सोमवार, 23 दिसंबर 2013

जीना इसी का नाम है

 ये पोस्ट सत्रह दिसंबर को ही लिखनी थी. समय पर किया काम ही अच्छा लगता है पर अन्यान्य कारणों से नहीं हो  पाया. पर मन में था तो हफ्ते भर बाद ही सही.  
सोलह दिसंबर का दिन मेरे लिए दो वजहों से रोज से बहुत अलग था.
एक तो निर्भया के साथ पिछले साल इसी दिन वह हादसा हुआ था. टी.वी.,अखबार, सोशल नेटवर्क सब जगह  उस घटना की ही चर्चा थी कि कैसे निर्भया अपने शरीर में शक्ति  के आखिरी कतरे तक जी जान से लड़ी थी .आत्मसमर्पण नहीं किया था ,भले ही उसके शरीर की दुर्दशा कर दी गयी और भयंकर कष्ट झेलकर आखिर वह इस दुनिया से विदा हो गयी . निर्भया  के इस बलिदान से ,उस समय जो गुस्से का जलजला उठा वो युवाओं में विरोध की ताकत दे गया. हर उम्र के लोगों ने पानी की मार झेली ,पुलिस के डंडे खाए और विरोध जारी रखा .आखिर क़ानून को सख्त बनाना पड़ा. निर्भया तो चली गयी पर देश की सारी लड़कियों में साहस का एक बीज जरूर प्रतिरोपित कर गयी . क्यूंकि वह आखिरी दम तक लड़ी थी , अपने ऊपर हो रहे अत्याचार का पुरजोर विरोध किया था .और जब होश आया तो उसने ये नहीं कहा कि वो 'शर्म से मर जाना चाहती है ' उसने कहा,'वो जीना चाहती है '

एक लड़की के इस साहस से लोगों को बहुत बल मिला. कई लोग कहते हैं , निर्भया के साथ हुए इस हादसे के बाद रेप की संख्या बढ़ गयी है. ऐसी  बहुत सारी खबरे मिलने लगी हैं. जबकि हुआ ये है कि  लडकियां अब शिकायत दर्ज करवाने लगी हैं, उनके माता-पिता ,रिश्तेदार भी उसे चुप रहने की सलाह देने की जगह ,पुलिस में जाकर रिपोर्ट करवा रहे हैं . क्यूंकि अब यह शर्म से मर जाने की बात नहीं है बल्कि जीकर अपराधी को सजा दिलवाना ज्यादा महत्वपूर्ण है.
सिर्फ रेप ही नहीं, छेडछाड , अनचाहे स्पर्श का भी विरोध किया जा रहा है .

वरना अब तक होता ये आया है कि ऐसी विकृत मानसिकता वाले  लोग समाज में  विभिन्न रिश्तों का लबादा ओढ़ कर बचते आ रहे थे/हैं. हमारे समाज की शायद ही कोई ऐसी लड़की हो जिसे भीड़-भाड़ में ,बस, ट्रेन या अपने जाने-पहचाने लोगों से कभी किसी अनचाहे स्पर्श का सामना न करना पड़ा हो. हमारे पड़ोस की एक लड़की थी , उसे एक बूढ़े मास्टर पढ़ाने आते थे . उसकी माँ आवाजें लगाती रहती और वो छत पर हमारे साथ बैठी रहती, बड़ी अनिच्छा से पढ़ने जाती. बताती कि माता-पिता मास्टर साहब (?) के पैर  छूकर प्रणाम करने को कहते और मास्टर साहब इस तरह से उसकी पीठ पर हाथ फेर कर आशीर्वाद देते कि वो वितृष्णा से भर  जाती. पर अपने माता-पिता से वो कुछ कह नहीं पाती, पैर छूने से मना करती थी तो उसे डांट ही पड़ती . पढने से हट कर सारा ध्यान इसमें लगा होता कि कैसे वह जल्दी से पैर छूकर भागे कि वे उसे आशीर्वाद न दे  सकें .
एक फ्रेंड है ,उसकी शादी के कुछ ही दिनों बाद ससुराल में एक पूजा हुई , पूजा पर वही पति के साथ  बैठी थी. पर खानदानी  पुजारी बार बार बहाने से उसका हाथ स्पर्श करे.

वो खानदानी पुजारी और ये घर की नयी बहू , कुछ कह भी न सके.

ऐसी या इस से भयावह जाने कितनी कहानियां हमारे आस-पास बिखरी पड़ी हैं. पर अब लगता है, इनमे कमी आएगी. अब लडकियां शर्म-संकोच छोड़कर विरोध कर रही हैं. और अच्छी बात ये है कि उनका विरोध अनसुना नहीं किया जा रहा . लोग ध्यान देने लगे हैं और उनके विरोध में शामिल भी हो रहे हैं. माएं अब लड़कियों पर ज्यादा ध्यान देने लगी हैं . उन्हें कम उम्र में ही आगाह करने लगी हैं, इस से अच्छी बात ये हुई है कि ऐसी किसी घटना का सामना करना पड़ा तो लड़की  उसी वक़्त विरोध कर सकती हैं क्यूंकि उसे पता है ,अब उसकी बात सुनी जायेगी और उसके पैरेंट्स उसके साथ होंगें. मिडिया में किसी बात का भी बहुत शोर होता है , चौबीसों घंटे वही चर्चा . कभी-कभी परिवार के साथ न्यूज़ चैनल्स देखना मुश्किल हो जाता है. चाहे कितना भी कम टी.वी. ऑन करें पर इन विषयों से बचना मुश्किल होता है. पर एक अच्छी बात ये होती है कि ये शब्द सुनते ही अब नज़रें झुकाने ,वहाँ से चले जाने का प्रचलन ख़त्म हो गया है. अब ये  सामान्य से शब्द लगने लगे हैं.  इन विषयों पर बात होनी जरूरी थी. शर्म -संकोच की दीवार टूटनी जरूरी थी. जब ऐसी विकृतियाँ समाज में हैं तो उसपर बात क्यूँ  न की जाए, उनसे बचने के प्रयास और बच्चियों को आगाह क्यूँ न किया जाए.

और इन सब विषयों पर यूँ सार्वजनिक रूप से चर्चा होने पर अब ऐसी विकृत मानसिकता वाले भी
 संभल गए हैं. अभी शोभना चौरे जी ने अपनी पोस्ट में जिक्र किया है कि उनकी भतीजी किसी शख्स की चर्चा कर रही थीं, जिनकी आदत थी लड़कियों को गले लगाकर अभिवादन करने की .और हर लड़की अपने सिक्स्थ सेन्स से ऐसे स्पर्श को पहचान जाती है. वे अब सबको दूर से नमस्ते कर अभिवादन कर रहे थे . अच्छा है ऐसे लोग संभल जाएँ, वरना अब तो उनका बचना मुश्किल ही है. और सबकी सोच में ये परिवर्तन आया है ,निर्भया के बलिदान से . अपनी ज़िन्दगी देकर , कई जिंदगियां बचा लीं  उसने. 

कई बार ,ऊपर से सब ठीक लगता है...लड़की सामान्य लगती है. पर इस तरह की घटनाएं उनके मस्तिष्क पर ऐसा गहरा असर डालती हैं कि वे ताजिंदगी एक सामान्य जीवन नहीं  बिता पातीं. मनोवैज्ञानिकों के पास कितने ही ऐसे केस आते हैं , जहाँ माता-पिता को समस्या कुछ और दिखती है...और उनके मन के भीतरी तह में छुपा कारण ये होता है.
बस आशा और प्रार्थना है कि निर्भया का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा...और हर लड़की और उसके माता-पिता अब एक्स्ट्रा सजग रहेंगे .


एक और वजह से ये दिन और दिनों से अलग था ..डा. कौसर जो अचानक ही हमें छोडकर चले  गए . १६ दिसंबर को उनका जन्मदिन था . 15 दिसंबर की रात  बारह बजे से ही डा. कौसर को याद करने वालों के मैसेज से  उनकी पूरी FB wall भरी हुई थी. इतनी आजीज़ी  से सब याद कर रहे थे . कोई कह रहा था ..'प्लीज़ कम बैक सर..' कोई  कह रहा था..." अब अमुक फंक्शन आपकी शेरो शायरी के बिना कैसे पूरा होगा ' या 'अमुक फंक्शन  में सब होंगे बस फंक्शन की जान आप नहीं...' कोई  जैसे एक जिद के साथ कह रहा था," हम आपका बर्थडे हर बार की तरह ही मिलकर मनाएंगे ..केक काटेंगे...पार्टी करेंगे ...आप कहीं नहीं गए हैं, हमारे बीच  ही हैं. " " सबसे टचिंग था उनकी पत्नी भावना का  मैसेज 
Happy birthday sweetheart.waiting to b together again...... " और उनकी हाँ में हाँ भी नहीं मिलाया जा सकता था .

अपने जाने के बाद इतना बड़ा खालीपन छोड़ गए वो कि सब हर पल  उनकी कमी महसूस  करते है.  जानने वाले ही नहीं अनजान  लोग भी उनके जीवन से कोई सीख ग्रहण करें,ये  बहुत बड़ी बात है. मेरे एक मित्र जो महीनो गायब रहते हैं फिर अचानक प्रकट होकर मेरी कोई पोस्ट डिस्कस करने लगते हैं. डा. कौसर वाली पोस्ट पढ़कर कहने लगे . "मुझे भी डा. कौसर जैसा बनना है ' ..मुझमें बहुत सारी  खामियां हैं...मुझे वो सब दूर करनी हैं...मुझे जल्दी गुस्सा  नहीं होना..लोगों के अहसास का ध्यान रखना  है, लोगों को खुश रखना  है ...इतना तो मैं कर ही सकता हूँ, ...इस से मेरे आस-पास वालों की ज़िंदगी आसान हो जायेगी ."
एक छोटी सी इस पोस्ट पढ़कर ही जब लोग इतनी प्रेरणा ले रहे हैं तो उनके साथ रहने वाले...उनसे मिलने जुलने वाले....कितने प्रेरित होते होंगे .

ऐसे लोग दुनिया में थोड़े दिन गुजार कर ही अपना जीना सार्थक कर जाते हैं, लोगों की ज़िंदगी बदल जाते हैं...ईश्वर ऐसे लोगों को धरती पर भेजता रहे पर फिर इतनी जल्दी वापस न बुलाये...:(

10 टिप्‍पणियां:

  1. तरस, दया, हमदर्दी खाकर ,हाथ फेरना बुड्ढों का !
    यह तो वही पुराना फंडा,उस्तादों की फितरत का !

    पढ़े लिखे क्या समझ सकेंगे,मक्कारों की बस्ती में !
    कितने भेद छिपाए बैठा , एक दुपट्टा, औरत का !

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  2. मर्यादा की रेखायें बहुत ही स्पष्ट खींचना चाहिये, तब किसी को भी कोई संभावित छूट न हो।

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  3. जैसे जैसे नारी जागृत होती जायगी ... समाज में बदलाव आता रहेगा ... आत्म्समान जगाना जरूरी है नारी का ... श्रृष्टि की दो प्रमुख रचनाओं को एक दूसरे का आदर करना होगा तभी समाज सहज चलेगा ..

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  4. वी पर बलात्कार सम्बन्धी ख़बरें बाढ़ -सी हैं। ये संवेदनाओं को झकझोरती है या पत्थर बनाती है , इस पर अभी संशय में हूँ। अभी सकारात्मक पक्ष पर ही कहती हूँ कि लड़कियां साहसी हो रही है और इन घटनाओं से गुजरने वाली लड़कियों के लिए एकमात्र रास्ता आत्महत्या का नहीं है , वे इसके बाद की परिस्थितियों का डटकर मुकाबला कर रही हैं।
    डा. कौसर के बारे में पढ़ा था तुम्हारी पोस्ट से। ईश्वर की मर्जी माने बिना इस दर्द का कोई मरहम नहीं हो सकता। उनके परिवार तक हमारी संवेदनाएं भी पहुंचे !

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  5. दोनों ही पोस्ट्स बहुत सम्वेदंशीलता से लिखी गयी हैं.. ऐसा लगा मानो वे दुर्घटनायें फिर से सामने से गुज़र गयीं... निर्भया की आत्मा को शांति मिले और डॉक्टर साहब तो कहीं गये ही नहीं.. उन्हें हैप्पी बर्थ डे!!

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  6. घटनाएं पहले भी घट रही थीं...देखने की यह दृष्टि लोगों को हाल ही में मिली लगती है...बहरहाल अच्‍छा संकेत है..।

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  7. निर्भया ने नारी जागृति कि जो मशाल जलाई है वो जलती रहनी चाहिए ताकि लड़किया साहसी बनी रहे और अपने रस्ते पर निडर होकर चल सके

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  8. जब ये घटना हुई थी तभी मैंने कहा था कि मै चाहती हूँ कि वो हर हाल में जिन्दा रहे और अपराधियो को उनके अंजाम तक जाते हुए देखे , उसके न बच पाने का अफसोस आज भी है , हा ये सही है कि घटाए बढ़ी नहीं होंगी उनकी रिपोर्टिंग बढ़ी होगी , कुछ लोग सुधर जाये प्रतिक्रिया के डर से यही उम्मीद है । डा कौसर के बारे में बहुत देर से जाना , अफसोस है :(

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  9. रश्मि जी,वैसे तो पोस्ट पर मैं विस्तार से कुछ और कहने वाला था लेकिन वाणी जी की टिप्पणी पढ़ इस तरफ ध्यान गया कि इस मामले में मैं भी जहाँ भी कुछ कहता हूँ नकारात्मक और निराशाजनक बात ही कहता हूँ जो हर मौके पर कहना सही नहीं है(हालाँकि मैंने अपने विचार बदले नहीं हैं)।ऐसे केस अब ज्यादा फाइल होने लगे हैं ये अच्छी बात है।ज्यादा अच्छा होगा यदि कोई लड़की इस तरह के मामले को सामने लाए तो उसके घरवालों के साथ ही उसके दोस्त भी उसके साथ सामान्य व्यवहार करें।ताकि दूसरी पीडिताओं को भी लगे कि यह कोई बहुत बड़ा काम नहीं है जो वे कर ही न सकें।बच्चों पर आमतौर निगरानी तो रखी जाती है लेकिन भारतीय अभिभावकों में कमी यही है कि वे खुद बच्चों को कुछ नहीं सिखाते कि कैसा व्यवहार गलत है और कैसा सही ताकि बच्चे उन्हें बता सकें।इस ओर ध्यान देना चाहिए।डाँ कौसर के व्यक्तित्व के बारे में आपकी पोस्ट पढ़ी थी।लगा कि हम भी उनसे मिल लिए हैं।

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  10. रश्मिजी,

    एक और बढिया पोस्ट के लिये बहुत बहुत शुक्रिया। पता नहीं क्यों मैं आजकल भारत और भारतीय समाज के बारे मे बहुत ज्यादा सोचनेलगी हूँ। तो कुछ अनुभव मैं यहाँ share करना चाहूंगी। जैसे आपने उदाहरण दिये हैं भारत मे काफी सारे भेड़ की खाल मे भेड़िये घूम रहे है। जब मैं १२th क्लास मे थी तब अपने पापा और दीदी ने मुझे समझाया की यदि कभी कोई लड़का मुझे गंदे ढ़ग से टच करता है तो मुझे सहन नहीं करना चाहिये और ये बात मुझे ज़िंदगी मे काफी काम आई।

    मेरे मास्टर्स के टाइम भी एक बार अंधेरी सड़क से जाते हुए एक आदमी ने मुझे गलत ढंग से स्पर्श करने की कोशिश की तो मैने उसे गाली दी और उसे मारने दौड़ पड़ी। बेचारा अपनी जान बचाकर भाग गया। मेरे अनुभव से जो लोग इस तरह की हरकतें करते है। उनमे कोई हिम्मत नहीं होती वो भीतर से काफी डरपोक होते है। दामिनी मुझे अपना ही रूप लगती है बिल्कुल मेरी छोटी बहन जैसी, काश वो बच जाती। उसे इतनी तकलीफ सिर्फ इसीलिये मिली क्योंकि उन डरपोक लोगो को एक मौका मिल गया।

    वैसे मेरा कहना ये है की मुझमे बाकी सब नॉर्मल है (बाकी इंडियन लड़कियो की तरह) बस! मे ऐसा अन्याय बर्दाश्त नहीं कर सकती। इसी कारण मुझे लोग "झाँसी की रानी" या "very bold" भी कहते है, मेरे ख्याल से एक औरत का साहसी होना feminine और normal consider किया जाना चाहिये

    काश! मेरे पापा की तरह बाकी लड़कियो के पापा भी उनसे कहे "लो यह sandle! यदि कोई तुझे हाथ लगाये तो उसके मुह पर मारना" मेरे विचार मे एक मजबूत आदमी (परिवार) ही एक औरत को मजबूत बना सकता है। ये मजबूती कोई सेल्फ डिफेन्स की क्लास या लॉ नहीं दे सकता।
    डॉक्टर कौसर को मेरी भी श्रधान्जली

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