गुरुवार, 15 दिसंबर 2016

श्वेता सोनी की नजर में "काँच के शमियाने "

शायद किसी भी लेखक को लिखते वक्त बिलकुल पता नहीं होता कि उसकी कौन सी कृति पाठकों को भा जायेगी पहले उपन्यास के लिए तो मन ज्यादा ही आशंकित रहता है। 'काँच के शामियाने ' के साथ भी ऐसा ही था ।पर पाठकों का इतना प्यार इसे मिल रहा है कि नतमस्तक हूँ , उनके समक्ष ।

Sweta Soni एक वकील हैं, हाल में ही मेरी फ्रेंडलिस्ट में शामिल हुई हैं ।उन्होंने ये उपन्यास पढ़ा और बहुत दिल से अपनी प्रतिक्रिया दी है ।उनका लिखा पढ़ , उनके कई मित्र भी अब इसे पढ़ने के इच्छुक हैं ।थैंक्यू सो मच श्वेता ।तुमने समय लगा कर पढ़ा भी और फिर इतनी मेहनत से इतना खूबसूरत लिखा भी है ।बहुत शुक्रिया :)

काँच के शामियाने 

दोस्तों, कहीं पढ़ी थी अच्छी बातों का फैलाव अधिक से अधिक होना चाहिए ।सो आज आप सब से साझा कर रहीं हूँ Rashmi ji के पहले उपन्यास "काँच के शामियाने की"...ये हमारे समाज का एक ऐसा आईना है जिसे पढ़ने वाला खुद को इसके किसी एक पन्ने पर जरूर पाएगा। रश्मि जी से मेरी पहचान "वन्दना अवस्थी दी" के पोस्ट से हुई,जहाँ कभी कभार उनके विचार को पढ़ अपने विचार उनसे साझा करती थी।तब तक ये मालूम न था के वो बिहार की बेटी हैं, जो भले स-शरीर मायानगरी में रह रहीं हो परन्तु दिल में अभी भी यहाँ की गलियों के लिए जगह कायम है।आगे जाकर मालूम हुआ ये बहुत अच्छा लिखती भी है।इस उपन्यास में इन्होंने जिस जगह का (पटना) जिक्र किया, वहाँ मेरा मायका है(मेरा गाँव अलग है, पर अब तो जहाँ हमारे परिजन बस गए घर या मायका वही बन गया)इससे पढ़ने की उत्सुकता और भी तीव्र हो गई।मँगा तो जल्द ली पर बीच में त्योहार की तैयारियो में लगी रह गई।कल घर के काम से निपट कर अचानक study room में जाते ही इसपर नजर पड़ गई, और बिना समय गंवाए मै शुरू हो गई।दोपहर को बेडरूम में भी साथ ले गई ये सोच के पढ़ते-पढ़ते अपने आप नींद आ जाएगी, पर हुआ इसका उल्टा..आगे जानने की उत्सुकता इतनी बढ़ती गई के कब शाम के 3:30 हो गए क्या खबर।वो तो स्कूल बस के हौर्न की आवाज से ध्यान बटा, तो बुक मार्क लगाकर बाहर गई।जितनी देर बच्चों को ड्रेसअप कर खाना खिलाने में लगी, उतनी देर बस दूरी बनी रही।पर अब कोई disturbance नहीं चाहती थी, सो data भी off कर दी और टेरेस पर चली गई और फिर से शुरू हो गई...
"काँच के शामियाने"....इस कहानी की नायिका-जया,जो अपने परिवार में सबसे छोटी और सबकी लाड़ली होने के साथ-साथ अपने पिता की राजकुमारी थी।रश्मि जी ने उसकी खुबसूरती की जो बखान की है वो हमें अनसुना और जीवंत लगा जो जया के आँखों के लिए था कि उसकी आँखें गुड़िया सी बेजान नहीं बल्कि चपल मछलियों जैसी चंचल थीं।किताबें उसकी पहली पसन्द थी, और पढ़ लिखकर कुछ बनना उसका मकसद । पर अचानक फूलों की तरह मुस्काने वाली, बासंती हवा की तरह इठलाने वाली, बादलों-सी हल्की और चाँदनी-सी शफ्फाक उसकी जिन्दगी देखते-देखते दर्द के दरिया में तब्दील हो गई, उसके सारे सपने धरे रह गए जब एक रात दिल के गंभीर दौरे ने उसके पिता को हमेशा के लिए उससे दूर कर दिया।अब तो वह, बस आकाश की ओर देखकर रोती और ये सोच खुद चुप भी हो जाती के अगर उपर से बाबूजी देख रहें होंगे तो उन्हें दुःख होगा और फिर माँ को भी सम्भालना था उसे उससे बड़े सबों की शादी हो गई थी और वे सब अपने-अपने परिवार को सम्भालने मे लगें थें जो बाबूजी के तेरहवीं के बाद हीं चले गए थे।
फाईनल इम्तहान खत्म कर वो अपने माँ के साथ अपने बाबूजी के बनाए मकान..जो पटना के कंकड़ बाग में था वही आ कर रहने लगी, क्योंकि सरकारी क्वार्टर बाबूजी के बाद छिन गया।यहाँ वही हुआ जो हर युवा लड़की के जीवन में होता है।राजीव नाम का लड़का न चाहते हुए भी इसकी जिन्दगी में आ गया।बार- बार इसके ठुकराने के बाद भी जाॅब वाला लड़का था सो माँ और भैया ने खुशी से हामी भर दी।
अब इस चिड़िया को नया संसार बसाने के लिए बाबुल का घोंसला छोड़ना पड़ा।जहाँ पग-पग पर उसे नई यातना और ताने दिए जाने लगे,राजीव हर बात पर (पहले) खुद को ठुकराए जाने का बदला लेने लगा।
बहुत देर से हीं सही पर,आखिर एक दिन वो भी आता है, जब जया अपने तीनों बच्चों के साथ मिलकर खुद को साबित करते हुए अपना अस्तित्व कायम करती है।अंत तो बहुत सुखद हुआ, परन्तु रशिम जी ने बीच-बीच में जया के साथ-साथ हमें भी खूब खुब रूलाया।अंत के सुख के एहसास के बाद भी जम के रोयी-ये कहते हुए के काश जया जैसी हर औरत का अंत ऐसा ही सुखद हो।
यह मेरी प्रतिक्रिया कम और उपन्यास के शौकीन मेरे सभी मित्रों से एक सुझाव ज्यादा है के इसे एक बार पढ़ कर जरूर देखें,अगर अभी तक न पढ़ा हो तो।इसकी जीतनी तारीफ करूँ कम है।बहुत बधाई आपको।आपके अगले उपन्यास के इन्तजार में.......श्वेता सोनी । :)

बुधवार, 14 दिसंबर 2016

फेमिना पत्रिका की 2016 की पठनीय पुस्तकों की सूची में 'काँच के शामियाने '

'फेमिना' पत्रिका के अगस्त अंक में हर विधा की कुछ किताबों का जिक्र किया गया है और इन्हें अवश्य पढ़ने की सलाह दी गई है ।इस सूची में 'काँच के शामियाने' को देखकर अपार ख़ुशी हुई ।शुक्रिया फेमिना :)






नवभारत टाइम्स में 'काँच के शामियाने ' की समीक्षा


बहुत शुक्रिया आभा जी  एवं 'नवभारत टाइम्स' 
आपने कितना सही लिखा है ," साज़िशें नहीं साहस कामयाब होता है ।"




शनिवार, 15 अक्तूबर 2016

केरल यात्रा (एर्नाकुलम से मुन्नार ) -- 2

एर्नाकुलम में डिनर के बाद हमने बाहर टहलने की  सोची पर वहाँ सडकों पर बहुत  वीरानी छाई हुई  थी , कार, ऑटो भी नजर नहीं आ रहे थे और रास्ते का भी अंदाजा नहीं था ,इसलिए हम वापस लौट आये .पर मैंने रात में ही सोच लिया था , सुबह जल्दी उठ जाउंगी और कल सुबह अकेली ही निकल पडूँगी .सूरज दादा की चौकीदारी में कैसा डर ।
सुबह -ए-एरनाकुलम
यूँ तो मुंबई के सामने हर शहर ऊँघता हुआ सा ही लगता है पर एरनाकुलम तो जैसे बस जरा सी पलकें खोल ,पलकों की झीरी से ही सुबह का जायजा ले रहा था ।अजनबी शहर की अनजान सड़कों पर घूमना मुझे हमेशा ही प्रिय है ।सुबह साढ़े पांच बजे नींद खुल गई  और छः बजे तक मैं कमरे से बाहर आ गई ।होटल बिलकुल सुनसान था सिर्फ एक स्टाफ दिखा, पर गेट खुला हुआ था ।सामने की सड़क बिलकुल सूनी थी ।आस पास के घरों में भी कोई हलचल नहीं हो रही थी ।रंग बिरंगे फूलों के लॉन वाले खूबसूरत घर थे ।एक घर के बाहर एक बूढी अम्मा पानी डालकर बरामदा धो रही थीं ।एक घर से घण्टी की टुन टुन के साथ मधुर स्वर में श्लोक पढ़ने की आवाज आ रही थी ।(अब ये स्पष्ट करने की जरूरत तो नहीं कि मधुर आवाज़ किसी स्त्री की ही होगी :)।थोड़ी दूर आगे चल कर दाहिने मुड़ जाने के बाद ,थोडा चलने के बाद मुख्य सड़क आ जाती है ।इतना अंदाजा मुझे था ।
इस सड़क पर भी कोई नहीं था और मन हुआ क्यों न थोड़ी जॉगिंग ही कर लूँ ।मुम्बई में तो किसी भी वक्त सड़क या पार्क में ढेरों लोग होते हैं और दौड़ने में संकोच कर जाती हूँ ।पर यहाँ भी टाल गई ।हवा में समाती सांभर की ख़ुशबू नाक में भरते खरामा खरामा मुख्य सड़क पर आ गई और सामने जो देखा ,आश्चर्य में डूब गई ।सड़क झील के किनारे किनारे चल रही थी ।झील में कुछ बड़े नाव लंगर डाले खड़े थे ।हवा में हल्की सी खुनक थी ।ये एक पॉश इलाका लग रहा था ।सड़क की दूसरी तरफ कोर्ट, अस्पताल, कॉलेज, स्कूल बने हुए थे ।एक खस्ता हाल बिल्डिंग के ऊपर लिखा था ,Govt post matric hostel for boys' पहली बार ऐसा लिखा देखा ,post matric के लिए तो कॉलेज ही लिखा जाता है ।(बाद में एक येल्ल्पी में एक इमारत दिखी...जिसपर लिखा था pre matric girls hostel .शायद केरल में pre matric ,post matric कहने का चलन है.)हर प्रदेश में सरकारी भवनों का यही हाल है ।खिड़कियों के सारे शीशे टूटे हुए थे ।दरवाजे नहीं थे पर नीचे कुछ बाइक खड़ी थीं ।यानि ऐसे हाल में भी कुछ लोग रहते ही होंगे ।
मैरीन इंस्टिट्यूट से तीन लड़के बैग टाँगे निकलते दिखे तो उनसे इस कॉलोनी का नाम पूछ लिया ।'फाइन आर्ट एवेन्यू' नाम था इसका ।यथा नाम तथा गुण ।बहुत साफ़ सुथरा और कलात्मक ।एक चौराहे पर काले पत्थर से बनी महात्मा गांधी की बैठी हुई बड़ी सी भव्य मूर्ति लगी हुई थी ।थोड़ी ही दूरी पर एक स्तम्भ पर चारों दिशाओं की तरफ मुँह करती चार घड़ियाँ लगी हुई थीं ।और सब अलग समय पर रुकी हुई ।एक में साढ़े ग्यारह तो दूसरे में पौने तीन बज रहे थे ।यानि घड़ियाँ एक ही समय पर लगाई गईं होंगी पर खराब अलग अलग समय पर हुईं :)
सड़क के किनारे बंजारों के दो तीन परिवार ने डेरा डाले रखा था ।स्त्रियां लम्बी ऊँची सुंदर थीं ।मैंने बच्चे के साथ एक की फोटो ली तो दूसरी भी सुंदर कम्बल में लपेटे अपने बच्चे को लेकर सामने आ गई ।बच्चे का नाम पूछा तो बताया, 'रोहित '
उनसे पूछ ही लिया ,'कहाँ से आये हो?'
'राजस्थान से'
..'इतनी दूर ??'
"हाँ घूमते हुए चले आये '
मैं सोच रही थी राजस्थान से इतनी दूर केरल...ना भाषा समझ में ना आने वाली न खान पान ।पर बंजारों से ये कितना बेवकूफी भरा सवाल था ...वे तो घूमते हुए कहीं भी पहुँच जा सकते हैं ।
थोडा आगे एक बहुत खूबसूरत पार्क था पर करीब करीब खाली ।मैंने गेट से अंदर जाना चाहा तो पाया गेट बन्द है ।तभी दूर से जॉगिंग ट्रैक पर एक सज्जन आते दिखे और मैंने पूछ लिया ,'ये कोई प्राइवेट पार्क है क्या ?' उन्होंने बताया आगे की तरफ का गेट खुला है काफी चलने और कई बन्द गेट पर करने के बाद मेन गेट मिला जिस पर लिखा था ,'Subhash Chandr Bose park' ।कुछ लोग भी दिखे ।शायद यही वजह थी कि इतने कम लोग थे अब जब खुले गेट के लिए इतनी दूर चल कर आना पड़ेगा तो कौन आएगा ।झील से सटा हुआ जॉगिंग ट्रैक था और किनारे बेंच भी लगी हुई थीं ।इक्का दुक्का लोग बेंच पर बैठे थे और थोड़े से लोग टहल रहे
थे ।बहुत ही खुबसूरत जगह थी .

बेटे का फोन आया कि वह भी आ रहा है और मैं पार्क में इधर उधर घूमती उसका इंतज़ार करने लगी ।उसके आने के थोड़ी देर बाद हम भी लौट पड़े ।रास्ते के किनारे पेड़ के नीचे नारियल वालों की दूकान सज रही थी ।पेड़ की शखाओं से बंधे नारियल के गुच्छे भले लग रहे थे ।मुम्बई में मेरी दक्षिण भारतीय सहेलियाँ केरल-कर्नाटक के नारियल की बहुत तारीफ़ करती हैं ।कुछ तो मुम्बई में नारियल पानी पीती ही नहीं कि' हमारे गाँव वाला टेस्ट नहीं' ।मैंने भी बहुत हुलस कर एक नारियल लिया पर या तो बदकिस्मती से मुझे अच्छा नारियल नहीं मिला या शायद ऐसा ही स्वाद होता हो ।मुझे तो मुम्बई वाला नारियल पानी ही पसंद
मुझे उम्मीद थी कि नुक्कड़ पर कहीं फिल्टर कॉफी मिलेगी ।पर एक जगह चाय ही मिली ।दो दिन में सिर्फ एक बार फिल्टर कॉफी नसीब हुई है ।यहाँ भी नेस्कैफे और ब्रू ने ही बाजार जमा लिया है .


होटल में नाश्ता  कर हम तैयार हो गए . नाश्ते में इडली साम्भर ,डोसा, ब्रेड बटर ,कॉर्नफ्लेक्स  के साथ पूरी भाजी  भी थी . पूरी का आकार , पूरी में से आधी कटी हुई पूरी का था . समूचे केरल यात्रा में हर होटल के नाश्ते में  पूरी इसी  शेप की मिली . ऐसी पूरी खिल भी नहीं पाती .मैं नाश्ता के लिए जाते वक्त कभी भी फोन लेकर नहीं जाती (चार्जर में लगा छोड़ देती ) वरना फोटो भी ले लेती.
Kerala Folklore Theatre and Museum at Thevara, Ernakulam सबसे पहले हम कोचीन में ही स्थित 'लोक कला म्यूजियम' में गए . इसे  Kerala Folklore Theatre and Museum at Thevara, Ernakulam कहा जाता है . यह म्यूजियम  George Thaliath और उनकी पत्नी Annie George के 25 वर्ष के प्रयासों का फल है.  65 कुशल बढ़ई और कारीगर ने इसे बनाने  में सात वर्षों का समय लिया. 2009 में इसका उदघाटन हुआ. 

इसकी इमारत तीन मंजिला है और इसका निर्माण 'मालाबार', त्रावणकोर और कोचीन की वास्तुकला के आधार पर हुआ है. इसका प्रवेश  द्वार ही सोलहवीं सदी के तमिलनाडू के एक मंदिर के भग्नावशेष से बना है. पहली मंजिल को Kalithattu, कहा जाता है, इसमें केरल के विभिन्न पारम्परिक और लोक नृत्य जैसे, थेय्यम, कथकली, मोहनीअट्टम, ओट्टान्थुल्ल (Theyyam, Kathakali, Mohiniyattam and Ottanthullal) की वेशभूषा और जेवर रखे गए हैं . दूसरी मंजिल, जिसे कमल पत्र  कहा जाता है , खूबसूरत म्यूरल पेंटिंग्स से सजा हुआ है . इसकी लकड़ी की छत पर अद्भुत कारीगरी की हुई है.जो साठ फ्रेम से मिलकर बना है . यहाँ, मास्क, कठपुतलियाँ, गहने, दीप स्तम्भ, एंटिक वाद्य यंत्र, और लकड़ी ,ब्रोंज, पीतल की कई मूर्तियाँ हैं. पाषाण  युग की कई मूर्तियाँ भी हैं. एक जगह देखा, दसवीं शताब्दी में पुत्र प्राप्ति की मन्नत के लिए लोग कुछ आकृतियाँ चढाते थे . यानि पुत्र प्राप्ति की कामना ,इतनी पुरानी है. 
तीसरी मंजिल पर लकड़ी का सुंदर स्टेज बना अहा है ,जहां रोज साढ़े छः बजे केरल की प्राम्प्रिक कलाओं और नृत्य  की मंच प्रस्तुति होती है. 
प्रवेश शुल्क , प्रति व्यक्ति 100 रुपये है . कैमरा के लिए भी 100 रूपये का टिकट है. म्यूजियम में  मुझे केरल में जन्मी पर कर्नाटक में रहने वाली एक डॉक्टर मिल गई. जो मेरी गाइड बन गई और हर चीज़ विस्तार से बताया . पारम्परिक नृत्य के गहने इतने भारी  थे कि उन्हें पहनकर नृत्य करना कितना मुश्किल होता होगा, सोचकर  ही हैरानी होती है. एक जगह एक मंदिर का दरवाजा सुरक्षित रखा गया  था .जिसकी ऊँचाई बहुत  छोटी थी.  .डॉक्टर साहिबा ने बबताया  कि हमारा समाज मातृ सत्तात्मक  है .मंदिर पर औरतों का अधिकार होता है और उनकी अनुमति से ही कोई मंदिर में प्रवेश कर सकता है, पति भी .पीतल के गुड्डे -गुडिया भी दिखे ,उन्होंने बताया कि शादी मे लड़की को दिए जाते हैं और नवरात्रि में हर घर के गुड्डे गुड़ियों की सफाई की जाती हैऔर उन्हें सजाया जाता है. एक लकड़ी की गोल सी  चीज़ दिखा कर कहा कि इसमें रखकर गरम  चावल परोसा जाता है. वे लोग आज भी अपने घ रों  मे इस्तेमाल करते  हैं . म्यूजियम में एक दूकान भी थी जहां साड़ियाँ, बैग, एंटिक जेवर, नाव की आकृति बहुत कुछ बिक रहा था .जिसे टूरिस्ट यादगार के तौर पर ले जा सकते हैं .
म्यूजियम अच्छी तरह घूमने में दो घंटे लग जाते हैं . 

RAASA Restaurant  -- केरल का पारम्परिक भोजन 

वहाँ से निकलते लंच का वक्त हो गया था. और ड्राइवर हमें एक रेस्टोरेंट में ले गया ,जहां केले के पत्ते पर केरल का पारम्परिक भोजन मिल रहा था . एक सहेली  के घर में ओणम में जितने व्यंजन  खाए थे ,केले के पत्ते पर वे सारे व्यंजन परोसे गए . गुड और अदरक की चटनी, अवियल, रसम, साम्भर , मूंग दाल ,पापड्म और ढेर सारी अलग अलग सब्जियां थीं ,.हर ओणम में सहेली के घर जीमने के बाद भी उनके नाम मुझे कभी याद नहीं हो पाए . दो तरह का पायसम भी था, जिसका स्वाद अद्भुत था . बाद मे भी हम हर जगह  पायसम ढूंढते रहे पर कहीं नहीं मिला. फिर ह्में ख्याल आया उत्तर भारत के किसी होटल में जाकर हम खीर मांगे तो क्या ह्में मिलेगा  :)
खा पीकर हम मुन्नार की तरफ चल दिए . रास्ता बहुत ही खूबसूरत था , घूमती हुई पहाड़ी सडकें और हर तरफ हरियाली .उनके बीच गुलमोहर की तरह कई पेड़ नारंगी रंग के चटख फूलों से लादे हुए. ड्राइवर को भी उनका नाम मालूम नहीं था .कहीं भी एक इंच भी खाली जगह नहीं दिखती .हर तरफ हरा भरा. .शायद इसीलिए इसे God's own country कहा जाता है. रास्ते में दो जगह खूबसूरत झरने भी मिले .

करीब तीन बजे हम होटल 'ब्लैक फ़ोरेस्ट' पहुँच गए .नाम के अनुसार ही बिलकुल घने जंगल के बीच में यह होटल था और पहाड़ की ढलान पर बना हुआ था .पहला होटल ऐसा देखा, जिसमें एंट्री छत की तरफ से थी . छः मंजिल की होटल में छत की तरफ से प्रवेश कर लिफ्ट से नीचे जाना पड़ता है. चौथी मंजिल पर रिसेप्शन और दूसरी मंजिल पर हमारा कमरा था . सुन्दर सी बालकनी भी थी .और पास ही बहते झरने का शोर कमरे तक बदस्तूर पहुँच रहा था . 

Spice Garden Munnar
आज- कल -परसों फूल

कमरे में थोड़ी देर आराम कर हम 'स्पाइस गार्डेन' देखने निकला गए . हल्की सी बारिश शुरू हो गई थी . और हमारे पास छाता नहीं था . .सोच ही रहे थे कैसे घूम पायेंगे कि देखा गार्डेन के ऑफिस के बाहर ढेर सारे छाते रखे हुए हैं . यहाँ  भी प्रवेश शुल्क प्रति व्यक्ति 100 रुपये था . एक साठ वर्षीय हंसमुख गाइड हमारे साथ हो लिए और एक एक पेड़ के विषय में विस्तार से बताया. हमने दाल चीनी, काली मिर्च, इलायची, कॉफ़ी, जायफल, अंजीर , कोको और ढेर सारी आयुर्वेदिक औषधियों वाले पौधे देखे . साथ में उन पौधे के गुण भी बताते जा रहे थे . सुनते वक्त तो लग रहा था , सब याद है पर शाम तक सब गड्ड मड्ड हो गया. बस प्रमुख चीज़ें ही याद रहीं.


इलायची के पौधे कि जड़ों के पा स्खूब सारी इलायची फली हुई थी . इसे तैयार करते वक्त पांच किलो इलायची में से एक किलो इलायची ही काम लायक मिलती है. इसकी फसल साल भर होती है. 45 दिनों में एक फसल तैयार हो जाती है. कोको खूब सारे फले हुए थे .इसके बीज्निकाल कर सुखाया जाता है और फिर उस से चॉकलेट बनाई जाती है.
 रुद्राक्ष का पेड़ भी दिखाया .और बताया कि हज़ारों  रुद्राक्ष के फल में से एक 'एकमुखी रुद्राक्ष' मिलता है और उसकी कीमत लाखों में होती है. अन्नानास, नांरगी भी फले हुए दिखे . कई गोल मटोल  संतरे पेड़ से लटक रहे थे .पर उन्हें तोड़ने का मन नहीं हुआ ,जैसा हिमाचल में सेब के बाग़ देख कर हुआ था .शायद इसलिए कि यहाँ एक ही पेड़ था जबकि वहाँ गुलाबी सेब से लदे  सैकड़ों पेड़ थे. इस स्पाइस गार्डेन में हर चीज़ का एक ही पेड़ यक पौधा था, जिसे टूरिस्ट के दर्शनार्थ लगाया गया था .वरना कई एकड़ जमीन में इन सबके पेड़ हैं और हज़ारों लोग उसकी देखभाल में लगे होते हैं . एक  भीनी भीनी खुशबू वाली   छोटे छोटे फूलों की  झाडी थी, जिसे 'आज- कल -परसों' कहते हैं .इस फूल का रंग पहले दिन सफेद, दूसरे दिन नीला और तीसरे दिन हल्का बैंगनी  हो जाता है. 

गार्डेन के एक छोर पर मसालों और आयुर्वेदिक औषधियों की एक दूकान थी . तरह तरह के तेल और दवाइयां थीं वहां . बाल झड़ने की समस्या से तो सभी ग्रस्त रहते हैं . उनकी बातों में आकर हमने भी खूब महंगे तेल ले लिए (अभी घर में किसी ने आजमाना शुरू नहीं किया है ) कुछ मसाले ले लिए . पेमेंट करते वक्त उनलोगों ने बोला कि कार्ड नहीं लेते. अब आजकल लोगों की कैश रखने की आदत खत्म हो गई है. हमारे पास भी लिमिटेड कैश थे . उनलोगों ने कहा, 'पास ही ATM है. ड्राइवर आपको ले जाएगा .' हमें भी अभ्यास है, मुम्बई में हर नुक्कड़ पर ATM मिल जाता है . लिहाजा हमने पास के सारे कैश दे दिए .बाहर आकर जब ड्राइवर से कहा तो उसने बोला...ATM तो टाउन में है, वहाँ जाने में डेढ़ घंटे लगने थे . स्पाइस गार्डेन के बाद हमें 'कथकली और कलारीपयाट्टू (Kalarippayattu ) का शो देखना था . स्पाइस गार्डेन से थोड़ी ही दूर पर 'शो सेंटर' था पर वे लोग भी कार्ड से पेमेंट नहीं लेते थे .लिहाजा हमें टाउन ही जाना पडा. वहाँ भी चार ATM में कैश ही नहीं थे .पांचवे ATM में कैश था पर लंबा क्यू भी . पैसे निकालने जरूरी थे . शो के लिए हम समय पर नहीं पहुँच पाते .

 इसलिए उसी भीगे भीगे से छोटे से मार्केट में घूमते रहे . एक रेस्टोरेंट में गर्म गर्म मिर्ची के भजिये और मसाला चाय पिया  (फिल्टर कॉफ़ी यहाँ भी नहीं मिली ) .बड़ी बड़ी मिर्ची के बेसन में लिपटे भजिये केरल में बहुत मशहूर है. ठेले पर खूब मिलते हैं. ठेलेवाले मिर्ची का तोरण या हार सा सजा कर रखते  हैं . अन्धेरा हो गया था और इन सर्पीली रास्तों से हमें अभी होटल वापस लौटना था . कुछ जगह रास्ते पर बादल उतारे हुए थे और जीरो विजिबिलिटी थी. जैसन ने बताया इन रास्तों पर हमेशा ही  बादल रहते हैं. आगे रास्ता खुल जाएगा . सर्दियों में तो छः बजने के बाद रास्ते बिलकुल बंद हो जाते हैं. शाम ढलने से पहले ही होटल वापस लौटना होता है .
यहाँ एक सीख मिली कि किसी हिल स्टेशन  पर जाएँ तो पर्याप्त कैश रखें .ATM दूर होते हैं और कैश से खाली भी.







नृत्य के जेवर 









गुड्डा गुड़िया




मन्दिर का द्वार 

नरसिंह भगवान 


अन्नानास 


अंजीर 

अंजीर 

काली मिर्च 


गोलमिर्च 

कोको 


इलायची 

जड़ों के पास फले इलाची 


कॉफ़ी बीन्स 


गंधराज पुष्प

भीगा भीगा मुन्नार  शहर 

शनिवार, 8 अक्तूबर 2016

एम.एस.धोनी. - द अनटोल्ड स्टोरी

"
"एम एस धोनी " फिल्म के विषय में हर जगह कहा गया है कि अगर आप धोनी के फैन हैं तभी ये फिल्म देखने जाएँ . पर धोनी का फैन होने के लिए पहले क्रिकेट में रूचि होनी चाहिए .लेकिन अगर क्रिकेट पसंद नहीं है तब भी इस फिल्म का फर्स्ट हाफ (और वो दो घंटे का है ) हर मध्यमवर्गीय परिवार को अपने जीवन से जुड़ा हुआ महसूस होगा. जब बच्चे स्कूल में होते हैं ,अक्सर उनकी रूचि खेल में होती है और पेरेंट्स के मन में रस्साकस्सी शुरू हो जाती है. खेल में कोई एकाध ही उभरता है जबकि पढ़ाई, डिग्री, एक अदद नौकरी दिलवा खाने पीने का जुगाड़ तो कर ही देती है. धोनी के परिवार में भी यही कशमकश है .पर धोनी के जिगरी दोस्त ,उसकी हर तरह से सहायता करते हैं .कितने ही लडकों को अपने स्कूल कॉलेज के दिन याद आ गए होंगे ,जब दोस्त ही सब कुछ हुआ करते थे और हर गम और ख़ुशी में बस उनके साथ की ही जरूरत होती थी .जब धोनी पंजाब के साथ मैच हार कर लौटते हैं, तो उनका एक दोस्त चिंटू, दूसरे दोस्त से कहता है, 'पता नहीं क्या हुआ है....अपने घर भी नहीं गया .मुझे कमरे से निकाल कर मेरे ही कमरे में बंद है...हमेशा ऐसा ही करता है, मेरे ही घर से मुझे निकाल कर कमरा बंद कर लेता है' हो सकता है ,यह सिर्फ फिल्म में ही डाला गया हो पर दोस्ती की गहराई कीझलक दिखाजाताहै. . धोनी के जीवन के सारे पन्ने सबके सामने खुले हुए हैं...पर उनके संघर्ष में उनके दोस्तों के सहयोग को यूँ सीन दर सीन देखना ,अंदर तक छू जाता है.

धोनी की टिकट कलेक्टर की नौकरी , उससे उपजा फ्रस्ट्रेशन अच्छे से व्यक्त हुआ है .पर जिंदगी में कुछ पाने की अदम्य इच्छा हो तो अपनी जिम्मेवारी पर कुछ कड़े निर्णय लेने पड़ते हैं .धोनी नौकरी छोड़कर फिर से भारतीय टीम में चयन के लिए संघर्ष शुरू कर देते हैं . मैंने सबसे पहले धोनी का नाम इन्हीं दिनों सुना था .'सहारा समय' पर एक प्रोग्राम आता था ,'सिली पॉइंट' पार्थिव पटेल उन दिनों बुरी तरह फेल हो रहे थे .पर सौरभ गांगुली का भरोसा उनपर बना हुआ था .सिली पॉइंट में अशोक मल्होत्रा हमेशा कहते, ' रांची के धोनी इतने अच्छे विकेट कीपर हैं, एग्रेसिव बैट्समैन भी हैं और उन्हें चांस नहीं मिल रहा .' 'रांची के धोनी' नाम ने ध्यान खींचा क्यूंकि बिहार के इक्का दुक्का खिलाड़ी ही भारतीय टीम में जगह बना पाये हैं और फिर इस नाम से कौन अपरिचित रहा .

फिल्म में पात्रों का चयन शानदार है. सारे सहकलाकार ,चाहे वे कोच हो ,क्रिकेट अधिकारी हों, धोनी के दोस्त हों या टीम के दूसरे खिलाड़ी हों .अपने कैरेक्टर में इतने फिट हैं कि लगता ही नहीं वे महज एक्टिंग कर रहे हैं . और सबसे बढ़कर 'युवराज सिंह ' . वो कानों में हेडफोन लगाये ,अपना बैग घसीटते ,अलमस्त अंदाज़ में एकदम किसी राजा की तरह युवराज़ का चलना ,वो एक सीन में ही एक्टर (और निर्देशक ) की काबिलियत बता देता है. युवराज एक क्रिकेट खिलाड़ी के बेटे , स्केटिंग के चैम्पियन , चंडीगढ़ के स्टार बैट्समैन जिन्हें रांची से आये ये खिलाड़ी आँखों में प्रशंसा लिए देखते रह जाते हैं. हमलोग हमेशा सुनते हैं, क्रिकेट एक माइंड गेम है .400 के स्कोर के सामने कई बार टीम में स्टार बैट्समैन होते हुए भी विरोधी टीम के विकेट पतझड़ से झड़ जाते हैं . यहाँ धोनी कहते हैं, 'मैच तो हम उस रात युवराज को देखते ही हार गए थे ' दुसरे दिन रांची का स्कोर होता है, 357 और युवराज अकेले 358 बनाते हैं. शायद यही सबक धोनी ने याद रखा और वे कभी पैनिक नहीं होते.

फिल्म के दूसरे हाफ में सब घालमेल है . धोनी का अपनी पहली प्रेमिका 'प्रियंका' से मिलना फिर उसका एक्सीडेंट, अपनी पत्नी साक्षी से मुलाक़ात, प्यार और शादी .पर ये सारे इमोशंस ,दर्शकों को छू नहीं पाते .क्यूंकि धोनी खुद कभी अपनी भावनाएं व्यक्त नहीं करते .यह उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है , जब वे ख़ुशी, परेशानी, घबराहट खुल कर व्यक्त नहीं करते तो प्यार भी नहीं कर पाते ( निर्देशक ने इसका खास ख्याल रखा है) और जब फिल्म में दर्शक अपने नायक को प्यार में डूबे , विरह में तड़पते नहीं देखेंगे तो उसकी भावनाएं ,उनतक नहीं पहुंचेंगी और कोई संवेदना भी नहीं उपजेगी . आम लड़कों की तरह ही धोनी में भी घोर कमिटमेंट इशु था , यह भी सामने आया है. हिरोइन के साथ घूमना, गाना एक बॉलीवुड रूटीन सा ही लगा...कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाया.

क्रिकेट प्रेमियों को यह फिल्म देखने की सलाह है पर फिल्म में क्रिकेट नजर ही नहीं आया . बस कुछ मैच के खराब एडिटेड दृश्य थे . ना किसी मैच के पहले की मीटिंग ,खिलाड़ियों की आपसी बातचीत , ऑफ द फील्ड की निराशा, ख़ुशी ,चिंता ,हंसी मजाक, थोड़ी अनबन कुछ भी नहीं .नेट प्रैक्टिस , ड्रेसिंग रूम का एक भी सीन नहीं . कंट्रोवर्सी वाली किसी बात का जिक्र नहीं होता , ये अंदाजा तो था .पर जैसे फर्स्ट हाफ में धोनी के खेल से दर्शक जुड़ाव महसूस कर रहे थे दूसरे हाफ में ये सिरे से नदारद था .बस जैसे क्रम से उनके करियर ग्राफ को दिखा दिया गया .शायद इसलिए भी ख़ास महसूस नहीं हुआ कि यह सब तो हम सब लाइव देख चुके हैं .मुशर्रफ के कहने पर कि , “A lot of placards in the crowd have suggested that you should get a haircut, but if you take my advice, you look good in this hairstyle.” धोनी की वो शर्मीली हँसी भी अभी तक जेहन में है .यहाँ सुशांत अक्षरशः कॉपी नहीं कर पाए :)

सुशांत राजपूत ने इस फिल्म के लिए बहुत मेहनत की है .धोनी के टीनेज इयर में उन्हें देख हैरानी होती है ,इतने कमउम्र के कैसे लग रहे हैं . धोनी के खेलने का स्टाइल, बॉडी लैंग्वेज, चाल ढाल, संयमित व्यक्तित्व .सब बहुत अच्छी तरह अपनाया है.

फिल्म के छोटे छोटे डिटेल्स पर बहुत ध्यान दिया गया है...रांची के मध्यमवर्गीय परिवार का रहन सहन, कपडे लत्ते, भाषा, मच्छी मार्केट में मोल तोल . जब कोच की पत्नी उन्हें टेन्स देखकर अक्सर पूछती हैं, 'चा खाबे' तो बरबस मुस्कान आ जाती है.मध्यमवर्गीय दाम्पत्य जीवन में यूँ ही पत्नी ,पति का मूड भांप लेती है .

एक चीज़ बहुत अखरी...धोनी द्वारा किये गए ढेर सारे विज्ञापन के दृश्य ।एक से ही अंदाज़ा हो जाता पर इन प्रॉडक्ट्स निर्माताओं ने पैसे लगाए हैं
तो जम कर फुटेज भी खाया है
फ़िल्म की लम्बाई पांच दस मिनट तो बढ़ ही गई है ।

इसे धोनी का बायोपिक कहा गया है .पर काफी बातें काल्पनिक हैं . साक्षी से मुलाक़ात का वाकया भी सम्भवतः सिर्फ स्क्रिप्ट में ही है. धोनी के एक बड़े भाई भी हैं. उनका फिल्म में कोई जिक्र नहीं . एक बात ध्यान में आती है , अक्सर कोई बड़ा भाई हो तो छोटा भाई निर्द्वन्द्व रूप से अपने कैरियर पर ध्यान दे पाता है ।उसे परिवार की ज्यादा चिंता नहीं होती ।प्रत्यक्ष रूप से ना सही परोक्ष रूप से भी कैरियर के निर्माण में बड़े भाई का भी कुछ रोल होता है ।ना जिक्र करने की कोई वजहें रहीं होंगी।पर फिर बायोपिक क्यों कहना ।

फिर भी फर्स्ट हाफ के लिए ये फिल्म क्रिकेट के अप्रेमी भी देख सकते हैं .


शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2016

केरल यात्रा (कोचीन ) --1

केरल के विषय में बचपन में ही सबसे  पहले पढ़ा था कि वहाँ शत प्रतिशत साक्षरता है और मन में एक सम्मान जाग गया था .फिर केरल की  समर्पित नर्सों के विषय में जाना  .राजा बलि और विष्णु के वामन अवतार की कहानी  पढ़ीं. धीरे धीरे केरल के त्यौहार ओणम , त्रिशुर में होने वाले पूरम त्यौहार ,जिसमें सजे हुए हाथियों का जुलूस निकलता है ,वहाँ की हरियाली, सबके विषय में जाना और केरल भ्रमण की इच्छा मन में पलने लगी जो पिछले दिनों जाकर साकार हुई .


हमने मुम्बई से कोचीन की सुबह की फ्लाईट बुक की थी जिस से हम ज्यादा से ज्यादा समय केरल में गुजार सकें .पर फ्लाईट का समय बदल कर दोपहर का हो गया .कोचीन पहुँचते तीन बज गए .मुंबई से एक घंटा चालीस मिनट का हवाई सफर है . कोचीन एयरपोर्ट विश्व में पहला एयरपोर्ट है जो पूरी तरह सौर ऊर्जा से संचालित होता है . यह भारत का पहला एयरपोर्ट है जो public-private partnership (PPP)  से बना है . इसके निर्माण में करीब 30 देशों में रहने वाले 10,000 NRI ने आर्थिक योगदान दिया है.

सामान लेने ड्राइवर से सम्पर्क में आधा घंटा  और लग गया . एयरपोर्ट पर ही काफी लोग केरल की पोशाक लुंगी (मुंडू) और हाफ शर्ट में नजर आये .दो महिलायें भी केरल की  क्रीम और गोल्डन कलर की पारम्परिक साडी, बालों में फूल लगाए किसी के स्वागत के लिए आई हुई थीं . कई टैक्सी ड्राइवर भी मुंडू में नजर आये . केरल से बाहर वालों के लिए यह अलग सा दृश्य था .

हमारी कैब का ड्राइवर नम्र स्वभाव का जैसन कोचीन का ही रहने वाला था, .सबसे पहले उसके व्यवहार ने प्रभावित किया ,जैसे ही हम कार  में बैठे उसने मलयालम गाना बदल कर हिंदी गाने लगा दिए .उसके बाद छः दिन तक हमारे कार में आते ही वह कभी fm से तो कभी सी डी से हिंदी फ़िल्मी गाने ही बजाता .जैसन का यह व्यवहार खासकर इसलिए भी पसंद आया क्यूंकि ' लाहुल स्पीती ट्रिप  पर वहाँ के ड्राइवर ने ग्यारह दिनों तक पंजाबी पॉप गाने सुना सुना  कर पका दिया था . उसे हिंदी गानों की दो सी डी भी खरीद कर दी पर उसने ज़रा सा बजा कर चेंज कर दिया .हमने भी कुछ नहीं कहा क्यूंकि वो रास्ते बहुत खतरनाक थे और शायद उसे अपने पसंदीदा गीत सुनते हुए गाड़ी चलाना ज्यादा सुविधाजनक लगता हो. 

सडक के बीचो बीच मेट्रो रेल का काम चल रहा था .जैसन बता रहा था ,यह भारत का सबसे लम्बा मेट्रो रेलवे मार्ग होगा . २०१७ तक ट्रेन चलनी शुरू हो जायेगी ..हमारा होटल एयरपोर्ट से काफी दूर था और चूहे पेट में कबड्डी खेलने लगे थे .हमने जैसन से आग्रह किया कि किसी ऐसे रेस्टोरेंट में रोके, जहाँ केरल के पारम्परिक व्यंजन मिलें .जैसन ने बताया ,लंच का समय तो खत्म हो गया है, इडली डोसा वगैरह ही मिलेगा . एक साफ़ सुथरे रेस्टोरेंट में हमने मसाल डोसा और उत्तपम ऑर्डर किया .कोच्ची के onion uttapa में प्याज और कटी सब्जियों में चावल और उड़द का घोल मिलाया जाता है जबकि बाकी जगह घोल में सब्जियां डाली जाती हैं (नाम की ) ।मसाला डोसा का भी स्वाद बिलकुल अलग था , मुझे पसंद आया ।
सांभर और चटनी के लिए चम्मच की मांग करनी ही पड़ी :)
अंत में हमें एक एक गुलाबी टिश्यू पेपर थमाया गया ।और बिल मुंबई के मुकाबले आधा ।


st.George church
रास्ते में ही 'एडापल्ली' पड़ा जहाँ बहुत ही प्रसिद्ध 'सेंट जॉर्ज चर्च' है . यह  भारत के सबसे पुराने चर्च में से एक है . इसका निर्माण 594 AD में किया गया . इसे 'वर्जिन मेरी ' को समर्पित किया गया था 1080 में इसे स्थानीय भाषा में 'मार्था मरियम' का चर्च कहा जाने लगा .अब  इसके पास ही एक भव्य और बहुत बड़े चर्च का निर्माण किया गया है . जो काफी बड़ा और बहुत ख़ूबसूरत है . पूजा अर्चना करने वाले तो  ज्यादातर पुराने  चर्च में ही दिखे .इस चर्च की खूबसूरती के अवलोकन के लिए ही लोग घूमते नजर आये .इस चर्च में 'अंडा' चढाया जाता है. एक ढक्कन लगी बाल्टी में हमें कुछ अंडे रखे हुए दिखे . चर्च के बाहर भी ख़ूबसूरत लॉन और सुंदर पेड़ पौधे हैं. शाम को समय बिताने के उद्देश्य से भी स्थानीय लोग आते होंगे .

इसके बाद ड्राइवर ने कहा, हमें 'मैरीन ड्राइव' ले जाएगा. 'वेम्बानद' झील के किनारे किनारे दूर तक टाइल्स बिछी है, बेंच लगी हुई हैं . लोग यहाँ शाम की  सैर के लिए आते हैं. मुझे लगा कि शायद हम मुंबई से आये हैं ,इसीलिए ड्राइवर कह रहा है कि कोचीन का मैरिन ड्राइव दिखाएँगे . पर उस जगह का नाम सचमुच 'मैरिन ड्राइव' ही है . मुंबई का मरीन ड्राइव तो समुद्र के किनारे है, जहां लहरों की हलचल रहती हैं, कभी उत्ताल तरंगे भी उठती हैं .पर यहाँ झील बिलकुल शांत थी . दूर कुछ जहाज और नावें भी लंगर डाले खड़ी नजर  आ रही थीं .मुम्बई में एक समुद्र और नजर आता है, इंसानों का .पर यहाँ शांत झील की तरह उसका किनारा भी शांत था .हालांकि मुंबई वाला नजारा यहाँ भी था . कहीं कहीं बेंच पर लडके लडकियां जोड़े से बैठे हुए थे . सारी लडकियां सलवार कुरते में थीं और बहुत शरमाई  सकुचाई सी पर अंदर से निडर होंगी, तभी तो अपने प्रेमी के साथ यूँ बेंच पर बैठने की हिम्मत कर पाईं. कहीं कहीं दो चार लड़के ग्रुप में बैठे थे और अपनी बोरियत दूर करने को सेल्फी ले रहे थे . एक बेंच पर दो पुलिसमैन अपने जूते उतार कर अनमने से पैर उठा कर  बैठे हुए थे . इतनी शांत जगह और शांत लोग ,पुलिस का कोई काम ही नहीं पर प्रशासन को अपना काम करना था .
वेम्बनद झील 

किनारे ही ऊँची ऊँची इमारतें थीं .बिल्डिंग से इक्का दुक्का लोग टहलने के लिए आते दिखे . एक छोटी सी बच्ची कुछ शरारत कर रही थी और उसके पिता उसे मना कर रहे थे .मेरी चाल धीमी हो गई कि सुनूँ ,मलयालम में वे उस से क्या कहते हैं .पर वे तो उत्तर भारतीय निकले, हिंदी में बोल रहे थे...'कह रहा हूँ न...चोट लग जायेगी ' :) 

झील के किनारे थोड़ी देर बैठ, सूर्यास्त देखकर  ...पेड़ों के झुरमुट के नीचे टहल कर हम वापस आ गए . ठेलों पर भुट्टे, बालू में भुने जाते मूंगफली , फलों के जूस मिल रहे थे . थोड़ी देर पहले ही हमने मेदू वडा, उत्तपा , डोसा का भोग लगाय था , खाने की  इच्छा नहीं थी .ऑरेंज जूस ऑर्डर किया .सामने ही  संतरे छील  कर उसने जूस बनाया और पूछा,   ,'मधुरम् ??' हमें समझ नहीं आया तो उसने बोतल में एक पारदर्शी द्रव्य दिखा कर फिर पूछा .तब पता चला वो पूछ रहा था ,'शुगर सिरप डालूँ ?' :)

अब तक रात हो गई थी . कोचीन में काफी कुछ देखना बाकी था .उसे हमने  अंतिम दिन के लिए छोड़ दिया .क्यूंकि वापसी की फ्लाईट भी कोचीन से ही पकडनी थी . सुबह हमें मुन्नार के लिए निकलना था .होटल में आकर सामान रखा,फ्रेश  हुए.  डिनर में हमने  केरल के पारम्परिक स्वीट डिश ढूंढें  पर वही प्रचलित स्वीट डिश ही थे .इसमें ह्मने फ्राइड आइस्क्रीम यानि 'तली हुई आइस्क्रीम' ऑर्डर  की.जो कब से ट्राई करना चाह रहे थे .पर यहाँ आकर सम्भव हुआ. कॉर्न फ्लोर और ब्रेडक्रम्ब के गाढे घोल में आइस्क्रीम लपेट कर तला हुआ था . बाहरी सतह  तोड़ने पर अंदर से पिघला हुआ आइस्क्रीम निकलता है जो बाहरी सतह के टुकड़े के साथ काफी स्वादिष्ट लगता है .
डिनर  के बाद बाहर टहलने की सोची .पर सडकें इतनी सूनी थीं कि वापस लौटना ही  श्रेयस्कर समझा. 




fried icecream








मैरिन ड्राइव 










मेट्रो रेल निर्माण




फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...