मंगलवार, 16 अक्तूबर 2012

गलतियाँ करने की इजाज़त भी उतनी ही जरूरी


कुछ दिनों से अखबारों में पढ़ी कुछ ख़बरों ने मस्तिष्क में उथल-पुथल मचा रखी है ...न तो उस विषय पर लिखना मुमकिन हो पा रहा है और न ही वो विषय किसी और विषय पर लिखने की इजाज़त दे रहा है।  हाल में ही कुछ  ख़बरें ऐसी आयीं जहाँ 21,22 वर्ष के बच्चों ने कच्ची उम्र में बेवकूफी भरा कदम उठा कर इस दुनिया को अलविदा कह दिया 

यह विषय इतना परेशान करता है कि  अब तक इसपर कई  पोस्ट लिख चुकी हूँ। फिर भी  समझ नहीं आ रहा आखिर ऐसा क्या हो कि  सबकुछ ठीक हो जाए। कोई भी ज़िन्दगी से हार कर ऐसा कदम उठाने को उद्धत न हो। 
दरअसल , मरना तो कोई भी नहीं चाहता पर जिनसे दर्द नाकाबिले बर्दाश्त हो जाता है, उन्हें कोई और राह नहीं सूझती। उन्हें इस दर्द से बचने का एक ही हल नज़र आता है, आत्महत्या .सबकी सहनशक्ति अलग अलग होती है।

पर जो लोग काफी दिनों से डिप्रेशन में हों ,निराश हों उनकी  सहायता के लिए मनोवैज्ञानिकों ने कई उपाय सुझाए  हैं। 

अगर कोई आत्महत्या की धमकी दे या आत्महत्या  की चर्चा करे तो कभी ऐसा नहीं सोचना चाहिए कि गरजने वाले बादल बरसते नहीं हैं। कितने भी मजाक में यह बात कही गयी हो पर उसके अन्दर का आंशिक सच ये होता है कि  उस व्यक्ति के दिमाग में यह चल रहा है .

यह कभी नहीं सोचना चाहिए कि  जिसने मरने की ठान ही ली थी,उसे रोका नहीं जा सकता था । कोई भी व्यक्ति मरना नहीं चाहता बस ये चाहता है कि वो उस कष्ट और उस दर्द से छुटकारा पा जाए और मरने के सिवा उसे इस दर्द से छुटकारे का कोई रास्ता नज़र नहीं आता। पर अगर उसे हलकी सी भी रौशनी दिखे तो वो ऐसे कदम उठाने से  बच सकता है। 

कई बार कोई दोस्त/रिश्तेदार/पडोसी चुप्पी ओढ़ ले, बात न करना चाहे तो उसकी मर्जी जान कर उसे उसके हाल पर छोड़ दिया जाता है कि  उसकी मनस्थिति जब अच्छी  होगी तो वो खुद बात करेगा। पर ये गलत है, उसके करीबी लोगों को अपने अहम् की परवाह किये बिना चाहे वो जितनी बार भी हाथ झटके, मदद के हाथ बढाने से बाज नहीं आना चाहिए। 
(फिल्म परदेस का ये डायलॉग मुझे हमेशा पसंद आता है "अगर कोई दोस्त दरवाजा बंद कर अन्दर बैठ जाए तो हम  भारतीय उसे उसके हाल पर अकेला नहीं छोड़ते ,दरवाजा तोड़ कर अन्दर घुस जाते हैं " पर भारत के सन्दर्भ में भी अब यह सच नहीं रहा। लोग अपने आप में सिमटते जा रहे हैं )

अगर कोई बहुत निराश हो और बार बार कहे कि जीने की इच्छा नहीं रही तो उसे से सीधा पूछ लेना चाहिए 'तुम आत्महत्या की तो नहीं सोच रहे न ??" ऐसा पूछना, उसे आत्महत्या के आइडियाज़ देने जैसा नहीं है बल्कि  उसे खुलकर उस विषय के दोनों पहलुओं पर बात करने का मौका देने जैसा है।

आत्महत्या के लिए प्रेरित व्यक्ति कोई न कोई इशारा जरूर देता है। जरूरत है ,उसके आस-पास वालों को इस इशारे को समझने की। 

आत्महत्या के विषय में बात करना,ये कहना कि  ज़िन्दगी से तंग आ गया हूँ, कोई रास्ता नहीं सूझता। काश ! पैदा ही नहीं हुआ होता ..
मरने के तरीके की चर्चा करना।
मृत्यु  से समबन्धित कहानी और कवितायें लिखना। 
ये सोच लेना  कि अब कुछ नहीं हो सकता, भविष्य अंधकारमय है 
खुद में हीन भावना भर जाना ,अपने को किसी काम के लायक न समझना, खुद से ही घृणा करना 
अपनी प्रिय चीज़ें लोगों में  बांटने  की बात करना।।
अपनी वसीयत  तैयार करना। 
अगर काफी दिनों के निराशा  और अवसाद के बाद अचनाक से कोई बहुत खुश दिखने लगे तब भी समझना चाहिए कि  उसके मन में कुछ चल रहा है।

ये सब  सिर्फ इशारे नहीं हैं बल्कि इसे मदद की पुकार समझा जाना चाहिए 

डिप्रेशन के शिकार व्यक्ति से ये सब कहकर बात की शुरुआत  की जा सकती है कि 
'तुम्हारी चिंता हो रही है।
तुममे कुछ परिवर्तन दिख रहा है।
अब तुम पहले जैसे नहीं हो 
मैं तुम्हारे साथ हूँ अपनी चिंता मुझसे बाँट सकते हो।
मैं  तुम्हारा दर्द बाँट नहीं सकता पर समझ सकता हूँ कि  तुम किस दौर से गुजर रहे हो।
बहुत तरह से मदद की जा सकती हैं।जरूरी नहीं कि  सही शब्द ही कहे जाएँ पर आवाज़ में  चिंता और व्यवहार बता देता है कि  अमुक चिंतित है ,उसके लिए। 

गहरे अवसाद में जो हो उसे कभी भी लेक्चर नहीं देना चाहिए कि 
 ज़िन्दगी कितनी अमूल्य है। वो गलत कर रहा है .
उसके ऐसे कदम के परिणाम क्या होंगे . 
उस व्यक्ति को बहुत ही प्यार से समझाने की कोशिश करनी चाहिए  कि उसके बिना किन लोगों को फर्क पड़ेगा। वो ज़िन्दगी में कितना कुछ कर सकता है।
कोशिश करनी चाहिए कि  वो किसी साइकियाट्रिस्ट से मिले। हमेशा उसके संपर्क में रहना चाहिए। वो न मिलना चाहे फिर भी उस तक पहुँचाने की हर कोशिश करनी चाहिए। 

कुछ दिनों से ही विषय पर लिखने की की सोच रही थी और आज ही  Mumbai Mirror अखबार  में एक हेल्पलाइन के विषय में विस्तार से जानकारी दी गयी है। जहाँ 24 घंटे चार युवा clinical psychologist सहायता के लिए तत्पर रहते हैं। उनका कहना है कि लोग कॉल इसीलिए करते हैं क्यूंकि वो जीना चाहते हैं और कहीं से भी एक आश्वासन चाहते हैं कि 'दुनिया जीने लायक है ,उनके पास भी जीने का कोई कारण है।'
एक महिला का उदाहरण बताया गया है . उसने फोन किया कि ' " उसने फांसी का फंदा तैयार कर लिया है बस अपने पति के ऑफिस जाने की प्रतीक्षा कर रही है।" 
इतना कहकर उसने फोन काट दिया। इनलोगों ने उसे कॉल बैक किया तो फोन स्विच ऑफ मिला। आधे घंटे तक की लगातार कोशिश के बाद उस महिला ने फोन उठाया। उसे शिकायत थी कि  पति घर से बाहर  नहीं जाने देते। नौकरी नहीं करने देते आदि .उसकी एक छोटी बेटी भी थी। इनलोगों ने उसकी बेटी के विषय में पूछा।बेटी को क्या पसंद है।वो कैसी  शरारतें करती है। उसे वो कैसे संभालती हैं।
उस से ये नहीं कहा कि उनके जाने के बाद बेटी का क्या होगा बल्कि यह सब पूछकर उनलोगों ने उसके सामने बेटी की तस्वीर ला दी। और वो खुद समझ गयी कि बेटी उसकी जिम्मेवारी है। फिर उसे अपनी ज़िन्दगी बेहतर बनाने के कई सुझाव दिए। उसने भी स्वीकार किया कि वो मरना नहीं चाहती थी पर ज़िन्दगी से निराश हो गयी थी .ये लोग बाद में भी कॉल करके उसका हाल लेते रहे .

ये कुछ हेल्पलाइन के फोन नंबर हैं -- Vanderwala Foundation --1860 266 2345 And  022 25706000 . Aasra helpline --91-22-27546669..I Call  Helpline --91-22-25563291


पर ये सारे उपाय उनलोगों के लिए हैं जो काफी दिनों से डिप्रेशन में हों। पर कई केस ऐसे भी होते हैं जहाँ क्षणांश में ऐसे घातक निर्णय ले लिए जाते हैं। 
हाल में ही अखबार  में एक खबर थी थर्ड इयर इंजीनियरिंग का एक स्टूडेंट कॉलेज की तरफ से टूर पर गया  था .वहाँ एक शिक्षक ने लड़कों के बैग की तलाशी ली . इस छात्र के बैग में एक सिगरेट मिली। शिक्षक ने पूछा, "क्या तुम्हारे पिता जानते हैं तुम सिगरेट पीते हो?"

उस छात्र के ना कहने पर उक्त शिक्षक ने उसके पिताजी को फोन कर दिया . और उसी रात उस लड़के ने छत से कूद कर आत्महत्या कर ली। 
अपनी एक पुरानी पोस्ट में जिक्र किया था, ' एक ग्यारह साल की लड़की ने अपनी नोटबुक में अपने क्लास के एक लड़के के लिए अपनी फीलिंग्स के बारे में लिखा था . माँ ने वो नोटबुक पढ़ ली। उन्होंने प्रिंसिपल से उसकी शिकायत कर दी . लड़की ने घर आकर ख़ुदकुशी कर ली।

यहाँ माँ और उक्त शिक्षक दोनों से इस मामले में थोड़ी संवेदनशीलता की दरकार थी। न इंजीनियरिंग के स्टूडेंट्स के पास से सिगरेट मिलने की बात अनहोनी थी न ग्यारह साल की लड़की के मन में ऐसे ख्याल आने की . पर उन दोनों वयस्कों की लापरवाही से दो मासूम जिंदगियां मिटटी में मिल गयीं।

कई बार ऐसा भी होता है कुसूर किसी का नहीं होता . एक परिचित का लड़का बहुत ही होनहार था .पूरे खानदान में उसकी प्रतिभा ,उसकी स्मार्टनेस के किस्से मशहूर थे। होटल मैनेजमेंट कर रहा था . उसके किसी साथी ने फोन  पर खबर दी कि  वो फेल हो गया है और इस लड़के ने तुरंत ही नौकर को किसी काम के बहाने बाहर भेज दिया, माँ  को पडोसी के यहाँ से कोई अखबार लाने के लिए कहा और खुद की इहलीला समाप्त कर ली।

यहाँ  सिर्फ अपने इमेज की बात होती है ,उस इंजीयरिंग के छात्र की इमेज घर में बहुत ही सुशील सज्जन लड़के की होगी, वो बर्दाश्त नहीं कर पाया कि उसके पैरेंट्स उसके विषय में ऐसा सोचें और पैरेंट्स की नज़रों में गिरने से ज्यादा बेहतर उसने मौत को गले लगाना समझा। यही बात उन परिचित के बेटे के साथ भी थी। आज भी उनका पूरा खानदान उस लड़के के विषय में बड़े गर्व से बात  करता है कि उस जैसा टैलेंटेड, स्मार्ट लड़का एक ही था, ख़ानदान  में पर अनजाने में ही उस लड़के के कन्धों पर अपेक्षाओं की कितनी बड़ी गठरी लाद  दी थी,इनलोगों ने, ये नहीं समझ पाते। उस गठरी का बोझ संभाले रखने की बजाय दुनिया छोड़ना उसे ज्यादा आसान लगा। 

ऐसी इमेज बनती कैसे है? बच्चे तो जिम्मेवार हैं ही। पर उनकी उम्र कच्ची  है। ज्यादा समझदारी पैरेंट्स को दिखानी है। इतनी ज्यादा उम्मीद अपने बच्चों से न लगाएं .उनके ऊपर ऐसे इमेज न थोपें। मैंने बहुत लोगो से कहते सुना है, "इतना तो विश्वास है मुझे अपने बेटे पर, ऐसा तो वो कर ही नहीं सकता।" विश्वास रखना बड़ी अच्छी  बात है। पर उसे थोडा सा सामान्य बने रहने की छूट भी दे दें। बच्चों के कम नंबर आने पर मैंने बच्चों से कई गुना उदास और निराश उनके माता-पिता को देखा है। 
एक मेरी  परिचिता बड़े गर्व से कहती  हैं, "मेरा  बेटा लड़ाई कर ले, किसी का सर फोड़ दे, मैं मान लूँ पर अगर  कोई कहे कि  किसी लड़की के साथ उसे देखा है, ये मैं नहीं मान सकती  वो तो लड़कियों से दूर भागता है। बात तक नहीं  करता ."
बड़ी अच्छी बात है .पर अगर कहीं उसे किसी से प्यार हो गया और माँ  ने देख लिया फिर तो उसके लिए डूब मरने की बात  ही हो जायेगी,न । 

बच्चे का प्रतिभावान होना, सज्जन होना, सुशील होना .चरित्रवान होना, आज्ञाकारी होना  हर पैरेंट्स के लिए गर्व की बात है पर उन्हें कभी -कभी गलतियां करने की इजाज़त भी दें . उन्हें सामान्य बने रहने भी दें .

ज़िन्दगी से बढ़कर कुछ भी नहीं। ज़िन्दगी रहेगी तभी गलतियां करके सुधरने का अवसर भी देगी।

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30 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सही विषय लिया है ..अभी कुछ दिन पहले ही पढ़ा था की एक ग्यारह साल की लड़की ने आत्महत्या कर ली ..और कारण था ..माँ पिता का नए कपडे न ले कर देना ..जैसे वह चाहती थी और अपने दोस्तों के पास उसने देखे थे ..हद लगी यह ज़िन्दगी के मजाक की ....न जाने क्यों ज़िन्दगी इतनी सस्ती हो जाती है ...कारण कहाँ है ?यह सोचने की समझने की जरुरत है ...

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  2. हत्या के लिए निर्दयी और आत्महत्या के लिए निर्मोही होना होता है। निर्मोही वही हो सकता है जो यह मान ले कि मुझसे कोई प्यार नहीं करता। इसलिए आवश्यक है कि माता-पिता या संरक्षक प्यार करने के साथ-साथ बराबर प्यार प्रदर्शित भी करते रहें। प्यार वह एहसास है जो किसी को मरने नहीं देता। यहाँ जरूरी नहीं कि बच्चे ही आत्महत्या करें, बच्चों के बाप भी कर सकते हैं यदि वे भी निर्मोही हो जांय।

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  3. सार्थक लेख,
    समस्या की गंभीरता को आपने बेहतर तरीके से रखा ही है,सुझाव भी व्यवहारिक है।
    बहुत बढिया

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  4. बहुत ही बढ़िया आलेख आपकी लिखी हर एक बात से सहमत हूँ काश हम इन प्रयासों को ध्यान में रखते हुए एक मासूम ज़िंदगी भी बचा पायें तो बहुत है। ज़िन्दगी से बढ़कर कुछ भी नहीं। ज़िन्दगी रहेगी तभी गलतियां करके सुधरने का अवसर भी देगी।

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  5. क्या लिखती हो रश्मि....विषय भी ऐसा है कि मन व्यथित सा हो गया..मगर बहुत बड़ी समस्या है ये आज..
    आज ही मेरे पापा के बहु दूर के किन्ही ७५-८० साल के बुज़ुर्ग ने आत्महत्या कर ली नदी में कूद के.वजह -कि बच्चे ख्याल नहीं रखते और खुद से अपना ख्याल करने की उम्र नहीं.....जबकी खूब जायदाद है...कोई कमी नहीं...केरला में बहुत समस्या है एकाकी वृद्धों की...
    बच्चों के लिए तो कहूँगी कि जब हम अपने बारे में श्योर नहीं होते हैं तो बच्चों के बारे में दावे क्यूँ ठोकना.....बिला वजह का दबाव!!!!!परिणाम पेरेंट्स को ही दुःख देते हैं...बात करना बहुत ज़रूरी है....कम से कम एक पेरेंट तो हो समझदार और सब्र वाला...
    बहुत बढ़िया लेख...
    सस्नेह
    अनु

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  6. jindagi hai to sab kuchh hai.. aur isko bachane ke liye kuchh bhi karna padega.. chahe khud ki jindagi ho ya kisi aur ki....!!

    bahut hi prerak baat... bahut sach...!!

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  7. आत्महत्या में सबसे बड़ा कारण डिप्रेशन ही होता है . ऐसे में डॉक्टर से परामर्श अवश्य करना चाहिए . ऐसे व्यक्ति का ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है . एक इम्पल्स होती है जिसे यदि रोक दिया जाए तो टाला जा सकता है . बच्चों में विशेषकर विपरीत परिस्थितियों में ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है . बाल मन अपरिपक्व और इम्पल्सिव होता है . आजकल तनाव के शिकार बच्चे भी बहुत होने लगे हैं .

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  8. thanks rashmi. [ sorry - no transliteration - so the comment is in english ]

    it is truly a very very serious issue, and i KNOW that some situations are so heavy, so desperate, that there really doesn't seem to be a way out. this appears to be the only option to escape the pain and anxiety. it wud be wonderful for people in such depressing situations to know/ be able to reach these helplines ...

    thanks for this concern, thanks for this post. if it can help someone, even one single person, it wud really be a successful attempt. thanks again dear.

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  9. Apka lekh bahtarin hai. kai family me parent ka vayhar bachcho ke prati sahi nahi hota. mere ek relation me pita ka chhote bete ke prati ektarfa lagav hai. aur bade bete ko unke pita ye kahte hai.
    " jo kaam tum karte ho vo to koi majura bhi kar li." halanki bada beta yogya hai aur 14 ki age se dukan hi chalata hai. par pita ka vyavhar behad anuchit hai. aap ese cases me counsling ki salh nahi de sakte . eske kai reason hote hai. ek dusre case me pita ka vyavhar sabhi aulado ke prati doyam darge ka hai jo paristhtiovash chote bete ke liye samsaya ban rahi hai. pahle case me bade bete ki wife ne sucide almost plan kar liya tha disre case me aisi koi baat nahi honi hai. badiya lekh ke liye dhanyvad.

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  10. सार्थक लेख | but situation varies from man to man and family to family, no concrete road map one can draw for every one for these type of situations.

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  11. गहरे अवसाद में जो हो उसे कभी भी लेक्चर नहीं देना चाहिए कि
    ज़िन्दगी कितनी अमूल्य है। वो गलत कर रहा है ... जितनी सहजता से तुमने इतनी बड़ी बात कह दी, काश - अपनी बुद्धिमता के आगे इतनी छोटी सी बात लोग समझ लें ....

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  12. दी, आपने बिलकुल सही बात कही है. बच्चों से ज़रूरत से ज्यादा अपेक्षाएं, अपनी इच्छाओं को उन पर थोपना, झूठी प्रतिष्ठा को बच्चों की खुशी से ज्यादा महत्त्वपूर्ण समझना, ये सब बच्चों की आत्महत्या के लिए उत्तरदायी होते हैं.
    मनोविज्ञान में एक कहावत है, जो मेरी सहेली अक्सर बताती थी कि "हर कोई कभी न कभी सुसाइडल ज़रूर होता है", पर वो सुसाइड कर ही ले ऐसा कम होता है. इसके बहुत से कारण होते हैं और बहुत से बचने के उपाय भी, लेकिन सबसे ज़रूरी उपाय यही है कि हम किसी को भी इतना अकेला ना छोड़ें कि वह अपनी ज़िंदगी ही व्यर्थ समझने लगे.
    मैं अपनी दीदी से बहुत जुड़ी हुयी थी, उनकी शादी के बाद अचानक डिप्रेशन में चली गयी. इसके पहले अम्मा के देहांत के बाद जब ऐसा हुआ था, तो दीदी ने ही मुझे अवसाद से उबारा था. इस बार मेरे दोस्तों ने मेरा साथ दिया. सबको मेरा व्यवहार सामान्य लग रहा था, लेकिन मेरे दो मनोविज्ञान पढ़ने वाले दोस्त भांप गए. तब मैं केवल इक्कीस साल की थी. मेरे उन दोस्तों ने मेरी रूममेट और सहेलियों को समझाया कि मुझे अकेली ना छोड़ें. मेरा दोस्त समर तो ज़बरदस्ती मुझे हॉस्टल से बाहर घसीटकर ले जाता खुली जगहों पर. इधर-उधर की फालतू बातें करता और जानने की कोशिश करता कि आखिर मैं किस बात से परेशान हूँ. बहुत बाद में मुझे पता चला कि वो मेरी कांउसलिंग कर रहा था :)

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  13. एक ज़रूरी और विचारणीय पोस्ट...... संवाद और आपसी संवेदनशीलता बहुत कुछ बदल सकती है....

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  14. बहुत आवश्यक और प्रेरणादायक लेख , इसे पढकर एक हेल्प लाइन शुरू करने की सोंच रहा हूँ !शुक्रिया आपका !

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  15. एक उपयोगी और तर्कपूर्ण लेख...दरअसल जब हम अवसाद में होते हैं तो हमें अपनी समस्या दुनिया में सबसे बड़ी और गंभीर लगती है, जबकि यदि हम अपने से अधिक समस्याओं वाले लोगों को खुश देखें तो उससे जीने का हौसला मिलता है।

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  16. sorry could not read this post before
    giving informations always helps
    regds

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  17. बहुत उपयोगी और सटीक आलेख लिखा है रश्मि

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  18. रश्मि जी

    कई बार सच में ये पता करना मुश्किल होता है की बच्चे या आप के पास का कोई इतना बड़ा कदम उठा सकता है रही बात बच्चो पर दवाब की तो मै खुद कई बार बेटी के स्कुल जा का टीचर से बात करती हूँ और दुसरे बच्चो के परफार्मेंस के बारे में पता करती हूँ चिंता ये ही रहती है की ज्यादा दबाव न डालने के साथ ये भी पता रहे की कही ज्यादा ही छुट तो नहीं दे रही मै , बच्चे कर सकते हो और मै सोचती रहूँ की जाने दो अभी छोटी है , नहीं तो उसके लिए भी बाद में मुझे ही सुनना पड़ेगा की पहले से ही क्यों नहीं सिखाया पढाया प्रतियोगिता में मै पिछड़ रही हूँ , मै तो बच्ची थी तुम्हे दबाव डालना था :( दोस्तों को लेकर मेरी सोच बिलकुल उस फ़िल्मी डायलाग की तरह ही है किन्तु अब मित्र तो दूर है पता है की वो परेशानी में है या गलत कदम उठा रहे है उन्हें डाटने के बजाये हमेसा उसके उपाय बताती हूँ हिम्मत देने , परिस्थिति से लड़ने को कहती हूँ किन्तु हर कोई लड़ सके ये भी नहीं होता है बस फोन पर आना बंद हो जाता है फिर वही वाली फिलिंग लोगो के मन में आती है की मेरे मामले में दखल मत दो , और मनोवैज्ञानिक के पास जाने की बात तो कीजिये भी मत यहाँ तो लोग सीधे उसे पागलो का डाक्टर कहते है । वैसे एक बात और है किसी किसी के परिवार में या व्यक्ति में ही आत्महत्या करने की प्रवृति होती है जैसे परिवार में यदि वो किसी को ये करते देख चुके है या बार बार धमकी देते देखा है तो वो भी वैसा करने लगते है और कुछ जीवन में हमेसा दुखी रहने के आदि होते है । बहुत बढ़िया लेख धन्यवाद ।

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  19. बहुत कठिन है किसी अन्य के दुःख को समझना और महसूस करना. हम बच्चों को अपनी प्रतिष्ठा के लिए उपयोग करते हैं. जबकि जिन लोगों को दिखाने के लिए हम यह सब करते हैं वे तो आते जाते रहते हैं और हमारा बच्चा हमारी मूर्खता की सजा भुगतता है.
    किसी की सहायता करना तो ठीक है किन्तु आत्महत्या की धमकी देने वाले के साथ रहना सरल नहीं है.
    घुघूतीबासूती

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  20. जरुरत से ज्यादा दबाव इंसान को अनियंत्रित करता है . वह अच्छे व्यवहार का हो या अपनी फील्ड में आगे बढ़ते रहने का . अवसाद को सही समय पर समझने के लिए भी गहरी समझ की आवश्यकता है , सही है !
    सार्थक पोस्ट !

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  21. ईश्वर करे जिजीविषा बनी रहे, परस्पर प्यार पल्लवित होता रहे।

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  22. एक बड़े ही सेंसिटिव मुद्दे पर उतनी ही सेंसिटिविटी के साथ लिखा है आपने.. बिलकुल कांच की तरह है यह युवा वर्ग, फ्रैजाइल.. ज़रा सा झटका लगा और टूटकर बिखर गए..!!
    हालाँकि यह एक ऐसी मनस्थिति है कि कई लोगों को महसूस होती है, खुद मुझे कई बार लगता है कि मैं सुसाइडल टेम्परामेंट का हूँ!! खैर, बहुत ही अच्छा आलेख!!

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    उत्तर
    1. प्लीज़ आप तो ऐसी बातें न करें .....आप समझदार हैं, प्रबुद्ध हैं, बुद्धिजीवी हैं, समस्या के हर पहलू पर अच्छी तरह विचार करने की काबिलियत रखते हैं, आपलोगों पर तो जिम्मेवारी है कि दूसरों को निराशा के गर्त से बाहर निकलने में मदद करें .

      हटाएं
  23. दीदी...मुझे भी बिलकुल समझ नहीं आता की लोग ऐसा करते क्यों हैं...वैसे आपने कहा भी तो है की हर लोगों की सहनशक्ति अलग अलग होती है..लेकिन फिर भी ज़िन्दगी से यूँ निराश होना कहाँ तक ठीक है....मैंने तो ऐसे ऐसे लोगों को भी देखा है जो बहुत ही सामान्य से लोग हैं लेकिन ज़िन्दगी के उस बुरे फेज से गुज़र रहे हैं जो किसी को भी तोड़ कर रख दे...लेकिन फिर भी वो लड़ते हैं और ज़िन्दगी जीते है..

    आप इन सब विषय में लिखती हैं तो अच्छा ही है न.....अच्छी बातें हैं ये सब!!

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  24. इस विषय पर सार्थक और संपूर्ण लेख ।इसमे लगभग वो सारी बातें भी आ गई जो मैं खुद अक्सर इस विषय पर कहता रहता हूँ।आपके बताए सभी उपाय मुझे बहुत व्यवहारिक लगे।पर मैं अमित श्रीवास्तव जी की बात से भी बिल्कुल सहमत हूँ।

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  25. कई दिनों से बाहर थी इसलिए आज ही इस पोस्‍ट को पढ़ पा रही हूं। असल में हम परिवारवादी थे लेकिन वर्तमान में व्‍यक्तिवादी बनते जा रहे हैं। पूर्व में पति और पत्‍नी का झगड़ा व्‍यक्तिगत झगड़ा नही माना जाता था लेकिन अब दोनों में झगड़ा होता है तो सभी कहते हैं कि इनके बीच में मत बोलो। ऐसे ही दूसरे रिश्‍तों के बीच है। तब व्‍यक्ति अकेला ही निर्णय लेगा तब ऐसे निर्णय भी वह ले लेता है।

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  26. एक गंभीर समस्या पर बहुत गंभीर विचार रखे गए हैं इस आलेख में. मुझे ऐसा लगता है कि अगर किसी की समस्या को ध्यान पूर्वक सुना और समझा जाय तो इतनी ही बात उस व्यक्ति पर एक बहुत अच्छा प्रभाव डालती है. कई बार हमारा अपना दुःख भी किसी से शेयर करने पर मन हल्का हो जाता है. तो ऐसे मनोवृत्ति के व्यक्ति के साथ यदि कुछ समय दिया जाय तो इसकी सोच को कुछ हद तक शांत किया जा सकता है.

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