गुरुवार, 27 सितंबर 2012

उम्रदराज़ लोगों में लिव-इन रिलेशनशिप

जीवन के सांझ का अकेलापन, सबसे अधिक दुखदायी है. इसलिए भी कि जिंदगी की सुबह और दोपहर तो जीने की जद्दोजहद में ही बीत जाती है. सांझ ही ऐसा पडाव है,जहाँ पहुँचने तक अधिकांश जिम्मेदारियाँ पूरी हो गयी होती हैं. जीवन के भाग-दौड़ से भी निजात मिल जाती है और वो समय आता है,जब जिंदगी का लुत्फ़ ले सकें. सिर्फ अपने लिए जी सकें. अपने छूटे हुए शौक पूरे कर सकें. अब तक पति-पत्नी पैसे कमाने ,बच्चों को संभालने....सर पर छत का जुगाड़ और चूल्हे की गर्मी बचाए रखने की आपाधापी  में एक दूसरे का ख्याल नहीं रख पाते थे .एक साथ समय नहीं बिता पाते थे.और आजकल  उन्नत  चिकित्सा सुविधाएं ,अपने खान -पान..स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता ने लोगों की औसत आयु में काफी बढ़ोत्तरी कर दी है. स्त्री-पुरुष अपने जीवन की जिम्मेदारियाँ तो पूरी कर लेते हैं, पर मन और तन से सक्षम  रहते हुए भी,अकेलेपन के शिकार हो जाते हैं. बच्चे अक्सर दूसरे शहरों में या विदेश में बस जाते हैं या फिर उनकी जिंदगी की दोपहर की कड़ी धूप इतना  हलकान किए रहती है कि माता-पिता के साए की ठंढी छाँव में , दो पल सुस्ताने की मोहलत  भी नहीं देती. 
खासकर महानगरों में यह समस्या ज्यादा है .अक्सर फ़्लैट में रहने की वजह से माता-पिता के साथ बच्चे  कम ही रहते हैं. 

 पर ऐसे में अगर एक साथी का साथ  छूट जाए तो दूसरे के जीवन में किस कदर अकेलापन घर कर लेगा,यह कल्पनातीत है . मुंबई जैसे महानगर में तो असहनीय ही है. सरकार की तरफ से कई कदम उठाये जा रहे हैं. वरिष्ठ  नागरिकों  के लिए एक हेल्पलाइन है. जहाँ दो पुलिसकर्मी चौबीसों घंटे लगातार फोन पर उपलब्ध रहते हैं. वरिष्ठ नागरिक उन्हें अपनी समस्याएं बताते हैं. ज्यादातर वे लोग सिर्फ कुछ देर तक  बात करना चाहते हैं. कभी कभी यह कॉल दो दो घंटे तक की हो जाती है. अपने युवावस्था के सुनहरे दिन, छोटी-मोटी तकलीफें, रोजमर्रा की मुश्किलें ,इन्ही सबके विषय में बात करते हैं,वे.

इन सबके बावजूद आए दिन , लूट-पाट के लिए वरिष्ठ नागरिकों  की ह्त्या की घटनाएं बढती जा रही हैं. अभी हाल में ही मुंबई पुलिस विभाग की तरफ से यह घोषणा की गयी है कि हर एक पुलिसकर्मी एक वृद्ध को adopt  कर लेगा. उनकी सुरक्षा...उनके आराम उनकी सुविधा का ख्याल रखेगा. हमेशा उनसे मिलकर उनका हाल-चाल लेता रहेगा. फिर भी ये कहा जा रहा है कि यह कदम शत प्रतिशत कारगर सिद्ध नहीं होगा क्यूंकि  वरिष्ठ नागरिकों की संख्या बहुत ज्यादा है, जबकि पुलिसकर्मियों की कम. फिर भी कुछ फर्क तो पड़ेगा.

कुछ वरिष्ठ नागरिक   जिनके बच्चे ज्यादातर विदेशों में हैं और अपने पैरेंट्स की देखभाल के लिए अच्छी रकम खर्च करने को तैयार रहते हैं. उनके लिए भी कुछ सुविधाएं हैं. सारी सुख सुविधा से परिपूर्ण 'ओल्ड एज होम्स ' हैं. जहाँ उनका अपना कमरा होता है.एक पर्सनल सर्वेंट होते/होती है. बढ़िया खान-पान की व्यवस्था ,स्वास्थ्य सुविधाएं, मनोरंजन के साधन और बातें करने को संगी-साथी भी होते हैं. करीब तीन लाख डिपोजिट और हर महीने सोलह हज़ार की रकम देनी पड़ती है. आम लोगों की तो इतना खर्च करने की हैसियत नहीं होती. पर हाँ,जिनके पास पैसे हैं, वे इन सुविधाओं का लाभ उठा सकते हैं. पर फिर भी एक ख्याल आता है..वहाँ बंधी बंधाई रूटीन होती है. एकरस दिनचर्या होती है. ज्यादातर लोग पूजा-पाठ में ही समय व्यतीत करते हैं. 
हमारे धर्म में भी चौथा आश्रम 'वानप्रस्थ' का कहा गया  है. पर कुछ ऐसा नहीं लगता जैसे बस अपने दिन गिन रहे हों ??..जाने का इंतज़ार कर रहे हों? पर  फिर यह भी है..देखभाल..सुखसुविधा...मनोरंजन..संगी-साथी भी मिल जाते हैं. 

पिछले  कुछ वर्षों से जीवन की इस शाम की गहराती कालिमा को कुछ कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं. २००१ में नातुभाई पटेल ने एक संस्था की स्थापना की जिसके द्वारा  अकेले पड़ गए वरिष्ठ नागरिकों के  शादी के प्रयास किए गए. कई जोड़ों ने ब्याह किए पर नातुभाई पटेल को यह देख बहुत दुख हुआ कि कई शादियाँ टूट गयीं, कहीं पुत्रवधू ने नई सास को नहीं स्वीकार किया ,कहीं संपत्ति का विवाद छिड़ गया. जब २०१० में सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप को मान्यता दे दी तो २०११ में 'श्री लक्ष्मीदास ठक्कर'  ने नागपुर में  'ज्येष्ठांचे लिव-इन रिलेशनशिप मंडल ' की संस्था द्वारा पुनः प्रयास किए कि वरिष्ठ नागरिक बिना विवाह किए एक दूसरे के साथ, रहकर बाकी का जीवन एक दूसरे के साथ बिताएं. उनके इस प्रयास को काफी सफलता मिली. 

हालांकि यह सब  आसान नहीं रहा. सम्मलेन के संस्थापक बताते हैं, वरिष्ठ नागरिकों और उनके परिवारजनों की काउंसलिंग करनी पड़ती है .क्यूंकि अभी समाज इसे सहजता से नहीं स्वीकार पाता. मुंबई के कमला दास ने दो साल पहले अपनी पत्नी को खो दिया है और वे इस तरह के सम्बन्ध में  बंधना चाहते हैं. लोगों के विरोध पर वे कहते हैं, "युवजन क्या जाने कि अकेलापन क्या होता है..वे तो सारा समय मोबाइल के द्वारा या लैपटॉप के द्वारा किसी ना किसी से कनेक्टेड रहते हैं. मुश्किल हम जैसे लोगों के लिए है, जिनके लिए पहाड़  से दिन काटने मुश्किल हो जाते हैं "
विट्ठलभाई ने तीस साल की शादी के  बाद अपनी पत्नी को खो दिया पिछले चार साल से वे अकेले हैं. उनके पुत्र-पुत्रवधू उनसे अलग फ़्लैट में रहते हैं. वे काफी अकेलापन महसूस करते थे. अब वीनाबेन के साथ वे लिव-इन रिलेशनशिप में हैं और काफी खुश हैं. उन्हें एक दूसरे से कोइ अपेक्षाएं नहीं हैं. दोनों एक दूसरे की आदत नहीं बदलना चाहते. बस साथ रहते हैं. वीनाबेन का भी कहना है..'अपने पति की मृत्यु के बाद पहली बार वे सुरक्षित महसूस कर रही हैं.  पहले वे खाना खाना..अपनी दवाई लेना भूल जाती थीं. अब वे अपना और विट्ठलभाई   का भी ध्यान रखती हैं कि अपने स्वास्थ्य का ख्याल रखें. दोनों एक दूसरे का ख्याल रखते हैं." वे कहती हैं.."मैने समाज के सामने कुछ साबित करने के लिए यह कदम नहीं उठाया है. बल्कि अपनी जिंदगी को आरामदायक बनाने के लिए ऐसा निर्णय लिया. जब मैं शादी शुदा थी और जब पति को खो दिया तब भी समाज तो कुछ ना कुछ कहता था...इसलिए समाज की क्या परवाह करें " 

विट्ठलभाई का कहना  है , "दुबारा शादी करने से ज्यादा सुविधाजनक है , लिव-इन रिलेशनशिप में रहना ..मुझे अपने बेटों को समझाने में छः महीने लग गए. उन्हें चिंता थी कि मेरी मृत्यु के बाद मेरी संपत्ति कहीं वीनाबेन को ना मिल जाए. जबकि वे जानते थे मैं कितना अकेला हूँ, फिर भी उन्हें सिर्फ संपत्ति की ही चिंता थी." वीनाबेन की दोनों बेटियों ने माँ के इस निर्णय का समर्थन किया. नातुभाई पटेल ने २०११ में अहमदाबाद में ऐसे सम्मलेन आयोजित किए और कई वरिष्ठ नागरिकों ने  लिव-इन रिलेशनशिप में रहने का निर्णय किया. २०१२ में श्री पटेल ने रायपुर, इंदौर, भोपाल में ऐसे कई सम्मलेन किए गए  और हर शहर में इस सम्मलेन में करीब ३०० वरिष्ठ नागरिक शामिल हुए. उन्होंने कहा, 'इस व्यवस्था में दोनों पक्षों का एक दूसरे की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता. सारे नियम और शर्तें एक कागज़ पर लिखे जाते हैं और उस पर दोनों पक्षों द्वारा हस्ताक्षर किया जाता है. पर कई पुरुष स्वेच्छा से अपनी मृत्यु के बाद लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाली संगिनी के लिए कुछ रकम छोड़ जाने का प्रावधान करते हैं. पर इसकी बाध्यता नहीं है.'

तिरसठ वर्षीय 'सरयू केतकर' , जो पुणे ज्येष्ठ लिव-इन रिलेशनशिप मंडल की महिला शाखा की अध्यक्षा हैं, वे कहती हैं.."हमें महिलाओं की भावनात्मक काउंसलिंग करनी पड़ती है...क्यूंकि अक्सर पति की मृत्यु के बाद उन्हें ज्याद उपेक्षाएं झेलनी पड़ती हैं. और उनके लिए ऐसे कदम उठाना बहुत ही मुश्किल होता है. हमलोग ग्रुप्स को पिकनिक पर ले जाते हैं ताकि वे एक दूसरे से बातें कर सकें...एक दूसरे को समझ सकें. अक्सर महिलाएँ अपने पति को छोड़कर किसी परपुरुष के संपर्क में आती ही नहीं. उनके कोई पुरुष दोस्त नहीं होते...इसलिए उन्हें परपुरुष से बात करने में झिझक सी होती है. "

अभी तक मुझे भी व्यक्तिगत रूप से ,ऐसा ही लगता  था..अगर जीवन की सारी जिम्मेवारियाँ पूरी हो गयी हैं. बच्चे अपने पैरेंट्स का ख्याल रखते हैं तो फिर उन्हें दुबारा किसी जीवनसंगी की क्या जरूरत है? पर  MID Day अखबार में छपे एक आलेख और इंटरनेट पर बिखरी हुई सम्बंधित  सामग्री ने बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया. अब अगर कोई वरिष्ठ नागरिक ऐसा  निर्णय लेते हैं तो उनके इस निर्णय के प्रति आदर ही रहेगा,मन में. 

शनिवार, 15 सितंबर 2012

पूरी हुई तीसरी पारी...पर बल्लेबाजी अब तक है जारी :)


तीसरी पारी पूरी हुई यानि कि तीन साल हो गए ब्लॉगजगत में कदम रखे. बल्लेबाजी चल ही रही है...चौकों-छक्कों का नहीं पता...पर रन तो बनते ही रहे, यानि लिखना चलता रहा.
इच्छा हुई, जरा ब्लॉग बही को उलट- पुलट कर देखा जाए.

ब्लॉग शुरू करने से पहले की कशमकश भी याद आ रही है. जब अजय (ब्रह्मात्मज ) भैया ने कहा था कम से कम अब तक जो लिखा है...वो तो एक जगह एकत्रित हो जाएगा. यही सोच कर ब्लॉग बना लो. पर मैने  जो कुछ लिखा था वो अट्ठारह साल पहले..अपने कॉलेज के दिनों में. घर गृहस्थी की उलझन और मुंबई प्रवास ने तो हिंदी पढ़ने से भी वंचित कर रखा था तो लिखने का मौका कहाँ से आता. सोच रही थी...जितना लिखा है,वो टाइप करके डाल दूंगी..
पर उसके बाद?...उस से आगे? 
लेकिन 
लेकिन 
बस, एक पहले से लिखी पुरानी कहानी और एक कविता पोस्ट कर दी...पर इन दोनों पोस्ट ने ही मानो बाँध की मेड से मिटटी हटा दी..और हहराता हुआ लेखन प्रवाह इस गति से बह निकला..कि इन तीन सालों में दोनों ब्लॉग में कुल 321 पोस्ट लिख डालीं. अब क्या लिखा ..कैसा लिखा ..इसका आकलन तो गुणीजन करेंगे पर हम तो इतना जानते हैं कि खूब सारा लिखा. :)
समसामयिक विषय....कुछ सामाजिक मुद्दे...संस्मरण..खेल...फ़िल्में..कहानियाँ  और  कुच्छेक   कविताएँ {वो भी पता नहीं,कैसे लिख डालीं :)} .ब्लॉग्गिंग की वजह से कई सारे मौके भी मिले. 

दिल में ये कशमकश भी हमेशा जारी रहती है...कहानी या सामाजिक आलेख??  दिमाग कहे..."कहानी लिखो.." और दिल किसी ना किसी सामाजिक या समससामयिक विषय पर आ जाए . पर कभी -कभी दिमाग की जोरदार डांट सुन, दिल को कहानी में मन लगाना ही पड़ता है और फिर इस तरह कहानी में दिल रमता  कि १८ किस्त हो जाते हैं और पता ही नहीं चलता. इस साल फ़रवरी में एक लम्बी कहानी शुरू करने से पहले एक अख़बार के आग्रह पर उनके लिए एक आलेख लिखा था...उन्हें बहुत पसंद आया और उन्होंने नियमित एक कॉलम लिखने का प्रस्ताव ही रख दिया .पर तब तक मैं कहानी लिखना शुरू कर चुकी थी.  दिमाग ने फुसलाया .."कहानी के बीच बीच में समय निकाल कोशिश कर लो" पर दिल ने साफ़ कह दिया.."खुद ही तो कहा ,कहानी लिखो..अब मन लगाकर कहानी लिखने दो.." वो कहानी भी कुछ ऐसी थी कि  डूब कर, महसूस करके  लिखना जरूरी था.

अवसरें गंवाने का ये मौका नया नहीं है...:( .क्या ये सिलसिला चलता रहेगा...हमेशा कोई ऑफर  ऐसे अवसर पर ही क्यूँ आता है जब सामने दोराहे होते हैं और निर्णय लेना मुश्किल हो जाता है....रेडियो  स्टेशन में काम  (जुड़ी तो अब भी हूँ आकाशवाणी से पर नियमित जॉब नहीं स्वीकार कर सकी.) और कॉलेज में पेंटिंग  सिखाने का ऑफर  तब आया था जब मेरे बेटे दसवीं में थे.

पर एकाध मौके ऐसे भी आए जब सारा जहां  ( अब मेरे जानने वाले ही मेरे जहां   हैं ) एक तरफ और मेरी  मकर राशि (capricorn )  का मिजाज़ एक तरफ. (कहते हैं  capricornian..     surefooted होते हैं ,सोच -समझकर निर्णय लेते हैं,पर फिर अपने निर्णय से जल्दी नहीं हटते. मन की ही करते हैं. ) वैसे भी मेरे मित्र तो कहते हैं तुम्हारी फितरत है.." सुनो सबकी..करो अपने मन की " कुछ तो ये भी कहते हैं..जिनके नाम के अंत में 'मि' या 'मी'   हो वे अपनी मर्जी के मालिक होते हैं ( अजीबोगरीब फंडे हैं ) 

हुआ यूँ कि  इस ब्लॉग लेखन की बदौलत टी.वी.से एक ऑफर आया. एक प्रसिद्द प्रोडक्शन कंपनी (बाला जी टेलीफिल्म्स नहीं ) वाले एक नेशनल चैनल के लिए एक नया प्रोग्राम बना रहे हैं...उनलोगों ने निलेश मिश्र ('याद शहर' फेम वाले और 'जादू है... नशा है'..जैसे गीत के रचयिता ) से चर्चा की...निलेश जी ने अनु सिंह चौधरी से जिक्र किया कि मुंबई की एक महिला से संपर्क करना चाहते हैं...और अनु ने हमारा नाम सुझा दिया . उस प्रोग्राम की डायरेक्टर नेशनल अवार्ड विनर  फिल्म की कहानी लिख चुकी हैं. उन्होंने मेरा ब्लॉग देखा...कई पोस्ट पढ़ीं...उन्हें  पसंद आया और मेरे पास एक मेल आया कि इस प्रोग्राम  के सिलसिले में मिलना चाहती हैं. मुझे भला क्या एतराज होता. और उनकी असिस्टेंट ने इतनी स्वीटली  बात की थी..."आप को डिस्टर्ब तो नहीं कर रही...कब कॉल करूँ..कब का अपोयेंटमेंट  देंगी आप ? {जैसे पता नहीं, कितनी बड़ी लेखिका हूँ :)}

नियत समय पर हम उनके ऑफिस पहुँच गए. बड़ा सा कॉन्फ्रेंस रूम और छः लोग ..चार लड़के और दो लडकियाँ, मुझे प्रोग्राम की रूपरेखा समझाने के लिए बैठे थे. गोल मेज की एक तरफ मैं बैठ गयी.  मुझे लगा था लिखने का काम होगा, परदे के पीछे रहकर पर यहाँ परदे के सामने आना था. वे मुंबई की पांच अलग-अलग उम्र और अलग अलग वर्ग की महिलाओं की रोजमर्रा की जिंदगी...उनकी सोच...उनके सपने...पर आधारित कार्यक्रम बनाना चाहती थीं. इसमें कैमरा महिला के सुपुर्द ही कर देना था कि वो जो चाहे शूट करे...अपनी नज़र से दुनिया को कैमरे में कैद करे. अपनी रोजमर्रा की जिंदगी भी. वे यह दिखाना चाहती थीं  कि महिला किसी भी वर्ग की हो...उम्र की हो..उनकी सोच आपस में मिलती-जुलती होती है.

पर यह सुनकर मेरा मन हामी भरने को तैयार नहीं हुआ. मुझे कैमरे के सामने नहीं...पीछे की दुनिया पसंद थी. मैने तो पहले ही 'ना' कह दिया. पर वे 'ना' सुनने को तैयार नहीं...करीब 3 घंटे तक वे सब मुझे कन्विंस करने की कोशिश करते रहे. हमें तो पता ही नहीं...पर उन्हें मेरी लाइफ बड़ी इंटरेस्टिंग लग रही थी. एक छोटे शहर से आई हूँ...मुंबई में रम गयी...यहाँ के जीवन को आत्मसात कर लिया...ब्लॉग है...कहानियाँ लिखती हूँ...वगैरह..वगैरह . अपने  प्रोग्राम के लिए मेरा चयन उन्हें बिलकुल परफेक्ट लग रहा था. 

उनलोगों का बार-बार कहना था 'आप क्यूँ हिचकिचा रही हैं'...हमारी तरफ से कोई निर्देश नहीं होगा. कोई इंटरफेयारेंस  नहीं होगा. आप कैमरे पर जो दिखाना चाहती हैं...बस वही शूट कीजिए. हमारी टीम का कोई मेंबर आपके घर भी नहीं जाएगा,यह सब कॉन्ट्रेक्ट में लिखा होगा. मैं बीच -बीच में कह भी देती ,'आपलोग बेकार  टाइम वेस्ट कर रहे हैं...मैं 'हाँ' नहीं कहने वाली'.पर उनका कहना था, "आपके माध्यम से बहुत कुछ पता चल रहा है..एक महिला के सपने..उसकी सोच..उसकी रोजमर्रा की जिंदगी..." वे लोग अपनी नोट बुक में कुछ नोट भी करते जा रहे थे. उन्होंने कैमरा ऑन करने के लिए भी कहा...कि ये इंटरव्यू रेकॉर्ड करना चाहते हैं. पर जब मैने मना कर दिया तो तुरंत मान  गए कि 'ठीक है...जब आप कम्फर्टेबल नहीं हैं तो  रेकॉर्ड नहीं करेंगे.' 
मेरी पूरी जिंदगी के पन्ने दर  पन्ने पलटे  जा रहे थे. कहाँ से स्कूलिंग की??..कहाँ कॉलेज में पढ़ी?...जीवन  में क्या करना चाहती थी??...क्या सपने थे??.." मुझे भी वो सब कहते हुए लग रहा था कि कब से यूँ पलट कर अपनी जिंदगी को देखा ही नहीं. 

आखिर विदा लेते समय भी उन्होंने यही कहा..." घर जाकर, अच्छी तरह इस ऑफर पर विचार कीजिए...परिवार जन...सबसे सलाह ले लीजिये...फिर फैसला करिए "
परिवार वाले पहले तो थोड़ा सा हिचकिचाए पर किसी ने भी 'ना ' नहीं कहा. 
पतिदेव  ने तो बड़ा डिप्लोमैटिकली  कहा..".देख लो..करना तो तुम्हे है..." 
बड़े बेटे किंजल्क  ने कहा ,"मैं तो ज्यादातर बाहर ही रहता हूँ....बस कैमरे को हाय  और बाय ही बोलूँगा..." 
छोटे बेटे कनिष्क की छुट्टियाँ चल रही थीं...वो थोड़ा असहज था पर उसने कहा.."मैं तो सारा समय अखबार पढता रहूँगा. कैमरा जब भी सामने आएगा...पेपर सामने कर लूँगा " 

पर मना किसी ने नहीं किया. ये नहीं कहा कि 'इंकार कर दो.' सहेलियों से  चर्चा की तो  वे तो ख़ुशी से उछल गयीं..."तुम्हे जरूर करना चाहिए..ऐसे मौके बार बार नहीं आते..मौका हाथ से जाने मत दो..आगे भी तुम्हे सहायता  मिलेगी..जान-पहचान बढ़ेगी...आदि आदि ." 

माता-पिता..भाई-भाभी तो इसी बात से खुश हो गए कि हमें टी.वी. पर देखते रहेंगे. मेरी कजिन अलका  ने तो डांट ही दिया.."पागल हो तुम...ऐसा मौका  कोई छोड़ता है?..चुपचाप 'हाँ ' कह दो.."

विभा (रानी )भाभी ने कहा.."कुछ नया करने का मौका मिलेगा...इसे एक चैलेन्ज की तरह लो."

कुछ ब्लॉगर मित्रों से चर्चा  करने पर सुनने को मिला ," दुनिया को बचा क्या है..आपके बारे में जानने के लिए...अपने परिवार...दोस्तों के फोटो ब्लॉग-फेसबुक पर लगाती ही हैं...ब्लॉग में अपने जीवन से सम्बंधित घटनाएँ लिखती ही हैं...ये ऑफर स्वीकार कर लेनी चाहिए."

मतलब ये कि हर दरवाजा खटखटा लिया  कि कोई तो मेरे निर्णय को सही बताए और मुझे संतोष .मिले...पर नहीं..जैसे अपना सलीब सबको खुद ही ढोना पड़ता है...वैसे ही अपने निर्णय का सलीब भी मुझे ही ढोना  था .
और उस पर से पैसे भी बड़े अच्छे मिल रहे थे. इतने पैसे तो मैं खुद कमाने की कभी सोच भी  नहीं सकती थी .
पर मुझे खुद को यूँ टी.वी. स्क्रीन पर देखना मंजूर ही नहीं हो रहा था. अभी ख्याल आ रहा है...अपना ब्लॉगजगत भी फेमस हो जाता. मेरी रोजमर्रा की जिंदगी में तो ये भी शामिल है..यहाँ की अच्छाइयां....राजनीति....गुटबंदियां ...सब दर्शकों के सामने आ जातीं..:)

एक बार निलेश मिश्र की 'मंडे मंडली' में स्टोरी सेशन के लिए गयी थी. वहाँ भी इस कार्यक्रम की बड़ी चर्चा सुनी. वहाँ भी सबका कहना था..आपको स्वीकार कर लेना चाहिए था. प्रोडक्शन कंपनी से  मेल और उनके कॉल्स भी आते रहे .सबके यूँ कहने पर हर  बार पुनर्विचार करने को विवश होती  पर फिर वही अपनी तो एक बार ना..हज़ार बार ना :)
पर ब्लॉग्गिंग को एक थैंक्यू तो बनता है..ऐसे अवसर उपलब्ध करवाने के लिए :)

तीन साल हो गए ब्लॉग्गिंग करते हुए .मन ये सवाल भी करता है...क्या सारी जिंदगी यही करते रहना है या कुछ और आजमाना चाहिए? ऎसी  ही कुछ असमंजस  की स्थिति एम.ए के इम्तिहान के बाद आई थी  जब इम्तिहान के बाद मैं दुविधा में थी कि अब आगे क्या करना चाहिए. कम्पीटीशन की तैयारी...या एम.फिल. या कुछ और ? उन्ही दिनों  'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में एक विषय पर आलेख आमंत्रित थे ,"डिग्री तो हासिल कर ली..अब क्या करें.." और मैने अपने मन का सारा कशमकश उंडेल दिया था उस आलेख में जो छपा भी था.

पर उसके बाद जल्द ही शादी हो गयी...पतिदेव की अतिव्यस्तता ने बच्चों की सारी जिम्मेवारी मेरे कन्धों पर ही डाल दी . और मैं पूरी तरह उन्हें बड़ा करने में रम गयी. छोटा बेटा जब दसवीं में आया तब ब्लॉग्गिंग  में कदम रखा...और पूरी तरह ब्लॉग्गिंग में खो गयी. 

पर ब्लॉग्गिंग  ने मेरी पेंटिंग लगभग बंद ही करवा दी है..पढना भी पहले से कम हो गया है. पहले तो हफ्ते में दो किताबें ख़त्म कर देती थी. मन को समझा तो लेती हूँ...इतने दिनों सिर्फ पढ़ा,अब लिख रही हो..पर सतत अच्छी किताबें पढना भी बहुत जरूरी है. 

 अब तक जिंदगी जैसे एक तनी हुई रस्सी पर चलने जैसा था. सारे समय ये चिंता ,अपनी पढ़ाई में अच्छा करना है.....बाद में बच्चे अपनी पढ़ाई..खेलकूद..दूसरी गतिविधियों में अच्छा करें..इसकी चिंता. कभी ये भी सोचती हूँ..रिलैक्स होकर बहने दूँ जिंदगी को,अपनी रफ़्तार से. जब जो अच्छा लगे ..जैसा जी में आए,बस  वैसा ही करूँ... पर ऐसे जीने की आदत ही नहीं पड़ी ना. :) कुछ कुछ ना कुछ चैलेंज तो जीवन में चाहिए. 

हाँ, लिखना तो शायद ना छूटे कभी...क्यूंकि इतना तो जान लिया है कि यही है जो de stress करता है .चाहे तन और मन कितना भी थका हुआ हो...थोड़ा सा लिख कर ही रिफ्रेश हो जाती हूँ. 

तो हम लिखते रहेंगे...आपलोग  पढ़ते रहिए :)

ब्लॉग की पहली और दूसरी सालगिरह पर भी पोस्ट यहाँ और यहाँ  लिखी थी. 

गुरुवार, 6 सितंबर 2012

आखिर कितने सोने-हीरे के मुकुट भगवान की मूर्तियाँ पहनेंगीं?



हाल में ही टी.वी. पर  देखा, समाचार पत्रों में पढ़ा . शिरडी के साईं बाबा को कोई भक्त एक करोड़ २७ लाख रुपये का हीरा, श्रद्धास्वरूप चढ़ा गया. उसे नीलाम  करने पर मंदिर को डेढ़ करोड़ रुपये मिलने की आशा है. वैसे भी पूरे साल देश के कोने कोने से लोग आते हैं और अपनी श्रद्धा और सामर्थ्यानुसार  रुपये,सोना ,चांदी अर्पण कर जाते हैं. 

शिरडी के जो बाबा फकीरों की तरह रहे, आज उनके लिए १००  किलो सोने का सिंहासन बनाया गया है जिसकी कीमत २७  करोड़ है.  ३० लाख का मुकुट है तो आस-पास के खम्भों ,छत वगैरह की सजावट ७५ लाख के सोने की है. भक्तों द्वारा लगभग ४५० करोड़ रुपये और ३०० किलो सोना चढ़ाया गया है.

तिरुपति बाला  जी मंदिर में तो इस से भी ज्यादा चढ़ावे चढ़ाए जाते हैं. ५०  हज़ार करोड़ रुपये की संपत्ति है, उनके पास
सालाना आमदनी करीब १७ करोड़ रुपये और  १००  किलो सोने की है. एक सिर्फ रामनवमी के दिन ५ करोड़ रुपये चढ़ाए गए.
 १३३ करोड़ तो सिर्फ वहाँ  अर्पित किए गए बालों की बिक्री से प्राप्त होते हैं.

मुंबई में गणपति उत्सव के दौरान 'लाल बाग़ के राजा ' ,लाल बाग़ एक स्थान हैं..जहाँ सबसे ऊँची गणपति की मूर्ति स्थापित की जाती है और बहुत महात्म्य है उनका. १८ घंटे तक क्यू  में खड़े होकर लोग दर्शन करने जाते हैं. दस दिनों  में ही करोड़ों रुपये चढ़ाए जाते हैं. सोने का हार, लौकेट,गणपति की मूर्ति. 
२०११ में इन दस दिनों में  करीब १५ करोड़ रुपये और ७ किलो सोना चढ़ाया गया.

सिद्धिविनायक मंदिर में भी करीब ४०० करोड़ रुपये और २०० किलो  का सोना चढ़ाया गया  है.

अब सवाल ये है कि इन  पैसों का होता क्या है.?अगर ट्रस्ट  बनाए जाते हैं तो ट्रस्ट कौन से सेवा कार्य करते हैं ? आम लोगों को इसकी कितनी जानकारी है ? और इन पैसों के हिसाब-किताब में कितनी पारदर्शिता है ?

मैने नेट पर से कुछ जानकारी  लेने की कोशिश की. बस शिरडी के साईं बाबा के ट्रस्ट द्वारा किए  गए सेवा कार्य की जानकारी मिली. भारत के कई शहरों में उनके द्वारा बनाए गए कैंसर हॉस्पिटल, अनाथालय, विकलांगों के लिए स्कूल, मूक-बधिर स्कूल आदि  की स्थापना की गयी है. अब कितनी सच्चाई है, इन सबमे ये नहीं पता. क्यूंकि यह जानकारी स्वयं ट्रस्ट द्वारा उपलब्ध कराई गयी है. 

मुंबई के सिद्धि विनायक मंदिर  ट्रस्ट में कई धांधलियों के आरोप की वजह से 2004 में मुंबई हाईकोर्ट ने एक कमिटी बनाई .रिटायर्ड जज वी.पी. टीपनीस  उसके हेड नियुक्त किए गए. कमिटी ने अपनी रिपोर्ट में ट्रस्ट में कई अनियमितताओं की बात कही. और बताया कि ट्रस्ट किसी भी नियम का अनुसरण नहीं करता . ट्रस्ट से लाभान्वित वही लोग होते हैं , जिन्हें ट्रस्टी  या कोई मंत्री या नेतागण रेकमेंड करते हैं. वो  ज्यादातर रूलिंग पार्टी के होते हैं. 
अब इसमें आम गरीब जनता की पहुँच कैसे हो? उन्हें कोई लाभ कहाँ से मिले? कमोबेश  हर मंदिर के ट्रस्ट की असलियत यही होगी. 

आज ये सब लिखने का ख्याल इसलिए आया क्यूंकि एक महिला की परेशानी देख, मन बहुत ही दुखी है. हमलोग मॉर्निंग वाक  पर जाते हैं. वहीँ रास्ते में वो अपने  जूस का स्टॉल लगाती  हैं. करेले,नीम,अदरक,तुलसी वगैरह का जूस कई प्रातः भ्रमण वाले बड़े शौक से पीते हैं. कई बार हम भी चले जाते हैं और हमारी अक्सर बातचीत हो जाती है. उनका बेटा बहुत ही अच्छा फुटबॉल  प्लेयर है.( एक बार मैने एक पोस्ट में जिक्र किया भी था कि उनके बेटे के स्कूल की टीम और शाहरूख खान के बेटे के स्कूल की टीम के बीच मैच था. खेल का मैदान ही है, जहाँ शाहरुख के बेटे और एक ऑटो रिक्शा चलाने वाले का बेटा एक साथ खेल सकते हैं ) . करीब एक  साल पहले वो जरा लंगड़ा कर चलने लगा...बायाँ हाथ भी कांपने लगा...बाईं तरफ को सर झुक सा गया था. डॉक्टर  ने बताया कि गर्दन के पास एक ट्यूमर है. जो मस्तिष्क की तरफ जाने वाली नस पर दबाव  डाल रहा है, ऑपरेशन करना होगा. उस बच्चे के पिता ऑटो-रिक्शा चलाते हैं. हम सब फ्रेंड्स  ने और भी लोगों ने यथासंभव मदद की . ऑपरेशन  हो गया लेकिन डॉक्टर  ने ये भी कहा था..एक ऑपरेशन और करना होगा. उस समय तो दो महीने के आराम के बाद लड़का स्वस्थ हो गया. उसने दसवीं की परीक्षा भी दी  ७०% लेकर पास भी हो गया. कॉलेज में एडमिशन भी हो गया है.

पर अब फिर से उसे परेशानी होने लगी है. डॉक्टर ने जल्द से जल्द ऑपरेशन के लिए कहा है. पर उसमे तीन लाख रुपये लगेंगे. हमलोग भी कोई इतने धन्ना सेठ तो हैं नहीं...कितनी मदद कर पायेंगे?? वो कई ट्रस्ट के पास जा रही है. कोशिश कर रही है. सिद्धिविनायक मंदिर वाले ट्रस्ट  ने कह दिया है, वे सिर्फ कैंसर और हार्ट पेशेंट की ही मदद करते हैं. मंत्रालय से उसे पंद्रह हज़ार रुपये दिए गए हैं. यहाँ के  एम.एल.ए  ने पांच हज़ार रुपये दिए हैं. जबकि वो एक मराठी है. अभी हमलोग भी कोशिश कर रहे हैं ,फंड्स इकट्ठा करने की...कामयाबी मिलेगी ही. पर ये एक अकेले इसी बच्चे की बात तो नहीं है...जाने कितने लोग सही इलाज के अभाव में कष्ट उठाते रहते हैं. 
जब इन मंदिरों में इतने रुपये का चढ़ावा चढ़ाया जाता है तो वे कुछ रकम  ऐसे जरूरतमंदों की मदद के लिए क्यूँ नहीं रखते ? 

मुंबई में ही और भी कई मंदिर हैं जहाँ अच्छी खासी रकम चढ़ावे के रूप में जमा होती है . उन पैसों को इन गरीबों के इलाज के लिए देना चाहिए. इसमें उन्हें धांधली की आशंका हो कि कई लोग झूठ बोल कर पैसे ले सकते हैं तो जेनुइन केस की जांच के लिए वे नागरिकों  को नियुक्त सकते हैं . कई रिटायर्ड लोग हैं, हाउस वाइव्स हैं. वे लोग छानबीन कर के सही लोगों का पता कर सकते हैं कि किसे सचमुच में जरूरत है. वैसे भी डॉक्टर की चिट्ठी..जांच की सारी रिपोर्ट के बाद ही कोई भी ट्रस्ट पैसा देती है.

ये बात इसलिए और भी खलती है क्यूंकि मैं जहाँ रहती हूँ वहाँ आस-पास बहुत सारे चर्च  हैं और वे इस तरह के सेवाकार्य करते रहते हैं. उनके ट्रस्ट द्वारा संचालित एक बढ़िया हॉस्पिटल है, उसमे कैथोलिक गरीबों का मुफ्त या बहुत ही मिनिमम चार्ज लेकर इलाज़ होता है. हर चर्च गरीबो को अच्छी रकम  देकर उनकी मदद करता है. मैने एक पोस्ट लिखी थी कि कैसे दिन  में घर घर बर्तन मांजने वाली और शाम को सर पर टोकरी लेकर मछली बेचने वाली एक महिला का बेटा कई दिनों तक ICU  में रहा. और फिर ठीक होकर घर चला गया.

यहाँ मेरी  किसी धर्म को श्रेष्ठ बताने की मंशा नहीं है.  पर किसी भी धर्म की अच्छी बातों का अनुसरण हम क्यूँ नहीं कर सकते? मंदिरों में चढ़ाए गए पैसों  का सही कार्य के लिए उपयोग हो और जरूरत मंदों की  मदद की जाए. तो कितने ही आँखों के आँसू  पोंछे जा सकेंगे और कितने ही लोगों को जीवनदान मिल सकेगा. कई साधनविहीन लोग इन सुविधाओं का लाभ उठा सकेंगे. 

मेरी व्यक्तिगत राय तो यही है कि इस तरह लाखों  का दान देने के बदले, दान देने वाला व्यक्ति अपने आस-पास के जरूरत मंदों की मदद क्यूँ नहीं करता?  अगर ईश्वर की कृपा से उसका काम  सफल होता है तो उन्हीं ईश्वर का नाम लेकर ,उन्हीं के  नाम पर लोगो की मदद कर सकता है. क्यूंकि उन्हें भी यह जानकारी तो है कि वे जो इतना धन भगवान को अर्पण कर रहे हैं .उस धन का हो क्या रहा है? आखिर कितने सोने-हीरे के मुकुट भगवान की मूर्तियाँ पहनेंगीं? वो पैसा मंदिर की देख-रेख करने वाले ही अपनी जेब के हवाले कर रहे हैं. 

लोग कहते हैं, दान गुप्त होने चाहिए तो अगर लोग चाहें  तो पता भी ना चले कि किसने किसकी मदद की. बहुत अफ़सोस होता है एक तरफ यूँ जरूरत मंदों को पैसों पैसों  का मोहताज होते देख और दूसरी तरफ मंदिरों में सोने चांदी की ढेरियाँ और रुपयों की गड्डियों की थाक देख. 

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