कविता वर्मा जी एक उत्कृष्ट लेखिका एवं समीक्षक हैं . इस वर्ष उनके कहानी संग्रह को राजस्थान अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया गया है.
बहुत आभार उनका, इस उपन्यास की समीक्षा के लिए.
कविता जी ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही है ,"यह उपन्यास तीव्रता से इस बात को बल देता है कि भारतीय परिवारों में बच्चों खासकर लड़कों की परवरिश को गंभीरता से देखने सुधारने की जरूरत है तो लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ साथ आत्म सम्मान से जीना सिखाने की। "
अगर सबलोग इस तरफ ध्यान दें तो समाज में सुख चैन आ जाए .
आपने किताब पढ़ा और उसपर लिखा भी ...पुनः आभार
उपन्यास काँच के शामियाने (समीक्षा )
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रश्मि रविजा का उपन्यास काँच के शामियाने जब मिला थोड़ी व्यस्तता थी तो कुछ गर्मी के अलसाए दिन। कुछ उपन्यास की मोटाई देखकर शुरू करने की हिम्मत नहीं हुई। फेसबुक और व्हाट्स अप के दौर में इतना पढ़ने की आदत जो छूट गई।
दो एक दिन बाद पुस्तक को हाथ में रखे यूं ही उलटते पुलटते पढ़ना शुरू किया। सबसे ज्यादा आकृष्ट किया प्रथम अध्याय के शीर्षक ने 'झील में तब्दील होती वो चंचल पहाड़ी नदी ' वाह जीवन के परिवर्तन को वर्णित करने का इससे ज्यादा खूबसूरत तरीका क्या हो सकता था / फिर जो पढ़ना शुरू किया तो झील के गर्भ में बहती धार सी कहानी में उतरती चली गई। बस वह कहानी अब कहानी नहीं रह गई थी वह शब्द चित्रों में बदलती किसी रील सी चलती चली जा रही थी। जिसमे सब विलीन हो गया आलस पृष्ठ अध्याय अतन्मयता सब। रह गई तो सिर्फ जया उसकी पीड़ा उसका संघर्ष उसकी जिजीविषा।
एक समय ऐसा भी आया जब मन में आक्रोश पूरे उफान पर था राजीव के लिए नहीं जया के लिए उसकी माँ भाई भाभी बहनों के लिए। रिश्तों के सतहीपन , मजबूरी की आड़ में कायरता जिम्मेदारी से भागने की कोशिश यही तो वास्तविकता है अधिकांश रिश्तों की जिनके लिए जीते मरते उनका मान रखते जिंदगी गुजार दी जाती है। राजीव और उसके परिवार के लिए तो घृणा थी वितृष्णा थी और ढेरों बद्दुआएँ थीं। इनके साथ भारतीय परिवारों का कड़वा बदबूदार सच भी था। पुरुषों की विकृत मानसिकता के पालन पोषण का घृणित दायित्व परिवार वाले ही निभाते हैं फिर भले वह उनके लिए ही मुसीबत बन जाये। धन लोलुपता सोचने समझने की शक्ति छीन लेती है तो ईर्ष्या असुरक्षा सही गलत की पहचान।
स्त्री के लिए सभी रिश्ते काँच के शामियाने ही साबित होते हैं जो उसे जीवन की कड़ी धूप से कतई नहीं बचाते और इस धूप में तप निखर कर वह कुंदन बन जाती है लेकिन कितनी स्त्रियाँ यह बड़ा प्रश्न है।
अलबत्ता जीवन की कड़वी हकीकतों को बारीकी से बुना गया है। हर पात्र अपनी अच्छाई निकृष्टता मजबूरी कायरता कुटिलता के साथ पूरी शिद्दत से अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है और खुद के लिए प्यार घृणा दया आक्रोश उत्पन्न कराने में पूरी तरह सक्षम है। यह उपन्यास तीव्रता से इस बात को बल देता है कि भारतीय परिवारों में बच्चों खासकर लड़कों की परवरिश को गंभीरता से देखने सुधारने की जरूरत है तो लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ साथ आत्म सम्मान से जीना सिखाने की।
रश्मि जी ने इस उपन्यास में ढेर सारे प्रश्न खड़े किये है जिसके जवाब समाज को ढूंढना है और ये उपन्यास सोच को समाधान ढूंढने की दिशा में मोड़ने में सक्षम है।
रश्मि जी को इस उपन्यास के लिए बहुत बहुत बधाई आप यूँ ही लिखती रहें समाज को नई सोच के साँचे में ढालने के लिए। आपके यशस्वी लेखन के लिए मेरी शुभकामनाये।
बहुत आभार उनका, इस उपन्यास की समीक्षा के लिए.
कविता जी ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही है ,"यह उपन्यास तीव्रता से इस बात को बल देता है कि भारतीय परिवारों में बच्चों खासकर लड़कों की परवरिश को गंभीरता से देखने सुधारने की जरूरत है तो लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ साथ आत्म सम्मान से जीना सिखाने की। "
अगर सबलोग इस तरफ ध्यान दें तो समाज में सुख चैन आ जाए .
आपने किताब पढ़ा और उसपर लिखा भी ...पुनः आभार
उपन्यास काँच के शामियाने (समीक्षा )
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रश्मि रविजा का उपन्यास काँच के शामियाने जब मिला थोड़ी व्यस्तता थी तो कुछ गर्मी के अलसाए दिन। कुछ उपन्यास की मोटाई देखकर शुरू करने की हिम्मत नहीं हुई। फेसबुक और व्हाट्स अप के दौर में इतना पढ़ने की आदत जो छूट गई।
दो एक दिन बाद पुस्तक को हाथ में रखे यूं ही उलटते पुलटते पढ़ना शुरू किया। सबसे ज्यादा आकृष्ट किया प्रथम अध्याय के शीर्षक ने 'झील में तब्दील होती वो चंचल पहाड़ी नदी ' वाह जीवन के परिवर्तन को वर्णित करने का इससे ज्यादा खूबसूरत तरीका क्या हो सकता था / फिर जो पढ़ना शुरू किया तो झील के गर्भ में बहती धार सी कहानी में उतरती चली गई। बस वह कहानी अब कहानी नहीं रह गई थी वह शब्द चित्रों में बदलती किसी रील सी चलती चली जा रही थी। जिसमे सब विलीन हो गया आलस पृष्ठ अध्याय अतन्मयता सब। रह गई तो सिर्फ जया उसकी पीड़ा उसका संघर्ष उसकी जिजीविषा।
एक समय ऐसा भी आया जब मन में आक्रोश पूरे उफान पर था राजीव के लिए नहीं जया के लिए उसकी माँ भाई भाभी बहनों के लिए। रिश्तों के सतहीपन , मजबूरी की आड़ में कायरता जिम्मेदारी से भागने की कोशिश यही तो वास्तविकता है अधिकांश रिश्तों की जिनके लिए जीते मरते उनका मान रखते जिंदगी गुजार दी जाती है। राजीव और उसके परिवार के लिए तो घृणा थी वितृष्णा थी और ढेरों बद्दुआएँ थीं। इनके साथ भारतीय परिवारों का कड़वा बदबूदार सच भी था। पुरुषों की विकृत मानसिकता के पालन पोषण का घृणित दायित्व परिवार वाले ही निभाते हैं फिर भले वह उनके लिए ही मुसीबत बन जाये। धन लोलुपता सोचने समझने की शक्ति छीन लेती है तो ईर्ष्या असुरक्षा सही गलत की पहचान।
स्त्री के लिए सभी रिश्ते काँच के शामियाने ही साबित होते हैं जो उसे जीवन की कड़ी धूप से कतई नहीं बचाते और इस धूप में तप निखर कर वह कुंदन बन जाती है लेकिन कितनी स्त्रियाँ यह बड़ा प्रश्न है।
अलबत्ता जीवन की कड़वी हकीकतों को बारीकी से बुना गया है। हर पात्र अपनी अच्छाई निकृष्टता मजबूरी कायरता कुटिलता के साथ पूरी शिद्दत से अपनी मौजूदगी दर्ज कराता है और खुद के लिए प्यार घृणा दया आक्रोश उत्पन्न कराने में पूरी तरह सक्षम है। यह उपन्यास तीव्रता से इस बात को बल देता है कि भारतीय परिवारों में बच्चों खासकर लड़कों की परवरिश को गंभीरता से देखने सुधारने की जरूरत है तो लड़कियों को आत्मनिर्भर बनाने के साथ साथ आत्म सम्मान से जीना सिखाने की।
रश्मि जी ने इस उपन्यास में ढेर सारे प्रश्न खड़े किये है जिसके जवाब समाज को ढूंढना है और ये उपन्यास सोच को समाधान ढूंढने की दिशा में मोड़ने में सक्षम है।
रश्मि जी को इस उपन्यास के लिए बहुत बहुत बधाई आप यूँ ही लिखती रहें समाज को नई सोच के साँचे में ढालने के लिए। आपके यशस्वी लेखन के लिए मेरी शुभकामनाये।
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