कुछ महीने पहले सहेलियों के साथ मुंबई के पास एक हिल स्टेशन 'माथेरान' गयी थी. जब फेसबुक पर फोटो लगाई तो कई लोगो ने कहा....'तस्वीरें यहाँ देख ली...विवरण तो ब्लॉग पर पढ़ने को मिलेगा." परन्तु मैने कहा.."कुछ ख़ास घटा ही नहीं...सब कुछ आराम से संपन्न हो गया तो क्या लिखूं?" ...दरअसल वहाँ जाते समय मिनी बस में बैठते ही मैने कहा था.."ईश्वर!! कुछ ऐसा ना घटे कि मुझे मुझे कोई पोस्ट लिखनी पड़े..." अक्सर होता यही है...जब कुछ मनोरंजक या भयावह घटता है..तभी हम उस घटना के विषय में लिखने को उद्धत होते हैं..पर कई सहेलियों ने मुझसे बहस की 'ऐसा क्यूँ??...कुछ अनचाहा घटेगा तभी लिखोगी?..उन दुष्टों ने मजाक में यह भी कह डाला.."इसका अर्थ तुम अपने अवचेतन में चाहती हो.. कि कुछ ऐसा घटे कि तुम्हे लिखना पड़े "
उनकी बातों पर मनन कर ही रही थी कि एक अखबारनवीस की नज़र उन तस्वीरों पर पड़ गयी...और उन्होंने आग्रह कर डाला कि ' अब सामाजिक बदलाव हो रहे हैं..महिलाएँ बिना किसी पुरुष संरक्षक के भी घूमने जाने लगी हैं'...इन सब मुद्दों पर एक आलेख लिख डालूं.." आलेख लिखा गया...छप भी गया..{एक दूसरे आलेख की फरमाइश भी आ गयी...जो अब तक नहीं लिखी गयी है :)} परन्तु एक बार ब्लॉग पर लिखने की आदत पड़ जाए तो पत्र-पत्रिकाओं में लिखना कठिन लगने लगता है...शब्द सीमा की वजह से. तब से सोच रखा था unedited version...को ब्लॉग पर डाल दूंगी...पर मौका ही नहीं मिला..और अब पंचगनी ट्रिप पर लिख डाला...'माथेरान' तो वैसे ही मेरी फेवरेट जगह है...नाराज़ हो गया...तो अब बुलाएगा भी नहीं...:)
शायद बचपन से हॉस्टल में रहने के कारण ..दोस्त जल्दी बन जाते हैं. मुंबई में भी कुछ सहेलियों का ग्रुप बन गया ..और हम साथ-साथ शॉपिंग..फिल्मों के लिए जाने लगे. कुछ ज्यादा समय साथ बिताने की इच्छा हुई..और कभी-कभार दिन भर के पिकनिक का प्रोग्राम भी बनने लगा. हमारी हसरतें और बढीं...और हम दस सहेलियों ने मुंबई से 90 किलोमटर दूर प्रकृति की सुरम्य वादियों में बसे 'माथेरान भ्रमण' की योजना बनाई. पर इस प्लान को हकीकत का रूप देने में पूरा एक साल लग गया. क्यूंकि गृहणियों की कई जिम्मेवारियां होती हैं. कभी बच्चों की परीक्षा...कभी रिश्तेदारों का आगमन...कभी परिवार में कोई शादी-ब्याह..कभी किसी का बीमार पड़ जाना...दस सहेलियों का एक साथ दो दिन का समय निकालना बहुत मुश्किल हो रहा था....किसी तरह अनुकूल समय आया और एक तिथि तय हुई जब सब फ्री थे.
अब दूसरी रूकावट थी...सबके पति की सहमति...अब तक एक ही शहर में घूमने जाने और सुबह जाकर शाम तक वापस लौट आने की व्यवस्था से किसी के घर में कोई आपत्ति नहीं थी. पर ये दो दिन के लिए...शहर से दूर..जाने की बात थी. घरवालों को ,हमारी सुरक्षा की चिंता भी वाजिब थी. ऐसा रिजॉर्ट चुना गया...जिसमे कुछ के पास उसमे पहले भी रुकने के अनुभव थे. कुछ अपनी उम्र का हवाला दिया गया कि अपना ख्याल तो रख ही सकते हैं.
एक सुबह हम महिलाओं का ये काफिला..अपने सफ़र पर निकल पड़ा. और सुबह घर से निकलने से पहले...सब अपने घर में खाने का इंतजाम कर के आई थीं...किसी ने छोले बनाए थे..किसी ने इडली तो किसी ने आलू पराठे. हमारी मौजूदगी में भले ही बाहर से पिज्जा और नूडल्स मंगवाए जाएँ पर ये महिलाएँ अपराध-बोध नहीं महसूस करना चाहती थीं कि उनकी अनुपस्थिति में बाजार का खाना खाना पड़ा.
माथेरान भारत का सबसे छोटा हिल-स्टेशन है. 1850 में ब्रिटिश हुकूमत ने हिल स्टेशन का दर्जा दे दिया था . यह समुद्र तल से करीब २,६२५ फीट की उंचाई पर स्थित है. यह दुनिया के उन गिने-चुने स्थानों में से है ..जहाँ कोई भी सवारी नहीं जाती. बिलकुल जीरो पोल्यूशन है. पैदल ही घूमना होता है. या फिर घोड़े या हाथ-रिक्शा पर बैठकर. नीचे से रसद और जरूरी सामान भी घोड़े या कुली ही ढो कर लाते हैं. पूरे माथेरान में पक्की सड़क भी नहीं है. बस लाल मिटटी से बने रास्ते हैं और हैं... हरी-भरी घाटियाँ ..पहाड़..सुरम्य वादियाँ..प्रकृति का अनुपम सान्निध्य .मुंबई के शोर-शराबे से दूर ,यह जगह बहुत आकर्षित करती है.
माथेरान के लिए मिनी बस के रवाना होते ही सबने पत्नी-बहू-माँ का अवतार परे कर दिया..यहाँ बस उनकी अपनी पहचान थी..कभी अन्त्याक्षरी खेली जा रही थी....कभी कोरस में गाने गाए जा रहे थे.. तो कभी अलग-अलग पोज़ में फोटो निकाले जा रहे थे. तीन घंटे का सफ़र कैसे कट गया..पता ही नहीं चला. माथेरान पहुँचने के पहले दो पड़ाव पड़ते हैं...एक निश्चित स्थान से कोई भी भारी गाड़ी आगे नहीं जाती...सिर्फ कार या टैक्सी से ही जाया जा सकता है. हमें भी मिनी बस छोड़ना पड़ा. महिलाओं को देखकर भी टैक्सी वाले अपनी मनमर्जी का किराया नहीं वसूल सके. कुछ सहेलियाँ अच्छी मराठी जानती हैं. उन्होंने धाराप्रवाह मराठी में अच्छी तोल-मोल की . टैक्सी से पैतालीस मिनट की यात्रा के बाद एक दूसरा पड़ाव आता है...यहाँ से ऊपर कोई वाहन नहीं जाता ..सिर्फ घोड़े या रिक्शे पर ही जाया जा सकता है. बाकी सब तो घोड़े और रिक्शे पर सवार हो लिए पर पैदल चलने की शौक़ीन तंगम,वैशाली,राजी और मैने पैदल ही चलना शुरू कर दिया. रास्ते में कुछ काफी उम्रदराज़ महिलाएँ भी सर पर बड़ी-बड़ी अटैची और बैग उठाये दिखीं. पुरुषों ने तो सर पर तीन तीन अटैची और दोनों बाहों से दो -दो बड़े बैग लटका रखे थे. स्टेशन पर तो फिर भी थोड़ी दूरी ही तय करनी होती है...यहाँ आधे घंटे की चढ़ाई थी...पर इनकी आजीविका का साधन ही यही है.
मेरे हाथ में एक जूस की बॉटल थी...मैने बैग में ही रखी थी. एक जगह रुक कर हम सबने पिया..थोड़ी सी बची थी...मैने वापस बैग में नहीं रखा और रास्ते में एक बन्दर ने लपक कर हाथ से जूस की बोतल ले ली. और एकदम एक्सपर्ट की तरह ढक्कन खोल गट-गट करके सारा जूस पी गया. घने जंगल के बीच का रास्ता...जगह-जगह बिकते अमरुद-इमली- खीरा और अदरक-इलायची वाले ढाबे की चाय ने हमारी वाक को और खुशनुमा बना दिया.
हमने कॉटेज बुक किया था...बाहर बरामदे में कुर्सी पर बैठी बाकी सहेलियाँ हमारे सामान के साथ हमारा इंतज़ार कर रही थीं....अभी हम अपनी यात्रा का बखान कर ही रहे थे कि एक बन्दर लपक कर आया....और उसने एक बैग की जिप खोलकर एक थैली निकाल ली...उस थैली में कैमरा.. चार्ज़र वगैरह थे....मैने भगाने की कोशिश की तो अपने काले-काले दाँत निकाल कर इतने जोर से गुर्राया कि मैं अपना पर्स फेंक-फांक कर भागी. एक सहेली के हाथ में छतरी थी..उसने छतरी से डराया तब वो भागा...हमने सोचा था...बाहर बैठ कर सुन्दर नजारे देखते हुए चाय पी जायेगी...पर बंदरों के आतंक की वजह से हमें अंदर ही बैठना पडा.
इसके बाद हम माथेरान घूमने निकल पड़े...अधिकाँश लोग छतरी या रेनकोट लाना भूल गए थे. {अनीता ने तो रात में छतरी निकाल कर बैग के पास रखी कि मुझे सुबह लेकर जाना है...और सुबह वहाँ छतरी पड़ी देख कर गुस्सा होने लगी...घर में कोई भी सामान जगह पर नहीं रखता और छतरी सहेज कर अंदर जगह पर रख आई:)}....मुझे..राजी,वैशाली, तंगम को तो छतरी लाने का ध्यान भी नहीं रहा. हम सबने वहीँ बाज़ार से बीस- बीस रुपये का रेनकोट (जो बड़ी सी एक प्लास्टिक की शीट थी...)और पाँच रुपये की टोपी खरीदी और सबने शान से पहनकर तस्वीरें भी खिंचवायीं. इस तरह की हरकतें...परिवारजनों के सामने नहीं हो सकतीं...दोस्तों के साथ ही संभव है.
किसी भी हिलस्टेशन की तरह...यहाँ भी..हार्ट -पॉइंट..मंकी पॉइंट...हनीमून पॉइंट...लुइज़ा पॉइंट आदि है...हर पॉइंट से प्रकृति का स्वरूप इतना ख़ूबसूरत लगता कि कदम आगे बढ़ने से इनकार करने लगते. इको पॉइंट पर खूब एक दूसरे का नाम लेकर पुकारा गाया.
अक्सर हिल स्टेशन में शाम के बाद थोड़ी शान्ति हो जाती है...टूरिस्ट बोर ना हों..इसके लिए रिजॉर्ट वाले रात में आकर्षक कार्यक्रम रखते हैं. शर्मिला और मैं...पहले भी इस रिजॉर्ट में रुक चुके थे..हमें पता था..यहाँ Karaoke होता है...पर उस दिन तम्बोला का कार्यक्रम था.....हमारी टोली होटल मैनेजर के पास पहुँच गयी..कि हमने तो Karaoke की वजह से ये होटल चुना...हमें तो वही चाहिए...और वह आधे घंटे के लिए सिर्फ हमारे ग्रुप की खातिर Karaoke के लिए मान गया था...इसमें किसी भी गाने का म्युज़िक बजता रहता है...और सामने स्क्रीन पर गीत के दृश्य के साथ दो दो पंक्तियों में गाने के बोल उभरते रहते हैं...उन बोलो को पढ़कर म्युज़िक के साथ गाना गाना होता है...गाना ख़त्म होने पर स्क्रीन पर ही मार्क्स भी उभरते हैं...किसी को पच्चीस मिले किसी को सत्तर तो किसी को अडतालीस....पर लुत्फ़ सबने जम कर उठाया.(अच्छा हुआ...आधे घंटे का ही कार्यक्रम था और मेरी बारी आने से रह गयी....वरना मुश्किल हो जाती....वहाँ माइनस में मार्क्स देने का प्रावधान नहीं था :)) ..इसके बाद डिस्को का कार्यक्रम था..... कुछ ने शायद कभी बारात में भी डांस नहीं किया था...पर यहाँ सहेलियों का साथ पाकर एक घंटे तक सब ने जम कर पैर थिरकाए. हमारी मण्डली ने पूरे फ्लोर पर ही कब्ज़ा कर रखा था...हमारी इतनी बड़ी मण्डली देखकर दूसरे गेस्ट दरवाजे से ही लौट गए...दो-तीन महिलाएँ जरूर शामिल हो गयीं...और उनसे दोस्ती भी हो गयी.
इतना थके होने के बाद भी नींद कहाँ ..दो बजे रात तक अन्त्याक्षरी खेली गयी...और इतनी देर से सोने के बावजूद सबलोग सुबह सुबह कोहरे में लिपटी प्रकृति के दर्शनार्थ निकल पड़ीं . घनघोर जंगल...और चारो तरफ धुंध छाई हुई...फिर भी किसी तरह का डर छू तक नहीं गया...धुंध में लिपटे नैसर्गिक दृश्य कभी छुप जाते तो कभी आँखों के सामने आ जाते. अनुपम स्वर्गिक दृश्य था. राजी..तंगम..इंदिरा वगैरह तस्वीरें खींचने -खिंचवाने में व्यस्त थीं...और हम बाकी लोग आगे निकल आए...हमें लगा...लौटने का रास्ता तो एक ही है...काफी देर होती देख...हम रुक-रुक कर उनके नाम की पुकार लगाते रहे...आश्चर्य भी हो रहा था...और गुस्सा भी आ रहा था...कैमरे के साथ इतना भी क्या मशगूल होना...और होटल आ कर देखा...पता नहीं किस रास्ते से वे लोग हमसे पहले ही पहुँच गयी थीं...और सोच रही थीं...हमें इतना वक़्त क्यूँ लग रहा है.
होटल वापस आकर सबने बड़े भारी मन से पैकिंग की और माथेरान को अलविदा कहा. पर बस में बैठते ही...अगले किसी ऐसे ही भ्रमण की योजना बनने लगी...जिसके कार्यान्वयन में भले ही साल लग जाएँ...पर कार्यान्वित होगा जरूर...क्यूंकि आज की महिलाओं ने घर की देहरी से बाहर निकल कर खुद के लिए भी पल दो पल के लिए जीना सीख लिया है.
हमें शहरों में तो लगता है कि जीरो पोल्यूशन जैसी कोई चीज़ हो ही नहीं सकती.
जवाब देंहटाएंमाथेरन बड़ा ही रोचक स्थान है, बहुत आनन्द आया था वहाँ पर।
जवाब देंहटाएंकाश इतनी रोमाचंक यात्रा में हम भी होते।
जवाब देंहटाएं*
पर रश्मि जी एक बात समझ नहीं आई। आपने कहा कि जीरो पोल्यूशन वाला है माथेरान। पर आपने इस बारे में तो कुछ लिखा ही नहीं। आमतौर पर ऐसी पर्यटक जगहों पर पानी की बोतलें,खाली पौलीथीन,पैकेट आदि बिखरे होते हैं। क्या माथेरान इन सबसे बचा हुआ है? उसे बचाने के लिए क्या किया गया है? इस पर भी रोशनी डालें।
supar like :) is se accha kya ho sakta hai n ...mujhe bhi is tarah se ghumna bahut bahut pasand hai ...laga saath hi ghum rahi hun aapke ...baanye bhiwashy mein bhi aese hi prograam ....:)
जवाब देंहटाएंचलिये एक बात तो तय हुई कि आपके पुराने ब्लागर दोस्त हर कहीं मौजूद हैं उनमे से एक की तो आपने फोटो भी लगा रखी है और दूसरा वाला , वो तो आपको डराने में कामयाब ही हो गया था भला हो सहेली और उसकी छतरी का :)
जवाब देंहटाएंबच्चों को पोल्यूशन भरी जगह में छोड़ कर ममा लोग पोल्यूशन फ्री माहौल में डिस्को करते हुए , भाई वाह , बहरहाल इस आयोजन के फोटो कहां हैं :)
जय हो झांसी की रानी आखिर गढ जीत ही लिया :))))))))))
जवाब देंहटाएंबढ़िया यात्रा वृतांत. और भी महिलाएं घर से बाहर कदम रखेंगी आपके रोमांचक यात्रा को पढ़ कर.. आपकी दूसरी यात्रा शीघ्र हो...
जवाब देंहटाएंमहिला मंडली के माथेरान महाभियान का महा वर्णन पढकर मन प्रसन्न हुआ.. उत्साही जी ने जो सवाल पूछ लिया वही दिमाग में आया था, इसलिए दोहरा नहीं रहा... जो भी हो वृत्तान्त आनंददायक है!!
जवाब देंहटाएंमाथेरान जाने का बड़ा मन हो रहा है लेकिन सामान ढोने की हिम्मत नहीं है। इसलिए देखें क्या कर सकते हैं? आप से ईर्ष्या भी हो रही है, सहेलियों के साथ जाना तो एकदम फंटूस आयडिया है। बढिया पोस्ट रही।
जवाब देंहटाएं@राजेश जी,
जवाब देंहटाएंजीरो पोल्यूशन इसीलिए है...क्यूंकि वहाँ कोई वाहन जाता ही नहीं...चारो तरफ हरे-भरे पेड़ हैं...खुला आसमान है...फिर प्रदूषण कैसे संभव है.
और कहीं भी बिखरे बोतल--पौलिथिन नहीं दिखे...या अन्य बिखरी चीज़ें नहीं दिखीं.....अन्य जगहों की तरह ,बड़े -बड़े डस्टबिन तो लगे हुए हैं...पर लोग उसका उपयोग भी करते हैं...यह अच्छी बात है.
चाहे कितने नियम बना लिए जाएँ...गन्दगी रोकने के कितने ही प्रावधान कर लिए जाएँ..परन्तु जबतक लोग नहीं जागरूक होते....लोगों में खुद अपना शहर साफ़ रखने की भावना नहीं आती...स्थिति नहीं सुधर सकती.
हमारे जैसी रेनकोट (प्लास्टिक शीट वाली ) पहने सडकों पर झाड़ू लगाते स्त्री-पुरुष नज़र आ जाते थे...लेकिन फिर वही बात कि हर शहर में ही ऐसे इंतजाम हैं...पर सबलोग अपने कर्तव्य को इतनी ईमानदारी से निभायें तब तो.
@अली जी..
जवाब देंहटाएंसही कहा...:):)
और वास्ते आपकी टिप्पणी का दूसरा भाग...
बच्चे स्कूल की तरफ से भी जाते हैं...परिवार के साथ भी...अब हम महिलाओं को भी तो कभी-कभार ऐसे मौके मिलने चाहियें...भले ही वो पोल्यूशन वाली जगह में मिले या पोल्यूशन फ्री जगह में :)
अब आप फेसबुक ज्वाइन कर ही लीजिये 'माथेरान ट्रिप' की करीब सत्तर फोटो तीन महीने पहले ही वहाँ लगा चुकी हूँ.
@अजित जी,
जवाब देंहटाएंहाथ-रिक्शा है ना...या फिर घोड़े हैं...सामान आपको क्यूँ ढोना पड़ेगा??....लेकिन चलना खूब पड़ेगा...पर आपको तो मॉर्निंग वाक की आदत भी है...कोई मुश्किल नहीं होगी
माथेरान शहर के बारे में आपकी जादुई कलम से लिखा आलेख पढ़कर अच्छा लगा |बधाई और शुभकामनाएं |
जवाब देंहटाएंमित्र मण्डली हो तो उम्र ऐसी वैसी नहीं होती ।
जवाब देंहटाएंसब एक जैसी हो जाती हैं ।
लेकिन छोटे से हिल स्टेशन पर भी धुंध भरा वातावरण देख कर हैरानी हो रही है ।
ये पल दो पल दो अनमोल हैं। वर्णन से अधिक खबर पढ़कर खुशी हुई कि आज कि महिलाओं ने पल दो पल.....
जवाब देंहटाएंहमने तो सुना था कि वहाँ तक छोटी रेल जाती है, क्या आजकल बन्द कर दी गयी है?
जवाब देंहटाएंक्या बात है रश्मि ईर्ष्या हो रही है तुम से :)
जवाब देंहटाएंअच्छा यात्रा विवरण।
जवाब देंहटाएंकाफी समय पहले पंचगनी और माथेरान गया था, वहां की यादें ताजा हो गईं
इतना बढ़िया यात्रा विवरण पढ़कर दिमाग का पोल्यूशन तो खत्म हो गया ।
जवाब देंहटाएंलेकिन वहाँ इतने बन्दर क्यों हैं भाई ?
वाह जी वाह !!! क्या खूब रही आपकी माथेरान यात्रा...चित्रों ने तो चारचांद लगा दिए!!!!
जवाब देंहटाएंजीरो पौल्युशन ऐसी ही जगहों पर होता है... तस्वीरों ने कहा , एक बार आना
जवाब देंहटाएंआपके साथ माथेरान(शायद माथेरन) का सफर मजेदार रहा ... फोटो भी लाजवाब हैं ... और फिर जीरो पोलुशन का कोई शहर बचा है भारत में ये जानना तो और भी सुखद रहा ...
जवाब देंहटाएंबढ़िया. पहले आपने लिखा होता तो मैं भी देख आया होता. एक दोस्त गए थे गर्मी के दिनों में. फिर उन्होंने ऐसी बुराई की... हमें कभी हिम्मत नहीं हो पायी जाने की :)
जवाब देंहटाएंरश्मि, फ़ेसबुक पर जबसे माथेरन की तस्वीरें देखीं थीं तभी से वहां का यात्रा-विवरण पढने की इच्छा थी, आज पूरी हुई.
जवाब देंहटाएंबहुत शानदार ढंग से लिखा गया संस्मरण है रश्मि. यात्रा की प्लानिंग से लेकर लौटने तक पाठक दम साथ के पढने को मजबूर हो जाये ऐसा प्रवाह है इस संस्मरण में. अब जब मुम्बई जाना होगा, तो माथेरन यात्रा ज़रूर करूंगी :) :)
बहुत मज़ा आया पढते हुए.
बेहद रोमांचक यात्रा और खुशनुमा वृतांत ...आजादी की यह उड़ान वाकई आनंदित करने वाली और प्रेरक भी है !
जवाब देंहटाएंतस्वीरें फेसबुक पर देख ही चुके हैं !
आपके वर्णन से स्पष्ट है कि कितना यादगार और आनंददायक अनुभव रहा होगा आप सब सखियों के लिये एक ग्रुप बना कर साथ साथ घूमने जाना और वह भी माथेरान जैसे खूबसूरत स्थान पर ! आपकी खुशी और एक्साइटमेंट का अंदाज़ा लगा सकती हूँ ! आगे भी आप ऐसे ही यादगार कार्यक्रम बनाती रहें और अपने अद्भुत संस्मरणों के माध्यम से उन स्थानों की सैर हमें भी करवाती रहें यही शुभकामना है ! सुन्दर आलेख के लिये आभार !
जवाब देंहटाएंbahut badhiyan yatra vrtanat...........aapke saath saath hum bhi ho liye Matheran
जवाब देंहटाएंबहुत रोचक यात्रा वृतांत...
जवाब देंहटाएंमित्र मंडली के साथ इस तरह की यात्रा अनुभव अलग ही होता है. हमें तो सोच कर ही मज़ा आ रहा है.
जवाब देंहटाएंबहुत खुशनुमा! बहुत रोचक वर्णन।
जवाब देंहटाएंsachi yah aap ki achi or rochak yatra rahi
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