शुक्रवार, 23 अगस्त 2013

रसातल और कितनी दूर

स्कूल कॉलेज के दिनों में बिहार में माँ के साथ उत्तर बिहार से दक्षिण बिहार का (जो अब झारखंड है ) रात में बस से लंबा सफ़र किया है . एक बार तो  'तिलैया सैनिक स्कूल' में छोटे भाई से मुलाकात कर लौटते वक़्त तिलैया के छोटे से बस स्टैंड पर हम माँ  -बेटी को बस के इंतज़ार में देर रात तक रुकना पडा था पर हमें किसी तरह का डर भी नहीं लगा था और हम बस पकड़ छः घंटे का सफ़र कर सकुशल घर पहुँच गए थे.
 

एक सहेली के साथ कई बार लगभग खाली पिक्चर हॉल में दोपहर के शो देखे हैं. जब पूरी बालकनी में सिर्फ हम दो सहेलियां ही हुआ करती थीं. पर हमें कभी अपने लड़की होने का कोई डर नहीं लगा .हमारे पैरेंट्स भी हमें जाने की इजाज़त देते थे ,इसका अर्थ उन्हें भी किसी अनहोनी की आशंका नहीं थी.
 

जब मुम्बई शिफ्ट हुई उस वक्त घर पर फोन नहीं था और रात ग्यारह के बाद कॉल चार्ज वन फोर्थ हो जाते थे . मैं और पड़ोस में रहने वाली एक फ्रेंड ,अपने अपने पति और बच्चों को खिला-पिला-सुला कर करीब एक  किलोमीटर चलकर मार्किट एरिया में फोन करने जाते और फिर आइसक्रीम खाते हुए, गप्पें लड़ाते हुए ,आराम से लौटते. मुम्बई की यह बात मुझे बहुत ही भली लगती . आश्चर्य भी होता और ख़ुशी भी कि इतनी आजादी है यहाँ..लडकियां/औरतें इतनी सुरक्षित हैं .
 

जब कभी परिवार के साथ देर रात लोकल ट्रेन से लौटना होता तो देखती कई लडकियां अकेले लौट रही हैं .वे प्लेटफॉर्म  पर उतर जातीं, फिर भी मेरी आँखें दूर तक उनका पीछा करतीं .कितने आत्मविश्वास से भरी हैं ये लडकियां. अब यहाँ से ऑटो या बस ले अकेले ही घर जायेंगी ..महिलाओं की ये तरक्की देख ,मन गर्व से भर जाता . कभी किसी फ़िल्मी अवार्ड समारोह में या ज़ी टी.वी. के 'सा रे  गा मा' , या 'अन्त्याक्षरी' का शो देखने जाती तो अच्छा लगता देख , प्रोडक्शन टीम में आधे से ज्यादा लडकियां ही होतीं . अक्सर रात के बारह-एक बजे शो ख़त्म होता तो मैं यही सोचती अब जाकर ये लडकियां घर जा सकेंगी .कितने इत्मीनान से इतनी देर तक  बाहर रहती हैं .कोई डर नहीं इन्हें और एक बार मुम्बई को मन ही मन थैंक्स कह देती.

एक बार ऐसा मौका भी आया, जब मैं,मेरी फ्रेंड और उसकी ननद एक शो देखने गए और रात के करीब एक बजे लौटे. मेरे लिए वह पहला मौक़ा था जब इतनी देर रात सहेलियों के साथ अकेले लौट रही थी. फ्रेंड ही ड्राइव कर रही थी. वह काफी पहले से मुम्बई में रह रही थी और एक वही आत्मविश्वास से भरी हुई थी .मेरे लिए और यू.पी.से आयी हुई उसकी ननद के लिए यह नया अनुभव था ...थोडा रोमांच भी था , और एक आज़ादी का अहसास भी .

पर यह सब तेरह-चौदह  साल पहले की बात है . मैंने धीरे धीरे मुम्बई को बदलते देखा है. सिर्फ मुम्बई ही क्या पूरे देश को ही बदलते देख रही हूँ. देश के हालात बद से बदतर होते जा रहे है . हर शहर से लूट-पाट, ह्त्या ,बलात्कार की ख़बरें सुर्ख़ियों में होती हैं.
एक तरफ विज्ञान और तकनीक में प्रगति की ख़बरें मिलती हैं और दूसरी तरफ मानवीयता जैसे रसातल में जा रही है.
  
करीब तेरह साल पहले मैं बिना किसी डर के ,देर रात सिर्फ महिलओं के साथ अकेली लौटती हूँ .और अभी दो दिन पहले की राखी के दिन की  बात है . अब ऑफिस में राखी की छुट्टी तो होती नहीं , लिहाजा रात में ही राखी  बाँधने का कार्यक्रम संपन्न होता है. लौटते वक़्त रात के सवा बारह बज गए . बेटे को काफी खांसी जुकाम था . उसने कहा,' कार की ए.सी. बंद कर दो.' पर मैं ए.सी. बंद कर कार की खिडकी के शीशे  नीचे करने में डर गयी क्यूंकि मैंने सोने का मंगलसूत्र पहना हुआ था और ड्राइव कर रही थी, इसलिए इतना मौका नहीं था कि उसे निकाल कर पर्स में रख दूँ . डर था कि सिग्नल पर या धीमी ट्रैफिक होने पर कोई गले से खींच न ले.

कई वर्षों से मॉर्निंग वॉक पर जाती हूँ , हमेशा हम सहेलियां गले में सोने की चेन और हाथों में सोने के कड़े या चूड़ियाँ पहने होती थीं. पर पिछले तीन -चार साल से मॉर्निंग वॉक पर जाने वाली महिलाओं के गले से चेन छीनने की घटनाएं इतनी आम हो गयी हैं कि मोटरसाइकिल पर पुलिस गश्त लगाती रहती है और जिनलोगो ने चेन पहने होते हैं उन्हें पास बुला कर चेन पहनने से मना करती है. अभी कुछ महीनों से तो देख रही हूँ . बीच में पुलिस चौकी सा ही बना दिया गया है और  सुबह सुबह एक पुलिसमैन वहाँ तैनात रहता है. हम सबने चेन,मंगलसूत्र  और कड़े पहनना छोड़ ही दिया है कि अब रोज पहनने और उतारने की इल्लत कौन पाले.

पहले देर रात अकेले काम से लौटती लड़कियों को देख मन गर्व से भर जाता था और मैं दूर तक उन्हें जाते हुए देखती रहती थी पर अब ख़ुशी और गर्व की जगह आशंका और डर ही ले लेगा. अब शायद किसी अकेली लड़की को देख डरा हुआ मन बस ये दुआ करेगा कि वो जल्द से जल्द सुरक्षित अपने घर पहुँच जाए.

बाईस साल की जीवन से भरपूर लड़की ,अपनी रूचि का काम पाकर कितनी खुश होगी. कितने मंसूबे होंगे उसके ,कितनी बेफिक्र होगी वह ...पर उन वहशियों ने पल भर में उसकी ज़िन्दगी तहस-नहस कर डाली. ईश्वर करे...वो लड़की इन सबको एक भयानक हादसा समझ भूल जाए और अपनी आगे की ज़िन्दगी,उसी उत्साह और उमंग  के साथ जिए. पर इन सबसे उबरने में जो समय लगेगा, उसका हिसाब कौन देगा ?? उसने जो शारीरिक और मानसिक यातनाएं झेलीं ,कौन होगा इसका जिम्मेवार?? 

बहसें शुरू हो गयी हैं , सरकार, प्रशासन, पुलिस, क़ानून व्यवस्था को जिम्मेवार ठहराना, बढती जनसँख्या..अशिक्षा.. बेरोजगारी को कारण बताना...मोर्चे निकालना...धरना देना ..आलेख लिखना ..पोस्ट लिखना ..जैसे एक चक्र  सा चल पडा है ...फिर यह पहिया रुक जाएगा...अगले हादसे के इंतज़ार तक .

10 टिप्‍पणियां:

  1. पता नहीं कितने हादसे कर के जागेंगे कर्णधार, संभवतः तब, जब हादसे घर तक आ जायें।

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  2. देखिए कितना बुरा समय आ गया है अब महिलाओं का आधी रात से कुछ पहले तक ही बाहर रहने में भी हिम्मत और आत्मविश्वास की बात लगने लगी है।वैसे तो पहले भी महिलाओं के लिए समाज सुरक्षित तो नहीं रहा होगा पर अब जनसंख्या के साथ साथ क्राइम तो निश्चित रूप से बढ़ा ही है।लेकिन ऐसे हादसों के बाद भी कुछ बदलाव तो होता है नहीं बस महिला वर्ग में ही थोडी असुरक्षा बढ जाती है और कुछ दिन बाद फिर सब वैसा ही हो जाता है क्योंकि राज और समाज के लिए यह कोई बड़ा और गंभीर मुद्दा है ही नहीं बस महिलाओं को ही सावधान रहने की हिदायत दी और काम खत्म ।उमर अब्दुल्ला साहब ने तो पुलिस थाने में बलात्कार की शिकार महिलाओ की अलग क्ष्रेणी बना मुआवजे की बात कह दी यानी सीएम द्वारा अपने ही राज्य के पुलिसथानों में भी सुरक्षा की गारंटी नहीं।
    वहीं कुछ पूजनीय बाबा टाईप के लोग तो महिलाओं को ही दोषी ठहरा देते हैं इनके तर्क सुनकर तो लगता है कभी जवानी में छेड़छाड़ करते पकड़े गए होंगे और मोहल्ले की महिलाओं ने घेरकर सैंडिलों से बहुत बुरा पीटा होगा तभी से ये हाल हो गया।

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  3. दो दिन से ये सब पढ़कर देखकर मन इतना दुखी है की क्या बताऊँ? :(
    शायद हर जगह अब ऐसी insecurity और डर की एक भावना आ गयी है...:(

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  4. काश, घटनाएं, आकस्मिक दुर्घनाओं तक सीमित, बल्कि उतनी भी न, रहें.

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  5. समाज में डर बढ़ रहा है। आत्वविश्वास कम हो रहा है। घटनाएँ थमने का नाम नहीं ले रही हैं। अत्यंत दुखद है सब।

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  6. सही है रश्मि. मेरी बड़ी दीदी अपनी फ़्रेंड्स के साथ हमेशा फ़िल्म देखने जाती थीं, रविवार को, मैटिनी शो. मुझे भी ले जाती थीं, लेकिन मेरे अन्दर बचपन से ही फ़िल्मों का कोई ज़्यादा शौक नहीं था, बल्कि फ़िल्म कैसे दिखायी जाती है, ये जानने की इच्छा ज़्यादा रहती थी, सो मैं चुपके से हॉल की सीढियां चढ, ऊपर पहुंच जाती और कंट्रोल रूम के पीछे की बाल्कनी से फ़िल्म के कटे हुए टुकड़े उठाती, अन्दर प्रोजेक्टर का चलना देखती रहती. अन्दर से कोई टेक्नीशियन बाहर आता तो पूछता, अरे अकेली क्या कर रही बिटिया?
    आज के समय में तीन घंटे कोई बच्ची अकेली एक किसी जगह पर बिता सकती है? सही है. कोई भी घटना होने के कुछ दिन बाद तक सबमें जोश होता है, फिर वही सब....................

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  7. समाज में चीजो का उलटा ही असर हो रहा है , दिल्ली कांड के बाद जो विरोध प्रदर्शन हुआ उससे बलात्कारियो के हौसलों में कोई असर नहीं पड़ा , हा लड़किया जरुर डर गई की अब बात मात्र बलत्कार तक नहीं रुक सकती है वो बर्बरता तक जा सकती है , दुसरे वही मानसिकता की इस तरह के अपराध को लड़की के मान सम्मान से जोड़ कर देखा जाएगा और उसे डरा कर चुप कराया जा सकता है , जैसा की पढ़ा की इन लोगो ने और कई कपल के साथ ऐसा किया था किन्तु लड़कियों ने रिपोर्ट ही नहीं लिखवाई क्योकि पहला सवाल ये होता की तुम अपने पुरुष मित्र के साथ सुनसान इलाके में गई ही क्यों थी , जैसे वो ऐसा करके रेप करने के लायक हो गई थी , निश्चित रूप से समाज और पुलिस के इस रेवैये ने उनको ऐसा करने के लिए और बढ़ावा दिया , मुझे लगता है की अब हमें लड़कियों के साथ सहानभूति दिखाना बंद कर देना चाहिए और कहना चाहिए की उठो और आपनी सामान्य जिंदगी जियो , जब चेन खिचे जाने और लुट लिए जाने के बाद हम सामान्य जिंदगी जीते है तो इस अपराध के बाद क्यों नहीं , क्यों तुम्हारी जिंदगी को बर्बाद मान लिया जाये , शायद इस रवैये से पीड़ित को अपराधी मानने की सोच में बदलाव हो और आगे निकल कर अपने खिलाफ हुए अपराध की सजा दिलाने की हिम्मत सभी में आये और इसे छुपाये जाने वाला अपराध वाली सोच ख़त्म हो ।

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  8. गुडगाँव-दिल्ली अच्छी जॉब मिलने पर भी न जाना और पुणे-मुंबई-बंगलौर को प्रेफर करना लगभग सारी ही दोस्तों से सुना ... पर ...

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  9. कमाल है ! अब तक किसी नेता , नेत्री etc. ने ये नहीं कहा 'वो शाम को उस वीरान इमारत मे रिपोर्टिंग करने गयी ही क्यूं ?'

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