मंगलवार, 6 मई 2014

क्या दिल्ली क्या लाहौर : दोनों का दर्द यकसाँ

कभी  रेस्तरां में बैठ कर अकेले कॉफ़ी पी थी और उन अनुभवों पर यहाँ एक पोस्ट भी लिख डाली थी. उस पोस्ट पर अंशुमाला  ने कमेन्ट किया था , "कभी अकेले सिनेमा जाकर भी देखिये, अच्छा अनुभव रहेगा " पर मुझे लगा ये मैं कभी नहीं कर पाउंगी पर जब 'लक्ष्मी ' जैसी कई कला फ़िल्में देखने से छूट गयीं (ये फ़िल्में बस एक हफ्ते ही थियेटर में रहती और जब तक फ्रेंड्स के साथ प्लान बने वे निकल जातीं ) तो सोचा अब अकेले ही फ़िल्में देखना शुरू करना होगा पर अब कानों को पांच बार हाथ लगा लिया. 'आर्ट मूवी  तो कभी अकेले नहीं देखनी '. एक फ्रेंड के साथ 'क्या दिल्ली क्या लाहौर ' देखने का प्लान हुआ. हम लोग समय से ही निकले पर जगह जगह रास्ते की  खुदाई ने ट्रैफिक जाम कर रखा था. देर तो हो ही गयी थी, मेरी फ्रेंड टिकट लेने के लिए थियेटर के सामने ही उतर गयी और मैं अकेले बेसमेंट में गाडी पार्क करने चली गयी कि समय की बचत होगी. वहाँ से भागते हुए हम सीधा थियेटर का दरवाजा खोल अन्दर जाने को हुए कि एक अटेंडेंट ने रोक दिया, 'अभी फिल्म शुरू नहीं हुई है, दरवाजा बंद है ' हमने आस-पास नज़र दौडाई हमारे सिवा वहां कोई नहीं था . तब पता चला हम दोनों ही हैं बस. हम अन्दर गए ,अब सीट नंबर क्या देखना था. अटेंडेंट ने भी कहा ,"जहां मर्जी हो  बैठ जाइए " और उसने पीछे इशारा किया कि फिल्म शुरू करो.  हम दोनों हंस रहे थे कि एक तो गोल्ड क्लास लाल रंग का  आरामदायक  recliners sofa ...हमारे लिए बिलकुल प्राइवेट स्क्रीनींग  हो गयी ये  तो. वो अटेंडेंट उत्साह में आकर हमलोगों को दिखाने लगा ,ऐसे बटन दबाईएगा तो सीट ऊपर आ जायेगी (जैसे हमें नहीं मालूम ) और कहते मेरी सीट ऊपर कर दी. तब तक परदे पर राष्ट्रगीत शुरू होने का सन्देश आया. मैं चिल्लाई , "नीचे करो सीट ,मुझे खड़े होना है ".'जन गण मण' के बाद सीधा फिल्म ही शुरू हो गयी . अब हम दो लोगों के लिए क्या विज्ञापन वाली रील चलाते . फिल्म शुरू होने के बाद हमलोग बिलकुल फिल्म में  में खो गए . अहसास भी नहीं रहा कि हॉल भरा हुआ है या खाली . फिल्म शुरू होने के दस मिनट बाद एक सज्जन आये . उसके दस-पंद्रह मिनट बाद एक और सज्जन आये और बड़ी मशक्कत से मोबाइल की  रौशनी में अपना सीट नंबर ढूंढ कर बैठ गए. उन्हें अँधेरे मे पता नहीं चल पाया कि हॉल तो बिलकुल खाली है . पर पता नहीं क्या सोच कर वे फिल्म देखने आये थे ,दस मिनट देखने के बाद ही फिल्म छोड़ निकल गए . (अपनी   टिकट के पैसे का भी मोह नहीं किया ) आधे घंटे बाद एक कपल आये और कुल मिलकर हम पांच लोगों ने ये फिल्म देखी . वो अटेंडेंट बीच बीच  में आकर हमें देख जाता कि हम ठीक तो हैं .

यह फिल्म भारत-पकिस्तान विभाजन की पीड़ा को दर्शाती है. दोनों ही तरफ एक से लोग हैं एक सी उनकी समस्याएं हैं .फिर भी एक दुसरे के दुश्मन बने बैठे हैं. फिल्म में सिर्फ दो मुख्य पात्र हैं और उनके संवादों के जरिये ही फिल्म आगे बढती है. युद्ध के बीच अपनी अपनी सेना की  टुकड़ियों में ये दोनों ही बचे हुए हैं .रहमत अली(विजय राज ) को हिदुस्तानी चौकी से एक फ़ाइल चुरानी है और समर्थ (मनु ऋषि )उस चौकी की रक्षा में अकेला ही तैनात है. दोनों ही एक दुसरे की तरफ बन्दूक ताने एक दुसरे को भला बुरा कहते हैं,गालियाँ  देते हैं और उन्हीं बातों में पता चलता है कि  रहमत अली ,तीस साल दिल्ली में गुजार कर अब पकिस्तान की फ़ौज में भर्ती हो गया है और  समर्थ, पैंतीस साल लाहौर में बिता कर अब भारत की  फ़ौज में बावर्ची बन गया है. दोनों ही अपने अपने वतन , वहां के लोग, वहाँ की  गलियों को शिद्दत से याद करते हैं जो अब उनके लिए बेगाना हो गया है . रहमत अब पकिस्तान में है पर ,उसकी सारी यादें दिल्ली  से जुडी हुई हैं और उसे दिल्ली  ही अपनी लगती है . समर्थ अब भारत में है, पर उसकी  जड़ें लाहौर में है ,लाहौर ही उसे अपना और दिल्ली बेगाना लगता है.

दोनों ही देशों की सेना के  जवान एक से हैं. घर पर बूढ़े माता-पिता , बीवी बच्चे हैं .उनके  बैग में  बेटे के खिलौने हैं .जेब में बीवी--बच्चों की तस्वीर है .दोनों देशों के राजनीतिज्ञ आरामदायक कमरों में बैठे बिसातें चलते रहते हैं और जलती धूप ,हड्डियाँ जमाती सर्दी में जवान भूखे-प्यासे लड़ते रहते हैं .

युद्ध की  निरर्थकता के साथ ही यह फिल्म इस त्रासदी को भी उजागर करती है ,जिससे लाहौर से आये लोग भारत में और दिल्ली से गए लोग पकिस्तान में जूझते  रहते हैं . फिल्म में दो और पात्र हैं जो बहुत बाद में आते हैं और दोनों भारत और पकिस्तान के मूल निवासी हैं .वे लोग दुसरे मुल्क से आये लोगों को गद्दार समझते हैं, उनपर भरोसा नहीं करते जबकि ये लोग अपना सब कुछ लुटा कर जिस मुल्क में रहते हैं उसे ही अपना समझते हैं पर उन्हें हमेशा शक की निगाह से देखा जाता है .

 कथ्य और अभिनय के अलावा फिल्म के और किसी पक्ष को उभारने की कोशिश नहीं की गयी है. लोकेशन  फिल्मांकन, गीत संगीत कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है . पर फिल्म पूरे समय बांधे रखने में सक्षम है गुलज़ार की आवाज़ में उन्ही की कविता की पंक्तियों से फिल्म शुरू होती है

लकीरें हैं तो रहने दो ,
किसी ने रूठकर गुस्से में शायद खींच  दी थीं
इन्हीं को अब  बनाओ पाला
और आओ अब कबड्डी खेलते हैं ..

 विजय राज ने अपनी पहली निर्देशित फिल्म में लीक  से हटकर कुछ करने की कोशिश की है. चारों पात्र का अभिनय सराहनीय है .

( साढ़े चार  साल हो गए ब्लॉग शुरू किये  पर दो पोस्ट के बीच कभी इतना लंबा अंतराल नहीं आया. ऐसा नहीं कि विषय नहीं आये दिमाग में , कहानी लिखी हुई रखी  है, सामयिक विषयों, फिल्मों पर लिखना था पर वही फेसबुक की महिमा .वहाँ एक पैराग्राफ लिख  दिया . कई बार लम्बा  विमर्श भी  हो गया और उस विषय को विस्तार मिल गया पर  ब्लॉग सूना ही रह गया .इसलिए इस बार सोचा पहले ब्लॉग पर ही लिखूंगी फिर फेसबुक  अपडेट )

13 टिप्‍पणियां:

  1. विभाजन की त्रासदी दोनो ओर एक जैसी ही थी :(

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  2. विभाजन किसी ने नहीं चाहा था .. कुछ सियासतदानों ने मिल के कर दिया पर भुगता पूरी जमात ने ...
    फिर भी जो लोग पाकिस्तान से भारत आये उनको समाज ने उदारता से ले लिए (अपवाद हो सकते हैं) पर पाकिस्तान में भारत से गए लोग आज भी उतने सहज नहीं हैं ... ऐसा क्यों अहि ये शोध का विषय हो सकता है ... पर ये सच है ...

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  3. इतने साल हुए देश को विभाजित हुए मगर दर्द अब भी हरा है...कोई मूवी कोई कहानी ,गीत या किस्सा सुनते हैं तो पलकें भीग जाती हैं....तब कितना तांडव मचा और लगता है सब अकारण ही.....
    अब तो वो लकीर और गहरी होती मालूम पड़ती है.......
    हम भी ज़रूर देंखेंगे फ़िल्म,शायद डाउनलोड करके !!

    अनु

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  4. एक फ्रेश फिल्म है दीदी !!!बहुत पहले से ही इस फिल्म को देखने की ईच्छा थी...आपने तो पोस्ट लिखकर बहुत ही अच्छा काम किया है, हमने आज सोचा ही था की पोस्ट लिखूं कोई..देखिये अब लिख पाता हूँ या नहीं...
    अंतिम दृश्य फिल्म का तो मतलब हम बस बैठे रह गए थे कुर्सी पर...
    बहुत पसंद आई ये फिल्म !

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  5. विभाजन की दर्द किेसी न किसी बहाने आ कर मन पर जम जाता है .उन लुटे-पिटे लोगों से बहुत वास्ता पड़ा है . कुछ लोगों की दुर्मति के कारण इतिहास का यह अध्याय सुदूर भविष्य तक कड़ुआहट से भरा ही रहेगा .
    फ़िल्म प्रभाव छोड़ती है !

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  6. वाकई कबड्डी होनी चाहिये । बढ़िया पोस्ट ।

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  7. digamber ji ki baat se sahmat hun.
    भारत की तरफ से इस तरह की कोशिशें बहुत होती हैं जिसमें हम कहते हैं कि हम दोनों एक ही हैं।लेकिन सच तो यह है कि पाकिस्तान के पढ़े लिखे वर्ग को भारत की ये बातें बिल्कुल पसंद नहीं।अधिकांश पाकिस्तानी इसे भारत की साजिश समझते हैं।क्योंकि पाकिस्तान के जन्म का आधार ही टू नेशन थ्योरी था।हम लाख भाईचारा दिखाएँ लेकिन अधिकांश पाकिस्तानी मानते हैं कि ऐसा करके भारत हमारे अलग अस्तित्व को नकारना चाहता है।यूट्यूब पर ही ऐसे कितने ही वीडियो मिल जाएँगें जिनसे पता चल जाएगा कि वहाँ का मीडिया किस कदर इसे भारत की धूर्तता मानता है।एक प्रोग्राम में तो एंकर कहता है कि भारत के इरादे नेक नही है वह भारत और पाकिस्तान को एक जताने के लिए करोडों रुपये क्यों बहा रहा है?हम अलग देश हैं और हमारी भारतीयों से अलग पहचान है।हम सिर्फ पड़ोसी है।

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  8. ऐसे ही एक कार्यक्रम में वहाँ की कोई नेता अपने भारत दौरे का अनुभव सुनाते हुए कहती है कि "मैं भारत में जहाँ भी जाती लोग बड़े प्यार से मिलते और इस बात पर जोर देते कि हम हम एक है।एक महिला ने जब मुझसे कहा कि ये बॉर्डर तो नेताओं के खींचे हुए हैं वर्ना हम तो एक ही है।तब मैंने उसे साफ कह दिया कि नहीं आपका देश आपका है और हमारा देश हमारा ही है।आप हमें अपने में शामिल न करें।"

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  9. शारजाह में हमने भी कुछ फ़िल्में सिर्फ अपने परिवार के साथ देखीं.. बाद में कुछ अरबी आए और एक गाना सुनकर चलते बने!! यह फ़िल्म अभी तक हाथों में नहीं आई... बुकमार्क तो कर रखा है.. देखें कब मौक़ा मिलता है!! अभी तो साम्स लेने की फ़ुर्सत भी नहीं!!

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  10. यह फिल्म बहुत दिनों के बाद रिलीज़ हो पायी है. कोई दो साल पहले मैंने यू ट्यूब पर इसका ट्रेलर देखा था तब से इंतज़ार था इस फिल्म का. सिनेमा हाल में तो देख नहीं पाए तो हम भी डाउनलोड करके घर पर ही देखेंगे. विवरण बहुत अच्छा दिया है आपने.

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  11. ऐसा ही होता है र्मि. और इसीलिये कला-फ़िल्में बनाने से लोग डरते हैं. पैसा फंसा ही रह जाता है. लागत निकल आये बड़ी बात. हां कुछ निर्माता/निर्देशक हैं, जो अपनी रुचि के साथ समझौता नहीं करते और दांव लगा देते हैं. फ़िल्म की बढिया समीक्षा की है. रश्मि, हम लोगों को निश्चित रूप से ब्लॉग को अब नियमित समय देना चाहिये, ऐसा मुझे लगता है. कल ही पोस्ट लिखूंगी मैं भी.

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  12. पहले ही इस फिल्म की काफी तारीफ़ सुन ली थी, पर देखना नसीब नहीं हुआ...| बहुत अच्छी समीक्षा है...और अच्छी फिल्मो का भी ऐसा ही हाल होता है जैसे कई बार अच्छे मुद्दों का...दोनों हाशिए पर ही चले जाते हैं...|
    अब तो डाउनलोड कर के देखेंगे...|

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  13. ye bhi ek accha anubhav raha hoga...khali cinema hall mein film dekhne ka...maine to sirf ek baar akele film dekhi thi..Arjun the warrior prince ...par hall buri tarah se bhara hua tha...aur pados mein baitha hua ladka jo do ladkiyon ke saath aaya tha...har scene par apni samiksha kar raha tha...aur mujhe us par bada gussa aa raha tha...jaise taise film dekhi..

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