अक्सर मैं किसी विषय पर एक पोस्ट लिखती हूँ...पर पोस्ट पब्लिश करने के बाद भी कितनी ही बातें मन में घुमड़ती रह जाती हैं...और एक श्रृंखला सी ही बन जाती है. कई बार टिप्पणियाँ भी विषय आगे बढाने को मजबूर कर देती हैं.
पिछली पोस्ट में मैने लिखा था...
जो बुजुर्ग दंपत्ति अकेले अपने बच्चों से अलग जीवन बिताते हैं...अब शायद वे सहानुभूति के पात्र नहीं हैं. अगर उन्होंने अपना भविष्य सुरक्षित रखा हो...और कुछ शौक अपना रखे हों तो उनकी वृद्धावस्था भी सुकून से कटती है.
पर ये उन खुशनसीब बुजुर्गों के लिए सही है....जिन्हें जीवन की सांझ में भी एक-दूसरे का साथ प्राप्त हो...पर उनलोगों की स्थिति बहुत ही कारुणिक होती है...जो जीवन के इस मोड़ पर आकर बिछड़ जाते हैं. जिंदगी भर दूसरे कर्तव्य निभाते एक-दूसरे के लिए समय नहीं निकाल पाते और जब सभी कर्तव्यों से निवृत हो उनके पास समय ही समय होता है तो एक दूसरे का साथ छूट जाता है और फिर से वे अकेले ही जीवन बिताने को अभिशप्त हो जाते हैं.
एक मनोवैज्ञानिक मित्र ने एक बार बताया था..उनके पास एक वृद्ध सज्जन आए जो पत्नी की मृत्यु के बाद आत्महत्या कर लेना चाहते थे .क्यूंकि वे गहन अपराधबोध से पीड़ीत थे. जीवन भर उन्होंने पत्नी की उपेक्षा की थी. उन्हें घर संभालने वाली एक हस्ती से अलग नहीं देखा था. अब सेवा निवृत हो वे पत्नी को मान-सम्मान देना चाहते थे. उनके साथ समय बिताना ..घूमना-फिरना चाहते थे. परन्तु पत्नी ही उन्हें छोड़ कर दूर जा चुकी थी.
अक्सर किताबों में लोगो के संस्मरण या उनके अनुभवों में सुना है...'पिता बहुत सख्त थे...हम उनसे बहुत डरते थे...उनके सामने बैठते नहीं थे...छोटी सी गलती की भी वे कड़ी सजा देते थे..' जाहिर है पिता यह सब बेटे के अच्छे भविष्य के लिए ही करते होंगे. पर इन सबमे वे बेटे के मन में एक कठोर पिता के रूप में ही जगह बना पाए...एक स्नेही पिता के रूप में नहीं. और अपनी वृद्धावस्था में जब वे बेटे से प्रेम की अपेक्षा करते हैं तो बेटा वह प्रेम दे ही नहीं पाता...क्यूंकि प्रेम का पौधा पिता ने उसके हृदयरूपी जमीन पर लगाया ही नहीं. जिंदगी कभी इतनी मोहलत नहीं देती कि कुछ काम हाशिए पर रखे जाएँ और समय आने पर उनका हिसाब-किताब किया जाए. कर्तव्य-देखभाल-अनुशासन-प्रेम-हंसी-ख़ुशी....सब साथ चलने चाहिए. जिंदगी के हर लम्हे में शामिल होने चाहिएँ . वरना अफ़सोस के सिवा कुछ और हाथ नहीं लगता.
अकेले पड़ गए माता या पिता को बच्चे, अकेले नहीं छोड़ सकते और नई जगह में ,ये किसी अबोध बालक से अनजान दिखते हैं.यहाँ का रहन सहन,भाषाएँ सब अलग होती हैं. इनका कोई मित्र नहीं होता. बेटे-बहू-बच्चे भी सब अपनी दिनचर्या में व्यस्त होते हैं. इन्होने अपने पीछे एक भरपूर जीवन जिया होता है. पर उनके अनुभवों से लाभ उठाने का वक़्त किसी के पास नहीं होता.
दिल्ली में मेरे घर के सामने ही एक पार्क था. देखती गर्मियों में शाम से देर रात तक और सर्दियों में करीब करीब सारा दिन ही,वृद्ध उन बेंचों पर बैठे शून्य निहारा करते. मुंबई में तो उनकी स्थिति और भी सोचनीय है. ये पार्क में होती तमाम हलचल के बीच,गुमनाम से बैठे होते हैं. कितनी बार बेंचों पर पास आकर दो लोग बैठ भी जाते हैं,पर उनकी उपस्थिति से अनजान अपनी बातों में ही मशगूल होते हैं. अभी हाल में ही एक शाम पार्क गयी थी...इस पार्क में बीचोबीच एक तालाब है. उसके चारो तरफ पत्थर की बेंचें बनी हुई हैं..और बेंच के बाद एक चौड़ा सा जॉगिंग ट्रैक है. एक बेंच पर तालाब की तरफ मुहँ किए एक वृद्ध सज्जन बैठे थे और बार-बार रुमाल से अपनी आँखें पोंछ रहे थे. मन सोचने पर विवश हो उठा..पता नहीं...किस बात से दुखी हैं...पत्नी का विछोह है...या बेटे-बहू ने कोई कड़वी बात कह दी.
जब भी बाहर से आती हूँ....पांचवी मंजिल की तरफ अचानक नज़र उठ ही जाती है. शाम के छः बज रहे हों...रात के नौ या दिन के बारह... एक जोड़ी उदास आँखें खिड़की पर टंगी होती हैं...और मैं नज़रें नीचे कर लेती हूँ.
जब भी बाहर से आती हूँ....पांचवी मंजिल की तरफ अचानक नज़र उठ ही जाती है. शाम के छः बज रहे हों...रात के नौ या दिन के बारह... एक जोड़ी उदास आँखें खिड़की पर टंगी होती हैं...और मैं नज़रें नीचे कर लेती हूँ.
वृद्धावस्था अमीरी और गरीबी नहीं देखती.सबको एक सा ही सताती है. एक बार मरीन ड्राईव पर देखा. एक शानदार कार आई. ड्राईवर ने डिक्की में से व्हील चेयर निकाली और एक वृद्ध को सहारा देकर कार से उतारा. समुद्र तट के किनारे वे वृद्ध घंटों तक सूर्यास्त निहारते रहें.
यही सब देखकर एक कविता उपजी थी,यह भी डायरी के पन्नों में ही
क़ैद पड़ी थी अबतक. दो साल पहले 'मन का पाखी' पर पोस्ट किया था . आज यहाँ शेयर कर रही हूँ.
यही सब देखकर एक कविता उपजी थी,यह भी डायरी के पन्नों में ही
क़ैद पड़ी थी अबतक. दो साल पहले 'मन का पाखी' पर पोस्ट किया था . आज यहाँ शेयर कर रही हूँ.
जाने क्यूँ ,सबके बीच भी
अकेला सा लगता है.
रही हैं घूर,सभी नज़रें मुझे
ऐसा अंदेशा बना रहता है.
रही हैं घूर,सभी नज़रें मुझे
ऐसा अंदेशा बना रहता है.
यदि वे सचमुच घूरतीं.
तो संतोष होता
अपने अस्तित्व का बोध होता.
तो संतोष होता
अपने अस्तित्व का बोध होता.
ठोकर खा, एक क्षण देखते तो सही
यदि मैं एक टुकड़ा ,पत्थर भी होता.
लोगों की हलचल के बीच भी,
रहता हूँ,वीराने में
दहशत सी होती है,
अकेले में भी,मुस्कुराने में
यदि मैं एक टुकड़ा ,पत्थर भी होता.
लोगों की हलचल के बीच भी,
रहता हूँ,वीराने में
दहशत सी होती है,
अकेले में भी,मुस्कुराने में
देख भी ले कोई शख्स ,तो चौंकेगा पल भर
फिर मशगूल हो जायेगा,निरपेक्ष होकर
फिर मशगूल हो जायेगा,निरपेक्ष होकर
यह निर्लिप्तता सही नहीं जायेगी.
भीतर ही भीतर टीसेगी,तिलामिलाएगी
काश ,होता मैं सिर्फ एक तिनका
चुभकर ,कभी खींचता तो ध्यान,इनका
या रह जाता, रास्ते का धूल ,बनकर
करा तो पाता,अपना भान,कभी आँखों में पड़कर
ये सब कुछ नहीं,एक इंसान हूँ,मैं
सबका हो ना, कहीं हश्र यही,
सोच ,बस परेशान हूँ,मैं.
भीतर ही भीतर टीसेगी,तिलामिलाएगी
काश ,होता मैं सिर्फ एक तिनका
चुभकर ,कभी खींचता तो ध्यान,इनका
या रह जाता, रास्ते का धूल ,बनकर
करा तो पाता,अपना भान,कभी आँखों में पड़कर
ये सब कुछ नहीं,एक इंसान हूँ,मैं
सबका हो ना, कहीं हश्र यही,
सोच ,बस परेशान हूँ,मैं.
(हालांकि अब थोड़े हालात बदल रहे हैं...पिछले कुछ वर्षों से इन एकाकी वृद्धों के साथ -साथ ये भी देखती हूँ.. कुछ वृद्ध एक लाफ्टर क्लब बना जोर जोर से हँसते हैं..और व्यायाम भी करते हैं. शाम को भी वे एक-दो घंटे साथ बैठे बात-चीत करते हैं...इतना भी अगर उन्हें सुलभ हो तो जीने का बहाना मिल जाये)
आपने बिल्कुल सही कहा है ... भावमय करते शब्दों के साथ बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंउम्र की साँझ में साथ आवश्यक हो जाता है।
जवाब देंहटाएंumra ke alag alag padao pe alag tarah ka akelapan salta hi hai...!!
जवाब देंहटाएंbehtareen!
सुचिंतित प्रविष्टि ! अगर मौक़ा मिला तो फिर से लौट कर आता हूं :)
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंbahut achchha likha hai ..ham sab bhi to usi raah jaa rahe hain ..ye sach hai ki jo aaj boyenge ..definetly kal vo hame milne vala hai ..
जवाब देंहटाएंकाश ,होता मैं सिर्फ एक तिनका
जवाब देंहटाएंचुभकर ,कभी खींचता तो ध्यान,इनका
या रह जाता, रास्ते का धूल ,बनकर
करा तो पाता,अपना भान,कभी आँखों में पड़कर... doobker jana hai , per honi kahu bidhi na tarai
लोगों की हलचल के बीच भी,
जवाब देंहटाएंरहता हूँ,वीराने में
दहशत सी होती है,
अकेले में भी,मुस्कुराने में
....सच में अकेलापन एक दर्द और अभिशाप बन जाता है उम्र के आख़िरी पड़ाव में..
उम्मीद है, जिन्दगी भी।
जवाब देंहटाएंउम्र की सांझ के अकेलेपन को बहुत खूबसूरती से उभारा है …………मगर सबको खुदा मिले जरूरी तो नही इसी तरह जीवन गुजर जाता है…………कोई किसी के लिये चाहकर भी कुछ नही कर पाता है।
जवाब देंहटाएंअनाटामी आफ लोनेलिनेस
जवाब देंहटाएंये ऐसा एक ऐसा विषय है रश्मि की इस पर लगातार लिखने का मन होगा तुम्हारा, क्योंकि आज बुज़ुर्ग केवल एक जैसी स्थिति में नहीं हैं. कहीं वे बहुत विवश हैं, तो कहीं घर का एक अहम हिस्सा भी हैं. एक ही समय में तुम्हें इतनी तरह के रूप दिखाई देंगे, कि खुद कोई राय क़ायम करना मुश्किल हो जायेगा.
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है, कि मध्यम शहरों में बुज़ुर्गों की हालत अभी भी बहुत मजबूत है.अपमान के दंश यहां कम हैं. यहां संयुक्त परिवार बहुतायत मिल जायेंगे. घर भी अचछे-भले क्षेत्रफल में मिलेंगे, सो बुज़ुर्गों का अपना कमरा पहले से ही होता है. उन्हें घर के किसी हिस्से में शिफ़ट नहीं होना पड़ता. छोटे शहरों में अभी भी बहुत कुछ बाकी है, मुझे ऐसा लगता है.
लोगों की हलचल के बीच भी,
रहता हूँ,वीराने में
दहशत सी होती है,
अकेले में भी,मुस्कुराने में
कविता बहुत सुन्दर है. पोसट तो अच्छी है ही.
सन २००२ की फिल्म शरारत याद आ गयी!! बहुत सारी खुशियाँ और उनके पीछे दबी पीड़ा...
जवाब देंहटाएंऔर हाँ आपकी कविता भी दिल को छूती है!!
सुन्दर कविता ।
जवाब देंहटाएंएकाकी बुजुर्गों को देखकर वक्त की ताकत का अहसास होता है ।
दिन और रात के हाथों नापी,
जवाब देंहटाएंनापी एक उमरिया,
सांस की डोरी छोटी पड़ गई,
लंबी आस डगरिया,
भोर के मंज़िल वाले,
उठ कर भोर से पहले चलते,
ये जीवन के रस्ते,
जीवन से लंबे हैं बंधु,
ये जीवन क रस्ते...
जय हिंद...
कविता ने तो भावुक कर दिया।
जवाब देंहटाएंजीवन का एक कटु सच व्यक्त किया है आपने।
सभी को समझना होगा यह दर्द।
इस विषय पर आपकी पिछली पोस्ट भी पढ़ी थी मैंने। अब चूंकि एक सीरीज शुरू हो गई है तो एक मुद्दा बेटियों का भी होना चाहिए। मैंने तो ज्यादातर देखा है कि बेटों के बजाय बेटियां अपने माता-पिता के नजदीक होती है। जरा सी, आंच आने पर दौड़ी चली आती हैं और जब देखभाल को लेकर शिकायत करती हैं तो बेटे कुछ करने के बजाय तिलमिला उठते हैं।
कुछ तो हो जिनसे बुज़ुर्गों को जीने का बहाना मिल जाए...
जवाब देंहटाएंरश्मि जी आपकी बातें छूती है क्योंकि यहाँ अन्य के
दर्द से निस्बत पूरी आत्मीयता लिए होती है...और बेहद सहजता से वैसी करुणा हम तक भी सम्प्रेषित होती है...शब्द यहाँ बिल्कुल जाया नहीं जाते...और आलेख पढने वालों के मन में भी वैसी निर्णायकता पनप्ति है जो उन्हें संवेदनशील व सहायक बनाए अपने समाज के बुज़ुर्गों के प्रति जो असहाय है, एकाकी है...
तुम्हारी यह श्रंखला need of all the time है.
कविता हृदय स्पर्शी बन पड़ी है..
जवाब देंहटाएंएक बार इन स्थितियों पर कुछ कहने का प्रयास किया था...तीन चार भाग लिखे थे...
http://udantashtari.blogspot.com/2009/01/blog-post_20.html
संवेदनशील पोस्ट ...भावुक करती कविता ..... सच है उम्र इस मोड़ पर अकेलेपन से जूझना बड़ा मुश्किल है........
जवाब देंहटाएंआपका चिंतन गंभीर है. लेकिन फिर भी, ...
जवाब देंहटाएंकम से कम बुढ़ापे में तो ब्लागिंग करना सीख ही लेना चाहिये :)
दीदी इससे सम्बंधित दोनों पोस्ट अभी पढ़ा..मेरे घर ममें तो पापा-माँ को अभी से ही अकेलापन खाने लगा है..कुछ ऐसी ही वजह थी की घर पर इतने दिन रुक कर आया हूँ...जब घर पहुंचा था तो दोनों के चेहरे से साफ़ पता चल रहा था की वो कितना अकेलापन महसूस कर रहे थे....बहुत कुछ और कहना चाह रहा हूँ इस पोस्ट पर लेकिन फिर कभी..
जवाब देंहटाएंमुझे बहुत भावुक कर गयी कविता सच में..बहुत भावुक!!
अच्छा प्रयास बुजुर्ग समस्या के बारे में
जवाब देंहटाएंउम्र के इस मोड़ पर दूसरे का थोडा सा समय उन्हें और सक्षम , मजबूत बनाता है , लोंग वही देने में चूक जाते हैं ...मगर कई वृद्ध दंपत्ति ऐसे भी हैं जो खुद अपनी उपस्थिति से बरगद की छाँव का एहसास देते हैं !
जवाब देंहटाएंरहिमन इस संसार में भांति- भांति के लोंग !
संस्कृतियों का संक्रान्ति काल है, इसलिए माता-पिता अपेक्षित हो गए हैं। या हम उन्हें अपेक्षित समझ रहे हैं। जब पूर्णतया हम पाश्चात्य संस्कृति के रंग में रंग जाएंगे तब माता-पिता भी अपनी राह खोज ही लेंगे। अब तो बुजुर्गो में भी लिव इन रिलेशनशिप आ गयी है। समझ आने लगा है कि अब परिवार का साथ नहीं है बस अकेले चलना है। धीरे-धीरे यह समझ बढ़ती जा रही है।
जवाब देंहटाएंश्मि जी आप गद्य के साथ साथ पद्य भी बेहतर लिखती हैं. दो साल पहले लिखी कविता आज भी प्रासंगिक है. मन को छूती हुई सी. शहरों खास तौर पर महानगरों में स्थिति भयानक है. गाँव और छोटे शहर में यह संक्रमण आज न कल आएगा ही लेकिन अभी देरी है. संयुक्त परिवार के नहीं होने और सामाजिक दवाब कम होने के कारण स्थिति भयावह हो रही है. ये पंक्तियाँ सचमुच उद्वेलित कर रही हैं...
जवाब देंहटाएं"यह निर्लिप्तता
सही नहीं जायेगी.
भीतर ही भीतर
टीसेगी,
तिलामिलाएगी"
यह पोस्ट भी बेहतरीन है। कविता भी अच्छी।
जवाब देंहटाएंवृद्धावस्था आज के संदर्भ में मुझे और भी हलकान किये दे रही है। मैं अपने आस पास देखता हूँ ऐसे बुजुर्गों को जिन्होने अपना संपूर्ण जीवन अपने बच्चों को पढ़ाने में लगा दिया। बच्चे पढ़ लिख कर नौकरी के लिए दूर शहरों में बस गये। शादी हुई पत्नी को भी साथ लेकर चले गये। अकेले रह गये माता-पिता। ये माता पिता वे नहीं हैं जो अपने गांव में रहते हैं। ये वे हैं जो गांव से उखड़ कर शहर में आ बसे हैं। गांव में अब उनको कोई नहीं जानता। शहर में वे अकेले हैं। बच्चे दूर किसी दूसरे शहर में बस चुके हैं। बच्चों के साथ बसना नहीं चाहते..बड़े मेहनत से बनाया अपना आशियां छोड़ना नहीं चाहते। गांव जा नहीं सकते। शहर में रहते हैं..अकेले।
यह एक बड़ी समस्या है। यह सफल लोगों की समस्या है। जो असफल हैं वे तो हैं ही हैरान परेशान लेकिन जो सफल हैं वे भी नितांत अकेले हैं। बुढ़ापा कटता नहीं। जब तक हाथ पैर चलता है वे कुछ शौक पाल कर जी लेंगे मगर जब हाथ पैर भी जवाब दे दे तब ?
मैने इस विषय पर कविताएं लिखी हैं। चाहें तो पढ सकती हैं। लिंक दे रहा हूँ....
http://devendra-bechainaatma.blogspot.com/2010/06/blog-post_13.html
वृद्धाश्रम भी गया था। वहां से लौटकर भी एक कविता लिखी थी....
http://devendra-bechainaatma.blogspot.com/2009/11/blog-post_15.html
......इस विषय पर और लिखिए। अच्छा लगा पढ़कर।
आज तो रुला दिया रश्मि तुमने :(
जवाब देंहटाएंकाश ,होता मैं सिर्फ एक तिनका
जवाब देंहटाएंचुभकर ,कभी खींचता तो ध्यान,इनका
या रह जाता, रास्ते का धूल ,बनकर
करा तो पाता,अपना भान,कभी आँखों में पड़
अत्यंत मार्मिक पोस्ट है रश्मि जी ! मन करुणा से आँखें विवश आँसुओं से भर आई हैं ! अपने साथी से बिछड़े अनेकों बुजुर्गों की पीड़ा को मैंने देखा है और महसूस किया है ! यह ऐसा लॉस है जिसकी भरपाई अन्य किसी चीज़ से नहीं की जा सकती लेकिन उनको प्यार, सम्मान और यथेष्ट समय देकर उनकी पीड़ा को कम करने का प्रयास ज़रूर किया जा सकता है ! मैं एक विवाह समारोह में सम्मिलित होने के लिये आगरा से बाहर थी इसीलिये प्रतिक्रिया देने में कुछ विलम्ब हुआ ! बेहतरीन आलेख के लिये बधाई ! कविता तो बहुत ही अच्छी लगी !
बचपन में सुनी हुई पंक्तियाँ याद आ गयीं:
जवाब देंहटाएंबच के चलते हैं सभी खस्ता दरो दीवार से।
दोस्तों की बेवफ़ाई का गिला पीरी में क्या॥
रहता हूँ,वीराने में
जवाब देंहटाएंदहशत सी होती है,
अकेले में भी,मुस्कुराने में
....सच में अकेलापन एक दर्द और अभिशाप बन जाता है उम्र के आख़िरी पड़ाव में..
विचारणीय पोस्ट !
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