शनिवार, 3 नवंबर 2012

कशमकश


ओह!! कितना मिस किया अपने ब्लॉग को , शायद ही  कभी दो पोस्ट के बीच इतना लम्बा अंतराल आया हो . कई विषय मन में उमड़ते घुमड़ते रहे पर सख्ती से उन्हें रोक दिया, कुछ ज्यादा ही सख्ती करनी पड़ी क्यूंकि आदत जो पड़ गयी है, जो मन में आया, ब्लॉग पर उंडेल  देने की ,loud thinking  में जैसे बोल बोल कर के सोचते हैं,वैसे ही हम लिख लिख कर सोचते हैं :)


पर कुछ ऐसे काम में व्यस्त थी ....और इतने सारे डेड लाइंस थे .{अभी भी बाकी हैं :(}...कि ब्लॉग का ही समय चुराना पड़ा, सिर्फ अपने ब्लॉग का ही नहीं पूरे ब्लॉगजगत का। किसी की पोस्ट पढना मुमकिन नहीं हुआ। अभी भी बस कुछ समय का ब्रेक ही लिया है . 7 तारीख के बाद पूरी तरह फ्री तो हो जाउंगी पर तब दीवाली सर पर होगी। और मैं हूँ कि  जितने विषय दिमाग में आ रहे हैं,उन्हें नोट कर के भी नहीं रख रही कि  बाद में उन पर लिख पाऊं. अपनी स्मृति पर कुछ  ज्यादा ही भरोसा हो चला है। कुछ भूल गयी तो :(

खैर फिलहाल भी पोस्ट लिखने का वक़्त तो नहीं मिला पर ख्याल आया अपनी पहली पोस्ट का जो एक  कहानी थी ...जिसे तीन साल पहले पोस्ट की थी और काफी कम लोगों ने पढ़ी थी 

तो मुलाहिजा फरमाएं :)


                                       कशमकश  (कहानी )


आँखें खुलीं तो पाया आँगन में चटकीली धूप  फैली है। हड़बड़ा कर खाट से तकरीबन कूद ही पड़ा लेकिन दुसरे ही क्षण लस्त हो फिर बैठ गया. कहाँ जाना है उसे? किस चीज़ की जल्दबाजी है भला? आठ के बदले ग्यारह बजे भी बिस्तर छोडे तो क्या फर्क पड़ जायेगा? बेशुमार वक़्त है उसके पास पूरे तीन वर्षों से बेकार बैठा आदमी. अपने प्रति मन वितृष्णा से भर उठा. डर कर माँ की ओर देखा,शायद कुछ कहें, लेकिन माँ पूरे मनोयोग से सब्जी काटने में लगी थीं। . यही पहले वाली माँ होती तो उसकी देर तक सोये रहने की आदत को न जाने कितनी बार कोसते हुए उसे उठाने की हरचंद कोशिश कर गयीं होतीं और वह अनसुना कर करवटें बदलता रहता. लेकिन अब माँ भी जानती है कौन सी पढाई करनी है उसे और पढ़कर ही कौन सा तीर मार लिया उसने? शायद इसीलिए छोटे भाइयों को डांटती तो जरूर हैं पर वैसी बेचैनी नहीं रहती उनके शब्दों में.

थोडी देर तक घर का जायजा लेता रहा.आँगन में नीलू जूठे बर्तन धो रही थी. जब जब नीलू को यों घर के कामो में उलझे देखता है एक अपराधबोध से भर उठता है. आज जो नीलू की उंगलियाँ स्याही के बदले राख से सनी थीं और हाथों में कलम की जगह जूठे बर्तन थमे  थे उसकी वजह वह ही था.. एक ही समय उसे भी फीस के लिए पैसे चाहिए थे और नीलू को भी.(वरना उसका नाम कट जाता) उसी महीने लोकमर्यादा निभाते दो दो शादियाँ भी निपटानी पड़ी थीं. एक ही साथ इतने सारे खर्चों का बोझ ,पिता के दुर्बल कंधे सँभालने में असमर्थ थे और नीलू का स्कूल छुडा दिया गया।. तय हुआ वह प्रायवेट परीक्षाएं दिया करेगी।  बुरा तो उसे बहुत लगा था पर सबके साथ साथ उसके मन में भी आशा की एक किरण थी कि उसका तो यह अंतिम वर्ष है. अगले वर्ष वह खुद अपने पैरों पे खडा हो सकेगा और नीलू की छूटी पढाई दुबारा जारी करवा सकेगा.किन्तु उस दिन को आज तीन साल बीत गए और ना तो वह ऑफिस जा सका ना नीलू स्कूल.

जबकि पिता बदस्तूर राय क्लिनिक से सदर हॉस्पिटल और वहां से आशा नर्सिंग होम का चक्कर लगाते रहे . सोचा था नौकरी लगने के बाद पहला काम अपने पिता की ओवरटाइम ड्यूटी छुड़वाने की करेगा.पर ऐसे ही जाने कितने सारे मंसूबे  अकाल मृत्यु को प्राप्त होते चले गए और वह निरुपाए खडा देखते रहने के सिवा कुछ नहीं कर सका. क्या क्रूर मजाक है? स्वस्थ युवा बेटा तो दिन भर खाट तोड़ता रहे और गठिया से पीड़ित पिता अपने दुखते जोडों सहित सड़कें नापते रहें. जब जब रात के दस बजे पिता के थके क़दमों की आहट सुनता है, मन अपार ग्लानि से भर उठता है। 

उसे जागते हुए देखकर पिता पूछते हैं, "अरे! सोया नहीं अभी तक"  और वह कट कर रह जाता है। जी करता है, 'काश आज बस सोये तो सोया ही रह जाए.' पर यहाँ तो मांगे मौत भी नहीं मिलती. कई बार आत्महत्या के विचार ने भी सर उठाया लेकिन फिर रुक जाता है. जी कर तो कोई सुख दे नहीं पा रहा. मर कर ही कौन सा अहसान कर जाएगा? बल्कि उल्टे समाज के सिपहसलारों के व्यंग्यबाणों  से बींधते रहने को अकेला छोड़ जायेगा अपने निरीह माता पिता को .

सारी मुसीबत इनकी निरीहता को लेकर ही है. क्यूँ नहीं ये लोग भी उपेक्षा भरा व्यवहार अपनाते? क्यूँ इनकी निगाहें इतनी सहानुभूति भरी हैं? क्यूँ नहीं ये लोग भी औरों की तरह उसके यूँ निठल्ले बैठे रहने पर चीखते चिल्लाते..क्यूँ नहीं पिता कहते कि वह अब इस लायक हो गया है कि  अपना पेट खुद पाल सके,कब तक उसका खर्च उठाते रहेंगे?..क्यूँ नहीं माँ तल्खी से कहती कि 'रमेश,विपुल,अभय सब अपनी अपनी नौकरी पर गए,वह कब तक बैठा रोटियां तोड़ता रहेगा?'...क्यूँ नहीं कोई काम बताने पर नीलू पलट कर कहती 'क्या इसलिए पढाई छुडा घर बैठा दिया था कि जब चाहो चाय बनवा  सको.'..पर ये लोग ऐसा कुछ नहीं कहते . हर बात संभाल -संभाल कर पूछी जाती है, ताकि उसे अपनी बेचारगी का बोध न हो। पर उन्हें इसका ज़रा भी इल्हाम नहीं कि  उसमें किस कदर आत्महीनता भर गयी है। बात बात में हीन भावना से ग्रस्त  हो उठता है। कहाँ चला गया उसका वह पुख्ता आत्मविश्वास? वह बेलौस व्यवहार ? हर किसी से आँखें चुराता फिरता है, आखिर क्यूँ ? सारे दोष खुद में ही नज़र आते हैं । लगता है कोई गहरी कमी है, उसके व्यक्तिव में। पर अगर ऐसा होता तो स्कूल से लेकर यूनिवर्सिटी तक सबकी जुबान पर उसका नाम कैसे होता । आज  भी पुराने प्रोफेसर्स मिलते हैं तो कितने प्यार से बातें  करते हैं। लेकिन वह है कि  ठीक से जबाब तक नहीं दे पाता , उनसे बातें करते हुए सोचता है , कब टलें  ये लोग?

 वरना रितेश से कतरायेगा ,ऐसा सपने में भी सोच सकता था ,भला। वही पिद्दी सा रितेश जो कॉलेज में उसके चमचे के नाम से जाना जाता था। उसके आगे-पीछे घुमा करता और हर वक़्त उसके मजाक का निशाना बना रहता था। 
सामने से रितेश आ रहा है और उसकी निगाहें बेचैनी से किसी शरणस्थल की  खोज में भटकने लगीं। लेकिन सामने तो सीधी सपाट सूनी सड़क फैली थी। गली तो दूर कोई दरख़्त भी नहीं ,जिसके पीछे छुप पीछा छुड़ा सके। इसी ऊहापोह में था कि  रितेश सामने आ गया।

"हल्लो अनिमेष...कैसे हो ??"... कहते गर्मजोशी से हाथ मिलाया। बदले में वह बस दांत निपोर कर रह गया। 
"इधर दिखते नहीं  यार... कहीं बाहर थे क्या?
"नहीं यहीं तो था " अटकते  हुए किसी तरह कहा उसने।
और अगला सवाल वही हुआ, जिस से बचने के लिए पैंतरे बदल रहा था। 
"क्या कर रहे हो आजकल ?"  रितेश ने पूछा। क्या बताये, बेरोजगार शब्द एक गाली सा लगता है, उसे। 
जब वह चुप रहा तो रितेश ने कहा, "चलो तुम्हे कॉफ़ी पिलाते हैं, फिर ऑफिस भी जाना है।"
'हाँ इसी जुमले के लिए तो कॉफ़ी की आदत दावत दी गयी थी। अब सुनाता रहेगा अपने ऑफिस, कलीग , बॉस ,  उनकी सेक्रेटरी के घिसे पिटे किस्से।
उसे चुप देख, रितेश ने फिर जोर डाला.." चलो न कॉफ़ी पीते हुए अपनी कोई नज़्म सुनाना , कॉलेज में तो बड़ी  मशहूर थीं तुम्हारी कवितायें... सुन कर जाने कितनी लडकियां आहें भरतीं  थीं।कोई ताजी हमें भी सुना दो । "
मन हुआ बुरी तरह झिड़क दे। पिता बड़े ओहदे पर हैं, जम्हाइयाँ लेने को एक कुर्सी मिल गयी है तभी ये कवितायें सूझ रही हैं। मेरी तरह चप्पलें चटकानी पड़ें तो पता चले ये  पूछने का अर्थ क्या है। पर उलट में बस इतना कहा , " एक दोस्त को सी ऑफ करने जा रहा था। उसके ट्रेन का टाइम  हो चला है। मिलते हैं फिर कभी "
" ओके दोस्त, टेक केयर"..  कहता हाथ हिलाता रितेश चला गया।

लेकिन रितेश के जाने के बाद जी भर कर गालियाँ दीं  खुद को। आजकल एक यही काम तो जोर शोर से हो रहा है। आखिर इस तरह हीन  भावना से ग्रस्त होने की क्या जरूरत थी। क्या वह देखने में भी अच्छा नहीं रहा। नहीं नहीं शारीरिक सौष्ठव में तो वह अब भी कम नहीं पर चेहरे का क्या करेगा जिस  पर हर वक़्त मनहूसियत की छाप लगी रहती है। 

और लोग हैं कि  सहानुभूति दिखाने से बाज़ नहीं आते ... नुक्कड़ के बनवारी चाचा हों या कलावती मौसी, नज़र पड़ते ही बड़ी चिंता से पूछेंगे ."कहीं कुछ काम बना? " पता नहीं उसे इन शब्दों में दया की भावना नज़र आ जाती है और वह बिना जबाब दिए आगे बढ़ जाता है। घर से निकलने का मन ही नहीं होता...और आजकल तो निकलना और भी दूभर क्यूंकि रूपा मायके आयी हुई थी वही रूपा जिसके साथ जीने मरने की कसमे खाई थीं. रूपा में तो बहुत हिम्मत थी....इंतज़ार करने... साथ भाग तक चलने को तैयार थी. पर वही पीछे हट गया ,कोई फिल्म के हीरो हेरोईन तो नहीं थे दोनों कि जंगल में वह लकडियाँ काट कर लाता और सजी धजी रूपा उसके लिए खाना बनाती. रूपा की शादी हो गयी ,एक नन्हा मुन्ना भी गोद में आ गया, कई मौसम बदल गए पर नहीं बदला रूपा की आँखों का खूनी रंग...आज भी कभी उसपर नज़र पड़ जाए तो रूपा की आँखे अंगारे उगलने लगती हैं.

शुक्र है, उसे हर तरफ से नकारा पाकर भी माँ पिता की आँखे प्यार से उतनी ही लबरेज रहती हैं. हर बार कोई नया फार्म या परीक्षा देने के लिए राह खर्च मांगते समय कट कर रह जाता है पर पिता उतने ही प्यार से पूछते हैं. "कितने चाहिए." और दस पांच ऊपर से पकडा देते हैं "रख लो जरूरत वक़्त काम आएंगे "..वह तो तंग आ चुका है इंटरव्यू देते देते. लेकिन इंटरव्यू का नाम सुनते ही परिवार में उछाह उमंग की एक लहर सी दौड़ जाती है. नीलू दरवाजे के पास पानी भरी बाल्टी रख देती है. नमन भागकर हलवाई के यहाँ से दही ले आता है. माँ टीका करती हैं. वार के अनुसार 'धनिया, गुड, राई देती हैं। अगर वह पहले वाला अनिमेष होता तो इन सारे कर्म कांडों की साफ़ साफ़ खिल्ली उड़ा चलता बनता। अब सर झुकाए सब सह लेता है। शायद यही सब मिलकर उसके रूठे भाग्य को मना सकें। लेकिन हठी बालक सा उसका भाग्य अपनी जगह पर अड़ा  रहता है। वह इन सारे हथियारों से लैस  होकर जाता है और हथियार डालकर चला आता है। . पता चलता है ,चुनाव तो पहले ही कर लिया गया था.इंटरव्यू तो मात्र एक दिखावा था.लेकिन अब आजीज  आ गया है वह। जब भी कोई नया इंटरव्यू कॉल आता है, सबके चेहरे पर आशा की चमक आ जाती है। बुझा मन लिए लौटता है तो पूछता तो कोई नहीं। सब उसके चेहरे से भांपने की कोशिश करते हैं। नीलू , नमन , माँ , सब आस-पास मंडराते रहते हैं। आखिर वह सच्चाई बताता है और सबकी  आँखों में जल रही आशा ,अपेक्षा की लौ दप्प से बुझ जाती है. माँ  एक गहरा निश्वास लेती है। पिता अपने दोनों हाथ उठा कर कहते हैं, "होइहे वही जो राम रची राखा। " पर अब उसने सोच लिया उसे इन सारी स्थितियों का अंत करना ही होगा. किसी को कुछ नहीं बताएगा . बार-बार अपराधबोध से ग्रस्त होने की मजबूरी से खुद  को उबारना ही होगा। अब घर में तभी बताएगा जब पहला वेतन लाकर माँ के हाथों पर  रख देगा.


ट्यूशन लेकर लौटा तो नीलू की जगह माँ ने खाना परोसा और देर तक वहीँ बैठीं रहीं तो लगा कुछ कहना चाहती हैं. खुद ही पूछ लिया --"क्या बात है,माँ?"
"नहीं ...बात क्या होगी "...माँ कुछ अटकती हुई सी बोल रही थीं..."अगले हफ्ते से नीलू के दसवीं के इम्तहान हैं." नीलू प्रायवेट से दसवीं कर रही थी, बहुत मेहनत  करती थी लड़की। वो भी उसे पढ़ा देता था उसे पूरा विश्वास था नीलू फर्स्ट डिविज़न से पास होगी।  माँ ने आगे बोला, "सेंटर दूसरे शहर पड़ा है. रहने की तो कोई समस्या नहीं,चाचाजी वहां हैं ही पर लेकर कौन जाए?.पिताजी को छुट्टी मिलेगी नहीं...और  मिल भी जाए तो पैसे कटेंगे , वो भारी पड़ेगा। मैं साथ चली भी जाऊं पर वहां नीलू को एक्जाम सेंटर रोज लेकर कौन जायेगा...मेरे लिए वो शहर नया है...वैसे भी अकेले आने-जाने की आदत नहीं " फिर माँ  ने बड़े संकोच से पूछा "तेरा कोई इम्तिहान तो नहीं ...तू जा सकता है?"

वह तो माँ के पूछने के पहले ही खुद को प्रस्तुत कर देना चाहता था ,पर एक समस्या थी...एक परीक्षा वह घर में बिना बताये दे आया था। लिखित परीक्षा उत्तीर्ण कर गया था और इंटरव्यू भी दे आया था। इंटरव्यू काफी अच्छा  हुआ था . लेकिन यह बात कहे कैसे? .कह देगा तो वही आशाएं ,अपेक्षाएं सर उठाने लगेंगी। जिनसे भागना चाह रहा था ...और फिर नौकरी नहीं मिली तो सबकी आशाएं बुझ जायेंगीं। नहीं अब और उम्मीदें नहीं दिलानी उन्हें। फिर से निराशा की खाई में गिरते उन्हें नहीं देख पायेगा .अब तक तो नौकरी मिली नहीं इस बार ही मिल जायेगी इसकी क्या गारंटी है। अब इस स्थिति से उबारना ही होगा खुद को। और नीलू के भी बोर्ड के इम्तहान हैं .पहले ही उसकी वजह से वह तीन साल से स्कूल छोड़ घर बैठी हुई थी. 

तय कर लिया कुछ नहीं बतायेगा, माँ की आँखे उसपर टिकी थीं.
बोला--"चिंता मत करो माँ, मैं लेकर जाऊंगा "

सामान संभालते हुए भी कई बार जी में आया ,जाकर कह दे। दरवाजे तक गया भी फिर जी कडा कर लौट आया। नहीं अब और बेवकूफ नहीं बनाना उसे। बहुत हो गया तमाशा। कितनी बार तो दे चूका  है इंटरव्यू। कब आया अप्वाइंटमेंट लेटर ? और वह नीलू को लेकर इम्तहान दिलवाने चला गया। 

पूरे पंद्रह दिन बाद लौटा , चाचा चाची और उनके बच्चों के साथ अच्छा समय बिताया, नया शहर बहुत रास आया उसे। जिधर चाहे निकल जाओ। न पहचाने चेहरे न पहचाने सवालों से टकराने का  डर .
घर पर आकर सामान रखते ही माँ  एक लिफाफा  लेकर आयीं ।

"देख तो नौकरी का कागज़ है क्या? " 

उसने कांपते हाथों  से लिफाफा खोला । और पंक्तियों पर नज़र पड़ते ही स्तंभित रह गया। चेहरा सफ़ेद पड़  गया। कंधे झूल आये। कागज़ हाथों से गिर पड़ा।

कैसे कहे  , " ज्वाइनिंग डेट बीत गया इसका "

39 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही पवित्र आशय और चिन्तन से लिखी गयी एक अच्छी पोस्ट आभार |

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  2. आपकी यह कहानी पहले भी पढ चुकी हूं
    उम्‍मीद रखो तो सफलता नहीं मिलती
    न रखो तो मिल जाती है
    भाग्‍य में न हो तो मिली चीज भी हाथ में नहीं होती .
    बहुत दिनों बाद ब्‍लॉगिंग में मैं भी सक्रिय हुई हूं
    आपको शुभकामनाएं

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    1. संगीता जी,

      यानि कि आप मेरे ब्लॉग की साइलेंट रीडर हैं।अच्छा लगा जानकर आप पढ़ती तो हैं ,मेरा लिखा.... शुक्रिया :)

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  3. रश्मि ...उस ख़त के साथ ..पाठक की भी आशा एक दम से ढेह गयी ....वाकई तुम्हारे पात्रों से जुड़ जाता है पढ़नेवाला.....हालाँकि वक़्त के साथ तुम्हारी लेखनी में बहुत पैनापन आया है ....लेकिन बेसिक क्वालिटी तो वैसी ही है ......आखिर तक बाँध के रखने की ...:)

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    1. सरस जी,
      पोस्ट में ही इसका जिक्र कर देना चाहती थी पर नहीं किया, यह सोचकर कि फिर लोग इसी माइंडसेट से पढेंगे। यह कहानी मैंने तब लिखी थी जब ग्रेजुएशन कर रही थी। बहुत दिनों तक इस नोटबुक से उस नोटबुक में फेयर करती रही। फिर रेडियो के लिए पढ़ा, ब्लॉग बनाया तो ब्लॉग पर डाल दिया, आज आप सबने भी पढ़ ली
      शुक्रिया :)

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    2. rashmi ji,aapki ye kahani bahut hi achi lagi aur bhi post pad rahi hun .sahaj saral bhasha ke sath sundar abhivyakti

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  4. ज़िन्दगी की विसंगतियों का खूबसूरती के साथ चित्रण किया है तुमने रश्मि. बेरोज़गार युवक की तक़लीफ़ भी खुल के सामने आयी है. बधाई.

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  5. कहानी अब पढ़ते हैं...बस पहले बता दें कि इतने दिन बाद देख कर मन को अच्छा लगा!

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    1. शुक्रिया... आपको भी यहाँ देखकर हमें बहुत अच्छा लगा :)

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  6. बिलकुल यही मेरे साथ भी हो रहा है दीदी, ब्लॉग लिखना तो लगभग भूल ही गया हूँ....महीने में एक दो पोस्ट लिखता हूँ बस...:(

    और ये कहानी तो मुझे उस समय भी पसंद आई थी, जब आपके ब्लॉग 'मन का पाखी' पर इसे पढ़ा था...और आज फिर से पढ़ लिया...इसे और भी एक दो बार पढ़ चूका हूँ!

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    1. शुक्रिया अभी,
      तुम तो मेरे बड़े रेगुलर और सीरियस टाइप के पाठक हो, पढ़ते भी हो और याद भी रखते हो :)

      जिस काम में भी लगो पूरे मन से, हमारी शुभकामनाएं साथ हैं।
      वो अलग बात है, मन रस्सी तुड़ा भाग निकलने को मचलता रहता है। मैंने ही कैसे डांट डपट कर चुप बिठाया मुझे ही पता है,कि पहले काम ख़त्म करो तब ब्लॉग का रुख करो

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  7. कहानी पढ़े लिखे नौजवानों की दुखदायी स्थिति पर प्रहार करती है. घर वालों की बच्चों से अपेक्षाएं और बच्चों का कर्त्तव्य बहुत अच्छी तरह से कहानी में दिखाया है. कहानी मैंने पहले नहीं पढ़ी थी इसलिए ज्यादा अच्छी लगी.

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    1. शुक्रिया रचना जी,
      आप जैसे पाठकों का ख्याल कर के ही पोस्ट की है :)
      बहुत ही ध्यान से पढ़ती हैं, कोई भी आलेख ..आभार

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  8. प्रश्न पूछने में,अपनी सोच शुमार करने में लोगों का कुछ नहीं जाता .... बहुत दिनों बाद दिखी ... पूर्व की ही सही,अच्छी कहानी के साथ

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    1. मुझे भी अच्छा लग रहा है, अपनी जगह पर लौट कर :)

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  9. अपने परिवेश से जुड़ी सी कहानी ....... जीवन में ऐसी विसंगतियां कई बार दस्तक देती है.....

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  10. कहानी आज पढ़ी। मध्यमवर्गीय परिवार का दर्द और बेरोजगारी का श्रापित जीवन बखूबी अभिव्यक्त हुआ है। आपकी लेखनी पाठकों को जोड़े रखती है। ..मेरी बधाई भी स्वीकार करें।

    बहुत दिनो के बाद आज ब्लॉग-ब्लॉग पढ़ने का मूड बनाया है। जो भी पढ़ रहा हूँ उसे फेसबुक में शेयर कर दे रहा हूँ।

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  11. सबसे पहले धन्यवाद देवेन्द्र पाण्डेय जी का कि वे बता रहे हैं कि क्या अच्छा पढ़ा उन्होंने,फ़िर इस कहानी के लिए आपका आभार कि फ़िर से ऊपर लेकर आईं,एक विशेष बात ये कि पढ़ते-पढ़ते अभि की याद आ रही थी,और नीचे कमेंट तक आई तो अभि भी मिल गया...
    अब एक और खास बात - कहानी पॉडकास्ट मांगती है ...आप कहें तो ...:-)

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    1. आपका बहुत बहुत आभार अर्चना जी,
      पर यह कहानी मुंबई आकशवाणी से प्रसारित हुई थी और उसकी रेकॉर्डिंग मैंने यहाँ लगाई थी.
      इस लिंक पर सुनी जा सकती है

      आज पढने के बदले सुन लें कहानी...."कशमकश"

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  12. बहुत सुंदर,
    दरअसल कुछ कहानी ऐसी होती है उन्हें जब पढ़ो लगता है पहली बार पढ़ रहे हैं। ये कहानी उनमें से एक है।
    शुभकामनाएं

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  13. कहानी पहले भी पढ़ी थी . दुबारा पढने में क्या नुकसान है :). निराशा कई बार इतनी हताश कर देती है की खुशियों के आने का भरोसा नहीं होता और वे खटखटाकर दरवाजा चली जाती है . रितेश के साथ ऐसा ही हुआ !

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  14. कहानी पहले भी पढ़ी थी . दुबारा पढने में क्या नुकसान है :). निराशा कई बार इतनी हताश कर देती है की खुशियों के आने का भरोसा नहीं होता और वे खटखटाकर दरवाजा चली जाती है . रितेश के साथ ऐसा ही हुआ !

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  15. its nice story ... have u changed its end with the previously published story ?

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    1. actually the end of original story is like this only bt when I first posted it on my blog perhaps i thought ppl wud find it difficult to believe that smthing like this cud happen so i left the last paragraph.

      but on akashwaani hv read the original one only

      n thanx allot :):) seems u hd read the story earlier and remembered the end too :):)

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  16. सच का चिठ्ठा रखती है ये कहानी । धन्यवाद

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  17. एक झटके में पढ़ गया, फिर सोचा दोबारा रूम पर जाकर पढूंगा, दफ्तर में बैठे बैठे कई सारे लम्हें अन्दर उलझन मचाते रहे रहे... बाकी कहानी तो शानदार है, और आप वाकई में व्यस्त हैं..??? :P

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  18. बहुत अच्छी कहानी है रश्मि....
    बाँध के रखती हो ....
    हाँ दुखांत कहानी पढ़ के दुखी होना लाजमी है...
    शायद यही तो सफलता भी है लेखक की और उसकी कहानी की..

    सस्नेह
    अनु

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  19. कहानी पहली बार पढ़ रहा हूँ आपकी.. गलती मेरी थी.. लेकिन कहानी पढकर पूरा दृश्य आँखों के सामने से गुज़र गया.. मेरे इकलौते दोस्त का चेहरा बरबस आँखों के सामने आ गया.. और कहानी का अंत.. ओ हेनरी की तरह चौंकाने वाला!! रुलाने वाला!! दिल कचोटने वाला..!
    बहुत अच्छी कहानी!!

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  20. कल रात कहानी पढ़ी , अभी सुन रहा था ........

    मै तो कहानी में इस कदर घुल गया.,कहानी के दुखांत से मन में सहसा एक ही आवाज उठी है ...मै क्यूँ रोने लगा ये तो कहानी है .......

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  21. dil ko chhooti hai yah kahani, pahle bhi padh chuli thee. par aaj bhee wese hi dil ko chhoo gai.

    http://meourmeriaavaaragee.blogspot.in/2012/11/blog-post_8.html#comment-form

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