पता नहीं कितने मित्रों ने यह सपना बांटा है कि उनकी तमन्ना है कि कुछ पैसे कमा लेने के बाद वे अपने गाँव चले जायेंगे और वहां नए वैज्ञानिक तरीके से खेती-बाड़ी करेंगे . हाल में मेरे सुपुत्र ने भी कहा, " मैं जानता हूँ ,तुम हंसोगी सुनकर पर मैं कुछ दिनों बाद देहरादून में जाकर रहूँगा और बच्चों को पढ़ाऊंगा " मैंने हंसी छुपाते हुए कहा , "देहरादून क्यूँ...यहाँ भी बच्चों को पढ़ा सकते हो.." नहीं...मुझे पहाड़ पसंद है.." फिर मेरा वही रटा रटाया जबाब था कि "देखेंगे नौकरी ,प्रमोशन ,के कुचक्र में ऐसे उलझोगे कि याद भी नहीं रहेगा, ऐसा कभी सोचा भी था तुमने ."
और गलत मैंने भी नहीं कहा, करीब पांच साल पहले, एक मित्र ने बहुत पकाया था ( यही शब्द उपयुक्त है ). बाकायदा अपनी योजना बतायी थी..एक ट्रैक्टर खरीदूंगा ,गाँव में सौर्य ऊर्जा से बिजली का उत्पादन होगा...फलों के बाग़ लगाऊंगा..वगैरह वगैरह . और आज वे विदेश में हैं .छुट्टियों में अपनी पत्नी श्री के साथ स्विट्ज़रलैंड और पेरिस की सैर पर जाते हैं.
एक मित्र आज भी कहते हैं..."बस कुछ दिन और नौकरी करनी है ,फिर तो अपने घर जाकर खेती,बागबानी करूँगा " मैं कह देती हूँ ,"खेती तो आज भी कर सकते हैं...अभी क्यूँ नहीं चले जाते " तो उनका कहना है,"जिन सुविधाओं का आदी हो चुका हूँ उन्हें जुटाने के लिए पहले पैसे तो कमा लूँ...इंटरनेट, अखबार ,किताबों के लिए पैसे चाहिए .इनके बगैर मैं नहीं जी सकता " इनके सपने भी कितने फलित होते हैं ,देखने में ज्यादा देर नहीं. वे विवाहयोग्य उम्र के हो चुके हैं और घर वालों का दबाव शुरू हो चुका है.
अपनी सहेलियों से जिक्र किया तो दबी सी कसक उनकी आवाज़ में भी उभरी . कॉलेज के दिनों में हमने भी ऐसे सपने देखे थे कि पहाड़ पर एक झोपड़ी बना कर रहेंगे या लहलाहते खेतों के बीच मिटटी का घर होगा.
कई लोग नौकरी करते वक्त ,सरकारी क्वार्टरों में ही जीवन गुजार देते हैं. अपना घर नहीं बनवाते क्यूंकि रिटायरमेंट के बाद गाँव में जाकर खेती संभालने की योजना रहती है. लेकिन जब योजना को कार्यान्वित करने का समय आता है तो उन्हें आभास होता है कि गाँव में बिजली नहीं रहती,और अब टी.वी. ,फ्रिज़ ,इंटरनेट के बिना जीना संभव नहीं. पत्र-पत्रिकाएं नहीं मिलतीं. बातें करने के लिए अपने मानसिक स्तर के लोग नहीं हैं, खेती करना इतना आसान नहीं. और वे शहर में ही एक फ़्लैट खरीद कर बस जाते हैं.
पर सवाल यह भी है कि इस तरह के ख़याल लोगों के मन में आते क्यूँ हैं ,आँखों में ऐसे सपने उगते क्यूँ हैं ? कुछ तो आदर्शवाद ,जीवन में कुछ सार्थक करने की तमन्ना रहती है . कुछ इसलिए भी क्यूंकि ज़िन्दगी में कदम रखने के बाद कुछ सोचने-समझने लायक हुए नहीं कि उसके पहले ही कवायद शुरू हो जाती है ,पढ़ाई करो...अच्छे नंबर लाओ, अच्छी डिग्री हासिल करो, नौकरी करो , शादी करो, बच्चों का लालन-पालन , उनकी शिक्षा दीक्षा के लिए पैसे जमा करो, घर बनवाओ ,अपने बुढापे के लिए पैसे सहेजो, बीच बीच में वैकेशन पर जाओ, त्यौहार मनाओ , बीमारी का इलाज करवाओ और फिर इस दुनिया से कूच कर जाओ. पीढ़ी दर पीढ़ी इसी सेट पैटर्न पर दुनिया चलती रहती है. पर मानव मन इनकी पकड़ से छूटने को छटपटाता रहता है. इन सारे नियम कायदों को धता बता कर अपने मन का कुछ करने की तमन्ना मन में पलती रहती है. और तभी ऐसे इन्द्रधनुषी सपने आँखों में सज जाते हैं.
कुछ लोग , इन नियमों से हटकर अपने नियम खुद बनाते हैं...अपने सपने पूरे करते हैं ...अपनी शर्तों पर जीवन जीते हैं पर उन्हें कभी भी समाज से सहयोग,प्रशंसा ,समर्थन नहीं मिलता .शायद ईर्ष्यावश कि जो हम नहीं कर पाए ,दूसरा कैसे कर ले ?? किसी लड़की ने शादी नहीं की , नौकरी कर रही है ,अच्छे पैसे कमा रही है..घूम रही है..अपने मन का खा -पी-पहन रही है पर नहीं पूरे समाज के पेट में दर्द होने लगता है. उसने शादी नहीं की...माँ नहीं बनी ..उसका नारी जीवन निरर्थक .घुट्टी में पिला दी जाती है."नारी जीवन की सार्थकता तो बस 'माँ' बनने में है.". माँ बनना जीवन की एक ख़ूबसूरत अनुभूति है पर नारी जीवन का एकमात्र लक्ष्य यही नहीं होना चाहिए. लड़के-लड़की शादी न करें ,बच्चे न पालें तो पूरा समाज इसी चिंता में घुला जाता है, उनके बुढापे का सहारा कौन बनेगा ?? जबकि असलियत ये है कि आजकल ज्यादातर वृद्ध माता-पिता अकेले ही ज़िन्दगी गुजार रहे होते हैं, बच्चे या तो सुदूर किसी शहर में होते हैं या विदेश में .
इन सारी सीमाओं के बीच भी सपने पलते रहने चाहिए ...सपने देखे नहीं जायेंगे तो पूरे कैसे होंगे :).
कशक.....
जवाब देंहटाएंबहुत ही संतुलित आलेख.. कई दिलों में दबी टीस को उजागर करता है... सपने देखना, सपनों के पूरा करने की कोशिश करना ये दो फ़ैक्टर तो इंसान के बस में होते हैं... लेकिन समाज में रहने पर कई और सामाजिक फ़ैक्टर होते हैं जिनका हम पहले से नहीं अनुमान लगा सकते.. हर इंसान कुछ विशेष होने की खूबी लेकर पैदा होता है, जिसने उसे पहचान लिया वो अपने सपने पूरे कर पाता है.. अर्जुन योद्धा होने के लिए ही पैदा हुआ था, लेकिन जब वो कुरुक्षेत्र में सन्यासी के लक्षण दिखाने लगा तो भगवान ने समझाया. हम भी बहुत कुछ करना चाहते हैं, लेकिन लोग मज़ाक उड़ाते हैं, उसे किताबी बातें कह देते हैं, क्योंकि ये उनके सपने नहीं. हमारे हैं!!
जवाब देंहटाएंअमेरिका का राष्ट्रपति रिटायरमेण्ट के बाद खेती कर सकता है तो हम क्यों नहीं. दरसल बन्द आँखों के सपने आँखें खुलते ही टूट जाते हैं. पूरा करने के लिये जागी आँखों के ख़्वाब होने चाहिए.. नामुमकिन नहीं कुछ भी!!
बहुत सुन्दर .आज जीवन की आपाधापी बहुत कुछ मन की करने नहीं देती.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : आ गए मेहमां हमारे
आकाश इतना बड़ा मिले कि सीमाओं की चिन्ता न रहे।
जवाब देंहटाएंशीर्षक और फोटो देखकर लगा कि फिल्म समीक्षा मिलेगी।विषय फिर भी अच्छा है।जहाँ सभी एक तरह सोचने वाले हो वहाँ दिक्कत नहीं होती।परिवार में कोई एक प्रगतिशील विचारों वाला हो जाता है तो समस्या हो जाती है।वैसे तो गाँवो में भी अब सुविधाओं की कमी नहीं पर एक नये परिवेश में जाकर रहना आसान नही है।शादी को कट्टर समर्थन कभी नहीं रहा पर इससे विरोध भी नहीं है।हम बचपन में सोचते हैं कि जल्दी से बड़े हो जाए ताकि शादी कर सकें।लेकिन जब शादी की उम्र होने लगती है तो लगता है कि इसमें जितनी देर हो सके उतना ही अच्छा।अब समझ में आया मेरे अंकल अपनी शादी को टालने के लिए इतने नखरे क्यों कर रहे थे।विवाह अनिवार्य न होकर व्यक्तिगत चुनाव होना चाहिए।
जवाब देंहटाएंसपने देखना अच्छी बात है ऊँचे सपने देखना उससे भी अच्छी बात है किन्तु ये तो सिर्फ बड़ी बड़ी बात करना ही हुई हमारे एक परिचित है वो हमेशा कहते थे मुझे समाज सेवा करनी है नौकरी करने के बाद जब रिटायर्ड हुए तो पत्नी बीमार थी कहने लगे समय ही नहीं मिलता समाज सेवा करने का ,पत्नी भी चली गई समय ही समय भरपूर पैसा भी अब पिछले १५ साल से विदेश में रहने लगे है साल में दो बार भारत आते है सब रिश्तेदारो से अब भी कहते है मुझे समाज सेवा करनी है।
जवाब देंहटाएंमेरा आशय यह है कि कोई भी सपने पुरे करने के लिए" कल "नहीं होता आज ही करना है जो करना है । और सपने पूरे करने के लिए बहुत कुछ त्यागना भी पड़ता है
जीवन के द्वंद्व में मन के वास्तविक विचारों का धरातल खो जाता है | वैसे कुछ करना ही हो रहें मिल भी जाती हैं .... हाँ, सपने देखे ज़रूर जाएँ :)
जवाब देंहटाएंकहाँ पूरे हो पाते हैं हर सपने... ऐसे कितने ही सपने अल्पायु में ही दम तोड़ देते हैं. वैसे आजकल के युवाओं के ज्यादातर सपने धन-संपत्ति और सुख- सुविधाओं को लेकर ही होते हैं. कुछ के पूरे हो जाते हैं कुछ जीवन भर संघर्ष ही करते रहते हैं.
जवाब देंहटाएंबकौल ग़ालिब-
हजारों ख्वाहिशें ऐसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
ये सपने नहीं बस मन की एक इच्छा है ... जो किस नए बोनान्ज़ा के साथ पीछे हो जाती है .. कुछ समय बाद फिर से उभर आती है ... ये तो जीवन क्रम है ... परिवेश बदलता है ... इच्छा नहीं ...
जवाब देंहटाएंसपने अनगिनत आँखों में पलते है मगर लीक से हटकर कुछ करने का साहस बहुत कम लोगो में ही होता है ! सर पर कड़ी हजारों जिम्मेदारियां या फिर आराम की जिन्दगी जीने का लोभ कुछ करने नहीं देता ,हममे से बहुतों की दुखती रग है यह !
जवाब देंहटाएंअन्तत: साबित यही होता है, कि लोग हमेशा के लिये अपना घर,खेत, खलिहान और अपना गांव छोड़ना नहीं चाहते, शायद इसीलिये अपनों से या अपनी आत्मा से काल्पनिक वादा कर खुद को तसल्ली देते हैं..खैर..सपने तो देखने ही चाहिये :)
जवाब देंहटाएंहमरा तो नामे 'सपनों की पिटारी' है इसलिए हम और हमरे ऊ भी मिलकर सपना देखे हैं कि बुढ़ौती में किसी पहाड़ी की चोटी पर घर बनाएँगे, आउर हमलोग ऊ पहाड़ी से कभियो नीचे नहीं उतरेंगे । हमरे ऊ तो औरे दू क़दम आगे सोच लिए हैं, कह रहे थे हमसे कि, हमलोग तो नीचे नहिये उतरेंगे, लेकिन अगर जे कोई ऊपर आने लगेगा तो ऊ ढेला मार-मार के भगाएँगे। एक लम्बर के नटवरलाल हैं ऊ :) हा हा हा हा :):)
जवाब देंहटाएंएकदम सही बात है सपना देखने में कौनो टैक्स थोड़े न लगता है, थोक का भाव में देखना चाहिए, पूरे हुए तो हुए, नइ हुए तो नइ हुए :)
अब भई तुम ई राज़ का भी फाश करो ऐसे प्रखर विचार तुम्हारे दिमाग में कैसे आते हैं, जबकि बिन सिर पैर के सपने हम भी देखते रहते हैं, आपस में बात भी करते रहते हैं बाकी हमरे दिमागवा में पोस्ट लिखने का बात काहे नहीं आता है :)
तुम्हारी रचनात्मक क्षमता और ऊर्जा तो बस क़माल है, इस आलेख का फ्लो बहुत ही अच्छा रहा ।हमेशा की तरह बहुत सधा हुआ,संतुलित, समन्वयकारी और हाहाकारी आलेख ।
शोभना दीदी की टिप्पणी बहुत पसंद आई ।
I too like hills and mountains , that's why i don't want to settle there . I want those areas to remain untouched.
जवाब देंहटाएंसलाम। बहुत दिनों बाद ब्लॉग पर आया हूं। व्यस्तताओं और उलझनों में फंसा ...पर सपने जो सिर्फ सपने न रह जाएँ पढ़कर कुछ अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंपरिवेश तो बदलता रहता है परन्तु कुछ हटकर कुछ करने का साहस शायद बहुत कम लोगो में ही होता है !.....पर सपने तो देखने ही चाहिए !!
इसको मेरे से बेहतर और कौन समझ सकता है...मैं वो बात कर रहा हूँ जब आपने कहा कुछ लोग इन नियमों से हटकर अपने नियम खुद बनाते हैं लेकिन सामाज से उन्हें प्रसंशा या कोई सहानुभूति या सहयोग नहीं मिलता...
जवाब देंहटाएंकभी बताऊंगा दीदी, डिटेल में :
वैसे मेरे एक करीबी मित्र रवि जी, उनके साथ एक सपना मैंने भी देखा है....देखते हैं वो पूरा होता है या नहीं....आगे का कुछ कह नहीं सकते, लेकिन फिर भी मुझे लगता है वो सपना मैं पूरा कर लूँगा.
वैसे भी बहुत जायदा इंट्रेस्टेड नहीं हूँ मैं इस भागदौड़ में, नौकरी वौकरी के चक्कर में....बस उतना ही चाहिए जितना से काम चल सके..बाकी का वक़्त खुद के लिए, कुछ अपनों के लिए...