बुधवार, 27 जून 2012

इतना मुश्किल क्यूँ होता है "ना " कहना

इस लम्बी कहानी की कुछ किस्तों  पर कुछ  लोगों  ने कई  कई  बार यह कहा कि "जब किसी स्त्री पर उसका पति या ससुराल वाले अत्याचार करते हैं तो उसे पहली बार में ही इसका विरोध करना चाहिए "
बिल्कल सच है यह क्यूंकि अगर विरोध नहीं किया तो फिर उनकी हिम्मत बढती चली जाती है...लेकिन अधिकाँश स्त्रियाँ ऐसा नहीं कर पातीं...पर सोचने की बात ये है कि वो ऐसा क्यूँ नहीं कर पातीं??
इसकी प्रमुख वजह है...उनका पालन-पोषण. उन्हें बचपन से ही यही सिखाया-पढाया जाता है कि त्याग करो..एडजस्ट करो...जबाब ना दो..विरोध ना करो....ऊँचा मत बोलो..ये सब स्त्रियोचित गुण नहीं हैं...वगैरह वगैरह...फिर वे कैसे सीख पाएंगी ना कहना...विरोध करना..??

पहले ये स्पष्ट कर दूँ कि इस ब्लॉगजगत के अभिभावकों..या अन्य मुट्ठी भर अभिभावकों की बात नहीं कर रही जो लड़के/लड़कियों में विभेद नहीं करते. पर वृहद् परिप्रेक्ष्य में देखें तो ऐसे लोगों की संख्या सागर में बूँद जैसी नहीं भी तो.. एक बाल्टी भर जल जैसी ही है. अधिकाँश लोग ऐसे हैं जो  लड़कियों के जन्म के साथ ही भेदभाव शुरू कर देते हैं. लड़कियों का जन्मोत्सव नहीं मनाएंगे...आगे चलकर उसका जन्मदिन नहीं मनाएंगे..पर बेटों का जन्मोत्सव और उसका जन्मदिन धूमधाम से मनाएंगे. समाज के एक वर्ग में देखा..कि वहाँ बेटियों की छट्ठी (जन्म के छः दिन बाद मनाया  जाने वाला उत्सव ) का रिवाज़ नहीं है...अब ये रिवाज किसने बनाए??
 
अगर बेटे/बेटी दोनों ही बहुत छोटे हैं ..रो रहे हैं तो अक्सर बेटे को पुचकार कर उठा लिया जाता है. बढ़िया चीज़ें...खिलौने..कपड़े..चॉकलेट  बेटों के लिए आते हैं. कितने ही घरों में ,बेटे को दूध का ग्लास दिया जाता है, उनकी दाल में घी जरूर डाला जाता है..पर बेटियों के  नहीं. दूरदर्शन पर बेटियों को भी उचित पोषण दिया जाना चाहिए के संदेश की शुरुआत ही यूँ हुआ करती थी.."बेटियाँ ना खाया करे हैं, घी "...शायद बहुत लोग एतराज जताएं..पर यह सब कटु सत्य है ...एक मेरी आँखों देखी घटना है...बचपन में हम कॉलोनी के बच्चे दशहरा में मूर्तियों के दर्शन के लिए जा रहे थे. एक अफसर पिता..अपने बरामदे में  से चिल्लाये..."मन्नू ने फटे हुए मोज़े पहने हैं" ..और उसकी बहन किट्टी ने अपराधी भाव से  कहा.."मैने मना किया था...इसने नहीं सुना.." और वहीँ झुक कर उसने छोटे भाई के फटे मोज़े उतार कर खुद पहने और अपने अच्छे मोज़े उसे पहना दिए." पिताश्री संतुष्ट हो गए. उस वक़्त भी मुझे यह बात बहुत बुरी लगी थी (तभी शायद अब तक याद है ) .भीड़ में कोई झुक कर मन्नू के फटे मोज़े नहीं देखने जा रहा था....पर उसके पिताजी को कैसे गवारा  हो ये. उनके घर में और भी ना जाने कितने ऐसे भेद-भाव किए जाते होंगे . 
लोग कह सकते हैं..'ये तो आपके बचपन की बात है...बड़ी पुरानी बात है..अब ऐसा नहीं होता ' तो वे ज्ञानदत्त पाण्डेय जी का मई महीने का ये फेसबुक स्टेटस  पढ़ सकते हैं .."सहयात्री ने दो लीटर के  ठंढे पानी की बोतल खरीदी .एक ग्लास खुद पिया..एक ग्लास बेटे को दिया और उसके बाद आधा  ग्लास बेटी को " ( आठ लोगों ने इस स्टेटस को लाइक भी किया है ) .अब इस छोटी सी बच्ची को तो अभी से इस विभेद को स्वीकार करने की आदत पड़ जायेगी .और इस तरह के भेदभाव करने वाले माताओं-पिताओं की संख्या बहतायत में है 

ये सब कहने का अर्थ ये है कि जब लडकियाँ बिलकुल नासमझ होती हैं...उनकी सोच विकसित नहीं हुई होती है..तभी से उनके साथ ये भेदभाव शुरू हो जाता है और उसे ये अपनी नियति समझ  स्वीकार 
  करती  जाती  हैं ..इसे ही सही समझने लगती है क्यूंकि अपने पालनकर्ता को तो वे गलत नहीं समझ सकतीं. जैसे ये समझती हैं कि माता-पिता का आदर करना चाहिए वैसे ही ये भी समझती हैं कि भाई  यानि पुरुष को हर चीज़ में  ज्यादा  महत्व  देना है. आज कई भाई बड़े भावुक होकर संस्मरण लिखते हैं कि उनकी बहनों ने अपने पैसे बचा कर उनके लिए कितना  कुछ किया...इतना त्याग  किया...भाई-बहन का प्रेम तो इसमें है ही..पर साथ में ये भी है...कि लड़कियों की मेंटल कंडिशनिंग ही ऐसी हो जाती है कि खुद के लिए नहीं,..हमेशा दूसरों के लिए सोचना है.वरना उनकी भी उम्र भाई के आस-पास की ही होती है..पर उनमें समझदारी बहुत जल्दी आ जाती है. स्त्रियों में प्रेम-त्याग के कुछ अन्तर्निहित गुण होते हैं. पर उनके इस गुण की इतनी बढ़ा-चढ़ा कर तारीफ़ की जाती है कि वे भी उन्हीं गुणों को संवारने में लग जाती हैं..उनके बाकी सारे गुण गौण हो जाते हैं.

जब लडकियाँ बड़ी होती हैं...तो फिर वही शिक्षा में भेदभाव ..अच्छे स्कूल कॉलेजों में बेटों का दाखिला...मेडिकल -इंजीनियरिंग...की पढ़ाई उसकी कोचिंग के लिए लाखों खर्च करने को तैयार पर बेटियों को आर्ट्स पढ़ने की हिदयात .इसके  साथ ही उन्हें तमाम किस्से सुनाए  जाते हैं...'सीता के त्याग के.'..'शिव को पाने के लिए पार्वती की तपस्या के'....'कुंती के  अनजाने में ही कह देने पर पांच पतियों में बंट जाने वाली द्रौपदी के'...'उन पतिव्रताओं के जो वेश्यागामी..अत्याचारी पति के बीमार पड़ने पर उन्हें कंधे पर लाद...लहु-लुहान घुटनों से देवी माँ के दर्शन के लिए दुर्गम पर्वत पर चढ़ जाती हैं...कि उनके पति ठीक हो जाएँ'....तो ऐसी कहानियाँ सुन ..और ऐसे व्यवहार को झेलकर किसी भी लड़की की सोच कैसी होगी.?? यही कि उससे तो त्याग ही अपेक्षित है...उसे हर हाल में ससुराल में एडजस्ट करना चाहिए . उसे खुद के के लिए नहीं..दूसरों के लिए जीना है...और वे यही करती हैं. पति के अत्याचार के विरोध का ख्याल आने से पहले अपने माता-पिता ..अपने संतान का ख्याल  आ जाता है. आधुनिक पढ़ी-लिखी लड़कियों के भी माता-पिता ये कभी नहीं चाहते कि बेटी ससुराल छोड़ मायके वापस आए. तो जब लौट कर कहीं जाने का ठौर-ठिकाना ना हो तो वो झट से विरोध  कैसे करे?? हाँ ,जब सर से पानी ऊपर चला जाए..अत्याचार की परकाष्ठा हो जाए तब जरूरजरूर  धीरे धीरे उसमें हिम्मत आने लगती है..पर यह हिम्मत उसे असहनीय पीड़ा से  मिलती है अपने परिजनों से नहीं. 

लड़कों से राजनीति...देश की समस्याओं पर डिस्कशन किया जाता है. शायद ही इन मामा-चाचा -भतीजो-भांजों के संग पारिवारिक  बैठकों में लड़कियों को शामिल किया जाता हो. हाँ, इस विचार-विमर्श को और लज्जतदार बनाने के लिए लड़कियों से गरमागरम पकौड़ों और चाय की फरमाइश जरूर की जाती है. उसके बाद लड़कियों पर तोहमत लगा दिया जता है कि उनकी तो इन विषयों में कोई रूचि ही नहीं. ये मानसिकता इतनी गहरे पैठ गयी  है कि पुरुष सोच ही नहीं पाते..स्त्रियों की भी इन सबमें भागेदारी की इच्छा हो सकती है.
दो साल पहले की बात है.. एक रिश्तेदार के यहाँ गयी हुई थी. पति -पत्नी दोनों  उच्च पदासीन हैं . एक रविवार ..उसके पति स्नान करने जा रहे थे तभी टी.वी. पर एक विचारोत्तेजक कार्यक्रम आने लगा. वे टॉवेल  में ही आकर टी.वी. के सामने बैठ गए और पत्नी से कहा."तब तक तुम जाकर नहा लो.." जब उसने कहा ."क्यूँ ..मेरी भी इच्छा है देखने की ?" तब बड़े बेमन  से ''ओके...देखो.."कहकर मुहँ घुमा कर बैठ गए. 
एक बार ट्रेन में देखा एक पुरुष की एक सहयात्री से कुछ बहस हो रही थी..उनकी बेटी ने पिता का मंतव्य स्पष्ट करना चाहा...तो पिता ने तुरंत हाथ उठा कर मना कर दिया.."मैं बात कर रहा हूँ ना.." ऐसे एक नहीं कई उदाहरण हैं जहाँ .लड़कियों को अपनों के द्वारा ही चुप रहने की हिदायत दी जाती है. अगर ऐसा वे उनकी रक्षा के लिए करते हैं तो फिर उनके व्यक्तित्व का विकास कैसे होगा? वे तो दबी-ढंकी ही रह जायेगी...उन्हें अजनबियों के सामने बोलने की ..अपनी बात कहने की आदत ही नहीं रहेगी तो जब पिता/भाई  आस-पास नहीं होंगे तब भी वो अपनी बात कैसे कह पाएंगी ?? यही वजह है कि ऐसे माहौल में पली लडकियाँ जल्दी अपना मुहँ नहीं खोल पातीं...ना ही अपने ऊपर किए गए जुल्म का विरोध कर पाती हैं.

'सत्यमेव जयते'  के एक  कार्यक्रम में उस लड़की का इंटरव्यू  था..जिसने शादी में दहेज़ का विरोध करते हुए...भावी ससुराल वालों पर स्टिंग ऑपरेशन किए. पहले भी अखबार में विस्तार से ये रिपोर्ट पढ़ी थी   (मुंबई की ही घटना थी यह ) तब भी यही ख्याल आया था कि इसका क्रेडिट उस लड़की के माता-पिता को देना चाहिए जिन्होंने इतनी हिम्मत दी उस लकड़ी को . यह कहकर चुप नहीं करा दिया कि 'ये सब बड़ों के मामले हैं,हमारा काम है.....बीच में मत पड़ो...जाओ चाय बना के लाओ"  . 
मेरी इस कहानी को पढ़कर परिचित/अपरिचित लोगों के कई मेल/फोन  आए...सबने अपने अनुभव बांटे  (इतने कि चार,पांच कहानी का प्लाट  तैयार हो जाए ).एक लड़की ने अपना अनुभव बताया कि उसने ससुराल वालों की बढती मांगों को लेकर शादी के दो दिन पहले अपने पिता को फोन करके कहा (उसके पिता...उसके भावी ससुरालवालों के पास ही गए हुए थे ) कि "आप इस शादी से मना कर दीजिये ". पिता ने पूछा..."सच में तुम श्योर हो?" और लड़की के हाँ कहने पर पिता ने वहाँ शादी तोड़ दी. मैने उस लड़की की हिम्मत  की तारीफ़ तो की ही साथ ही उसके पैरेंट्स के प्रति भी अपनी श्रद्धा व्यक्त  की कि उन्होंने अपनी बेटी की इच्छा का मान रखा...उसका पालन-पोषण ऐसे  किया कि वो  ना कहने की हिम्मत  कर सके. 

तो आज जरूरत है..ऐसे ही माताओं-पिताओं की जो बचपन से ही अपनी लड़कियों का  ऐसे पालन-पोषण करें  कि वो अपनी आवाज़ पहचानें...'ना' कहना सीखें...विरोध करना जानें तब वे अपने ऊपर किए गए पहले जुल्म का विरोध कर  पाएंगीं...और किसी को ये नसीहत देने का मौका नहीं देंगी कि 'पहली बार  में ही किसी अत्याचार  का विरोध करना चाहिए "

मंगलवार, 19 जून 2012

मानसिक विकलांगता से कहीं बेहतर है,शारीरिक विकलांगता


सत्यमेव जयते प्रोग्राम में जब differently abled (जब अंग्रेजी में disabled शब्द की जगह इस शब्द का प्रयोग होने लगा है तो हमें भी हिंदी में 'विकलांग' की जगह किसी दूसरे उपयुक्त शब्द की खोज और उसका प्रयोग शुरू कर देना चाहिए.) लोगों से सम्बंधित 
प्रोग्राम देखा तो करीब तीन साल पहले ब्लोगिंग की शुरुआत  में ही लिखी ..अपनी ये पोस्ट याद आ गयी .

पर SMJ के उक्त एपिसोड के प्रसारण के समय ही  कहानी की समापन किस्त लिखी थी....और किसी भी गंभीर विषय से मन भाग रहा था सो एक हल्की-फुलकी पोस्ट लिख डाली..पर यह विषय मन में उथल-पुथल मचाता ही रहा. विकलांग लोगों की समस्या को  उक्त प्रोग्राम में काफी संजीदगी से उठाया गया.

उस प्रोग्राम में एक बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही गयी कि हम ऐसे लोगों को  किसी पब्लिक प्लेस पर या अपने आस-पास भी  बहुत कम देखते हैं..और इसीलिए सहजता से उनकी उपस्थिति स्वीकार को नहीं कर पाते. और वे भी सामन्य लोगों की भीड़ में खुद को असहज महसूस करते हैं. 
हालांकि एक स्कूल के प्रिंसिपल की कही बात बहुत ही नागवार लगी कि "दूसरे बच्चों के पैरेंट्स आपत्ति जताते हैं..इसलिए हम विकलांग बच्चों को अपने स्कूल में एडमिशन नहीं दे पाते ." इच्छा तो हो रही थी कि आमिर खान उन्हें ये क्यूँ नहीं कहते.."जो पैरेंट्स ऐसे बच्चों के एडमिशन पर आपत्ति जताएं...उनके बच्चों को स्कूल में लेने से मना कर देना चाहिए" पर शायद स्कूल के प्रिंसिपल्स को उस प्रोग्राम में निमंत्रित किया गया होगा..इसलिए उनसे रुखाई से पेश आना गलत होता. पर सच तो यह है कि इस निर्णय का अधिकार स्कूल के पास होना चाहिए.  मेरे बच्चों के स्कूल में कई विकलांग बच्चे भी पढ़ते थे और अक्सर मैने बच्चों को ख़ुशी-ख़ुशी उन बच्चों की व्हील चेयर इधर उधर ले जाते हुए और उन्हें हर तरह की मदद करते हुए देखा है. अगर बचपन से ही वे उनके साथ बड़े होंगे तो जीवन में कभी भी उन्हें असामान्य या अपने से अलग नहीं समझेंगे. 

एक बात और बहुत दिल दुखाती है...किसी विकलांग बच्चे के साथ उसकी माँ की जिंदगी भी एकदम सिमट कर रह जाती है. पहली बात तो उन्हें बच्चे की देखभाल में काफी समय देना पड़ता है...अपने लिए वक़्त नहीं मिल पाता. और वे वक़्त निकाल भी लें तो  भी समाज में घुलने-मिलने से कतराने लगती हैं.
एक फ्रेंड की कजिन से एक बार मुलाकात हुई..जिनसे जल्द ही अच्छी दोस्ती हो गयी. वे जिंदगी से भरपूर थीं..किताबें पढ़ने..फिल्मे देखने.. घूमने का उन्हें बहुत शौक है...पर उनका बेटा एक स्पेशल चाइल्ड  है. यूँ तो वह सामान्य है..पर  उसे फिट्स पड़ते हैं...देश-विदेश में उसका इलाज करा चुकी हैं..पर पूरी तरह वह ठीक नहीं हो पाया. वे बताने लगीं..कि उनका लोगों से मिलना-जुलना ना के बराबर  है क्यूंकि सबलोग अपने बच्चों...उनके स्कूल..उनकी पढ़ाई..उनकी शरारतों की बातें करते हैं. जिनमे वे भाग नहीं ले पातीं. और ज्यादातर लोग उत्सुकता में ऐसी बातें पूछ डालते हैं.,.और ऐसी ऐसी सलाह दे जाते हैं..जो उनका दिल दुखा जाती है. 

यह तो सच है कि हमारा समाज ..इन लोगों के प्रति बहुत ही असंवेदनशील है. मेरी इस पुरानी पोस्ट में एक ऐसी ही घटना का जिक्र है...जिसमे शिक्षित और अपनी एक पहचान बना लिए लोगों की कमअक्ली और  ह्रदयहीनता अचरज में डाल देती है.


आज टी.वी.पर एक दृश्य देख मन परेशान हो गया.यूँ ही चैनल फ्लिप  कर रही थी तो देखा सोनी चैनल पर IPL के तर्ज़ पर DPL यानि 'डांस प्रीमियर लीग' का ऑडिशन चल रहा था.म्यूजिक और डांस प्रोग्राम मुझे हमेशा अच्छे लगते हैं.ऑडिशन भी अक्सर रियल प्रोग्राम से ज्यादा मजेदार होते हैं,इसलिए देखती रही.


भुवनेश्वर शहर से एक विकलांग युवक ऑडिशन के लिए आया था. दरअसल मैं यह सोच रही थी,इसे विकलांग क्यूँ कह रहें हैं या किसी को भी विकलांग कहते ही क्यूँ हैं? क्यूंकि अक्सर मैं देखती हूँ,वे लोग भी वे सारे काम कर सकते हैं,जो हमलोग करते हैं. और कई बार तो ज्यादा अच्छा करते है और वो इसलिए क्यूंकि वे जो भी काम करते हैं पूरी दृढ़ता और  दुगुनी लगन से करते हैं. साधारण भाषा में जिन्हें नॉर्मल या पूर्ण कहा जाता है,उनका ज़िन्दगी के प्रति एक लापरवाह रवैया रहता है. वे सोचते हैं,हम तो सक्षम हैं, हम सारे काम कर सकते हैं इसलिए ज्यादा मेहनत करने की जरूरत नहीं समझते जबकि जिन्हें हम विकलांग कहते हैं, वे अपनी एक कमी को पूरी करने के लिए पूरा  जी जान लगाकर किसी काम को अंजाम देते हैं और हमलोगों से आगे निकल जाते हैं.

अभी हाल ही में ,अखबार में एक खबर पढ़ी कि एक मूक बधिर युवक ने
वह केस जीत लिया है,जो पिछले 8 साल से सुप्रीम कोर्ट में चल रहा था. उसने 8 साल पहले UPSC की परीक्षा पास की थी पर उसे नियुक्ति पत्र नहीं मिला था. अब उसे एक अच्छी पोस्ट पर नियुक्त कर दिया गया है. कितने ही हाथ,पैर,आँख,कान,से सलामत लोग आँखों में IAS का सपना लिए PRELIMS भी क्वालीफाई नहीं कर पाते. रोज सैकडों उदाहरण हम अपने आस पास देखते हैं या फिर अखबारों या टी.वी. में देखते हैं कि कैसे उनलोगों ने अपने में कोई कमी रहते हुए भी ज़िन्दगी की  लड़ाई पर विजय हासिल की.

पर उनलोगों के प्रति हमारा रवैया कैसा है?हमलोग हमेशा उन्हें हीन दृष्टि से देखते हैं और कभी यह ख्याल नहीं रखते कि हमारे व्यवहार या हमारी बातों से उन्हें कितनी चोट पहुँचती है.
आज ही टी.वी. पर देखा,उस लड़के के दोनों हाथ बहुत छोटे थे.पर वह पूरे लय और ताल में पूरे जोश के साथ नृत्य कर रहा था. नृत्य गुरु 'शाईमक डावर' भी जोश में उसके हर स्टेप पर सर हिलाकर दाद दे रहे थे. पर जब चुनाव करने का वक़्त आया तो दूसरे जज 'अरशद वारसी' ने जो कहा, उसे सुन शर्म से आँखें झुक गयीं. 
उनका कहना था ''अगर भगवान कहीं मिले तो मैं उस से पूछूँगा,उसने आपको ऐसा क्यूँ बनाया ??(अगर कहीं हमें भगवान मिले तो हम पूछना चाहेंगे ,उसने 'अरशद वारसी' को इतना कमअक्ल क्यूँ बनाया.??)तुम हमलोगों से अलग हो और यह हकीकत है,इसलिए तुम्हे दूसरे राउंड के लिए सेलेक्ट नहीं कर सकते." बाकी दोनों जजों की भी यही राय थी. शाईमक ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की पर नाकामयाब रहे.

सबसे अच्छा लगा मुझे,अरशद से उसका सवाल करना. उसने मासूमियत से पूछा-- "मैं साईकल,स्कूटी,कार,चला लेता हूँ,पढ़ा लिखा हूँ,एक डांस स्कूल चलाता हूँ,लोगों को डांस सिखाता हूँ,फिर आपलोगों से अलग कैसे हूँ?" अरशद के पास कोई जबाब नहीं था. वे वही पुराना राग अलापते रहें--"तुम इस प्रतियोगिता में आगे नहीं बढ़ सकते,इसलिए तरस खाकर तुम्हे नहीं चुन सकता"...किस दिव्यदृष्टि से उन्होंने देख लिया की वह आगे नहीं बढ़ सकता,जबकि शाईमक को उसमे संभावनाएं दिख रही थीं. और उन्हें तरस खाने की जरूरत भी नहीं थी क्यूंकि वह जिस कला को पेश करने आया था,उसमे माहिर था,अरशद ने एक और लचर सी दलील दी कि 'मैं नाटे कद का हूँ तो मैं ६ फीट वाले लोगों की प्रतियोगिता में नहीं जाऊंगा.इसलिए तुम भी प्रतोयोगिता में भाग मत लो...डांस सिखाते हो वही जारी रखो"..तो क्या उसे आगे बढ़ने का कोई हक़ नहीं? उसकी दुनिया भुवनेश्वर तक ही सीमित रहनी चाहिए?  
अरशद वारसी ऐसी कोई हस्ती नहीं जिनका उल्लेख किया जाए.पर वह एक नेशनल चैनल के प्रोग्राम में जज की कुर्सी पर बैठे थे. इसकी मर्यादा का तो ख्याल रखना था. करोडों दर्शक उन्हें देख रहे  थे.ज्यादातर ये प्रोग्राम बच्चे देखते हैं,उन पर क्या प्रभाव पड़ेगा? वो भी यहो सोचेंगे,ये लोग हमलोगों से हीन हैं,और ये हमारे समाज में शामिल नहीं हो सकते .
 
मुझे तो लगता है किसी विकलांग और नॉर्मल व्यक्ति में वही अंतर होना चाहिए जो किसी गोरे-काले, मोटे-पतले, छोटे-लम्बे, में होता है.जिनके पैर में थोडी खराबी रहती है वह ठीक से चल नहीं पाते. कई,बहुत मोटे लोग भी ठीक से चल नहीं पाते तो हम उन्हें विकलांग तो नहीं कहते? 
अगर हम इनमे भेदभाव करते हैं और इन्हें हेय दृष्टि से देखते हैं तो ये हमारी 'मानसिक विकलांगता' दर्शाती है

सोमवार, 11 जून 2012

कॉफी, सैंडविच और तन्हाई ....हाँ भी...नहीं भी..

दो चीज़ें सोचा था जिंदगी में कभी अकेले नहीं कर पाउंगी....अकेले किसी रेस्टोरेंट में जाना...या फिर अकेले कोई फिल्म देखना. लगता था दोनों ही चीज़ें कभी भी इतनी जरूरी नहीं होंगी कि उनके बिना काम ना चल सके. कभी किसी को रेस्टोरेंट में अकेले चाय-कॉफी पीते या खाना खाते देखती तो उस पर तरस ही खाती कि बेचारा पता नहीं किस मजबूरी के तहत अकेले बैठा है रेस्तरां में . किसी 'बेचारी' को काफी दिनों तक अकेले देखने का मौका मिला भी नहीं था.

जब कभी अकेले शॉपिंग के लिए जाती हूँ तो लौटते समय बच्चों के लिए कुछ पैक करवाना ही होता है (ये टैक्स हर माँ को देना पड़ता है...बच्चे चाहे कितने बड़े हो जाएँ..पर माँ  के घर आने पर पूछते ही हैं.."क्या लाई मेरे लिए.?"..) पार्सल का इंतज़ार करते दुखते पैर पास पड़ी कुर्सी पर बैठने को मजबूर तो कर देते...पर  नज़र इधर उधर दौड़ती रहती..'कोई परिचित देख ले तो क्या सोचेंगे कि अकेले  बैठ कर खा रही है' . {जैसे कोई  गुनाह कर रही है :)} ) इसलिए मैं टेबल की तरफ करीब-करीब पीठ करके बैठती कि कोई ये ना समझ ले, मेरा यहाँ कुछ खाने का इरादा है ( वैसे कोई ऐसा समझ भी लेता तो क्या...कोई पैसे उन्हें तो नहीं देने होते :)}.पर इस बेवकूफ मन का क्या कहें कुछ भी उटपटांग सोचता है....वैसे शुक्र है कि मन ही बेवकूफ है...दिमाग नहीं {अब ये मुगालता भी सेहत के लिए कोई नुकसानदेह नहीं  :)}  .
एक बार अपनी मुम्बई वाली सहेलियों से भी पूछा क्यूंकि ये सब पहले जॉब में थी. बच्चों की देखभाल के लिए स्वेच्छा से नौकरी  छोड़ी है...सोचा इन्हें तो कभी ना कभी अकेले किसी रेस्तरां  में चाय के घूँट भरने ही पड़े  होंगें . पर इन सबने भी बहुत सोचा...और फिर बताया...'ना ऐसा मौका  तो नहीं आया कभी..कलीग साथ होते ही थे.' 
लड़के/पुरुषों के लिए यह कोई ख़ास बात नहीं...पर हम महिलाओं  के लिए जरूर बहुत अलग सा अनुभव है.

जब आकाशवाणी जाना शुरू किया...तब भी लौटते हुए स्टेशन से एक सैंडविच  और कॉफी लेती और लोकल ट्रेन में चढ़ जाती.(जिसकी गाथा मैं यहाँ लिख चुकी हूँ. ) आकाशवाणी जाने के रास्ते में एक कैफे पड़ता है....वहाँ कॉफी की इतनी स्ट्रॉंग खुशबू आती है..कि कदम जिद्दी बच्चे सा अड़ जाते और उन्हें ठेल कर वहाँ से हटाना पड़ता. 

एक दिन हुआ यूँ कि सुबह की रेकॉर्डिंग थी और हम महिलाएँ..घर के सारे काम सही समय पर सुचारू रूप से पूरा कर देंगी..अपनी मैचिंग इयर रिंग्स..बैंगल्स..सैंडल..सबके लिए हमारे पास समय होगा...बस नहीं होगा समय, तो कुछ उदरस्थ करने का . हर महिला के लिए ये काम बस सेकेंडरी ही नहीं ..अंतिम स्थान  पर होता है .( महिलाओं  की इस लापरवाही पर एक पोस्ट कब से लिखने की सोच रखी  है ) .तो मैं अपनी बिरादरी से अलग  कैसे हो सकती हूँ. 
सारे काम निबटाए...औरकुछ खाने का वक़्त तो बचा ही नहीं..किसी तरह एक  बिस्किट मुहँ में डाल पानी पिया और निकल पड़ी. हमेशा की तरह...रेकॉर्डिंग लम्बा खींच गया..और मेरे पेट में चूहे कबड्डी-खो-खो...सब एक साथ खेलने लगे. आकाशवाणी भवन से निकली तो इस बार तो बस कदम उस कैफे के सामने चिपक  ही  गए..मैने भी उनका कहा नहीं टाला. और एक ग्रिल्ड सैंडविच और कॉफी ली. सेल्फ सर्विस थी. सो एक ट्रे में कॉफी और सैंडविच सजाए एक खाली टेबल ढूंढ कर बैठ गयी. 

पहले तो अपनी मोबाइल निकाल थोड़ी देर तक उसे घूरने का नाटक किया..फिर धीरे से इधर उधर नज़र दौडाई तो पाया सब अपने में गुम हैं...यहाँ मुंबई में किसी को फुरसत नहीं कि देखे बगल वाले टेबल पर कोई क्या कर रहा है ...{बस मुझ अकेले को  छोड़ कर :) } और किसी महिला का अकेले कॉफी पीना भी उनके लिए कुछ अनहोनी नहीं थी. अब मैने जरा कॉन्फिडेंस से सर उठा कर मुआयना करना शुरू किया तो भांति भांति के दृश्य मिले. बिलकुल बगल वाली टेबल पर एक लद्धड़ सा आदमी..मतलब  कि मैली सी सिंथेटिक  शर्ट  ( अब या तो उसका  रंग ही ऐसा था या फिर उसे शर्ट बदलने का मौका नहीं मिला होगा) ...धूसर से रंग की पैंट और पैरों में चप्पल पहने, चेहरे पर थोड़ी उगी दाढ़ी और बिखरे बाल लिए  बैठा था. पर उसके आजू-बाजू में दो कमाल की ख़ूबसूरत बलाएँ  बैठीं थीं. ब्लो ड्राई  किए हुए बाल..कानों में, कंधे छूते लम्बे इयर रिंग्स, शॉर्ट  ड्रेस  और बित्ते भर की ऊँची सैंडल...बता रही थी, दोनों या तो कोई मॉडल हैं या मॉडल बनने का सपना संजोये हुए हैं. और दोनों लडकियाँ झुक कर उस आदमी से जिस तरह  बात कर रही थीं...मुझे लगा वो जरूर मॉडल को-ऑर्डिनेटर होगा या फिर कोई फोटोग्राफर होगा...तभी वे उसे इतना भाव दे रही थीं.

कैफे के आस-पास ही दो मशहूर कॉलेज हैं...'जय हिंद कॉलेज' और 'के.सी. कॉलेज ' (तमाम बौलीवुड के सितारे यहाँ के स्टुडेंट रह चुके हैं ). उनके स्टुडेंट्स का तो यहाँ होना लाज़मी ही था. बस रूप-रंग से ही  सब भारतीय दिख रहे थे...वरना पहनावा और बोली तो पश्चिमी ही था. लड़के थ्री  फोर्थ में और लडकियाँ बस केप्री..या स्कर्ट  में थीं.यानि कि जींस भी यहाँ ओल्ड फैशन  में शुमार हो गया था.
एक लड़के और लड़की हाथ में हाथ डाले आए (वेरी कॉमन साइट )..लड़का ऑर्डर करने गया और इसी बीच उस लड़की ने बड़ी सफाई से गले तक के अपने टॉप को धीरे से खिसका कर ऑफ शोल्डर  कर लिया.और फिर नज़रें घुमा  कर चारों तरफ देखने लगी कि  लोग उसे नोटिस  कर रहे हैं या नहीं..मैने झट अपनी नज़र दूसरी तरफ फेर ली. और कई बार हम देख कर ये सोचते हैं कि  पैरेंट्स ऐसे कपड़े पहन कर घर से निकलने कैसे देते हैं.?

एक टेबल पर दो लड़के और एक लड़की बैठे थे. उसमे एक तो गर्लफ्रेंड बॉयफ्रेंड  थे..क्यूंकि उनका PDA   ( Public  display of affection )चल रहा था लैपटॉप पर झुके दोनों कुछ देख रहे थे....{अब लैपटॉप का स्क्रीन मुझे नहीं दिखा :)} दूसरा लड़का उदासीन सा सडक निहार रहा था...पर लैपटॉप उसी का था क्यूंकि बीच बीच में दोनों प्रेमी उस से कुछ पूछते...वो लैपटॉप अपनी तरफ कर ठीक कर देता और फिर...फिर उनकी तरफ खिसका वीतराग सा बाहर देखने लगता...मुझे लगा ..ये बस एक्टिंग कर रहा है..और उसके कान खड़े हैं..दोनों की बात सुनने के लिए.

पास में ही हाईकोर्ट भी है..तो वकीलों का दिख जाना भी मामूली बात है. दो वकील अपना काला  कोट पहने..जबकि उसे उतारकर  हाथों में ले सकते थे. बहुत गर्मी नहीं थी..पर सर्दी भी नहीं थी. दोनों जन एक टेबल पर उत्तर-दक्षिण की तरफ मुहँ करके बैठे थे. अब या तो दोनों विरोधी वकील थे ..या फिर कोर्ट में बहस करने के बाद vocal chord को आराम देना चाहते थे या फिर...स्ट्रेटेजी सोचने में .... या फिर कौन सा झूठ कैसे बोला जाए यह तय करने में व्यस्त थे (वकीलों से क्षमायाचना सहित...खाली दिमाग का महज एक खयाल भर है ).पर जितनी देर बैठे रहे...एक शब्द नहीं बात की आपस में.

मेरी ही तरह  एक अकेली लड़की ने एक पूरी टेबल घेर रखी थी. एक तरफ बैग पटका हुआ था...और कुछ कागज़ बिखरे हुए  थे...वो कागज़ पर लिखे जा रही थी..अब या तो कोई जर्नलिस्ट थी या कोई स्टुडेंट...पर अच्छा लग रहा था...आज के जमाने में भी किसी को कलम से यूँ कागज़ रंगते देख. 

पर सबसे ख़ूबसूरत नज़ारा था..बीच वाली मेज का...तीन सत्तर से ऊपर की पारसी महिलाएँ...स्कर्ट पहने थीं. ..कंधे तक बाल सलीके से कंघी किए हुए थे. एक बाल भी अपनी जगह से इधर-उधर  नहीं था. चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ  था
..पर आँखें  चमक रही थीं. होठों पर लिपस्टिक और सुन्दर सी चप्पलें थी पैरों में. तीनों कॉफी-पेस्ट्रीज़ -बिस्किट के साथ लगातार बातें किए जा रही थीं. अब या तो तीनो फ्रेंड थीं...या रिश्तेदार..पर पूरे कैफे में यही तीनो सबसे ज्यादा एन्जॉय कर रही थीं. मैने बड़ी मुश्किल से एक फोटो लेने की इच्छा पर काबू पाया...वे लोग बिलकुल भी मना नहीं करतीं. पर मुझे बीच में घुसकर उनकी बातों का तारतम्य तोडना..गवारा  नहीं हुआ.

सोनल रस्तोगी की टिप्पणी ने   ने याद दिलाया तो याद आया...एक लड़की का जिक्र भूल ही गयी थी...जो लॉंग  स्कर्ट पहने थी...स्लीवलेस टॉप और गले में लम्बी सी मोटे मोटे मोतियों की माला. ठीक एंट्रेंस  के सामने वाली टेबल पर एक मोटी सी किताब लिए बैठी थी..पर नज़रें किताब पर नहीं , दरवाजे से  लगी  थीं ...किसी के इंतज़ार में थी..और जब  वो शख्स आया तो उसने काफी बातें सुनाईं होंगी क्यूंकि वो लड़का हंस हंस कर सफाई दिए जा रहा था ....ऐसा लगता था जिस हिसाब से उसे डांट पड़ती...उस हिसाब से उसकी बत्तीसी दिखती :) 

 एक नज़ारा और देखने को मिला...अपने उत्तर -भारत का आम नज़ारा. लड़की देखने-दिखाने का   अब मुंबई में रहते हैं,तो क्या..किसी लड़की को I Luv   U बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाए तो माता-पिता को ये कवायद तो करनी  ही पड़ेगी. पहले मुझे कुछ समझ  नहीं  आया....कुछ लड़के-लडकियाँ..महिलाएँ...आये और जोर जोर से बातें करते हुए, एक टेबल पर बैठ गए. कुछ मिसफिट से लग रहे थे,इस माहौल में ..मुझे लगा या तो ये लोग मुंबई घूमने आए हैं...या फिर शॉपिंग के लिए आए होंगे..कॉफी की तलब यहाँ खींच लाई होगी.  थोड़ी देर बाद उनमे से एक लड़की उठी...और मेरे पीछे की तरफ गयी वहाँ से एक लड़की को साथ  ले अपने टेबल पर चली गयी. तब मैने देखा..पीछे तरफ माता-पिता के साथ  वह लड़की पहले से बैठी हुई थी. अब ये लोग मेरे सामने थे...लड़की कुछ भी नहीं बोल रही थी...बस मुस्कुरा रही थी. वे लोग भी कुछ ज्यादा बातें नहीं कर रहे थे...बस उसे घूरे जा रहे थे. थोड़ी देर बाद सारी मण्डली उठ कर लड़की के माता-पिता के पास चली गयी और लड़की-लड़के को वहाँ छोड़ दिया....अब मुझे पता चला कि उनमें लड़का यानि भावी दूल्हा कौन है...बहुत ही कमउम्र का लड़का था..कानों में डायमंड और एम्ब्रॉयड्री वाली शर्ट पहन रखी थी. बिजनेसमैन की फैमली का लग  रहा  था..वरना नौकरीपेशा वाले घरों में इतनी जल्दी शादी नहीं करते. पर वे दोनों कुछ भी बात ही नहीं कर रहे थे...उनकी सामने पड़ी कॉफी भी ठंढी  होती जा रही थी...उन दो वकीलों की तरह दोनों उत्तर-दक्षिण की तरफ नहीं देख रहे थे बल्कि लड़की की नज़रें टेबल घूर रही थी और लड़के की सड़क. थोड़ी देर बाद एक लड़की (जरूर लड़के की बहन होगी..) ने  लड़के से इशारे से पूछा...और लड़के ने हाँ में सर हिलाया...लड़की(भावी दुल्हन)  की पीठ उस तरफ थी..इसलिए वो ये इशारे  नहीं देख सकी. पर लड़की के माता-पिता वाले टेबल पर सबके चेहरे खिल गए. लड़की के पिता..तुरंत काउंटर की तरफ चले गए..(शायद पेस्ट्री लाने ) . अब लड़की से पूछा गया था या  नहीं..ये तो पता  नहीं  लग पाया..पर हो सकता है...लड़की से पहले से ही पूछ लिया गया हो..अब पहले वाला ज़माना तो रहा नहीं कि  लड़की की राय लेना जरूरी ना समझा जाए.
 थोड़ी देर बाद वे लोग आकर लड़की/लड़के को भी अपनी टेबल पर ले गए.

मुझे भी लगा..इस सुखद नोट पर यहाँ से उठ जाना चाहिए.
कोई बुरा नहीं रहा..अकेले कॉफी पीने का अनुभव...यानि की फिर से अकेले पी जा सकती है,कॉफी .. :):)

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