रविवार, 18 मई 2014

बदलता वक़्त

शाम होने को आयी थी. नीला आकाश सिन्दूरी हो चुका था .पक्षी कतार में चहचहाते हुए अपने घोंसले की तरफ लौट रहे थे . वातावरण में उमस सी थी. रत्नेश शर्मा घर के बरामदे पर कुर्सी पर बैठे हाथ में पकडे अखबार से अपने चेहरे पर हवा कर रहे थे . सुबह से अखबार का एक एक अक्षर पढ़ चुके थे .बहुत कुछ दुबारा भी . और कुछ करने को था नहीं. सोचे सड़क पर ही चहलकदमी कर आयें पर पहना हुआ कुरता –पैजामा  धुल धुल कर छीज़ गया था .रंग भी मटमैला पड़ गया था .उन्हें उठ कर कुरता बदलने में आलस हुआ और कुरता बदलें भी क्यूँ , सिर्फ निरुद्देश्य भटकने के लिए . अब कोई उत्साह भी तो नहीं रह गया . पर एक समय था जब हर वक्त कलफ लगे झक्क सफ़ेद कुरते पैजामे में रहते थे .व्यस्तता भी तो कितनी थी. हर वक़्त किसी न किसी का आना-जाना लगा रहता था .कितनी योजनायें बनाने होती थीं .कितना हिसाब-किताब करना होता था . अब तो काम ही नहीं रह गया ,वरना उनके जैसा कर्मठ व्यक्ति अभी यूँ खाली बैठा होता .

छात्र जीवन से ही वे एक मेधावी छात्र थे . उनकी प्रतिभा देख रिश्तेदार, स्कूल के अध्यापक सब कहते , “वे  एक बड़े अफसर बनेंगे पर रत्नेश शर्मा की अलग ही धुन थी. उनके कस्बे में कोई स्कूल नहीं था. वे चार मील साइकिल चलाकर स्कूल जाते . गर्मी में स्कूल से लौटते वक्त दोपहर को भयंकर लू चलती .सर पर तपता सूरज और नीचे गरम धरती .उसमे ही पसीने से तरबतर हो वे तेजी से पैडल मारते जाते. जाड़े के दिनों में सुबह स्कूल जाते वक्त ठंढी हवा तीर की तरह काटती .कानों पर कसकर मफलर लपेटा होता. पैरों में मोज़े पहने होते फिर भी ठिठुरते पैर साइकिल पर पैडल मारने में आनाकानी करते .

वे हमेशा सोचते काश उनके कस्बे में ही स्कूल होता तो उन सबको उतनी तकलीफ नहीं उठानी पड़ती . स्कूल के इतनी दूर होने की वजह से कई लड़के अनपढ़ ही रह गए .कुछ लोगों के माता-पिता को अपने बच्चों उतनी दूर भेजना गवारा नहीं था .कुछ बच्चे ही शैतान थे .वे घर से तो निकलते स्कूल जाने के नाम पर लेकिन बीच में पड़ने वाले बगीचे में ही खेलते रहते और शाम को घर वापस . दो तीन महीने बाद उनके माता-पिता को बच्चों की कारस्तानी पता चल जाती और फिर वे उन्हें किसी काम धंधे में लगा देते और स्कूल भेजना बंद कर देते. लड़कियों को तो माता-पिता स्कूल भेजते ही नहीं. जिन्हें पढने में रूचि होती वे अपने भाइयों की सहायता से ही अक्षर ज्ञान प्राप्त कर लेतीं और अपना नाम लिखना और चिट्ठी पत्री लिखना-पढना  सीख जातीं. बस इतना ही उनके लिए काफी समझा जाता और उन्हें घर के काम काज, खाना बनाना , सिलाई-कढाई यही सब सिखाया जाता.

रत्नेश शर्मा के मन में स्कूल के दिनों से ही एक सपना पलने लगा कि वे अपनी पढाई पूरी करने के बाद अपने कसबे में स्कूल खोलेंगे और वहाँ के बच्चों को शिक्षा प्रदान करेंगे . स्कूली शिक्षा के बाद उन्हें, उनके पिताजी ने शहर के कॉलेज में पढने के लिए भेजा. उनके साथ के सारे लड़के कॉलेज के बाद किसी नौकरी करने और फिर शादी करके शहर में ही बस जाने का सपना देखते .वे अपने कसबे में वापस लौटने की सोचते भी नहीं . पर रत्नेश शर्मा का सपना बिलकुल अलग था .शुरू में उन्होंने अपने मित्रों से अपने मन की बात बतायी भी तो उनका मजाक उड़ाया जाने लगा . फिर उन्होंने किसी से कुछ नहीं कहा . जब बी.ए. करने के बाद उन्होंने घर पर यह बात बतायी तो पिता बहुत निराश हुए . लेकिन रत्नेश शर्मा अपने विचारों पर दृढ रहे तो पिता ने भी उनका साथ दिया. उनका पुश्तैनी मकान बहुत बड़ा था और उतने बड़े मकान में बस रत्नेश शर्मा का ही परिवार रहता था . उनके चाचा शहर में नौकरी करते थे और वही मकान बना कर बस गए थे . उनकी एक बहन की शादी हो गयी थी और इतने बड़े मकान में बस तीन प्राणी थे . मकान के एक हिस्से में उन्होंने स्कूल खोलने की सोची . 

जब कस्बे के लोगों ने उनका ये विचार सुना तो बहुत खुश हुए और सबने यथायोग्य अपना सहयोग दिया. तब जमान ही ऐसा था . पूरा क़स्बा एक परिवार की तरह था . किसी कि बेटी की शादी हो , सब लोग मदद के लिए आ जाते . मिल जुल कर काम बाँट लेते . स्कूल के लिए भी कुछ ने मिलकर कुर्सी बेंचों का इंतजाम कर दिया. कुछ ने ब्लैकबोर्ड लगवा दिए . कुछ ने पेंटिंग करवा दी .अपने साथ ही एक दो मित्रों को उन्होंने स्कूल में पढ़ाने के लिए राजी कर लिया और स्कूल की शुरुआत हो गयी. शुरू में तो बहुत कम बच्चे आये . पर धीरे धीरे रत्नेश शर्मा और उनके मित्रों की मेहनत रंग लाई. लगन से पढ़ाने पर उनके स्कूल के बच्चों का रिजल्ट बहुत अच्छा होने लगा और धीरे धीरे बच्चों की संख्या में वृद्धि होती गयी . लडकियां भी पढने आने लगीं . आस-पास के कस्बों से भी बच्चे आने लगे . रत्नेश शर्मा एक सुबह से स्कूल की देखभाल में लग जाते और देर रात तक सिलेबस बनाते, बच्चों की प्रगति का लेखा-जोखा बनाते . पास के शहर से सामान्य ज्ञान की किताबें लाते. पढ़ाई को किस रोचक बनाया जाए ,इस जुगत में वे लगे होते.

चार साल निकल गए और इस बार दसवीं में इस स्कूल के आठ बच्चे थे . बच्चों से ज्यादा रत्नेश शर्मा को परीक्षाफल की चिंता थी और जब रिजल्ट निकला तो आठों बच्चों को फर्स्ट डिविज़न मिला था और दो बच्चे मेरिट में भी आये थे . इस स्कूल के नाम का डंका दूर दूर तक बजने लगा. रत्नेश शर्मा का आत्मविश्वास और बढ़ा .स्कूल को अनुदान मिलने लगा . पास की जगह में नए कक्षाओं का निर्माण हुआ . नए शिक्षक इस स्कूल में पढ़ाने को इच्छुक होने लगे . अब इस स्कूल के बच्चे आगे चलकर इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई करने लगे .जब उनका मेडिकल और इंजीनियरिंग में चयन हो जाता तो वे अपन पुराने स्कूल को नहीं भूलते और स्कूल में मिठाई का डब्बा लेकर जरूर आते. रत्नेश शर्मा की आँखें नम हो जाती ,मन गद गद हो जाता और अपने छात्रों की सफलता पर सीना गर्व से फूल जाता .

रत्नेश शर्मा की शादी हो गयी . और नीलिमा उनकी जीवनसंगिनी बन कर आ गयी . नीलिमा का गला बहुत ही मधुर था और वे चित्रकला में प्रवीण थीं. वे खुद रूचि लेकर स्कूल में संगीत और चित्रकला सिखातीं . समय के साथ वे जुड़वां बेटे और बेटी के माता-पिता भी बने . बेटे का नाम रखा राहुल और बेटी का रोहिणी .
स्कूल दिनोदिन प्रगति कर रहा था .समय बीतता जा रहा था . उनके कस्बे में अब नए नए दफ्तर और बैंक खुलने लगे थे .शांत कसबे में अब भीड़-भाड़ होने लगी थी . जहाँ इक्का दुक्का कार हुआ करती थी अब ट्रैफिक जाम होने लगा था .कस्बा शहर का रूप लेने लगा था . गर्मी की छुट्टियां चल रही थीं और वे स्कूल के अगले सत्र का सिलेबस बनाने में जुटे हुए थे .उनके कानों में उड़ती हुई खबर पड़ी कि पास के शहर के एक बड़े अंग्रेजी स्कूल का एक ब्रांच उनके कस्बे में भी खुलने वाला है. उन्हें ख़ुशी ही हुई, अच्छा है उनके स्कूल पर बहुत ज्यादा भार पड़ रहा था .कुछ बच्चे उस स्कूल में चले जायेंगे .पर जब गर्मी की छुट्टियों के बाद स्कूल खुला तो उन्होंने पाया , उनके स्कूल के आधे बच्चे उस अंग्रेजी स्कूल में चले गए थे . नयी चमकदार बिल्डिंग थी. चमचमाती हुई स्कूल बस. लोग इस चमक-दमक के प्रलोभन में आ गए थे .पर उन्होंने फ़िक्र नहीं की .वे बहुत लगन से पढ़ाते हैं. उनके स्कूल के बोर्ड का रिजल्ट भी अच्छा होता है. बच्चे मन से पढेंगे .

पर उनकी आशा-निराशा में बदलती गयी . हर साल स्कूल के कुछ बच्चे उस स्कूल में चले जाते और उनके स्कूल में नए एडमिशन कम होने लगे .एक दिन तो राहुल भी जिद करने लगा कि महल्ले के सारे दोस्त अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं, वो भी वहीँ पढ़ेगा ,अंग्रेजी में बोलना सीखेगा . एक दिन उन्होंने बहाने से आस-पास रहने वाले और उस स्कूल में पढने वाले बच्चों को बुलाकर उनका टेस्ट लिया तो पाया कि बस ऊपरी चमक दमक ही है. बच्चों का मैथ्स और अंग्रेजी का ग्रामर बहत ही कमजोर है. उस स्कूल के दसवीं का रिजल्ट भी अच्छा नहीं आया फिर भी लोगों को ज्यादा परवाह नहीं थी. बच्चा अंग्रेजी के दो-चार शब्द बोल रहा है. कड़क युनिफौर्म में बस में बैठकर स्कूल जाता है ,यही देख लोग संतुष्ट हो जाते . खूब धूमधाम से वार्षिक प्रोग्राम मनाया जाता .लोग बताते ,एक महीने से स्कूल में पढ़ाई नहीं वार्षिक प्रोग्राम की ही तैयारी चलती रहती .शानदार स्टेज बनवाया जाता ,किराए पर कॉस्टयूम ,नृत्य-गीत सिखाने वाले बुलाये जाते . खूब रौनक होती . जबकि उनके स्कूल में तो प्रांगण में ही उन्होंने एक सीमेंट का चबूतरा बनवा रखा था .जिसे स्टेज के रूप में काम में लाया जाता .सारी तैयारी शिक्षक और बच्चे ही मिल कर करते .कपडे भी बच्चे अपने घर से या आस-पड़ोस से मांग कर पहनते . नीलिमा की निगरानी में सारी तैयारी होती . रामायण के अंश , हरिश्चंद्र ,बालक ध्रुव की कथा का मंचन किया जाता . इतने छोटे बच्चों की अभिनय कला देख वे अभिभूत हो जाते . रंग बिरंगी साड़ियों का लहंगा बना जब छोटी छोटी बच्चियां लोक नृत्य करतीं तो समां बंध जाता . पर उन्होंने सुना कि उस अंग्रेजी स्कूल में फ़िल्मी संगीत पर तेज नृत्य किये जाते हैं .और आजकल के बच्चों को वही अच्छा लगता . रोहन अपने दोस्तों से सीख कभी कभी नीलिमा और रोहिणी के सामने वो डांस करके दिखाता .वे हंसी से लोट पोट होती रहतीं पर अगर उनकी आहट भी मिल जाती तो सब चुप हो जाते और रोहन वहाँ से चला जाता . वह अब कम से कम उनके सामने आता .उन्हें अपना बेटा ही खोता हुआ नज़र आ रहा था .पर वे दिल को तसल्ली देते ,उनका एक ही बेटा नहीं है .स्कूल के सारे छात्र उनके बच्चे हैं, उन्हें सबकी चिंता करनी है .

राहुल के अन्दर आक्रोश भरने लगा था और इसे व्यक्त करने का जरिया उसने अपनी पढ़ाई को बनाया .वह अपनी पढ़ाई के प्रति लापरवाह होने लगा. रत्नेश शर्मा स्कूल के काम में इतने  उलझे होते कि नीलिमा के बार बार कहने पर भी राहुल पर विशेष ध्यान नहीं दे पाए .वहीँ बिटिया रोहिणी बिना शिकायत किये उनके स्कूल में ही बहुत मन से पढ़ती. वे नीलिमा से कह देते , “रोहिणी भी तो राहुल की क्लास में ही है, उसे भी कहाँ पढ़ा पाता हूँ वो कितने अच्छे नंबर लाती है.” नीलिमा कहती, “सब बच्चे अलग होते हैं ,उन्हें अलग तरीके से ध्यान देने की जरूरत है .” पर स्कूल की चिंता में उलझे वे इस बात की गंभीरता को नहीं समझ पाते .रोहिणी दसवीं में भी मेरिट में आयी . राहुल सेकेण्ड डिविज़न से पास हुआ .अब शहर जाकर कॉलेज में एडमिशन कराना था . उनका बहुत मन था ,दोनों बच्चों को होस्टल में रख कर पढ़ाएं .पर अब पैसों की कमी बहुत खलने लगी थी .वे अपने वेतन का बड़ा हिस्सा भी स्कूल की जरूरतें पूरी करने में खर्च कर देते . नीलिमा उनकी मजबूरी समझती थी. उसने रोहिणी को शहर में रहने वाली अपनी बहन के पास भेजकर पढ़ाने का प्रस्ताव रखा .उन्होंने बहुत बेमन से हामी भरी .रोहन को कम से कम खर्चे में हॉस्टल में रह कर पढ़ाने का इंतजाम किया .उस पूरी रात वे सो नहीं पाए .अपने बच्चों के लिए वे उच्च शिक्षा और जरूरी सुविधाएं भी नहीं जुटा पा रहे हैं . वर्षों पहले लिया गया उनका निर्णय क्या गलत था ? उन्होंने भी नौकरी की होती तो आज ऊँचे पद पर होते और अच्छे पैसे कमा रहे होते .पर फिर उन्होंने  सर झटक दिया ,वे इतना स्वार्थी बन कर कैसे सोच सकते हैं ? इस स्कूल के माध्यम से कितने ही बच्चों को शिक्षा मिली, उनका जीवन संवर गया . अपने बच्चों को थोड़ी विलासिता की वस्तुएं नहीं जुटा सके तो इसका अफ़सोस नहीं करना चाहिए .

वक़्त गुजरता गया . उनका मन था रोहिणी भी पढ़ लिख कर आत्मनिर्भर हो जाए तभी उसकी शादी करें .वो पढने में तेज थी .कम्पीटीशन पास कर बड़ी अफसर बन सकती थी . पर फिर उनकी मजबूरी आड़े आ गयी .बी ए. के बाद राहुल ने दिल्ली जाकर पढने की इच्छा व्यक्त की और उन्हें उसे वहां भेजने के लिए पैसे का इंतजाम करना पड़ा. रोहिणी ने विश्वास दिलाया,उसके पास किताबें हैं.वो घर पर रहकर ही तैयारी करेगी .पर इसी बीच उनके एक पुराने मित्र ने अपने बेटे के लिए बिना किसी दान दहेज़ के रोहिणी का हाथ मांग लिया .नीलिमा ने उन्हें बहुत समझाया कि हमारे पास पैसे नहीं हैं और बिना पैसे के ही इतना अच्छा घर वर मिल रहा है .आपके मित्र हैं , बिटिया शादी के बाद भी पढ़ लेगी .रोहिणी ने भी निराश नहीं किया . अफसर तो नहीं बन पाई पर बी.एड की पढाई की और फिर शिक्षिका बन गयी . राहुल भी किसी प्राइवेट कम्पनी में है .अपने खर्च के पैसे निकाल लेता है .घर बहुत कम आता है, आता भी है तो उनसे दूर दूर ही रहता है. नीलिमा से ही उसके हाल चाल मिलते हैं .


धीरे धीरे उनके स्कूल में बच्चे बहुत ही कम हो गए .कुछ गरीब घर के बच्चे जो अंग्रेजी स्कूल की फीस नहीं दे सकते थे .बस वही आते. उनके स्कूल के शिक्षक भी ज्यादा वेतन पर उस अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने चले गए . बच्चे कम हो गए. फीस नहीं जमा हो पाती. स्कूल की मरम्मत भी नहीं हो पाती स्कूल की हालत खस्ता होती गयी. अब पहले वाली रौनक भी नहीं रही. अपनी आँखों के सामने अपने सपनों को परवान चढ़ते और फिर यूँ धीरे धीरे बिखरते देख , रत्नेश शर्मा का ह्रदय रो देता .ऐसे ही  बुझे मन से बैठे थे कि दरवाजे के सामने एक कार रुकी . उन्हें लगा कोई किसी का पता पूछ्ने आया है .वरना उनके यहाँ कौन आएगा .एक सज्जन अपने एक छोटे से बेटे के साथ उतरे और उनके घर की तरफ ही बढ़ने लगे . रत्नेश शर्मा उठकर कर खड़े हो गए . वे सज्जन उनके पैरों तक झुक आये और अपने बेटे को बोला, “मास्टर जी को प्रणाम करो ,आज जो कुछ भी हूँ इनकी पढ़ाई की वजह से ही हूँ . आपने पहचाना नहीं मास्टर साब मैं जितेन ,मैंने मेडिकल किया और फिर विदेश चला गया. अपने देश लौटा तो सबसे पहले आपकी चरणधूलि लेने चला आया . मैंने अपने बेटे को आपके बारे में बहुत कुछ बताया है.कितनी मेहनत से आप पढ़ाते थे . शाम को अचानक हमारे घर आ जाया करते थे,देखने कि हमलोग घर पर पढ़ रहे हैं या नहीं. “ रत्नेश शर्मा की आँखें धुंधली हो आयीं . मेहनत कभी व्यर्थ नहीं जाती . उनका खोया आत्मविश्वास फिर से जागने लगा . वे दुगुने जोश से भर गए. जितने बच्चे हैं उनके स्कूल में, उन्हें ही मन से पढ़ाएंगे . किसी की ज़िन्दगी बना पायें इस से ज्यादा और क्या चाहिए उन्हें .

मंगलवार, 6 मई 2014

क्या दिल्ली क्या लाहौर : दोनों का दर्द यकसाँ

कभी  रेस्तरां में बैठ कर अकेले कॉफ़ी पी थी और उन अनुभवों पर यहाँ एक पोस्ट भी लिख डाली थी. उस पोस्ट पर अंशुमाला  ने कमेन्ट किया था , "कभी अकेले सिनेमा जाकर भी देखिये, अच्छा अनुभव रहेगा " पर मुझे लगा ये मैं कभी नहीं कर पाउंगी पर जब 'लक्ष्मी ' जैसी कई कला फ़िल्में देखने से छूट गयीं (ये फ़िल्में बस एक हफ्ते ही थियेटर में रहती और जब तक फ्रेंड्स के साथ प्लान बने वे निकल जातीं ) तो सोचा अब अकेले ही फ़िल्में देखना शुरू करना होगा पर अब कानों को पांच बार हाथ लगा लिया. 'आर्ट मूवी  तो कभी अकेले नहीं देखनी '. एक फ्रेंड के साथ 'क्या दिल्ली क्या लाहौर ' देखने का प्लान हुआ. हम लोग समय से ही निकले पर जगह जगह रास्ते की  खुदाई ने ट्रैफिक जाम कर रखा था. देर तो हो ही गयी थी, मेरी फ्रेंड टिकट लेने के लिए थियेटर के सामने ही उतर गयी और मैं अकेले बेसमेंट में गाडी पार्क करने चली गयी कि समय की बचत होगी. वहाँ से भागते हुए हम सीधा थियेटर का दरवाजा खोल अन्दर जाने को हुए कि एक अटेंडेंट ने रोक दिया, 'अभी फिल्म शुरू नहीं हुई है, दरवाजा बंद है ' हमने आस-पास नज़र दौडाई हमारे सिवा वहां कोई नहीं था . तब पता चला हम दोनों ही हैं बस. हम अन्दर गए ,अब सीट नंबर क्या देखना था. अटेंडेंट ने भी कहा ,"जहां मर्जी हो  बैठ जाइए " और उसने पीछे इशारा किया कि फिल्म शुरू करो.  हम दोनों हंस रहे थे कि एक तो गोल्ड क्लास लाल रंग का  आरामदायक  recliners sofa ...हमारे लिए बिलकुल प्राइवेट स्क्रीनींग  हो गयी ये  तो. वो अटेंडेंट उत्साह में आकर हमलोगों को दिखाने लगा ,ऐसे बटन दबाईएगा तो सीट ऊपर आ जायेगी (जैसे हमें नहीं मालूम ) और कहते मेरी सीट ऊपर कर दी. तब तक परदे पर राष्ट्रगीत शुरू होने का सन्देश आया. मैं चिल्लाई , "नीचे करो सीट ,मुझे खड़े होना है ".'जन गण मण' के बाद सीधा फिल्म ही शुरू हो गयी . अब हम दो लोगों के लिए क्या विज्ञापन वाली रील चलाते . फिल्म शुरू होने के बाद हमलोग बिलकुल फिल्म में  में खो गए . अहसास भी नहीं रहा कि हॉल भरा हुआ है या खाली . फिल्म शुरू होने के दस मिनट बाद एक सज्जन आये . उसके दस-पंद्रह मिनट बाद एक और सज्जन आये और बड़ी मशक्कत से मोबाइल की  रौशनी में अपना सीट नंबर ढूंढ कर बैठ गए. उन्हें अँधेरे मे पता नहीं चल पाया कि हॉल तो बिलकुल खाली है . पर पता नहीं क्या सोच कर वे फिल्म देखने आये थे ,दस मिनट देखने के बाद ही फिल्म छोड़ निकल गए . (अपनी   टिकट के पैसे का भी मोह नहीं किया ) आधे घंटे बाद एक कपल आये और कुल मिलकर हम पांच लोगों ने ये फिल्म देखी . वो अटेंडेंट बीच बीच  में आकर हमें देख जाता कि हम ठीक तो हैं .

यह फिल्म भारत-पकिस्तान विभाजन की पीड़ा को दर्शाती है. दोनों ही तरफ एक से लोग हैं एक सी उनकी समस्याएं हैं .फिर भी एक दुसरे के दुश्मन बने बैठे हैं. फिल्म में सिर्फ दो मुख्य पात्र हैं और उनके संवादों के जरिये ही फिल्म आगे बढती है. युद्ध के बीच अपनी अपनी सेना की  टुकड़ियों में ये दोनों ही बचे हुए हैं .रहमत अली(विजय राज ) को हिदुस्तानी चौकी से एक फ़ाइल चुरानी है और समर्थ (मनु ऋषि )उस चौकी की रक्षा में अकेला ही तैनात है. दोनों ही एक दुसरे की तरफ बन्दूक ताने एक दुसरे को भला बुरा कहते हैं,गालियाँ  देते हैं और उन्हीं बातों में पता चलता है कि  रहमत अली ,तीस साल दिल्ली में गुजार कर अब पकिस्तान की फ़ौज में भर्ती हो गया है और  समर्थ, पैंतीस साल लाहौर में बिता कर अब भारत की  फ़ौज में बावर्ची बन गया है. दोनों ही अपने अपने वतन , वहां के लोग, वहाँ की  गलियों को शिद्दत से याद करते हैं जो अब उनके लिए बेगाना हो गया है . रहमत अब पकिस्तान में है पर ,उसकी सारी यादें दिल्ली  से जुडी हुई हैं और उसे दिल्ली  ही अपनी लगती है . समर्थ अब भारत में है, पर उसकी  जड़ें लाहौर में है ,लाहौर ही उसे अपना और दिल्ली बेगाना लगता है.

दोनों ही देशों की सेना के  जवान एक से हैं. घर पर बूढ़े माता-पिता , बीवी बच्चे हैं .उनके  बैग में  बेटे के खिलौने हैं .जेब में बीवी--बच्चों की तस्वीर है .दोनों देशों के राजनीतिज्ञ आरामदायक कमरों में बैठे बिसातें चलते रहते हैं और जलती धूप ,हड्डियाँ जमाती सर्दी में जवान भूखे-प्यासे लड़ते रहते हैं .

युद्ध की  निरर्थकता के साथ ही यह फिल्म इस त्रासदी को भी उजागर करती है ,जिससे लाहौर से आये लोग भारत में और दिल्ली से गए लोग पकिस्तान में जूझते  रहते हैं . फिल्म में दो और पात्र हैं जो बहुत बाद में आते हैं और दोनों भारत और पकिस्तान के मूल निवासी हैं .वे लोग दुसरे मुल्क से आये लोगों को गद्दार समझते हैं, उनपर भरोसा नहीं करते जबकि ये लोग अपना सब कुछ लुटा कर जिस मुल्क में रहते हैं उसे ही अपना समझते हैं पर उन्हें हमेशा शक की निगाह से देखा जाता है .

 कथ्य और अभिनय के अलावा फिल्म के और किसी पक्ष को उभारने की कोशिश नहीं की गयी है. लोकेशन  फिल्मांकन, गीत संगीत कुछ भी उल्लेखनीय नहीं है . पर फिल्म पूरे समय बांधे रखने में सक्षम है गुलज़ार की आवाज़ में उन्ही की कविता की पंक्तियों से फिल्म शुरू होती है

लकीरें हैं तो रहने दो ,
किसी ने रूठकर गुस्से में शायद खींच  दी थीं
इन्हीं को अब  बनाओ पाला
और आओ अब कबड्डी खेलते हैं ..

 विजय राज ने अपनी पहली निर्देशित फिल्म में लीक  से हटकर कुछ करने की कोशिश की है. चारों पात्र का अभिनय सराहनीय है .

( साढ़े चार  साल हो गए ब्लॉग शुरू किये  पर दो पोस्ट के बीच कभी इतना लंबा अंतराल नहीं आया. ऐसा नहीं कि विषय नहीं आये दिमाग में , कहानी लिखी हुई रखी  है, सामयिक विषयों, फिल्मों पर लिखना था पर वही फेसबुक की महिमा .वहाँ एक पैराग्राफ लिख  दिया . कई बार लम्बा  विमर्श भी  हो गया और उस विषय को विस्तार मिल गया पर  ब्लॉग सूना ही रह गया .इसलिए इस बार सोचा पहले ब्लॉग पर ही लिखूंगी फिर फेसबुक  अपडेट )

फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...