रविवार, 29 जुलाई 2012

गैर फ़िल्मी वीर-ज़ारा ने ना मानी सरहद की हद


बचपन में एक कहानी सुनी थी जिसमे एक राक्षस को देखकर सारे मनुष्य छुप जाते थे पर राक्षस को उनकी  गंध आती थी और वो 'मानुस गंध...मानुस गंध' कहता हुआ उन्हें ढूँढने की कोशिश करता रहता था. जब से ब्लॉग बनाया है...मुझे भी जैसे हमेशा कहानी की गंध आती रहती है...{अब यहाँ सिर्फ गंध वाली समानता ही देखी जाए :)}किसी ने कहीं किसी घटना का जिक्र किया और मैने उसमे छुपी कहानी(आलेख,संस्मरण ) देख कर अपनी फरमाइश रख दी..'मुझे लिख भेजिए' .इस क्रम में...ममता कुमार, इंदिरा शेट्टी, जया मेनन   और जी.जी. शेख मेरे आग्रह पर मेरे ब्लॉग पर लिख चुके हैं. अभी पिछली पोस्ट पर युवा  कवि अविनाश चन्द्र जी ने सरहद पार की एक प्रेम कथा का जिक्र किया मैने आदतवश तड़ से फरमाइश कर दी और उन्होंने उसे झट से पूरा कर दिया. शुक्रिया अविनाश :)
शुक्रिया ममता भाभी का भी..जिन्होंने मुझे ब्लॉग बनने के लिए सिर्फ प्रोत्साहित ही नहीं किया बल्कि पहली पोस्ट से लेकर अब तक मेरी सारी पोस्ट पढ़ी  भी है.पर उन्हें दुखांत प्रकरण या  दुखांत कहानियाँ पसंद नहीं हैं...हमेशा की तरह पिछली पोस्ट पर भी उन्होंने हैप्पी एंडिंग वाले आलेख  की डिमांड की और इस पोस्ट का ख्याल अंकुरित हुआ.

तो सबसे पहले अविनाश जी की सीमा पार वाले नॉन ग्लैमरस वीर ज़ारा की कहानी. जिसे उनके वरिष्ठ सहकर्मी ने उन्हें सुनायी थी.

मुझे साल एकदम सही से याद नहीं, २००४ या २००५ की बात है (यानि जब मैं नया नया कॉलेज गया रहा होऊंगा)।
जिस कंपनी में मैं काम करता हूँ उसके business clients दुनिया में हर जगह हैं और जिस ख़ास client के लिए हमारी division काम करती है उसके तब एशिया में २ पार्टनर हुआ करते थे - एक हम और एक पाकिस्तानी कंपनी।

तो पाकिस्तान से उनका एक पूरा ग्रुप ताजमहल देखने आया था, यहाँ से भी १२-१५ लोग गए थे - फ्रेशर टाइप के जिन्हें थोडा समय मिल जाता है, शुरुआत में। मेरे वर्तमान सहकर्मी नितिन भी जाने वालों में से एक थे और वहाँ उनकी ठीक-ठाक पहचान आसिफ नाम के लड़के से हो गई जो लगभग उसी technology पर काम करता था और दोनों एक दूसरे के नाम से पहले से हल्का-फुल्का परिचित थे। जैसा कि होता है, वापसी के समय दोनों ने numbers exchange किये - डेस्क का land-line नंबर, अविश्वास एक कारण हो सकता है - मैंने पूछा नहीं।

offices में एक एरिया में एक फ़ोन होना आम बात है, जिससे ३-४ लोग उसी से काम चला सकें। हाँ, senior लोगों को individual फ़ोन ही मिलते थे।
नितिन जब भी आसिफ को फ़ोन करते हमेशा एक लड़की उठाया करती, फ़ोन उसी के करीब रखा रहता हो शायद। मामूली औपचारिक अभिवादन के बाद फ़ोन आसिफ के पास चला जाता।
धीरे-धीरे फ़ोन, ऑरकुट, chat-rooms, yahoo messenger (तब तक facebook ज्यादा प्रचलित नहीं था )  के सहारे इनके सम्बन्ध प्रगाढ़ हुए।

दोनों ने एक दो बार एक दूसरे को वाघा पर जा कर देखा भी। ये मुझे भी फ़िल्मी लगता है।
२००९ तक (तब मुझे नौकरी करते साल भर हो चुका था) दोनों ने शादी करना तय किया और लड़के के घर वाले तो जैसे तैसे मान गए (उसने यही कहा है) पर लड़की के पिता जो की वहाँ की आर्मी में general है (वो जनरैल कहतीं हैं) को तो बिलकुल नहीं मानना था।  वापस कभी पाकिस्तान न आने की शर्त पर, सम्बन्ध तोड़ देने की शर्त पर उन्होंने उसे जाने दिया और दिसम्बर २०१० में दोनों ने शादी कर ली।

उन्हें हर १५ दिन में ढेरों दफ्तर के चक्कर लगाने पड़ते हैं, दिल्ली छोड़ के जाने पहले भी बहुत जगह applications डालतीं हैं।
एक बार (reception dinner पर) हम भी मिले थे उनसे।
उनकी हिंदी और उर्दू दोनों ही निहायत ख़राब है (अंग्रेज़ी-पंजाबी बेशक ठीक है) पर वो बॉलीवुड के गाने अच्छे गा लेती हैं। इस मोड़ से जाते हैं, कुछ सुस्त कदम रस्ते.....:)

दुआ है, उनका प्रेम यूँ ही परवान चढ़ता रहे...जिंदगी की राह में और कठिनाइयां ना आएँ..और जीवन खुशहाल बना रहे.

किसी रोमांचकारी फिल्म सा वाकया

अक्सर युवा मित्र अपनी समस्याएं रखते रहते हैं..और मैं  भी agony aunt  का अवतरण धारण कर उसे सुलझाने की पूरी कोशिश करती हूँ. पर नीलाभ की समस्या बड़ी अजीबोगरीब थी. उसने कहा 'मेरी शादी की पहली वर्षगाँठ  आ रही है..पर समझ नहीं आ रहा किस दिन मनाऊं?' मेरे चौंकने पर वो हंसा और फिर बोला..'मैने अब तक बताया नहीं कि मेरी तीन बार शादी हुई है " मैं कुछ कहती इसके पहले ही उसने जोड़ दिया.."एक ही लड़की से तीन बार..."
और आगे जो उसने बताया वो किसी थ्रिलर से कम नहीं था.

नीलाभ और महेश बचपन से ही बेस्ट फ्रेंड्स हैं. उनका एक दूसरे के घर आना-जाना भी था. महेश की  एक छोटी बहन मीना है...पर नीलाभ उस से ज्यादा  बातें नहीं करता  था. एक बार महेश बीमार था...उसका हाल पूछने के लिए  नीलाभ ने फोन किया. महेश सो रहा था...फोन छोटी बहन ने उठाया...और इन दोनों ने देर तक बातें की...और दोनों के बीच प्रेम का अंकुर  प्रस्फुटित होने लगा.. महेश को इनके रिश्ते से कोई एतराज नहीं था. उसके माता-पिता भी नीलाभ के साथ मीना के घूमने-फिरने  से मना नहीं करते थे. गरबा हो या न्यू इयर पार्टी...नीलाभ देर रात मीना को उसके घर छोड़ता. 
पर मीना के माता-पिता उसकी शादी कहीं और तय करने लगे. जब मीना  ने नीलाभ से शादी की इच्छा जताई तो माता-पिता का तर्क था..."नीलाभ मराठी है..और हम सिन्धी..ये शादी नहीं हो सकती." जब नीलाभ के यह कहने पर 'फिर आपने हमें साथ घूमने-फिरने की इजाज़त क्यूँ दी?' उनका अजीबोगरीब तर्क था.."मीना  तुम्हारे साथ सुरक्षित रहती...हमें तुम पर भरोसा था...तुमसे दोस्ती नहीं होती तो शायद किसी और लड़के से उसकी दोस्ती हो जाती और वो हमें पसंद नहीं था" 
 मीना का भाई महेश इन दोनों की शादी के पक्ष में था पर वो विदेश चला गया था..वहाँ से फोन से अपने माता-पिता को नाकाम समझाने की कोशिश करता रहता. मीना के माता-पिता किसी तरह नहीं माने और एक जगह मीना की बात पक्की कर दी. इतवार को लड़के वाले मीना के घर आने वाले थे. मीना  ने ये बात नीलाभ को बतायी और शनिवार की रात नीलाभ फुल स्लीव की शर्ट और पैंट पहनकर तैयार हो गया .उसकी माँ ने पूछा भी...इतनी रात को फौर्मल्स  पहनकर कहाँ जा रहे हो ? अब क्या कहता.शरीफ बनकर लड़की का हाथ मांगने जा रहा हूँ...:)

नीलाभ उनके घर पर जाकर सोफे पर जम गया...कि 'आपलोग जबतक हमारी शादी के लिए हाँ नहीं कहेंगे...मैं यहाँ से नहीं उठूँगा.' मीना भी अपने माता-पिता को मनाने की कोशिश करने लगी. पर उसके पैरेंट्स की एक ही रट थी...'हमारी जाति एक नहीं है..ये शादी नहीं हो सकती' नीलाभ के माता-पिता बहुत सीधे-सादे, आदर्शों वाले थे. अगर वो मीना  को भगाकर घर ले आता तो वे कभी उसे घर में रहने की आज्ञा नहीं देते. नीलाभ ने इन सबकी चर्चा अपने मामाजी से की थी . वे मुंबई के पास ही एक गाँव में रहते थे. उन्होंने कहा था...'अगर कोई समस्या हो तो लड़की को लेकर मेरे घर आ जाना' यहाँ बात ना बनती देख...नीलाभ ..घर के बाहर मामा को मोबाइल से फोन करने गया...कि 'लगता है लड़की को लेकर आना होगा' पर वो जैसे ही घर से बाहर निकला.मीना  के पैरेंट्स ने दरवाज़ा बंद कर दिया. काफी देर घंटी बजाता रहा...आखिर मीना ने किसी तरह दरवाज़ा खोल दिया..फिर से पैरेंट्स को मनाने का दौर शुरू हो गया. अब मीना  की माँ चीखने चिल्लाने लगीं और कहा..'अगर तुम दोनों शादी करोगे तो मैं खुद को चाक़ू मार लूंगी' वे चाकू लाने किचन में गयीं...पीछे से उनके पति उन्हें रोकने गए. और इसी बीच नीलाभ ने कहा..'यही मौका है'..और वो मीना  का हाथ पकड़ बाहर की तरफ भाग लिया...पीछे-पीछे उसके माता-पिता भी दौड़ते हुए आए. पर ये लोग सीढियां उतरते हुए...गेट पारकर कार में जा बैठे. मुड कर देखा तो मीना की माँ चिल्ला रही थीं..पर नीलाभ गाड़ी स्टार्ट कर दूर निकल गया.

रात के एक बज रहे थे और ये संयोग ही था कि वाचमैन ने उस दिन गेट नहीं बंद किया था वरना बारह बजे सोसायटी के गेट बंद कर दिए जाते थे. अब नीलाभ को चिंता हुई कि अकेले लड़की को लेकर इतनी  रात में अकेले गाँव की तरफ जाना ठीक नहीं. उसने अपने एक कजिन को साथ चलने के लिए फोन किया जिसका घर रास्ते में पड़ता था. और ये भी कहा कि एक चप्पल लेते आना.क्यूंकि मीना  नंगे पैर ही भागी थी. 
और एक साधारण से टी शर्ट-ट्रैक पैंट और नौ नंबर की चप्पल में नीलाभ अपनी होने वाली दुल्हन को लेकर सुबह के चार बजे अपने मामा के घर पहुंचा. दूसरे दिन ही मंदिर में इन दोनों की शादी करा दी गयी. अब नीलाभ के पैरेंट्स को खबर की गयी. नीलाभ की माँ ने कहा बिना समाज के सामने उनकी शादी किए वो लड़की को अपने घर में नहीं रख सकतीं. मीना को एक रिश्तेदार के घर ठहराया गया....जल्दी से शादी की तैयारियाँ की गयीं और मराठी रस्मों  से उनकी शादी कर दी गयी. अब मीना  के पैरेंट्स को भी इनकी शादी स्वीकारनी पड़ी . पर उनका भी कहना था हमें भी अपने समाज में मुहँ दिखाना है...लिहाजा तीसरी बार उनकी सिन्धी  ढंग से शादी हुई. 

अब सब लोग खुश हैं और उनकी गोद में एक साल का एक बेटा भी है. अपनी पत्नी से काफी सोच-विचार के बाद मंदिर में की गयी पहली शादी वाली तारीख को ही नीलाभ ने शादी की वर्षगाँठ के रूप में मनाना  निश्चय किया .

एक प्रेरक प्रेम-कथा 

शैलेन्द्र बिलकुल हैपी-गो-लकी टाइप का लड़का है. जिंदगी से भरपूर. अपने परिवार के बहुत करीब  है..अपनी बहन की बिटिया में तो उसकी जान बसती है. शायद  ही दुनिया की कोई मशहूर किताब या मशहूर फिल्म उसने नहीं देखी हो. पर वो अपना ज्ञान किसी पर बघारता नहीं बल्कि दूसरों की बात ज्यादा ध्यान से सुनता है.उसकी बड़ी जल्दी किसी से दोस्ती हो जाती  और उस दोस्ती को वो निभाता भी है. 

उसकी एक चैट फ्रेंड थी कनु जो सिंगापुर में नौकरी करती थी. कनु की तबियत थोड़ी नासाज़ रहने लगी और वो सिंगापुर की  नौकरी छोड़कर मुंबई आ गयी. उसे भयंकर एलर्जी हो गयी थी. उसे अनाज, दूध हर चीज़ से एलर्जी थी. सिर्फ चुनिन्दा फल और सब्जियां  ही खा सकती थी. उसकी त्वचा की परत उतरने लगी थी. सूख कर काँटा  हो गयी थी. सिर्फ मुलायम सूती कपड़े ही पहन पाती थी. बाहर आना-जाना बंद हो गया था. घर में कैद होकर रह गयी थी. इस दौरान उसका सबसे बड़ा संबल  शैलेन्द्र था. वो उस से चैट करता...फोन पर बात कर के उसका मन लगाए  रहता. कई बार छुट्टी  लेकर हैदराबाद से मुंबई उस से मिलने भी आया. 

कनु का बड़े से बड़े डॉक्टर का इलाज चल रहा था. पर कोई फायदा नहीं हो रहा था. उसके पूरे शरीर,.चेहरे तक की त्वचा की परत रुखी होका उतरती रहती. कोई मलहम दवा .फायदा नहीं कर रहा था. इसी तरह एक साल गुजर गए.और एक दिन शैलेन्द्र ने उसे प्रपोज़  कर दिया. कनु और उसके के माता-पिता भी अचंभित रह गए. कनु आईना भी देखने से घबराती थी. पर शैलेन्द्र का निश्चय पक्का था कि शादी तो कनु से ही करनी है. इसके छः महीने बाद...सारे दूसरे इलाज़ छोड़कर कनु ने नैचुरोपैथी अपनाया  और उस से उसे फायदा होने लगा. अब शैलेन्द्र की  जिद कि उसे सगाई करनी है. शादी भले ही कनु के पूरी तरह ठीक होने के बाद करे..पर सगाई  अभी करनी है. 

शैलेन्द्र तेलुगु और कनु कन्नड़...शैलेन्द्र दो भाइयों में बड़ा था उसके माता-पिता के  भी उसकी शादी को लेकर कुछ अरमान थे पर उन्होंने अपने बेटे की इच्छा को  सहर्ष स्वीकृति दे दी.  कनु ना तो अपनी सगाई में रेशमी साड़ी ही नहीं पहन पायी...ना ही कोई जेवर.  और शैलेन्द्र उसे अंगूठी भी नहीं पहना सका..क्यूंकि उस वक़्त भी उसे किसी भी मेटल  से एलर्जी थी.  शैलेन्द्र ने अपनी सगाई की फोटो मुझे भेजी थी.....कनु के नाक-नक्श बहुत सुन्दर थे..पर कई जगह से त्वचा रूखी होकर उखड़ी हुई थी. मेरे मुहँ से निकल ही गया.." she is lucky "  पर शैलेन्द्र ने तुरंत जोर देकर कहा... "No I am lucky to hv her in my life. She is a gem of a person  "                                             

एक साल बाद कनु के पूरी तरह ठीक हो जाने पर उनकी शादी हो गयी. कनु ने हैदराबाद में एक बड़ी कंपनी में नौकरी भी कर ली..और अभी तीन महीने पहले वे प्यारे से बेटे के माता-पिता बन गए हैं. 

गुरुवार, 26 जुलाई 2012

किसिम किसिम के किस्से

बहुत हो गयी गंभीर बातें और उनपर गंभीरतम विमर्श...आज कुछ हल्की -फुलकी पोस्ट लिखने का मन है....फेसबुक पर ये वाकया शेयर किया पर मेरे जैसे ढेर सारा लिखने वालों को फेसबुक वाल पर लिखकर संतुष्टि नहीं मिलती . कितनी ही बातें मन में उमड़ती-घुमड़ती ही रह जाती हैं...और इसके लिए अपना ब्लॉग तो है ही...:) 

 हाल ही में दूसरी बार ऐसा मजेदार संयोग हुआ. कुछ साल पहले..लैंड लाइन पर एक फोन आया था.
"रश्मि है?".. एक पुरुष स्वर 
"हाँ..कहिए ?"..मेरा प्रत्युत्तर
"रश्मि से बात करनी है.."
"हाँ, बोल रही हूँ..."
"मुझे रश्मि..रश्मिकांत से बात करनी है...मैं उसका फ्रेंड बोल रहा हूँ.." एक अटकता हुआ स्वर.
"सॉरी रॉंग नंबर .."

आज एक अनजान नंबर से कॉल था..

"हू इज दिस "..मैने पूछा.
"सीमा .हियर.."
सीमा नाम की दो फ्रेंड और एक रिलेटिव हैं..लगा नए नंबर से फोन कर रही होंगी या फिर मुझसे उनमे से किसी का  नंबर गुम हो गया होगा...इसलिए आवाज में अतिरिक्त ख़ुशी छलका कर पूछा . "ओह..सीमा...क्या हाल हैं..कैसी हो??"
"बढ़िया.. तू बता .."
"बस सब  ठीक है... चल रहा है..."
"सुना तूने जी.डी.एस. ज्वाइन कर लिया ." चहक भरी आवाज सुन मेरा माथा ठनका.आवाज जानी-पहचानी तो पहले भी नहीं लग रही थी..पर लगा शायद बारिश की वजह से आवाज क्लियर नहीं सुनाई दे रही...उस तरफ भी यही मुगालता हुआ होगा.
"किस से बात करनी है...?
"रश्मि से..रश्मि बोल रही हो ना.."
हाँ..पर आप कहाँ से बोल रही हैं..?."
"बैंगलोर से "
"सॉरी बैंगलोर में तो मेरी सीमा नाम की कोई फ्रेंड नहीं है..मेरा नंबर आपको कहाँ से मिला.."
"पता नहीं मेरे सेल में रश्मि नाम से सेव्ड है...आप नेहा की फ्रेंड हो..??" ..वो भी आप पर आ गयी थी.
"नेहा नाम की मेरी दो फ्रेंड तो है..अब पता नहीं..किस नेहा की बात कर रही हैं.."
"नेहा...नेहा मंत्री.."
"ना सॉरी मैं किसी नेहा मंत्री को नहीं जानती.."
"सॉरी.. .."
जबकि मैंने किसी सोशल वेबसाईट पर अपना नंबर नहीं डाला है..सबसे शेयर भी नहीं करती..फिर भी ऐसे संयोग..:):)

जब फेसबुक पर ये लिखा तो रंजना सिंह जी का कमेन्ट आया 

घबराई आवाज़ :- संजय भैया हैं..? 

संजय(मेरा भाई)- जी , बोल रहा हूँ..

- भैया (अमुक स्थान पर)जल्दी आ जाइये, अंकल का एक्सीडेंट हो गया है, हम उन्हें लेकर 

हॉस्पिटल जा रहे हैं..

(गनीमत कि पिताजी बगल वाली कुर्सी में बैठ चाय पी रहे थे..वर्ना...)

इन वाकयों  ने एक रॉंग नंबर का किस्सा याद दिला दिया..मेरी मौसी के पहचान वाले हैं. उनकी बेटी की शादी तय हुई. एंगेजमेंट हो गया...लड़की के पास मोबाइल फोन नहीं था ..लड़के ने बातें करने को उसे मोबाइल फोन गिफ्ट किया. बातें होने लगीं..इसी बीच उस मोबाइल पर किसी लड़के का रॉंग नंबर आया. उस रॉंग नंबर से इतनी बातें होने लगीं की बातों की परिणति प्रेम में हुई..और फिर घर से भाग कर शादी करने में .

वो बिचारा लड़का..अब लड़कों शादी से पहले कोई गिफ्ट दो..अपनी मंगेतर को मोबाइल फोन कभी मत देना..:)

अब इसके पहले कि लोग शुरू हो जाएँ "ये आजकल की लडकियाँ"...कि कुछ वाकये और याद आ गए. 

करीब पच्चीस साल पहले की बात है. पिताजी  की पोस्टिंग एक छोटे से शहर में हुई थी. वे लोग हमारे पड़ोसी थे. एक उच्च पदस्थ लड़के से बेटी की शादी तय की. लड़के वालों ने कहा...'लड़की की नाक थोड़ी फैली हुई है..उसकी प्लास्टिक सर्जरी करवा दीजिये. लड़की के माता-पिता ने मुंबई लाकर बेटी की नाक की प्लास्टिक सर्जरी करवा दी.' महल्ले वालों को यह बात अजीब सी लगी थी...लड़कियों में तो बहुत नाराजगी थी कि आखिर लड़का क्या बिलकुल परफेक्ट होगा.उसमे भी तो कोई कमी होगी .पर यह उन लोगों का अपना निर्णय  था.

तय दिन बारात आई. लड़के के  सबसे छोटे भाई ने बारात में माइक पर गाने गाए...खूब डांस भी किया. जयमाला की रस्म हो गयी. सबलोग खाने-पीने में लग गए.  लड़के के साथ बाराती जनवासे में चले गए. अब शादी की रस्मे शुरू होने का समय हो रहा था पर लड़का जनवासे से शादी के लिए मंडप में आ ही नहीं रहा था. उसने कह दिया..'उसे लड़की पसंद नहीं है' उसके घर वाले भी उसे समझा  रहे थे. लड़की के चाचा-पिता अपनी पगड़ी उतार कर उसके पैरों में रख रहे थे (हमने ऐसा सुना था ) .पर लड़का नहीं मान रहा था. लड़के के घर वालों से बातचीत चल ही रही थी...कि इन सब हंगामों के बीच पता चला...बारात में आई हुई एक लड़की के साथ दूल्हा भाग गया. उन दोनों का पहले से अफेयर था. स्टेशन..बस स्टैंड सब जगह लोग ढूंढ कर  वापस आ गए..वे दोनों नहीं मिले..आखिर सुबह चार बजे के करीब लड़के वालों के कुछ रिश्तेदार लड़के के सबसे छोटे भाई.जो इंजीनियरिंग का छात्र था और लड़की से उम्र में छोटा था. उसे लेकर आए और आग्रह किया कि इस लड़के से अपनी लड़की की  शादी कर दीजिये. लड़के के मंझले भाई की शादी भी तय हो चुकी थी और एक हफ्ते बाद उसकी शादी थी. और दोनों भाइयों का रिसेप्शन एक साथ ही देने की  योजना थी. यह छोटा भाई..पत्ते की तरह काँप रहा था..बार बार पानी पी रहा  था. पर अपने बड़े भाई की करतूत की सजा अपने सर ले ली थी. सिंदूरदान और फेरे जैसे बस कुछ  महत्वपूर्ण रस्म हुए और लड़की विदा हो कर ससुराल भी चली गयी...और जब एक हफ्ते बाद मायके आई...तो दूल्हा-दुल्हन दोनों ही खुश नज़र आ रहे थे. 

इस घटना के आस-पास का ही एक और वाकया है...

मोनी, नीता की सहेली थी..दोनों साथ पढ़ती थीं. पर स्वभाव में बहुत अलग. मोनी को पढ़ाई-लिखाई से कोई मतलब नहीं था. सिर्फ फैशन ..सारा दिन केवल अपने कपड़ों अपने बालों की देखभाल. उन दिनों भी पार्लर में डेढ़ सौ रुपये में वो अपने बाल सेट करवाती थी. नीता का एक चचेरा भाई अमन था. बारहवीं पास था और एक प्रायवेट कॉलेज में दो सौ रुपये की तनख्वाह पर क्लर्क था पर  गाँव में जमीन जायदाद बहुत थी. अमन, मोनी के घर के बाजार के..सारे काम करता. अक्सर मोनी के साथ मार्केट...फिल्म देखने भी जाता. पूरे मोहल्ले को यह बात पता थी पर पता नहीं मोनी की माँ कभी अमन को अपने यहाँ आने से मना नहीं करती...बल्कि साथ में फिल्म जाने की इजाज़त भी वहीँ देतीं थीं.  नीता को उनकी दोस्ती बिलकुल पसंद नहीं थी. पर वो कुछ नहीं कर सकती थी. वो इतनी भोली थी..एक दिन उसने ये सारा किस्सा मुझे बताया और ये भी बताया कि पहले मोनी, अमन को भैया कहा करती थी ,राखी भी बांधती थी..और एक बार राखी बांधते हुए फोटो भी खिंचवाई थी. नीता ने वो फोटो फ्रेम करवा कर अपने घर में शोकेस में सबसे आगे सजा दी है कि शायद उसे देख-देख कर दोनों को कुछ अपराध बोध हो. 

कुछ ही दिनों बाद मेरे पिताजी का ट्रांसफर हो गया और हम वहाँ से चले आए. नीता के पत्र मेरे पास आते रहे. और एक पत्र में उसने बताया कि अमन की शादी तय हो गयी थी, शादी की रस्मे शुरू हो गयी थीं हल्दी लग चुकी थी और बारात वाली सुबह वो मोनी के साथ भाग गया. अमन के छोटे भाई अजय को लेकर बारात घर से निकली और जिस लड़की की शादी अमन से तय हुई थी..उसकी शादी अजय से कर दी गयी. मुझे तो बस यही चिंता थी कि जो लड़का दो सौ रुपये कमाता है...और जो लड़की डेढ़ सौ रुपये में अपने बाल सेट करवाती है..उनकी कैसे निभेगी?
पर उसके बाद मैं भी अपनी पढाई-लिखाई में व्यस्त हो गयी...नीता का पता भी गुम हो गया..उस से कोई संपर्क नहीं रहा. आज भी कभी-कभी सोचती हूँ...कैसे निभी होगी,उन दोनों की ??

खैर , इतने दिनों में इतना बदलाव तो आया ही होगा...मुझे अब नहीं लगता..शादी टूटने की स्थिति में छोटे भाई या बहन से शादी कर दी जाती होगी. क्यूंकि इसके बाद ऐसा कोई किस्सा नहीं सुना. जबकि करीब दो साल पहले पटना में एक लड़की से मिली. उसकी एंगेजमेंट हो गयी थी. लड़का मुंबई का था. वो मुंबई के बारे में कई बातें पूछ रही थी..खुश थी कि उसके जानने वालों में से एक मैं मुंबई में हूँ. लड़का उन दिनों छः महीने के लिए लंदन गया हुआ था. उसके लौटते ही शादी हो जानी थी. पर फिर पता चला...लड़के के माता-पिता सगाई  की अंगूठी लौटा गए. लड़के का किसी से अफेयर था..उसने उसी लड़की से शादी कर ली. 


वैसे अनूप जलोटा का भी यही किस्सा है...सोनाली राठौर से अफेयर था..पर परिवार के दबाव में कहीं और शादी के लिए हाँ कर दी थी. शादी का निमंत्रण पत्र देने किसी म्यूजिक डायरेक्टर के पास गए, वहाँ सोनाली मिल गयीं...सोनाली ने आँखों में आँसू भर कर पूछा.."मेरा क्या कसूर था?" और अनूप जलोटा ने निमंत्रण पत्र फाड़ दिए और उसी वक्त मंदिर में जाकर उनसे शादी कर ली...ये अलग बात है कि दोनों की आपस में ज्यादा दिन निभी नहीं..और सोनाली आज रूपकुमार सिंह राठौर की पत्नी हैं..और अनूप जलोटा की पत्नी मेधा जलोटा हैं...जिनकी पहली शादी शेखर कपूर से हुई थी .

पर एक बात समझ में नहीं आ पाती. ये प्रेमी -प्रेमिका....किसी और से शादी के लिए 'हाँ' क्यूँ करते हैं...और 'हाँ' करते हैं तो फिर ऐन समय पर धोखा क्यूँ देते हैं..दूसरे के आत्म-सम्मान को चोट क्यूँ पहुंचाते हैं??....अपने परिवार की इतनी फजीहत क्यूँ करवाते हैं. ??

रविवार, 22 जुलाई 2012

क्या लडकियाँ सचमुच लड़कों की नक़ल या उनकी बराबरी करती हैं??



कई बार किसी विषय पर लिखना शुरू करो तो बातें जुडती चली जाती हैं...और पोस्ट्स की एक श्रृंखला सी ही बन जाती है.."इतना मुश्किल क्यूँ होता है ना कहना.."..."लड़कियों की उड़ान किसी  इत्तफाक की मोहताज नहीं "...."आखिर कुछ  पुरुषों/लड़कों के अंदर ही एक जानवर क्यूँ निवास करता है "
के बाद लड़कियों की समस्याओं से ही सम्बंधित एक और पोस्ट 

काफी दिनों से कई बार ..कई जगह ..ब्लॉग जगत में ..फेसबुक पर लोग ( हमारे देश के सारे पुरुष नहीं..पर अधिकाँश ).चिंता जताते नज़र आ जाते हैं..'लडकियाँ हर चीज़ में लड़कों की बराबरी क्यूँ करती हैं??...उन्हें लड़कों की नक़ल नहीं करनी चाहिए ..आदि..आदि .
मन सोचने पर मजबूर हो गया क्या सचमुच ऐसा है..लडकियाँ, लड़कों की नक़ल कर रही हैं?..लडको की बराबरी करना चाहती हैं??

अब ये तो सर्वज्ञात और सर्वमान्य  है कि पुरुष समाज....महिलाओं से कई वर्षों से बहुत आगे चल रहा है.

करीब सत्तर-अस्सी साल से भी पहले से ही पुरुष ..उच्च  शिक्षा,नौकरी के लिए अपना घर छोड़ कर दूसरे शहर जाकर रहने लगे थे.
महिलाओं में बमुश्किल पिछले दस वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि वे भी उच्च शिक्षा..नौकरी के लिए अकेली दूसरे शहर जाकर रहने लगी हैं. उनका भी अभी प्रतिशत बहुत कम है.
तो क्या यह कहा जाएगा कि वे लड़कों की नक़ल करने लगी हैं?

करीब इतने ही बरस पहले से पुरुषों ने धोती-कुरता  छोड़कर शर्ट-पैंट अपना ली है..क्यूंकि धोती मेंटेन करने में बहुत कठिनाई आती थी. उसे बाँधने में ज्यादा  समय लगता था . तेज चलने में भी मुश्किल होती थी..और उन्हें ये भी भान है कि धोती से ज्यादा स्मार्ट वे पैंट में लगते हैं. इन सारी असुविधाओं से बचने के लिए उनलोगों ने धोती को टाटा-बाय बाय कहकर पश्चिम से आई वेश-भूषा शर्ट-पैंट  को अपना लिया .


अब आजकल लडकियाँ भी कॉलेज-यूनिवर्सिटी जाती हैं...नौकरी करती हैं. उन्हें भी साड़ी से ज्यादा सुविधाजनक जींस लगती है. साड़ी बाँधने में समय लगता है. उसे मेंटेन करने में (यानि धोना-प्रेस करना  ) परेशानी होती है. तेज-तेज चलने में कठिनाई होती है तो उन्हें  भी जींस पहनना ज्यादा सुविधजनक लगता है . और जींस किफायती भी है. दो जींस ले लिए और छः टॉप्स...छः ड्रेस बन गयी. जबकि सलवार-कुरत-दुपट्टे और साड़ी-ब्लाउज-पेटीकोट के  छः सेट लगेंगे...लिहाजा पैसे भी अधिक लगेंगे. पर ये सारी बातें तो गौण है...समझा तो ये जाता है कि वे तो बस लडको की बराबरी के लिए जींस पहनती हैं...उनकी नक़ल करने के लिए.

लड़कियों के लम्बे बाल बड़े अच्छे लगते हैं...लम्बी सी कमर तक लहराती चोटी...उसमे फूलों  का गजरा लगा हुआ. पर आज की  दौड़ती-भागती जिंदगी में इतना समय सबके पास है??...और लम्बे बाल की सिर्फ चोटी बनाने में ही समय नहीं लगता...बल्कि बालों को लम्बा और घना रखने के लिए..उनकी अच्छी देख-भाल भी बहुत जरूरी है. पहले औरतें घर में रहती थी..तेल..दही..रीठा शिकाकाई लगाए जा रहे हैं..बालों में. पर अब इन्हें घना और लम्बा बनाए रखने को इतना समय नहीं दे पातीं...और कैंची चल जाती है..बालों पर .पर झट से आरोप लग जाता है कि ये तो नक़ल कर रही हैं. 

जबकि पुरुषों ने भी काफी समय से रंगीन....छींटदार शर्ट पहननी शुरू कर दी है...शौर्ट्स और बरमूडा पहनते हैं..आजकल लड़के लम्बे बाल रखते हैं...ब्रेसलेट पहनते हैं..कानों में बालिया..गले में मालाएं. तब ये नहीं कहा जाता कि वे लड़कियों की नक़ल कर रहे हैं...(वे नक़ल कैसे कर सकते हैं..वे तो हमेशा से श्रेष्ठ हैं ) बल्कि तिरस्कार से कहा जाता है कि 'क्या लड़कियों जैसा ये सब पहना है. 

यानि कि लड़के  ये सब करें तो 'फैशन ' और लडकियाँ करें..तो वे बिगड़ गयी हैं..बहक गयी हैं...नक़ल कर रही हैं.

ऐसे ही  आजकल..अपने बच्चों की पढ़ाई-लिखाई...स्कूल के होम वर्क..पैरेंट्स मीटिंग..उनके बीमार पड़ने पर डॉक्टर के पास ले जाना...उनका वैक्सीनेशन ज्यादातर औरतों के जिम्मे ही होता है. ये सब काम पहले पुरुषों की जिम्मेवारी ही होती थी क्यूंकि स्त्रियाँ पढ़ी-लिखी भी नहीं होती थीं और अकेली घर से बाहर भी नहीं जाती थीं....तो फिर यहाँ भी कहना चाहिए..'ये तो नक़ल और बराबरी कर रही हैं.

अब जब स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह ही उच्च शिक्षा ग्रहण कर रही हैं...नौकरी कर रही हैं ..घर से बाहर  निकल रही हैं तो उन्हें सिर्फ एक स्त्री के रूप में ना देख कर 'एक अलग व्यक्तित्व'...' एक इंसान'की तरह देखा जाना चाहिए. क्यूंकि अब वे भी वो सारे काम करती हैं जो पुरुष करते हैं..(बल्कि ऑफिस से आकर घर का काम भी...क्यूंकि अभी पुरुष वर्ग इतना उदार नहीं हुआ है कि घर के  कामों में भी बराबरी से हाथ बटाए  ) .

निस्संदेह  पुरुष शारीरिक रूप से अब भी स्त्रियों से ज्यादा शक्तिशाली हैं. पर अफ़सोस ..वे अपनी इस एडिशनल शक्ति का कोई उपयोग नहीं कर पाते...:) (हाँ...कुछ  कापुरुष...स्त्रियों पर अपना शक्ति-प्रदर्शन जरूर आजमाते हैं ).

पहले पुरुष....धूप में.. खेतों में काम करते थे...लकडियाँ ,काट कर लाते थे...मीलों पैदल चलते थे. स्त्रियाँ घर के काम करती थीं और बच्चे संभालती थीं. पर अब पुरुष भी स्त्रियों की तरह ही..ऑफिस जाने के लिए किसी वाहन का ही उपयोग करते हैं. ऑफिस में भी डेस्क जॉब...कंप्यूटर..पर ही काम होता है...जिसमे दिमाग की ही आवश्यकता पड़ती है और जो दोनों में बराबर मात्रा में है {अभी हाल में ही लंदन में हुए सर्वे मे पाया गया कि स्त्रियों का IQ  पुरुषों से ज्यादा है...उसकी बात हम नहीं कर रहे :)} इसका अर्थ है कि स्त्रियों में भी पुरुषों जितना ही सोचने-समझने की शक्ति  है.  लेकिन पुरुषों के अंदर ये जड़ें बहुत गहरी जमी हुई हैं कि वे महिलाओं से श्रेष्ठ  हैं...इसलिए उनपर बंधन लगा सकते हैं...उनके लिए नियम बना सकते हैं...और ना पालने की दशा में उन्हें सजा दे सकते हैं. जबकि जो महिलाएँ, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं हैं...या जिनमे अपनी बात कहने का साहस नहीं है..वे तो पुरुषों के सारे नियम-कायदे मानती ही हैं.
 पर पुरुषों की  जिद ये है कि जो स्त्रियाँ अपने जीवन का निर्णय खुद ले सकती हैं. उन्हें क्या पहनना है..अपनी जिंदगी कैसे बितानी है...खुद तय कर सकती हैं. स्व-विवेक से निर्णय लेने में सक्षम हैं. उनपर भी पुरुषों के  बनाए नियम ही लागू होने चाहिए. कानून स्त्रियों को सारे अधिकार देता है.पर हमारे समाज के अधिकाँश  पुरुष नहीं. 

अब जब पुरुष और स्त्री..समान स्तर पर आ गए हैं तो उनके गुण-अवगुण भी समान  हो गए हैं. जहाँ पहले स्त्रियाँ...भीरु-लजालू-धीमा बोलने वाली होती थीं..अब वैसी नहीं हैं. 
और सबसे ज्यादा परेशानी पुरुष वर्ग को यहीं होती है. अब लडकियाँ कमाती हैं...उनके पास पैसे होते हैं...वे अपनी मर्जी से खर्च करने लगी है. पांच दिन ऑफिस में खटकर वीकेंड पर वे भी unwind       होना चाहती हैं...पार्टी करती हैं. डिस्को जाती हैं..अपनी मर्जी के कपड़े पहनती हैं. 
पर  उनका यह सब करना सबको बड़ा नागवार गुजरता है..जब तक वे ऑफिस में चुपचाप काम करके घर आ बच्चे संभालती हैं...किसी को परेशानी नहीं होती...पर वे पार्टी कैसे कर सकती हैं? संस्कृति तो रसातल में चली जायेगी ?..उसकी रक्षा का भार तो उनके कन्धों पर ही है. जबकि ऐसी लड़कियों का प्रतिशत बहुत बहुत कम है...पर अगर एक भी लड़की ऐसा करती है..तो क्यूँ करती है...?..हमारी संस्कृति पर तो आंच आ गयी. 

कुछ लडकियाँ...सिगरेट भी पीती हैं...और कुछ शराब भी. यह बहुत ही बुरा है. पर इतना ही बुरा पुरुषों के लिए भी है. सिगरेट-शराब ..स्त्री/पुरुष के फेफड़े और जिगर को नुकसान पहुंचाने में कोई भेद-भाव नहीं करती. दोनों के लिए ही बहुत ही नुकसानदेह है और त्याज्य भी. पर आलोचना..धिक्कार सिर्फ लड़कियों के हिस्से आता है. पुरुषों का सिगरेट पीना तो बिलकुल आम और स्वीकार्य है...फेसबुक प्रोफाइल में लोग अपनी सिगरेट पीते हुए फोटो लगाते हैं. अक्सर जिक्र भी कर देते हैं...'वहाँ  जाम छलकाई...' दोस्त आए तो ये बोतल खोली...'कई बार ब्लॉग पर भी जाम टकराते हुए फोटो लगा देते हैं. क्या यह सही है?? 
हाँ ..उनके लिए सही है..पर अगर कहीं भनक भी मिल गयी कि किसी लड़की ने किसी पार्टी में जाम टकराए. तो तुरंत हिकारत से कहा जाता है...लड़कों की नक़ल कर रही हैं..लड़कों की बराबरी करना जरूरी है?

वे लड़कों की बराबरी के उद्देश्य से नहीं करतीं ये सब .पर जैसे लड़कों में एकाध जाम लेकर ..लाइफ एन्जॉय करने का...पार्टी में डांस करने  का...मन होता है. एग्जैक्टली वे भी ऐसा ही सोचती हैं. पहले तो पुरुषों में भी पार्टी में डांस करने चलन नहीं था...फिर उनलोगों ने शुरू किया...स्त्रियाँ किनारे खड़ी रहती थीं ..उन्हें खींच कर लाया जाता तो वे जरा सा हिल कर चली जातीं. पर आज की लडकियाँ जम कर डांस करती हैं...और तब ऐसा लगता है कि वे, ये सब लड़कों की बराबरी के लिए कर रही हैं. जबकि वे भी बस जिंदगी को भरपूर जीना चाहती हैं. 

जैसे सोलह-सत्रह साल के लड़के छुपकर एकाध कश लगा..अपने आपको बहुत बड़ा समझने लगते हैं..ठीक यही भावनाएं लड़कियों में भी होती हैं. जो कि दोनों के लिए बहुत गलत है. फिर भी ऐसी लड़कियों की संख्या बहुत ही कम है...छोटे शहरों में तो नगण्य ही है...महानगरों में भी कुछेक लडकियाँ ही ऐसी पार्टियों में जाती हैं या सिगरेट पीती हैं.  जबकि पुरुषों में तो सिगरेट-शराब का चलन ,गाँव-कस्बे-शहर-महानगर..सब जगह एक सा है. पर धिक्कार और नसीहत तो सिर्फ लड़कियों को ही मिलती है.

अगर पति को छोड़कर किसी प्रेमी से विवाह...या पति/प्रेमी को धोखा देने जैसी कोई घटना सामने दिखती है...तब भी लोग यही कहते हैं..पुरुष तो ये सब करते आ रहे हैं...अब क्या स्त्रियाँ भी?? जबकि पुरुषों की तुलना में ऐसे केस  इक्के-दुक्के ही होते हैं. तो स्त्रियों को  बिलकुल एक देवी ही क्यूँ समझा जाता है. वे भी इंसान हैं....वे भी गलतियाँ कर सकती हैं. और पुरुषों की तुलना में उन्हें अपनी गलती की सौगुनी सजा भी भुगतनी पड़ती है. 

अब जब पुरुष समाज नए रास्ते पर चल रहा है....और स्त्रियों से काफी आगे चल रहा है (प्रतिशत में ) ...धीरे-धीरे स्त्रियाँ भी उसी रास्ते पर चलने लगी हैं...शिक्षा..नौकरी..अपने घर -परिवार का ध्यान रखती हैं....तो इसे पुरुषों की नक़ल..या बराबरी कैसे कहा जा सकता है?? 
अब उनके लिए अलग रास्ता क्या हो सकता है..जिस से ये नक़ल ना लगे?? यही हो सकता है कि वे बस पीछे रहकर सिर्फ घर और बच्चे संभालें...जो अब प्रगति के पथ पर कदम रख देने वाली स्त्रियों के लिए संभव नहीं. वे  सफलता भी पाएंगी..असफल भी होंगी.....अपनी मर्जी से अपनी जिंदगी जियेंगी....गलतियाँ भी करेंगी...उसका खामियाजा भी भुगतेंगी और उन्हीं गलतियों से  सीखेंगी भी...क्यूंकि दासी वे रही नहीं...देवी उन्हें बनना नहीं..बस एक इंसान ही बने रहना चाहती हैं. 

और अपनी गलतियों से उन्हें खुद ही सीखने दिया जाए. उनके लिए अब दूसरे तय करना बंद करें कि उनके लिए क्या गलत है क्या सही.



सोमवार, 16 जुलाई 2012

आखिर कुछ पुरुषों/लड़कों के अंदर ही एक जानवर क्यूँ निवास करता है...

गुवाहाटी में जो कुछ भी उस शाम एक बच्ची के साथ हुआ...ऐसी घटनाएं साल दो साल में हमारे महान देश के किसी शहर के किसी सड़क पर घटती ही रहती हैं. बड़े जोरो का उबाल आता है...अखबार..टी.वी...फेसबुक..ब्लॉग पर बड़े तीखे शब्दों में इसकी भर्त्सना की जाती है. ऐसे लड़कों को मृत्युदंड देना चाहिए...सरेआम कोड़े लगाने चाहिए...वगैरह वगैरह...फिर सबका ध्यान किसी नेता या अभिनेता से जुड़ी ख़बरों की तरफ मुड जाता है और फिर ये आक्रोश.. ये बहस.. अगली किसी घटना के घटने तक मुल्तवी हो जाती है. ऐसी घटनाओं की पुनरावृति ना हो...ये घटना आखिर क्यूँ घटी..इसकी  जड़ में क्या है..जिसका समूल नाश किया जाए...इन सबपर दिमाग खपाने का शायद समय भी नहीं है, सबके पास और ना ही इसकी जरूरत समझी जाती है.

पर कब तक चलेगा यह सब? आखिर ऐसा लड़कियों के साथ क्यूँ होता है??...ऐसी हरकतें कर के..लड़कों को कौन सा सुख मिल जाता है?
कुछ लोगो की सोच है कि लडकियाँ ही इसकी जिम्मेदार हैं...वे कम कपड़े पहनकर अगर निकलेंगी..तो पुरुषों के अंदर का जानवर तो जागेगा ही. सर्वप्रथम तो यह बिलकुल बेतुकी बात है..(.सलवार कुरते और साड़ी पहने होने के बावजूद रेप की कितनी घटनाएं हुई हैं...इस से कोई अनजान नहीं  ) और उस पर से उस लड़की ने स्कर्ट पहना था.. एक टीशर्ट और उसके ऊपर कार्डिगन भी था. तो क्या लडकियाँ सिर्फ सलवार कुरते या बुर्के में ही घूमें? और ऎसी  ही स्कर्ट पहनकर अगर किसी पुरुष के मित्र या रिश्तेदार की बेटी उसके सामने आती है तो उसके अंदर का जानवर क्यूँ नहीं जागता ? उस अंदर के जानवर को पता है...अगर यहाँ वो जाग गया तो उस जानवर के पालक  की खैर नहीं. यानि कि किसी भी पुरुष के अंदर का जानवर उसके इशारे पर सोता और जागता है. उन बीस लड़कों में से क्या किसी ने कभी किसी और लड़की को स्कर्ट पहने नहीं देखा था? और जब देखा था तो फिर उस वक़्त उसके अंदर का जानवर सोया क्यूँ रहा? 

गाँवों में स्त्री-पुरुष मिलकर खेतों में काम करते हैं. घुटनों तक साड़ियाँ  उठा कर लडकियाँ/औरतें धान की रोपनी करती हैं...घास छीलती हैं... आस-पास पुरुष भी होते हैं..उनके अंदर का जानवर तो नहीं जागता. ऐसे ही आदिवासी महिलाएँ तो एक ही साड़ी से अपना तन ढंकती हैं. जंगलों में घूमती हैं...उनके समुदाय के पुरुषों के अंदर का जानवर भी सोया ही रहता  है. महानगरों में भी... खासकर मुंबई में, सड़कों पर लडकियाँ..स्कर्ट और शौर्ट्स में सरेआम घूमती दिखती हैं...यहाँ के पुरुषों के अंदर का जानवर भी निद्रा में लिप्त रहता है तो क्या बात है कि सिर्फ कुछ पुरुषों के अंदर का जानवर ही मौका देखकर जाग जाता है या यूँ कहना सही होगा कि सिर्फ उनके  अंदर ही कोई जानवर सांस लेता है .

 इसका सिर्फ एक ही कारण नज़र आता है कि ये लोग लड़कियों को एक इंसान.. एक अलग अस्तित्व की तरह नहीं बल्कि एक शिकार की तरह देखते हैं. क्यूंकि लडकियाँ उनके लिए अजूबा बनी रहती हैं. बचपन से ही ना उन्हें लड़कियों के साथ  खेलने का मौका मिलता है...ना ही पढ़ने का...ना बातचीत करने का...ना ही मिलने-जुलने का. लड़कियों से इनका interaction...  मेलजोल एक रिश्ते में बंधा हुआ ही होता है. माँ..बहन..पत्नी..भाभी...दोस्त की पत्नी..और उनके प्रति उनका व्यवहार भी एक दायरे में  निश्चित होता है. ऐसे लोगों को जब एक अजनबी लड़की मिलती है तो इन्हें पता ही नहीं होता..उसके साथ कैसा व्यवहार करना है?? और यहीं से eve  teasing  यानि छेड़छाड़  की शुरुआत  हो जाती है. चलते समय धक्का मार देना...बस में चढ़ते-उतरते..टकरा जाना...मौका मिलते ही हाथों पर हाथ रख देना...फब्तियां कसना...इन्हें अजनबी लड़कियों के साथ बस ऐसा ही व्यवहार करना आता है.

अगर बचपन से ही ये सह शिक्षा वाले स्कूल में पढ़ें तो ऐसे व्यवहारों पर काफी हद तक रोक लग सकती है. वहाँ लड़के-लडकियाँ साथ में पढेंगे..खेलेंगे..कूदेंगे...स्कूल के वार्षिक प्रोग्राम में भाग  लेंगे. तो जाने-अनजाने कितनी ही बार इनके हाथ भी टकरायेंगे..एक-दूसरे से धक्का भी लगेगा...और ऐसे लड़कों को पता चल जाएगा..कि मात्र टकरा जाने से या धक्का मार देने से मन या शरीर के तार झनझना नहीं उठते. उनके बीच बातचीत होगी तो लड़के/लड़कियों दोनों को ही ये आभास होगा कि वे दोनों किसी अलग ग्रह के वासी नहीं हैं...बल्कि उनकी सोच.. चीज़ों को देखने का नजरिया ..एक जैसा  ही है. इस से एक दूसरे के प्रति आदर की भावना भी उत्पन्न होगी. और जब लड़कों के मन में ..लड़कियों के लिए आदर...अपनापन की भावना होगी तो फिर ये eve  teasing  और जिसकी परकाष्ठा लड़कियों के कपड़े फाड़ने जैसी घटाओं के साथ होती है..वे नगण्य हो जायेंगी.

आज  जब लडकियाँ ..उच्च  शिक्षा हासिल करने लगी हैं...ऑफिस में काम करने लगी हैं...अपने सहपाठियों के साथ मिलकर पार्टी करने लगी हैं तो बहुत जरूरी है कि पूरे समाज में ही ज्यादा से ज्यादा लड़के-लड़कियों को आपस में मिलने-जुलने का अवसर दिया जाए. और ये अवसर सह-शिक्षा को बढ़ावा देकर ही संभव है. कालांतर में भी इस से दोनों ही पक्षों को बहुत मदद मिलेगी  आपस में बिना किसी हिचकिचाहट के मिल कर काम कर सकेंगे..अपनी राय रख सकेंगे...एक दूसरे की समस्याएं समझ सकेंगे. 

सह-शिक्षा में थोड़ी बहुत अनचाही घटनाएं भी घट सकती हैं. किशोर होते लड़के/लड़कियों का एक दूसरे के प्रति सहज आकर्षण. पर यह तो बिना को-एड स्कूल में पढ़े भी संभव है. मोहल्ले में...कॉलोनी में भी इतने बंधन के बावजूद प्रेम-कथाएं परवान चढ़ती रहती हैं. वैसे ही  को-एड स्कूल में भी इक्का-दुक्का घटनाएं ही ऐसी होती हैं. ऐसा नहीं होता कि को-एड स्कूल के सारे लड़के-लड़की एक दूसरे के प्रेम में पड़ जाते हैं. बल्कि एक दूसरे के प्रति दोस्ताना भाव ज्यादा रहता है. 

अगर गुवाहाटी में घटी , इस तरह की घटनाओं से डरकर लड़कियों को घर में बंद किया जाने लगा...उनके बाहर जाने पर रोक लगाया जाने लगा  तो फिर इस तरह की घटनाएं होती ही रहेंगी. क्यूंकि जितना ही लोग..लड़कियों को आजादी से घूमते देखने के आदी होंगे..उतना ही उनके लिए स्वीकार करना आसान होगा. यहाँ मुंबई में ज्यादातर ऑटो रिक्शा वाले....सिक्योरिटी गार्ड बिहार..यू.पी...असाम..नेपाल  के ही हैं. पर उनके सामने से शौर्ट्स..मिनी स्कर्ट में लडकियाँ गुजरती रहती हैं...पर वे  वे आँख उठा कर भी नहीं देखते..क्यूंकि वे आदी हो चुके हैं...उन्हें कुछ अलग सा नहीं लगता. बाजारों में..सडकों पर भी  लड़कियों/औरतों को धक्के नही मारे जाते हैं...क्यूंकि वहाँ घूमती स्त्रियों/लड़कियों  का प्रतिशत पुरुषों/लड़कों के बराबर ही होता है. पर यही बात सभी शहरों के लिए नहीं कही जा सकती जो बहुत ही दुखद है. 

अगर गाँव में खेतों में काम करने वाली लडकियाँ...जंगलों में घूमती आदिवासी लडकियाँ....महानगरों में बस-ट्रेन-बाजार से गुजरती लडकियाँ इस  eve teasing  की शिकार नहीं होतीं...तो फिर बाकी जगहों की लड़कियों ने क्या गुनाह किए हैं कि उन्हें ऐसी स्थितियों से दो-चार होना पड़ता है.




गुरुवार, 12 जुलाई 2012

वे ट्रेन के सहयात्री और फिल्म 'मिस्टर एंड मिसेज़ अय्यर'

एक बार अदा से बात हो रही थी और अदा ने कहा...'तुम फिल्मो पर इतना लिखती हो..मेरी फेवरेट फिल्म पर भी लिखो ना"..और एक पल को मेरी सांस रुक गयी..'राम जाने किस फिल्म का नाम लेगी और अगर वो फिल्म मेरी  पसंद की नहीं हुई तो?..पर दोस्त का मन  रखने को तो लिखना ही पड़ेगा.....फिर कैसे लिखूंगी उस फिल्म के बारे में ' पल भर में ही  दिमाग यह सब सोच गया और मेरे पूछने पर जब अदा ने फिल्म का नाम बताया तब तो हंसी ही आ गयी मुझे, 'इस फिल्म पर तो मैं एक अरसे से लिखना चाह रही थी. खासकर इसलिए कि फिल्म से मिलती  जुलती घटना, फिल्म देखने से पहले ही  मेरी आँखों के समक्ष घट चुकी थी.' जब रेल-यात्रा से सम्बंधित अपने संस्मरण लिख रही थी..उसी वक़्त इसे भी लिखना था...पर कुछ समसामयिक विषय ने बीच में सर उठा  इसे परे धकेल दिया होगा. 


फिल्म से पहले वो घटना ही लिखती हूँ. बच्चे छोटे थे तो अक्सर गर्मी की छुट्टियों में अकेले ही उन्हें लेकर मुंबई से पटना तक की लम्बी यात्रा पर जाया करती थी. (कुछ मजेदार अनुभव भी हुए थे..जिन्हें यहाँ लिखा है ) अब अकेली होती थी इसलिए ढेर सारी खडूसियत  ओढ़ लेती थी. हाथों में अंग्रेजी की मोटी मोटी किताबें...भृकुटी हमेशा चढ़ी हुई..और उसपर बच्चों को रास्ते भर डांटते रहना (छोटे थे, तो मिलकर उधम भी बहुत मचाते थे ). सहयात्री डर कर बात करने की हिम्मत ही नहीं करते थे..सोचते होंगे जीवन में ये कभी हंसी ही नहीं है..:) पर मैं किताबों के पीछे से उन सबका निरीक्षण करती रहती थी. 

पटना से मुंबई वापस लौट  रही थी. सामान व्यवस्थित कर ,बच्चों को डांट-डपट कर शांत  बिठा..किताब आँखों के सामने कर आस-पास का जायजा लेना शुरू किया तो देखा, साइड वाली बर्थ पर एक स्टुडेंट जैसा दिखता  लड़का..और एक शादी शुदा लड़की बैठी है. मुझे लगा देवर-भाभी होंगे. देवर ,भाभी को मुंबई पहुंचाने जा रहा होगा. पर जब टी.टी...टिकट चेक करने  आया तो पता चला..दोनों केवल  सहयात्री ही हैं. लड़का MBA  करने जा रहा था और लड़की अपने पति के पास. पर थोड़ी ही देर में दोनों में बातचीत शुरू हुई जो धीरे-धीरे गहरी दोस्ती में बदल गयी. दोनों का व्यवहार शालीन ही था. पर खूब गप्पें चल रही थीं...समवेत हंसी भी सुनायी दे जाती...लड़की बैग से कुछ निकालती और फिर दोनों मिल बाँट कर खाते...एक बार तो वो लड़की कोई गाना भी गा कर सुना रही थी...और लड़का गंभीरता से सर हिला रहा था. ट्रेन की स्टौपेज़  कम थी पर जब भी ट्रेन रूकती..लड़का भागता हुआ जाता और स्टेशन से कुछ खरीद कर ले आता. एक बार वो ऊपरी बर्थ पर सो रहा था...और ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी तो लड़की ने बड़ा साधिकार उसे जगाया...'प्लेटफॉर्म पर इतने गरम गरम भजिये तले जा रहे हैं और आप सो रहे हैं...जल्दी से लेकर आइये.."..और वो लड़का आधी नींद में आँखें मलता उठा..पैरों में चप्पल अटकाए और ट्रेन से उतर गया. पर एक चीज़ मैने नोटिस की..उस लड़की ने कभी पैसे निकाल कर नहीं दिए...लड़का अपने पैसों से ही खरीद कर लाता रहा...मुझे हंसी भी आ रही थी..अपनी पॉकेट मनी लुटाये जा रहा है...पता नहीं मुंबई में कैसे काम चलाएगा.

ट्रेन मुम्बई पहुँच गयी  तो लड़की का सूटकेस उस लड़के ने उतारा...एक बैग हाथों में थामे लड़की भी उतर आई...मेरा तो ढेरो सामान  उतारने का सिलसिला चल ही रहा था. वो लड़का...लड़की के पास ही खड़ा हो गया. उस  लड़की ने कहा.."अब आप जाइए...मेरे पति आते ही होंगे..." ..और लड़का हम्म ..कहता झेंपता सा चल दिया.

जब मैने फिल्म 'मिस्टर एंड मिसेज़ अय्यर' देखी..तो ये ट्रेन वाली घटना बार-बार याद आ रही थी. फिल्म में एक रुढ़िवादी  तमिल ब्राह्मण  मीनाक्षी ('कोंकणा सेन') को अकेले अपने एक साल के बेटे के साथ बस से सफ़र करना पड़ता है. बस स्टॉप पर उसके पिता के एक परिचित का दोस्त राजा चौधरी ('राहुल बोस') मिलता है, उसे भी इसी बस से जाना है. किसी भी चिंताग्रस्त माँ की तरह...मीनाक्षी  के कितना बरजने के  बावजूद उसकी माँ राजा  से मीनाक्षी  का सफ़र में ध्यान रखने के लिए कहती है...और बस का सफ़र ख़त्म होने के बाद..कलकत्ता जाने वाली ट्रेन में उसे अच्छे से बिठा देने का आग्रह करती है. राजा जो 'वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफर' है..वो भी कलकत्ता ही जा रहा होता  है.  जब मीनाक्षी  को बच्चे के लिए सेरेलक बनाना पड़ता है ..तब वो बच्चे को बहला कर उसकी सहायता भी करता है. बस में सारे यात्रियों का बहुत ही बारीकी से विवरण है. कुछ युवा लड़के और लकडियाँ हैं जो पूरे रास्ते गाना गाते रहते हैं...एक बुजुर्ग मुस्लिम युगल हैं..जिन्हें आजकल के बच्चों के कपड़े पहनने का अंदाज़..यूँ शोर मचाना पसंद  नहीं आता. एक नव-विवाहित जोड़ा है...चार मित्र हैं जो बस में ही ताश खेलते हैं..और पानी की बोतल में शराब मिला कर पीते हैं. एक मेंटली चैलेंज्ड बच्चे के साथ एक अकेली माँ होती है...दो सरदार हैं..जिनमे एक के चाचा अब भी पकिस्तान में हैं.

अचानक बस एक जगह रुक जाती हैं...सारे यात्रियों के साथ मीनाक्षी  और राजा  भी उतर जाते हैं. पता चलता है...आगे  दंगा हो गया है. राजा, मीनाक्षी को बताता है कि वो एक मुस्लिम है.उसका पूरा नाम 'राजा जहाँगीर चौधरी' है. मीनाक्षी बहुत विचलित हो जाती है...उसे अफ़सोस होता है..उसने राजा के बॉटल से पानी क्यूँ पी लिया. वो मुहँ फेरे वापस बस में बैठ जाती है. कुछ दंगाई बस में चढ़ आते हैं..और सबसे नाम पूछने लगते हैं. उन बुजुर्ग युगल को बस से उतार लेते हैं. सारे बस के लोग चुप हैं पर उन युवाओं में से जिनकी वे बुजुर्ग आलोचना कर रहे थे...एक लड़की उठ कर विरोध करती है...चिल्लाती है..कि 'उन्हें क्यूँ ले जा रहे हैं' दंगाई उसे थप्पड़ मार कर गिरा देते हैं. जब राजा की सीट की तरफ आने लगते हैं तो मीनाक्षी अपने बच्चे को राजा की  गोद में दे देती है और दंगाइयों से कहती  है..'ये मेरे पति हैं..मिस्टर अय्यर ..सुब्रह्मण्यम  अय्यर और मैं मिसेज़ अय्यर.'. दंगाई बस से उतर जाते हैं. पर उस इलाके में कर्फ्यू लगा हुआ है..बस आगे नहीं जा सकती. सबलोग उस छोटे से कस्बे में रहने की जगह तलाशने लगते हैं. राजा और मीनाक्षी को कोई जगह नहीं मिलती,एक पुलिस ऑफिसर उनकी मदद करता है और दूर जंगल में एक टूटे-फूटे 'फ़ॉरेस्ट रेस्ट हाउस' में उन्हें पहुंचा देता है. वहाँ रहने लायक सिर्फ एक ही कमरा देख मीनाक्षी नाराज़ हो जाती है और खुद को कोसने लगती है..'मुझे बस में ही रुक जाना चाहिए था...एक अजनबी के साथ मैं  इतनी दूर क्यूँ चली आई....बड़ी गलती कर दी.' राजा कहता है कि 'ये सब उसे पहले सोचना चाहिए था '. मीनाक्षी के ये कहने पर कि   पता नहीं गेस्ट हाउस का कुक किस जाति का है..उसके हाथों का बना कैसे खाऊँगी ?' राजा और उसमे थोड़ी सी बहस भी होती है कि...'ये 2001 है (तभी इस फिल्म की शूटिंग हुई थी..पर आज ही क्या बदल गया है ) और इस जमाने में वो ये छुआछूत पर विश्वास करती है' . राजा अपना सामान लेकर कमरे से निकल जाता है.

सुबह जब चौकीदार से मीनाक्षी पूछती है..'साहब कहाँ हैं ?' तो वो कहता है..'वे तो रात को ही अपना सामान लेकर चले गए' अब वो बहुत परेशान हो जाती है..सोचती है 'बेकार ही उस आदमी की जान बचाई...ऐसे जंगल में एक छोटे बच्चे के साथ उसे छोड़कर चला गया.' उदास सी जंगल की तरफ देखती है तो पाती  है..राजा उन पेडों के नीचे अपने सामान के साथ सो रहा है. वो नंगे पैर अपने बच्चे को लेकर उसके पास भागती है..उसे सॉरी कहती है...और वहीँ से उनके बीच कोमल भावनाओं का जन्म होता है. निर्देशिका अपर्णा सेन और दोनों कलाकारों की तारीफ़ करनी होगी...दोनों के बीच बिना किसी शब्द या व्यवहार का सहारा लिए सारे अहसास आँखों से ही अभिव्यक्त होते हैं.राजा,बच्चे और मीनाक्षी की ढेर सारी तस्वीरें खींचता है. 

दोपहर में जब वे लोग कस्बे में जाते हैं तो बस के शेष सहयात्रियों से मुलाकात होती है..सब उन्हें पति-पत्नी ही समझते हैं. युवा लड़कियों का दल उन्हें घेर  कर तमाम प्रश्न पूछता है..'उनकी कैसे मुलाकात हुई...कब प्यार हुआ..हनीमून के लिए कहाँ  गए...' राजा उन्हें अपनी कल्पना से बताता रहता है...हम रेन फ़ॉरेस्ट  में एक ट्री हाउस में हफ्ते भर रहे...एक झील के बोट हाउस में रहे...चिदंबरम मंदिर में गए....मीनाक्षी उसे गौर से देखती रहती है...शाम को वही पुलिस ऑफिसर अपनी जीप में उन्हें गेस्ट  हाउस तक छोड़ने के लिए लिफ्ट देता है...रास्ते में वे पाते हैं...दंगा और भड़क गया है...कई घर जला दिए गए हैं..ऐसे ही एक जलते हुए घर के सामने एक बच्ची रो रही है..उसके माता-पिता की ह्त्या कर दी गयी है...उस रोती हुई नन्ही सी बच्ची को पता भी नहीं है...वो मुस्लिम है या हिन्दू.

शाम को बालकनी में बैठे दोनों बातें कर रहे हैं तभी चौकीदार दौड़ता हुआ आता है..और कहता  है..'कुछ लोग मेरी जान के पीछे पड़े हैं....आपलोग कमरे में जाकर कमरा लॉक कर लीजिये.' राजा बाहर रहना चाहता है तो मीनाक्षी उसे जबरदस्ती अंदर खींच कर सिटकनी लगा देती है. शोर सुनकर खिड़की से दोनों झांकते हैं..और अपनी आँखों से दंगाइयों द्वारा चौकीदार की ह्त्या करते हुए देख लेते हैं. यह सब देखकर ,मीनाक्षी की तबियत बहुत खराब हो जाती है...उसे उल्टियां होने लगती है..वो खुद को संभाल नहीं पाती...राजा  उसे बिस्तर पर लिटा कर खुद जमीन पर बैठ कर सारी रात गुजार देता है. मीनाक्षी रात में चौंक चौकं कर उठती है...और राजा को ढूंढती है...उसे पास पाकर उसका हाथ पकड़ कर सो जाती है.

दूसरे दिन पुलिस जीप से ही वे स्टेशन पहुँचते हैं...और जब ट्रेन में बैठते हैं तो दोनों पर यह ख्याल तारी रहता  है कि  अब उनका सफ़र अपनी मजिल तक पहुँचने वाला है..और अब वे  फिर कभी नहीं मिलेंगे. दोनों इधर उधर की बातें करने की कोशिश करते हैं और फिर...खडकी से बाहर देखने लगते हैं. यहाँ भी संवाद  बहुत कम है...पर उनके अभिनय से उनके दिल में उठते  तूफ़ान का आभास दर्शकों तक बखूबी पहुँचता है. ट्रेन जब कलकत्ता पहुंचती है तो मीनाक्षी के पति उसे लेने आए हुए हैं. फिल्म में अच्छी बात ये है कि  मीनाक्षी के पति को भी एक सहृदय भला आदमी दिखाया गया है..वो बार-बार राजा का शुक्रिया अदा करता है कि  उसने उसकी पत्नी और बच्चे की इतनी सहायता की. राजा उनसे विदा ले चला जाता है और मीनाक्षी बड़ी बड़ी कजरारी आँखों में आँसू लिए उसे देखती रहती है.

कोंकणा सेन अपनी माँ और निर्देशिका अपर्णा सेन के साथ 
फिल्म का निर्देशन और पात्रों का अभिनय कमाल का है. राहुल बोस का सिर्फ आँखों से ही सारी भावनाएं व्यक्त करना ,तारीफ़ के काबिल है. कोंकणा सेन ने बंगाली होते हुए एक तमिल ब्राह्मण के कैरेक्टर में खुद को ढालने के लिए बहुत मेहनत की है. कहीं पढ़ा था कि  वे एक महीना चेन्नई में एक तमिल परिवार के साथ रहीं थीं...उनके हाव-भाव..उनकी तरह साड़ी पहनना..बालों में फूल लगाना..उच्चारण सब बहुत ही अच्छी तरह आत्मसात किया है. वे टिपिकल दक्षिण भारतीय की तरह 'थैंक्यू ' बोलती हैं. फिल्म में छोटी छोटी डीटेलिंग पर बहुत मेहनत की गयी है. दर्शकों की संवेदनशीलता पर भी बहुत भरोसा किया गया है. जब राजा चौधरी के कैमरे की लेंस...पहाड़ों की चोटियों...पेडों..नदी से होते हुए ..नदी के किनारे पड़े उन बुजुर्ग के डेन्चर और चश्मे पर पड़ती है..तो  राजा को एकदम से चौंकते हुए नहीं दिखाया गया है...बल्कि विश्वास है कि दर्शकों ने इस  दृश्य की गहराई को महसूस कर लिया होगा. 
आज गैंग ऑफ वासेपुर फिल्म में गालियों की इतनी चर्चा है...इस फिल्म में भी दंगाई वैसी ही गालियाँ देते हैं...हो सकता है..तब सेंसर की कैंची उनपर चल गयी हो. पर सी.डी. में वे संवाद और कुछ जरूरी दृश्य..यथावत थे. छायांकन बहुत ख़ूबसूरत है..और प्रसिद्द तबलावादक जाकिर हुसैन द्वारा संगीतबद्ध किए गए गीत..बैकग्राउंड में बजते रहते हैं..और दृश्यों को एक नए अर्थ देते हैं. सुलतान खान का गाया सूफी गीत 'गुस्ताख अँखियाँ'..दिल में गहरे उतर जाने वाला है.

यह फिल्म कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में दिखाई गयी है और कई अंतर्राष्ट्रीय और राष्ट्रीय अवार्ड भी जीते हैं.  गोविन्द निहलानी ने आवाज़ भी उठायी थी कि राजनीति से ऊपर उठकर इस फिल्म  को ऑस्कर में क्यूँ नहीं भेजा गया??

शनिवार, 7 जुलाई 2012

हमारी केक क्वीन 'तंगम'


आप लोगों ने सब्जी काटना.. फल काटना सुना होगा और काटे भी होंगे. पर कभी किसी को किशमिश काटते सुना है ??.हमने भी नहीं सुना था, जबतक 'तंगम ' से दोस्ती नहीं हुई थी. क्रिसमस के समय 'तंगम' को बहुत सारे केक के ऑर्डर मिलते हैं और 'तंगम' केक में बाकी मेवों के साथ किशमिश भी काट कर ही डालती है तो हम सब सहेलियाँ एक महीने पहले से बारी-बारी से उसके घर जाकर मेवे काटने में उसकी मदद करते हैं. उसके पतिदेव  हम सबको उकसाते रहते हैं कि तंगम से हम इन मेवों को काटने का मेहनताना लिया करें. पर तंगम तो हमारी मेहनत का मोल चुका देगी...लेकिन  सालो भर जो इतने प्यार से हमें केक-पेस्ट्री-बिस्किट्स खिलाती है...उस प्यार का मोल हम कहाँ से चुकायेंगे?? बल्कि यही वजह है कि इतना वॉक और योगा करने के बाद भी 'वेइंग स्केल' की सूई टस से मस नहीं होती :):)

करीब छः साल पहले तंगम से मुलाक़ात हुई तो पता चला...वो बहुत बढ़िया केक बनाती है. हमने आजमाया भी और उसके मुरीद हो गए. अब तो ये हाल है कि हम सहेलियों..हमारे रिश्तेदारों...किसी को मौन्जिनीज़ ..बर्डीज़..कहीं के केक नहीं भाते. बच्चों की फरमाइश भी यही रहती है कि तंगम आंटी के ही हाथों का केक होना चाहिए. और तंगम को भी चाहे सुबह  की फ्लाईट पकडनी हो पर वो सुबह चार बजे उठकर केक बना कर बच्चों की फरमाइश पूरी कर देती है. जब उस से मिली थी यही लगा था...उसने कहीं से केक बनाने और उसकी साज-सज्जा का कोर्स किया है तभी वो इतना अच्छा केक बना पाती है. पर जब उसे करीब से जाना तो पता चला..उसने कहीं से कोई कोर्स नहीं किया है और खुद से ही नए नए प्रयोग कर इतने सुन्दर और स्वादिष्ट केक बना लेती है. 

मुझे बहुत आश्चर्य हुआ और मैने उस से विस्तार से पूछा कि उसने कब और कैसे केक बनाना शुरू किया??...और यह सब जानने के बाद से ही मेरी इच्छा थी कि ब्लॉग पर शेयर करूँ...कि उम्र के किसी भी मोड पर नई शुरुआत की जा सकती है और सफलता की ऊँचाइयों तक पहुंचा जा सकता है. तंगम जब कॉलेज में थी तो उसकी तमन्ना एयरहोस्टेस बनने की भी थी...उसने क्वालिफाई भी कर लिया था ..पर परिवार से इज़ाज़त नहीं मिली . फिर उसने सोचा कि वो एक बुटिक कम पार्लर खोलेगी..जहां  महिलाएँ...शॉपिंग भी कर सकेंगी और अपने सौन्दर्य की देखभाल भी .पर  २२ साल की कच्ची  सी उम्र में उसकी शादी  हो गयी और वो चेन्नई से मुंबई आ गयी. नया शहर... नई भाषा {आज भी तंगम हिंदी में सिर्फ सब्जी वालों से ही बात करती है और इतने धीमे से प्यार से पूछती है.."भैया, ये कैसे दिया.?.' कि सब्जी वाला सुनता ही नहीं...फिर हमें जोर से पूछकर उसकी सहायता करनी पड़ती है :):)}. साल के छः से आठ महीने उसके पति 'शिप' पर रहते हैं .(वे मर्चेंट नेवी में हैं ). ज्यादातर समय अकेले ही अपने बेटे और बेटी की देखभाल करती .पर उसे अपना सपना याद था और उसने ब्यूटीशियन  का कोर्स किया . ब्यूटी पार्लर खोलने के लिए  सारे जरूरी उपकरण ख़रीदे और घर में ही पार्लर खोल लिया. पर बच्चे छोटे थे .उनको माँ का पूरा अटेंशन चाहिए था. जब वो किसी क्लाइंट को अटेंड कर रही होती उसी वक़्त पांच वर्षीय बेटा चीखना शुरू कर देता. कुछ ही दिनों में उसे बच्चों का ख्याल कर पार्लर बंद कर देना पड़ा. 

वो बच्चों की देखभाल में पूरी तरह संलग्न थी. उन्ही दिनों उसकी एक सहेली ने अपने बेटे के बर्थडे पार्टी पर मदद करने के लिए अपने घर बुलाया . उसकी सहेली ने खुद ही केक बनाया था और उसकी आइसिंग कर रही थी. उसकी सहेली के  बच्चे भी बड़े उत्साहित थे और केक को सजाने में अपनी माँ की मदद कर रहे थे. तंगम बहुत प्रभावित हुई और सोचा वो कोशिश करे तो इस से भी अच्छा केक बना सकती है. कुछ ही दिनों बाद , उसके माता-पिता के शादी की 'पचासवीं वर्ष्गांठ'  थी. वर्षगाँठ वाले दिन तंगम के घर पर ही कुछ रिश्तेदारों की छोटी सी पार्टी थी . दस दिनों के बाद होटल में बड़ी पार्टी थी. जिसमे देश और विदेश से उसके काफी रिश्तेदार आने वाले थे. घर वाली पार्टी में तंगम ने खुद ही केक बनाने की सोची. पर उस समय उसके पास अवन भी नहीं था. उसने बाजार से स्पंज केक ख़रीदा और आइसिंग का सारा सामान भी खरीद कर लाई. देर रात तक जागकर केक को सजाया. उसके पति भी पूरे उत्साह से उसका साथ देते रहे. सारे रिश्तेदारों ने केक की बहुत तारीफ़ की .और दूसरे ही दिन पति के साथ जाकर वह अवन खरीद लाई. (अवन से सम्बंधित एक रोचक वाकया है...मैं जब पहली बार 'तंगम' के घर गयी तो सबसे पहले उसका अवन देखने की इच्छा जाहिर की...मुझे लगता था इतने बढ़िया प्रोफेशनल तरीके से केक बनाने का अवन भी कुछ अलग सा होता  होगा, पर हैरानी हुई ये देख उसके पास भी वही अवन था जो मेरे पास था.....और आम घरों में होता है...यानि कि बढ़िया केक बनाने का हुनर उसके हाथों में था..अवन में नहीं )
अब तंगम का ट्रायल एंड एरर शुरू हुआ. उसके साथ एक मजेदार बात और हुई थी. जब एंगेजमेंट के बाद उसके होने वाले पति ने फोन कर के पूछा.."तुम्हारे लिए क्या उपहार लाऊं?" 
तंगम को कुछ समझ नहीं आया. उसने किसी के घर पर चमकीले चिकने कागज़ वाली केक के सुन्दर तस्वीरों से सजी विदेशी रेसिपी बुक देखी थी. और उसी की फरमाइश कर डाली.  पतिदेव ने भी बड़ी मेहनत से छांटकर केक बनाने के सरल तरीकों वाली किताब  खरीदी और उसे भेंट की. इतने दिनों तक वो किताब बक्से के निचली तह में रखी हुई थी. अब तंगम ने उस किताब को निकाला ...और उसमे से पढ़ पढ़ कर केक बनाना शुरू किया. 

उस बड़ी पार्टी में भी इस बार तंगम ने खुद ही केक भी बनाया और उसको डेकोरेट भी किया. सबको केक का स्वाद और सज्जा बहुत पसंद आई. दस दिनों बाद ही उसके एक रिश्तेदार की बेटी की शादी थी. कैथोलिक लोगों में केक का बहुत महत्व होता है. उसकी रिश्तेदार ने लंदन से कलर और सजाने का समान मँगा कर एक प्रोफेशनल बेकर  को दिए थे. पर उस शादी में सबकी जुबान पर कुछ  ही दिनों पहले तंगम के बनाये केक की चर्चा ज्यादा थी और सबका कहना था कि  तंगम के बनाए केक का  स्वाद और सज्जा दोनों  इस प्रोफेशनल बेकर के केक से ज्यादा बढ़िया था.  इसके बाद से ही किसी भी अवसर पर रिश्तेदार...दोस्त ..पड़ोसियों के लिए केक तंगम ही बनाती. उसने कई किताबें खरीदीं...इंटरनेट से भी  हमेशा नई नई चीज़ें सीखने की कोशिश करती  रही. करीब चार साल के बाद...लोग उसपर ऑर्डर से केक बनाने के लिए जोर डालने लगे और तंगम ने केक बनाने का ऑर्डर लेना शुरू कर दिया.

अब वो इतनी सिद्धहस्त हो गयी है कि उसे जो भी तस्वीर दिखाओ..वो वैसा ही केक बना देती है. किसी की बेटी को सैंडल पसंद है तो सैंडल की आकृति...किसी सहेली को पर्स पसंद है तो..पर्स की आकृति...किसी भी चीज़ की आइसिंग बनाने में वो सक्षम है...और डेकोरेशन के उपयोग में लाई सारी चीज़ें खाई जा सकती हैं.
फेसबुक पर उसने केक की बहुत सारी तस्वीरें अपलोड कर रखी हैं.(यहाँ देखी जा सकती हैं ) उन्हें ही देख कर हैदराबाद से एक महिला ने अपनी बेटी की शादी में केक बनाने के लिए उसे निमंत्रित किया. आने जाने का प्लेन का टिकट और एक अच्छे होटल में उसके ठहरने की व्यवस्था भी की. अगर तंगम फ्री ना हो तो लोग अपनी पार्टी का डेट आगे बढ़ा देते हैं.

तंगम को कई बेकरी से उनके लिए केक बनाने का ऑफर मिला है.पर वो अपनी मर्जी से और अपनी सुविधा और अपनी शर्तों पर काम करना चाहती है इसलिए उनका ऑफर स्वीकार नहीं करती.

तंगम के विषय में कुछ और बातें बहुत ही उल्लेखनीय हैं. जब उसके बच्चे छोटे  थे तो वो अपना विशेष ख्याल नहीं रख पाती थी और उसका वजन बढ़ गया था. एक बार रास्ते में किसी ने उसे टोक दिया.."वो पहचान में नहीं आ रही है' और उसने ठान लिया उसे अपना वजन कम करना है.पर उसने ना तो जिम ज्वाइन किया ना ही..डायटिंग की. सिर्फ अपने खाने-पीने  का ख्याल रखा और वॉक किया करती. तीन साल में उसने अपना वजन पंद्रह  किलो घटा लिया. अब दस साल हो गए हैं और आज भी उसका वजन उतना ही है. अगर वो  खुद नहीं बताये तो कोई नहीं जान सकता वो कभी ओवरवेट भी थी.यही अगर डायटिंग और जिम जाकर वजन घटाया जाए तो पुनः वापस वजन बढ़ते देर नहीं लगती. आज तंगम को  देख कर कोई नहीं कह सकता  कि उसका तेइस साल का एक बेटा है. इसमें उसके  खुशमिजाज स्वभाव का भी हाथ है.

तंगम के सारे भाई-बहन..अमेरिका..कनाडा.. ऑस्ट्रेलिया में रहते हैं. लिहाजा उसकी माँ तंगम के पास ही रहती हैं. पति भी शिप पर रहते हैं .बेटे ने भी मर्चेंट नेवी ही ज्वाइन कर लिया है. अकेली ही तंगम अपनी 'बुजुर्ग माँ' की देखभाल करती है .डॉक्टर, ब्लड टेस्ट..हॉस्पिटल का चक्कर चलता ही रहता है,अकेले ही सब संभालती है और वो कहती है...बहन-भाई ने अपने पास ले जाने की कोशिश की पर अब माँ का वहाँ कैसे मन लगेगा...इसलिए माँ  तो मेरे पास ही रहेंगी 

तंगम जैसी महिलाएँ कोई शिकायत नहीं करती...कैसी भी परिस्थिति सामने हो..उसे अपने अनुकूल बनाने की कोशिश करती हैं..और उसी में अपनी राह तलाश कर शिखर तक पहुँचने का प्रयास करती हैं.  ऐसी महिलाएँ ही समाज में परिवर्तन लाने की काबिलियत रखती हैं . उन्हें अपने अधिकार का भी पता होता है और वे अपने कर्तव्य निभाने से भी नहीं चूकतीं.

तंगम के कलात्मक केक के कुछ और नमूने 














फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...