सोमवार, 29 अगस्त 2016

इस जीवटता को सलाम


पार्क में ये सम्भ्रान्त महिला रोज आतीं, कुछ राउंड लगाकर बेंच पर बैठ जातीं .मुस्करा कर अभिवादन होता,इस से ज्यादा पहचान नहीं थी. एक दिन उनकी बिल्डिंग में रहने वाली एक फ्रेंड ने बताया ,हाल में ही उन्होंने बी ए. पार्ट वन की परीक्षा दी है . 65% मार्क्स मिले हैं .पिछले साल ही बारहवीं की है,उसमें भी फर्स्ट क्लास मिला था .
अब तो मुझे उनसे बात करने की इच्छा हो आई .

एक दिन उन्होंने बताया. उनका नाम 'सुगंधी कोटियन' है. शुरू से ही उनकी पढने में रूचि थी . पर दसवीं के बाद शादी हो गई और 1967 में वे मुम्बई आ गईं . बेटा जब स्कूल जाने लगा तो उसे वे खुद ही पढातीं .पर उन्होंने कन्नड़ मीडियम से दसवीं की थी और बेटा अंग्रेजी मीडियम में पढता. उन्हें addition ,subtraction जैसे शब्द भी समझ में नहीं आते .डिक्शनरी देख देख कर उन्होंने बेटे को पढ़ना शुरू किया . बेटा क्लास में फर्स्ट आता . दूसरे पेरेंट्स भी उनसे अपने बच्चों को पढ़ाने का आग्रह करने लगे .उन्होंने ट्यूशन लेनी शुरू कर दी. बेटे को आठवीं के बाद पढ़ाना छोड़ दिया पर दूसरे बच्चे को पढ़ाती रहीं. करीब बीस साल तक उन्होंने ट्यूशन लिया . बेटे की शादी हुई, बहू भी नौकरी करती. दोनों पोतियों की देखभाल ,उनके होमवर्क सबकुछ वही देखतीं. पोतियाँ भी उनसे बहुत प्यार करतीं ,।ज़िन्दगी अच्छी गुजर रही थी कि एक वज्रपात हुआ .बेटे को कैंसर हो गया .दुनिया की हर माँ की तरह उन्होंने ईश्वर से दिन रात दुआ मांगी कि उन्हें उठा ले और बेटे की ज़िन्दगी बख्श दे ,पर ईश्वर ने उनकी नहीं सुनी.

वे पोतियों में बेटे का चेहरा देख जीने लगीं .तभी बहू के ऑफिस से उसे अमेरिका जाने का ऑफर मिला. बहू के यहाँ के ऑफिस का हाल ठीक नहीं था ,उसका प्रोजेक्ट बंद होने की आशंका थी. बहू के लिए भी यह निर्णय कठिन था पर जब उसने, इनसे अमेरिका जाने की परमिशन मांगी तो इन्होने दिल पर पत्थर रख बहू और पोतियों का भला सोच, उसे जाने की आज्ञा दे दी. बहू की बहन भी अमेरिका में ही थी .बहू, पोतियों के साथ चली गई और सुगंधी जी बिलकुल टूट गईं. उन्हें दिन रात रोते देख ,उनकी छोटी बहन ने उन्हें बहुत समझाया और आग्रह किया कि वे पास के स्कूल में ,जिसमें अधिकांश झुग्गी झोपड़ियों में रहने वाले बच्चे ही आते हैं. उन्हें पढ़ाएं .उन्होंने वॉलेंटियर के तौर पर पढ़ाना शुरू किया .उनकी लगन देख, एक हफ्ते बाद ही स्कूल की प्रिंसिपल ने कहा कि 'क्या वे नियमित पढ़ाना चाहेंगी ?'

उन्होंने स्कूल ज्वाइन कर लिया. कुछ दिनों बाद प्रिंसिपल ने ही उन्हें बारहवीं की परीक्षा देने के लिए प्रेरित किया . वे तैयार नहीं थी ,पर उनकी बहन ने भी बहुत जोर दिया और फॉर्म भरने के लास्ट डेट को लेजाकर फॉर्म भरवा दिया. किसी तरह पढ़ कर उन्होंने बेमन से परीक्षा दी और उन्हें 64% मार्क्स मिले. अब सबका उत्साह बढ़ा ,सबलोग उनपर बी.ए. करने के लिए जोर डालने लगे. पति भी उत्साह बढ़ाते ।उनका भी पढने में मन लगने लगा और पार्ट वन भी उन्होंने फर्स्ट क्लास से पास की .

वे बता रही थीं, 'जब मैं परीक्षा देने गई तो देखा, मेरे जैसी कई औरतें हैं . मुझसे उम्र में कम हैं पर पढाई छोड़े बरसों बीत गए हैं..कुछ नौकरी में प्रमोशन के लिए ,कुछ अच्छी नौकरी के लिए फिर से पढ़ रही हैं. नौकरी, घर, पढ़ाई,बच्चे सब सम्भालते हुए संघर्ष कर रही हैं. दो तीन महिलायें ऐसी भी हैं जो सिर्फ शौक से पढ़ रही हैं कि बच्चों के साथ हमारी भी डिग्री हो जायेगी ' अब हम सब अच्छी सहेलियाँ बन गई हैं. हम एक दूसरे से नोट्स लेते हैं, वे सब मेरे घर आती हैं,हमेशा मेरा हाल चाल पूछती रहती हैं. सुगंधी जी को देखकर, उनके स्कूल की दो टीचर ने भी फिर से पढ़ना शुरू कर दिया है. सुगंधी जी कुछ बच्चों की पढाई का खर्च उठाती हैं (ये बात उन्होंने नहीं, मेरी फ्रेंड ने बताई )

सुगंधी जी ने कंप्यूटर भी खरीदा , पडोसी के बच्चों को बुलाकर चलाना सीखा ताकि स्काईप के जरिये बहू और पोतियीं से बात कर सकें. अंत में उन्होंने दीर्घ सांस लेकर कहा, 'साठ बरस तक ज़िन्दगी बहुत हंसी ख़ुशी गुजरी पर शायद ईश्वर मुझे सिक्के का दूसरा पहलू भी दिखाना चाहता था कि जिंदगी में सुख है तो दुःख भी बहुत गहरा है'

( उनकी तस्वीर और ये बातें उनसे इज़ाज़त लेकर पोस्ट की हैं ताकि लोग उनसे प्रेरणा ले सकें...जिंदगी में कितना भी बड़ा अघात पाकर जीना ही पड़े तो कुछ सार्थक करते हुए जिया जाए )

उस दिन सुबह सुगंधी जी ने अपनी कहानी बताई थी तुरंत ही उनकी ये कहानी फेसबुक पर शेयर करने की इच्छा थी पर पूरे दिन कुछ व्यस्तता रही . रात में नींद और थकान से आँखों बोझिल हो रही थीं फिर भी मैंने वाल पर लिखा और सोने चली गई .

सुबह जब पढ़ा तो अपना लिखा बहुत ही साधारण लगा, इसे कुछ बढ़िया तरीके से लिखा जा सकता था .लेकिन तब तक कई लोग लाइक और शेयर भी कर चुके थे .मैंने रहने दिया लेकिन अब देख रही हूँ...साधारण तरीके से लिखी बात ज्यादा असर करती है.और ज्यादा लोगों तक पहुंचती है . कथ्य की गहनता तो मायने रखती ही है. पहली बार मेरे लिखे को 11हज़ार लोगों ने लाइक किया है और करीब 3 हज़ार लोगों ने शेयर किया है .

75 Comments
इन सबमें एक अच्छी बात ये हुई है कि सुगंधी जी को अनजाने लोग भी आकर बधाई देने लगे हैं और उनकी प्रशंसा करने लगे हैं. जो लोग उन्हें, सडकों पर पार्क में या पास की बिल्डिंग में देखते थे, चेहरा पह्चानाते थे पर जानते नहीं थे , ये पोस्ट वाया वाया होकर उनके वाल से भी होकर गुजरी है. उनके ट्यूशन पढाये बच्चे जो अब दूसरे शहरों में हैं , कहीं से उनका फोन नम्बर ढूंढ उन्हें फोन कर रहे हैं.उनके बेटे के दोस्त दुबई से, लंदन से फोन कर रहे हैं , किसी को उसकी पत्नी ने ,किसी को उनकी बहन ने पोस्ट पढ़कर सुनाई है ,कुछ ने खुद देखा. मुम्बई के दोस्त घर मिलने भी आये .और इतने लोगों के कमेन्ट पढ़ कर कुछ करीबी लोग ,जो किन्ही कारणवश दूर हो गए थे ,फोन कर हाल चाल पूछा, घर मिलने आये और उन्हें अपने घर भी बुलाया .शायद उन्हें लगा कि अनजान लोग उनके प्रयास को सलाम कह रहे हैं...और ये लोग रिश्तेदार होकर उन्हें भुलाए बैठे हैं.
सुगंधी जी ने सबको शुक्रिया कहा :) .

मंगलवार, 9 अगस्त 2016

बुधिया सिंह : बॉर्न टू रन

हमारे आस पास कुछ बच्चे ऐसे जरूर होते हैं जिनमें जन्मजात प्रतिभा होती है ,जरूरी है कि उस प्रतिभा को पहचान कर उसे निखारा और संवारा जाए. यह अकेले पेरेंट्स के वश का नहीं है .स्कूल,सरकार और खेल संगठनों की जिम्मेवारी है कि वे इस प्रतिभा को अच्छी ट्रेनिंग और पूरी सुविधाएं प्रदान करें .तभी भविष्य में देश को अच्छे खिलाड़ी मिलेंगे और अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धाओं में कुछ मेडल भारत की झोली में भी गिरेंगे . पर होता है, इसके बिलकुल विपरीत .पहले तो प्रतिभा पहचानी नहीं जाती ,संयोगवश कोई विलक्षण प्रतिभा सामने आ गई तो उसे ट्रेनिंग नहीं मिलती, अगर किसी कोच ने स्वयं मेहनत कर ट्रेन करने की जिम्मेवारी ले भी ली तो सरकार और तमाम संगठन उसकी राह में सौ अडचनें डालते रहते हैं
.
'बुधिया सिंह' नाम का छोटा बच्चा हम सबको याद होगा. पर उसकी असाधारण प्रतिभा को उभरने का कोई मौक़ा नहीं दिया गया .
“बुधिया सिंह : बॉर्न टू रन” फिल्म के रिलीज का दिन जानबूझकर ओलम्पिक के एक दिन पहले चुना गया ताकि हम एक पल को रुकें और सोचें . 2002 में जन्मे बुधिया को चार वर्ष की उम्र में उसकी माँ , अत्यंत गरीबी के कारण एक फेरीवाले को महज 800 रूपये में बेच देती है . जब एक जुडो इंस्ट्रक्टर ‘विरंची दास’ जो समाजसेवी भी हैं को पता चलता है तो वे 800 रुपये चुका बुधिया छुडा लाते हैं .वे जुडो क्लास के साथ एक अनाथालय भी चलाते हैं, उसमें अन्य बच्चों के साथ बुधिया को भी रख लेते हैं. एक दिन गाली देने पर बुधिया को सजा देते हैं कि ग्राउंड के चक्कर लगाओ और जबतक मैं न कहूँ, रुकना नहीं. सजा देकर वे अन्य काम से बाहर चले जाते हैं, जब पांच घंटे बाद लौटते हैं तो पाते हैं, बुधिया अब भी वैसे ही चक्कर लगा रहा है .डॉक्टर को दिखाने पर डॉक्टर बताते हैं , उसका शरीर बिलकुल नॉर्मल है .
कोच उसे मैराथन के लिए ट्रेन करना शुरू कर देते हैं और पांच साल की उम्र में बुधिया सिंह 48 मैराथन पूरी कर लेता है . टी वी पर अखबारों में बुधिया की खबरें दिखाई जाती हैं और वह स्टार बन जाता है .विदेशों में भी खबर पहुँचती है ,और बाल कल्याण वाले सक्रिय हो जाते हैं . विरंची दास के तौर तरीके ,उनके गुस्सैल स्वभाव से उडीसा सरकार का बाल कल्याण विभाग भी नाराज़ रहता है , और बुधिया के दौड़ने पर रोक लगा दी जाती है . कई सरकारें और खेल संघ बुधिया के लिए कई हजारों का ईनाम घोषित करते हैं . बुधिया की माँ को लगता है, कोच को सारे पैसे मिलते हैं .और वह विरंची दास पर बुधिया को मारने पीटने, अत्याचार का आरोप लगा देती है .जबकि सारे इनामों की घोषणा महज घोषणा थी, सारे चेक बाउंस कर गए थे .बुधिया को कोच के पास से लेकर एक सरकारी स्कूल के होस्टल में रख दिया जाता है . सिर्फ उडीसा में ही नहीं, पूरे देश को बुधिया की प्रतिभा का पता था पर उडीसा से लेकर देश का कोई भी खेल संगठन बुधिया की कोई खोज खबर नहीं लेता . अगर बुधिया की ट्रेनिंग जारी रखी जाती ,अच्छी कोचिंग दी जाती तो आज इस रियो ओलम्पिक २०१६ में भारत का भी एक मैराथन रनर होता .शायद कोई मेडल भी ले आता. . .स्कूल में बुधिया को कोई विशेष ट्रेनिंग नहीं उपलब्ध करवाई गई और आज वो एक आम छात्र बन कर रह गया है .
पर ये अकेली बुधिया की कहानी नहीं है...जाने कितनी प्रतिभाएं सही देख रेख के अभाव में यूँ ही मुरझा कर विलीन हो गईं . हमारे यहाँ एक और प्रवृत्ति है, जल्दी से जल्दी सबकुछ पा लेने की . विरंची दास का भी बुधिया को इतना ओवर एक्सपोजर देना और रेकॉर्ड बनाने के लिए इस तरह दौड़ने के लिए विवश करना कहीं से सही नहीं ठहराया जा सकता. पांच वर्ष के बुधिया को ‘भवनेश्वर’ से ‘पूरी’ 70 किलोमीटर की दूरी तक दौड़ने के लिए तैयार किया गया . 7 घंटे तक लगतार दौड़ते हुए ६५ किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद बुधिया बेहोश हो गया . जाहिर है, इस खबर के बाद उसके दौड़ने पर बैन लगना ही था . ‘विरंची दास’ उसे अकेले में ट्रेन करते रहते और सही उम्र पर लाइम लाईट में लाते तो सही होता . दुर्भाग्यवश , एक गैंग्स्टर ने 2008 में विरंची दास की हत्या कर दी .इसे पोलिटिकल मर्डर भी कहा गया है .

फिल्म ‘मनोज बाजपेई और बाल कलाकार ‘मयूर पाउले’ के कंधों पर है. मनोज बाजपेई हर फिल्म के साथ अभिनय के नए कीर्तिमान बनाते जा रहे हैं .ओडिया एक्सेंट में उनका डायलॉग बोलना, कभी एक जल्दबाज, गुस्से वाले हार्ड टास्क मास्टर और कभी बुधिया के साथ खेलते एक कोमल दिलवाले गार्जियन सारा अभिनय ,अभिनय ही नहीं लगता .जब होस्टल में बुधिया से मिलने जाते हैं, वह दृश्य बहुत मार्मिक है . मयूर पाउले तो साक्षात् बुधिया ही लगता है .एक पल को महसूस नहीं होता, वो एक्टिंग कर रहा है. भोर में बुधिया का दौड़ना...पुल के नीचे बहती नदी और लहरों पर चमकती उगते सूरज की किरणें, बहुत सुंदर छायांकन है.फिल्म में एक अच्छी बात ये है कि सरकार की कमियाँ दिखाई गई हैं तो कोच विरंची दास की कमजोरियां भी छुपाई नहीं गई हैं . एक छोटे बच्चे को इतनी कड़ी ट्रेनिंग देना , अपनी बात पर अड़े रहना, किसी की ना सुनना सब ईम्नादारी से दिखाया गया है .
बुधिया की कहानी और खेल संघों, सरकार की गंदी राजनीति सामने लाने के लिए लेखक निर्माता निर्देशक सौमेंद्र पाढ़ी (Soumendra Padhi ) बधाई के पात्र हैं . फिल्म थोड़ी धीमी है और कुछ कुछ डाक्यूमेंट्री सी है. पर बोरियत बिलकुल नहीं होती .

मंगलवार, 2 अगस्त 2016

'काँच के शामियाने ' पर मंजू रॉय जी की टिप्पणी





Manju Roy ji अंग्रेजी साहित्य की प्राध्यापिका हैं ।उन्होंने विश्व साहित्य पढ़ रखा है और पढ़ाती भी हैं । 'काँच के शामियाने ' पर उनकी प्रतिक्रिया पढ़ते वक्त मन थोडा आशंकित भी था और यह जानने की उत्सुकता भी थी कि उन्हें किताब कैसी लगी ।उन्हें किताब पसंद आई, ये देख सचमुच धन्य हो गई मैं :)

'बिहार की बेटी का एक कृतज्ञता ज्ञापन है ये किताब.'..यह पढ़कर तो नतमस्तक हूँ, मंजू दी
आप जैसी विदुषी की प्रतिक्रिया...लिखने का उत्साह भी बढ़ाती है और एक गहरी जिम्मेवारी का भी अहसास कराती है. ..बहुत शुक्रिया आपका...स्नेह बनाए रखें :)

'काँच के शामियाने '

दो दिन पूर्व रश्मि रविजा द्वारा लिखित उपन्यास,काँच के शामियाने की प्रति मिली।कॉलेज में कुछ व्यस्तता के बावजूद जल्दी से उपन्यास ख़त्म किया,जो मेरी पुरानी आदत है।

उपन्यास पढ़कर ऐसी अनुभूति हुई कि कितनी ही जया मेरे इर्द गिर्द हैं जो उपन्यास की नायिका की तरह परिवार,समाज और बच्चों की सोंचते सोंचते काफी समय बाद साहस करती हैं एक ऐसे विवाह से बाहर आने की जहाँ उन्हें दुःख,पीड़ा,अपमान,अवमानना,शारीरिक प्रताड़ना और आंसुओं के सिवा कुछ नहीं मिला।मुझे लगता रहा जया ने इतनी देर क्यों की, फिर लगा इसके लिए हम और हमारा समाज जिम्मेवार है जो एक लड़की को घुट्टी में यही पिलाता है कि तुम्हारा ससुराल ही तुम्हारा घर है और शादी को बचाये रखने की जिम्मेदारी औरत की है,मर्द की नहीं।एक लड़की तब तक बर्दाश्त करती है जब तक उसके दर्द की इन्तहा न हो जाये।

जया के पति राजीव की तरह काफी पुरुष हैं जो इस एहसास के साथ बड़े हुए हैं कि वो लड़का है,जिसके लिए सात खून माफ़।कमाऊ पूत के अवगुण परिवार नहीं देखता।

उपन्यास में वर्णित जगहें,हाजीपुर,सीतामढ़ी,बेगुसराय,खगड़िया सब इर्द गिर्द हैं मेरे और वहां मैं जाती रही हूँ।
रश्मि ने जिस बारीकी से कॉलोनी लाइफ का चित्रण किया है वह काबिलेतारीफ है।देसी बोली जो इधर बोली जाती है,वह कहानी को और प्रमाणिक बनाती है।

मुम्बई रहकर भी रश्मि ने अपने प्रदेश को अपनी यादों में बसा रखा है,बिहार की बेटी का एक कृतज्ञता ज्ञापन है ये किताब।इसे पढ़ कर यदि एक जया भी अपनी जिंदगी को दुबारा शुरू करने की हिम्मत कर ले तो वो रश्मि की कामयाबी होगी। हमें अपनी बेटियों को बताना होगा कि हम उन्हें भार नहीं समझते और उनके हर फैसले में उनके साथ हैं।बेटियाँ इस दुनिया की खूबसूरती हैं।उम्मीद है रश्मि की दूसरी किताब जल्द ही सामने होगी।

बहुत बहुत बधाई,रश्मि, तुमने एक बेटी होने का फर्ज बहुत खूबसूरती से अदा किया है।

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...