'पिछले साल आज के दिन ही ये पोस्ट फेसबुक पर लिखी थी ।ब्लॉग पर भी डालना था पर आलस्यवश रह गया ।आज फेसबुक ने याद दिलाया तो दुबारा पढ़कर भी अच्छा लगा . बस शेयर कर लिया ।
' फिल्म की सबसे अच्छी बात ये लगी कि इस फिल्म के किरदार खूब बातें करते हैं और जोर जोर से. एक दुसरे पर अपना अधिकार जताते हुए .आम घरों से यह विलुप्त होता जा रहा है. आँखें, फोन ,लैपटॉप या टी वी से चिपकी होती हैं . आजकल के सम्भ्रान्त माता-पिता अपने बेटे-बहू या बेटी-दामाद से एक दूरी बना कर चलते हैं, उन्हें कहीं कोई बात बुरी न लग जाए. पर इसके पीछे यह भावना भी होती है कि कहीं वे पलट कर कुछ न कह दें .जबकि ये निश्चित है कि चार सुनायेंगे तो दो सुनने भी पड़ेंगे .पर यह सबको नागवार गुजरता है ,इसलिए संवाद खत्म होते जा रहे हैं.
इस फिल्म में पिता और बेटी ,जीजा और साली दोनों एक दूसरे को खूब बातें सुनाते हैं पर स्नेह का बंधन भी मजबूत रहता है.
वृद्ध होता इंसान , जितना किसी बिमारी से नहीं जूझता ,उतना बीमारियों की आशंका से परेशान रहता है. फिल्म में पिता की भूमिका में अमिताभ बच्चन इसी शंका से ग्रस्त हैं .उनकी बातचीत का केंद्र , अपने कब्ज़ की परेशानी बयाँ करना ही रहता है. फिल्म भी इसी विषय से शुरू और यहीं पर खत्म होती है. पर बीच में फिल्म ने कई बिन्दुओं को छुआ है. सत्तर वर्षीय पिकू के पिता से बड़ा कोई फेमिनिस्ट नहीं ,वे स्त्रियों के सबकुछ छोड़ अपनी जिंदगी सिर्फ पति और घर की देखभाल में लगा देने के सख्त खिलाफ हैं और स्त्रियों का ज़िन्दगी में एक उद्देश्य होना चाहिए ,इसके प्रबल हिमायती .हालांकि पिकू की शादी को नकारते, वे थोड़े सेल्फिश नजर आते हैं. पर किस पिता को अपनी बेटी के लिए कोई लड़का 'लायक' लगता है . अमिताभ का ये डायलॉग पूरे समाज का हाल बयाँ करता है ," पिकू तो कभी आपकी प्रायोरिटी नहीं थी, अचानक उसकी शादी की इतनी फ़िक्र क्यूँ होने लगी ?" लड़कियों की तरफ कभी किसी का ध्यान नहीं जाता ,पर जैसे ही युवावस्था की दहलीज़ पर कदम रखा कि पूरा खानदान ,उनकी शादी के पीछे पड़ जाता है.
छोटा भाई अपनी पत्नी को जब चुप रहने के लिए कहता है तो अमिताभ कहते हैं ,"नहीं नहीं बोलने दो..एडुकेटेड स्त्री का बोलना बहुत जरूरी है, चुप रहने से उसे फ्रस्ट्रेशन होगा और फिर निगेटिविटी आएगी " .कितने लोग समझते हैं, ये बात .
पिकू एक स्ट्रांग, आत्मनिर्भर लड़की है और वो अपने वृद्ध पिता की जिम्मेवारी एक बोझ समझकर नहीं, एक कर्तव्य समझ कर लेती है कि उसे उनकी देखभाल करनी ही है .यह कोई मुद्दा ही नहीं. अगर बहुत सारे लोग ,ऐसा समझ लें तो कितनी जिंदगियां आसान हो जाएँ. पर यही स्ट्रांग लड़की ,जब पिता के बारे में कुछ भी सुनने से इंकार करते हुए कहती है, मैं उनसे दस गुणा ज्यादा चिडचिडी और अजीब आदतों वाली हूँ'...तब कमजोर पड़ जाती है ,जब इरफ़ान ,उसका पक्ष लेते हुए कुछ कहते है, उसकी आँखें नम हो जाती हैं . किसी के भी एक कठोर आवरण के पीछे कई वजहें होती हैं और जरा सा आवरण के खिसकते ही अंदर की मासूमियत झलक जाती है .
आँखों की नमी ,हाँ
तेरी मेहरबानी है
थोड़ी सी उम्मीदों के आगे
ऐसी कहानी है.
इरफ़ान की जगह शायद ही कोई दूसरा एक्टर ,इतने नामालूम से रोल को इतनी अच्छी तरह नहीं निभा पाता. उनकी ऑंखें ,बौडी लैंग्वेज़ ही बहुत कुछ कह जाती हैं . वे अमिताभ को दो टूक सुना भी देते हैं और रूड भी नहीं लगते .दीपिका और उनके बीच एक नाजुक सा रुई के फाहे सा पनपता रिश्ता भला सा लगता है .
मौसमी चटर्जी ने पिकू की मौसी का रोल बहुत बढ़िया निभाया है. फिल्म में छोटे छोटे कई लमहे हैं, जो सुजीत सरकार के बेहतरीन निर्देशन का नमूना हैं. अमिताभ और इरफ़ान के अभिनय पर तो कोई टिपण्णी अब बेमानी है .पर फिल्म दर फिल्म दीपिका निखरती जा रही हैं . पिता की बीमारी का सुनते ही परेशान हो दौड़ के उनके कमरे में जाना ,पिता के अचानक घुमने चले जाने पर अपनी चिंता भरी झल्लाहट जाहिर करना ...इरफ़ान को पसंद भी करना पर जाहिर न करना , सब बहुत सधा हुआ था .
फिल्म की एडिटिंग बहुत क्रिस्प है .एक भी दृश्य खिंचा हुआ नहीं लगता .और फिल्म शुरू होने के अंदर दो मिनट में ही अगर होठों पर मुस्कान आ जाए और बीच बीच में हंसी में बदलती हुई..फिल्म के अंत तक कायम रहे तो ये फिल्म देखनी तो बनती है.
' फिल्म की सबसे अच्छी बात ये लगी कि इस फिल्म के किरदार खूब बातें करते हैं और जोर जोर से. एक दुसरे पर अपना अधिकार जताते हुए .आम घरों से यह विलुप्त होता जा रहा है. आँखें, फोन ,लैपटॉप या टी वी से चिपकी होती हैं . आजकल के सम्भ्रान्त माता-पिता अपने बेटे-बहू या बेटी-दामाद से एक दूरी बना कर चलते हैं, उन्हें कहीं कोई बात बुरी न लग जाए. पर इसके पीछे यह भावना भी होती है कि कहीं वे पलट कर कुछ न कह दें .जबकि ये निश्चित है कि चार सुनायेंगे तो दो सुनने भी पड़ेंगे .पर यह सबको नागवार गुजरता है ,इसलिए संवाद खत्म होते जा रहे हैं.
इस फिल्म में पिता और बेटी ,जीजा और साली दोनों एक दूसरे को खूब बातें सुनाते हैं पर स्नेह का बंधन भी मजबूत रहता है.
वृद्ध होता इंसान , जितना किसी बिमारी से नहीं जूझता ,उतना बीमारियों की आशंका से परेशान रहता है. फिल्म में पिता की भूमिका में अमिताभ बच्चन इसी शंका से ग्रस्त हैं .उनकी बातचीत का केंद्र , अपने कब्ज़ की परेशानी बयाँ करना ही रहता है. फिल्म भी इसी विषय से शुरू और यहीं पर खत्म होती है. पर बीच में फिल्म ने कई बिन्दुओं को छुआ है. सत्तर वर्षीय पिकू के पिता से बड़ा कोई फेमिनिस्ट नहीं ,वे स्त्रियों के सबकुछ छोड़ अपनी जिंदगी सिर्फ पति और घर की देखभाल में लगा देने के सख्त खिलाफ हैं और स्त्रियों का ज़िन्दगी में एक उद्देश्य होना चाहिए ,इसके प्रबल हिमायती .हालांकि पिकू की शादी को नकारते, वे थोड़े सेल्फिश नजर आते हैं. पर किस पिता को अपनी बेटी के लिए कोई लड़का 'लायक' लगता है . अमिताभ का ये डायलॉग पूरे समाज का हाल बयाँ करता है ," पिकू तो कभी आपकी प्रायोरिटी नहीं थी, अचानक उसकी शादी की इतनी फ़िक्र क्यूँ होने लगी ?" लड़कियों की तरफ कभी किसी का ध्यान नहीं जाता ,पर जैसे ही युवावस्था की दहलीज़ पर कदम रखा कि पूरा खानदान ,उनकी शादी के पीछे पड़ जाता है.
छोटा भाई अपनी पत्नी को जब चुप रहने के लिए कहता है तो अमिताभ कहते हैं ,"नहीं नहीं बोलने दो..एडुकेटेड स्त्री का बोलना बहुत जरूरी है, चुप रहने से उसे फ्रस्ट्रेशन होगा और फिर निगेटिविटी आएगी " .कितने लोग समझते हैं, ये बात .
पिकू एक स्ट्रांग, आत्मनिर्भर लड़की है और वो अपने वृद्ध पिता की जिम्मेवारी एक बोझ समझकर नहीं, एक कर्तव्य समझ कर लेती है कि उसे उनकी देखभाल करनी ही है .यह कोई मुद्दा ही नहीं. अगर बहुत सारे लोग ,ऐसा समझ लें तो कितनी जिंदगियां आसान हो जाएँ. पर यही स्ट्रांग लड़की ,जब पिता के बारे में कुछ भी सुनने से इंकार करते हुए कहती है, मैं उनसे दस गुणा ज्यादा चिडचिडी और अजीब आदतों वाली हूँ'...तब कमजोर पड़ जाती है ,जब इरफ़ान ,उसका पक्ष लेते हुए कुछ कहते है, उसकी आँखें नम हो जाती हैं . किसी के भी एक कठोर आवरण के पीछे कई वजहें होती हैं और जरा सा आवरण के खिसकते ही अंदर की मासूमियत झलक जाती है .
आँखों की नमी ,हाँ
तेरी मेहरबानी है
थोड़ी सी उम्मीदों के आगे
ऐसी कहानी है.
इरफ़ान की जगह शायद ही कोई दूसरा एक्टर ,इतने नामालूम से रोल को इतनी अच्छी तरह नहीं निभा पाता. उनकी ऑंखें ,बौडी लैंग्वेज़ ही बहुत कुछ कह जाती हैं . वे अमिताभ को दो टूक सुना भी देते हैं और रूड भी नहीं लगते .दीपिका और उनके बीच एक नाजुक सा रुई के फाहे सा पनपता रिश्ता भला सा लगता है .
मौसमी चटर्जी ने पिकू की मौसी का रोल बहुत बढ़िया निभाया है. फिल्म में छोटे छोटे कई लमहे हैं, जो सुजीत सरकार के बेहतरीन निर्देशन का नमूना हैं. अमिताभ और इरफ़ान के अभिनय पर तो कोई टिपण्णी अब बेमानी है .पर फिल्म दर फिल्म दीपिका निखरती जा रही हैं . पिता की बीमारी का सुनते ही परेशान हो दौड़ के उनके कमरे में जाना ,पिता के अचानक घुमने चले जाने पर अपनी चिंता भरी झल्लाहट जाहिर करना ...इरफ़ान को पसंद भी करना पर जाहिर न करना , सब बहुत सधा हुआ था .
फिल्म की एडिटिंग बहुत क्रिस्प है .एक भी दृश्य खिंचा हुआ नहीं लगता .और फिल्म शुरू होने के अंदर दो मिनट में ही अगर होठों पर मुस्कान आ जाए और बीच बीच में हंसी में बदलती हुई..फिल्म के अंत तक कायम रहे तो ये फिल्म देखनी तो बनती है.
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