बुधवार, 27 जून 2012

इतना मुश्किल क्यूँ होता है "ना " कहना

इस लम्बी कहानी की कुछ किस्तों  पर कुछ  लोगों  ने कई  कई  बार यह कहा कि "जब किसी स्त्री पर उसका पति या ससुराल वाले अत्याचार करते हैं तो उसे पहली बार में ही इसका विरोध करना चाहिए "
बिल्कल सच है यह क्यूंकि अगर विरोध नहीं किया तो फिर उनकी हिम्मत बढती चली जाती है...लेकिन अधिकाँश स्त्रियाँ ऐसा नहीं कर पातीं...पर सोचने की बात ये है कि वो ऐसा क्यूँ नहीं कर पातीं??
इसकी प्रमुख वजह है...उनका पालन-पोषण. उन्हें बचपन से ही यही सिखाया-पढाया जाता है कि त्याग करो..एडजस्ट करो...जबाब ना दो..विरोध ना करो....ऊँचा मत बोलो..ये सब स्त्रियोचित गुण नहीं हैं...वगैरह वगैरह...फिर वे कैसे सीख पाएंगी ना कहना...विरोध करना..??

पहले ये स्पष्ट कर दूँ कि इस ब्लॉगजगत के अभिभावकों..या अन्य मुट्ठी भर अभिभावकों की बात नहीं कर रही जो लड़के/लड़कियों में विभेद नहीं करते. पर वृहद् परिप्रेक्ष्य में देखें तो ऐसे लोगों की संख्या सागर में बूँद जैसी नहीं भी तो.. एक बाल्टी भर जल जैसी ही है. अधिकाँश लोग ऐसे हैं जो  लड़कियों के जन्म के साथ ही भेदभाव शुरू कर देते हैं. लड़कियों का जन्मोत्सव नहीं मनाएंगे...आगे चलकर उसका जन्मदिन नहीं मनाएंगे..पर बेटों का जन्मोत्सव और उसका जन्मदिन धूमधाम से मनाएंगे. समाज के एक वर्ग में देखा..कि वहाँ बेटियों की छट्ठी (जन्म के छः दिन बाद मनाया  जाने वाला उत्सव ) का रिवाज़ नहीं है...अब ये रिवाज किसने बनाए??
 
अगर बेटे/बेटी दोनों ही बहुत छोटे हैं ..रो रहे हैं तो अक्सर बेटे को पुचकार कर उठा लिया जाता है. बढ़िया चीज़ें...खिलौने..कपड़े..चॉकलेट  बेटों के लिए आते हैं. कितने ही घरों में ,बेटे को दूध का ग्लास दिया जाता है, उनकी दाल में घी जरूर डाला जाता है..पर बेटियों के  नहीं. दूरदर्शन पर बेटियों को भी उचित पोषण दिया जाना चाहिए के संदेश की शुरुआत ही यूँ हुआ करती थी.."बेटियाँ ना खाया करे हैं, घी "...शायद बहुत लोग एतराज जताएं..पर यह सब कटु सत्य है ...एक मेरी आँखों देखी घटना है...बचपन में हम कॉलोनी के बच्चे दशहरा में मूर्तियों के दर्शन के लिए जा रहे थे. एक अफसर पिता..अपने बरामदे में  से चिल्लाये..."मन्नू ने फटे हुए मोज़े पहने हैं" ..और उसकी बहन किट्टी ने अपराधी भाव से  कहा.."मैने मना किया था...इसने नहीं सुना.." और वहीँ झुक कर उसने छोटे भाई के फटे मोज़े उतार कर खुद पहने और अपने अच्छे मोज़े उसे पहना दिए." पिताश्री संतुष्ट हो गए. उस वक़्त भी मुझे यह बात बहुत बुरी लगी थी (तभी शायद अब तक याद है ) .भीड़ में कोई झुक कर मन्नू के फटे मोज़े नहीं देखने जा रहा था....पर उसके पिताजी को कैसे गवारा  हो ये. उनके घर में और भी ना जाने कितने ऐसे भेद-भाव किए जाते होंगे . 
लोग कह सकते हैं..'ये तो आपके बचपन की बात है...बड़ी पुरानी बात है..अब ऐसा नहीं होता ' तो वे ज्ञानदत्त पाण्डेय जी का मई महीने का ये फेसबुक स्टेटस  पढ़ सकते हैं .."सहयात्री ने दो लीटर के  ठंढे पानी की बोतल खरीदी .एक ग्लास खुद पिया..एक ग्लास बेटे को दिया और उसके बाद आधा  ग्लास बेटी को " ( आठ लोगों ने इस स्टेटस को लाइक भी किया है ) .अब इस छोटी सी बच्ची को तो अभी से इस विभेद को स्वीकार करने की आदत पड़ जायेगी .और इस तरह के भेदभाव करने वाले माताओं-पिताओं की संख्या बहतायत में है 

ये सब कहने का अर्थ ये है कि जब लडकियाँ बिलकुल नासमझ होती हैं...उनकी सोच विकसित नहीं हुई होती है..तभी से उनके साथ ये भेदभाव शुरू हो जाता है और उसे ये अपनी नियति समझ  स्वीकार 
  करती  जाती  हैं ..इसे ही सही समझने लगती है क्यूंकि अपने पालनकर्ता को तो वे गलत नहीं समझ सकतीं. जैसे ये समझती हैं कि माता-पिता का आदर करना चाहिए वैसे ही ये भी समझती हैं कि भाई  यानि पुरुष को हर चीज़ में  ज्यादा  महत्व  देना है. आज कई भाई बड़े भावुक होकर संस्मरण लिखते हैं कि उनकी बहनों ने अपने पैसे बचा कर उनके लिए कितना  कुछ किया...इतना त्याग  किया...भाई-बहन का प्रेम तो इसमें है ही..पर साथ में ये भी है...कि लड़कियों की मेंटल कंडिशनिंग ही ऐसी हो जाती है कि खुद के लिए नहीं,..हमेशा दूसरों के लिए सोचना है.वरना उनकी भी उम्र भाई के आस-पास की ही होती है..पर उनमें समझदारी बहुत जल्दी आ जाती है. स्त्रियों में प्रेम-त्याग के कुछ अन्तर्निहित गुण होते हैं. पर उनके इस गुण की इतनी बढ़ा-चढ़ा कर तारीफ़ की जाती है कि वे भी उन्हीं गुणों को संवारने में लग जाती हैं..उनके बाकी सारे गुण गौण हो जाते हैं.

जब लडकियाँ बड़ी होती हैं...तो फिर वही शिक्षा में भेदभाव ..अच्छे स्कूल कॉलेजों में बेटों का दाखिला...मेडिकल -इंजीनियरिंग...की पढ़ाई उसकी कोचिंग के लिए लाखों खर्च करने को तैयार पर बेटियों को आर्ट्स पढ़ने की हिदयात .इसके  साथ ही उन्हें तमाम किस्से सुनाए  जाते हैं...'सीता के त्याग के.'..'शिव को पाने के लिए पार्वती की तपस्या के'....'कुंती के  अनजाने में ही कह देने पर पांच पतियों में बंट जाने वाली द्रौपदी के'...'उन पतिव्रताओं के जो वेश्यागामी..अत्याचारी पति के बीमार पड़ने पर उन्हें कंधे पर लाद...लहु-लुहान घुटनों से देवी माँ के दर्शन के लिए दुर्गम पर्वत पर चढ़ जाती हैं...कि उनके पति ठीक हो जाएँ'....तो ऐसी कहानियाँ सुन ..और ऐसे व्यवहार को झेलकर किसी भी लड़की की सोच कैसी होगी.?? यही कि उससे तो त्याग ही अपेक्षित है...उसे हर हाल में ससुराल में एडजस्ट करना चाहिए . उसे खुद के के लिए नहीं..दूसरों के लिए जीना है...और वे यही करती हैं. पति के अत्याचार के विरोध का ख्याल आने से पहले अपने माता-पिता ..अपने संतान का ख्याल  आ जाता है. आधुनिक पढ़ी-लिखी लड़कियों के भी माता-पिता ये कभी नहीं चाहते कि बेटी ससुराल छोड़ मायके वापस आए. तो जब लौट कर कहीं जाने का ठौर-ठिकाना ना हो तो वो झट से विरोध  कैसे करे?? हाँ ,जब सर से पानी ऊपर चला जाए..अत्याचार की परकाष्ठा हो जाए तब जरूरजरूर  धीरे धीरे उसमें हिम्मत आने लगती है..पर यह हिम्मत उसे असहनीय पीड़ा से  मिलती है अपने परिजनों से नहीं. 

लड़कों से राजनीति...देश की समस्याओं पर डिस्कशन किया जाता है. शायद ही इन मामा-चाचा -भतीजो-भांजों के संग पारिवारिक  बैठकों में लड़कियों को शामिल किया जाता हो. हाँ, इस विचार-विमर्श को और लज्जतदार बनाने के लिए लड़कियों से गरमागरम पकौड़ों और चाय की फरमाइश जरूर की जाती है. उसके बाद लड़कियों पर तोहमत लगा दिया जता है कि उनकी तो इन विषयों में कोई रूचि ही नहीं. ये मानसिकता इतनी गहरे पैठ गयी  है कि पुरुष सोच ही नहीं पाते..स्त्रियों की भी इन सबमें भागेदारी की इच्छा हो सकती है.
दो साल पहले की बात है.. एक रिश्तेदार के यहाँ गयी हुई थी. पति -पत्नी दोनों  उच्च पदासीन हैं . एक रविवार ..उसके पति स्नान करने जा रहे थे तभी टी.वी. पर एक विचारोत्तेजक कार्यक्रम आने लगा. वे टॉवेल  में ही आकर टी.वी. के सामने बैठ गए और पत्नी से कहा."तब तक तुम जाकर नहा लो.." जब उसने कहा ."क्यूँ ..मेरी भी इच्छा है देखने की ?" तब बड़े बेमन  से ''ओके...देखो.."कहकर मुहँ घुमा कर बैठ गए. 
एक बार ट्रेन में देखा एक पुरुष की एक सहयात्री से कुछ बहस हो रही थी..उनकी बेटी ने पिता का मंतव्य स्पष्ट करना चाहा...तो पिता ने तुरंत हाथ उठा कर मना कर दिया.."मैं बात कर रहा हूँ ना.." ऐसे एक नहीं कई उदाहरण हैं जहाँ .लड़कियों को अपनों के द्वारा ही चुप रहने की हिदायत दी जाती है. अगर ऐसा वे उनकी रक्षा के लिए करते हैं तो फिर उनके व्यक्तित्व का विकास कैसे होगा? वे तो दबी-ढंकी ही रह जायेगी...उन्हें अजनबियों के सामने बोलने की ..अपनी बात कहने की आदत ही नहीं रहेगी तो जब पिता/भाई  आस-पास नहीं होंगे तब भी वो अपनी बात कैसे कह पाएंगी ?? यही वजह है कि ऐसे माहौल में पली लडकियाँ जल्दी अपना मुहँ नहीं खोल पातीं...ना ही अपने ऊपर किए गए जुल्म का विरोध कर पाती हैं.

'सत्यमेव जयते'  के एक  कार्यक्रम में उस लड़की का इंटरव्यू  था..जिसने शादी में दहेज़ का विरोध करते हुए...भावी ससुराल वालों पर स्टिंग ऑपरेशन किए. पहले भी अखबार में विस्तार से ये रिपोर्ट पढ़ी थी   (मुंबई की ही घटना थी यह ) तब भी यही ख्याल आया था कि इसका क्रेडिट उस लड़की के माता-पिता को देना चाहिए जिन्होंने इतनी हिम्मत दी उस लकड़ी को . यह कहकर चुप नहीं करा दिया कि 'ये सब बड़ों के मामले हैं,हमारा काम है.....बीच में मत पड़ो...जाओ चाय बना के लाओ"  . 
मेरी इस कहानी को पढ़कर परिचित/अपरिचित लोगों के कई मेल/फोन  आए...सबने अपने अनुभव बांटे  (इतने कि चार,पांच कहानी का प्लाट  तैयार हो जाए ).एक लड़की ने अपना अनुभव बताया कि उसने ससुराल वालों की बढती मांगों को लेकर शादी के दो दिन पहले अपने पिता को फोन करके कहा (उसके पिता...उसके भावी ससुरालवालों के पास ही गए हुए थे ) कि "आप इस शादी से मना कर दीजिये ". पिता ने पूछा..."सच में तुम श्योर हो?" और लड़की के हाँ कहने पर पिता ने वहाँ शादी तोड़ दी. मैने उस लड़की की हिम्मत  की तारीफ़ तो की ही साथ ही उसके पैरेंट्स के प्रति भी अपनी श्रद्धा व्यक्त  की कि उन्होंने अपनी बेटी की इच्छा का मान रखा...उसका पालन-पोषण ऐसे  किया कि वो  ना कहने की हिम्मत  कर सके. 

तो आज जरूरत है..ऐसे ही माताओं-पिताओं की जो बचपन से ही अपनी लड़कियों का  ऐसे पालन-पोषण करें  कि वो अपनी आवाज़ पहचानें...'ना' कहना सीखें...विरोध करना जानें तब वे अपने ऊपर किए गए पहले जुल्म का विरोध कर  पाएंगीं...और किसी को ये नसीहत देने का मौका नहीं देंगी कि 'पहली बार  में ही किसी अत्याचार  का विरोध करना चाहिए "

68 टिप्‍पणियां:

  1. सहमत हूँ, सच को सच कहने की दिशा में सब चलें।

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  2. अगर हिम्मत करो तो ' यह बड़ों का मामला है ' और आगे चलकर पूरा जीवन ही बर्बाद हो जाय तो ' बेटी की किस्मत ही ऐसी है' | ना कहने का अधिकार दिया ही नहीं जाता पर अब बदलते समय के साथ यह अधिकार स्वयं ही लेना होगा लड़कियों |

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  3. साहित्य का एक मकसद होता है। वह एक समानांतर समाज खड़ा करने में योगदान करता है।
    yae baat aaj naari ki post par r anuradha ne ek kament mae kahin haen

    कंडिशनिंग की बात जब मैने कही तो आप की पोस्ट पर लोगो को वो नहीं पची और मेरे ऊपर व्यक्तिगत आक्षेप हुए और आप ने अप्रोव भी किया , अब उसी कंडिशनिंग की बात पर आप पोस्ट बना रही हैं तब में और अब में क्या फरक हो गया , क्या एक महीने पहले नारी की कंडिशनिंग नहीं हो रही थी और अब होने लगी
    ना कहने के लिये प्रेरणा कौन देगा , साहित्यकार भी दे सकते हैं
    वो कहानिया लिख कर जहां सहने की जगह विद्रोह की बात हो

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    1. साहित्य का एक मकसद होता है। वह एक समानांतर समाज खड़ा करने में योगदान करता है। yae baat aaj naari ki post par r anuradha ne ek kament mae kahin haen

      किसने इस तथ्य से इनकार किया है??..क्या मेरी कहानी में ऐसा संदेश नहीं था,जब नायिका सैकड़ों मुसीबत झेलते हुए भी..अपने पैरों पर खड़ी हो अपना और अपने बच्चों की देखभाल करती है..?? (अपनी लिखी कहानी के लिए ऐसा कहना अच्छा नहीं लग रहा है..पर आप कहने पर मजबूर कर रही हैं ) लेकिन आपने तो कहानी एक चौथाई भी नहीं पूरी हुई थी और बीच में ही विरोध करना शुरू कर दिया था.

      और साहित्य का मकसद सच दिखाना भी होता है...नायक/नायिका ने क्या क्या मुसीबतें झेलीं और उस से कैसे उबरे सब दिखाना होता है..केवल नायक/नायिका की विजयगाथा ही नहीं लिखी जा सकती

      कंडिशनिंग की बात जब मैने कही तो आप की पोस्ट पर लोगो को वो नहीं पची अब उसी कंडिशनिंग की बात पर आप पोस्ट बना रही हैं तब में और अब में क्या फरक हो गया , क्या एक महीने पहले नारी की कंडिशनिंग नहीं हो रही थी और अब होने लगी

      आपने कंडिशनिंग की बात करते हुए सारा दोष लड़कियों के मत्थे मढ़ दिया था कि वे विरोध करना नहीं चाहतीं...अपने कम्फर्ट ज़ोन से नहीं निकलना चाहतीं जबकि तस्वीर कुछ और ही होती है.
      एक महीने में कुछ भी बदल सकता तो कितना अच्छा होता....पर ऐसा होता नहीं..इसलिए यहाँ भी नहीं हुआ. इस पोस्ट का ख्याल तभी उपजा था ,क्यूंकि आपका सिर्फ और सिर्फ यही कहना था कि औरतें अपने आराम के लिए घर नहीं छोड़ना चाहतीं.

      पर कहानी के बीच में जब तक बहुत जरूरी ना हो मैं व्यवधान लाने की कोशिश नहीं करती....इसीलिए अब लिखा...आपके कहने पर कोई पोस्ट बनाई...इस ग़लतफ़हमी में ना रहें.


      व्यक्तिगत आक्षेप हुए और आप ने अप्रोव भी किया..

      इस बात को आप कई बार दुहरा चुकी हैं..और मैने हर बार यही कहा है कि पहले आपने सतीश पंचम जी का नाम लिया था तो मुझे उनका जबाब पब्लिश करना ही पड़ा..और फिर आपका जबाब भी पब्लिश किया मैने.

      ना कहने के लिये प्रेरणा कौन देगा , साहित्यकार भी दे सकते हैं वो कहानिया लिख कर जहां सहने की जगह विद्रोह की बात हो

      ऑफ कोर्स साहित्यकार भी दे सकते हैं और देते भी हैं...पर कोरी कल्पना की उड़ान भर कर नहीं..सच को साथ रखते हुए. और कहानीकार केवल रोज़ी रोज़ी पिक्चर ही नहीं चित्रित कर सकता...उसे स्याह धब्बे भी दिखाने होते हैं....अब कुछ लोगों को ये अच्छी ना लगे तो इसमें कहानीकार क्या करे....उस कीचड़ भरे रास्ते को पारकर नायक/नायिका कैसे साफ़-सुथरे जगमगाते पथ की ओर अग्रसित हुए...यह दिखाने के लिए कीचड़ वाला रास्ता दिखाना भी अनिवार्य होता है...इसे पसंद ना करने वाला..सिर्फ फूल,चाँद-खुशबू वाली कहानियाँ पढ़ सकता है...उनपर कोई जबरदस्ती तो नहीं कि ऐसी कहानियाँ भी वो पढ़े ही.

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    2. अब उसी कंडिशनिंग की बात पर आप पोस्ट बना रही हैं rachna

      आपके कहने पर कोई पोस्ट बनाई...इस ग़लतफ़हमी में ना रहें.rashmi

      i have said u made a pot on conditioning

      you are saying i should not be thinking that you made a because i said so

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  4. सार्थक पोस्ट ... सार्थक सीख ... जय हो !

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  5. एक मौलिक सा विचार है सही प्रतिरोध का...

    हमारी सामाजिक परिस्थितियों में पेरेंट्स के लिए या लड़की के
    लिए यह इतना आसान नहीं है...यहाँ तो लड़कियों को दूसरे
    घर जाना है, मुंहफट नहीं सबमिससिव रहना है...पुरुष के और
    घर की वयस्क महिलाओं के अहम का ख्याल रखते हुए ही अपनी
    राह बनानी है...(जोकि परिस्थितियों में कुछ सुधर भी होता रहा है).

    पर हां ! रश्मि जी ने कहा वैसी शुरुआत कहीं से भी हो तब
    तो वैसी पहल करने वालों को सपोर्ट भी मिलेगा और उनकी
    यह पहल अन्यों के लिए भी अनुकरणीय होगी... बस शुरुआत तो हो.
    एक मौलिक सा विचार है सही प्रतिरोध का...

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    1. लड़कियों के मुहँफट होने की बात नहीं कही जा रही...पर वे अपने अधिकारों की मांग और अत्याचार का प्रतिकार करना तो सीखें....ये तो समझें कि कहाँ चुप रहना है..और कहाँ अपनी आवाज़ सुनानी है.

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  6. हां ये आपने जड पर चोट की , लेकिन फ़िर भी एक समस्या जो मैंने अनुभव की है और ऐसी विमर्श वाली पोस्टों पर अक्सर सोचने पर विवश हो जाता हूं वो ये कि , बचपन में भी और बचपन से आगे भी ..ये लडकियों की मानसिकता में समझौता , त्याग , सहनशीलता जबरन कौन ज्यादा और अधिकांशत: भरता है , ज्यादातर मामलों में घर की महिला सदस्य ही । बेटी के जन्म पर ज्यादा खलबली , मासियों , चाचियों , नानियों , दादियों को होती देखी है , ताऊ मामे तो फ़िर भी डोलते रहते हैं । हां ये सच है कि अगर मां बाप ठान लें तो फ़िर मानसिकता ही बदल जाएगी और उसी दिन से आधी समस्याओं का हल अपने आप ही हो जाएगा ।

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    1. बिलकुल सही कहा अजय जी,
      ये सहनशीलता...त्याग...चुप रहने का पाठ घर की महिलाएँ ही सिखाती हैं...पर क्यूँ सिखाती हैं ऐसा??...क्यूंकि ये सिलसिला..उनकी माँ...नानी-दादी....परनानी-परदादी ...और उसके भी पहले से चलता आ रहा है. पहले तो वे शिक्षित ही नहीं होती थीं...कि उनकी सोच विकसित हो...और आज शिक्षित होती भी हैं..तो वो शिक्षा होती है...बस डिग्री हासिल करने तक ..साथ में घर परिवार-समाज की पैरेलल शिक्षा चलती रहती है...किस कॉलेज में पढना है...कौन से विषय लेने हैं..इन तक की छूट उन्हें नहीं होती..तो वे 'बी.ए'..'एम.ए.'. की डिग्री तो ले लेती हैं...पर अपनी सोच में उसकी मिलावट नहीं कर पातीं....सोच वही रहती है जो समाज उन्हें सिखाता है. इसलिए वे भी बिलकुल वैसा ही व्यवहार करती हैं जैसा उनके साथ होता आया है.

      वे बचपन से देखती आती हैं...बेटे के जन्म पर हर्षोल्लास...माँ की इज्जत...बेटे की माँ होने का गुरूर...बेटी के जन्म पर दुख...आँखें नीचीं तो बिलकुल स्टीरियो टाइप ऐसा ही व्यवहार वे भी करती हैं. किसी परम्परा को तोड़ना बहुत मुश्किल और हिम्मत का काम होता है जो बहुत कम लोगों में होता है...ज्यादातर लोग बंधी-बंधाई लीक पर चलते रहते हैं.

      और यह सिर्फ औरतों के साथ ही नहीं है..इंसानी प्रवृति है. एक अंग्रेजी किताब में विस्तार से इस तथ्य का जिक्र था कि 'कैसे एक आदमी के पिता सख्त थे..उसके साथ सख्ती से पेश आते थे तो वो भी बिलकुल ऐसा ही व्यवहार अपने बेटे के साथ करता था...एक पैटर्न को तोड़ कर अलग तरह से सोचने -चलने का उद्दम बहुत कम लोग कर पाते हैं "
      .ऐसा बहुत कम होता है कि मेरे साथ ऐसा हुआ है तो मैं ऐसा दूसरे के साथ ना करूँ...सास-बहू का किस्सा ले लीजिये....जो सास अपने युवावस्था में बहुत सताई जाती है...वही अपनी बहू को भी बहुत सताती है.

      इसीलिए जरूरी है कि कुछ एक्स्ट्रा एफर्ट लेकर बचपन से ही पालन-पोषण अलग तरीके से किया जाए...ताकि सही-गलत का फैसला ..वे अपनी बुद्धि से कर सके...ना कि बने बनाए पैटर्न के तहत.

      एक बात और कहूँगी....हमारा समाज पुरुष-प्रधान है तो उनकी बात को ज्यादा महत्त्व दिया जाता है. अगर किसी बहू को घूँघट नहीं करना हो...नौकरी करनी हो....सास की मर्जी हो तब भी तब तक संभव नहीं होगा...जबतक ससुर इजाज़त ना दे दे. 1930 के काल में स्थित फिल्म है..'काकस्पर्श' जिसमे छोटे भाई कि मृत्यु हो जाने पर उसकी पत्नी को उसके जेठ...पूरे गाँव से लड़कर 'विधवा' की तरह नहीं..एक आम लड़की की तरह उसे अपने घर में रखता है. यही सब अगर जेठ की पत्नी चाहती तो नहीं कर पाती. इसलिए पुरुष ये कहकर पल्ला नहीं झाड़ सकते...कि ये सारी शिक्षा औरतें देती हैं. अगर वे जरा सा साथ दें तो दुनिया की रंगत ही बदल जाए.

      (सतीश पंचम जी ने 'काकस्पर्श'फिल्म की बड़ी सुन्दर समीक्षा लिखी है...http://safedghar.blogspot.in/2012/05/blog-post_27.html )

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  7. भेदभाव करने वाले लोगों की कमी नहीं है। लेकिन त्याग और शोषण का अंतर तो समझ में आना चाहिये। ऐसा भी देखने में आता है कि तथाकथित शोषित/दलित/पीड़ित/अबला अक्सर खुद भी उसी मनोवृत्ति के पोषक हो जाते हैं और सभ्य समाज में आने पर भी अपनी पुरानी कुंठाओं को हथियार बनाकर जहाँ-तहाँ निर्दोषों को निशाना बनाते हैं। कितनी बार यह देखा है कि अपने परिवार में हर प्रकार का अन्याय सहने वाले दूसरों को बेबात उकसाकर अपने को वीरता मेडल प्रदान करते हैं। इस प्रकार के अधिकांश व्यवहारों में मुझे मानसिक अपरिपक्वता नज़र आती है। मित्रवत समाज का विकास हो, बराबरी की शर्तों पर, सभी शिक्षित और सक्षम हो सकें, इसका प्रयास हो। जाति/धर्म/लिंग आदि के आधार पर घर में भेद करने और घर के बाहर ज़हर उगलनेवालों को बढने से रोका जाये - जिनके पास अपने कड़वे अनुभव हैं भी वे उन्हें दूसरों पर जबरिया लादने के बजाये अपनी लड़ाई परिपक्वता से लड़ना सीखें, और क़ानून भी इसमें सहायक हो - शायद बदलाव आयेगा! लेकिन यह तो तय है कि कल बदलने की ज़िम्मेदारी आज की पीढी पर है।

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  8. बिलकुल सहमत हूँ आपसे दीदी...और जितना मैंने अब तक समझा है उससे यही जाना है की वैसी स्त्रियाँ जो अपने पति के अत्याचार से परेसान हैं, वे भी अक्सर कोई बड़ा कदम इसलिए नहीं उठा पाती की उनके पीछे खड़ा होने वाला कोई नहीं, उनको अपने घर से ही वैसा सपोर्ट नहीं मिलता और ये बहुत ही आम है बहुत से घरों में!

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  9. इस विषय से ही कुछ सम्बंधित एक बात है जो कहना चाहता हूँ...मेरा एक पुराना इंजीनियरिंग का साथी है, तीन महीने पहले उसे एक बेटी हुई..मैं जब उससे मिलने उसके घर गया और युहीं मजाक में उससे कहा की सर जी अब तो कोई पार्टी दे ही दीजिए...उसने कहा "अभिषेक जी बेटा होता तब तो आपको ग्रैण्ड पार्टी मिलती, बेटी हुई है तो क्या पार्टी दें..मिठाई से ही काम चला लीजिए".
    मुझे उसकी बात बिलकुल अच्छी नहीं लगी और मैंने उसे वहीँ टोक भी दिया..की कैसी मानसिकता है आपकी...तो उसने बात को टालते हुए कहा की मैं मजाक कर रहा था.
    लेकिन मैं जानता हूँ की वो मजाक नहीं कर रहा था..

    सोचिये दीदी जब ऐसे पढ़े लिखे लोगों की ऐसी सोच है तो क्या कहें अब?

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    1. अभी,
      अब क्या कहूँ...जिस नई पीढ़ी पर सारी आशाएं टिकी हैं...उनकी ऐसी सोच है ?

      अब अगर दो साल बाद तुम्हारे मित्र को पुत्र रत्न की प्राप्ति हो जायेगी और वे एक ग्रैंड पार्टी देंगे तो उसकी तस्वीरें भी होंगी. जब ये बच्ची पांच साल की हो जायेगी तब अपने भाई के जन्मोत्सव की तस्वीरें देख कर सवाल कर सकती है कि उसके जन्मोत्सव की तस्वीरें कहाँ हैं? और जब उसे ये कहा जाएगा की तुम तो लड़की हो इसलिए तुम्हारा जन्मोत्सव नहीं मनाया गया (माता-पिता भले ही ये बात ना कहें...पर कजिन..मौसी वगैरह बोल ही देते हैं ) बस उस वक़्त से ही उसे अपने दोयम दर्जे की स्थिति का अहसास होने लगेगा...जिस से ताजिंदगी उसे लड़ना पड़ेगा.

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  10. क्या किसी को लगता हैं की बार बार दूसरो को दोष दे कर लडकियां अपनी अवस्था में सुधार ला सकती हैं
    हम अपनी जिम्मेदारी उठाना कब सीखेगे
    और मै आज की बात कर रही हूँ
    कितनी महिला हैं जो आज विवाहित हैं पर जब विवाह हुआ था तब क्या वो व्यसक नहीं थी
    फिर क्यूँ नहीं पहले उन्होने अपने माता पिता से संघर्ष किया और अपने लिये पढ़ने के रास्ते बनाये
    क्यूँ नहीं नौकरी की और आगे बढ़ी , क्यूंकि हर लड़ाई हर संघर्ष में कुछ खोना पड़ता हैं
    आज कल की लडकियां दहेज़ के साथ ही विवाह करना चाहती हैं और बाद में दोष ससुराल वालो
    अपनी एक परिचित को में जानती हूँ जाहाँ बेटी ने २५००० का लहंगा जिद्द कर के लिया साधारण मिडल क्लास का परिवार
    मुझे तो बेहद आश्चर्य होता हैं जब विवाहित बेटियाँ घर आकर वापस जाते समय अपना , अपने पति और बच्चो का समान साधिकार ले कर जाति हैं
    और ससुराल में सास ससुर से अपना हिस्सा भी मांगती हैं
    अभी अजय का कमेन्ट देखे , आज भी यही सच्चाई हैं की लोग मानते हैं की औरत की कंडिशनिंग के औरत ही ज़िम्मेदार हैं और औरत जब तक अपनी कंडिशनिंग में हैं वो सुखी हैं क्युकी कंडिशनिंग से बाहर की जमीं पथरीली हैं और उस पर तो पुरुष को ही चलना चाहिये ये सब पुरुष के काम हैं
    शमशान घाट पुरुष जाते हैं , अर्थी को कन्धा पुरुष देते हैं क्यूँ ??
    क्युकी हम कहते हम यानी उनकी माँ , बहिन , बेटी और बीवी उनको इस लायक समझते , और अपने को नालायक क्युकी लायक का उल्ट तो नालायक ही होता हैं

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  11. बहुत सही मुद्दा उठाया है रश्मि जी ! जैसा कि आपने कहा है सचमुच ऐसे परिवारों और लोगों की संख्या सागर में बूँद भर ही है जहाँ स्त्रियों को उनका सर्वोत्तम प्राप्त करने के लिए सामान अवसर प्रदान किये जाते हैं, उन्हें सराहा जाता है और उनकी भावनाओं की कद्र की जाती है ! शेष महासागर में रहने वाली बाकी स्त्रियों को भी अपने अस्तित्व को सम्हाले जीना तो होगा ही ! जिन स्त्रियों के ज्ञान चक्षु नहीं खुले हैं उन्हें जगाने की ज़रूरत है ! लेकिन ऐसी महिलायें भी हैं जो प्रबुद्ध हैं और पुरुष वर्चस्व वाली मानसिकता वाले परिवारों में रहती भी हैं क्योंकि उनके जीवन की व्यवस्था एक समय विशेष में परिवार के ऐसे सदस्यों द्वारा कर दी जाती है जिनकी सदाशयता पर संदेह करना या सवाल उठाना ना तो मुनासिब होता है ना ही समयानुकूल ! कभी कभी हालात उस समय बिलकुल अच्छे होते हैं लेकिन बाद में खराब हो जाते हैं ! ऐसी परिस्थतियों में उनकी मानसिक तैयारी का इम्तहान होता है ! अनेक स्त्रियाँ विरोध करने की हिम्मत जुटा लेती हैं, अनेक घर परिवार की प्रतिष्ठा और मान सम्मान की रक्षा हित स्वयं को तिल-तिल जला कर होम करती रहती हैं और अनेक स्त्रियाँ रुग्ण मानसिकता वाले लोगों के घरों में स्वयं को एक मनोरोग चिकित्सक की भूमिका में देख हालातों को सुधारने में संलग्न रहती हैं ! विचारणीय आलेख के लिए आभार !

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  12. आपकी बात शत-प्रतिशत सत्‍य है। मैं इस बारे में स्‍वयं को भाग्‍यशाली मानती हूँ कि हमारे माता-पिता ने ऐसा कभी भी विभेद नहीं किया इसी कारण समाज के इस नासूर को समझने में देर लग जाती है।

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  13. अनुमान है कि पाण्डेय जी का सहयात्री संपन्न ही रहा होगा , लगभग बीस रुपये की एक बाटल पर सहयात्री पिता , लड़की लड़के भेद जता बैठा ? फेसबुक पर किये गये , कथन पर सहसा विश्वास करने का मन नहीं करता ! यदि यह सत्य था तो सहयात्री के सहयात्री ने सहयात्री के असामान्य व्यवहार पर वाचिक अथवा दैहिक / भाव भंगिमा से , विरोध भी ज़रूर दर्ज कराया होगा ?

    आप व्यक्तिगत अनुभवों और दृष्टान्तों को लेकर ना भी कहें तो भी हमारा समाज ज्यादातर अंशों में लड़की विरोधी तो खैर है ही ! ऐसे में ना कहने लायक पालन पोषण की उम्मीद किससे कर रही हैं आप ? मुझे लगता है अभिभावकों में से मां की पहल सबसे ज़रुरी है बाकी तो एक नन्ही सी किरण से बड़े उजाले होने में क्या शक है ! कहानी में पालन पोषण और माता पिता के आग्रहों को पछाड कर , देर से सही उजाले की कोई उम्मीद फूटी तो !

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    1. कितने भी संप्पन घर में चले जाइये देखीये की पहले भोजन के लिए घर में किस लिंग के व्यक्ति से पूछा जाता है , पहले भोजन की थाली किस की तरफ बढाया जाता है , घर में बनने वाली पहली रोटी किसकी थाली में जाता है | जो व्यवहार यहाँ बताया जा रह है वो इतना सामान्य है की करने वाले को कभी कभी पता ही नहीं चलता है की वो क्या कर रह है और कैसे भेद कर रह है जैसा रश्मि जी ने बताया की बचपन से ही सिखा दिया जाता है पहले पुरुष उसके बाद ही नारी, पानी क्या दवा भी होती तो यही किया जाता पहले बेटा बाद में बेटी |

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    2. मुद्दा यही है , रोटी और थाली की प्राथमिकता कौन तय करता है ? आपको लगता है कि परोसने का काम पुरुषों के द्वारा किया जाता है ? मैंने यही तो कहा कि मां की पहल ज़रुरी है ! कहानी में भी एक सीमा के बाद अन्ततः स्त्री ने ही प्रतिरोध किया कि नहीं ? वो भी अपनी कंडीशनिंग की सीमाओं को लांघ कर ! बचपन से सिखाये गये के विरुद्ध खड़े होकर !

      पुत्री और पिता / पुत्र और माता के सहज आकर्षण वाली धारणा के विरुद्ध है , रेल्वे यात्रा का विवरण अतः सहसा विश्वास करना कठिन है ! वैसे इस उद्धरण में माताराम का विलोपन क्यों है ?

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    3. अली जी,

      एक बच्ची जो चार-पांच साल की उम्र से ही इस भेदभाव..दोयम दर्जे के अहसास की आदी हो जाती है. वह ऐसा ही समझती है कि माता-पिता का यह सहज-स्वाभाविक व्यवहार है. वो लड़की है इसलिए उसके साथ ऐसा ही होना चाहिए..पहले किसी भी अच्छी चीज़ पर भाई का हक़ है..चाहे वो पूरे ग्लास ठंढे पानी का हो...जन्मदिन पर पार्टी मनाने का . वो बच्ची अपने पालनकर्ता को तो गलत नहीं समझ सकती? ..ऐसे ही अहसास लिए वो बड़ी होती रहती है..और तमाम भेदभाव को स्वीकारती जाती है. ना तो माता-पिता को लगता है..कि वे कुछ गलत कर रहेहैं..और ना ही...लड़की को इसमें कुछ गलत लगता है. और यही लड़की जब माँ बनती है..तो वो भी वही करती है...जो उसने देखा-जाना है.
      वे भी यही समझती हैं...लड़कों/पुरुषों को घी दूध खाना चाहिए क्यूंकि उन्हें संतति को आगे बढ़ाना है...इस तथ्य से वे अनभिग्य रहती हैं कि...नौ महीने अपने खून से सींच कर वे एक जीवन का पालन-पोषण करती हैं...उन्हें अच्छे खुराक की ज्यादा जरूरत है. और ना वे खुद फल-दूध के सेवन को जरूरी समझती हैं..ना ही अपनी लड़कियों के लिए. ये तो बस एक उदाहरण है..ऐसी तमाम बातें हैं.

      उस ट्रेन यात्रा में पिता अपने दो बच्चों को लेकर जा रहा था....उनकी माता साथ नहीं थी.
      ऐसे तमाम बातें कोने कतरें में ढंकी-छुपी रहती हैं....जो नज़रों के सामने आ जाए तो विश्वास करना मुश्किल होता है.

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    4. अंशुमाला जी के दवा के जिक्र से एक बात ध्यान में आ गयी...एक डॉक्टर मित्र ने अपने अनुभव बताए थे कि लड़का बीमार हो और उसे एडमिट करने के लिए कहा जाये तो अभिभावक झट से तैयार हो जाते हैं..बेटी को एडमिट करने में आना-कानी करते हैं...कहते हैं..दवा लिख दीजिये...ये घर पर ही ठीक हो जायेगी...लडकियाँ तो जीवट वाली होती हैं.

      अब इस बात पर विश्वास करना सहज है??

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    5. आप बच्ची की बात क्यों कर रही हैं ? मैं तो प्रौढ़ और परिपक्व स्त्रियों की बात कर रहा हूं और बार बार कह रहा हूं कि जैसे , आपकी कहानी में हुआ था ! अब अगर वे अपने बच्चों को सही तरबियत दें तो दिक्कत क्या है ?

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    6. मेरी बेटी समझती है कि उसकी मां उसे दो नम्बर पर रखती है और बेटा समझता है कि पिता जी उसे दो नम्बर पर रखते हैं बस इसी लिए ट्रेन वाली बात हजम नहीं हुई :)

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    7. मैने बच्ची की बात इसलिए की क्यूंकि आज जो परिपक्व और प्रौढ़ स्त्रियाँ हैं...वे भी कभी ऐसी ही भेदभाव से पीड़ित बच्चियां थीं.
      और वे वैसी ही मानसिकता लेकर बड़ी होती हैं...उपरोक्त कमेन्ट में और अजय जी को दिए गए जबाब में विस्तार से लिख चुकी हूँ.

      आपने कहानी का जिक्र किया है....जया जरूर परिस्थितित्यों से जूझकर आगे बढ़ी...पर कितने कष्ट झेलकर ??
      कोई भी लड़की उसका शतांश कष्ट भी सहने को मजबूर क्यूँ हो...अगर उसकी परवरिश ऐसी हो कि वो अपने पर किए जुल्म का पहली बार में ही प्रतिकार कर सके.

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    8. अली जी,
      जब हम पुरुषवादी समाज कहते है तो उसके अन्दर महिला पुरुष बच्चे बड़े बूढ़े आप और हम सभी आ जाते है किन्तु दोनों की भूमिकाए अलग होती है जिसमे एक पुरुष है जो समाज के लिए नियम बनाता है निश्चित रूप वो उसे अपने फायदे खुद को बड़ा महान बताने वाले ही नियम बनाता है और अन्य से जैसे महिलाओ से उन्हें लागु करवाता है | नियम कहता है की पुरुष प्रथम है नारी सदा उसके पीछे रहेगी तो उसे सभी को मानना है और वही नियम सभी को सही भी लगते है चाहे वो महिला ही क्यों ना हो और वो उन्हें ही लागु करती है | जैसे सरकार एक कानून बना दे वो कितना भी काला क्यों ना है बाबु अफसर पुलिस सभी को वो मानना ही पड़ेगा और उसे लागु भी करवाना पड़ेगा तो क्या दोष उन्हें दे या उसे बनाने वाले को | सही कहा की महिलाओ के पहले आगे आना होगा किन्तु किस हिम्मत के साथ वो आगे आये जिसे कभी पनपने ही नहीं दिया जाता है जिसे डरा कर रख जाता है लड़कियों के लिए जमाना बड़ा ख़राब है , महिलाओ को हर पुरुष गलत नजर से देखता है , अकेले महिला का रहना उसकी सुरक्षा के लिए ठीक नहीं है आदि आदि इस डरावने माहौल में उसे बताया जाता है की पिता पति के साये में ही वो सबसे सुरक्षित है बाहर के जुल्म यहाँ से भी खतरनाक है तो वो किस हिम्मत के साथ विरोध करे कुछ पानी सर के ऊपर से जाने के बाद उसके खिलाफ खड़ी हो जाती है कुछ बच्चो के कारण ये कर पाती है और कुछ कभी भी नहीं कर पाती है |
      रही बात बेटी पिता के रिश्तो की अपनी बात छोड़ दीजिये भारत में आज भी बेटिया बड़े भाई और पिता के घर में आते ही एक कमरे में दुबुक जाती है और दोनों तो कई बार आमने सामने बात तक नहीं करते है बेटी को पिता से कुछ कहना है तो वो माँ से कहती है और पिता को कुछ बेटी से करवाना है तो वो भी माँ को कहता है यहाँ तक की एक समय बाद तो छोटा भाई भी अपनी बड़ी बहन पर हुकुम चलाता है की १६-१७ के पुत्र से भी माँ डरने लगती है ये है हमारे ज्यादातर भारत का आज का सच आप इसे माने या ना माने पर ये सब आज भी हो रहा है | बेटी पिता से जुडी होती है ये बस शहरी और कुछ तबके तक फैला हुआ जूमला है इसे सब पर लागु ना करे |

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    9. रश्मि जी यही तो मार्के की बात है कि जब बचपन में भेदभाव झेल चुकी परिपक्व महिलायें अपने बच्चों को वही सिखाती / झिलाती हैं तो क्या किया जाये ? माता को पहला गुरु माना गया है इसी लिए जिम्मेदारी भी पहली उसी की हुई ना !

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    10. अंशुमाला जी ,
      जो आप कह रही हैं उसे जानकर ही स्त्रियों की पहल की बात कर रहा हूं ! जैसा कि आपने कहा कि बेटी अपने पिता से काम करवाने के लिए मां से कहती है और पिता अपना काम बेटी से करवाने के लिए भी मां से कहता है ! तो फिर मां / एक परिपक्व स्त्री / एक भुक्तभोगी स्त्री की जिम्मेदार पहल से इंकार क्यों ?

      बेशक पुरुषवादी समाज में पुरुषों की साज़िश / तिकड़म चलती है , तो फिर इसे तोड़ेगा कौन ?

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    11. यह बड़ी पुरानी परम्परा है...यह कहकर माँ के सर पर डाल दो... कि सारी जिम्मेवारी माँ की है...'माता को पहला गुरु माना गया है .'

      "जब बचपन में भेदभाव झेल चुकी परिपक्व महिलायें अपने बच्चों को वही सिखाती / झिलाती हैं तो क्या किया जाये ?"

      क्यूँ नहीं कुछ किया जाये...किसी भी परिवार के Head of the family तो पुरुष ही होते हैं...वे क्यूँ नहीं देखते कि यह भेदभाव हो रहा है??

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    12. रश्मि जी ,
      'पहली जिम्मेदारी' कहने और 'सारी जिम्मेदारी' कहने में बड़ा अंतर है :)

      मैंने हर टिप्पणी में केवल 'पहल' की ही बात की है फिर आप मुझ पर 'सारी' जिम्मेदारी वाला जुमला क्यों आरोपित कर रही हैं :)

      हां पुरुष ज़रूर देखते हैं ? किसने कहा कि नहीं देखते हैं ? इस मसले पर अंशुमाला जी को लिखी गई मेरी टीप को माडरेशन से निकालने की कृपा करियेगा ! उसकी आख़िरी लाइन मैंने इसी मसले पर कही है !

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    13. चलिए सारी जिम्मेदारी' नहीं....पहली जिम्मेदारी' ही कह देते हैं...:)

      और आने वाली पीढियाँ तभी खुशहाल होंगी जब पुरुष भी कुछ उदार हों...अपनी मानसिकता बदलें...जैसे आप जैसे या ब्लॉगजगत के या समाज के चंद मुट्ठी भर पिता बेटे/बेटियों में भेदभाव नहीं करते...पूरे समाज में ऐसी प्रवृत्ति देखने को मिले.

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    14. पुरुष भी अपना अहंकार छोड़ें , समाज की समरसता में सहभागी हों , आपसे सहमति !

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    15. अली जी
      सही कहा की माँ को पहल करनी चाहिए किन्तु जब आधी से ज्यादा माँ आज भी "पुरुष सही कहा रहा है" की सोच के साथ जी रही है तो वो बेटी को आगे कैसे बढ़ा सकती है उसे भी अपनी तरह ही बनायेंगी, यहाँ पिता को आगे आना होगा किन्तु वो नहीं आता है , कुछ वो है जो कहती है की मेरी बेटी को पढ़ना है, पिता साफ कहा देता है की फ़ीस के पैसे नहीं मिलेगे उसे पढ़ने की जरुरत नहीं है फिर क्या करे , कुछ वो है जो लड़ झगड़ कर पढ़ा लेती है पर नौकरी करने से साफ इनकार कर दिया जाता है " नौकरी करेगी तो विवाह कैसे होगा" अब माँ और बेटी क्या करे (साथ में माँ को मिलती है बेटी को बिगाड़ रही हो का आरोप बोनस में ) आखिर घर का मालिक और कमाने वाला तो पुरुष ही है ना, आज भी ज्यादातर घरो में, अंत में बाजी उसी के हाथ में आने वाली है उसे अच्छे से पता है | दूसरा है घर के बाहर का माहौल जिससे सभी महिलाओ को डराया जाता है उसे कौन ठीक करेगा , मुंबई में देखिये आप को कही भी किसी भी चीज के लिए महिलाओ की अलग से कोई लाईन नहीं मिलेगी क्योकि यहाँ पर एक ही लाईन में खड़ी किसी महिला को पीछे खड़ा पुरुष धक्का नहीं देता है खीसे निपोर कर ये कहते हुए की "अरे पीछे से किसी ने धक्का दिया है " महिलाओ के लिए ट्रेनों में अलग बोगी है , इस स्तर पर ( बस इसी स्तर पर ) पुरुषो की सोच बदली है और महिलाए बिना किसी डर के कही भी आ जा सकती है जबकि किसी अन्य शहर में ये संभव नहीं है, तो बाहर का माहौल कौन बदलेगा | महिलाए पहल कर आगे आ भी जाये तो बाहर उनका जीना दुश्वार कर दिया जाता है और उसके बाद घर का पुरुष कहता है की देखा इसीलिए कहा था ना की घर से बाहर ना निकलो |
      जब सानिया बाहर आती है कुछ करती है तो उसने स्कर्ट की लम्बाई नापी जाने लगती है , चलिए आप कहेंगे की वो गावर थे कम पढ़े लिखे थे , अब सानिया पढ़े लिखो के बारे में भी बता रही है की कैसे टेनिस फदरेशन में पुरुषो का वर्चस्व है और महिलाओ को दोयम दर्जा दिया जाता है और महिलाओ का इस्तमाल पुरुषो के इगो को शांत करने के लिए किया जाता है | पढ़े लिखे और सम्प्पन लोगो की जमात भी महिलाओ को दोयम दर्जे का मानता है , सारी महिला खिलाडी उनकी बात का समर्थन करती है , हर क्षेत्र का यही हाल है इस सोच को बदले बिना आप कैसे कह सकते है की महिलाए पहल करे | इन उदाहरानो को ही दिखा कर महिलाओ से कह जाता है की देखो वो उतना ऊपर पहुँच गई फिर भी उनके साथ ऐसा व्यवहार हो रहा है ( यौन शोषण की बात तो यहाँ पर छोड़ ही दीजिये ) जो बाहर आ चुकी है जब उनके प्रति पुरुषो की सोच नहीं बदलेगी तो जो घर में है और अत्याचार सह रही है वो किस हिम्मत के साथ बाहर आने का सोचेंगी | पहल तो हो चुकी है और हो रही है तेजी से , अब बारी पुरुषो की है अपनी सोच बदलने की जो घोघे की चाल के रफतार में हो रही है , वो भी पूरी तरह से नहीं |

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    16. अंशुमाला जी ,
      मैंने आपसे कहा ना कि यह सब जानकर भी कह रहा हूं कि पहल तो स्त्री को ही करनी होगी ! बात घूम फिर कर वही है कि ज़ुल्म सहने वाला वर्ग ही ज़ुल्म का प्रतिरोध नहीं करेगा तो कौन करेगा ? ज़ालिम तो खुद का विरोध करने से रहा ! मां नहीं तो आखिर कौन बदलेगा पुरुषों की सोच ?

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    17. thanks
      i have always believed and said the same thing
      we need to change ourself , we need to change the woman around us
      we need write things that make woman revolt soon and above all

      we need to love and accept the woman who revolt and not praise just those who behave like a "devi" or mute goddess

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  14. यह हिम्मत उसे असहनीय पीड़ा से ही मिलती है ...अपने परिजनों से तो बिलकुल नहीं ...
    समाज को सच का आइना दिखाती सार्थक पोस्ट .... !!

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  15. रश्मि जी , जैसे पहली बार साइकिल चलते हुए घबराहट होती है पर विश्वास होता है पापा ने पीछे पकड़ा हुआ है वो गिरने नहीं देंगे,जैसे पहले कदम पर माँ अपनी बाहें फैलाए खड़ी होती है वहां भी यही यही विश्वास होता है ...फिर हर कदम अपने आप मज़बूत होता जाता है बस यही विश्वास अपनी बेटी को दे तो और किसी बात की ज़रुरत नहीं रहेगी ....
    समय बदल रहा है और सोच भी पर अभी भी एक बड़ी पीढ़ी जिंदा है जो उसी सोच में जीती है और नई पीढ़ी को भी वही करते देखना चाहती है ,,,इस पर कभी बाद में विस्तार से बात करूंगी

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  16. आज भी ऐसा होता है रश्मि .... अपनी पसंद से की गई शादी सही ही होगी , कैसे कह सकते हैं - पर लड़कियों की लानत मलामत हो जाती है और वे भय से सोचती रह जाती हैं कि किस मुंह से माता - पिता को कहें . कहती है तो भी यही होता है - ' भुगतो अब ! ' माता पिता की पसंद में माता पिता की इज्ज़त आ जाती है , उनके द्वारा खोजा गया वर असुर कैसे हो सकता है ! बहू बुरी हो तब तो हींग लगे न फिटकिरी - धज्जियां उड़ा दी जाती हैं !
    सच जानते समझते हुए लोग तब तक बेकार की अटकलें लगाते हैं , जब तक अनचाहा घटित न हो जाए !
    ' ना ' कहने की हिम्मत ज़रूरी है . खान-पान , पहनावे में भेदभाव आज भी दिखता है बोली में ...
    भरे पूरे घर की बेटी या बेटा यदि सड़क पर आ जाए तो सवालों से पहले उसे एक ग्लास पानी और चेतना में आने का मौका दें . कितने लोग ऐसा करते हैं ? लड़की यदि विरोध नहीं करना चाहती , तो उसके पीछे कई कारण होते हैं , उन कारणों के मध्य भी उसके लिए सतर्क रहा जा सकता है , सोचा जा सकता है - और दो ही सही , मैं ऐसा करती हूँ . उनको रोते हुए देखकर मैं उनको दुत्कारती नहीं , क्योंकि समाज के कलाई चढ़े चेहरों से मैं वाकिफ हूँ

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  17. तस्वीर वक्त के साथ ही बदलती है कोई भी लडकी या स्त्री झंडा हाथ मे लेकर पैदा नही होती कि बस सीधा लडने लग जाओ हर कोई चाहता है कि घर परिवार सुचारू रूप से चल सके लेकिन यदि हालात बदलते ही जायें तो साहस करना ही पडता है ये वो ही समाज है जो यदि कोई लडकी शुरु मे ही तेवर दिखा दे तो कहने से नही चूकता कि देखो कितनी बिगडी है लेकिन उसने क्या सहा ये कोई नही देखना चाहता या उसने ऐसा क्यो किया कोई नही समझना चाहता ………हर काम वक्त से ही होता है और साहस भी वक्त से ही आता है बेशक औरत बदल रही है उसकी सोच बदल रही है लेकिन ये बदलाव भी वक्त के साथ ही आया मगर इतना कम प्रतिशत है कि ना के बराबर लगता है आज भी दूर दराज के इलाकों मे औरत की हालत काफ़ी बदतर है ।

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  18. रश्मि जी
    पोस्ट के पहले अक्षर से लेकर आखरी अक्षर तक सहमत हूँ | आप ने तो उनकी बात की जो बिल्कुल सामने विभेद करते है उनकी भी बात करते है जो दावा करते है की वो कोई भेद नहीं करते है अपने बेटा और बेटी में | शुरुआत ही होती है स्कूलों से बेटो को सबसे अच्छे स्कुल में डालने के लिए जमीन आसमान एक कर दिया जाता है डोनेशन से लेकर परिचय तक निकाले जाते है जबकि लड़की से उम्मीद की जाती है की वो अपने बल बूते पर सबसे अच्छे स्कुल में दाखिला ले ले, नहीं तो फिर जिस भी अच्छे स्कुल में हो जाये वही ठीक है सबसे अच्छे ( उनकी नजर में ) की जरुरत बेटी को नहीं है | बेटा को एजुकेशन में पढ़ सकता है किन्तु बेटी नहीं , बेटा बिना बताया जब भी चाहे घर से बाहर जा सकता है दिन भर बाहर जा सकता है किन्तु बेटी को एक एक मिनट का हिसाबा देना होगा और बहुत ही वाजिब कारण भी , बेटा स्कुल के टूर पर कही भी जा सकता है जबकि बेटी केवल स्थानीय टूर पर जा सकती है रात में रुकने वाले टूर पर नहीं , बेटा बड़े होने पर विदेश पढ़ने जाता है अपने शहर राज्य से बाहर पढ़ने जाता है किन्तु बेटी हर हाल में हमारे पास ही रहेगी या ज्यादा से ज्यादा देश में रह कर पढेगी, कितनी बेटिया दूसरे देशों में जा कर पढ़ती है | बचपन से ही मेरा बेटा ये बनेगा वो करेगा का सपने सजाया जाता है उसे उसके लायक बनाया जाता है कितने है जो बेटी के कैरियर के बारे में बचपन से ही सोचते है उसे बचपना से ही उस लायक बनाने का सोचते है | बेटी खुद से आगे बढ़ कर कोई काम करे तो कुछ तो उसमे सहयोग करते है कुछ उसमे भी अप्रत्यक्ष रूप से ह्तोसाहित कर चाहते है की बेटी खुद ही घर बैठा जाये | कुछ खूब पढ़ा लिखा देते है और फिर कहते है की नौकरी नहीं कर सकती हो, मेरा काम था पढाना कर दिया अब तो ये ससुराल वालो पर है की वो तुमसे नौकरी कराते है की नहीं, लो वो कैसे जीवन आगे जिये ये कोई अन्य अजनबी तय करेगा बेटी का उस पर कोई बस नहीं है | बहुत लंबी लिस्ट है क्या क्या कहे जो बार बार दवा करते है की वो भेड़ नहीं करते है वो कई अन्य रूपों में इस भेद को करते है और कई बार उन्हें पता भी होता है |

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  19. पक्षपात तो है, और हर तबके, हर जगह में है। ऐसा नहीं कि सिर्फ निम्न या मध्य वर्ग में या छोटी जगहों पर ही भेदभाव होता है। वह उच्च वर्ग में भी है और महानगरों में भी.. इसके लिए सबसे पहले स्त्री को बदलना होगा क्योंकि उसके साथ अगर भेदभाव किया गया था, तो उसे यह परंपरा आगे जारी न रखकर अपनी बेटी, अपनी बहू को उससे मुक्त करना होगा, अपने परिवारवालों से संघर्ष की कीमत पर भी... बदलाव तभी आएगा़। देखा गया है कि मर्दों से पहले औरतें ही अपने बेटे-बेटी में भेदभाव करती है, यह कहकर कि बेटा बुढ़ापे का सहारा होगा और बेटी को तो पराये घर जाना है। जब तक यह मानसिकता नहीं सुधरेगी, कुछ नहीं होने वाला..

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  20. ज़ख्म को ज़ख्म लिखो,खाहमखाह कंवल न लिखो|
    सितम हटाओ सितम पे सिर्फ गजल न लिखो|
    आपकी ज़ुअरत की दाद देता हूँ.. ..

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  21. :( मेरी समस्या तो कुछ और ही है . जनम से आज तक भगवान् कि दुआ से मुझे किसी भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा . मेरे संतोषी माता पिता ने मुझे और मेरी बहनों को कभी यह विचार नहीं आने दिया कि लड़कियां कहीं से भी कमतर हैं. और हमने भी उनके इस विश्वाश को पढाई में हमेशा अच्छे नंबर लाकर दृढ किया. Maths , Physics जैसे लड़कों कि बपोती समझे जाने वाले विषयों में अच्छी पकड़ और रूचि दिखाई . अलावा माता पिता के इस समाज ने कहीं ना कहीं हमारी उपलब्धियों को हमेशा से कुछ अलग ही दृष्टि से देखा. उदाहरण के लिए १ बार मेरे क्लास का लड़का मेरे Maths में highest marks आने पर मुझसे बोला "इस बार क्या सारे सवाल रट लिए ?" . उस वक़्त तो मुझे कुछ समझ में नहीं आया .पर धीरे धीरे समझ में आने लगा कि इतना आसान नहीं है समाज में सर्व्श्रेथ्ता सिध करना कन्याओं के लिए :) .
    अब जब बड़े होकर technical area में अपना career बनाया , सोचा चलो अब तो सब शांत हो जायेंगे , पर यहाँ तो कुछ और ही कहानी यदा कदा घटती रहती है . उदाहरण के लिए मेरे seniors कभी project plan में girls को involve नहीं करते . उन्हें तो बस as technical labor use करते हैं. कहीं गलती से कुछ better suggestion दे दिया तो " well , that can be done , but as of now stick with the current plan " . अब seniors हैं तो बहस तो कर ही नहीं सकते . पहले १ मेनेजर से मेरी इस बात पर काफी बहस हुई थी, मामला यह था कि या तो वो समझते थे कि "girls cannot do core programming in XXXXX language " or या फिर वो girls से technical discussion करने से बचते थे . अब काम करने के वक़्त design etc. discuss तो करनी होगी . ( यह उनके घर के परिवेश को कहीं ना कहीं उजागर कराती है) . किसी तरह लड़ झगड़ के मैंने उनसे कुछ काम लिया जिसमे मेरी technical skill utilize हुई. आज मैं उनके under काम तो नहीं करती पर i hope his perception towards girls might have changed .
    हम लड़कियों को भी TV पे football देखने का मन करता है. हमारा भी favorite player Ronaldo हो सकता है . ( we too choose favorite player based on his header stroke rather than his looks (as most of the boys think girls judge players based on their physique )).
    ये तो सिर्फ १ उदाहरण था , लिखने लगी तो ये कमेन्ट पोस्ट बन जायेगा . :-) . मेरा समाज के बुद्धिजीवी , अति बुद्धिजीवी , विशिष्ठ बुद्धिजीवियों से सिर्फ यही निवेदन है कि हम कन्यायें भी अपना भविष्य technical area में अच्छा काम करके बनाना चाहती हैं. हमें भी अपना criticism हमेशा बुरा नहीं लगता . कपया कन्या समझ के हमें approve ना करें . we have enough ability to digest our disapproval . we too like to know where we are wrong and where we are correct . come forward & let's talk. हमारी प्राचीन कहानिया सिर्फ स्त्री त्याग को नहीं दिखाती . वहां पर गार्गी जैसे विदूशियाँ भी हैं जो याग्लाव्य जैसे विद्वान ऋषि के साथ शास्तार्थ करने में समर्थ हैं. पर समाज में अक्सर लोग ये कह कर बच निकलना चाहते हैं कि स्त्रियों के मुह कौन लगे या girls are crazy , that shows that they have given up without fighting .

    At last the story of Jaya was nice . Every parent should read it and think where the fault was.

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    1. बहुत सही कहा...लड़कियों को बस एक इंसान समझो इतना ही काफी है....पर या तो उन्हें खुद को प्रूव करने के लिए दुगुनी मेहनत करनी पड़ती है...या फिर उन्हें सिरे से नज़रंदाज़ ही कर दिया जाता है.

      आप अपने कैरियर में कामयाबी के शिखर तक पहुंचे...यही दुआ है.
      जया की कहानी पसंद करने का शुक्रिया :)

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  22. आपने सच कहा कि ऐसी लड़कियां होने के लिए माता-पिता की परवरिश ऐसी होनी चाहिए...मै भी ऐसे ही माता-पिता की बेटी हूँ, इसलिए जानती हूँ... :)

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    1. आपके पैरेंट्स श्रद्धा के पात्र हैं..डा. गायत्री..
      पर वही, यहाँ समाज में हर लड़की को ऐसे पैरेंट्स का स्नेह नसीब नहीं है.

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  23. दरअसल मैं समझती हूँ..यह सदियों से जो कंडीशनिंग होती आई है.....सिर्फ लडकियोंकी ही नहीं ...पूरे समाज की ..जिसमें स्त्री, पुरुष , लड़के , लड़कियां सभी शामिल हैं ...उसे मूल रूप से बदलना होगा .....
    तभी कोई ठोस परिवर्तन आ सकता है .....

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  24. रश्मि जी , जिस समाज में हम रहते हैं वहां तो ऐसा नहीं सोचा जाता . यह अलग बात है ऐसे समाज में रहने वालों की संख्या शायद १० % से अधिक नहीं है . ज़ाहिर है , जब तक सभी का आर्थिक और शैक्षिक स्तर नहीं उठेगा , तब तक ऐसी सोच नहीं बदल सकती.

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    उत्तर
    1. दराल जी,
      मैने पोस्ट में पहले ही कह दिया है..
      "पहले ये स्पष्ट कर दूँ कि इस ब्लॉगजगत के अभिभावकों..या अन्य मुट्ठी भर अभिभावकों की बात नहीं कर रही "
      क्यूंकि मुझे पता है...इस ब्लॉगजगत के या हमारे आस-पास के लोग इस मानसिकता के नहीं हैं...पर पूरा देश तो ऐसी मानसिकता से मुक्त नहीं है ना .

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  25. ओह! वह यात्रा और उस व्यक्ति का व्यवहार मुझे वास्तव में अजीब लगे थे। इतनी छोटी और प्यारी सी बिटिया से व्यवहारगत भेद-भाव! समझ नहीं आया था।
    हां, वह व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ सफ़र नहीं कर रहा था। मात्र बच्चे थे साथ में। पर माता होती तो शायद वह भी वैसा ही भेद-भाव करती लड़की के साथ।
    आपने लिंक किया, धन्यवाद!

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  26. अच्छी विचारोत्तेजक पोस्ट रही , टिप्पणियों ने भी अच्छा विमर्श दिया .
    माँ क्या करे , यदि वह अपने बच्चों को अन्याय का विरोध करना सिखाती है तो उसे बच्चों को बिगाड़ने का इलज़ाम सर पर लग जाता है , वहीं घर की अन्य स्त्रियाँ भी मजे लेकर कह देती हैं कि ससुराल जायेगे तब पता चलेगा . मध्यमवर्गीय परिवारों में खुले दिमाग की स्त्रियाँ इस मानसिकता से हर दिन संघर्ष करती है . जब सौ में नब्बे लोगों की सोच ऐसी हो तो सबसे दूरी नहीं बनाई जा सकती , संघर्ष करते हुए इनके बीच अपनी जगह बनानी पड़ती है .
    वही मैं ये भी कहूँगी कि अति हर बात की बुरी होती है . अन्याय ना सहें , मगर दूसरों के साथ अन्याय भी ना होने दें .

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  27. परसों से ही आपकी इस पोस्ट और उसपर के कमेंट्स को फोल्लो का रहा हूँ... पता नहीं कुछ लोग किस बुद्धिजीवी समाज की बातें कर रहे हैं... मैंने तो शायद ही ऐसा कोई घर देखा है जहाँ की बनी पहली रोटी कोई महिला खाती हो... भले ही इसके पीछे किसी भेदभाव की मंशा न हो लेकिन लगभग हर भारतीय परिवार की यही सोच है...
    परेशानी कहीं न कहीं किसी जड़ में रच बस गयी है... क्यूंकि भारत में स्त्रियों को सहनशीलता और त्याग की देवी मान लिया गया है... इसको कहते हैं ज़बरदस्ती अत्याचार को महानता का दर्ज़ा दे दिया जाना...
    खैर एक और बात जैसा की अली जी कह रहे हैं ऐसी विचारधारा को परिपक्व स्त्रियों द्वारा बदला जा सकता है... लेकिन उनक्हें मैं एक बात स्पष्ट कर दूं जिस दिन भी किसी स्त्री ने ऐसा बदलाव लाने की कोशिश की होगी या करेंगी उसी दिन उन्हें भारी विरोध और तरह तरह की बातों का सामना करना पड़ेगा...
    और एक बात स्ट्रोंगली कहना चाहूँगा कि घर में पहली रोटी अगर कोई पुरुष खाता है तो इसका मतलब ये नहीं कि भेदभाव हो रहा है लेकिन एक बात तय है कि वहां एक अत्यंत पुरानी भेडचाल जारी है जहाँ स्त्रियाँ दूसरी कतार में खड़ी है...

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    1. हे सुन्दर मना शेखर, भारतीय संस्कृति के सनातन कथनों में ऐसा क्या है जिसे बदलने की ज़रूरत है, मुझे तो समझ नहीं आता. कृपया आप मेरी मदद करें....

      कुछ सूत्र वाक्य मैंने जुटाए हैं, देखें और मनन करें...

      - यत्र नार्यन्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता.

      - नारी प्रकृति की बेटी है, उस पर क्रोध न करो. उसका हृदय कोमल होता है, उस पर विश्वास करना चाहिए.

      - सम्पूर्ण महान वस्तुओं के मूल में नारी का वास होता है.

      - सौन्दर्य से स्त्री तृप्ति देती है, उत्तम गुणों से उसकी प्रशंसा होती है और लज्जावती होने से वह मानवी देवी बन जाती है.

      - पुरुषों के लिये सहस्रों कार्य हैं परन्तु नारी केवल प्रेम करी है और जीवन-भर के लिये यही उसका क्रम बन जाता है.

      - पति के लिये चरित्र, संतान के लिये ममता, समाज के लिये शील, विश्व के लिये दया और जीव मात्र के लिये करुणा संजोने वाली महाकृति का नाम ही नारी है.

      - सारे विश्व का राज्य मिल जाय किन्तु स्त्री न हो तो पुरुष भिखारी से भी बुरा है. इससे तो कंगाल लाख गुणा प्रसन्न है जो सारा दिन श्रम करता है और संध्या समय अपनी सुशील स्त्री का सुरभित आनन देखकर सारा दुःख भूल जाता है.

      - स्त्री युवक की प्रेमिका है, प्रौढ़ की मित्र और वृद्ध की सेविका है.

      - ईश्वर के पश्चात हम सर्वाधिक ऋणी नारी के हैं - प्रथम, तो जीवन के लिये इर इसको जीने के योग्य बनाने के लिये.

      - नारी ही संसार का सार है.
      ____________________________
      ...... रोटी की जहाँ तक बात है... जो बनाने वाला होता है या तो वह बाद में ही खाता है, या फिर उसे साथ में खाने का अवसर होता है.

      - 'माँ' को उसकी ममता पीछे रखती है.
      - 'पत्नी' को उसका प्रेम.
      - और 'बेटी' को श्रद्धा.

      हमारे घरों में खाने का क्रम यूँ है :

      - जिसे कहीं निकलना है... पहले उसे भोजन मिलता है.... वह चाहे जो हो.

      - उसके बाद..घर के बड़े-बूढों को. फिर वरिष्ठता क्रम भी पूछा जाता है. हाँ, उनको साथ बैठकर खाने का विकल्प खुला होता है.

      - लड़कियों को क्योंकि दूसरे घर जाना है.. खिलाकर खाने का प्रशिक्षण उनको बचपन से ही उनकी माताएं देती हैं.

      - घरेलु कार्यों का विभाजन तो हम मिलजुलकर स्वयं निर्धारित करते रहे हैं.

      - पहली रोटी आज भी एक मादा ही खाती है.... या तो 'गाय' या फिर चिड़िया. (सोचकर तो 'चिड़िया' को ही टुकडे डाले जाते हैं...'चिड़ा' उसमें शामिल हो जाता है... क्योंकि उसके पास भेददृष्टि नहीं है.)

      - दूसरे कोण से सोचो तो पाओगे... कि 'पहले की रोटी आज भी महिला ही खाती है... मतलब 'पहले की बासी बची रोटी' :)

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    2. @प्रतुल वसिष्ठ जी,
      मैं उन्ही धर्मशास्त्रों से सैकड़ों ऐसे उदाहरण दिखा सकती हूँ, जिसमें स्त्रियों को कामुक, चंचल और अस्तित चित्त वाली, संस्कार मन्त्रों द्वारा ना होने के कारण पापी और अशुद्ध आदि-आदि कहा गया है. इसलिए ये सहस्राब्दियों पहले के 'अच्छे' उदाहरण देना तो आलोग बंद कर दीजिए. अगर एक बात अच्छी लिखी है वहाँ औरतों के बारे में, तो बीस बातें इतनी घटिया लिखी हैं कि बताते शर्म आती है.
      हाँ, ये ज़रूर है कि उसी माहौल में गार्गी जैसी विदुषी भी थी, जिसने शास्त्रार्थ किया याज्ञवल्क्य जैसे ऋषि के साथ, द्रौपदी थी, जिसने अपना अपमान होने पर खूब खरी-खोटी सुनायी अपने गुरुजनों को और पतियों को. औरतें तब भी संघर्ष कर रही थीं और आज भी कर रही हैं.

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  28. रश्मि जी इस विमर्श को लड़की और लड़के या स्‍त्री और पुरुष के विमर्श से आगे ले जाने की जरूरत है। यह तो आप भी मानती हैं कि यहां विमर्श करने वालों लोगों में 90 प्रतिशत तो ऐसे होंगे ही जो कम से कम अपने घर में ऐसा भेदभाव नहीं होने देते होंगे। परिवार में भेदभाव केवल लड़के और लड़की में नहीं, लड़कियों के बीच या लड़कों के बीच भी होता है। और वहां भी उसके आधार बदल जाते हैं। उनमें से कौन किसे प्‍यारा है, कौन आज्ञाकारी है, कौन संस्‍कारी है आदि आदि।
    अगर आपने सत्‍यमेव जयते में कमला भसीन को सुना हो, जो खुद लिंगभेद पर काम करने वालों में सबसे आगे रहीं हैं,वे कहती हैं,' यह तय है कि हमारी समाज पितृसत्‍तात्‍मक है, लेकिन इसे इसके उलट मातृसत्‍तात्‍मक बनाने के नहीं बल्कि बराबरी का समाज बनाने की जरूरत है। बराबरी का समाज तभी बनेगा, जब हम दोनों को बराबर का समझेंगे। उन्‍हें उनकी शारीरिक संरचना के आधार पर खांचों में नहीं बांटेंगे।

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    1. बराबरी का समाज तभी बनेगा, जब हम दोनों को बराबर का समझेंगे। उन्‍हें उनकी शारीरिक संरचना के आधार पर खांचों में नहीं बांटेंगे।
      perfectly what i have repeatedly been saying on naari blog

      lets treat every one as equal

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  29. यह विषय ऐसा है कि कोई भी वह स्त्री जिसने अपनी आँख व कान बन्द न किए हों, अपनी सम्वेदनाएँ डीप फ्रीज़ में न डाली हों, वे जन्म से लेकर मृत्यु तक इस भेदभाव को पल पल महसूस कर सकतीं हैं। समस्या तो यह है कि सम्वेदनाएँ डीप फ्रीज़ में डाल स्त्रियाँ यह कहती पाई जातीं हैं कि मैंने तो यह कभी महसूस नहीं किया, मेरे साथ तो यह नहीं हुआ, मैं तो एक सहज समाज में रहती हूँ, हमारे यहाँ तो स्त्रियाँ पूजी जाती हैं। वे यह भूल जाती हैं कि स्त्रियाँ केवल समाज के अपराध बोध को कम करने के लिए वर्ष में एक दो बार पूज ली जाती हैं ठीक वैसे ही जैसे साल भर खेत जोतने, बैलगाड़ी में जुतने के बाद साल में एक बार, किसी विशेष त्योहार के दिन, बैल को पूज दिया जाता है, उसके गले की घंटियाँ बदल दी जाती हैं और सोचा जाता है कि बैल को उसका मेहनताना, उसके हिस्से का सम्मान दे दिया गया और हिसाब बराबर हुआ और अब अत्याचारों का नया हिसाब खोला जा सकता है।
    पहली रोटी, घर मे आए समाचार पत्र, पत्रिका आदि को पहले पढ़ने का अधिकार, यदि ताजा खाना कम पड़ जाए तो बासी खाने का अधिकार या त्याग, या न भी कम पड़े तो बासी को निपटाने का सौभाग्य और ताजा खाने का अधिकार ही नहीं नियम‍‌... जनेऊधारी बासी नहीं खा सकते, पैसे की कमी हो तो पहले फीस, चिकित्सा, भोजन, खुराक का अधिकार, घर में टी वी रिमोट पर अधिकार, यहाँ तक कि जिस घर, खेत खलिहान में पले बढ़े उस पर अधिकार, जीने, अपनी तरह जीने, साँस लेने, उन्नति करने, आगे बढ़ने का अधिकार, यहाँ तक कि प्रकृति प्रदत्त कामों जैसे मल मूत्र के त्याग, अपने ब्लैडर पर पड़ते दबाव से मुक्ति का अधिकार किसके हैं? हम सब जानते हैं। आँख बन्द करने से सच नहीं बदल जाता।
    स्त्री को तो यह भी सिखाया जाता है कि यह भी मत कहो कि सूसू आई है। मुँह अँधेरे जाओ या फिर साँझ के अँधेरे की प्रतीक्षा करो। अपने को दबाना, अपनी इच्छाओं को दबाने का तो पाठ हमें पढ़ाया ही जाता है, प्रकृति के नियमों, आवश्यकताओं को भी दबाने का पाठ हमें पढ़ाया जाता है।
    इस सब के बाद हमें ही हमारा शत्रु घोषित कर दिया जाता है। भूल जाते हैं कि साम्राज्यवादी भी साम्राज्य को यथावत चलाने में गुलाम समाज के सदस्यों की ही सहायता लेते थे। गुलामों में से ही कोई अन्य गुलामों को हाँकता था। उन ही में से कोई गुलाम यह कहता सुना जा सकता था कि उसका मालिक तो बुरा नहीं है, दयालु है। उनमें से ही कोई आगे बढ़ा गुलाम कहता सुना जा सकता है कि यदि मैं आगे बढ़ गया तो तुम क्यों नहीं बढ़ पाए। वह भूल जाता है कि बात अपवादों की नहीं उन स्थितियों की की जा रही है जो अधिकाँश को कुछ कर पाने या दबे रहने को प्रेरित करती हैं।
    खैर बदलाव तो हमें लाना ही है कोई अन्य हमारे साथ आए या न आए। ऐसे लेख समस्याओं व लक्ष्य की याद दिलाते रहते हैं।
    घुघूती बासूती

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    1. आप पितृसत्ता को बिना उसका नाम लिए कितने अच्छे से समझा देती हैं. ये पितृसत्तात्मक सोच ही है, जो कुछ औरतों को थोड़ा सा 'पावर' देकर दूसरी औरतों को दबाने के काम में लगाए रखती है. इससे पुरुष भले भी बने रहते हैं और उनका काम भी चलता रहता है. मुझे अक्सर ये बात समझ में नहीं आती कि बिना ससुर के पता लगे, सास कैसे बहू पर अत्याचार कर सकती है? घर का मुखिया तो ससुर ही होता है ना, अगर वो सख्ती से हिदायत दे तो सास कैसे बहू को सता पायेगी?...या पति ही अगर ना चाहे तो कोई कैसे उसकी पत्नी को प्रताडित करेगा?

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  30. ये जरूर है की समय बदल रहा है पर अपने समाज की मानसिकता बदलने में अभी भी बहुत समय लगने वाला है .... ये बदलाव की प्रक्रिया शुरू जरूर हो गई है ... पर अभी तक गति नहीं पकड़ पाई है ... और ये सोच भी समय अनुसार कभी कभी बदल जाती है ...
    मैंने कई बार देखा है जनम से २०-२५ वर्ष तक नारी के प्रति अन्याय, कन्या जन्म के मामले में विचार बहुत ही उग्र रहते हैं .. सोच में बदलाव की बात करते हैं ... जैसे जैसे ३०-३५-४० तक आते हैं बेटा भी होना चाहिए, लड़की कों सह लेना चाहिए थोड़ा ... ऐसी बातों का दबी जबान से समर्थन करने लगते हैं और ५०-५५-६० आते आते खुल के भी समर्थन करने लगते हैं ... पता नहीं क्या मानसिकता इस बदलाव के पीछे काम करती है ...

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  31. मानसिकता में बदलाव आने में बहुत समय लग जाता है. कुछ बदलाव तो आना शुरू हुआ है परन्तु इस रफ़्तार से काम नहीं चलेगा इसके लिये तो लगातार अभियान चलाना होगा सारे माध्यमों से, तब शायद कुछ दिखने वाला फर्क महसूस हो.

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  32. बढ़िया! कहानी नहीं पढ़ सका हूँ अभी लेकिन आपकी बात पूरी तरह सही है

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  33. दोनों की तासीर एक सी होने में वक्त लगेगा और ज्यादा जिम्मेवारी इस बराबरी को लाने में जनानियों की ही है ।

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  34. बिल्कुल सही बात है दी। हाल ही हमने ऑफिस में एक फोकस ग्रुप डिस्क्शन किया। एक प्रिंसिपल ने बताया कि जब उन्होंने एक पॉश क्षेत्र में एडमिशन कैंप लगाया तो एक सज्जन अपने बेटे व बेटी को एडमिशन दिलाने आए। उस सज्जन ने पूछा कि 12वीं कक्षा तक उसे कितनी फीस जमा करवानी होगी। करीब पांच से सात लाख रुपए का खर्च बनता था, वो भी किस्तों में महीने वार। तब उस सज्जन ने जवाब दिया कि बेटी क्या करेगी पढ़कर। इतने में तो इसकी शादी कर देंगे। इसलिए उसने बेटे का एडमिशन करवा दिया। बिटिया अच्छे स्कूल में नहीं पढ़ पाई। बताइए, कैसे होगा बदलाव। जरूरत है माता-पिता को अपने नजरिये में बदलाव कर भेदभाव न करने की।
    मैंने तो देखा है बेटों से ज्यादा बेटियां अपने माता-पिता को ज्यादा संभालती हैं।

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