बुधवार, 30 जनवरी 2013

पैसा क्या याददाश्त और संवेदनशीलता का इरेज़र है..

सबलोगो ने अपने जीवन में कुछ चरित्र ऐसे जरूर देखे होंगे जिन्होंने हमेशा दुसरो का भला किया , परिवार वालों के लिए खून-पसीना एक किया पर जब उन्हें जरूरत पड़ी तो परिवारवालों ने मुहं मोड़ लिया। ऐसा होता तो अक्सर है पर क्यूँ होता है? आखिर लोग इतने कृतघ्न क्यूँ हो जाते हैं, उनकी आँखों का पानी क्यूँ मर जाता है? आखिर इसके पीछे कैसी मानसिकता काम करती है ?क्या वे समझते हैं, उनका हक़ सिर्फ लेना है, और दुसरे का कर्तव्य उन्हें  देने का है ? जब उसे जरूरत पड़ी तो ये तो असमर्थ हैं क्यूंकि इन्हें देना तो आता ही नहीं इन्होने तो सिर्फ लेना ही सीखा है।


एक परिचिता  हैं। उनके पति पिछले  तीस साल से सऊदी अरब में काम कर रहे हैं। पिता की मृत्यु के बाद बहुत कम उम्र में ही वे 'सऊदी अरब' नौकरी पर चले गए। खुद को हर ख़ुशी से महरूम रखकर , दिन रात खून पसीने बहा कर  रुपये कमा कर भेजे और अपने दोनों भाईयों को पढाया -लिखाया, तीन बहनों की शादी की। खुद भी शादी की पर अपनी पत्नी और दोनों बेटों से दूर रहे। उनकी पत्नी और बच्चों ने भी साल  में बस एक महीने के लिए ही पति और पिता का प्यार जाना। दोनों भाइयों की शादी हो गयी, बहनें ससुराल चली गयीं। फिर भी जब भी जिसे जरूरत पड़ी, ये बड़े भाई हमेशा सहायता को तत्पर रहे।

 एक भाई को फ़्लैट  बुक करना है तो एक भाई के बेटे को इंटरनेशनल  स्कूल में पढ़ाना है, सबसे बड़े भाई ने मदद की । इनके बेटे को बाइक का शौक था, बेटे के लिए बाइक बुक भी कर दी। पर उनकी माँ  ने कहा छोटे भाई को गाडी लेनी है, उसे लोकल ट्रेन से ऑफिस आने-जाने में  दिक्कत होती है। बेटे को बाइक नहीं दिलाकर छोटे भाई के लिए गाड़ी खरीद दी।
सिर्फ पैसो से ही नहीं, मन से भी पिता सा स्नेह दिया। छोटी बहन को जब बार बार मिसकैरेज हो जा रहे थे तो पैदल चल कर 'सिद्धि विनायक मंदिर' गए और मन्नत मांगी । बहन के बेटे के जनम पर धूम धाम से पार्टी दी।

और आज वे कैंसर से जूझ रहे हैं। हॉस्पिटल में हैं। तो भाई-बहन कभी ऑफिस से छुट्टी न मिलने का, कभी बुखार का तो कभी  बच्चों के इम्तहान का बहाना बना कभी कभार घंटे भर के लिए हॉस्पिटल में झाँक लेते हैं। डॉक्टर ने उनके बीस वर्षीय बेटे को अपने केबिन में बुला कर बीमारी  की गंभीरता से अवगत करवाया। दो महीने में ही वह बीस साल का लड़का उम्र की कई सीढियां पार कर गया है। जहाँ उसके चाचा को पिता की जगह खड़े हो जाना चाहिए था, यह लड़का, अपनी माँ और अपने छोटे भाई को संभाल रहा है। उनकी पत्नी कहती हैं, हमें इनके भाई-बहनों से रुपये-पैसे नहीं चाहिए, बस प्यार और सांत्वना के दो बोल चाहिए, वो भी वे लोग नहीं दे सकते। जो ननदें कल तक बहनों जैसी थीं, फरमाइश करते नहीं थकती थीं, 'भैया से ये मंगवा दो ,वो मंगवा दो' आज भाई को देखने  की भी फुर्सत नहीं है उनके पास।
 पत्नी के  भाई गाँव में रहते हैं, खेती पर निर्भर हैं और अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में पढ़ा रहे हैं, कभी अपनी  बहन और जीजाजी से एक पैसे की मदद नहीं ली . वे बारी बारी से आकर बहन को सहारा दे रहे है, उसे आश्वासन दे रहे हैं, रुपये-पैसे की फ़िक्र न करें ,इलाज में कमी नहीं होनी चाहिए , जरूरत पड़ने पर वे जमीन बेच देंगे। 
क्या पैसा धीरे -धीरे जमीर को खा जाता है, कोई संवेदना शेष नहीं रहती न ही याददाश्त में ही कुछ बचा रहता है?? पैसा सबकुछ इरेज़ कर देता है?  

 ये दुनिया सचमुच जीने लायक नहीं है। कहते हैं,नेकी कर दरिया में डाल . पर जो नेकी कर के दरिया में डाल  आता है, उसके साथ दुसरे भी नेकी कर दरिया में क्यूँ नहीं डाल आते ?
क्या नेकी करने का ठेका सिर्फ एक के पास ही होता है??

जाने क्यूँ प्यासा  का ये गीत बहुत याद आ रहा है 



23 टिप्‍पणियां:

  1. पैसा ............ भगवान् है . ऐसा वैसा इरेज़र - नाम,चेहरा,लेन-देन सबकुछ भुलवा देता है . मतलबी लोग किसी का स्नेह क्या समझेंगे और क्या तकलीफ समझेंगे !

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  2. यह घर-घर की कहानी है। अच्‍छे लोग हमेशा ही कर्तव्‍य करते रहेंगे और बुरे लोग ऐसा ही करते रहेंगे।

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  3. दीदी, कभी-कभी तो मैं भी बहुत निराश हो जाती हूँ. मैंने भी देखा है कि आप जब लोगों के लिए निःस्वार्थ भाव से करते रहो तो आपको 'फॉर ग्रांटेड' ले लिया जाता है. और ऐसा अक्सर रक्त-सम्बन्धों में होता है. ऐसे में लगता है कि खून के रिश्तों से ज्यादा अच्छे दिल के रिश्ते हैं, जिन्हें हम बनाते हैं, जिनमें कोई स्वार्थ नहीं होता, पर ज़रूरत पड़ने पर वही काम आते हैं.

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  4. लालच ही वो बला है जिसके कारण अपने ही अपनों से दूर हो जाते हैं !!

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  5. मुक्ति की बात से सहमत हूँ....
    बहुत दुःख होता है ऐसे किस्से सुन कर....मगर जिनसे उम्मीद न हो वही लोग ऐसा कर जाते हैं....लगता है अब तो नेकी भी समझदारी से की जानी चाहिए...
    रश्मि तुम्हारी पोस्ट पढ़ कर उम्र एकदम से बढ़ जाती है....

    अनु

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  6. दिल दुःख रहा है ये सब पढ़ कर. परन्तु आपके दिए हुए सभी उदाहरणों में एक बात नज़र आ रही है कि अनावश्यक सहायता भी हुई है. ऐसी स्थिति में लोग सहायता पर अपना हक समझने लगते है और उसका कोई अहसान भी नहीं मानते है. अगर व्यक्ति उतनी ही सहायता करे जितनी कि बहुत जरुरी हो तो ऐसी हालत पैदा होने की सम्भावना कम हो जाती है. सामने वालो को अपने पैरो पर खड़ा कर दे फिर उन्हें खुद चलने दे.

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  7. पैसा सिर्फ मतलबी ..कृतघ्न ...(कृतज्ञ नहीं )...लोगों का भगवान हो सकता है...एक बीमार खुदगर्ज़ मानसिकता वाली कौम का.....इंसानों का नहीं .....क्या कहूं...खून उबल रहा है ...बस सिर्फ एक बात सोचती हूँ....भला करनेवाले को बेवक़ूफ़ नहीं होना चाहिए...इतना तो समझना चाहिए की जिसकी सहायता वह कर रहा है ...वह वाकई शुक्रगुजार है या केवल उसका इस्तेमाल कर रहा है ...

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  8. अफसोस होता है ऐसे लोगों का अंत देखकर... पैसा आँखों पर पर्दा डाल देता है.. शायद दोनों तरफ.. पैसे खर्च करने वाला प्रेम के परदे के कारण यह नहीं देख पाता कि उसे अपने लिए भी कुछ इंतज़ाम करना चाहिये, जो उसका बिलकुल अपना हो.. और दूसरी ओर पाने वाले की आँखों पर पर्दा पड़ा होता है खुदगर्जी का.. जिसे सिर्फ दोहन आता है, रिश्तों और प्रेम की कोई परख नहीं..
    पैसा जब इंसान की सवारी करे तो बुरा और इंसान जब पैसे की सवारी करे तो भला!!

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  9. धन के आगे अब मनुष्यता का मान ही कहाँ बचा है...... अक्सर यही देखने में आता है .....

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  10. ऐसी एक घटना दस लोगों को सहायता करने से मानसिक रूप से रोक देती है।

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  11. ईश्वर उस बच्चे को इतनी शक्ति दे कि वह अपने पिता को इस कमज़ोर समय में सहारा दे सके ...

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  12. .....वे रिश्तेदार , उनकी बहने और भाई खुशनसीब हैं जिन्हें ऐसा बड़ा भाई मिला अगर यह न होते तो उनका ख्याल कौन रखता ? क्योंकि वे इस योग्य भी नहीं थे कि उन्हें एक संवेदनशील हाथ सहारा देने आता ! ईश्वर ने इस व्यक्ति के ज़रिये इतने लोगों की मदद की थी और निस्संदेह इस व्यक्ति को इन सब जरूरतमदों की मदद करके बहुत सुख मिला होगा ...

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  13. वे अपने खुशकिस्मत थे कि उनकी किस्मत में यह भाई मिला अगर यह न होता तो उन्हें कौन प्यार करता...??
    और अगर अपनों के दिए कष्ट को झेलने के लिए,यह मज़बूत एवं कर्मठ दिल न होता तो यह दर्द कौन झेल पाता ??
    ईश्वर रिश्ते सोंच समझ कर ही बनाता है रश्मि ....
    उन्हें यह मिले और इन्हें वे मिले !

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  14. ऐसे ही नहीं कहा गया है
    ' बाप बड़ा न भैया , सबसे बड़ा रुपैया '
    लोग आजकल इसी सूत्र वाक्य को जीवन में उतार रहे हैं।
    people are becoming selfish day by day . This selfishness turns them unfriendly , because of this unfriendly nature they become insecure from inside.

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  15. आजकल मानवीय संवेदनाएं निश्चित ही कम होती जा रही हैं ।
    फिर भी नेकी करना स्वयं का स्वाभाव होता है। यह किसी से अपेक्षा पर निर्भर नहीं।

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  16. क्या नेकी का ठेका सिर्फ किसी एक का ही है , कई बार आता है यह ख्याल दिल में ....
    पता नहीं किस जख्म को मरहम लगाया तुमने :)

    कई बार वे मित्र जिनके लिए हमने कुछ नहीं किया , वह कर जाते हैं जो एहसानमंद रिश्तेदार भी नहीं करते !!

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  17. आज के दौर का भगवान तो पैसा ही है ... अपना फर्ज पूरा करके सबसे पहले अपना जरूर देखना चाहिए .. कोई नहीं आता सामने जरूरत में ... संवेदनाएं कम हो रही हैं ... अपने अपने से आगे कोई याद नहीं आता ...

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  18. ये दुनिया इक सर्कस है, और इस सर्कस में, माँ नहीं, बाप नहीं, बेटा नहीं, बेटी नहीं , ये नहीं, वो नहीं ...कुछ भी नहीं ...यहाँ बड़े-बड़े हीरो को जोकर बन जाना पड़ता है ...
    ये भी बन गए जोकर, भलाई करके...कोई बात नहीं वो भी बनेंगे, जो आज खुद को हीरो समझ रहे हैं।
    तुम दिल पर मत लिया करो, सब चलता है ....बस लिखती रहा करो और मुस्कुराती रहा करो , जैसे फोटू में मुस्कुराया है

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  19. अगर पैसा ही कारण है तो उन्हें भी स्वार्थी हो जाना था जो कमाने बाहर गए थे।क्योंकि पैसा आ तो उन्हीं के हाथ में रहा था लेकिन उन्होंने दूसरों की जरूरतों का ध्यान रखा केवल खुद पर खर्च नहीं किया ।और उनकी पत्नी के रिश्तेदार भी मदद कर ही रहे हैं ।लेकिन जो रिश्तों की अहमियत नहीं समझते उनका कुछ नहीं हो सकता।

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