सोमवार, 14 मार्च 2016

साहित्यिक पत्रिका 'पाखी' में 'काँच के शामियाने' की समीक्षा

साहित्यिक पत्रिका 'पाखी' में 'कलावंती सिंह जी' द्वारा ' काँच के शामियाने' की समीक्षा ।प्रेम भारद्वाज जी एवम् कलावंती जी आपका बहुत आभार .

रविवार, 13 मार्च 2016

अतुल श्रीवास्तव जी की नजर में 'काँच के शामियाने '

Atul Shrivastava ji एक प्रखर पत्रकार हैं . उनका बहुत बहुत आभार ...उन्होंने इतने ध्यान से उपन्यास पढ़कर उसकी बारीकियों को समझा और उस पर प्रकाश डाला है ...पुनः बहुत शुक्रिया

                                                  काँच के शामियाने


क्या ऐसा होता है?
क्या वास्तव में ऐसा होता है?
जवाब भीतर से ही आ गया... हाँ, हो सकता है... होता ही है!!
हर स्त्री के भीतर कहीं न कहीं एक जया होती है, किसी में कम तो किसी में ज्यादा
और हर पुरूष के भीतर एक राजीव होता है, किसी में कम तो किसी में ज्यादा
और जब अतिरेक की स्थिति आती है तो फिर ऐसे ही "काँच के शामियाने" बनते हैं
एक पुरूष सबसे जीत सकता है, पर अपने अहम से नहीं... अपने अहम से जीतने की कोशिश में वह सब कुछ हार जाता है
विवाह के प्रस्ताव को जब जया ने पहली बार ठुकराया तो यह राजीव के पुरूषत्व पर प्रहार था और फिर जब उसकी शादी जया से होती है, यदि उसने इसे अपना सौभाग्य मान लिया होता तो न "काँच के शामियाने" बनते और न टूटते, पर उसने उस प्रस्ताव के ठुकराने की बात मन के भीतर कुंठा की तरह बसा रखा था और फिर वो सब हुआ... जो राजीव को खलनायक बना गया
जया, कभी मजबूत होती, कभी कमजोर हो टूटने के कगार पर पहुँच जाती और फिर चट्टान की तरह अडिग हो जाती... जया, उसने एक संदेश दिया कि लड़ते रहो, समय से और खुद से, पलायन जरूरी नहीं, लड़ना जरूरी है... जया, यदि उसने राजीव को मुक्त कर दिया होता तो शायद राजीव अभागा ही कहलाता, पर उसने ऐसी परिस्थितियाँ पैदा की कि अपने बच्चों के भविष्य के निर्माण में उसे भी भागीदार बनने का मौका मिला, भले ही अनमने मन से
काव्या, अपने भाग्य से हार मान चुकी जया को नया साहस, नई ताकत और नई राह दिखाने का काम क्या काव्या ने नहीं किया... हाँ उसी ने किया
कहते हैं इंसान के जीवन की सबसे बडी़ पाठशाला उसके साथ बीतने वाले लम्हे होते हैं... हमारे साथ बीतने वाली घटनाएँ, हमारी परिस्थितियाँ हमें परिपक्व करती हैं, वो सब सिखाती हैं, जो हम कहीं और नहीं सीख पाते
मैं मरना नहीं चाहती
मैं जीना चाहती हूँ
खूब बडी़ होना चाहती हूँ
और पूरी दुनिया को बताना चाहती हूँ कि मेरी मम्मी कितनी अच्छी है
कितनी तकलीफ झेलकर उसने हमें बडा़ किया है
पर भैय्या तो मरने को तैयार है। फिर मैं क्या करूँ
लेकिन मेरा मरने का मन नहीं है
सच कहूँ तो जया की पूरी ताकत लौटाने का काम किया सात साल की काव्या की कापी में लिखे इन शब्दों ने... झकझोर दिया सच में...
हर धूप के बाद छाँव आता है
हर रात के बाद सुबह होती है
हर दुख के सिक्के के पीछे सुख भी होता है
छाँव आया, सुबह हुई, सुख लौटा... क्या हुआ कि देर हुई... पर काँच के शामियाने फिर से जुड़ ही गए...
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रश्मि जी का उपन्यास "काँच के शामियाने" नारी की पीडा़ और उसके संघर्ष की को लेकर 17 खंडों में पिरोई गई एक बेहतरीन कृति है... उनको इस उपन्यास के लिए शुभकामनाएं....
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अब कुछ अपनी,
रश्मि जी की कलम से बहुत समय से परिचित हूँ, सो जब उनके उपन्यास की पहली झलक देखी, जितनी जल्दी हाथों में आ जाए, इसी जुगत में लग गया, लिंक मिलते ही पहले आनलाईन बुक करने की कोशिश की, पर जब तकनीकी दिक्कत के कारण ऐसा नहीं कर पाया तो रश्मि जी को यह बात बताई। उन्होंने खुद ही मेरे पते पर किताब भेज दी और इसी बीच मैं कोशिश करता रहा... एक दिन सफल हो गया...जब उनको बताया मैंने किताब आर्डर कर दिया तो उन्होंने जानकारी दी कि आपको मैंने किताब भेज दी है और शायद एक दो दिन में मिल भी जाएगी
उनकी भेजी किताब मिल गई और कुछ अंतराल के बाद मेरी बुक की हुई किताब भी आ गई
जिस किताब के लिए इतनी बेसब्री थी, उसे पढ़ ही नहीं पा रहा था, ये काम की व्यस्तता की मजबूरी थी।
इसी बीच विदेश दौरा भी आ गया, सोचा अब पूरी पढ़ लूंगा... ट्रेन में यह किताब हमसफर की तरह साथ रही, हवा में भी कुछ पन्ने पढे़ और फिर ब्रेक हो गया... कल ही रात पढ़ने बैठा... कुछ पन्नों के बाद नींद सताने लगी, इसी बीच वो पन्ना सामने आया जिसमें काव्या की लिखी लाईनें थीं और फिर पूरा उपन्यास खत्म कर ही छोडा़...
समीक्षा की तो समझ नहीं, पर उपन्यास पढ़ जो महसूस किया, उसे शब्दों में पिरोने की कोशिश की है...

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