पिछले कुछ महीनो में कई फ़िल्में आयीं और उन्होंने काफी दर्शकों को थियेटर की तरफ आकर्षित किया। बर्फी, इंग्लिश-विन्ग्लिश, OMG , जब तक है जान आदि। पर इन सबके बीच ही एक बहुत ही सार्थक, चिंतनशील, हमारे समाज की एक बहुत ही गंभीर समस्या से रूबरू करवाती एक फिल्म आयी 'चक्रव्यूह' और गुमनामी के अंधेरों में खो गयी। मुझे इस फिल्म का बहुत पहले से ही इंतज़ार था वैसे भी प्रकाश झा की कोई फिल्म मुझसे नहीं छूटती। इन फिल्मों की भीड़ में इसे भी देखा और तब से ही लिखना चाह रही थी, पर कुछ prior commitment ने व्यस्त रखा।
नक्सल समस्या पर बनी इस फिल्म ने सोचने पर मजबूर कर दिया। हम जो बाहर रहकर देखते हैं क्या सम्पूर्ण सच वही है? बिना उस समस्या को पास से देखे, उस से जूझते लोगो को जाने हम इस समस्या की गंभीरता को नहीं समझ सकते । हालांकि नक्सलियों का रास्ता गलत ही है, हिंसा किसी समस्या का हल नहीं है। और निर्दोष लोगो की ह्त्या, चाहे किसी पैसे वाले की हो या बेचारे पुलिस वाले की ,कहीं से भी सही नहीं है। पर उनकी तंगहाली, उन पर किये जा रहे जुल्म, अपनी ही जमीन से बेदखल करना, उनकी जमीन पर फैक्ट्री का निर्माण कर पैसे कमाना, ये सारी स्थितियां उन्हें गहरे आक्रोश से भर देती हैं।
पुलिसकर्मी भी अपने परिवार से दूर, सारी सुख सुविधाओं से दूर , इन बीहड़ जंगलों में रह कर इन नक्सलियों से लड़ते हैं। बड़ी मेहनत से जाल बिछा, दिनों रणनीति रचकर अपने कई साथियों की शहादत के बाद किसी बड़े नक्सलवादी नेता को पकड़ते हैं और नक्सलियों द्वारा किसी बिजनेसमैन के अकर्मण्य बेटे को छुडाने के लिए उन्हें उस नक्सली नेता को आज़ाद कर देना पड़ता है। और फिर वे खुद को वहीँ खडा पाते हैं, जहाँ से चले थे . सारी लड़ाई फिर नए सिरे से लड़ने की तैयारी करनी पड़ती है।
टुकड़ों -टुकड़ों में इन सारी बातों से हम सभी अवगत हैं। पर जब परदे पर सिलसिलेवार इन्हें घटते हुए देखते हैं ,तब हम पर सच्चाई तारी होती है।
आदिल (अर्जुन रामपाल ) को नक्सली इलाके में पोस्टिंग मिलती है।वहां अब तक पुलिस को कोई कामयाबी नहीं मिली है .आदिल का एक पुराना मित्र है कबीर (अभय देओल ). आदिल ने विद्यार्थी जीवन में उसके कॉलेज की फीस भरी है, अच्छे दोस्त हैं दोनों . कबीर,आदिल की मदद के लिए नक्सलियों के दल में एक नक्सली बनकर शामिल हो जाता है। शुरुआत में तो वो आदिल को सूचनाएं देता है , जिसकी वजह से पुलिस को कई कामयाबी मिलती है और नक्सली नेता राजन (मनोज बाजपेयी ) पकड़ा जाता है । पर फिर धीरे-धीरे उन नक्सलियों के साथ रहते हुए कबीर महसूस करता है कि सचमुच आदिवासियों पर बहुत जुल्म और अत्याचार हो रहे हैं। नेताओं के अपने घिनौने स्वार्थ हैं, जिसे पूरा करने के लिए वे उनकी जमीन हड़पते हैं और विरोध करने वालों की निर्ममता से ह्त्या कर दी जाती है। आदिवासियों की जमीन पर कबीर बेदी, एक बड़ी फैक्ट्री लगाना चाहते हैं . नेतागण गाँव वालों से कहते हैं कि उनके विकास के लिए यह सब किया जा रहा है। पर असलियत में वह गाँव की जमीन पर अपनी फैक्टरी खड़ी कर बड़ा मुनाफा कमाना चाहते हैं और इसके लिए नेताओं को भी अच्छे पैसे दिए गए हैं . इसीलिए वे उनके सुर में सुर मिलाते नज़र आते हैं। फैक्ट्री लगाने के लिए उन्हें गाँव की जमीन चाहिए। राज्य के मुख्यमंत्री से लेकर सारे नेता , उनकी मदद को तैयार हैं। जमीन खाली करने के आदेश का नक्सल विरोध करते हैं। तो पुलिस उनका दमन करती है . विरोधस्वरूप नक्सल कबीर बेदी के बेटे का अपहरण कर लेते हैं और फिर आदिल को बिजनेसमैन के बेटे को आज़ाद कराने के लिए नक्सल नेता राजन को छोड़ना पड़ता है। इस लड़ाई में दोनों दोस्त आमने-सामने होते हैं. कबीर ,अपने मित्र को आगाह कर देते हैं कि औरतों और बच्चों पर जुल्म ढाना बंद करे पुलिस वरना अगली मुठभेड़ में दोनों दोस्त में से एक ही जिंदा वापस लौटेगा। और एक मुठभेड़ में आदिल को, कबीर पर गोली चलानी पड़ती है।
फिल्म में वही सबकुछ है जो रोज घटित हो रहा है। मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी को छुडाने के लिए खूंख्वार आतंकवादी को छोड़ना पड़ा था . पता नहीं कितनी रातों की नींद त्याग कर कितनी तैयारियों कितने पुलिसकर्मियों की शहादत के बाद ,उस आतंकवादी को पकड़ा गया होगा।
एक फिल्म में पूरी नक्सल समस्या ,पुलिस की लाचारी, नेताओं की बेईमानी , कुछ भ्रष्ट पुलिसकर्मियों के अनाचार ,बड़े उद्योगपतियों द्वारा जनता को गुमराह करना, इन सबको समेटना मुश्किल था। इसीलिए फिल्म कुछ अधूरी सी लगती है।पर नक्सल समस्या को देखने की एक अलग दृष्टि जरूर प्रदान करती है। जब नक्सली महिला नेता जूही (अंजलि गुप्ता ) के पिता के क़र्ज़ न चुका पाने की सजा के रूप में सूदखोर उसकी दोनों बहनों को उठा ले जाते हैं। जूही के पुलिस में रिपोर्ट करने जाने पर पुलिसकर्मी उसके साथ ही अनाचार करना चाहते हैं तो वह जंगल में जाकर बन्दूक उठा लेती है। उसके मन में अमीरों के प्रति, पुलिस के प्रति नफरत होगी ही। उसकी दोनों बड़ी बहने चुपचाप जुल्म सह गयीं पर जूही समझौता नहीं कर पायी हालांकि बच्चों और स्त्रियों की रक्षा के लिए जब वह आत्मसमर्पण कर देती है तो पुलिसकर्मी उसक साथ बलात्कार करते हैं और उसके साथ वही सब होता है जिस से बचने के लिए वो जंगल में आकर नक्सली बन गयी थी। यानी कि गरीब का कोई निस्तार नहीं।
धीरे धीरे यह नक्सलवाद पूरे देश के 200 जिलों में फ़ैल गया है ,और भविष्य में इसके और भी बढ़ने की ही संभावनाएं हैं क्यूंकि इनकी समस्या को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा। अगर आदिवासियों का शोषण बंद हो,उन्हें भी ज़िन्दगी की बुनियादी जरूरतें मुहैया हों।दो जून की रोटी,कपडे, शिक्षा का अधिकार हो तो फिर उन्हें ये नक्सली नेता नहीं बहका पायेंगे . पर उनके लिए जारी किये गए फंड तो नेताओं की जेब में जाते होंगे और उनकी जमीन हड़पने की भी चालें चली जाती हैं तो फिर उनकी तरक्की कैसे हो? फिल्म में आदिवासियों में शिक्षा के अभाव को बहुत ही बुद्धिमत्तापूर्वक रेखांकित किया गया है। जब नक्सली व्यायाम करते हुए बीस तक की गिनती गिनते हैं और उसके बाद पुनः एक से शुरू करते हैं क्यूंकि उन्हें बीस से ऊपर की गिनती नहीं आती।
नक्सली नेता राजन के रूप में मनोज बाजपेयी और उनके शिक्षक-चिन्तक के रूप में ओम पुरी, छोटी भूमिकाओं में हैं पर बेहतरीन अभिनय किया है। अभय देओल का रोल एक author backed रोल था और उन्होंने पूरा न्याय किया है उसके साथ। अर्जुन रामपाल के फैन (मैं भी ) निराश होंगे। एक्टिंग तो उनके वश की है नहीं पर लुक में भी वे इम्प्रेस नहीं कर पाते । पता नहीं प्रकाश झा ने इतने फिट पुलिसकर्मी कहाँ देख लिए। इस रोल के लिए अर्जुन को बहुत मेहनत करनी पड़ी,अपना वजन काफी घटाना पड़ा। उनकी पत्नी के रोल में ईशा गुप्ता भी अति स्लिम हैं पर ख़ास प्रभावित नहीं करतीं। उनका रोल भी छोटा सा है ,और अर्जुन रामपाल के साथ एक लम्बा प्रेम प्रसंग का सीन एडिटिंग की भेंट चढ़ गया। पर इस फिल्म की देन हैं ,अंजलि गुप्ता। अपने नक्सली किरदार को बखूबी निभाया है उन्होंने, उनकी बौडी लैंग्वेज, बोलने का अंदाज़ , भाषा,आक्रोश सब बहुत ही गहराई से अभिव्यक्त हुआ है।
संगीत पक्ष कमजोर सा ही है। एक आइटम सॉंग डाला गया है, पर उसका फिल्मांकन ,नृत्य-
गीत-संगीत सब बहुत ही निचले स्तर का है।
हमेशा की तरह ,प्रकाश झा का निर्देशन लाज़बाब है। पुलिस और नक्सलों की मुठभेड़ के दृश्य, धूल धूसरित इलाकों में नक्सलों के कार्यकलाप के दृश्य बहुत ही जीवंत बन पड़े हैं।
aapki ek baat se poori tarah sahamt hoon ki Prakash jhaa ki har film men kuch ho na ho magar unka nirdeshan dekhne laayak hotaa hai aur ab aapki yh samikshaa padhkar to lag hee raha hai ki is filmko bhi dekh hi liyaa jaaye...
जवाब देंहटाएंshukriya pallavai :)
हटाएंअच्छी समीक्षा लिखी है रश्मि...
जवाब देंहटाएं३ साल बस्तर में रहे हैं सो नक्सलियों से वास्ता रहा है....तब डर कम रोमांच ज्यादा लगता था...अक्ल कम थी.
अर्जुन रामफल को रामपाल कर दो.(वैसे हम उसके फैन नहीं...अभय देओल के हैं:-))
हाँ फिल्म देखेंगे ज़रूर...
अनु
हटाएंशुक्रिया अनु,
ठीक कर दिया, ध्यान ही नहीं दिया था
हाँ अनु, पहले तो मैं नफरत ही करती थी, इनसे। फिर धीरे-धीरे इनकी समस्याओं के विषय में पढ़ा, रास्ता तो इनका गलत ही है पर गुस्सा गलत नहीं है, गलत है उसे इज़हार करने का तरीका
अच्छी समीक्षा ।इतनी समस्याए ?पर कितने समाधान ?
हटाएंइस फिल्म से दो बातें याद आयीं थीं मुझे देखते हुए... फिल्म के कथानक से सम्बंधित..
जवाब देंहटाएं/
१. जब पंजाब में आतंकवाद का दबदबा था तब आतंकवादियों को पकडने के लिए पुलिस ने एक चाल चली थी जिसके अंतर्गत आतंकवादियों में उनका एक आदमी डाल दिया जता था जिसे "कैट पीपुल" कहा जाता था..डायरेक्टर विनोद पाण्डेय ने इसपर एक बहुत ही सशक्त धारावाहिक बनाया था दूरदर्शन के लिए!! यह फिल्म उसके मुकाबले १९ है..
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२. हृषि दा की फिल्म 'नमकहराम' की याद हर उस दर्शक को आयी होगी, जिन्होंने इन दोनों फिल्मों को देखा होगा. कहानी का ट्रीटमेंट हू-ब-हू वैसा ही. इसलिए समझ में आ रहा था कि आगे क्या होने वाला है.
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ओम पूरी की भूमिका जिस व्यक्ति से प्रभावित है उसे दिखाना सेंसर बोर्ड से पंगा लेना जैसा होता इसलिए उनकी भूमिका के साथ पूर्णतः न्याय नहीं हो पाया है.
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बाकी तो प्रकाश झा हैं.. ऐसे में फिल्म का प्रभावशाली होना बनता ही है!! मैं भी इनका फैन हूँ!! मिस नहीं करता इनकी फ़िल्में!! :)
नमकहराम फिल्म की याद मुझे भी बार बार आ रही थी, दोस्तों वाला प्रसंग वही है पर यहाँ नक्सल समस्या होने से फिल्म का कैनवास बहुत बड़ा है। इसीलिए दोस्ती वाला पक्ष ज्यादा उभर कर सामने नहीं आ पाया।
हटाएंहमने तो यह फ़िल्म बहुत पहले देखी थी और हमारी भी कुछ ऐसी ही प्रतिक्रिया थी पोस्ट पर नहीं फ़ेसबुक स्टेटस पर :)
जवाब देंहटाएंहमने भी काफी पहले ही देखी थी,लिखने का सुयोग आज बना :)
हटाएंअच्छी समीक्षा है ... फिल्म भी बढ़िया है !
जवाब देंहटाएंटिपण्णी भी बढ़िया है :)
हटाएंनानक नाम चढ़दी कला, तेरे भाने सरबत दा भला - ब्लॉग बुलेटिन "आज गुरु नानक देव जी का प्रकाश पर्व और कार्तिक पूर्णिमा है , आप सब को मेरी और पूरी ब्लॉग बुलेटिन टीम की ओर से गुरुपर्व की और कार्तिक पूर्णिमा की बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और मंगलकामनाएँ !”आज की ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
हटाएंशुक्रिया शिवम्
हटाएंबहुत अच्छी समीछा की है आप ने !
जवाब देंहटाएंआपने तो पूरी फिल्म ही आँखों के सामने रख दी !
अद्भुत अतुलनीय ऐसे ही लिखते रहे आप सदा !
शुक्रिया
हटाएंसिनेमा के बारे में पढ़कर इसको देखने का प्लान बना है। अब देखते हैं।
जवाब देंहटाएंअब तो किसी थियेटर में शायद ही मिले...डाउनलोड करके देखनी पड़ेगी
हटाएंसमस्या से तो जूझना ही है, भागने से कोई लाभ नहीं..
जवाब देंहटाएंसही कहा
हटाएंमैं तो कॉमेडी ही देख पाता हूँ
जवाब देंहटाएंहाँ ,कई लोग गंभीर सिनेमा नहीं पसंद करते ,पर यहाँ बालनोचु कॉमेडी फिल्म्स ही बनती है :(
हटाएंप्रकाश झा की सभी फ़िल्में विशेष सन्दर्भ में होती है . इस फिल्म के बारे में पढ़ा था . कब रीलिज हो गयी पता ही नहीं चला !
जवाब देंहटाएंसमस्याओं का चक्रव्यूह हो गया है हमारा देश ....सुलझाने जाओ तो डोर उतनी ही उलझती जाती है !!
यही होता है ऐसी फिल्मे बस एक दो हफ्ते से ज्यादा नहीं टिकती ....थोडा चुके और फिल्म चली गयी
हटाएंPrakash Jha ek aisee sakhsiyat hai jo art movie type ki filme bana kar bhi darshak ka jugar kar leta hai...:)
जवाब देंहटाएंhame bhi behtareeen lagi ye movie..
thanx mukesh :)
हटाएंDekhni to thi ye film par jab ghoom gham kar wapas lauta parde se utar gayi thi. Khair TV par jab aayegi dekh li jayegi.
जवाब देंहटाएंतुम्हारी समीक्षा पढ़कर यह फिल्म देखने की इक्षा तीव्र हो गयी ....वाकई इनकी समस्या बहुत गंभीर है .....लेकिन अफ़सोस तो इस बातका है की बावजूद इसके ...स्तिथियाँ वैसी की वैसी हैं...क्या authorities नहीं जानती सब ...लेकिन कोई कुछ करना चाहे तब न .....
जवाब देंहटाएंदीदी, इसी बीच एक और फिल्म आई थी...चटगाँव...और उस फिल्म की तो कंडीसन इससे भी बुरी थी..पुरे दिल्ली में सिर्फ पांच जगह फिल्म लगायी गयी थी और वो भी एक-दो शो में....
जवाब देंहटाएंऔर ये फिल्म तो हमने जिस दिन रिलीज हुई थी उसी दिन देखी थी...आपकी समीक्षा तो हमेशा की तरह बेहतरीन हैं ही...फिल्म पोस्ट्स लिखने में आप एक्सपर्ट जो हैं :) :)
प्रकाश झा की फ़िल्में समस्या प्रधान विषयों को लेकर होती हैं. आपने बहुत अच्छी समीक्षा की हैं जिससे फिल्म देखने की इच्छा भी जाग्रत होती है. आजकल फ़िल्में देखना काफी कम हो गया है और अगर फिल्म रिलीज के हफ्ते में फिल्म छूट गयी तो फिर टीवी पर आने के इन्तेज़ार के अलावा कोई चांस नहीं रहता.
जवाब देंहटाएंएक अच्छी फिल्म ... लगता है मिस हो गयी ...
जवाब देंहटाएंअब आपकी समीक्षा पढ़ने के बाद लग रहा है जरूर देखूंगा ...
film to nahin dekh paaye par aapka review padhne thoda andaaza to hau ki dekh hi leni chahiye ab
जवाब देंहटाएंआपका पोस्ट पढ़ने के बाद इसे देखने का मन बन रहा है। पढ़कर अच्छा लगा। मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा।
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