राइव का राज़
आज प्रस्तुत है ये पोस्ट
एक बार लगातार चार दिन,मुझे एक ऑफिस में जाना पड़ा. वहां मैंने गौर किया कि एक लड़का 'लंच टाईम' में भी अपने कंप्यूटर पर बैठा काम करता रहता है, लंच के लिए नहीं जाता. तीसरे दिन मैंने उस से वजह पूछ ही ली. उसने बताया कि उसे कभी लंच की आदत, रही ही नहीं क्यूंकि वह दस साल की उम्र से अपने स्कूल के लिए क्रिकेट खेलता था. मुंबई की रणजी टीम में वह ज़हीर खान और अजित अगरकर के साथ खेल चुका है. (उनके साथ अपने कई फोटो भी दिखाए, उसने)क्रिकेट की प्रैक्टिस और मैच खेलने के दौरान वह नाश्ता करके घर से निकलता और रात में ही फिर खाना खाता. उसने एक बार का वाकया बताया कि किसी क्लब की तरफ से खेल रहें थे वे. वहां खाने का बहुत अच्छा इंतजाम था. लंच टाईम में सारे खिलाड़ियों ने पेट भर कर खाना खा लिया और फिर कैच छूटते रहें,चौके,छक्के लगते रहे . कोच से बहुत डांट पड़ी और फिर से इन लोगों का पुराना रूटीन शुरू हो गया बस ब्रेकफास्ट और डिनर.
भारतीय भोजन गरिष्ठ होता है...पर उसकी जगह सलाद,फल,सूप,दूध,जूस का इंतज़ाम तो हो ही सकता है. पर नहीं ये सब उनके 'फौर्मेटिव ईअर' में नहीं होता, जब उनके बढ़ने की उम्र होती है...तब उन्हें ये सब नहीं मिलता....तब मिलता है जब ये भारतीय टीम में शामिल हो जाते हैं.मैं यह सोचने पर मजबूर हो गयी कि सारे खिलाड़ियों का यही हाल होगा. क्रिकेट मैच तो पूरे पूरे दिन चलते हैं. अधिकाँश खिलाड़ी,मध्यम वर्ग से ही आते हैं. साधारण भारतीय भोजन...दाल चावल,रोटी,सब्जी ही खाते होंगे. दूध,जूस,फल,'प्रोटीन शेक' कितने खिलाड़ी अफोर्ड कर पाते होंगे.? हॉकी और फुटबौल खिलाड़ियों का हाल तो इन क्रिकेट खिलाड़ियों से भी बुरा होगा.हमारे इरफ़ान युसूफ,प्रवीण कुमार,गगन अजीत सिंह सब इन्ही पायदानों पर चढ़कर आये हैं.भारतीय टीम में चयन के पहले इन लोगों ने भी ना जाने कितने मैच खेले होंगे...और इन्ही हालातों में खेले होंगे.
क्या यही वजह है कि हमारे खिलाड़ियों में वह दम ख़म नहीं है? वे बहुत जल्दी थक जाते हैं...जल्दी इंजर्ड हो जाते हैं...मोच..स्प्रेन के शिकार हो जाते हैं क्यूंकि मांसपेशियां उतनी शक्तिशाली ही नहीं. विदेशी फुटबौल खिलाड़ियों के खेल की गति देखते ही बनती है. हमारा देश FIFA में क्वालीफाई करने का ही सपना नहीं देख सकता. टूर्नामेंट में खेलने की बात तो दीगर रही. हॉकी में भी जबतक कलाई की कलात्मकता के खेल का बोलबाला था,हमारा देश अग्रणी था पर जब से 'एस्ट्रो टर्फ'पर खेलना शुरू हुआ...हम पिछड़ने लगे क्यूंकि अब खेल कलात्मकता से ज्यादा गति पर निर्भर हो गया था. ओलम्पिक में हमारा दयनीय प्रदर्शन जारी ही है.
इन सबके पीछे.खेल सुविधाओं की अनुपस्थिति के साथ साथ क्या हमारे खिलाड़ियों का साधारण खान पान भी जिम्मेवार नहीं.?? ज्यादातर भारतीय शाकाहारी होते हैं. जो लोग नौनवेज़ खाते भी हैं, वे लोग भी हफ्ते में एक या दो बार ही खाते हैं. जबकि विदेशों में ब्रेकफास्ट,लंच,डिनर में अंडा,चिकन,मटन ही होता है. शाकाहारी भोजन भी उतना ही पौष्टिक हो सकता है, अगर उसमे पनीर,सोयाबीन,दूध,दही,सलाद का समावेश किया जाए. पर हमारे गरीब देश के वासी रोज रोज,पनीर,मक्खन मलाई अफोर्ड नहीं कर सकते. हमारे आलू,बैंगन,लौकी,करेला विदेशी खिलाड़ियों के भोजन के आगे कहीं नहीं ठहरते. उसपर से कहा जाता है कि हमारा भोजन over cooked होने की वजह से अपने पोषक तत्व खो देता है. केवल दाल,राजमा,चना से कितनी शक्ति मिल पाएगी?
हमारे पडोसी देश पाकिस्तान में भी तेज़ गेंदबाजों की कभी, कमी नहीं रही. हॉकी में भी वे अच्छा करते हैं. खिलाड़ियों की मजबूत कद काठी और स्टेमिना के पीछे कहीं उनकी उनकी फ़ूड हैबिट ही तो नहीं...क्यूंकि वहाँ तो दोनों वक़्त ... नौन्वेज़ तो होता ही है..खाने में है.
प्रसिद्द कॉलमिस्ट 'शोभा डे' ने भी अपने कॉलम में लिखा था कि एक बार उन्होंने देखा था ३ घंटे की सख्त फिजिकल ट्रेनिंग के बाद खिलाड़ी.,फ़ूड स्टॉल पर 'बड़ा पाव' ( डबल रोटी के बीच में दबा आलू का बड़ा ,मुंबई वासियों का प्रिय आहार) खा रहें हैं. इनसबका ध्यान खेल आयोजकों को रखना चाहिए...अन्य सुविधाएं ना सही पर खिलाड़ियों को कम से कम पौष्टिक आहार तो मिले.
स्कूल के बच्चे 'कप' और 'शील्ड' जीत कर लाते हैं.स्कूल के डाइरेक्टर,प्रिंसिपल बड़े शान से उनके साथ फोटो खिंचवा..ऑफिस में डिस्प्ले के लिए रखते हैं. पर वे अपने नन्हे खिलाड़ियों का कितना ख़याल रखते हैं?? बच्चे सुबह ६ बजे घर से निकलते हैं..लम्बी यात्रा कर मैच खेलने जाते हैं..घर लौटते शाम हो जाती है.स्कूल की तरफ से एक एक सैंडविच या बड़ा पाव खिला दिया और छुट्टी. मैंने देखा है,मैच के हाफ टाईम में बच्चों को एक एक चम्मच ग्लूकोज़ दिया जाता है, बस. बच्चे मिटटी सनी हथेली पर लेते हैं और ग्लूकोज़ के साथ साथ थोड़ी सी मिटटी भी उदरस्थ कर लेते हैं. बच्चों के अभिभावक टिफिन में बहुत कुछ देते हैं अगर कोच इतना भी ख्याल रखे कि सारे बच्चे अपना टिफिन खा लें तो बहुत है. पर इसकी तरफ किसी का ध्यान ही नहीं जाता. बच्चे अपनी शरारतों में मगन रहते हैं.और भोजन नज़रंदाज़ करने की नींव यहीं से पड़ जाती है. यही सिलसिला आगे तक चलता रहता है.
अगर हमें भी अच्छे दम-ख़म वाले मजबूत खिलाड़ियों की पौध तैयार करनी है तो शुरुआत बचपन से ही करनी पड़ेगी...ना कि टीम में शामिल हो जाने के बाद.
एक अलग विषय को बड़े ही रोचक ढंग से रखा गया है।
जवाब देंहटाएंखिलाड़ियों में मांसाहार से ज्यादा दमखम आता है या शाकाहार से कह नहीं सकता क्योंकि अमूमन देखा है कि जो मांसाहारी होते हैं वो मांसाहार को ज्यादा पौष्टिक बताते हैं और जो शाकाहारी होते हैं वह शाकाहार को ज्यादा पौष्टिक बताते हैं।
जहां तक खिलाड़ियों द्वारा वड़ा पाव खाने की बात है वह सच है। यहां आजाद मैदान में देखा है कि कैसे खिलाड़ी पास की खाउ गली में जाकर जंक फूड खाते हैं, ठेले पर लगे पाव भाजी से, सादे दाल चावल से पेट भरते हैं। अंदाजा लगाया जा सकता है कि इसका उनके स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ता होगा।
सतीश जी,
जवाब देंहटाएंशाकाहारी भोजन जरूर पौष्टिक होता है...(इत्तफाकन मैं भी विशुद्ध शाकाहरी ही हूँ)...पर आप बताएं...एक मध्यवर्गीय भारतीय परिवार में क्या रोज़ खाने में पनीर, मेवा, दूध, दही,सलाद होता है...{यहाँ सलाद का अर्थ सिर्फ ककड़ी-टमाटर-प्याज से नहीं है.:)}
रश्मि जी , सही विश्लेषण किया है । पौष्टिक आहार खिलाडियों के लिए बहुत ज़रूरी है , तभी स्टेमिना डेवलप होता है । ज्यादा चोटिल भी इसीलिए होते हैं क्योंकि शरीर में प्रतिरोध नहीं होता , विपरीत परिस्थितयों से लड़ने के लिए ।
जवाब देंहटाएंयदि नॉन वेज न भी मिले तो शाकाहारी भोजन का भी पौष्टिक होना ज़रूरी है ।
आज का लेख खिलाडियों व उनके खाने के बारे में काफ़ी कुछ सोचने को विवश कर रहा है।
जवाब देंहटाएंबेहद जरूरी विषय उठाया है आपने,कई बार ऑफिस में लडको को अपने खाने के साथ लापरवाही करते हुए देखा है ...
जवाब देंहटाएंधीरे धीरे हम अपनी पुरानी अच्छी आदतों को भूलते जा रहे हैं...नहीं तो रात के भीगे काले चने सुबह नाश्ते में कम ताकत नहीं देते...दलिया खाना पुराना फैशन लगता है बच्चो को ...खेलने वाले बच्चों को शाकाहारी भोजन को आजके फैशन के हिसाब से परोसने की कोशिश कभी सफल भी हो जाती है....शाकाहार भोजन को कैसे पकाया परोसा जाए यह भी महत्व की बात है..
जवाब देंहटाएंभारतीय खिलाड़ियों में भी अपवाद होते हैं...राहुल द्रविड़ सोलह साल से इंटरनेशनल क्रिकेट खेल रहे हैं...बहुत कम ही मौके होंगे जब राहुल चोट की वजह से टीम से बाहर हुए हों...राहुल फिटनेस और खाने-पीने का पूरा ध्यान रखने की वजह से ही आज भी नौजवान खिलाड़ियों से भी ज़्यादा चुस्त नज़र आते हैं...
जवाब देंहटाएंवैसे हमारे खिलाड़ी हर वक्त खाने के पीछे नहीं भागते...लंदन में हाईकमिश्नर नलिन सूरी आधिकारिक भोज पर टीम इंडिया का इंतज़ार ही करते रहे और सारे खिलाड़ी कप्तान धोनी की चैरिटी संस्था के कार्यक्रम में जुटे रहे...
जय हिंद...
अच्छा विषय लिया है...विश्व विद्यालय से जब टीम जाया करती थी तो उन्हें जो पैसा मिलता था वो एक समय के नाश्ते के लिए भी पर्याप्त नहीं था...कितने ही बच्चे दोनों समय का खाना अफोर्ड नहीं कर पाते थे// दूध घी तो सपने की बात थी...
जवाब देंहटाएंहर स्तर पर इस ओर ध्यान दिये जाने की जरुरत है.
जीतेंगे, हम, निश्चय ही।
जवाब देंहटाएंआहार का शरीर के साथ स्टैमिना पर तो प्रभाव पड़ता ही है। किन्तु जो देश 119 भूखे देशों की सूची में 96 वें स्थान पर हो उसके लोगों से आप क्या उम्मीद कर सकती हैं?
जवाब देंहटाएंअंतर्राष्ट्रीय खाद्य नीति शोध संस्थान (IFPRI) द्वारा ज़ारी वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत को 67वां स्थान दिया गया है। भारत को कुपोषण और भरण-पोषण के मामले में महिलाओं की ख़राब स्थिति के कारण काफ़ी नीचे स्थान दिया गया है। 42% पैदायशी कमज़ोरी भारत में है। इस मामले में पकिस्तान (5%) की स्थिति बेहतर है।
जहां की आधी जनता रूखी-सूखी खाकर गुज़ारा करने पर विवश हो वहां सलाद तो पर्व-त्योहार में पकाए जाने वाले पकवान से भी बड़ी चीज़ है।
रश्मि जी आपके विचारों से पूरी तरह सहमत हूँ खिलाड़ियों की सेहत और खान पान का ध्यान रखना परम आवश्यक है लेकिन यह बात भी काबिले गौर है कि भारत की कुल आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा दिन दूनी रात चौगुनी बढ़ती मंहगाई के चलते अपनी आमदनी और खर्च के बीच संतुलन बनाने की मशक्कत से जूझ रहा है ! ऐसे में बच्चों को भरपेट भोजन नसीब हो जाये यही बहुत है उस भोजन में उच्च कोटि की गुणवत्ता और पौष्टिकता की संभावनाएं तलाश करना आकाश कुसुम की तरह है ! और किस परिवार के बच्चे में एक बेहतरीन खिलाड़ी विकसित हो रहा है इसका निर्धारण कैसे किया जा सकता है जबकि ना तो माता-पिता और अभिभावक ही इस ओर ध्यान देते हैं ना ही स्कूलों के शिक्षक प्रशिक्षक ! आपका आलेख नि:संदेह चिंतनीय है !
जवाब देंहटाएंअब ये सुझाव तो अरण्य रोदन से हैं
जवाब देंहटाएंयह सत्य है कि भारतीय भोजन गरिष्ठ होता है लेकिन पौष्टिक नहीं। हमारे यहाँ खेल को कभी महत्व दिया ही नहीं गया तो खिलाडियों का क्या ध्यान रखा जाएगा। जब हम भी स्कूल की टीम में खेलते थे तब ग्लूकोज ही हमारे हिस्से आता था।
जवाब देंहटाएंजंक फूड के ही जलवे हैं आजकल
जवाब देंहटाएंबहुत सख़्त ज़रूरत है इंग्लैंड टीम को भारतीय लंच खिलाने की आज से...
जवाब देंहटाएंsayad ye soch bahut pahle ki hai, ab ye samay badal chuka hai, bhartiya sports person ki vishwa me puchh ho rahi hai, aur sirf cricket nahi, har jagah dhire dhire varchaswa bhi mil raha hai....yaani hamare khilari ab apne swasthya ka dhyan rakh rahe hain, tabhi to aisa ho raha hai:)
जवाब देंहटाएंhaam!! aur badlaw ki jarurat hai!
fir INDIA is the best:)
साधना जी,
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने.. किस परिवार के बच्चे में एक बेहतरीन खिलाड़ी विकसित हो रहा है इसका निर्धारण कैसे किया जा सकता है
और अगर पता चल भी जाए तो माता-पिता अपने ही बच्चों में भेदभाव नहीं कर सकते कि एक बच्चा खेल रहा है...तो उसे पौष्टिक भोजन,दूध-फल दें और दूसरे को नहीं...
यहाँ स्कूल को आगे आना चाहिए...वे मोटी-मोटी फीस लेते हैं...पर अपने खिलाड़ियों का बिलकुल ध्यान नहीं रखते. स्कूल में under 8 ....under 10 की टीम गठित की जाती है...तो शुरुआत से ही पता चल जाता है कि किन बच्चों में बेहतर खिलाड़ी बनने की संभावनाएं हैं. बच्चे सुबह छः बजे प्रैक्टिस के लिए हाज़िर होते हैं...शाम को भी जाते हैं...उस समय उन्हें पौष्टिक आहार...फल-दूध दिया जा सकता है.
यह सब अनुभव से लिख रही हूँ...मेरे दोनों बेटे अपनी स्कूल टीम में थे...पर स्कूल ने सिर्फ उनसे जमकर मेहनत करवाई... कभी अपनी टीम के खिलाड़ियों के स्वास्थ्य का ख्याल नहीं रखा.
खुशदीप भाई,
जवाब देंहटाएंमेरे घरवाले दोस्त सब जानते हैं कि मैं द्रविड़ की कितनी बड़ी फैन हूँ....द्रविड़ अपने खान-पान, फिटनेस का पूरा ख्याल रखते हैं..और अनुशासित जीवन बिताते हैं. पर जहाँ तक अक्सर...उनके इंजर्ड नहीं होने का प्रश्न है वो इसलिए तो नहीं कि वे डिफेंसिव खेलते हैं....और फील्डिंग भी स्लिप में करते हैं...जहाँ दौड़ते हुए गिर कर बॉल नहीं रोकनी पड़ती :){वैसे ये बस अनुमान है..मैं गलत भी हो सकती हूँ :)}
एक बार द्रविड़ को भी...शायद पकिस्तान में लम्बी पारी खेलने के बाद dehydration के कारण अस्पताल में भर्ती होना पड़ा था..
@मनोज जी,
जवाब देंहटाएंहमारे देश में भुखमरी की बात सही है....सारे आंकड़े भी दुरुस्त हैं...
दो जून भर-पेट खाना ही मयस्सर नहीं तो फल-मेवा की क्या बात की जाए....पर यहीं राजनेता...अभिनेता...व्यवसायी...(कुछ खिलाड़ी भी) करोड़ों के मालिक भी तो हैं.
फिर ये इतने सारे खेलों का आयोजन...उनपर करोड़ों रुपये का खर्च किसलिए किया जाता है...सिर्फ हारने के लिए??...और दूसरे देशों को मेडल जीतते देखते रहने के लिए???
@ Mukesh Kumar Sinha
जवाब देंहटाएंये सोच पुरानी नहीं है...आप सिर्फ खुशफहमी के शिकार हैं....आपको वस्तुस्थिति की खबर ही नहीं...तो क्या जबाब दिया जाए...आपके कमेन्ट पर सिर्फ एक स्माइली लगाने का मन हो रहा है...:)
अच्छी और रोचक पोस्ट है दीदी,
जवाब देंहटाएंलेकिन मैं समझता हूँ की इंजर्ड होने की एक सबसे बड़ी वजह है लापरवाही...उसमे शायद फ़ूड हैबिट या फिर खानपान से रिलेटेड बात शायद नहीं है(जहाँ तक मुझे लगता है)..
लगभग सभी अंतराष्ट्रीय खेलों में अब ठोस खाने से ज्यादा महत्त्व लिक्विड डाईट को दिया जाता है...बहुत ऐसे खेल भी हैं जहाँ मुख्य खेल से एक दिन पहले किसी भी किस्म का ठोस खाना खिलाड़ियों को नहीं दिया जाता..
जैसे फोर्मुला वन(F1)रेसिंग आठ महीने चलती है और रेस लगभग हर वीकेंड होता है अलग अलग जगहों पर...दो दिन रेस होते हैं फोर्मुला वन में...पहला दिन होता है पोल क्वालीफाइंग रेस, और दूसरा दिन मुख्य रेस..पोल क्वालीफाईंग के चौबीस घंटे पहले तक फोर्मुला वन ड्राईवर को कुछ भी ठोस खाने की सख्त मनाही रहती है और वो बस लिक्विड डाईट पे रहते हैं...
क्रिकेट में भी अब खेल के एक दिन पहले या खेल के दिन बहुत से इंटरनेशनल खिलाड़ी लिक्विड डाईट पे रहते हैं...
और खिलाड़ियों को मांसाहारी खाने से ज्यादा ताकत आता है या शाकाहारी से, यह मैं आपको कल तक बता दूँगा...मेरे एक मित्र हैं जो मेडिकल के फिल्ड में हैं, उनसे बात कर के :P :) :)
जवाब देंहटाएं@अभी
जवाब देंहटाएंतुमने सही ही लिखा होगा...
लेकिन मैं समझता हूँ की इंजर्ड होने की एक सबसे बड़ी वजह है लापरवाही...उसमे शायद फ़ूड हैबिट या फिर खानपान से रिलेटेड बात शायद नहीं है(जहाँ तक मुझे लगता है)..
पर डा. दराल साब कुछ और कह रहे हैं....:)
पौष्टिक आहार खिलाडियों के लिए बहुत ज़रूरी है , तभी स्टेमिना डेवलप होता है । ज्यादा चोटिल भी इसीलिए होते हैं क्योंकि शरीर में प्रतिरोध नहीं होता , विपरीत परिस्थितयों से लड़ने के लिए ।
जरूर पूछना अभी...पर ये पूछना कि मटन रोटी में ज्यादा ताकत है या लौकी की सब्जी और रोटी में?:)
जवाब देंहटाएंमैने ये लिखा है कि शाकाहारी भोजन भी उतना ही पौष्टिक होता है...बशर्ते उसमे दूध-दही-फल-पनीर-मेवा का समावेश हो.
थोड़ा इंतजार करें, एकाध जीत के बाद जश्न और फिर हमारे खान-पान पर ताजा शोध, जिसकी नकल कर विदेशी फिर हम पर हावी.
जवाब देंहटाएंआप क्रिकेट पर क्यों लिखती हैं? :)
जवाब देंहटाएंइस पर शायद मैं युगों युगों युगों और उसके भी आगे तक बात कर सकता हूँ। :)
फिटनेस खान पान से सम्बंधित तो है ही, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती।
बहुत दिनों तक बहुत क्रिकेट खेला है, कभी-कभी अच्छा भी खेल सका हूँ इसलिए ये बात कहूँगा कि कम से कम हमारे यहाँ क्रिकेट एक खेल नहीं है।
आजकल फिर भी संस्थाएँ हैं जो फिटनेस को ध्यान में रखती हैं, उसके बारे में सोचा जाने लगा है, लेकिन पहले यह व्यक्तिगत निर्णय थे।
क्रिकेट का मतलब हमेशा से केवल "बल्ला" और "चौके-छक्के" रहा है बच्चों के मन में। यकीन मानिए, अपने १४-१५ साल की खेल अवधि में 'कैफ' के अलावा किसी से नहीं मिला जिसने कहा हो, भाई मैं एक क्षेत्ररक्षक हूँ। जो 'अच्छा' होता है वो बल्लेबाज़, जो 'कम अच्छा' वो हरफनमौला, जो 'कुछ नहीं' वो गेंदबाज़। अपवाद हैं, अब अधिक होते हैं।
खेलना फिटनेस और स्टेमिना से भी अधिक एक यज्ञ है जहाँ पूरे मन से तप करना होता है। कौन कितना करता है, कैसे करता है ये उस पर निर्भर करता है।
ताज़ा खिलाडियों कि बात करें तो द्रविड़, कुंबले और लक्ष्मण ही हैं जो शाकाहारी हैं और द्रविड़ ने कभी भी फिटनेस और आरामतलबी में लिए कोई मैच (रणजी भी) नहीं छोड़ा। कुंबले में रोज ३०-४० ओवर किये टेस्ट में उफ़ किये बिना। टूटे जबड़े से भी। द्रविड़ के लिए मैं आँख मूँद के भी बात कर सकता हूँ, इसलिए शायद यहाँ अधिक कह रहा होऊंगा, लेकिन फिर भी कम से कम स्लिप पर खड़ा होना मैदान का सबसे कठिन काम है, ये मेरा १० साल का स्लिप क्षेत्ररक्षण का अनुभव कहता है। पहली स्लिप में इतना झुकना होता है कि शाम को कमर टूट जाती है। डिफेंसिव खेलने में भी मैंदान में खड़ा तो रहना ही होता है, जो ५ छक्कों के तूफ़ान के बाद ड्रेसिंग रूम में किये जा रहे आराम से कहीं कठिन है।
द्रविड़ को अस्पताल शायद ढाका में ले जाया गया था (आज तक सबसे अधिक लगातार टेस्ट उन्होंने ही खेले हैं बिना ब्रेक के) वो भी जबड़ा टूटने पर, हालांकि संभव है पाकिस्तान में भी गयें हो अस्पताल। वो आज भी दिन भर फील्डिंग करने के बाद ओपनिंग करने आए थे। उसी एकाग्रता के साथ।
इरफ़ान पठान और हमारे सबसे अनफिट खिलाड़ी जहीर खान, इनका खान-पान अवश्य ही शाकाहारी नहीं होगा।
और हमारी अधिकतर महिला खिलाडी झारखण्ड के आदिवासी इलाकों से आती हैं, और ठीक ही खेलती हैं। वहाँ पोषण तो कैसा होता है, ये सब जान सकते हैं।
एक महत्वपूर्ण बात ये है कि आपको अपने शरीर को पहचानना होता है और उसी हिसाब से अधिक या कम मेहनत करनी होती है, बिल्ड एक बहुत महत्वपूर्ण चीज है खेल में। अगर कोई कोच है, तो उसे इसी बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है।
खान-पान आपकी मदद अवश्य कर सकता है, लेकिन खिलाडी तैयार खेल से ही होते हैं। हाँ +१ होना कभी भी बुरा नहीं। :)
अपनी हार पर आयें, तो हारे हम इसलिए कि हमारे पास स्वान नहीं था, हरभजन था। सचिन जरुर महान खिलाडी है, लेकिन कभी पूरे मैच क्षेत्ररक्षण नहीं किया होगा उन्होंने पिछले ४-६ सालों में। ये महानता कब तक? अब तो रनर भी बंद हो रहे हैं। ज़हीर ने भी IPL तो पूरा ही खेला था।
गंभीर का चोटिल हो जाना एक दुर्घटना है, जिस पर अफ़सोस ही किया जा सकता है, वो शीघ्र ठीक हों।
P.S. बहुत ज्यादा बोल गया न आज?
@अविनाश
जवाब देंहटाएंबहुत ज्यादा बोल गया न आज?
ना ना...बहुत अच्छा लगा ,बाबा आपका यूँ बोलना :)
यही तो पोस्ट की सार्थकता है....कि पढ़कर सिर्फ 'अच्छा है' कहने की जगह लोगों को कुछ कहने को प्रेरित करे...शुक्रिया
खेल कोई भी हो, जिसमे एक जुनून हो...वही बन सकता है एक अच्छा खिलाड़ी, ये तो सच है. पर सही खान-पान....अनुशासित जीवन उनके इस खेल-जीवन को लम्बा कर देते हैं.
एक कमेंटेटर ने ही कहा था कि बॉलर अक्सर बौंड्री लाइन पर फिल्डिंग करते हैं....और तेजी से गिर कर बॉल रोकने में और जोर से बाहें घुमा कर बौंड्री लाइन से बॉल वापस फेंकने पर उनके कन्धों में चोट की संभावना बढ़ जाती है. ऐसे ही एग्रेसिव बैटिंग करनेवालों के लिए भी कहा था कि वे इतनी ताकत लगा कर बैटिंग करते हैं कि उनकी मांसपेशियों में खिंचाव अ जाता है...इसीलिए मुझे भी लगा कि ये लोग जल्दी घायल हो जाते हैं..डिफेंसिव खेलने वालों की जगह..वर्ना द्रविड़ कि तो मैं भी इतनी बड़ी प्रशंसक हूँ...कि दो-चार पोस्ट लिख दूँ शायद उनपर...:)
बहुत ही सही विश्लेषण किया है जिस तरफ़ कोई ध्यान नही देता…………आज हमारे लोगो को इस तरफ़ भी ध्यान देना चाहिए मगर जब तक हमारे देश मे भ्रष्टाचार व्याप्त है तब तक ऐसा संभव कहाँ यदि उनके लिए पैसा मिलता भी होगा तो कहाँ उन तक पहुंचता होगा भोजन खुद ही डकार जाते हैं भ्रष्ट अफ़सर्…………लेकिन विषय उम्दा चुना है।
जवाब देंहटाएंYeh to aksar main bhi sochti hu. Apna desi khana tel mein tala hua, aur itna jyada paka hua ki usme kuch reh he nahi jata hai jo shareer ko kuch de sake. Bas swad le leke khao. Idhar kuch salon se koshish rehti hai ki healthy he khayein, meat itna nahi lekin kache vegetables and fruits. Meat se shakti jarur milti hai, lekin uske side effects bhi dheron hai. Yahan kafi log Vegan food ki taraf badh rahe hai, jahan meat to dur , janwar ka doodh, dahi , cheej ko bhi haath nahi lagate. Badhiya likha aapne. Hamare khiladiyon ko jab tak sahi dhang se khanpaan nahi milta hum unse ache khel ki umeed kaise karein ?
जवाब देंहटाएं@ Avinash Chandra
जवाब देंहटाएंबहुत ज्यादा तो कतई नहीं बोले
बिलकुल सटीक विश्लेषण है आपका
सही समय पर सही टापिक छेड़ा है। एक बार मैं स्टेडियम में एक न्यूज कवर करने गया तो वहां देखा कि बच्चे सुबह से खेलने आए हुए थे और उन्हें दोपहर को एक-एक केला देकर विदा कर दिया। आखिर ये कब तक चलेगा।
जवाब देंहटाएंऔर, जरा द्रविड़ के बारे में फटाफट कुछ पोस्ट डाल दो।
@रवि
जवाब देंहटाएंकि बच्चे सुबह से खेलने आए हुए थे और उन्हें दोपहर को एक-एक केला देकर विदा कर दिया। आखिर ये कब तक चलेगा।
इसी तरफ मैं भी इशारा करना चाह रही थी...जब आँखों देखा हो ये सब...तो नज़रंदाज़ करना मुश्किल हो जाता है.
सचमुच कब तक चलेगा यह सब????
एकदम अलग ...सटीक और विचारणीय बातें..... खिलाड़ियों के खानपान के विषय में इतनी जानकारी नहीं थी...
जवाब देंहटाएंअच्छा विश्लेषण किया है. पौष्टिक भोजन खिलाड़ियों के लिए तो जरूरी है ही बाकी सब के लिए भी उतना ही जरूरी है.
जवाब देंहटाएंरश्मि जी! दो दिन से बाहर था.. आज लौटा, इसलिए देर हुई! आपकी पोस्ट ने एक सार्थक मुद्दा उठाया है.. सच पूछिए तो ईमानडारी से मन की बात कहता हूँ.. पहले पहले तो मुझे लगता था कि ये खिलाड़ी जब अंडर परफोर्म करने लगते थे तो चोटिल होने का बहाना बनाने लगते थे... शीर्षस्थ खिलाड़ियों को भी आई.पी.एल. में थकान नहीं होती, लेकिन धीमा खेले जाने वाली (वेस्ट इंडीज़ के) टेस्ट सीरीज़ में रेस्ट की आवश्यकता होती है. कप्तानी तक इस डर से मना कर देते हैं कि उससे उनका पर्फोर्मेम्स खराब होता है.
जवाब देंहटाएंजबकि इस तरह के बहाने द्रविड़ या कपिल जैसे खिलाड़ियों ने शायद ही कभी बनाए हों. जिस रोल में, जहां भी खेलने को कहा गया उन्होंने उत्कृष्ट खेल दिखाया..
अविनाश जी ने वाकई पूरे स्तामिना के साथ कमेन्ट किया है और वो आपके आलेख के सप्लीमेंट के रूप में देख रहा हूँ.
कुछ तो देशयष्टि का प्रभाव होता है और खान पान का भी!! वरना वेस्ट इंडीज़ के खिलाड़ी जिनका सामाजिक स्तर वैसा ही है जैसा झारखंड से आने वाले खिलाड़ियों का. मगर उनके खिलाड़ियों ने भी बरसों राज किया है!!
एक सार्थक पोस्ट!!
रश्मि जी , बेहद जरूरी विषय उठाया है आपने, हमारे देश के खिलाड़ियों के पिछड़ने के पीछे उनका पौष्टिक आहार नहीं लेना भी है। वाकई इस मामले पर खेल से जुड़े लोगों को कुछ करना चाहइए।
जवाब देंहटाएंकभी जनसत्ता में प्रभाष जोशी को क्रिकेट के बारे में लिखते पढ़ते थे तो एक ख्याल आता था यार, इन जैसा आदमी क्रिकेट के प्रति कितनी प्रतिबद्धता रखता है? आपकी पोस्ट पढ़कर भी वैसा ही लगा। लेकिन उनसे ईर्ष्या नहीं होती थी, आपसे हो रही है - अविनाश का कमेंट इसकी वजह है:)
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