गुरुवार, 19 जून 2014

सच्चे कर्मयोगी : ख्वाजा अहमद अब्बास

दोस्ती कई वजहों से होती है . पर कभी कटहल के सौजन्य से एक प्यारी सी बड़ी बहन सरीखी दोस्त मिलेंगी, सोचा न था. कच्चे कटहल की  सब्जी हम सबको बहुत प्रिय है और मुंबई में आसानी से कटहल नहीं मिलता. इसलिए मैं जिस से नियमित सब्जी लेती हूँ, उसे कह रखा था ,"मंडी से कटहल ला देना ' वो अक्सर भूल जाता और मैं याद दिलाती रहती .एक दिन सुबह वॉक पर  गयी तो देखा पेड़ से तोड़े गए ताजे कटहल बिक रहे हैं. मैं दो खरीद कर ले आई .और थोड़ी देर बाद ही हमारा सब्जीवाला भी एक बड़ा सा कटहल दे गया .मैंने यूँ ही तीनों कटहल की  तस्वीर फेसबुक पर डाल दी कि 'इनका अब क्या करूँ'. ढेर सारे कमेंट्स आये जिनमे अचार, पुलाव, पकौड़े कोफ्ते तरह तरह की चीज़ें बनाने के सुझाव थे . शशि दी (शशि सोहन शर्मा) ने इनबॉक्स में मैसेज किया ,अपना फोन नंबर दो एक अच्छी  सब्जी बताउंगी और उन्होंने खोये और दही वाली एक बेहतरीन सब्जी की रेसिपी बताई ,जिसे मैंने बनाया भी और घर पर सबने उंगलियाँ चाट कर खाईं .

फिर तो बातें होने लगीं.एक दिन उन्होंने एक इमेल भेजा जिसमें 'चौपाल' संस्था का निमंत्रण था .मैंने 'चौपाल' की तस्वीरें फेसबुक पर देखी  थीं और बड़े बड़े स्थापित लेखकों, कवियों को ही शामिल होते देखा था .शशि दी ने आश्वस्त किया मैं भी उनके साथ जा सकती हूँ. 
हम समय से थोडा पहले पहुँच गए .चौपाल से मुंबई में रहने वाले करीब सभी स्थापित लेखक,कवि, पत्रकार रंगकर्मी जुड़े हुए हैं. लिखने वालों को तो नाम से ही जाना जाता है पर टी वी ,फिल्मों से जुड़े चेहरे पहचान में आने लगे .गोविन्द निहलानी ,पवन मेहरोत्रा, परीक्षित साहनी, राजेन्द्र गुप्ता, अंजन श्रीवास्तव , बुनियाद की बड़की {नाम याद नहीं आ रहा :)}आदि थे .ब्रेक टाइम में शशि दी की सहेली रेखा जी और उनके पतिदेव हरीश के साथ चाय पीते बातें होने लगी. बाद में पता चला वे हरीश भिमानी और रेखा भिमानी थे .सीरियल 'महाभारत' में उनकी गूंजती आवाज़ 'मैं समय हूँ' अब तक ताज़ा है स्मृति में. अपने क्षेत्र के सारे महारथी लोग उपस्थित थे पर इस अनौपचारिक से माहौल में तस्वीर लेना अच्छा नहीं लगा . कार्यक्रम के दौरान हॉल में थोड़ी तस्वीरें जरूर लीं.

फिल्मकार के.ए. अब्बास की  जन्मशताब्दी  के अवसर पर यह कार्यक्रम था .कार्यक्रम का सुघड़ संचालन  'अतुल तिवारी' कर रहे थे .जिनके निर्देशन में 'संविधान' सीरियल प्रसारित हो रहा है. सबसे पहले उनके जीवन पर एक डॉक्यूमेंट्री दिखाई गयी. 'के.ए. अब्बास' को आज की पीढ़ी  'सात हिन्दुस्तानी ' फिल्म में अमिताभ बच्चन को ब्रेक देने वाले निर्देशक-निर्माता के रूप में ही जानती  हैं. जबकि अब्बास साहब एक बहुत मशहूर लेखक-पत्रकार-फिल्म निर्माता-निर्देशक रहे हैं. फिल्म और थियेटर के मशहूर कलाकार राजेन्द्र गुप्ता ने उनके जीवन के विषय में विस्तार से बताया.
उनका जन्म 7 जून 1914 में पानीपत में हुआ था. प्रारम्भिक शिक्षा के बाद वे आगे की  पढ़ाई के लिए अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में चले गए. यहाँ उनका रुझान लेखन और नाटकों की  तरफ हुआ. अक्सर कॉलेज में मासिक पत्रिका निकलती है पर अब्बास साहब हर हफ्ते "Aligadh opinion ' नाम से एक पत्रिका निकालते थे . 1933 में बी.ए. और 1935 में LLB करने के बाद वे मुंबई के एक  समाचार पत्र 'Bombay Chronicle ' में काम करने मुंबई आ गए. यहाँ उन्हें क्राइम रिपोर्टिंग के साथ  साथ फिल्म समीक्षा का भार भी सौंपा गया. वे फिल्मों की इतनी बढ़िया   समीक्षा करते कि उनकी समीक्षा से फ़िल्में हिट और फ्लॉप होने लगीं.एक बार एक पार्टी में हिमांशु राय ने उनसे कह दिया कि फिल्म बनाने के बाद फिल्म ऐसी है, वैसी है कहना आसान है. फिल्म बना कर देखो. वे फिल्मों से जुड़ गए उन्होंने 'नया संसार ', 'नीचा नगर' अपनी ही लिखी एक किताब 'And one did not return' पर 'डॉक्टर कोटनीस की  अमर कहानी ' लिखी जिसपर 'वी. शांताराम' ने फिल्म बनाई . 

फिर भी वे अपनी  लिखी कहानी पर निर्देशित फिल्म से संतुष्ट नहीं हो पाते . तो उन्हें फिर से ताना मिला कि सिर्फ कहानी लिख कर मुक्त हो जाना आसान है .फिल्म बनाना एक मुश्किल काम है. उन्होंने इस चुनौती को भी स्वीकार और 1943 में बंगाल में पड़े भीषण अकाल पर एक फिल्म बनाई 'धरती के लाल ' जिसकी  कहानी, कृश्नचंदर की एक कहानी  'अन्नदाता 'और इप्टा के दो नाटकों को मिलाकर लिखी गई थी. यह फिल्म बहुत पसंद की गयी. इसके बाद उन्होंने 
'परदेसी', 'शहर और सपना', 'राही', 'अनहोनी' ,'सात हिन्दुस्तानी', 'दो बूँद पानी' जैसी कई हिट और कलात्मक फ़िल्में बनाईं .जवाहर लाल नेहरु ने  आग्रह किया कि बच्चों के लिए कोई फिल्म बनाएं .उन्होंने एक फिल्म बनाई 'मुन्ना' जो पूरी तरह बच्चों के लिए ही थी . राजकपूर की फिल्मे 'आवारा', 'श्री 420' ,'जागते रहो' से लेकर 'मेरा नाम जोकर', 'बॉबी', 'हिना' जैसी फिल्मों के लेखक रहे.
सलमा आपा

फिल्म निर्माण के साथ ही उनका लेखन अबाध गति से चलता रहा . अखबार ब्लिट्ज में वे एक कॉलम लिखते थे 'लास्ट पेज ' जो हिंदी और उर्दू में 'आज़ाद कलम' के नाम से भी छपता था .पूरे 52 साल 1935 से 1987 अपनी मृत्यु तक तक इन्होने हर हफ्ते यह कॉलम लिखा .कहा जाता है, लोग ब्लिट्ज अखबार पीछे से पढना शुरू करते थे . अब तक के सबसे लम्बे समय तक लिखे जाने वाले इस कॉलम का रेकॉर्ड है. उन्होंने हिंदी अंग्रेजी और उर्दू में 73 किताबें लिखीं. यानी 72 साल के जीवनकाल में  73 किताबें लिखी गईं .उनकी लिखी किताबों के  ,जर्मन, रशियन, इटालियन, अरबी, फ्रेंच में अनुवाद भी हुए. वे सही मायने में एक कर्मयोगी थे. 

 अपनी आत्मकथा भी लिखी  I Am not an Island: An Experiment in Autobiography, जो 1977 में प्रकाशित हुआ और उसका दूसरा संस्करण 2010 में छपा.  उन्होंने अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट, रूसी राष्ट्रपति खुर्शचेव, चार्ली चैपलिन, माओ-त्से-तुंग,यूरी गार्गिन जैसी महान हस्तियों के इंटरव्यू भी लिए.  
1 जून 1987 को उनकी कलम खामोश हो गयी और वे इस दुनिया को अलविदा कह गए. 

उनके साथ काफी काम किये मशहूर लेखक 'जावेद सिद्दकी'  ने एक बहुत ही प्रेरक घटना बताई . जीवन के अंतिम वर्षों में उन्हें लकवा हो गया था और वे छड़ी लेकर चलते थे फिर भी रोज छड़ी टेकते हुए बिना किसी का सहारा लिए वे पृथ्वी थियेटर में नाटक देखने जाते थे .एक दिन उन्होंने जावेद सिद्दकी से कहा कि वे 'सायन' जाते समय उन्हें भी साथ ले चलें. उन्हें कुछ काम है. 'सायन' पहुंचकर एक बड़ी सी झोपड़पट्टी के सामने उन्होंने टैक्सी रोकने को कहा और उतर गए. जावेद सिद्दकी ने साथ आने को कहा तो उन्हें मना कर दिया कि आप अपने काम  से जाइए .मैं दूसरी टैक्सी लेकर लौट जाऊँगा . फिर भी शाम का वक़्त था , जावेद सिद्दकी ने उन्हें अकेला छोड़ना ठीक नहीं समझा और साथ हो लिए. अब्बास साहब अपनी छड़ी टेकते उस झोपड़पट्टी की  गलियों में सबसे अपने ड्रेसमैन के बारे में पूछने लगे. जब लोगों ने अनभिज्ञता जताई तो वे जोर जोर से उसका नाम पुकारते हुए घूमने लगे. काफी आगे जाने पर एक खाट पर शराब पीकर एक व्यक्ति लेटा हुआ दिखा .अब्बास साहब को देख वह हडबडा कर खड़ा हो गया और बोला, "साहब शूटिंग थी तो मुझे बुलवा लिया होता, आप क्यूँ चले आये " अब्बास साहब ने नाराज़गी से कहा ,"कैसे बुलाता तुम्हे ,तुम्हारा कोई फोन नंबर भी नहीं है .तुमने बताया था कि यहाँ रहते हो तो चला आया ,ये लो अपने रुपये  " और उन्होंने पांच-छः सौ रुपये उसे पकड़ा दिए .वह व्यक्ति शर्मिंदा होते हुए बोला, "साहब आपने क्यूँ कष्ट किया ,मैं खुद कभी आ जाता लेने " अब्बास साहब दुबारा गरजे ,"और मेरे पास उस वक़्त पैसे नहीं होते तो?,खर्च हो गए होते तो ?अपने पैसे पकड़ो " और वे वापस चल दिए .
परीक्षित साहनी 

अब्बास साहब अपनी फील्म यूनिट में सबके साथ एक जैसा व्यवहार करते थे .उनकी फिल्मों में कलाकारों के नाम भी एक साथ ही आते थे . हीरो हिरोइन के नाम अलग से  नहीं आते थे . वे विचारों से कम्युनिस्ट थे . हमारी फिल्मों में जो समाजवाद दिखता  है . गरीबों की जीत दिखाई जाती है .इसकी बुनियाद अब्बास साहब  ने ही डाली है. वे इतनी सारी  विधा में सिद्धहस्त थे कि लेखकगण कहते ,वे तो पत्रकार हैं.पत्रकार कहते कि वे फिल्मवाले हैं ,फिल्मवाले उन्हें कम्युनिस्ट कहते और कम्युनिस्ट कहते कि काहे के कम्युनिस्ट वे तो बुर्जुआ राजकपूर के लिए लिखते हैं .

वे इतने स्वाभिमानी थे फिल्म निर्माण के समय पैसे कम पड़ जाएँ तब भी किसी से नहीं कहते थे .फिल्म ' दो बूँद पानी' बनाते वक़्त उनके पास raw stock के पैसे भी नहीं थे .फिल्म बंद हो गई. इंडस्ट्री में यह बात फैली तो अमिताभ बच्चन तक भी पहुंची जिन्हें कई जगह से रिजेक्ट होने के बाद भी 'अब्बास साहब' ने फिल्मों में ब्रेक दिया था .एक दिन 'अजिताभ बच्चन', अब्बास  साहब से मिलने गए और उनके यहाँ एक पैकेट भूल आये .अब्बास साहब समझ गए .फिल्म बन गई ,प्रदर्शित भी हो गई, उसके बाद अब्बास साहब भी एक दिन अमिताभ बच्चन से मिलने गए और एक पैकेट वहाँ भूल आये . 

'बलराज साहनी ' ने के ए अब्बास की कई फिल्मों में काम किया है. दोनों अच्छे  दोस्त थे . उनके बेटे 'परीक्षित साहनी' भी बहुत करीब से जानते थे उन्हें. परीक्षित साहनी ने फिल्म से जुडी एक इतनी मार्मिक घटना का जिक्र किया कि हॉल में बैठे सबकी आँखें नम हो आईं. अब्बास साहब की फिल्मों के क्लिप्स दिखाए जा रहे थे .'धरती के लाल' का क्लिप भी दिखाया गया .उसमे सात -आठ साल के परीक्षित साहनी,उनकी माँ दमयंती साहनी और बलराज साहनी भी थे . इस फिल्म के पूरी होने के बाद ही परीक्षित साहनी की माँ गुजर गयीं .परीक्षित साहनी को अपनी माँ की ज्यादा याद भी नहीं थी बस कुछ तस्वीरें थीं. इतने वर्षों बाद उन्हें चलते बोलते देखा ,उनकी आवाज़ सुनी (इतनी पुरानी  फिल्म  के प्रिंट भी उपलब्ध नहीं थे , अब्बास साहब की जन्मशताब्दी के अवसर पर फिल्म्स डिविज़न से यह फिल्म निकलवाई गयी थी ) .परीक्षित साहनी की पत्नी और बेटी ने भी पहली बार ,उनकी माँ को परदे पर देखा .सबकी आँखें भर आई थीं.  
राजेन्द्र गुप्ता 

परीक्षित साहनी ने एक बहुत रोचक वाकया शेयर किया .वे अपने छात्र जीवन में गले में एक चेन पहना करते थे जिसके लॉकेट पर भारत का नक्शा बना हुआ था .वे अपने इस देशप्रेम को बड़े गर्व से सबको दिखलाया करते थे . एक दिन अब्बास साहब ने खुद ही देख लिया और उन्हें पास बुलाकर अपनी अंगूठी दिखाई ,'जिसपर भारत का नक्शा बना हुआ था ' 

लेखक कृष्णचंदर और अब्बास साहब की तीस साल की दोस्ती पर कृश्नचंदर जी की पत्नी सलमा आपा  ने कुछ खुशनुमा पलों को बांटा .रचना भंडारी ने अब्बास साहब की  बनाई फिल्मों के एक एक पोस्टर को स्क्रीन पर दिखाते हुए उस फिल्म के बारे में जानकारी दी .अब्बास साहब की नातिन 'नीलिमा अज़ीम' (शाहिद कपूर की माँ ) ने शोभा भार्गव के साथ अपने नाना के फिल्मों के कुछ गानों पर मंत्रमुग्ध कर देने वाला कत्थक नृत्य प्रस्तुत किया. बहुत सारी पारिवारिक बातें भी शेयर कीं . 

उस शाम ख्वाजा अहमद अब्बास को उनके सारे प्रशंसकों ने बहुत प्यार से याद किया .
पवन मेहरोत्रा 

नीलिमा अज़ीम 

शोभा भार्गव 



16 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही बढ़िया पोस्ट है .....
    कितनी बातें हैं जो जानते ही नहीं थे.....और तुम्हारा तरीका तो रोचक है ही....
    के ए अब्बास जी को तुम्हारी कलम से जानना अच्छा लगा !
    कार्यक्रम के pics भी शानदार....
    और वो कटहल की खोये और दही वाली रेसेपी भी शेयर कर देतीं... :-)

    अनु

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  2. कितने किस्से हैं .... हमें लगता है कि जो कुछ परदे पर दिखता है, इनका जीवन यही तक है, ऐसा ही है .... रोचक पोस्ट

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  3. बहुत खूब, बात कटहल से शुरु हुई और एक शानदार आयोजन की रिपोर्ट पढ़ने मिल गई। शुक्रिया।

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  4. Good post . I hope he is not the Abbas of Abbas - Mastan duplet.

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  5. i read ... fully . but till date i was not aware about any other abbas in film industry ..needless to say that my knowledge of films is only limited as a viewer .

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    1. thats why i wrote this post :) and other abbas-mastaan who are brothers are still making films . http://en.wikipedia.org/wiki/Abbas-Mustan

      There is one more Abbas Tyrewala ...who is a screenplay writer,He has written the dialogues of film Munna Bhai MBBS .his first fil as a director :Jane tu Ya Jane na " was a huge hit. http://en.wikipedia.org/wiki/Abbas_Tyrewala

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  6. कल ही शाम आपसे शिकायत की थी न ऐसी पोस्ट आप नहीं लगातीं. Sorrry, इस पोस्ट को देखा ही नहीं था, आज देखा मैंने :) :)
    एज युज्वल....बहुत ही रोचक..Intresting.
    अच्छा लगता है दीदी ऐसी पोस्ट पढना !

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  7. कटहल से शुरू हुई मुलाकात चौपाल तक पहुंची और इसके जरिये अब्बास तक !
    कई नई बाते पता चली !
    नीलिमा अजीम अच्छी लगती है मुझे ,दूरदर्शन के एक बेहद उम्दा धारावाहिक में सबसे पहले देखा था उन्हें .
    फ़िल्मी रीलों में कैद रह जाने वाली परीक्षित साहनी की यादें भावुक कर गयी . कई बार सोचती हूँ कि फ़िल्मी कलाकारों को कैसा लगता होगा जब स्वयं को देखते हैं वर्षों के बाद रीलों में !

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  8. बहुत से अनजानी बातें ... जीवन से जुड़े हुए सच को जानना कभी कभी दिल को छूता है ...
    अब्बास साहब के जीवन के कई लम्हों को जान्ना और उन्हें महसूस करना अच्छा लगा ... एक अच्छी पोस्ट जो दिल को छु गयी ...

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  9. बहुत बढ़िया लगी यह पोस्ट.......आपने प्रस्तुत भी बहुत अच्छे ढंग से की। जैसे आप इत्तफाक से इस आयोजन पर पहुंच गईं ...मैं भी संयोगवश इस पोस्ट पर पहुंच गया......बहुत अच्छा लगा।

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  10. बेहद उम्दा और बेहतरीन प्रस्तुति के लिए आपको बहुत बहुत बधाई...
    नयी पोस्ट@दर्द दिलों के
    नयी पोस्ट@बड़ी दूर से आये हैं

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  11. kathal ka ye ek accha fayda hua...aap se zyada hamen...jaise kahte hain na ki ek aurat shikshit ho jaaye to ek pariwaar shikshit ho jata hai...usi tarah aapke jaisa accha lekhak kisi sabha mein shamil ho jaye to hum jaise pathak bhi wahan pahunch jaate hain..dhanywaad dher saari jankaari dene ke liye

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  12. पवन मल्होत्रा है मेहरोत्रा नहीं।

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  13. बहोत इंटरेस्टिंग लगा यह लेख .....वाकई कितना कुछ जाना इसे पढ़ने के बाद ....थैंक्स रश्मि....दिस आर्टिकल वाज़ अ ट्रीट

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