गंगा शरण सिंह
उन गिने चुने लोगों में से हैं जो विशुद्ध पाठक हैं. वे लगतार पढ़ते रहते
हैं और करीब करीब
सारी प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ उन्होंने पढ़ रखी हैं. वे जिनके लेखन से प्रभावित होते हैं ,उन लेखकों से फोन पर या मिलकर लम्बी साहित्यिक चर्चा भी करते हैं. लोग दर्शनीय स्थलों की यात्रा पर जाते हैं, वे कभी कभी लेखकों से मिलने के लिए यात्रा पर निकलते हैं . उन्होंने 'काँच के शामियाने ' पढ़कर उसपर अपने विचार रखे, बहुत आभारी हूँ.
"कांच के शामियाने"
फेसबुक और अन्य तमाम स्त्रोतों से मिलती निरंतर प्रशंसा और पाठकीय प्रतिक्रिया देखकर उपरोक्त उपन्यास पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ जाना स्वाभाविक था। एक सहज सा कौतूहल मन में जागता था कि आखिर क्या होगा इस रचना में कि जो भी पढ़ता है वो इसके रचनाकार से बात करने को तड़प उठता है।
कुछ समय बाद जब ये उपन्यास उपलब्ध हुआ उस वक़्त मैं किसी और किताब को पूरा करने में व्यस्त। कुछ दिन बीत गए। एक दिन रात को अचानक किताब उठा लिया और सोचा कि चलो दो चार पृष्ठ पढ़कर देखते हैं। पर एक बार आग़ाज़ हुआ तो फिर ये सफ़र अंजाम पर जाकर ही थमा। ये करिश्मा रश्मि रविजा की लेखनी का है जो चंद पृष्ठों में ही मन को बाँध लेती है। बेहद सरल किन्तु अद्भुत आत्मीय भाषा का संस्पर्श एक बहुत ही दुखद और दिल दहला देने वाले कथानक को जिस तरह की रवानी देता है, वो हिन्दी कथा साहित्य में आजकल विरल सा है क्योंकि इन दिनों शिल्प और कला के नाम पर ऐसे ऐसे लेखकों को प्रोमोट किया जाता है जिनको पढ़कर सर धुनने स्थिति बन जाती है।
ये उपन्यास पढ़ते समय बरबस मुझे कभी सूर्यबाला जी याद आती रहीं तो कभी मालती जोशी जी, क्योंकि ये ऐसी लेखिकाएँ हैं जिन्होंने अपनी सरल और सहज रचनाओं से एक पूरी पीढ़ी को समृद्ध किया। तथाकथित महान आलोचकों की कृपा दृष्टि भले ही इन्हें न मिली पर पाठकों का भरपूर प्यार व आदर इन्हें नसीब हुआ।
कथा में ऐसी तमाम सारी संभावनाएं थी जहाँ कथानक के बहाने भाषा अभद्र हो सकती थी पर रश्मि जी ने क्षण भर के लिए भी अपनी शब्द-निष्ठा को नहीं गँवाया। कथा के सारे चरित्र इस तरह से चित्रित किये गए हैं कि जीवन्त हो उठे हैं। बेहद घमण्डी और क्रूरता की पराकाष्ठा को छूते पति का घृणित किरदार हो या अवसरवादी सास ससुर, स्वार्थी बड़ा देवर या स्नेही छोटा देवर, नायिका की माँ, बहनें और कहानी में आये हुए अन्य सभी पात्रों का चित्रण तन्मयता से हुआ है।
उपन्यास के आखिरी पृष्ठों में नायिका और उसके बच्चों के वार्तालाप एवं उनके परस्पर रागात्मक सम्बंन्धों की ऊष्मा से आँखें बरबस भर आती हैं।
एक सार्थक, सुन्दर और मार्मिक उपन्यास के सृजन हेतु रश्मि जी को हार्दिक शुभकामनाएं। आप जैसे लिखनेवालों को देखकर भविष्य के प्रति मन आशान्वित होता है
सारी प्रमुख साहित्यिक कृतियाँ उन्होंने पढ़ रखी हैं. वे जिनके लेखन से प्रभावित होते हैं ,उन लेखकों से फोन पर या मिलकर लम्बी साहित्यिक चर्चा भी करते हैं. लोग दर्शनीय स्थलों की यात्रा पर जाते हैं, वे कभी कभी लेखकों से मिलने के लिए यात्रा पर निकलते हैं . उन्होंने 'काँच के शामियाने ' पढ़कर उसपर अपने विचार रखे, बहुत आभारी हूँ.
"कांच के शामियाने"
फेसबुक और अन्य तमाम स्त्रोतों से मिलती निरंतर प्रशंसा और पाठकीय प्रतिक्रिया देखकर उपरोक्त उपन्यास पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ जाना स्वाभाविक था। एक सहज सा कौतूहल मन में जागता था कि आखिर क्या होगा इस रचना में कि जो भी पढ़ता है वो इसके रचनाकार से बात करने को तड़प उठता है।
कुछ समय बाद जब ये उपन्यास उपलब्ध हुआ उस वक़्त मैं किसी और किताब को पूरा करने में व्यस्त। कुछ दिन बीत गए। एक दिन रात को अचानक किताब उठा लिया और सोचा कि चलो दो चार पृष्ठ पढ़कर देखते हैं। पर एक बार आग़ाज़ हुआ तो फिर ये सफ़र अंजाम पर जाकर ही थमा। ये करिश्मा रश्मि रविजा की लेखनी का है जो चंद पृष्ठों में ही मन को बाँध लेती है। बेहद सरल किन्तु अद्भुत आत्मीय भाषा का संस्पर्श एक बहुत ही दुखद और दिल दहला देने वाले कथानक को जिस तरह की रवानी देता है, वो हिन्दी कथा साहित्य में आजकल विरल सा है क्योंकि इन दिनों शिल्प और कला के नाम पर ऐसे ऐसे लेखकों को प्रोमोट किया जाता है जिनको पढ़कर सर धुनने स्थिति बन जाती है।
ये उपन्यास पढ़ते समय बरबस मुझे कभी सूर्यबाला जी याद आती रहीं तो कभी मालती जोशी जी, क्योंकि ये ऐसी लेखिकाएँ हैं जिन्होंने अपनी सरल और सहज रचनाओं से एक पूरी पीढ़ी को समृद्ध किया। तथाकथित महान आलोचकों की कृपा दृष्टि भले ही इन्हें न मिली पर पाठकों का भरपूर प्यार व आदर इन्हें नसीब हुआ।
कथा में ऐसी तमाम सारी संभावनाएं थी जहाँ कथानक के बहाने भाषा अभद्र हो सकती थी पर रश्मि जी ने क्षण भर के लिए भी अपनी शब्द-निष्ठा को नहीं गँवाया। कथा के सारे चरित्र इस तरह से चित्रित किये गए हैं कि जीवन्त हो उठे हैं। बेहद घमण्डी और क्रूरता की पराकाष्ठा को छूते पति का घृणित किरदार हो या अवसरवादी सास ससुर, स्वार्थी बड़ा देवर या स्नेही छोटा देवर, नायिका की माँ, बहनें और कहानी में आये हुए अन्य सभी पात्रों का चित्रण तन्मयता से हुआ है।
उपन्यास के आखिरी पृष्ठों में नायिका और उसके बच्चों के वार्तालाप एवं उनके परस्पर रागात्मक सम्बंन्धों की ऊष्मा से आँखें बरबस भर आती हैं।
एक सार्थक, सुन्दर और मार्मिक उपन्यास के सृजन हेतु रश्मि जी को हार्दिक शुभकामनाएं। आप जैसे लिखनेवालों को देखकर भविष्य के प्रति मन आशान्वित होता है
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " केलकुलेटर का धोखा - ब्लॉग बुलेटिन " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंबहुत शुक्रिया
हटाएंबहुत खूब ... अच्छी समीक्षा ...
जवाब देंहटाएंHi Rahsmi Mam ,
जवाब देंहटाएंI read this report of BBC last week , and needless to say the story of Jaya flashed in mind immediately after reading the title .
Here is the link of report >> http://www.bbc.com/news/world-asia-india-35994601
This book in fact, must be kept in non fiction category . since it is highlighting an issue of contemporary society on which even intellectual people hesitate to speak up . ( May be because somewhere they are not comfortable to see themselves in the story as one of the many characters ) .
All the Best .