मंगलवार, 7 मई 2019

"काँच के शामियाने " पर विवेक रस्तोगी जी की टिप्पणी

"बहुत बहुत शुक्रिया Vivek Rastogi ji आपने एक बैठक में किताब ख़त्म कर ली और मेरे इस भ्रम को भी निरस्त कर दिया कि शायद पुरुषों  को यह किताब उतनी पसंद ना आये . आपकी प्रतिक्रिया बहुत मायने रखती है .

काँच के शामियाने" शुरू तो दो दिन पहले की थी, पर बहुत अधिक न पढ़ पाने से लय नहीं बन पायी, पर आज सुबह से फुरसत निकाल कर 3-4 घंटों में ही किताब का आनंद ले लिया, Rashmi जी ने जिस अंदाज में यह उपन्यास लिखा है, वह झकझोरने वाला है, क्योंकि कहीं न कहीं वाकई यह कितनी ही जिंदगियों का सच होगा, एक अनजाना सा सच, उपन्यास की शैली लेखिका की कहानियों की शैली में ही है, कि एक बार पढ़ने बैठे तो जब तक पूर्ण न कर लें, तब तक मन कहीं और लगता ही नहीं।

यही लेखक की लेखनी का चातुर्य है।

धन्यवाद एक बहुत ही अच्छा सामाजिक पहलू दिखाने के लिये, मैंने भी कई मोड़ कहानियों में सोचे थे, परंतु वैसा कुछ हुआ नहीं।

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