सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

दरीचे से झांकती ,यादें ....कुछ मीठी ,कुछ कसैली

आजकल बिहार में चुनाव हो रहें हैं...और मुझे चुनाव के दौरान गुजरे कुछ दिन फिर से याद आ रहें हैं. अपने पहले  ब्लॉग के शुरूआती दिनों में एक पोस्ट लिखी थी...जिस तक बहुत कम लोग पहुंचे थे और जिन लोगों ने पढ़ा था उनमे  से अधिकाँश अब  मेरे ब्लॉग का रुख नहीं करते. {सो पोस्ट की रीठेल (ज्ञानदत्त पाण्डेय जी से उधार लिया शब्द ) सेफ है :) }

जब भी चुनाव का जिक्र आता है, एक पुरानी घटना, स्मृति के सात परदों को चीरती हुई बरबस ही आँखों के सामने आ जाती है.
मेरे पिताजी एक सरकारी पद पर कार्यरत थे. वे एक ईमानदार अफसर थे लिहाज़ा उनका ट्रांसफ़र कभी भी और कहीं भी हो जाता था. कभी कभी तो चार्ज संभाले ६ महीने भी नहीं होते और कोई न कोई शख्स अपना काम रुकता देख, उनका ट्रांसफ़र कहीं और करवा देता और पापा चल पड़ते अपने गंतव्य की ओर. ज़ाहिर है, मुझे और मेरे छोटे भाइयों को अपनी पढाई पूरी करने के लिए हॉस्टल की शरण लेनी पड़ी.

पापा की पोस्टिंग एक छोटी सी जगह पर हुई थी और मैं हॉस्टल से छुट्टियों में घर आई हुई थी. सात ,आठ  कमरों का बड़ा सा घर,आँगन इतना बड़ा कि आराम से क्रिकेट खेली जा सके.सामने फूलों की क्यारी ,मकान के अगल बगल हरी सब्जियां लगी थी...पीछे कुछ पेड़ और उसके बाद मीलों फैले धान के खेत. एक कमरे को मैंने अपनी पेंटिंग के लिए चुन लिया, कितना सुकून मिलता था उन दिनों.जब जी चाहे , ब्रश उठाओ,थोडा पेंट करो... और जब मन करे ,ब्रश, पेंट,तेल सब यूँ ही छोड़ चल दो ..फिर चाहे एक घंटे में वापस आओ या चार घंटे में चीज़ें उसी अवस्था में पड़ी मिलतीं. .आज मेरे दोस्त,रिश्तेदार यहाँ तक कि बच्चे भी शिकायत करते हैं--'पेंटिंग क्यूँ नहीं करती??'अपने इस  फ्लैट में पहले तो थोडी, खाली जगह बनाओ फिर सारी ताम झाम जुटाओ और जैसे ही ब्रश हाथ में लिया कि दरवाजे या फ़ोन की घंटी बज उठेगी.वहां से निजात पायी तो घर का कोई काम राह तक रहा होगा...फिर सारी चीज़ें समेटो. उसपर से घर के लोग हवा में बसी केरोसिन की गंध की शिकायत करेंगे.,सो अलग.(केरोसिन तेल,ब्रश से पेंट साफ़ करने के लिए उपयोग में लाया जाता है) लिहाजा अब साल में एक पेंटिंग का रिकॉर्ड भी नहीं रहा. ऐसे में बड़ी शिद्दत से याद आता है,बिना ए.सी.,बिना पंखे(क्यूंकि बिजली हमेशा गुल रहती थी) वाला वो बेतरतीब कमरा.

घर से पापा का ऑफिस दस कदम की दूरी पर था लेकिन दोपहर का खाना खाने वे ४ बजे से पहले, घर नहीं आया करते.और जब आते तो साथ में आता लोगों का हुजूम. उनलोगों को 'लिविंग रूम' में चाय पेश की जाती और अन्दर की तरफ बरामदे में लगे टेबल पर पापा जल्दी जल्दी खाना ख़त्म कर रहें होते. बरामदा,आँगन जैसे शब्द तो लगता है, अब किस्से,कहानियों में ही रह जायेंगे. और शहरों ,महानगरों में पनपने वाली पौध के लिए तो ये शब्द हमेशा के लिए अजनबी बन जायेंगे क्यूंकि 'हैरी पॉटर' और 'फेमस फाईव' में उलझे बच्चों का हिंदी पठन पाठन बस पाठ्य पुस्तकों तक ही सीमित है. उसकी सुध भी उन्हें बस परीक्षा के दिनों में ही आती है.

उन दिनों चुनाव की सरगर्मी चल रही थी और चुनाव का दिन भी आ ही गया. हमलोग पापा का खाने पर इंतज़ार कर रहें थे.पता था, आज तो कुछ और देर होनी है. ५ बजे के करीब पापा खाना खाने आये.और जाते वक़्त बस इतना ही कहा--"तुमलोग बाहर कहीं मत जाना ,मैंने आज एक क्रिमिनल को अरेस्ट  किया है " पापा पुलिस में नहीं थे पर चुनाव के दिनों में कई सारे अधिकार गैर पुलिस अधिकारीयों को भी प्रदान किये जाते हैं.हमलोग
सोचते ही रह गए,ऐसा क्यूँ कहा? हमलोग तो कहीं जाते ही नहीं थे. वहां तो हमारी दुनिया बस कैम्पस तक ही सीमित थी.कभी बाज़ार का भी मुहँ नहीं देखा. शॉपिंग  करने जाना हो तो जीप पर सवार हो, पास के बड़े शहर जाया करते थे. हमें लगा,शायद अतिरिक्त सावधानी के इरादे से कहा हो.

रात में भी पापा काफी देर से आये और आते ही सुबह ही पास के शहर जाने की तैयारी करने लगे क्यूंकि मतगणना होने वाली थी. उन दिनों 'इलेक्ट्रानिक मशीनों' के द्वारा नहीं बल्कि मतगणना 'मैनुअल' हुआ करती थी. एक एक मत हाथों से गिना जाता था. जबतक मतगणना पूरी न हो जाए कोई भी बाहर नहीं जा सकता था.करीब २४ घंटों तक मतगणना जारी रहती थी और अधिकारियों को अन्दर ही रहना पड़ता था.

हमें पता था ,पापा रात में,घर वापस नहीं आने वाले हैं. हमेशा की तरह बिजली भी गुल थी. मैं करीब १० बजे अपने कमरे में सोने चली गयी. अभी बिस्तर तक पहुंची भी नहीं थी कि घर के बाहर कुछ लोगों की "होsss..होsss" करके जोर से चिल्लाने की आवाज आई. मैं मम्मी के कमरे की तरफ दौडी. मम्मी पत्ते की तरह काँप रही थीं. उनको कंधे से थामा पर हम बिना आपस में एक शब्द बोले ही समझ गए, ये जरूर उसी बदमाश के आदमी हैं और अब बदला लेने आये हैं. दिमाग तेजी से दौड़ने लगा,बचने के क्या रास्ते हैं? पर तुंरत ही हताश हो गया. कोई भी रास्ता नहीं. सरकारी आवासों के दरवाजे तो ऐसे होते हैं कि एक बच्चा भी जोर से धक्का दे तो खुल जाए. और मजबूत कद काठी वाले ने अगर धक्का दिया तो किवाड़ ही खुलकर अलग गिर पड़ेंगे. पीछे की तरफ एक दरवाजा था तो,पर भागा कहाँ जा सकता था.चारों तरफ खुले खेत.पीछे की तरफ प्यून और सर्वेंट क्वाटर्स थे...पर कुछ दूरी पर थे.सामने वाला आवास एक डाक्टर अंकल का था,पर वे लोग किसी शादी में गए हुए थे.और अगर होते भी तो क्या मदद कर पाते? कहीं कोई उपाए नज़र नहीं आ रहा था. घर में कोई हथियार तो होते नहीं और एक सब्जी काटने वाले चाकू से ४,५, लोगों का मुकाबला करना ,नामुमकिन था. तभी मुझे पापा की शेविंग किट याद आई और किशोर मन ने आखिरी राह सोच ली. मैंने सोच लिया,अगर उनलोगों ने दरवाजे पर हाथ भी रखा तो बस मैं शेविंग किट से 'इरैस्मिक ब्लेड' निकाल अपनी कलाई की नसें काट लूंगी. किशोर मन पर,देखे गए फ़िल्मी दृश्यों का प्रभाव था या इसे छोड़ सचमुच कोई राह नहीं थी,आज भी नहीं सोच पाती. मम्मी शायद देवी,देवताओं की मनौतियाँ मनाने में लगीं थीं.

हमने खिड़की से देखा कुछ देर की खुसफुसाहट के बाद, वे लोग बगल की तरफ एक दूसरे अफसर के घर की तरफ बढे. वे अंकल, अकेले रहते थे और पापा के साथ ही मतगणना के लिए गए हुए थे. बस घर में उनके प्यून 'राय जी' थे. इलोगों ने उन्हें जगाया और थोडी देर बाद, राय जी हाथों में लालटेन लिए हमारे घर की तरफ आते दिखे. उन्होंने दरवाजा खटखटाया. मम्मी ने किसी तरह हिम्मत जुटा,कड़क आवाज़ में पूछा--"कौन है?...क्या काम है?" तब राय जी ने बताया ये लोग सादे लिबास में पुलिस वाले हैं और इनलोगों को हमारी हिफाज़त के लिए पुलिस अधिकारी ने भेजा है. ये लोग जोर से चिल्लाकर अपनी उपस्थिति जता रहें थे ताकि लोग समझ जाएँ कि हमलोग अकेले नहीं हैं.

यह जान, हलक में अटकी हमारी साँसे वापस लौटीं. रायजी ने कुछ दरी निकाल देने और एक लालटेन देने को कहा और वे लोग बाहर के बरामदे में सो गए. मैं तो यह सब सुन आराम से सो गयी लेकिन मेरी मम्मी की रात आँखों में कटी. उन्हें डर लग रहा था, क्या पता ये लोग झूठ बोल रहें हों और उसी बदमाश के आदमी हों. पर मम्मी की शंका निर्मूल निकली. वे सच में पुलिस वाले ही थे.

46 टिप्‍पणियां:

  1. इसको पहले भी पढ़ा था और आज फिर पढ़ा. ऐसे हादसे हमेशा के लिए दिमाग पर छाये रहते हैं और जब उनसे जुड़ी को लिंक मिलता है तो फिर से ताजा हो जाते हैं.
    सजीव वर्णन अच्छा लगा.

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  2. रोचक और रोमांचक किस्सा है।
    ऐसी यादें भी सिरहन पैदा कर देती हैं ना

    प्रणाम

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  3. लो जी आज फिर से पढ लिया। शुभकामनायें।

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  4. @ हाँ निर्मला जी...पुराने पाठकों में से आप रश्मि जी और रेखा जी ने ही पहली बार भी वो पोस्ट पढ़ी थी....(आप तीनो के कमेंट्स हैं वहाँ..:) ) और संयोग देखिए चार टिप्पणियों में से तीन आपलोगों की ही हैं..

    कहाँ उठा कर रखूं....आपलोगों का इतना सारा स्नेह :)

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  5. सच में बहुत रोमांच और सकून भी देती हैं ऐसी यादें .... ऐसी परिस्थितियों में कभी कभी साहस भी दुगना हो जाता है .... अच्छा संस्मरण है ...

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  6. आपका ये संस्मरण मैंने पढ़ा तो है पहले भी आज फिर से पढ़ा तो वही रोचकता और रोमांच का एहसास हुआ .यादें ...कुछ यादें ऐसी होती हैं जो कभी दिलो दिमाग से नहीं निकलती ..बल्कि हमेशा एक उर्जा बनाये रखती हैं.

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  7. बहुत अच्छी पोस्ट है ! कभी कभी बहुत आश्चर्य होता है कि कैसे दो लोगो के जीवन में एक जैसे हादसे और उनसे जुड़े एक जैसे अहसास घटित हो जाते हैं ! कुछ इसी तरह के अनुभवों से मैं भी गुजर चुकी हूँ लेकिन फिर कभी बताउँगी ! आपसे अपने दिल की बहुत सी बातें शेयर करने का मन करता है ! आप बहुत अच्छा लिखती हैं ! बधाई एवं शुभकामनाएं !

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  8. रोंगटे खड़े कर देने वाली घटना ।
    इमानदार लोगों को कई कसौटियों पर खरा उतरना पड़ता है ।

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  9. कैसे कैसे पल आ जाते हैं ज़िन्दगी मे…………कभी ना भूलने वाले…………………फिर भी काफ़ी बहादुर थीं।

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  10. सचमुच, मन में डर उत्पन्न करने वाली घटना है...चलिए, अंत भला तो सब भला।

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  11. मैंने पहली बार पढ़ी है यह पोस्ट... आपका वर्नन सजीव है, किंतु मैं अंदाज़ा लगा सकता हूँ कि वो दहशत का माहौल इस वर्णन से भी कहीं भयानक रहा होगा. इस घटना की कल्पना भी अकेले में सिहरन पैदा करने के लिये काफी है!!

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  12. पढ़ते-पढ़ते मैं पढ़ गया था ७८ घरों का बड़ा सा घर. फिर लगा डर लगना स्वाभाविक ही है. दुबारा देखा तो डाउट क्लियर हुआ. :)

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  13. @अभिषेक
    ७८ कमरे???...राष्ट्रपति भवन था क्या...:)
    आप लोग भी ना...अब शब्दों में लिख दिया है...:)

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  14. ऐसे में मन भी बहुत संभावनायें उठने लगती हैं। अब मोबाइल युग है, यह भ्रम नहीं होना चाहिये।

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  15. बाप रे..तब का सोच कर अभी भी डर पैदा हो जाये...


    अब पढ़ लिया. क्या पता पहले भी पढ़ा हो. :)

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  16. हमारे समय के सच से साक्षात्कार कराती और मन को उद्वेलित करती घटना आज भी उतनी ही सजीव और जीवन्त लगती है कि उस की भयावहता डरा देती है. मर्मस्पर्शी
    अभिव्यक्ति. आभार.
    सादर,
    डोरोथी.

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  17. जी ईमान दारो का तबादला इसी प्रकार होता हे, आप की यह कहानी पढ कर बहुत कुछ याद आ गया, ओर सच मे सिरहन सी पेदा हो जाती हे शरीर मै, अभी तो हम सब मजे से पढ रहे हे उस समय आप लोगो पर क्या बीती होगी.... धन्यवाद

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  18. बाप रे!! मेरी तो सांस ही अटक गई!! कितनी दहशत की रात रही होगी वो... मुझे तो पूरा दृश्य दिखाई देने लगा... सच्ची न भूलने वाली घटना है.

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  19. कुछ भयानक क्षण इसी तरह स्मृतियों में कैद हो जाते हैं ...
    फिल्मे, जासूसी उपन्यास और टीवी सीरियल कभी -कभी फायदा भी पहुंचाते हैं ...:)

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  20. तो ज़रूर आपके पिता जी स्टेट रेवेन्यू सर्विसेस में रहे होंगे ?
    सरकारी मकानों के बडेपन / एकांतिकता /असुरक्षितता को आंख बन्द करके महसूस कर सकता हूं ! इस मुई (म्ब,विलोपित)ने एक रचनाधर्मिता से वंचित किया !

    वैसे वो 'इरास्मिक ब्लेड' अब कहां है ? मैं होता तो सम्भाल कर रखता आखिर को कितने सारे मनोभावों का साक्षी था वो :)

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  21. शुरुआती कुछ पंक्तियाँ पढ़ते ही पूरी घटना याद हो आयी -एक सिद्धहस्त लेखिका की लेखनी भला भूल कैसे सकती है!वाकई !!
    सामयिक है यह रीठेल ...यूपी में भी इन दिनों ऐसा ही माहौल है !

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  22. ताज्जुब है पहले वाली पोस्ट पर मेरी टिप्पणी नहीं है जबकि मैं पूरा आश्वस्त था और वही चेक करने गया भी -हो सकता है उस समय किन्ही कारणों से कमेन्ट नहीं कर पाया !

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  23. ह जान, हलक में अटकी हमारी साँसे वापस लौटीं. रायजी ने कुछ दरी निकाल देने और एक लालटेन देने को कहा और वे लोग बाहर के बरामदे में सो गए. मैं तो यह सब सुन आराम से सो गयी
    .....रोचक और रोमांचक किस्सा है।

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  24. @अली जी,
    वैसे मन से तो अब तक पेंटिंग का ख़याल नहीं निकाला है.....रोज ही प्लान बनते हैं...और विलुप्त हो जाते हैं...शायद इन्ही बनने बिगड़ने में कभी एक पेंटिंग बन ही जाए.

    अब तक, पापा 'इरैस्मिक ब्लेड' ही इस्तेमाल करते हैं....यादों में तो हमेशा के लिए सुरक्षित ही है वह....:)

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  25. @अरविन्द जी,
    यानि कि आप भी काफी दिनों तक साइलेंट रीडर ही रहें :)

    'मन का पाखी' पर तो शायद एक दो पोस्ट पर ही आपकी टिप्पणी होगी.या शायद नहीं ही होगी.(शायद,इसलिए... क्यूंकि चेक नहीं किया मैने )

    पर 'एक सिद्धहस्त लेखिका' कहकर कुछ ज्यादा ही जिम्मेदारी नहीं डाल दी आपने...वैसे शुक्रिया :)

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  26. @साधना जी,
    जब मन चाहे जितना, शेयर कर डालिए(will always b there)....अच्छा लगता है..सुनना.
    और उन अनुभवों को कभी कलमबद्ध कर डालिए...हम भी रु-ब-रु हों...उन घटनाओं से.

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  27. @वंदना
    कोई बड़ा स्मार्ट लग रहा है,इस तस्वीर में...चश्मेबद्दूर :)

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  28. एक तो घटनाक्रम ही ऐसा है...उस पर आपकी प्रस्तुति...सच में पढ़ते हुए परिवार को लेकर डर तो लगा ही...
    और ये अपनी नस काटने का ख़्याल..तौबा, रश्मि जी, ’उनकी’ कलाई काटने का इरादा करना चाहिए था.

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  29. रोचक और रोमांचक ..सजीव वर्णन.. "रीठेल" अच्छा लगा.

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  30. नमस्ते दीदी। सैरसपाटे के बाद आज लौटा हूं। आते ही आपकी पोस्ट पढ़ी।
    "मैं तो यह सब सुन आराम से सो गयी लेकिन मेरी मम्मी की रात आँखों में कटी."
    ऐसी ही होती है मां

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  31. दी.. रोचक भी रोमांचक भी.. धड़कनों को रोलर-कोस्टर पर चढ़ा दिया इस पोस्ट ने..

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  32. बाहर गयी हुई थी इसलिए देर से पढा आपका यह संस्‍मरण। कई बाते समेट ली है इस संस्‍मरण ने। बहुत अच्‍छा लगा।

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  33. दिल्चस्प!
    हम भी पढते पढते घबरा गए!
    आखिर राहत की लंबी साँस ली!
    यूँ हमें मत डराएई। हम तो कमजोर दिल वाले हैं।

    यह जानकर अच्छा लगा कि आपको painting का शौक है।
    क्या कभी आपने digital painting को आजमाया?
    आजकल कंप्यूटर पर भी चित्र बन रहें हैं।
    इसके लिए अलग औजार हैं। कई चित्रकार इन का प्रयोग करते हैं।
    कला जो हाथ में होता है वह अलग बात है।
    पर कला जो मन में होता है उसके लिए ये आधुनिक औजार बडे काम आते हैं।

    "रीठेल" सफ़ल रहा।
    शुभकामनाएं
    जी विश्वनाथ

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  34. मैं तो पहले नहीं पढ़ा था ! पहली बार आज ही पढ़ा ! इस लिहाज से 'रिठेल' उपयोगी रहा !

    कहानी में व्यक्त अनुभवों से रूबरू कराने के अलग से आभार ! क्योंकि जिन्हें अन्यत्र-दुर्लभ रूप में पढ़ लेते हैं , वे विशेष रूप से महत्वपूर्ण होते हैं !

    @ मैं तो यह सब सुन आराम से सो गयी लेकिन मेरी मम्मी की रात आँखों में कटी.
    --- 'रात आखों में कटना' जैसे लाक्षणिक प्रयोग लेखन को गरिमामय और आकर्षक बनाते हैं !

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  35. waah !rashmi jee aap ne to dara hee diya ,ek to aisee ghatna us par se ap ka lekhan ankhon ke samne poora manzar aa gaya .haan, aainda kisi bhi situation men kalai katne ki bat mat sociyega,wada na??????????

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  36. रोमांचक वर्णन ..मैंने पहली बार ही पढ़ा ....ऐसी घटनाएँ हमेशा ताज़ा रहती हैं दिमाग में ...

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  37. @विश्वनाथ जी,
    डिजिटल पेंटिंग तो नहीं आजमाया कभी...इस ब्लॉग्गिंग ने पुराने शौक ही छुडवा दिए...नए कहाँ से शुरू करूँ...
    पर अपने पहले प्यार 'लेखन', से वापस मुलाकात करवाई...इसलिए नो शिकायत...:)

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  38. @शाहिद जी एवं इस्मत जी,
    ये उस उम्र की सोच थी..वरना आज तो किसी की कलाई क्या दो-चार गला काटने में भी परहेज ना करूँ :D
    ( ये कैसा इमेज बनेगा मेरा लोगों के बीच...राम राम )

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  39. शुक्रिया अमरेन्द्र जी,

    आपसे हिंदी की क्लास लेनी पड़ेगी :)
    आज पता चला , इसे 'लाक्षणिक प्रयोग' कहते हैं. मैं तो बस लिख जाती हूँ...ये सब नहीं जानती.
    शुक्रिया...कि आपको पसंद आया

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  40. आपको याद है न जिस दिन आपसे बात हो रही थी मेरी और मैंने कहा था की आज आपके ब्लॉग "मन का पाखी" के पुराने पोस्ट पढ़ रहा हूँ....उस दिन इस पोस्ट पे भी नज़रें गयी थी....बुक मार्क भी कर लिया था लेकिन पढ़ा नहीं था....आज पढ़ा...

    कसम से, बीच में तो सिहर उठे थे हम....

    दीदी आप पेंटिंग फिर से शुरू कर दीजिए :) - अ रिक्वेस्ट :)

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  41. दीदी ,
    अक्सर इतने बड़े [टेक्स्ट साइज में] लेख नहीं पढ़ पाता [सिर्फ लिखता हूँ :))]पर जब इस लेख को पढ़ा तो पढता ही रहा गया , आपने तो बेहद कसे हुए ढंग से पूरी घटना को बयान किया है,कहीं कोई जगह नहीं छोड़ी है लेख का सुखद अंत पढ़ कर जा कर जान में जान आयी ..सच में :)

    दो बातें दिल को छू गयी हैं

    @बरामदा,आँगन जैसे शब्द तो लगता है, अब किस्से,कहानियों में ही रह जायेंगे. और शहरों ,महानगरों में पनपने वाली पौध के लिए तो ये
    शब्द हमेशा के लिए अजनबी बन जायेंगे क्यूंकि 'हैरी पॉटर' और 'फेमस फाईव' में उलझे बच्चों का हिंदी पठन पाठन बस पाठ्य पुस्तकों तक ही सीमित है.

    @ ...... किशोर मन पर,देखे गए फ़िल्मी दृश्यों का प्रभाव था

    ये दोनों बातें मुझे सही लगती हैं
    आपने ये लेख पुनः प्रकाशित कर निर्णय बिलकुल सही लिया

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