अनिमेष
ऑफिस से एक हफ्ते की छुट्टी लेकर अपने घर आया हुआ था . निरुद्देश्य सा सड़कों पर
भटक रहा था .उसे यूँ घूमना अच्छा लगता. जिन सड़कों पर सैकड़ों बार पैदल चला था.
तपती दोपहरी और ठिठुरती ठंढ में घंटो साइकिल चलाई थी.
इन
पर चलते हुए हमेशा कहीं पहुँचने की जल्दी होती थी.पर आज खरामा खरामा चलते हुए जैसे
सडकों की आवाज सुन रहा था और वे मानो शिकायत कर रही थीं, ‘ इतने दिन लगा दिए वापस लौटने में ‘. पर बस सड़कें ही जानी पहचानी रह गयी थीं वरना इस छोटे से शहर में बहुत कुछ बदल
गया था. मॉल्स ,मैकडोनाल्डस ,बड़े बड़े शो रूम खुल गए थे.
सडकों के किनारे छोटे छोटे दुकानों का जमघट सा लग गया था. जानी पहचानी दुकानों को
ढूंढना पड़ता. पहले जहां सडकों पर इक्का दुक्का कार दौड़ती
नज़र आती थी, अब सड़कों पर ट्रैफिक जाम होने लगे थे
. बड़ी तेजी से बदल रहा था शहर उसका, पर उसे अपना वो पुराना ऊंघता
हुआ शहर ही प्यारा और अपना सा लगता
.
फिर अनिमेष ने सर झटक दिया ,’क्या वो अपने शहर को तरक्की करते हुए नहीं देखना चाहता ‘. तभी
हवा की एक लहर आई और अपने साथ अदरक इलायची वाली चाय की खुशबू भी लेती आई. ये तो
रघु काका के चाय की खुशबू है. इधर उधर देखा तो पाया, सामने ही दो चमकते जनरल स्टोर के
बीच में रघु काका की चाय की टपरी छुप सी गई थी. पर थी बिलकुल जस की तस .वही सामने
लकड़ी के तख्ते पर बिस्कुट के बड़े बड़े डब्बे और एक तरफ स्टोव पर अदरक-इलायची
वाली ,उबलती चाय. स्कूल जाते वक़्त हमेशा इसी
राह से गुजरना होता .जब स्कूल में था,तब चाय तो नहीं पीता था, आदत तो अब भी नहीं थी. पर ये चाय की खुशबू बड़ी जानी-पहचानी सी लगती और जब भी अपने शहर
आता, थोड़ी देर बाहर ही खडा, इस खुशबू को अपने अन्दर भरता रहता और
फिर अन्दर चला जाता.
आज
भी थोड़ी देर बाहर खड़े रहकर जैसे ही
अन्दर गया .एक तरफ कुर्सी पर बैठे उसके स्कूल के हिन्दी सर दिख गए. वे तो शायद उसे नहीं पहचान पाते . उसने
सामने जाकर 'नमस्ते सर' कहा और सर ने अपनी ऐनक ठीक करते नज़रें
उठा कर देखा और आदतन बोल गए, ”खुश रहो बेटा...कैसे हो ?”
“ठीक हूँ सर...आप कैसे हैं ?”
“तुssम ..अनिमेष हो न...अच्छाss..अच्छाss..रीयूनियन
के लिए आये हो. देख कर बहुत अच्छा लगता है कि तुमलोग अपने स्कूल को भूले नहीं हो.
अच्छा रिवाज़ शुरू हुआ है. हमलोग भी अपने पुराने छात्रों से मिल लेते हैं “.सर ने उसे पहचान लिया था .
“नहीं सर, मैं तो यूँ ही घर आया हुआ था. हमारी बैच का रीयूनियन है? मुझे नहीं पता था“
“कल ही तो है. जरूर आना बेटा. शाम चार
बजे है, बहुत सारे छात्र आते हैं. तुम सबसे
मिलकर बहुत अच्छा लगेगा. चलो अब चलता हूँ...कितने हुए चाय के? ” सर अपने कुरते की जेब में हाथ डालने ही वाले थे कि अनिमेष ने रोक
दिया, ”सर प्लीsज़ ”
आगे
कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ी. सर हंस दिए,”ठीक है ठीक है...आज की चाय तुम्हारी
तरफ से”
सर
तो चले गए पर वो बड़े पेशोपेश में पड़ गया .वो जाए या नहीं , उसे इस रीयूनियन की कोई खबर नहीं थी.
खबर भी कैसे होती,
वो
किसी सोशल नेटवर्क साईट पर तो था नहीं. उसे ये सब फ़िज़ूल का समय बर्बाद करना
लगता. जिनलोगों से संपर्क में रहना चाहता उनके फोन नंबर तो उसके पास थे ही. रोज
रोज बात नहीं होती पर एक दूसरे की ज़िन्दगी में क्या चल रहा है , इसकी खबर होती थी. दो साल पहले रंजन ने
बताया तो था . अनिमेष से पूछा भी था बल्कि जोर भी डाला था रीयूनियन में चलने के लिए
.स्कूल के सभी पुराने छात्रों ने फेसबुक पर अपने स्कूल की कोई कम्युनिटी बनाई थी , और वहीँ रीयूनियन का प्लान किया था .वह
तो फेसबुक पर है ही नहीं.पहली बार रंजन ने बताया था .पर उसने मना कर दिया. इतना
ज्यादा किसी से मिलने की चाह नहीं थी.
और कुछ औपचारिक बातों और बनावटी
मुस्कुराहटों के लिए वो छुट्टी लेकर जाए, उसे मंजूर नहीं था. बाद में
उसकी अनिच्छा देख फिर रंजन ने भी जिक्र नहीं किया.
पर आज तो इसी शहर में था. उसके पास समय भी था ..अनिमेष ने तुरंत
रंजन को फोन मिलाया . रंजन
इस बार नहीं आ रहा था पर उसने अखिल का फोन नंबर दिया .जो इस आयोजन का
कर्ता-धर्ता था . अखिल तो उसका नाम सुनते
ही उछल पडा, ”अरे हमारे बैच के स्टार, तुम शहर में हो और किसी को खबर ही
नहीं. तुम्हे तो आना ही पड़ेगा .मैं लेने
आउंगा...किसी 'ना' का तो सवाल ही नहीं.
उसने
आश्वस्त किया ,
“ना
लेने आने की जरूरत नहीं. मैं खुद समय से पहुँच जाऊँगा “
अब
जब जाने का मन बना लिया तो जैसे वो स्कूल के दिनों में ही पहुँच गया . कितने
बेफिक्री भरे दिन थे वे, बस
पढाई और क्रिकेट दो ही शौक या कहें जूनून था उसके जीवन में .
सारे
टीचर्स उसे बहुत मानते थे क्यूंकि मन लगाकर पढ़ाई करता ,समय पर होमवर्क करता ,कोई शैतानी नहीं करता और क्लास में
फर्स्ट तो खैर आना ही था . घर आकर स्कूल बैग घर पर पटकता और फिर माँ जो भी देती
बिना नखरे के खा कर खेल के मैदान में . क्यूंकि ना
नुकुर
करने में समय बर्बाद होता और उसे अपने खेल का एक मिनट भी बर्बाद करना पसंद नहीं था
.अंधेरा होने के पहले ही घर वापसी .फिर पढ़ाई और खाना खा कर सो जाना .इस रूटीन में
कोई बदलाव नहीं आता.
टीचर्स
का, अपने आस-पास के बड़े बूढों का तो वह
बहुत प्यारा था पर उसकी उम्र के बच्चे उसे ज्यादा पसंद नहीं करते, क्यूंकि हर वक़्त उन्हें अनिमेष का
उदाहरण दिया जाता. "देखो, कितना अच्छा लड़का है .कितना मन लगाकर पढाई करता है ".स्कूल में
भी उस से सब थोडा दूर –दूर
रहते .सिर्फ परीक्षा के दिनों में उसके आस-पास मंडराते रहते. ‘अनिमेष मैथ्स का ये सवाल समझा दो’, ‘हिस्ट्री के नोट्स दे दो’, ‘जरा ग्रामर में हेल्प कर दो’. लडकियां भी अपने नोट बुक्स लेकर
आगे-पीछे घूमती रहतीं. वो सबकी हेल्प कर देता और फिर वहाँ से उठ कर चल देता. किसी
से भी जरूरत से ज्यादा बातें नहीं करता. उसे भी गुस्सा आता बस एग्जाम के दिनों में
ही सबको अनिमेष की याद आती है.
पर एक बार
कुछ ऐसा हुआ कि वो एक दिन में ही स्कूल का हीरो बन गया
एक
दिन वह स्कूल से निकल घर की तरफ बढ़ा ही था कि उसके क्लास की अंकिता दौड़ती हुई
उसके पास आयी, ‘अनिमेष अनिमेष...देखो न सुरेश को कुछ
लोग पीट रहे हैं.’
उसे
इन सबमे नहीं पड़ना था फिर भी उसने सोचा कोई मुसीबत में है, उसकी मदद करनी चाहिए . स्कूल के पीछे
की तरफ दो लड़के मिलकर एक दुबले-पतले मरियल से लड़के सुरेश को मार रहे थे . अनिमेष
ने उनमे से एक से कहा, “दो
लोग मिल कर एक को क्यूँ मार रहे हो...जाने दो न उसे “
”तुम्हे क्या है....जाओ तुम यहाँ से “ उस लड़के ने अनिमेष को धक्का देकर हटाते
हुए कहा .
“इस तरह किसी को मारना ठीक नहीं...चलो
सुरेश..मेरे साथ चलो” कहते
अनिमेष ने सुरेश को अपने साथ आने का इशारा किया.
सुरेश
ने आशा भरी आँखों से उसे देखा और उठ कर उसकी तरफ बढ़ा .तभी एक लड़के ने सुरेश का
कॉलर पकड़ लिया, ”किधर चला..”
अनिमेष
के फिर से कहने पर कि “छोड़
दो लड़के को ” एक लड़का उसकी तरफ बढ़ा और उसे धक्का
देते हुए बहुत ही बद्तमीजी से कहा, “ जा जा किताबों में मुहं छुपा कर बैठ और कुछ बोला तो सारे दांत तोड़
कर हाथ में दे दूंगा ”
इतना
सुनते ही अनिमेष के अन्दर गुस्से का एक सैलाब उठा. उसने थोड़ी दूर पर खड़ी अंकिता को अपना
बैग थमाया ,और तूफ़ान की तरह वहीँ से दौड़ते हुए
आया और उस लड़के को जोर से धक्का दे जमीन पर गिरा दिया. दूसरा लड़का हतप्रभ रह गया
और उसकी तरफ बढ़ा पर अनिमेष पर जैसे गुस्से का भूत सवार हो गया था . ज़िन्दगी में
पहली बार किसी ने उस से इतनी बद्तमीज़ी से बात की थी . उसके अन्दर जैसे पांच लोगों
की ताकत आ गयी थी. वैसे भी घंटो क्रिकेट के अभ्यास से उसका शरीर मजबूत हो गया था.
जबकि ये लड़के न तो पढ़ते थे और न ही खेल में कोई रूचि थी उनकी . दो दो साल से फेल
हो रहे थे और सारा दिन कोने में बैठ हंसी मजाक करते, फ़िल्में देखने जाते या फिर पत्ते खेलते. उनके शरीर में जान नहीं थी.
अनिमेष अंधाधुंध हाथ पाँव सब चला रहा था . उसकी शर्ट के बटन टूट गए, शर्ट भी फट गयी . मार-पीट शायद और
थोड़ी देर चलती पर इतने में छोटी सी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी किसी ने स्कूल में जाकर
बता दिया था और दो टीचर दौड़ते हुए आये , और बहुत फटकारा उन्हें.
अनिमेष
को भी डांट लगाई. अनिमेष ने अपना बैग लिया और घर की तरफ चल पडा.
घर
पर छोटे भाई ने पहले ही जाकर बता दिया था .माँ ने डांटा , “अब यही सब करो. तुम्हे क्या जरूरत थी
बीच में पड़ने की. नयी शर्ट भी फट गयी ” (शर्ट फट जाने का अफ़सोस तो उसे भी
था. तब साल में दो बार ही कपड़े बनते थे होली और छठ में. फिर धुल धुल कर उनके रंग
उतर जायें या वे फट जाएँ ,उन्हें ही सिलवा कर पूरे साल काम
चलाना पड़ता था )
पर अभी अनिमेष को शर्ट के फट
जाने के दुःख से ज्यादा दुःख माँ की डांट से हो रहा था. गुस्से में बोला, “तो क्या करता उस लड़के को मार खाने देता ?? अकेले लड़के को सब पीट रहे थे ”
पर
माँ से तो इतना कह गया. जब शाम को पिताजी ऑफिस
से आये ,उनके कानों में भी बात पड़ी और
उन्होंने भी डांटा तब अनिमेष सर झुकाए बस सुनता रहा . मन ही मन सोच रहा था , किसी की मदद करना क्या इतनी बुरी बात
है ,आज तक सबने तारीफ़ ही की पर अब टीचर, माँ, पापा सब डांट रहे हैं . बस छोटा भाई
बहुत खुश था, सोते वक़्त धीरे धीरे बोल रहा था, “क्या मारा भैया तुमने, उन्हें.... धूल चटा दी...बड़ा मजा आया “
पर
सबसे डांट सुनकर अनिमेष का मन खिन्न हो गया था, उसने भाई को डांट दिया ,”सो जाओ चुपचाप “
सुबह सुना , पापा बगल वाले शेखर दादा से कह रहे थे, ”किसी की रक्षा के लिए सामने आना बहुत बड़ी बात है , अच्छा किया अनिमेष ने “
शेखर
दादा तो पहले ही उसे बहुत मानते थे ,कहने लगे..”लोरका तो आपका हीरा है हीरा ”
रात
का मलाल उसके मन से मिट गया . खुश खुश स्कूल गया तो पाया , सबकी नज़रें उसपर ही टिकी हैं. सब कल
की ही बातें कर रहे हैं , क्लास के लड़के-लड़कियों ने उसे घेर लिया ,”सुना बहुत मारा तूने उन लड़कों को किधर
छुपाकर रखा था अपना ये रूप..”
“तुम्हारा बैग कितना भारी है अनिमेष
..क्या क्या भरे रहते हो इसमें. इतनी देर उठाये उठाये मेरे हाथ दुःख गए “ अंकिता बार बार ये दुहरा कर सबको जता
रही थी कि उसने अनिमेष का बैग उठा रखा था .
अनिमेष
को इन सबका इतना अटेंशन पाकर ख़ुशी कम नाराज़गी ज्यादा हो रही थी. इतने मन से
पढ़ाई करने पर, हमेशा फर्स्ट आने पर सबने इतनी सम्मान
भरी नज़रों से नहीं देखा और ज़रा सी मार-पीट करते ही उसकी इज्जत बढ़ गयी .
उसने इन
सबको ज्यादा तवज्जो नहीं दी. उसे ज़िन्दगी में बहुत कुछ करना था, बहुत आगे जाना था. उसके बड़े बड़े सपने
थे और बहुत जल्दी उसे पता चल गया था ,उन सपनो के ताले की कुंजी थी ‘पढाई’ . अच्छी
पढ़ाई से ही उसे आई आई टी में एडमिशन मिल
सकती थी और उसके बाद तो फिर ‘स्काई इज़ द लिमिट ‘ उसने खुद को पढ़ाई में झोंक दिया. अंतिम छः महीने तो उसने क्रिकेट को
भी अलविदा कह दिया. एक जूनून सा सवार हो गया था .सुबह जल्दी जाग कर रात में देर से
सोता. खाना भी पढ़ते पढ़ते ही खाता. कभी कभी भाई उसकी थाली में से रोटी उठा लेता और
जब वो खाली थाली में हाथ घुमाता रहता तो जोर से हंस पड़ता. माँ भाई को डांटती और
फिर उसकी भी मनुहार करतीं, “खाते समय तो किताब अलग रख दे.” पर
उसका ध्यान तो किताब पर रहता, ये सब जैसे उसे सुनाई ही नहीं
देता.
आशानुसार
रिजल्ट भी आया .एक प्रतिष्ठित कॉलेज में उसका एडमिशन हो गया .घर से हॉस्टल में आ
गया पर इसके सिवा और कुछ नहीं बदला .यहाँ भी वो सिर्फ पढाई से ही मतलब रखता . और
जब कोर्स बुक से ऊबता तो लाइब्रेरी की खाक छानता . चार साल कट गए और अंतिम वर्ष
में एक बढ़िया कम्पनी में जॉब भी मिल गयी .
अब
उसकी असली ज़िन्दगी की जंग शुरू हुई. अब तक सब कुछ बहुत आसान था. बस पढ़ाई करना, इम्तहान देना और क्रिकेट मैच देखना .
किताबों से बाहर की दुनिया उसने देखी नहीं थी और लगा अचानक जैसे किसी अनजान देश
में चला आया है. सब कुछ नया सा लगता ,उसे. अब तक अपने पहनावे के प्रति बेपरवाह
था. दो जींस और चार टी शर्ट में ही साल गुजर जाता. पर अब पूरी बांह की शर्ट, ट्राउजर और चमकते जूते में कैद होना
पड़ता. प्रत्येक शुक्रवार को सब अलग अलग टी शर्ट में नजर आते. उसे भी मजबूरन खरीदनी
पडती. सबकी भाषा भी अलग सी ही लगती. उसकी अंग्रेजी अच्छी थी पर शुद्ध किताबी
अंग्रेजी थी . ऑफिस की शब्दावली ही अलग थी . कौन कौन से शब्दबोलते ये लोग , कूल,ब्रो, डूड, चिल्ल, चिक, ग्रामर का भी घालमेल कर देते. ये
सारे शब्द बोल तो अब भी नहीं पाता वह ,पर अब अटपटा नहीं लगता. आदत पड़ रही थी.
खाने-पीने में भी बर्गर, सैंडविच, पिज़्ज़ा, पेस्ट्री की आदत डाल रहा था . आये दिन ऑफिस में किसी न किसी का
बर्थडे होता और फिर यही सब चीज़ें मंगवाई जातीं. महानगर की जीवनशैली ही अलग थी. हर
वीकेंड्स पर ये लोग फिल्म-पार्टी-पिकनिक का प्लान बना लेते. फिल्म और पिकनिक के
लिए फिर भी वह साथ चला जाता पर पार्टी के लिए तैयार नहीं होता. सब जम कर पीते और
डांस करते.
दोनों ही उसके वश का नहीं था . वह अपनी तरह से अपनी छुट्टियां बिताता. अपने
तरीके से शहर घूमता ,कभी
भी कोई ट्रेन पकड़ कर किसी छोटे से स्टेशन पर उतर जाता ,फिर वहाँ से किसी गाँव में चला जाता .
एक
बार यूँ ही खेत के किनारे खड़ा एक किसान को हल चलाते देख रहा था. खेत में गोल गोल चक्कर लगाते किसान दो तीन बार
पास से गुजरा और फिर पूछ ही लिया.."क्या देख रहे हो भैया ?? " और उसने अचानक से कह दिया.."मैं
एक बार हल चला कर देखूं ? "
किसान हंसने लगा और इशारे से उसे बुला लिया. पहली बार
हल चला कर उसे बहुत मजा आया. थोड़ी देर
बाद किसान बोला,
"बस
भैया...अब मैं घर जाउंगा...रोटी खाने " फिर थोडा ठहर कर हिचकते हुए बोला, "आप साथ चलोगे ?"
किसान
ने बैलों को एक बैलगाड़ी में जोता और घर की तरफ चल दिया. अनिमेष भी बैलगाड़ी पर
बैठ गया . संकरी सी पगडंडी पर हिचकोले खाती बैलगाड़ी . दोनों तरफ लहलहाते खेत किसी
और ही दुनिया का आभास देते. फूस की झोपडी थी पर साफ़ सुथरी .सामने की जगह मिटटी से
लीपी हुई थी. एक तरफ एक चारपाई खड़ी की हुई थी. किसान ने चारपाई बिछा दी और बोला, "आप बैठो बाबू ..."
पास
ही अमरुद के पेड़ पर चढ़ी दो छोटी लडकियां
दौड़ती हुई पास आ गयी," बाबा आ गए...बाबा आ गए
"
फिर
उसे देख सहम कर थोड़ी दूर पर ही ठिठक गईं .अनिमेष,उन्हें पास बुला कर उनका नाम पूछने
लगा.
तब
तक किसना बैलों को दाना डाल कर चापाकल से हाथ-पैर धोने लगा.
वह
भी हाथ मुहं धोने उठ आया .
हाथ
मुहं धोकर आया तो देखा चारपाई पर दो बड़े
से थाल में करारी सिंकी दो मोटी रोटियाँ, चटनी और प्याज रखे थे .किसान
की पत्नी पल्लू को दांतों से पकडे पास ही एक बड़े से लोटे में पानी लिए
खड़ी थी .
"बाबू जो रुखा सूखा हम खाते हैं वही
आपके लिए भी है.."
रोटियाँ
और चटनी देख उसे भूख लग आयी थी. उन्हें
धन्यवाद कहना अजीब औपचारिक सा लगा. इसलिए जल्दी से थाली खींच कर एक टुकड़ा रोटी का
चटनी में लगाकर मुहं में डाला और बोला, "बहुत स्वाद है...बड़ी अच्छी बनी है
" अनिमेष सोचने लगा. स्वाद के लिए बस भूख होनी चाहिए. जिन्हें भूख नहीं लगती, वे ही खाने में स्वाद डालने के सौ जतन
करते हैं. जम कर भूख लगी हो तो हर खाना स्वादिष्ट लगता है .और तेज भूख तभी लगेगी
जब कड़ी मेहनत की गयी हो .आज उसने भी मेहनत की है तो ये चटनी रोटी भी इतना
सुस्वादु लग रहा है. उसे चटनी बहुत अच्छी लगी और सोचने लगा, ऐसी चटनी बनाने का जुगाड़ हो जाए तो
फिर वो भी सिर्फ रोटी और प्याज से काम चला सकता है.
खाना
खा कर किसान फिर से खेतों की तरफ जाने लगा
. अनिमेष से भी पूछा पर उसने मना कर दिया . वह अभी गाँव में थोड़ा घूमना चाहता था
. जाते वक़्त दोनों लडकियां झोपडी के पास लगे छोटे से सब्जियों वाले खेत से उसके
लिए एक खरबूजा तोड़ लाई. और शरमाती हुई उसे देने लगीं. अनिमेष ने बिना ना नुकुर के
ले लिया. समझ नहीं पा रहा था
, उनका कैसे शुक्रिया अदा करे .बस इतना ही कहा, "यहाँ आकर बहुत अच्छा लगा, फिर आऊंगा " .
थोडा
आगे बढ़ा तो कुछ लड़के कंचे खेल रहे थे .उनके साथ थोड़ी देर कंचा खेला. सबके साथ
मिलकर खरबूजा खाया .और फिर शाम को शहर लौट आया. ऐसे ही उसने दुनिया देखने का भी
प्लान बना रखा था. खूब पैसे जमा करेगा और फिर पेरिस,स्विट्ज़रलैंड ,न्यूयार्क नहीं दुनिया के छोटे छोटे
शहर देखेगा. कैसी है ज़िन्दगी उनकी...कैसे रहते हैं लोग वहां .
अब
तक वह लड़कियों से दूर दूर रहता था. संयोग से कॉलेज में उसके बैच में ज्यादा
लडकियां भी नहीं थीं. और उसकी किसी से दोस्ती भी नहीं हुई. पर ऑफिस में लडकियां ही
लडकियां थीं . रंग बिरंगी चिड़ियों की तरह चहचहाती रहतीं. अपनी डेस्क पर टिक कर
बैठती भी नहीं. उसे बहुत जल्दी पता चल गया
था, ऑफिस के सारे लड़के/लडकियां काम को
लेकर बहुत सिंसियर नहीं है. लडकियां किसी
बहाने उससे बातचीत बढ़ातीं और फिर अपना काम उसके सर पर डाल चल देतीं. अनिमेष को गुस्सा
नहीं आता क्यूंकि उसे बिजी रहना अच्छा लगता था और काम भी सीखने को मिलता.पर काम के
बाद जो थैक्यू का सिलसिला शुरू होता, उस से उसे चिढ़ थी.
अक्सर
उसे लडकियाँ ओवर फ्रेंडली लगतीं. बात शुरू कर देतीं, किसी बहाने से फोन करतीं, अक्सर चाय-कॉफ़ी के लिए भी साथ जाना पड़ता. अनिमेष समझता था वह और
लड़कों से थोडा अलग है, आगे
बढ़कर उनसे दोस्ती का हाथ नहीं बढाता. उनसे हंसी मजाक नहीं करता , इसलिए वे उसपर भरोसा करती हैं. और करीब
आना चाहती हैं ,पर वो भी क्या करे, उसकी रुचियाँ उनसे बिलकुल ही मेल नहीं
खातीं. किसी भी विषय पर वो एक प्लेटफॉर्म पर होते ही नहीं. उसे एक्शन मूवीज, साइंस फिक्शन पसंद आते तो लड़कियों को रोमांटिक फ़िल्में
.उसे इंस्ट्रूमेंट बेस्ड म्युज़िक पसंद था
तो लडकियों को बॉलीवुड गाने . ज्यादातर बातचीत में वो हाँ हूँ ही करता रह जाता और
उम्मीद करता कि उसकी हाँ हूँ से बोर होकर वे उस से दूर हो जायेंगी. पर लड़कियों को
इतना अच्छा श्रोता कहाँ मिलता ? उसे ही उनसे दूर रहने के सौ
बहाने बनाने पड़ते, कभी
मोबाइल स्विच ऑफ कर देता , कभी बीमारी का बहाना बनाता . तंग आ गया था पर निजात नहीं मिल रही थी
. बस कंपनी चेंज करता, शहर
बदलता तो थोड़े दिन की राहत मिलती पर फिर वही सारे वाकये सिरे से खुद को दुहराते .
और
अब तो घर वाले किसी के पल्ले उसे बाँधने के लिए बेताब थे . बार बार दुहराते ,’उसे नौकरी करते हुए पांच साल हो गए हैं
अब तो सेटल हो जाना चाहिए ‘. पर उसे सेटल होने वाली बात समझ में नहीं आती .वो सेटल ही तो था, अपनी मर्जी से अपनी ज़िन्दगी जी रहा
था. उसे वो स्टीरियो टाइप ज़िन्दगी नहीं चाहिए थी. पढाई-नौकरी-शादी-बच्चे के चक्कर
में नहीं फंसना था .उसे अपनी ज़िन्दगी अपनी तरह से जीनी थी. पर उसकी बात कोई नहीं
समझता. माँ-पापा-रिश्तेदारों-पड़ोसियों
की एक ही रट सुन उसने घर आना भी कम कर दिया था.
इस
बार तो माँ से कह ही दिया, ‘अगर वो शादी की बात करेंगी, फोटो दिखाना शुरू करेंगीं तो फिर वह घर
नहीं आएगा “
माँ
का ख्याल आते ही ध्यान आया कब से वो सड़कों पर ही भटक रहा है. अन्धेरा होने को आया ,माँ परेशान हो रही होंगीं कि कहाँ चला
गया. जल्दी जल्दी घर की तरफ कदम बढ़ा दिए.
दूसरे
दिन वह समय से अपने स्कूल पहुँच गया. गेट पर ही बैनर लगा हुआ था और सजे-धजे लोग
भीतर जा रहे थे. लग रहा था जैसे कोई उत्सव हो. अखिल गेट पर ही मिल गया. गर्मजोशी
से हाथ मिलाया और फिर गले ही लग गया .और भी दोस्त आस-पास सिमट आये .वो सबको पहचान
भी नहीं पा रहा था . दस साल बाद मिल रहा था सबसे . बहुत बदल गए थे सब , चेहरा तो फिर भी गौर से देखने पर
जाना-पहचाना लग रहा था पर सबका शरीर भर गया था .सबके नाम भी नहीं याद आ रहे थे. .अन्दर
आकर उसने अखिल से कह भी दिया तो अखिल हो हो कर हंसने लगा, ”फिकर न कर ..तुझे सब पहचनाते हैं..तेरी सारी खबर है सबको. आखिर स्टार थे हमारे स्कूल के.अब भी
नहीं बदले तुम तो. और कैसे बदलोगे अब तक छड़े घूम रहे हो..यार शादी क्यूँ नहीं की
अबतक ?”
“अब तू भी शुरू मत हो जा...कोई ये सवाल
करे तो फिर मैं वहां जाना ही छोड़ देता हूँ..”
“अरे बाबा कोई नहीं...चिल्ल...नहीं
करेंगे कोई सवाल “
अखिल
के कंधे पर किसी ने हाथ मारा और अखिल उस से मुड़ कर बातें करने लगा. अनिमेष हॉल
में सबका जायजा लेने लगा ,लडकियां जो अब औरतें ज्यादा लग रही थीं एक घेरा बना कर बैठी थीं. कुछ
के गोद में छोटे बच्चे थे तो कुछ की उंगलियाँ पकडे बच्चे हैरानी से सबको देख रहे
थे . उनके पास में ही एक लड़की कुर्ता जींस में ,गले में बड़े बड़े मोतियों की माला डाले , कानों में लम्बे इयर रिंग्स पहने खड़ी
थी. उसके काले बालों के बीच एक लट हाई लाईट किये हुए लाल रंग की थी. अनिमेष को
यकीन हो गया कि ये लड़की उसके बैच की तो हो ही नहीं सकती .
उसने
पास खड़े अमित से पूछ लिया, “जूनियर्स भी आये हैं क्या ??
” नहीं जुनियर्स तो नहीं पर जिनके भाई-बहन इसी स्कूल में पढ़े हैं और
शहर में हैं वे साथ में आये हैं ." अमित ने बताया
अनिमेष
ने सोचा, ’उसके स्कूल से निकल जाने के बाद इतनी
फैशनेबल लडकियां पढने लगीं, बहुत तरक्की कर ली उसके स्कूल ने “ उसके वक़्त में लड़के लड़कियों के अलग अलग ग्रुप में रहने का रिवाज आज भी कायम था
.आज भी लड़के अलग गोल बना कर खड़े थे और लडकियां अलग घेरा बना कर बैठी थीं .
वो
लड़कों के साथ खड़ा था. करीब करीब सभी दोस्तों की शादी हो चुकी थी और वे बढ़ते
खर्चों और इन्वेस्टमेंट की बातें ही ज्यादा कर रहे थे . अनिमेष सबकी बस सुन रहा था, उनकी बातों में शामिल नहीं हो पा रहा
था .वह थोडा अलग हटकर खिड़की के पास खड़ा हो गया ,जहाँ से स्कूल का मैदान दिख रहा था . वही मैदान जहाँ हज़ारों रन बनाए
थे ,सैकड़ों विकेट चटकाए थे और कैच पकडे थे
. अब बरसों हो गए बैट थामे. उन दिनों एक अच्छे से बैट की कितनी हसरत थी उसे. दूकान
में तीन सौ के बैट को उलट-पुलट कर देखता और फिर रख देता. जानता था उसके पिता की सीमित आय में ये
शहंशाही खर्च संभव नहीं .आज चाहे तो रोज तीन सौ का एक बैट खरीद कर फेंक दे.पर वो
दिन कहाँ से लौटा कर लाये?
इन्हीं
सोचों में गुम था कि अपना नाम सुन कर पलटा. सामने वही जींस वाली लड़की खडी थी .”कैसे हो..पहली बार आये हो रीयूनियन पर??...बिजी रहते होगे “
अनिमेष
की आँखों में आये अपरिचय के भाव को पढ़ कर हंस दी वह, ”नहीं पहचाना मुझे? अंकिता...तुम्हारी क्लास में थी “
“ओह ओके...” पर उसके क्लास की कैसे हो सकती है ? उसकी क्लास में तो सारी लडकियां सलवार
कुरता पहनतीं और कंधे पर चौड़ा सा तह किया हुआ दुपट्टा लेतीं थीं या फिर घुटनों तक
ढीला ढाला स्कर्ट. और दो चोटियाँ तो सबकी होती थीं. कुछ उसे डबल कर कान के पास बाँध
लेतीं उनके कान के पास दो बड़े बड़े लाल फीते के फूल देख उसे हमेशा ही हंसी आ जाती
.अगर उसके क्लास की होगी भी तो इतना कैसे बदल सकती है. इसे कोई ग़लतफ़हमी तो नहीं
हो गयी.
तभी
उसने नाक फुला कर कहा ,“क्या
इतनी मोटी हो गयी हूँ कि तुम पहचान ही नहीं रहे “
इन
लड़कियों को बस मोटे-पतले की ही चिंता रहती है, “नहीं नहीं पहचान लिया ...” वो सफ़ेद झूठ बोल गया.
“तुम लास्ट टू रीयूनियन में क्यूँ नहीं
आये ?...कितना अच्छा लगता है सबसे मिलकर ..कहाँ
से चले थे हम और कहाँ पहुँच गए पर अपने बैच के साथ बड़ी अच्छी बात है , सबकी ज़िन्दगी में पौज़िटिव चेंज ही
आये हैं.
अनिमेष
को पक्का यकीन हो गया . इसकी शादी जरूर विदेश में हुई है तभी इसका रंग-ढंग इतना
बदल गया है. पर ये है कौन ?
वो
अपनी रौ में बोलती चली जा रही थी..”क्या दिन थे वे न...कोई फिकर नहीं कोई चिंता नहीं...बस जिए
जाओ..खाओ-पियो-पढो और मस्त रहो. मैं तो वैसे अब भी वैसी ही ज़िन्दगी जीती हूँ पर
ये घर वाले और दुनिया वाले राम जाने इनके पेट में इतना दर्द क्यूँ होता है “
“क्यूँ क्या हुआ “..उसे सचमुच समझ नहीं आ रहा था .
‘अरे वही शादी की ‘रट’ जैसे ज़िंदगी की सबसे जरूरी चीज़ है यह. रात-दिन मेहनत करके
पढो-लिखो...पैसे कमाओ और फिर जब अपने ढंग से जीने का समय आये तो शादी करके बैठ जाओ
.वही घर –गृहस्थी -बच्चे .मुझे नहीं पड़ना इस
जंजाल में “
मुस्कुरा
दिया अनिमेष,’ये तो उसकी भाषा बोल रही है .’
“हाँ, हंसो हंसो....सबको ये बेवकूफी भरी बात ही लगती है. छोडो तुम नहीं
समझोगे और सुनाओ....कहाँ हो आजकल...कैसी हैं तुम्हारी पत्नीश्री और बच्चे “
“हम्म... अब तक उनका पदार्पण तो हुआ
नहीं ज़िन्दगी में “
“ओहो !!! शहर के मोस्ट एलिजिबल बैचलर हो
तब तो तुम.....हाँ चाचा-चाची को कोई पसंद ही नहीं आ रही होगी ना ....अक्सर होता है
,पैरेंट्स को लगता है,उनके बेटे के लायक तो कोई लड़की
पैदा ही नहीं हुई...वे लडकियां छांटते चले
जाते हैं और बेटे की उम्र बढती चली जाती है...मेरी पूरी हमदर्दी है,तुम्हारे साथ...करो अपनी ड्रीम गर्ल का
इंतज़ार “
“ऐसा कुछ नहीं है, ओके ...वो मैंने ही मना कर रखा है...”
‘ओह!! अच्छा ऑफिस में कोई पसंद होगी पर
तुम्हारे कास्ट की नहीं होगी ..इसीलिए श्रवण कुमार डर रहें होंगे...माता-पिता को
कैसे बताएं ..है न ”
अब अनिमेष
को बहुत गुस्सा आ रहा था ,वो पहचान भी नहीं रहा है इसे और ये इलज़ाम लगाए जा रही है उस पर .
उसने भी उसे झटका देने की सोची, ” तुम सचमुच हमारे बैच की हो...पर मैं पहचान नहीं पा रहा “
“बताया तो नाम ‘अंकिता’ . अरे,
अब
तक थैंक्यू उधार है,तुम
पर....तुम्हे हीरो बना दिया था पूरे स्कूल का .याद है? टेंथ में वो जो फाईट की थी तुमने दो
लड़कों के साथ . मैंने ही तो तुम्हे बुलाया था .तुम तो अपने रास्ते जा रहे थे. नहीं बुलाती तो तुम कैसे फाईट करते और
कैसे हीरो बनते और सारे समय तुम्हारा बैग
भी उठा कर रखा था “
“ओह्ह !! “ वो खुलकर मुस्करा दिया .उसे पुरानी
अंकिता पूरी की पूरी याद हो आयी. वही कंधे तक लटकती दो चोटियाँ और लम्बी सी स्कर्ट.
बिलकुल सींक सलाई सी थी. अब कोई मिलान ही नहीं था इस नयी और उस पुरानी अंकिता में ,
’वो बैग उठाये रखने वाली बात अब तक
कितनी बार दुहराई जा चुकी है “हँसते हुए कहा,उसने
“हाँ तो कोई झूठ तो नहीं बोला...”
तभी
विजय पास आ गया ,
“ ये
बढ़िया मौक़ा है ,कल मेरे छोटे भाई की शादी है . इतना
काम रहते हुए भी मैं सिर्फ सबको इनवाईट करने आया हूँ. सब एक ही जगह मिल गए. कितना
अच्छा लग रहा है सबको साथ देख. अंकिता...अनिमेष..तुम दोनों को भी आना पड़ेगा. “
“मुझे तो तुम पहले ही बता चुके हो और
मैं आ भी रही हूँ...इन छुपे रुस्तम से पूछ लो ”
‘पर मैं तो कल शाम जा रहा हूँ...मेरी
छुट्टी ख़त्म हो गयी है..”
“अरे एक्सटेंड कर लो न..इतने सालों बाद
मिले हो..अच्छा लगेगा...फिर अगले साल आ पाओ या नहीं...” विजय ने बहुत जोर देकर कहा.
फिर
सबको खाने-पीने के लिए बुलाया जाने लगा . सब छोटे छोटे ग्रुप में खाने की टेबल की
तरफ बढ़ गए. जाने के समय अंकिता पास आयी और कहने लगी, ”आ रहे हो न कल..प्लीज़ ना मत कहना..तुम रहोगे तो मैं थोड़ी बची
रहूंगी..वरना घर परिवार क्या ये सारे दोस्त भी पीछे पड़े रहते हैं. किसी को मैं
अपनी पत्नी के भाई तो किसी को अपने पति के भाई के लिए सही मैच लगती हूँ. इनका वश
चले तो उसी मंडप में मेरा भी फेरा करवा दें ..तुम कल आ रहे हो बस ”
उसने
मुस्कुरा कर बस इतना कहा ,”देखता हूँ..”
पर
घर आया तो एक खुशनुमा अहसास उसे घेरे हुए था .पहली बार उसका भी मन हो रहा था किसी
से फिर से मिले. उसकी बातें सुने ...उसे बस देखता रहे . उसे नहीं पता ,इस राह की कोई मंजिल है भी या नहीं...या
है तो कितनी दूर पर सामने जो राह नज़र आ
रही थी उसपर कदम रखने को उसका दिल उस से मिन्नतें
कर रहा था और वह सोच रहा था ,पहली बार दिल ने कोई फरमाइश की है. एक बार उसकी भी सुन लेनी चाहिए.
.और वह अपनी लीव एक्सटेंड करवाने के लिए अपने बॉस को फोन मिलाने लगा .
बहुत रोचक लगी कहानी
जवाब देंहटाएंप्यारी कहानी :)
जवाब देंहटाएंबढ़िया, मन क्या चाशे-मनपसंद साथी 👌
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, सेठजी, मनिहारिन और राधा रानी “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (09-07-2018) को "देखना इस अंजुमन को" (चर्चा अंक-3027) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
Very nice
जवाब देंहटाएंSach Me kahani Padhkar bahut Prasannata mili, Padhakar yun laga jese Khet-Khalihano me Main bhi Ghum raha hun. Story ka best part tha " Khet me Mehanat karke Roti, Chatani aur Pyaj ka Bhojan karna,,"
जवाब देंहटाएंVese me bhi Prernadayak Hindi Khanaiya likhta hun. Mere Blog Ka Nam Hai "REAL INSPIRATION FOR U" (URL:- https://www.realinspirationforu.com) Ek bar Jarur Visit Kare. Dhanyawad