गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

सुबहें किसिम किसिम की


सुबह वॉक पर जिन सड़कों से गुजरती हूँ वह शांत बंगलों का इलाका है. उनींदे से बंगले भरी दुपहर को भी शायद नींद से पूरी तरह नहीं जागते. इन बंगलों में या तो विदेश में बस गए बच्चों के माता-पिता हैं या केयरटेकर. इनलोगों का इन बंगलों को बेचने का कोई इरादा नहीं. वरना बिल्डर्स की गिद्ध दृष्टि तो लगी हुई है कि कब कोई बंगले का मालिक इन का मोह त्यागे और ये उस जगह पर आकाश छूती बिल्डिंग खड़ी कर दें. बंगलों के छोटे-छोटे गेट शांत वीतराग से दीखते हैं. सुबह सुबह कभी कोई आता-जाता नहीं दीखता और मुझे अपने बचपन की कॉलोनी याद आ जाती है.  एकदम से जैसे पूरा परिदृश्य  जीवंत हो उठता है. ऐसा लगता है, एक गेट पर अखबार पढ़ते शर्मा जी खड़े हैं और दूसरी गेट पर खड़े सिन्हा साहब से जोर जोर से अखबार में पढ़ी कोई खबर डिस्कस कर रहे हैं. खबर ज़रा इंटरेस्टिंग हुई तो कुछ कुर्सियां निकल आती  .आस-पास के ऑफिसर्स   क्वार्टर से और लोग भी जुट जाते . एक घर से चाय की प्यालियाँ आ जातीं जो बहस को और गरमा देतीं. अचानक कोई घडी देखता और सबको याद आ जाता, दफ्तर जाना है . सब तैयार होने के लिए अपने अपने घर का रुख करते हैं और सभा बर्खास्त हो जाती .

ऐसी जाने कितनी बीती सुबहों की  यादें ,स्मृति की किवाड़ थपथपा गुजर जाती हैं . 
कभी गाँव  की सुबह आँखों के आगे साकार हो जाती  है, जहाँ प्रसाद काका अरहर के सूखे डंठलों से बाहर झाड़ू लगा रहे होते. झाडू लगा, पत्ते, लकड़ी (दूसरी गंदगी तो होती नहीं ) एक कोने में इकट्ठे कर देते कि रात में जलाएंगे . दादा जी एक कुर्सी पर बैठे , गाय बैलों को सानी देने का निर्देश दे रहे होते. गाय- बैलों की बथान में चारा कट रहा होता . .. सामने की सड़क से ढेर सारी गाय-भैंसों को हांकता और खुद एक भैंस पर सवार शिवनाथ ऊँचे स्वर में आल्हा -उदल गाते, उन्हें चराने के लिए ले जा रहा होता . घर से लगे किचन गार्डन में चाचा अपनी खुरपी ले सब्जियों के पौधों की देखभाल में लगे होते. हर मौसमी सब्जी उस गार्डेन में होती. मटर की फलियाँ, टमाटर, मिर्ची , भिन्डी, गोभी को हम छू छू  कर ही खुश  हो लेते. चाचा कभी मना नहीं करते, भले ही उन्हें क्यारियाँ दुबारा बनानी पड़ें. कभी कभी हमें उन्हें तोड़ने की जिम्मेवारी भी सौंपी जाती और इनाम में चौकलेट भी मिलती. 
पर सुबह तो हम  बच्चे लोग उनींदे से बाहर  के बरामदे मे चौकी पर बैठे होते. दादी , बाहर एक चबूतरे पर स्थित हनुमान  जी की पूजा कर डलिया लिए अन्दर के भगवान  की पूजा करने  जा रही होतीं. हनुमान जी के चबूतरे पर पास ही खड़े गुलमोहर और कनेल के पेड़ की सघन छाया होती. दादी तो सुबह शाम ही पूजा करतीं पर कनेल का पेड़ दिन भर अपने पीले पीले फूलों का अर्पण करता रहता . उन दिनों भाग- दौड़  के खेल ही पसंद थे, दादी के कहने पर कभी बस हाथ जोड़ने के लिए ही हम बच्चे उस चबूतरे पर जाते . अब सोचती हूँ, उस ठंढे चबूतरे पर पेड़ों की सघन छाया में बैठ कोई किताब पढ़ना कितना सुखदायक  अनुभव होता.
अन्दर जाते हुए दादी , हमें नाश्ता करने का निर्देश  देती जातीं. हम आँगन में आ जाते. एक तरफ काकी हंसुए (फसुल ) से ढेर सारी  सब्जी काट रही होतीं. उनकी बेटी या तो आँगन में पड़े सिल पर ढेर सारा मसाला पीस रही होती या फिर चापाकल से बाल्टियों में पानी भर  रही होतीं . लकड़ी के चूल्हे पर मिटटी का लेप लगाए पीतल के दो बड़े बड़े बर्तन चढ़े होते, एक में दाल उबल रही होती और दुसरे में चावल के लिए  अदहन खौल रहा होता. चाची हमें देखते ही पूछतीं , "क्या खाइएगा  नाश्ते में ? " 
अब ख्याल आता है कभी चाची से भी कोई पूछता था" क्या खायेंगी या नाश्ता किया या नहीं ?" या किसी भी गृहणी से कोई पूछता है, कभी ?? 

नाश्ते का ख्याल  जैसे वर्त्तमान  में ला पटकता  है  . गुलाबी  सुबह हो या सुहानी शाम...नाश्ता-लंच -डिनर में क्या बनाना है, जैसी चिंताएं किसी महिला का कभी पीछा नहीं छोड़तीं. पर वो विचार जैसे माथे पर एक थपकी दे चला जाता है. सुबह अपना सौन्दर्य समेटे वैसे ही खड़ी रहती है, ध्यान नहीं भटकने  देती.
 पर सुबह तो गाँव की हो, मुंबई की हो या टिम्बकटू की भली सी ही लगती है {वैसे टिम्बकटू की सुबह देखी नहीं है :)} मुंबई की दौड़ती- भागती सड़कें भी जैसे सुबह दम भर को सुस्ता रही होती हैं . इक्का दुक्का कार, ऑटो उन्हें हौले से जगाती है पर वे करवट बदल फिर सो जाती हैं .लेकिन जल्द ही स्कूल जाते बच्चों का ग्रुप सड़क के किनारे जमा होने लगता है और बसों की आवाजाही,अगले चौबीस घंटो के लिए  सड़क को पूरी तरह जगा देती है .

सुबह की सैर सेहत सुधारने के लिहाज से की जाती है. पर इसके साथ कुछ फायदे अपनेआप जुड़
जाते हैं .एक तो घर से निकलते ही मुस्कराहटों का आदान-प्रदान , सुबह की शुरुआत इस से अच्छी और क्या होगी और हर थोड़ी दूर पर खिले खिले चेहरे वाले बच्चों को देख दिन यूँ ही बन जाता  है. कहीं चार लडकियां बेपरवाह हंस रही होती हैं और मन अपने आप एक छोटी सी दुआ मांग लेता है ,' ईश्वर इनकी हंसी यूँ ही हमेशा सलामत रखना '. कहीं कोई अलसाया ,उनींदा सा बच्चा ,अपनी माँ की गोद में चढ़ा हुआ होता है. माँ खुद ही एक स्कूल गर्ल सी लग रही होती है .पास ही शॉर्ट्स में एक युवा पिता बच्चे का बैग कंधे पर टाँगे खड़ा होता है. एकदम जैसे पास खड़े बच्चे का बड़ा रूप .अच्छा लगता है ज्यादा से ज्यादा पिताओं को बच्चों की जिम्मेवारी लेते  देख. एक आबनूसी रंग के छः फीट  से भी लम्बे पिता , के एक कंधे पर गुलाबी दुसरे पर नीली बैग और गले में गुलाबी-नीले रंग के वाटर बोतल  टंगे देख तस्वीर खींचने को हाथ मचल जाता है. पर रोक लेती हूँ खुद को. वैसे वे शायद बुरा भी नहीं मानते , दोनों बेटियों से बातें करते ,उनके दांतों की धवल पंक्ति चमक चमक जाती है, और उनके स्नेहिल स्वभाव का परिचय दे जाती है. पर किसकी किसकी फोटो लूँ ?? थोड़ी  ही दूर पर एक पिता अपने नवजात शिशु को धूप में लेकर खड़ा रहता है, नवजात शिशुओं को अक्सर जौंडिस की शिकायत हो जाती है और डॉक्टर शिशु को धूप सेंकने की सलाह देते  हैं. इसे भी वही शिकायत होगी. नई नवेली माँ  को जैसे पति पर भरोसा नहीं होता , वो हर थोड़ी देर बाद आकर बच्चे के कपड़े पर यूँ ही हाथ  फेर जाती है . बच्चे को कपड़ा तो ओढ़ाना नहीं जो वो ठीक कर जाए. खुले बदन , बेसुध सो रहे बच्चे को निहारते माता- पिता  की जोड़ी बहुत भली लगती है, पर फिर भी फोटो खींचने की  इच्छा , उनकी दुनिया में खलल डालने सा लगता है .

कई जगह अपनी कंपनी के बस का इंतज़ार करते लोग भी दिख जाते हैं. एक लड़का और एक लड़की अक्सर बातों में खोये , खड़े रहते हैं. मेरे मन  में एक कहानी जन्म लेने लगती है .फिर सर झटक देती हूँ, क्या पता लड़की शादी- शुदा हो. उसकी सीनियर हो. एक कॉलेज जानेवाली लड़की के पैरों के नाखून पर लगी पीले रंग की नेल्पौलिश और ठीक उसी रंग के चप्पल की स्ट्रैप पर नज़र पड़ती है. क्या क्या आ गया है फैशन में .

सड़क के किनारे बन रही अदरक-इलायची वाली  चाय की खुशबू नथुनों में भर जाती है. हम सहेलियां एक दूसरेको देखते हैं और आँखों में ही कहते हैं,बरसात आने दो ,फिर हम भी इस चाय का लुत्फ़ उठाएंगे. बारिश में पूरी तरह भीग कर  इस  खुशबु वाली  चाय पीने से बड़ा सुख और कुछ नहीं. पर हम महिलाओं के लिए ये बस यहाँ मुंबई में ही संभव है, आस-पास खड़े चाय पीते ऑटो वाले भी नोटिस नहीं करते. 

वॉक से लौटते वक़्त काका (जिनके विषय में एक पोस्ट यहाँ लिखी है ) मिलते हैं और आदतन एक टॉफी , कोई मीठी गोली थमा देते हैं. मुझे टॉफी पसंद नहीं पर काका को मना भी  कैसे करूँ . सामने से ही बच्चों का झुण्ड आ रहा होता है. पास में ही एक म्युनिसिपल स्कूल है . चौड़े दुपट्टे ओढ़े लडकियां ,अपने छोटे भाई-बहनों का हाथ थामे होतीं. बीच बीच में कामवालियां भी अपने बच्चों के बैग उठाये तेजी से कदम बढ़ा रही होतीं, बच्चे को स्कूल छोड़, उन्हें घर घर काम पर भी जाना होता है. मैं उनमे से किसी बच्चे को टॉफी देना चाहती  हूँ. कभी कोई बच्चा  ले लेता है, कभी कोई मुस्करा कर आगे बढ़ जाता है , कभी साथ में उसकी बड़ी बहन या बड़ा भाई होते हैं, वे मुझ पर भरोसा कर के इशारा करते हैं, 'ले लो चौकलेट .' 

बिल्डिंग की  गेट पर ही  ग्राउंड फ्लोर पर रहने वाला 'पायलट डेरेक' हाथ में सैंडविच लिए मिल जाता है. मैं टोक देती हूँ , "कॉलेज की आदत गयी नहीं अभी तक ??" वो झेंपा सा मुस्कुरा देता है और अपनी एयरहोस्टेस पत्नी की तरफ मुखातिब हो जाता  है, जो खिड़की पर खड़ी कुछ कह रही होती है. दोनों अलग अलग एयरलाइंस में हैं,बहुत कम मिल पाते हैं, कितनी ही बातें कहने को रह जाती होंगी, जो अब उसकी पत्नी खिड़की से झांक कर कह रही है. ऐसे ही दौड़ती-भागती सेवेंथ फ्लोर  वाली लड़की भी रोज मिलती है. गीले बाल , सादे कपड़े ,कोई मेकअप नहीं, एक मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत है. रात के दस बज जाते हैं, लौटते . कहाँ समय है फैशन का ?? और लोग बवाल मचाते हैं आजकल की लडकियों को फैशन के अलावा कुछ नहीं सूझता .

घर आती हूँ, तो मेरे दोनों बेटे कॉलेज के लिए तैयार हो रहे होते हैं. और बरसों पुराना उनका झगडा बदस्तूर जारी रहता है. के.जी  से जो शुरुआत हुई है , कि 'इसने मेरी पेन्सिल ले ली'...'रबर ले ली '...'नोटबुक ले ली'...अब बस रूप बदल गया  है, 'इसने मेरा पेन ड्राइव ले लिया '...'मैंने तो देखा तक नहीं'...तुमने ही गुम किया है'...'मैं क्या पहनूं अब ?जो टीशर्ट सोचा था, इसने कल पहन ली '. ..'तुम भी तो मेरा पहन लेते हो ,बिना पूछे '...पहले मैं इन बातों पर खीझ जाती थी . अब एक मुस्कान आ जाती है. अब इन झगड़ों की उम्र ज्यादा नहीं बची . अंकुर जल्दी ही जॉब ज्वाइन करने वाला है और अब उसके कपड़े, उसकी चीज़ें अलग तरह की होंगीं .

बच्चे नाश्ता कर कॉलेज के लिए और पतिदेव चाय पी कर , Kipper (हमारा डॉग ) को घुमाने के लिए निकल जाते हैं. पास में  ही एक Dog's park बना है जहाँ सिर्फ कुत्ते और उनके मालिक को ही प्रवेश की अनुमति है. बड़े शहर के चोंचले. यहाँ के कार्पोरेटर ने वायदा किया था कि जीतने पर Dog's park बनवा देगा. वायदे तो और भी बहुत सारे किये होंगे, पूरा बस यही किया. 

मैं बालकनी में चली आती हूँ. सामने ढेर सारे पेड़ों की शाखाएं लहरा रही होतीं. और उनपर चिड़ियों की चहचहाट गूँज रही होती. हाल में ही गौरैया दिवस गुजरा है .और फेसबुक पर कई छोटे शहरों, कस्बों में रहने वाले लोगों ने लिखा कि 'कई महीनों से उन्होंने गौरैया नहीं देखी.' पर इस मामले में खुशनसीब हूँ कि गौरैया, कबूतर, कव्वे, कोयल तो रोज ही दीखते हैं,  तोता, बुलबुल, किंगफिशर, नीलकंठ (दूसरा नाम नहीं पता )  भी अक्सर दिख जाते हैं. एक दिन वहीं खड़ी थी और सुबह सुबह ही अदा का फोन आया, उसने कव्वे की आवाज़ सुन खुश होकर कहा ,"अरे ! ये कव्वे की आवाज़ है क्या , बहुत दिनों बाद सुनी. " क्या दिन आ गए हैं, कोयल सी आवाज़ वाली कव्वे की आवाज़ सुन खुश हो रही है. 

नीचे देखती हूँ, एक नवविवाहित युवक ऑफिस जाने के लिए निकलता है. पीछे पीछे घुटनों तक का फ्रॉक पहने उसकी पत्नी उसे छोड़ने आती है. युवक जबतक गेट से निकल कर आँखों से ओझल नहीं हो जाता, उसकी पत्नी देखती रहती है. पर वो खडूस (अब खडूस ही कहूँगी ) एक बार भी पलट कर नहीं  देखता . सोचती हूँ, कभी सामने मिल गया तो बोल दूंगी, ,एक बार पलट कर मुस्करा  कर हाथ हिला देगा तो उसका कुछ नहीं जाएगा.' एक कपल साथ में ऑफिस के लिए निकलते हैं , लड़की की गोद में एक साल का बच्चा है. माँ/सास  पीछे पीछे आती है. लड़की बच्चे को माँ की गोद में दे देती है , फिर ले लेती है...इधर पति अधैर्य होकर कार की हॉर्न मार  रहा होता है, पर बच्चे को लेने और देने का क्रम तीन चार बार चलता है. इतने छोटे बच्चे को छोड़ ऑफिस जाने में उसका जी टूक टूक हो जाता होगा . पर इस महंगाई में दोनों की नौकरी बिना गुजारा भी मुश्किल और फिर कई बार कैरियर में पिछड़ जाने की बात  भी होती है.  

एक और पिता ऑफिस जाने से पहले ,दस-पन्दरह मिनट अपनी बेटी के साथ जरूर खेलता है.  पर उसका बेटी के साथ खेलने का तरीका बहुत अलग सा है .सोचती हूँ, उसके घर की कोई बड़ी बूढी देख लें तो अच्छी  लानत मलामत करे उसकी. बच्ची  को जोर जोर से हवा में उछाल कर पकड़ना तो मामूली बात है. कभी उसे नीचे गिराने की एक्टिंग कर के डराता  है. तो कभी कार की छत पर उसे बिठा हट जाता है. बच्ची चिल्ला कर रोती है तो प्यार से उसे गले लगा लेता है. एक दिन तो हद कर दी. बेटी को पैसेंजर सीट पे बिठाया बेल्ट लगाया और ड्राइवर से बोला , 'गाड़ी आगे ले लो.' गाड़ी के सरकते ही बच्ची जोर से चिल्लाने लगी और पिता ने फिर हँसते हुए उठा सीने से चिपटा लिया. राम जाने यूँ डरा डरा कर खिलाने में उसे क्या मजा आता है. कभी मिले तो जरूर टोक दूंगी. पर इन सबके ऑफिस जाने का वक़्त एक सा होता है, आने का नहीं .

एक युवा शायद लम्बी टूर पर जा रहा है. साथ में बैग भी है. टैक्सी आ गयी है. उसका भी चार पांच महीने का छोटा सा बच्चा  है. लाल रंग के गाउन में बीवी बच्चे को लिये खड़ी रहती है. युवक पहले तो दो तीन बार बच्चे को चूम कर प्यार करता है और फिर बेझिझक पत्नी के होठों को चूमकर भी विदा कहता  है. आस-पास इतने लोग आ जा रहे होते हैं ,पर कोई पलट कर भी नहीं देखता . वैसे ही  सामने वाली टेरेस पर भारी बदन वाली 'प्रियंका चोपड़ा 'की म्यूजिक टीचर शॉर्ट्स और बनियान में घूम घूम कर फोन पर बतियाती रहती है. उसके घुघराले बालों वाला प्यारा सा बेटा  दूध का ग्लास थामे माँ की चाल की नक़ल करता उसके पीछे पीछे घूमता रहता है. उसके ही बगल वाले फ़्लैट में एक बच्चा  अपने छोटे छोटे हाथों से धुले कपड़े फैलाने में पिता की मदद करता है. पिता उसे रुमाल, मोजे जैसे छोटे -छोटे कपड़े फैलाने के लिए दे देते हैं. देख  मन सुकून से भर जाता है, यह बच्चा बड़ा होकर घर के काम करने में कभी अपनी हेठी नहीं समझेगा. 

यहाँ करीब करीब हर स्कूल में दो शिफ्ट होती है.  दोपहर की शिफ्ट वाले बच्चे अक्सर स्विमिंग पूल में आकर स्विमिंग तो कम करते हैं, एक दुसरे पर पानी फेंकना , पानी में धकेल देना, जैसी शरारतें ही ज्यादा करते  हैं. पानी की छाप छाप के बीच उनकी खिलखिलाहटें कानों को भली लगती है. एक पांच साल की बच्ची लाल रंग के स्विमिंग सूट में इतने कॉन्फिडेंस से चल कर आती है कि कई मॉडल्स पानी भरें, उसके सामने . वो स्विमिंग सीख रही है पर इतनी दिलेर है, बार बार इंस्ट्रक्टर का हाथ झटक देती है. कभी कभी तो बस उसके सर पर बंधा  लाल रंग का बैंड ही पानी के ऊपर नज़र आता है,पूरा शरीर पानी के भीतर . उसकी माँ घबरा कर कभी पूल के इस किनारे तो कभी उस किनारे से आवाज़ लगाती रहती है . पर वो बेख़ौफ़ तैरती रहती है. बस उसका ये आत्मविश्वास ये निडरता ताजिंदगी बनी रहे.

सामने गेट से एक अंकल आंटी चर्च से लौट रहे होते हैं. दोनों हमेशा साथ दिखते हैं. अक्सर एक दुसरे के लडखडा जाने पर सहारा देते हैं . थैला भी बारी बारी से उठाते हैं, कभी अंकल, तो कभी आंटी. उनके पीछे से ही नमूदार होती है मेरी काम वाली  बाई .और मुझे याद आ जाता है, किचन में बर्तन खाली करने हैं, वॉशिंग मशीन में कपड़े डालने हैं . सोफे, कुर्सियों,टेबल  पर से चीज़ें हटानी हैं, पतिदेव का ब्रेकफास्ट तैयार करना है . 

अब खुद से मिलने के वक़्त की मियाद ख़त्म......इंतज़ार अगली सुबह का .



37 टिप्‍पणियां:

  1. वाह क्या सुबह है.....
    लगा एक सुबह में रश्मि ने सारी धरा का चक्कर लगा डाला....
    खैर रश्मि (सूर्य की कृपा से )ऐसा कर भी सकती है :-)
    बेहद रोचक लेख...

    अनु

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    1. और अणु अणु में बसी अनु की नज़र से कुछ नहीं छूटा :)

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  2. सुबह शाम ही पूजा करतीं पर कनेल का पेड़ दिन भर अपने पीले पीले फूलों का अर्पण करता रहता ........अभी आगे पढ़ रहा हूँ। सोचा यहीं तक पढ़े हुए सबसे आकर्षक प्रभाव को टिप्‍पणी बना ही देता हूँ।

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    1. उस वक़्त तो शायद कभी ध्यान से देखा भी नहीं था, पर अब जैसे सब नज़रों के सामने है

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  3. इस सुबह में कितना कुछ है, कई बातों में हम जाने अनजाने जुड़ जाते हैं, वैसे लगभग सब कुछ समेट लिया आपने सुबह में ।

    मुंबई में दूध वाले दिख जाते थे, यहाँ बैंगलोर में दूधवाले नहीं केवल दूध की थैलियाँ बिकती हैं, वो दूधवाले भैया सुबह साईकिल / मोटर साईकिल पर अपनी दूध की टंकियाँ लगाकर भोंपू बजाते हैं, तो कान को सुकून मिलता है, अभी उज्जैन गया था तब कानों को यह सुकून मिला था।

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    1. पता नहीं ,विवेक जी. साइकिल और मोटरसाइकिल पर भी दूध की बड़ी बड़ी केन लिए दूधवाले तो इक्का-दुक्का दिख जाते हैं. पर भोंपू बजाते हुए अब तक कोई नहीं दिखा.

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  4. एक सुबह को जीवंत कर दिया आपने अपने आलेख में। बहुत सुन्‍दर संस्‍मरण।

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  5. सुबह का विश्व मन मोहक भी लगा और प्यारा भी।

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  6. मालूम है !
    पोस्ट पढ़ते पढ़ते एक गीत याद आ गया :
    भोर भये पंछी धुन ये सुनाये
    जागो रे गयी ऋतू फिर नहीं आये
    भोर भये पंछी ...

    प्रातः काल की दिव्य बेला का ऐसा मनोरम वर्णन कर दिया तुमने, लगा जैसे सब कुछ बस नज़रों के सामने ही घटित हो रहा है। वैसे ये बढ़िया करती हो तुम सुबह-सुबह की सैर। प्रातःकाल की खुली स्वच्छ वायु में भ्रमण करने से शरीर रोगमुक्त रहता है अथवा जिन रोगों से हम ग्रसित हैं, उनमें कुछ राहत अवश्य महसूस करते हैं। बच्चे हों या बुजुर्ग, महिला हो या पुरुष सभी की अच्छी सेहत हेतु प्रातः भ्रमण एक संजीवनी है। प्रातः भ्रमण सेहत बनाने का बहुत सरल, सस्ता और सुविधाजनक उपाय है। प्रातःकाल का समय सर्वोत्तम होता है, क्योंकि इस समय हवा शुद्ध और प्रदूषण रहित होती है एवं प्राकृतिक छटा और सूर्योदय की लालिमा सुहावनी और शांतिप्रिय होती है।
    इस हेतु बालिके सुबह की सैर का भरपूर आनंद उठाती रही और अपनी लेखनी से हम सबको अवगत कराती रहो, सबेरे सबेरे कहाँ-कहाँ का का हो रहा है :)

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    1. हा हा अवश्य बालिके प्रातः भ्रमण भी जारी रखेंगे और आपको कव्वे की कांव कांव भी सुनवाते रहेंगे
      सबका यही कहना है कि 'प्रातःकाल का समय सर्वोत्तम होता है, क्योंकि इस समय हवा शुद्ध और प्रदूषण रहित होती '.
      पर अफ़सोस जहां रहती हूँ,वहाँ सुबह भी प्रदूषण का प्रकोप रहता ही है, एक नया नाम भी दिया गया है इसे, smog जिसका असर मॉर्निंग वॉकर्स पर ही पड़ता है. पर हमें तो आदत पड़ी हुई है वो कहते हैं न, मुहं से लगी जो ग़ालिब {अब आगे का याद नहीं :) }

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  7. बड़ी मीठी स्मृतियाँ और वर्तमान है सुबह का ... खूब याद दिलाया हमें भी . सुबह सवेरे सब कुछ अच्छा ही दिखता है , बस स्टॉप का नजारा बच्चों के कॉलेज जाने के कारण छूट गया अब सामने पार्क का नजारा है . सुबह पक्षियों के लिए पानी भर का र्रखा , मैडम गिलहरी दौड़ी चली आयी ! सुबह सवेरे पापा की याद आती है , पांच बजे ही अनूप जलोटा या वाणी जयराम के भजन से नींद खुलती थी :)

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    1. हाँ वाणी , स्मृतियाँ तो इतनी है कि एक ग्रन्थ ही लिखा जाए .

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  8. कितनी सुहानी सुबह की बातें ....जीवंत रेखांकन .....

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  9. सुबहों जैसा ही सौन्दर्य समेटे हुई आपकी इस पोस्ट ने भी बिल्कुल ध्यान नहीं भटकने दिया… जैसे आज सुबह की सबसे सुन्दर बात हुई ये पोस्ट पढ़ना! :)

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  10. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (27 -4-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
    सूचनार्थ!

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  11. वाह रश्मि ...नीरस से दिनचर्या भी इतनी इंटरेस्टिंग हो सकती है ...आज जाना ....हालांकि यह सच है रोज़मर्रा की भागती दौड़ती ज़िन्दगी में इतना समय भी हम कहाँ निकल पाते हैं ...बहुत सुन्दर ..मज़ा आ गया

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  12. रश्मि तुम मेरे लिए 'लेज़र लाइट' हो जो झट से कम वक्त में बहुत खूबसूरत बड़ा सा शब्द चित्र उकेर देती है....और वह बन जाता है चलचित्र :)

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  13. morning walk pe aap jate ho ya sabko shabdo me sametne lagte ho.. :)
    yani excercise tan ka bhi man ka bhi :)

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  14. पोस्ट पढते पढते लगा जैसे उगते सूरज के सामने खडे हैं, सुंदर चित्रण. शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  15. ऐसी जाने कितनी बीती सुबहों की यादें ,स्मृति की किवाड़ थपथपा गुजर जाती हैं .
    sach kaha
    अब ख्याल आता है कभी चाची से भी कोई पूछता था" क्या खायेंगी या नाश्ता किया या नहीं ?" या किसी भी गृहणी से कोई पूछता है, कभी ??
    nahi kabhi koi nahi puchhta hai

    bilkul subaha ki tarh taji taji si post jo taja kar gai mujhe is shaam me :)

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  16. रोजमर्रा की जिंदगी और उससे उपजे विचारों का सुंदर संस्मरण तस्वीरों जैस अलग. अदभुत प्रस्तुति.

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  17. कितना कुछ लपेट लिया एक ही सुबह में ... पता नहीं किस किस की यादें किवाडों से झाँकने लगी होंगी ... मज़ा आ गया ...

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