सोमवार, 28 मार्च 2011

शरद कोकास की कविता पर समीक्षात्मक पुस्तक के विमोचन समारोह की झलकियाँ

मुंबई में होली हम उत्तर-भारतीयों का महत्वपूर्ण त्योहार है. और इस बार की होली तो कुछ ख़ास ही रही क्यूंकि ठीक होली के एक दिन पहले और एक दिन बाद ब्लॉगर बंधुओं से भी मिलने का सुयोग जुटा. १९ मार्च २०११  को मुंबई विश्वविद्यालय परिसर में शरद कोकास  जी की दीर्घ कविता 'पुरातत्ववेत्ता'  पर लिखी डा. विजया की समीक्षात्मक पुस्तक का विमोचन समारोह था. आभार शरद जी, आभा मिश्रा  जी और बोधिसत्व जी का...जिनके सौजन्य से मुझे भी इस समारोह में शामिल हो, इतने सारे दिग्गज  कवियों ,लेखकों,पत्रकारों  से रु-ब-रु होने का सुअवसर मिला.
बोधिसत्व जी एवं शरद जी

शरद जी और बोधिसत्व जी के प्रिय मित्र कवि नरेश चंद्रकर जी (इनकी एक बेहतरीन कविता शरद जी ने यहाँ पोस्ट की है ) बड़ौदा से सुबह ही बोधिसत्व जी के घर पधार चुके थे . मैं, आभा जी, नरेश जी,बोधिसत्व जी जब समारोह स्थल नेहरु ग्रंथालय पहुंचे तो शरद जी नीचे ही इंतज़ार में खड़े थे. उनकी मंशा थी कि उनके  मित्रों के बिना कार्यक्रम शुरू ना हो...और जब कवि ही मंच पर  उपस्थित ना हो तो कार्यक्रम कैसे शुरू हो सकता है :)
  
सरस्वती वंदना और दीप प्रज्वलन के साथ कार्यक्रम का शुभारम्भ हुआ.मुंबई विश्विद्यालय के प्राध्यापक डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय कार्यक्रम का संचालन कर रहे थे. प्रोफ़ेसर  मनोहर जी ने कार्यक्रम का उदबोधन  किया. श्री ज्ञानरंजन जी किन्ही कारणवश तशरीफ़ नहीं ला सके थे...उनका आशीर्वाद स्वरुप  पत्र पढ़ कर सुनाया गया. सबसे पहले डा. विजया ने अपने विचार रखे. उन्होंने बताया कि जब उन्होंने शरद कोकास की कविता 'पुरातत्ववेत्ता ' पढ़ी तो उनका मन बहुत उद्वेलित हो गया. करीब चार-पांच महीने तक उनके दिमाग में यह कविता चलती रही. वे किचन में हों....या कहीं भी हों ...कविता की पंक्तियाँ लगातार उनके मन में प्रतिध्वनित होती रहतीं. उन्हें लगा जब उन्हें ये कविता इतना उद्वेलित कर रही है तो इसे  लिखते वक्त कवि किस यंत्रणा से गुजरा होगा. और उन्होंने इस कविता की विस्तृत समीक्षा लिखने का निश्चय किया. उन्होंने शरद जी से संपर्क किया . शरद जी ने सहर्ष स्वीकृति दे दी .
 

इसके बाद शरद जी ने कविता की रचना प्रक्रिया पर बातें की. उन्होंने  बताया  कि ५३ पेज की इस लम्बी कविता की शुरुआत मात्र तीन पंक्तियों से हुई थी .जब वे कविता लिखने बैठे तो उन्हें लगा कि उनकी कविता का यह केंद्रीय पात्र केवल पुरातत्ववेत्ता नहीं है बल्कि वह एक लेखक , कवि , इतिहासकार तथा चिन्तक भी हो सकता है .आम लोगो में इतिहासबोध उत्पन्न करना तथा चीजों को वैज्ञानिका द्रष्टिकोण से देखने की क्षमता  उत्पन्न करना ही उनका उद्देश्य है

शरद जी को इस बात का भी मलाल था कि आम आदमी 'पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा किए जा रहे महत्वपूर्ण कार्य की सार्थकता नहीं समझता. उन्होंने अपने अनुभव बताए कि कैसे पुरातत्ववेत्ता कहीं खुदाई करने जाते हैं तो लोग-बाग़ समझते हैं..."वे सोना ढूँढने आए हैं " और जब वे कोई टूटा बर्तन या टूटी ईंट मिलने पर खुश होते  हैं तो लोग कहते हैं.."अच्छा! ठीकरो मिल्यो है " शिक्षित लोगों को  भी इनके कार्य की महत्ता का अंदाजा नहीं है.

शरद  जी ने यह कविता सबसे पहले...अपने अग्रज कविवर बन्धु "लीलाधर मंडलोई ' को पढ़ने के लिए भेजी. और सबसे पहले यह कविता अपने मित्र नरेश चंद्रकर को सुनाई, रात में उन्होंने यह कविता सुनानी शुरू की और कब सुबह के पांच बज गए  दोनों मित्रों  को पता ही नहीं चला. इस तरह इस कविता के प्रथम पाठक 'लीलाधर मंडलोई ' जी  और प्रथम श्रोता नरेश चंद्रकर जी बने . श्री ज्ञानरंजन जी ने इसे 'पहल' पत्रिका में प्रकाशित किया. अशोक बाजपेयी जी...लाल बहादुर वर्मा ..कवि वसंत त्रिपाठी ने इस पर समीक्षा लिखी थी. लाल बहादुर वर्मा जी ने इसे साहित्य  के साथ-साथ इतिहास  की पाठ्य-पुस्तक बनाने की जरूरत पर भी बल दिया. जब विजया जी ने इस पर समीक्षा लिखने की बात कही तो शरद जी को लगा...आठ-दस पेज की समीक्षा होगी.पर जब डा. विजया ने २०० पृष्ठ की समीक्षा लिखकर  भेजी तो कवि भी आश्चर्यचकित रह गए. उनलोगों ने सिर्फ  पांच बार पत्रव्यवहार किए और शरद कोकास  , डा. विजया से विमोचन के एक दिन पहले ही पहली बार मिले.

शरद जी ने बड़े जोशीले स्वर में कविता के शुरू के दो तीन पन्नो का पाठ किया...लोगों ने तो बार-बार ' बहुत खूब' कह कर प्रशंसा की ही. साथी कवि बोधिसत्व जी एवं नरेश जी ने भी कहा कि अपनी कविता का बहुत ही सुन्दर पाठ किया उन्होंने...ये पंक्तियाँ खासकर बहुत पसंद आयीं सबको.



इतिहास तो दरअसल माँ के पहले दूध की तरह है

जिसकी सही खुराक पैदा करती है ,हमारे भीतर
मुसीबतों से लड़ने की  ताकत
दुख सहन करने  की क्षमता देती जो
जीवन की समझ बनाती है वह
हमारे होने का अर्थ बताती है,हमें
हमारी पहचान कराती जो हमीं से

कवि नरेश जी
ने कविता पर विचार रखते हुए कहा कि वे कविता में इतना खो गए थे कि सुनते-सुनते पूरी रात बीत गयी और उन्हें पता ही नहीं चला.


कवि विजय कुमार ने इसे एक कालजयी कविता बताते हुए कहा कि इस कविता का महत्व आनेवाले कई बरसों तक रहेगा समीक्षा के विषय में उन्होंने कहा कि पोएटिक लोजिक ,सातत्य वा साधारणीकरण इस समीक्षा की विशेषता है .

कवि बोधिसत्व जी ने कविता की प्रशंसा की और कहा कि "वे भी इस कविता पर कुछ लिखने को इच्छुक हैं"...उन्होंने यह वायदा भी कर डाला कि "अगर २०११ में वे इस कविता पर कुछ नहीं लिखते तो फिर उन्हें किसी आयोजन में ना बुलाया जाए. "

कार्यक्रम के अध्यक्ष लीलाधर मंडलोई जी (जो दूरदर्शन के महानिर्देशक भी हैं ) ने डा.विजया की भूरी-भूरी प्रशंसा की कि अहिन्दीभाषी होकर भी हिंदी की एक कविता पर इतनी विस्तृत समीक्षा लिखी.और पुस्तक में विषय के अनुरूप दुर्लभ चित्र भी प्रकाशित किए हैं. कविता की भूमिका लीलाधर जी ने ही लिखी है..और वहाँ वे कविता पर अपने विचार व्यक्त कर चुके हैं. यहाँ भी वे काफी-कुछ कहना चाहते थे.पर उनकी फ्लाईट का समय हो चला था ..इस वजह से उन्हें जाना पड़ा.

आभा मिश्रा जी मैं, शरद जी

इसके अलावा सर्वश्री रामजी तिवारी , वेद राही , राम प्रकाश द्विवेदी , त्रिभुवन राय सभी वक्ताओं ने एक स्वर से कहा कि यह कविता हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर है और लिखने वालों को प्रेरणा  भी देती है कि कविता की लम्बाई की चिंता किए बिना अपनी इच्छानुसार वे अपने भावों को शब्द दे सकते हैं..एक ना एक दिन उसका मूल्य साहित्य जगत जरूर समझता है. और हिंदी साहित्य  भी समृद्ध होता है. ज्ञानरंजन जी की प्रशंसा भी की गयी कि उन्होंने इतनी लम्बी कविता को प्रकाशित किया. हिंदी से इतर भाषा वाले भी हिंदी-साहित्य की ओर उन्मुख हो रहे हैं...यह हिंदी के लिए शुभ-संकेत है. और सबसे अच्छी बात ये है कि यहाँ समीक्षक का कवि से कोई व्यक्तिगत परिचय नहीं था..सिर्फ कविता की उत्कृष्टता ही उन्हें समीक्षा लिखने को प्रेरित कर गयी. ऐसी ही परम्परा होनी चाहिए. कार्यक्रम में हिन्दी के प्रसिद्ध कवि विनोद दास , अनूप सेठी , ओम शर्मा , तथा मराठी के साहित्यकार ,प्रकाश भाताम्ब्रेकर,सुश्री सुमनिका सेठी ,डॉ.वसुंधरा तारकर , मुक्ता नायडू नीरा नाहटा और अनेक गणमान्य लोग उपस्थित रहे .

मैं ,नरेश जी, शरद जी, आभा जी
कार्यक्रम की समाप्ति पर चाय-नाश्ते के साथ फोटो-सेशन का दौर चला. शरद जी और बोधिसत्व जी के प्रशंसक/प्रशंसिकाएं  उनके साथ तस्वीर खिंचवाने को आतुर थे. शरद जी को बार-बार अपनी प्लेट नीचे रख देनी पड़ रही थी...पता नहीं वे अपनी प्लेट की सामग्री ख़त्म भी कर पाए या नहीं :)

पर पूरे कार्यक्रम के दौरान सबसे नयनाभिराम दृश्य रहा ...समकालीन कवियों का आपसी स्नेह. स्कूली बच्चों सा एक-दूजे के कंधे से उनकी बाहें हट ही नहीं रही थीं. तस्वीरों में आप बानगी देख सकते हैं:)

शरद जी  और लेखिका डा. विजया 



शरद जी , बोधिसत्व जी एवं नरेश चंद्रकर जी













शुक्रवार, 25 मार्च 2011

जरा सी सूझ-बूझ ,संवाद और संयम से संभव है समस्याओं का समाधान (2)


पिछली पोस्ट में दो किशोर समस्याओं की चर्चा की थी...इस पोस्ट में किशोरों की दो और बहुत ही कॉमन समस्याओं का जिक्र.
प्रसिद्द मनोचिकित्सक हरीश शेट्टी की क्लिनिक में एक माता-पिता ,आठवीं में पढनेवाली अपनी बेटी की मार्कशीट लेकर आए....नंबर 12 से लेकर 48 तक थे. माता-पिता का कहना था कि "पिछले साल उसे 85% नंबर मिलते थे और एक साल में गिरकर यहाँ तक तक आ गए.
वह बहुत जिद्दी हो गयी है, उलटे  जबाब देती है, पढ़ाई नहीं करती, सारा समय आइने के सामने खड़ी रहती है. उसकी संगत अच्छी नहीं है....कुछ कहने पर खुद को नुकसान पहुंचाने की धमकी देती है"

यह एक आम किशोर समस्या है...शायद ही किसी  माता-पिता ने एकाध बार खुद को इन स्थितियों में ना पाया हो. डॉक्टर ने पूछा कि डांटने के सिवा आपने और कौन कौन से उपाय किए...माता-पिता ने बताया," हमलोगों ने कहा अगर वो हमारी बात मानेगी तो उसे नया मोबाइल खरीद देंगे...उसकी पॉकेट मनी बढ़ा देंगे ...फिर भी वो बिलकुल नहीं सुनती....सबकुछ नाकाम हो गया."
डॉक्टर ने कहा कि "आप उसे कुछ दिनों के लिए बिलकुल अकेला छोड़ दें...कोई जबाब-तलब ना करें..."
"ये तो नामुमकिन है...उसने इतने गंदे मार्क्स लाए और हम चुप रहें...हमलोग उसके स्कूल के प्रिंसिपल से मिलने वाले है कि वो ही उसे समझाएं या कोई सजा दें" माता-पिता का कहना था.

डॉक्टर ने उन्हें सिर्फ तीन दिन रुक जाने के लिए कहा. फिर उनसे उनकी बेटी के प्रति उनकी भावनाओं की बात शुरू की. माँ रो पड़ी कि "पहले वो इतनी अच्छी थी...मेरी सारी बात मानती थी...मुझे सबकुछ बताती थी....अब तो जैसे पह्चान में नहीं आती.."

डॉक्टर ने बोला, "अब भी वो उतनी ही अच्छी है...बस हमें उसकी भावनाओं को महसूस कर उसके मन की  आवाज सुननी पड़ेगी"
डॉक्टर ने माता-पिता से इज़ाज़त ले, बेटी से बात की ..." तुम्हारे माता-पिता मेरे पास बैठे हैं और वे भी उतने ही दुखी हैं....जितनी तुम दुखी हो...मैं तुमसे मिलना चाहता हूँ"

लड़की...इस शर्त पे तैयार हुई कि वहाँ उसके माता-पिता उपस्थित नहीं रहेंगे .लड़की ने बताया," उसके माता-पिता उस पर विश्वास नहीं करते, मुझे लड़के/लड़कियों से बात नहीं करने देते...मैं आठवीं में हूँ...पर मुझे छोटी बच्ची समझते हैं कि मुझे कोई भी बहका लेगा...मैं बर्थडे पार्टी में जाना चाहती हूँ...दोस्तों के साथ समय बिताना चाहती हूँ..पर मम्मी हमेशा शक करती है...मेरा फोन चेक करती है...हमेशा पूछती है..'किस से बात कर रही थी ..क्या बात कर रही थी'...मुझे इन सबसे बहुत खीझ होती है...मेरा पढ़ने में मन नहीं लगता...मुझे कुछ भी अच्छा नहीं लगता ...मैं मर जाना चाहती हूँ .... काउंसलिंग की जरूरत उन्हें हैं...आप उन्हें काउंसिल कीजिए."

अगले तीन सेशन डॉक्टर ने माता-पिता के साथ ही किए क्यूंकि उन्हें पता ही नहीं था...एक टीन-एज बच्चे को कैसे हैंडल  किया जाए. वे ऐसे माहौल में बड़े हुए  थे ..जहाँ कुछ भी सिर्फ सही और गलत था. उन्होंने कहा..."वो  ये सब हमें भी कह सकती थी...हम समझ जाते " पर  डॉक्टर का कहना है कि अक्सर घरो में वो सौफ्टवेयर डेवलप ही नहीं किया जाता ,जिसके  तहत बच्चे ,अपनी कोई गलती  शेयर कर सकें. ये सोफ्टवेयर तभी बन सकता है अगर सब एक दूसरे की भावनाओं को समझें और अपने अनुभव  शेयर करें. उन घरों में ये संभव नहीं...जहाँ केवल धार्मिक माहौल हो और हमेशा भगवान का डर दिखाया जाता हो या फिर केवल बौद्धिकता की बातें की जाती हों और पढ़ाई के कीर्तिमानों पर ही चर्चा होती हो.

अक्सर परिवारों में अभियोगी ...गवाह और जज की भूमिका अभिनीत की जाती है...बच्चे अभियोगी हो जाते हैं...जहाँ उनके कृत्यों की गवाह बनी माँ....जज-पिता के घर आते ही उनके कारनामे सामने रख देती है और जज फैसला सुनाते हैं.

माता-पिता को 'तुम कुछ नहीं करोगे'...फेल हो जाओगे' 'यही हाल रहा तो ज़िन्दगी में कुछ नहीं कर पाओगे' जैस जुमलों से परहेज़ करना चाहिए.

आजकल एकल परिवार होने से माता-पिता पर भी अतिरिक्त जिम्मेवारी आ गयी है और बच्चों को भी अपनी मुश्किलें शेयर करने के लिए किसी  अनुभवी का साथ नहीं मिलता. पहले मौसी-चाची-बुआ आदि से अक्सर मिलना-जुलना होता था और किशोर अपने मन की बातें शेयर कर पाते थे...माँ भी अपनी बहनों-जिठानी से बच्चों की समस्याएं डिस्कस कर पाती थीं...और अमूल्य सुझाव भी ले पाती थीं. पर अब दोनों को एक दूसरे की बात खुद ही समझने की कोशिश करनी पड़ेगी.

एक दूसरे केस में हरीश शेट्टी को अचानक एक स्कूल से इमरजेंसी कॉल आई. पता चला उस स्कूल के 7th और 9th क्लास के लड़के/लड़की स्कूल यूनिफॉर्म में एक मल्टीप्लेक्स में compromising position में पकडे गए हैं. उनके स्कूल यूनिफॉर्म से मल्टीप्लेक्स के मैनेजर ने उन्हें पहचान लिया और स्कूल को इन्फौर्म कर दिया. स्कूल के प्रिंसिपल ने दूरदर्शिता दिखाई और उनके माता-पिता को खबर करने की बजाय मनोचिकित्सक को बुलवा लिया.

दोनों बच्चे जमीन पर नज़रें  गडाए बैठे रहे. डॉक्टर ने जैसे ही उनके कंधे पर हाथ रख,उन्हें "रिलैक्स' 'कहा....वैसे ही वाइस प्रिंसिपल बिगड़ पड़ी, "इन्हें बढ़ावा मत दीजिये...इन्हें कड़ी सजा दीजिये" डॉक्टर ने सबको बाहर कर दिया और अकेले में उनसे बात करने की कोशिश की. पढाई में वे अच्छे थे...इसके पहले कभी स्कूल भी बंक नहीं किया था...स्कूल में किसी शैतानी का कोई रेकॉर्ड नहीं था. दोनों बस इतना ही कह रहे थे.."प्लीज़ हमारे पैरेंट्स को मत बताइयेगा"

डॉक्टर ने उनसे कहा कि अगर आपकी जगह आपके भाई-बहन ऐसा करते तो आपको कैसा लगता?...उन बच्चों को खुद ही अपने व्यवहार का विश्लेषण करने को कहा और सही-गलत तय करने के लिए प्रेरित किया. उनसे खुद ही अपनी सजा (वैसे हरीश शेट्टी का कहनाहै... It is important to understand that punishment is a word we do not use in schools because it refers only to IPC crimes ") चुनने को कहा. बच्चे आश्चर्यचकित रह गए ,क्यूंकि उन्हें लग रहा था ,उन्हें स्कूल से  निकाल दिया जायेगा. डॉक्टर ने सलाह दी कि वे पांचवी कक्षा को इतिहास और भूगोल का एक चैप्टर  पढ़ाएं. उस दिन जब बच्चों के माता-पिता को कुछ नहीं बताया गया. एक सप्ताह बाद फिर काउंसलर ने उनसे पूछा कि क्या माता-पिता को  को बता दिया जाए?" बच्चों ने फिर 'ना' कर दी . एक हफ्ते बाद फिर पूछा, इस बार बच्चों ने कुछ नहीं कहा.

माता-पिता पहले तो बहुत नाराज़ हुए. फिर उन्हें समझाने पर शांत हुए. काउंसलर ने उनसे आश्वासन लिया कि घर पर वे कोई सजा नहीं देंगे या व्यंग्य नहीं करेंगे. कुछ दिनों बाद लड़की की माँ , उस लड़के की जाति पूछने आई. ( शिक्षित लोगो के ये हाल हैं ).

हरीश शेट्टी का कहना है..."  When in trouble hug the child a little longer and a little stronger "  पर ये  भी हमारे भारतीय परिवारों में कम ही देखने  को मिलता है. जबकि touch therapy  कितना महत्वपूर्ण है ,इस से सब अवगत हैं.

एक बार एक मित्र (वे भी  मशहूर मनोचिकित्सक हैं, कभी उनसे भी किशोरों की समस्या पर कुछ लिखने का आग्रह करुँगी)  से चर्चा कर रही थी कि हमारे जमाने और आज के बच्चों के व्यवहार में कितना अंतर है. उन्होंने कहा, "तब, इंटरनेट, सैटेलाईट चैनल्स, मोबाईल फोन थे?...नहीं ना...फिर  व्यवहार एक जैसे कैसे हो सकते हैं? " सही है...जब बाहर इतना बदलाव आया है...तो हमें भी अंदर से बदलना होगा.

बुधवार, 23 मार्च 2011

जरा सी सूझ-बूझ ,संवाद और संयम से संभव है समस्याओं का समाधान (१)


अपनी पिछली पोस्ट के विषय को ही आगे बढाने की कोशिश है....पर इस बार कुछ सकारात्मक कदम की चर्चा. अक्सर बच्चों द्वारा आत्महत्या की ख़बरें पढ़ मन दुखी हो जाता है..और हाल में ही ग्यारह साल की बच्ची द्वारा ऐसे कदम उठाने की खबर से तो जैसे पूरी मुंबई ही दहल गयी. इस समस्या को सुलझाने की कोशिश कई अखबारों ने भी की. Mumbai Mirror ने मशहूर मनोचिकित्सक हरीश  शेट्टी का एक आलेख प्रकाशित किया है जिसमे उन्होंने चार ऐसे बच्चों की समस्या की चर्चा की..जहाँ अभिभावक-शिक्षक की सूझबूझ से बच्चे उस राह तक जाते-जाते लौट आए.

एक बारह साल  के बच्चे को उसकी माँ 'हरीश शेट्टी' के क्लिनिक में ले गयी और चीख कर कहा ..."इसने हमारा जीना मुश्किल कर दिया है...इसने अपना हाथ काट लिया है" डॉक्टर ने माँ को बाहर भेज कर बच्चे के कंधे पर हाथ रखा . बच्चा आधे घंटे तक  आँखों में आँसू लिए सर झुकाए बैठा रहा. कुछ नहीं बोला. माँ ने बताया कि बच्चे की किताब में से 150 रुपये मिले हैं...इसने चोरी की है.पर वह कुछ नहीं बता रहा...बहुत मारने पर भी कुछ नहीं बोला और बाथरूम में जाकर अपना हाथ काट लिया...मेरे पति सारा दोष मुझे देते हैं..." वह रोने लगी.

उसके पिता को बुला कर पूछने पर उन्होंने रूखेपन से कहा, "इस से कहिए चोरी ना करे...मैं सारा दिन इसके अच्छे भविष्य के लिए खटता हूँ ...अगर फिर से उसने ऐसा किया तो मैं इसे घर से बाहर निकाल दूंगा"
 

हरीश शेट्टी ने बच्चे के सामने ही उसकी माँ से कहा.. “There is nothing like a word Lie in my dictionary. Lie is truth postponed, suspended, delayed. He was just scared.

अगली मीटिंग उन्होंने क्लिनिक से अलग  एक कैफे में रखी और बच्चे ने कहा  कि "आप मेरे पापा को नहीं बताएँगे तब मैं सारी बात बताऊंगा"....और उसने आगे बताया कि "मैने  अपने पिता के पर्स में  से 500 रुपये निकाले... अपने दोस्तों को कोल्ड ड्रिंक और बर्गर खिलाया,क्यूंकि वे हमेशा मुझे  खिलाते थे....मैं बहुत खुश था....मुझे ये नहीं लगा कि मैने चोरी की है...मुझे लगा वे मेरे पापा के पैसे हैं.....मैं उनका अच्छा मूड देखकर उन्हें बता दूंगा...वे हमेशा नाराज़ रहते  हैं...आराम नहीं करते..ठीक से सोते नहीं....पर मेरे बताने के पहले ही उन्हें पता चल गया और उन्होंने मुझे बहुत मारा...मैंने गुस्से और डर के मारे नहीं बताया...मैं मर जाना चाहता था...पर मैं डर गया...और मैने, अपना हाथ काट लिया "

डॉक्टर ने माता-पिता से बात की....पिता ने भी अपनी समस्याएं रखीं....अपने कठिन बचपन  की बातें शेयर की...और घर में शांतिपूर्ण माहौल  बनाने की कोशिश  का वायदा किया.

यह बहुत ही साधारण सी बात लगती है. पता नहीं..कितने लोगों ने बचपन में घर से कुछ चुराने के लिए मार खाई होगी. पर आज मुझे भी लग रहा है...इस 'चोरी' शब्द का प्रयोग क्या सही है?? बच्चों को शायद हमेशा यही लगता हो कि ये उनका घर है...उसकी चीज़ों पर उनका हक़ है...डर के मारे वे पहले पूछते नहीं होंगे क्यूंकि ' सार्थक संवाद ' की कमी अक्सर भारतीय परिवारों में रहती है. पहले भी पिता,बहुत घुल-मिलकर अपने बच्चों से बातें नहीं करते थे.


मुझे याद है..मेरे  छोटे भाई ने सात साल  की उम्र में बिना पूछे , घर से  एक चवन्नी ले कर टॉफी खाई थी....और इसके लिए उसे मम्मी का चांटा भी पड़ा था (टॉफी के लिए नहीं...बिना पूछे,पैसे उठाने के लिए और अकेले दूकान तक जाने के लिए )...आज भी हम उस घटना को याद करते हैं कि वो कितना शरारती था...पर आज मुझे लग रहा है..उसने अपना 'हक़' समझा होगा...ऐसे ही किसी ने अपना संस्मरण सुनाया था...कि वो घर से पैसे लेकर पतंग ख़रीदा करता था...उसकी माँ उसे पतंग की दुकानों  पर ले गयी और उनसे कहा  कि..."इसे पतंग मत देना....यह घर से पैसे चुरा कर पतंग खरीदता  है"  तब के बच्चे ...एक घंटे बाद ही, ये मार-पिटाई भूल जाते थे...पर आज जमाना सचमुच बदल  गया है. हमें भी अपने तौर-तरीके बदलने  होंगे. और कहीं ऐसा तो नहीं कि ये बड़ों का अहम् है कि हर चीज़ हमसे पूछ कर करे. अनुशासन सिखाते हुए हम अति कर  जाते  हैं.अगर बच्चे ने बिना पूछे कुछ ले लिया तो हम यह सोच घबरा जाते हैं कि...यह बड़ा होकर चोर-डाकू ही न बन जाए. पर फिर अच्छी  बातें सिखाना भी जरूरी....बड़ी ही जटिल स्थिति है.

एक दूसरे केस में एक रुढ़िवादी  परिवार की महिला, अपने किशोर बेटे की डायरी लेकर उनके पास आई. बेटे ने बारह से चौदह वर्ष की उम्र की तीन लड़कियों की प्रशंसा में गद्य और कविताएँ लिख रखी थीं. 60 पन्नों की वो डायरी पढ़कर उसकी लेखन प्रतिभा पर हरीश शेट्टी चमत्कृत रह गए. जब उन्होंने उसकी माँ से कहा...कि "आपको गर्व होना चाहिए अपने बेटे पर, इतना अच्छा लिखता है...उसे प्रोत्साहित करना चाहिए"
 

तो उसकी माँ नाराज़ हो गयी...."मैं आपके पास सलाह लेने आई थी कि उसे कैसे निकाला जाए इन सब से और आप प्रोत्साहन की बात कर रहे हैं...वह तीन लड़कियों की तारीफ़ में कविताएँ कैसे लिख सकता है?....पढ़ाई और प्रेम की अपनी उम्र होती है"

उन्होंने माँ से पूछा, "अपने बेटे की उम्र में आपको कोई अच्छा लगा था?"

माँ ने कहा..."हाँ लगता था...पर हमारे भारतीय संस्कृति में ऐसी भावनाओं को प्रकट  नहीं किया जाता...."
 

कुछ देर बात करने पर माँ ने बताया कि उनका बेटा, बारह साल की उम्र तक उनसे सब शेयर करता था. एक दिन वह स्कूल से भागता हुआ उनके पास किचेन में आया और उन्हें बताया कि उसके क्लास की एक लड़की उसकी बहुत अच्छी दोस्त है...उसे होमवर्क में मदद करने के लिए उसकी कॉपी लेकर घर आया है. माँ ने उसे बहुत डांटा कि "लड़कियों से दोस्ती करने में नहीं ..अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो" तब से वह अंतर्मुखी हो गया...और अब उनसे कुछ भी  शेयर नहीं करता."

हरीश शेट्टी ने उन्हें सलाह दी कि आप बेटे से कहिए कि आपने उसकी डायरी देखी है...वह बहुत अच्छा लिखता है...उनके ऐसा कहने पर बेटे ने खुश होकर उन्हें अपना लिखा कुछ और भी दिखाया. पर जब यह बात उसके पिता को पता चली तो उन्होंने बहुत हंगामा किया. डॉक्टर की क्लिनिक में आकर कहा की..."ये उनका परिवार है..वे निश्चित करेंगे कि कौन क्या करेगा"

डॉक्टर ने कहा कि वे सिर्फ इतना चाहते हैं कि "उसकी विलक्षण लेखन प्रतिभा की तारीफ़ की जाए..इसके लिए उसे शर्मिंदा ना किया जाए.." कुछ देर बाद पिता ने भी अपने बचपन की यादें शेयर कीं कि कितना कठोर बचपन गुजरा उनका. 

यहाँ माता-पिता ने बिलकुल उपयुक्त  समय पर सही सलाह  लेकर अपने बच्चे के साथ कुछ कठोर व्यवहार करने और उसे डिप्रेशन में जाने से बचा लिया.

शायद अक्सर माता-पिता अपने बचपन की कुंठाएं ही अपने बच्चों पर भी  निकालते  हैं और यह पैटर्न पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है.
 
(अगली पोस्ट में दो और किशोर समस्याओं की  चर्चा )

बुधवार, 16 मार्च 2011

डोर को सुलझाने का यत्न....पर सिरा है कि मिलता नहीं


होली पास है...लोगो में उमंग और उत्साह है...वहीँ कुछ घर ऐसे हैं...जिनकी होली अब कभी भी पहले जैसी नहीं रहेगी.

(जापान  पर आई प्राकृतिक आपदा तो सदियों तक मन दुखायेगी. पता नहीं कितने लोगो ने अपना  सब कुछ खो दिया और कितने लोगो ने अपनों के साथ अपनी ज़िन्दगी भी  खो दी...हम उनका दुख महसूस कर बस अपनी श्रद्धांजलि  अर्पित कर सकते हैं )

यहाँ मुंबई में ही दो दिन के अंतराल पर घटी दो घटनाओं की खबर ने अंतस को झकझोर डाला है. और सामने  कई सवाल ला खड़े किए है. (होली पर संस्मरण वाली दो पोस्ट और लिखने की योजना थी...पर अब सारा मूड गया )
इस वक्त ऐसी ग़मगीन पोस्ट, शायद नहीं लिखनी चाहिए....पर हमारे तो कुछ पल ही उदासी में गुजरेंगे...पर उन आँखों का क्या जहाँ उदासी ने ही घर बना लिया...और जो अब शायद कभी मुस्कुरा ना सकें.

इकतीस वर्षीया  एक महिला, निधि गुप्ता ने अपने सात वर्षीय बेटे और तीन वर्षीया  बेटी के साथ, उन्नीसवीं मंजिल से छलांग लगा दी. निधि   CA थी. और एक कॉलेज में लेक्चरर भी. संयुक्त परिवार में रहती थी. शादी के बाद , उसने ससुराल वालों की मर्जी से नौकरी छोड़ दी और  सिर्फ घर की देखभाल  करने लगी..पति शराबी था और बिजनेस में ध्यान नहीं देता था....फिर वो पति के साथ सूरत शिफ्ट हो गयी...पति ने नया बिजनेस  शुरू किया...निधि ने भी  नौकरी कर ली...ज़िन्दगी पटरी पर आ ही रही थी
कि बड़े भाई को मुंबई में बिजनेस में घाटा हुआ और उसके माता-पिता ने जोर डाला कि निधि का पति,सूरत का अपना  बिजनेस बेच कर ,मुंबई आ,अपने भाई  की सहायता करे. यहाँ सारा फाइनेंस बड़े भाई की पत्नी के हाथों में था और निधि अपनी जरूरतों के लिए उन पर ही  निर्भर थी. (जरूर उसके लेक्चरर की तन्खवाह इतनी नहीं होगी कि वो अपने बच्चों की सारी जरूरतें पूरी  कर सके ) पति भी अपनी फ्रस्ट्रेशन उस पर निकालता ....जेठानी..और सास भी उसे मानसिक रूप से परेशान करती थीं. निधि के  माता-पिता भी मुंबई में रहते थे...उनसे निधि की रोज बात होती थी. आज उसके पिता कहते हैं...."हमने बेटी की परेशानी नहीं समझी" . अगर समझते  भी होंगे तो  हिन्दुस्तान के हर पिता की तरह यही निर्देश दिया होगा.."निभाओ...अब वही तुम्हारा घर है...." जबकि चाहते तो निधि की परेशानी जानकर उसे अपने साथ रहने को कह  सकते थे. पढ़ी -लिखी थी....माता-पिता के स्नेहिल छाया में शायद उसे जीने का संबल मिल जाता.  लेकिन पिताओं को अपनी इज्जत प्यारी होती है..समाज में साख की चिंता होती है. कुछ-कुछ ऐसी ही स्थिति से गुजरती लड़की को उसके पिता ने एक कोटेशन सुनाया था (इसपर मैंने एक पोस्ट लिखी थी) " धी धरणी को धीरज धरना ही पड़ता है" निधि के पिता ने भी शायद यही समझाया हो.

आज उनकी धी...धरणी में मिल गयी...और उन्होंने धीरज धरा हुआ  होगा. 

आज वे अफ़सोस कर कहते हैं..."We  failed to see the signs ,We let down our daughter " निधि के पिता अब शायद इस पश्चाताप से कभी ना उबरें...कि उन्होंने समय रहते अपनी बेटी की मदद नहीं की.
 
निधि बेशक कमजोर थी...चाहती तो हालात का सामना कर सकती थी.....हालांकि मुंबई जैसे शहर  में सिर्फ अपनी लेक्चरर की तनख्वाह पर दो बच्चों के साथ सर पे छत जुटाना, उनकी अच्छी शिक्षा- दीक्षा ,पालन-पोषण संभव नहीं.....हाँ, वो  ससुराल वालों  के ताने...उनकी उपेक्षा सहते हुए ,उस दमघोंटू वातावरण में ,अपने बच्चों को बड़ा कर सकती थी. आखिर  सदियों से अब तक कितने ही घरों में ऐसी स्थितियों का सामना स्त्रियाँ करती ही आई हैं. पर सबके दुख सहने की और परिस्थितयों का सामना करने की क्षमता अलग होती है..इसका अर्थ ये नहीं कि उसे मर जाना चाहिए. शायद  इस घटना से बाकी पिता भी सबक लें...और समय रहते अपनी बेटी की मदद के लिए आगे आएँ....क्यूंकि निधि की बड़ी बहन ने भी कहा.."निधि बहुत ही well behaved और सब कुछ सह कर मुस्कुराते  रहने वाली  लड़की थी...उसके ससुराल  वाले उसे फॉर ग्रांटेड लेने लगे और यही समझते रहे...'यह तो बिना प्रतिवाद किये सब कुछ सह लेगी"


दूसरी खबर भी कम दिल दहला देने वाली नहीं ..छठी कक्षा में पढनेवाली, एक ग्यारह वर्षीया  लड़की ने अपने क्लास के एक लड़के के लिए अपनी फीलिंग एक डायरी में लिखी थीं. उसकी अनुपस्थिति में उसकी माँ ने वह डायरी देख ली. उस से भी  जबाब तलब किया होगा...फिर इसकी शिकायत...उसकी क्लास टीचर और प्रिंसिपल से करने स्कूल गयीं. क्लास टीचर से तो शिकायत कर दी..लेकिन माँ प्रिंसिपल से भी मिलने के लिए अड़ी हुई थीं. बेटी बार-बार उन्हें प्रिंसिपल से मिलने को मना कर रही थी...जब माँ, प्रिंसिपल से मिलने के लिए स्कूल में ही रुकी रही तो बेटी स्कूल से घर  आ गयी और पंखे से....

माँ को इतने सेंसेटिव  इशु को बहुत ही कुशलता और संवेदनशीलता से हैंडल करना चाहिए था पर माँ ने भी शायद बदले हुए समय को नहीं समझा और उनके जेहन में अपने समय की ही किसी घटना की कोई स्मृति होगी और उन्होंने बस एक बने बनाये ढर्रे की तरह एक्शन ले डाला. 
 

इसी से मिलती जुलती एक घटना मेरे स्कूल होस्टल में घटित हुई थी. मुझसे सीनियर एक लड़की ने अपनी सहेली के भाई को एक ख़त लिखा था .उस वक्त उनकी उम्र चौदह-पंद्रह की होगी . उनके ही कमरे की एक लड़की ने सोने का बहाना कर दोनों सहेलियों को बातें करते,ख़त लिखते देख लिया था. उसने मेट्रन से ये शिकायत कर दी. जब वह ख़त एक डे स्कॉलर को पोस्ट करने के लिए वो दे  रही थी...तभी, उस लड़की के साथ मेट्रन ने उसे पकड़ लिया.(हमारे होस्टल में हर ख़त पहले मेट्रन की आँखों से सेंसर होकर गुजरता था...घर से आए पत्र भी हमें खुले हुए मिलते थे...उन्हें पहले मेट्रन पढ़ती थीं )
 

प्रिंसिपल को भी इसकी सूचना दी गयी....और पूरे हॉस्टल की लड़कियों के सामने उसकी बहुत बेइज्ज़ती की गयी. उस लड़की के पिता को बुलवाया गया  और उसे स्कूल से निकाल दिया गया. आज भी वो दृश्य आँखों के सामने है...वो रोते हुए मेट्रन का पैर पकडती,...वे जोर से पैर झटकतीं  तो वो प्रिंसिपल का पैर पकडती....पिता के सामने भी उसे बहुत  खरी-खोटी  सुनायी गयी.

पिता ने उसे दूसरे स्कूल के हॉस्टल में डाल दिया....वहाँ भी उसकी गाथा लोगों को पता चल गयी...यहाँ तक कि दो साल बाद उनकी छोटी बहन  भी हमारे हॉस्टल में ही आई ,उस पर  भी गाहे-बगाहे अपनी बड़ी बहन के कृत्य  को लेकर छींटाकशी  की जाती. उस वक्त तो मुझे भी उनका ये कृत्य ,अक्षम्य अपराध की श्रेणी में लगा था . पर बाद में अक्सर ये घटना मुझे याद आती...और मैं सोचती, किशोरावस्था में एक ऐसे निर्दोष से कृत्य की इतनी बड़ी सजा सुनायी गयी उन्हें.
 

पर तब और अब की घटना तो एक जैसी  है...पर इसके बाद लड़की द्वारा उठाये गए कदम में जमीन-आसमान का अंतर है.
इतनी जिल्लतें उठाने के बाद भी हमारी वो सीनियर आज कहीं बाल-बच्चे ..पति के साथ एक सुखी वैवाहिक जीवन  बिता रही होगी...और इस लड़की ने मात्र इसकी  आशंका  से अपनी इहलीला  ही समाप्त कर ली. 


आखिर क्यूँ सबकी सहनशक्ति शून्य से  भी कम हो गयी है. क्या पहले लडकियाँ/औरतें इसे अपना नसीब समझ लेती थीं? वे ये सोचती थीं...कि वे इसी काबिल हैं...उनके साथ ऐसा ही होना चाहिए और चुपचाप सब सह लेतीं थीं.  और आज वे अपने साथ किए गए ऐसे व्यवहार को गलत मानती हैं...लेकिन उस गलत को सही नहीं कर पातीं और पलायन का रास्ता अख्तियार कर लेती हैं ?

इसी विषय से सम्बंधित मेरी और दो पोस्ट

पैरेंट्स की प्यार भरी सुरक्षा किसी पेड़ जैसी हो या शामियाने जैसी ??

खामोश और पनीली आँखों की अनसुनी पुकार


रविवार, 13 मार्च 2011

होली के रंग,गाँव की सोंधी मिटटी के संग


कल एक पोस्ट डाली  थी...'रोडीज ' के ऑडिशन में आये एक लड़के की करुण कथा...और उसके जीवट की...पर अब पता चला...वो सारी कहानी  मनगढ़ंत थी...कोटिशः धन्यवाद ..अभिषेक और मीनाक्षी जी का जिनलोगों ने कुछ  लिंक देकर उसकी असलियत  बतायी....दरअसल मेरे बेटे ने भी कहा था...'वो फेक है'..पर मैंने कहा...वो सब अफवाह होगा...पर लिंक देखकर तो शक यकीन में बदल गया. अब चैनल वाले जाने कि उसके साथ क्या सुलूक करें....अब तक वे आम दर्शक  को बेवकूफ बनाते आये हैं...कोई उन्हें बना गया....पर मैंने  सोचा...पोस्ट डिलीट करना ही ठीक रहेगा. ऊपर स्पष्टीकरण और लिंक दे भी दूँ...फिर भी उसे निगेटिव पब्लिसिटी तो मिल ही जाएगी. क्यूँ बेकार में लोगों का कीमती समय बर्बाद किया जाए. जिनलोगों ने उसे पढ़कर उसपर अपने कमेन्ट दिए...क्षमाप्रार्थी  हूँ...उनका बहुमूल्य समय नष्ट हुआ.

होली नज़दीक है तो होली की कुछ यादें शेयर करने का उपयुक्त  मौका है...

कोई कहता है उन्हें होली नहीं पसंद...कोई कहता है बहुत पसंद है.पर मैंने कभी खुद को इस स्थिति में पाया ही नहीं कि पसंद या नापसंद करूँ.शायद बचपन सेही इस त्योहार को अपने अंदर रचा बसा पाया है.

ग्यारह  वर्ष की उम्र में हॉस्टल चली गयी...और तब से जैसे बस होली का इंतज़ार ही रहता...बाकी का पूरा साल होली में की गयी मस्ती याद करके ही गुजरता.सरस्वती पूजा के विसर्जन वाले दिन से जो गुलाल खेलने की शुरुआत होती वह होली की छुट्टी के अंतिम दिन तक चलती रहती. हमारे हॉस्टल का हर कमरा' इंटरकनेक्टेड' था.पूरी रात हर कमरे में जाकर सोने वालों के बालों में अबीर डालने का और मुहँ पर दाढ़ी मूंछ बनाने का सिलिसिला चलता रहता.पेंट ख़त्म हो जाते तो कैनवास वाले जूते का सफ़ेद रंग वाला शू पोलिश भी काम आता (ड्रामा में हमलोग बाल सफ़ेद करने के लिए भी इसका उपयोग करते थे) उन दिनों ज्यादातर लड़कियों के लम्बे बाल होते थे.उन्हें रोज़ शैम्पू करने होते.और टीचर से डांट पड़ती...बाल खुले क्यूँ रखे हैं?.मैं शुरू से ही नींद की अपराधिनी हूँ .इसलिए इस रात वाली गैंग में हमेशा शामिल रहती..बाकी सदस्य अदलते बदलते रहते.

सरस्वती पूजा में हमलोग गेट से लेकर स्टेज तक ,जहाँ सरस्वती जी की मूर्ति रखी जाती थी.सुर्खी की एक सड़क बनाते थे.(सुर्खी ईंट के चूरे जैसा होता है ) उसके ऊपर चॉक पाउडर से अल्पना बनायी जाती थी.हर वर्ष होली में एक बार उस सुर्खी से जमकर होली खेली जाती.ये रास्ता मैदान के बीच से होकर जाता था और हम लोग रोज शाम को मैदान में 'बुढ़िया कबड्डी' खेला करते थे.किसी ना किसी का मन मचल जाता और वो एक पर सुर्खी उठा कर फेंकती..वो लड़की उसके पीछे भागती पर बीच में जो मिल जाता,उसे ही लगा देती. फिर पूरा हॉस्टल ही शामिल हो जाता इसमें. एक बार शनिवार के दिन ऐसे ही हम सब सुर्खी से होली खेल रहें थे. अधिकाँश लड़कियों ने यूनिफ़ॉर्म नहीं बदले थे.सफ़ेद शर्ट और आसमानी रंग की स्कर्ट सुर्खी से लाल हो गयी थी.उन दिनों 'सर्फ़ एक्सेल' भी नहीं था.फिर भी हमें कोई परवाह नहीं थी. मेट्रन मार्केट गयीं थीं. वो कब आकर हमारे बीच खड़ी हो गयीं पता ही नहीं चला.जब जोर जोर से चिल्लाईं तब हमें होश आया और हमें सजा मिली की इसी हालत में खड़े रहो. सब सर झुकाए लाईन में खड़े हो गए. शाम रात में बदल गयी,सुर्खी चुभने लगी,मच्छर काटने लगे पर मेट्रन दी का दिल नहीं पिघला.जब खाने की घंटी बजी और कोई मेस में नहीं गया तो मेस में काम करने वाली गौरी और प्रमिला हमें देखने आई. झूठमूठ का डांटा फिर इशारे से कहा..एक एप्लीकेशन लिखो...कि अब ऐसे नहीं करेंगे.सबने साईन किया डरते डरते उनके कमरे में जाकर दिया.फिर हमें आलू की पानी वाली सब्जी और रोटी(रात का रोज़ का यही खाना था,हमारा) खाने की इजाज़त मिली.पर सिर्फ हाथ मुहँ धोने की अनुमति थी,नहा कर कपड़े बदलने की नहीं.खाना तो हमने किसी तरह खा लिया.पर मेट्रन के लाईट बंद करने के आदेश के बावजूद ,अँधेरे में ही एक एक कर बाथरूम में जाकर बारह बजे रात तक सारी लडकियां नहाती रहीं.

हॉस्टल में 'टाइटल' देने का बड़ा चलन था...रोज ही नोटिस बोर्ड के पास एक कागज़ चिपका होता.और किसी ना किसी कमरे की लड़कियों ने बाकियों की खबर ली होती.खूब दुश्मनी निकाली जाती इस बहाने. कई बार तो असली झगडे भी हो जाते और बोल चाल बंद हो जाती.पर ऐसा कभी कभी होता...ज्यादातर सब टाइटल पढ़ हँसते हँसते लोट पोट ही हो जाते.

मेरे स्कूल के दिनों में पापा की पोस्टिंग मेरे पैतृक गाँव के पास थी. अक्सर हॉस्टल से सीधा मैं गाँव ही चली जाती.वहाँ की होली भी निराली होती थी.दिन भर अलग अलग लोगों के ग्रुप निकलते.सुबह सुबह लड़कों का हुजूम निकलता.लड़के गोबर और कीचड़ से भी खेला करते.और कोई दामाद अगर गाँव में आ गया तो उसकी खैर नहीं उसे फटे जूते और उपलों का माला भी पहनाया जाता.एक बार मेरे पापा दालान में बैठे शेव कर रहें थे.एक हुडदंगी टोली आई पर वे निश्चिन्त बैठे थे कि ये सब उनसे उम्र  में  छोटे  हैं.पर उनमे ही उनका हमउम्र भी कोई था और उसने उन्हें एक कीचड़ भरी बाल्टी से नहला दिया.पापा को सीधा नहर में जाकर नहाना पड़ा.

लड़कियों का ग्रुप एक बाल्टी में रंग और प्लेट में अबीर और सूखे मेवे(कटे हुए गरी, छुहारे) लेकर घर घर घूमता.उन दिनों घर की बहुएं बाहर नहीं निकलती थीं. कई घर की बहुएं तो लड़कियों से भी बात नहीं करती थीं.(ये बात अब तक मेरी समझ में नहीं आती). घर में काम करने वाली,आँगन में एक पटरा और रंग भरी बाल्टी रखती. कमरे से घूंघट निकाले बहू आकर पटरे पर बैठ जाती और हम लोग अपनी अपनी बाल्टी से एक एक लोटा रंग भरा जल शिव जी की तरह उनपर ढाल देते.फिर घूंघट के अंदर ही उनके गालों पर अबीर मल देते और हाथों में थोड़े अबीर में लिपटे मेवे थमा देते.वे बहुएं भी हमारी फ्रॉक खींच हमें नीचे बैठातीं और एक लोटा रंग डाल देतीं.घूंघट के अंदर से भी वे सब कुछ देखती रहतीं.कोई लड़की अगर बचने की कोशिश में पीछे ही खड़ी रहती तो इशारे से उसे भी बुला कर नहला देतीं.

इसके बाद शुरू होता रंग छुडाने का सिलसिला.आँगन में चापाकल के पास हम बहनों का हुजूम जमा हो जाता,आटा,बेसन से लेकर केरोसिन तेल तक आजमाए जाते.त्वचा छिल जाती.पर हम रंग छुड़ा कर ही रहते.घर की औरतें बड़े बड़े कडाहों में पुए पूरी तलने में लगी होतीं.पुए का आटा रात में ही घोल कर रख दिया जाता.एक बार मेरी दादी ने जिन्हें हम 'ईआ' बुलाते थे.मैदे के घोल में शक्कर की जगह नमक डाल दिया था.वहाँ बिजली तो रहती नहीं थी.एक थैले में गाय बैलों के लिए लाया गया नमक और दूसरे थैले में शक्कर एक ही जगह टंगी थी.सुबह सुबह सबसे पहले 'ईआ' ने मुझे ही दिया चखने को,जब मैंने कहा नमकीन है तो उन्हें यकीन नहीं हुआ.फिर उन्होंने हमारे घर में काम करने वाली (पर बहुओं पर सास से भी ज्यादा प्यार,अधिकार और रौब जमाने वाली) 'भुट्टा काकी' से चखने को कहा .जब उन्होंने भी यही बताया तब उनके होश उड़ गए...फिर तो पता नहीं कितने एक्सपेरिमेंट किये गए.दुगुना,शक्कर..मैदा सब मिला कर देखा गया..पर अंततः उसे फेंकना ही पड़ा.

शाम को होली गाने वालों की टोली घर घर घूमती.पूरे झाल मंजीरे के साथ हर घर के सामने कुछ होली गीत गाये जाते और बदले में उन्हें ढेर सारा अनाज दिया जाता.सारे दिन खेतों में काम करने वाले,गाय-भैंस चराने वालों का यह रूप, हैरान कर देता हमें.हमारे 'प्रसाद काका' जो इतने गंभीर दीखते कभी काम के अलावा कोई बात नहीं करते. वे भी आज के दिन भांग या ताड़ी के नशे में गाने में मशगूल रहते.ज्यादातर वे लोग एक ही लाइन पर अटक जाते..." गोरी तेरी अंखियाँ लगे कटार..."...बस अलग अलग सुर में यही लाईन दुहराते रहते.

अब तो पता नहीं...गाँव में भी ऐसी होली होती है या नहीं.

सोमवार, 7 मार्च 2011

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो....

वो हमारे योगा क्लास में आती थी, बाइस-तेइस साल की कोई कॉलेज गोइंग लड़की लगती थी. चुलबुली सी....हमेशा मुस्कुराती  हुई. फिर बातों बातों में पता चला वो छब्बीस बसंत देख चुकी है...और सिर्फ शादी-शुदा ही नहीं...दो बच्चियों की माँ भी है. उन्नीस साल की छोटी सी उम्र में एक बड़े व्यवसायी खानदान में उसकी शादी हो गयी. पति भी शादी के वक्त इक्कीस वर्ष के ही थे. उसकी शादी के बाद ही जिठानी ने घर के कामो  से बचने के लिए ,एक स्कूल में नौकरी कर ली. खुशमिजाज़ प्रिया ( नाम बदला हुआ है) जिठानी की दोनो  बेटियों को भी संभालती और किचन  भी देखती. क्यूंकि उसे कुकिंग का बहुत शौक था....थाई, चाइनीज़, इटैलियन, मुगलई हर तरह का खाना बना लेती. हमलोगों से भी  बातों-बातों में कई रेसिपीज़ शेयर करती. बाद में उसकी  अपनी भी दो बेटियाँ आ गयीं. थोड़ा सा समय अपने साथ गुजारने के लिए उसने योगा ज्वाइन किया था.

क्लास में ज्यादा बात नहीं हो पाती. एक दिन मार्केट में मिल गयी तो हमने साथ-साथ शॉपिंग की. उसी दरम्यान उसके पति के करीब ६-७ फोन आए. योगा क्लास में हम उसकी खूब खिंचाई करते कि......'अब तक, इसका तो हनीमून पीरियड ही ख़त्म नहीं हुआ '. वो भी मुस्कुरा कर साथ देती रहती. जब उसे पता चला कि मैं कहानियाँ लिखती हूँ...तो अक्सर कहती,'मेरी कहानी लिखो, मेरे पास बहुत मेटेरियल है' मैं भी हंस कर कह देती...'हाँ...जरूर' सोचा अफेयर और शादी के किस्से होंगे. फिर दो महीने बाद उसने आना बंद कर दिया. यह आम बात थी....अक्सर महिलाएँ समय नहीं एडजस्ट कर पातीं....और आना बंद कर देतीं हैं.


काफी दिनों बाद, मेरी सहेली के पास  (जो योगा इंस्ट्रक्टर भी है) प्रिया का sms आया...." My husband is in coma...please pray for him." जब उसने हतप्रभ होकर प्रिय को कॉल किया तो पता चला ,प्रिया का पति अल्कोहलिक है और करीब पिछले दो साल  से बीमार चल रहा है.डॉक्टर का कहना है कि उसके अंदरूनी अंग काम नहीं कर रहे. पर वह कोमा से बाहर आ गया. सिर्फ उसकी युवा उम्र और उसके  विल पावर से ही यह संभव हो पाया. उसके बाद करीब चार  महीने वह हॉस्पिटल में रहा, तीन बार कोमा में भी गया पर फिर रिकवर कर गया.


वह घर आ गया.  कभी फोन पर या कभी रास्ते में प्रिया मिल जाती तो मैं, प्रिया से उसके पति का हाल पूछ लेती. एक बार मैं अपने गेट से निकली ही थी कि पीछे से हॉर्न सुनाई दिया, देखा कार में प्रिया थी...उसके पति का हाल-चाल पूछ ही रही थी कि उसने कहा, "तुम्हारे पास समय है....मैं बहुत परेशान हूँ....किसी से भी बस थोड़ा बात करना चाहती हूँ...."  उस वक्त मुझे सौ जरूरी काम होते तो वो भी छोड़ देती, "किसी का दुख बाँट तो नहीं सकते,हम...कम से कम सुन तो सकते हैं." मेरे हाँ, कहने पर वो मुझे एक पार्क में ले गयी और सारी कहानी बतायी...."वो बी.ए. सेकेण्ड इयर में थी, तभी उसके ससुराल वालों ने उसे किसी फंक्शन में देखकर अपने छोटे बेटे के लिए पसंद कर लिया था. इन लोगों का बहुत बड़ा बिजनेस  था, बड़ा सा बंगला...घर में ही एक मंजिल से दूसरी मंजिल जाने के लिए लिफ्ट लगे हुए हैं...यह सब देख, प्रिया के परिवार वाले भी मान गए. 


शुरू में उसके पति बस पार्टी में शौक के लिए पीते थे...फिर धीरे-धीरे शराब उन्हें पीने लगी...दोस्तों का जमावड़ा बढ़ गया. ससुराल वाले भी प्रिया को ही दोष देते कि 'वो गलत संगत में जा रहा था, इसीलिए इतनी छोटी उम्र में उसकी शादी कर दी, लेकिन प्रिया उसकी ये आदत छुडवा नहीं सकी.' प्रिया ने जिद करके उसे दो बार rehab  में भी भेजा.पर वापस आकर वो फिर से शराब पीना शुरू कर देते . दो साल  पहले उसके ससुर को पैरालेटिक अटैक आया...जिस वजह से वे अब घर से बाहर नहीं जा पाते. दोनों भाई मिलकर ही  बिजनेस देखते थे....उसके पति को और छूट मिलने लगी और वह काम के बहाने घर से दूर रहकर और शराब पीने लगे . दो साल से उनकी  तबियत खराब चल रही थी और अब तो डॉक्टर ने भी कह दिया है, कि उनका शरीर  अंदर से बिलकुल खोखला हो गया है. 

प्रिया ही बार-बार उन्हें  हॉस्पिटल में लेकर जाती है...वहाँ साथ रहती है. क्यूंकि जेठ बिजनेस देखते हैं और ससुर..अशक्त हैं. दूसरे शहर से उसके भाई और माता-पिता आते हैं,पर दस दिन से ज्यादा नहीं  रुक पाते. अम्बानी हॉस्पिटल इतना अच्छा हस्पिटल है..पर उसमे पेशेंट की देखभाल करनेवाले के खाने-पीने का कोई इंतजाम नहीं है. कैंटीन भी नहीं है. घर से दूर होने के कारण खाना भेजना भी नहीं संभव और पूरे चार महीने प्रिया ने सिर्फ ब्रेड...बड़ा पाव ..यही सब खाकर गुजारे. पति को घर तो ले आई , पर फिर भी हर तीन दिन पर उसे लेकर पास के हॉस्पिटल में जाना पड़ता, क्यूंकि उनके  पेट में पानी भर जाता उसे निकालना जरूरी था. . वैसे भी  हर दस दिन पर कुछ ना कुछ कम्प्लिकेशन हो जाते हैं और उन्हें उसी दूर अम्बानी हॉस्पिटल में भर्ती करना पड़ता है. डॉक्टर भी उसे बुलाकर  कहते कि हस्पिटल लेकर मत आया करो, अब इसके अंदर कुछ नहीं बचा है. एक दिन में तेरह तेरह हज़ार के पांच  इंजेक्शन लग जाते . 

शराब नहीं मिलने से विड्रौल सिम्पटम भी होते, वो बहुत चिडचिडा हो जाता. और सारा गुस्सा प्रिया पर ही निकालता. फिर भी प्रिया  उसके साथ साए की तरह लगी रहती. दस बजे रात को अगर वाटर मेलन खाने को  कहता तो प्रिया उसके लिए लेकर आती. 
अब ससुराल वाले उसे कहते  हैं...'तलाक ले लो '. पर प्रिया का कहना था कि उसे पता नहीं कितना पैसा देंगे, और वह दो बेटियों को लेकर मायके चली भी जाती है तो आज उसका भाई उसे बहुत प्यार करता है लेकिन कल  क्या उसका यही प्यार बना रहेगा? फिर अंतिम समय में पति का साथ छोड़ना भी उसका दिल  गवारा नहीं करता. लेकिन प्रिया ने परिवार के बड़े बुजुर्गों को बुला, उस बंगले का एक फ्लोर अपने नाम करवा लिया . मैं सोच रही थी, 'इतनी सी उम्र पर हालात ने उसे कितना चौकन्ना  बना दिया  है.' प्रिया बता रही थी कि वह कहीं बाहर जाती है तो पति शक के मारे दस फोन करते हैं  क्यूंकि उन्हें  विश्वास ही नहीं होता, "वो एक शराबी पति के साथ कैसे रह सकती है...उन्हें छोड़कर क्यूँ नहीं जाती"

अक्सर  ही पति के कोई ना कोई टेस्ट होते हैं और उसकी रिपोर्ट लेकर प्रिया को अम्बानी हॉस्पिटल जाना पड़ता है. और ऐसी हालत में भी उसे अनुपस्थित पा पति चुपके से शराब मंगवा कर  पी लेते हैं. जिस दुकान से वे शराब ख़रीदा करते  थे. उस दुकान वाले को भी अपराध बोध हुआ क्यूंकि एक दिन प्रिया ने जाकर उसे बहुत डांटा कि 'आपने तो पैसे बनाए पर किसी की ज़िन्दगी तबाह कर दी.' उसने प्रिया को फोन करके बताया कि उसके पति ने उसे शराब भेजने के लिए फोन किया था, जब उसने मना कर दिया तो उन्होंने दूसरे दुकान से शराब मंगवाई है. आज भी वो रिपोर्ट लेकर गयी थी कि हॉस्पिटल में ही शराब के दुकान वाले का फोन आया और वह इतनी अपसेट हो गयी थी कि घर आकर ,पति को खूब बाते सुनाईं और बस गाड़ी लेकर निरुद्देश्य इधर- उधर भटकने को निकल  पड़ी थी कि मैं उसे दिख गयी...मैं उसे क्या कह सकती थी, यही कहा कि 'तुम इतनी स्ट्रॉंग हो, इसीलिए भगवान ने तुम्हे चुना है..वरना दूसरी लड़की कब की बिखर गयी होती."

इतनी कोशिशों के बावजूद भी, ये सावित्री अपने सत्यवान को नहीं बचा पायी.


हम उस से मिलने गए तो इतने कम उम्र के एक सुदर्शन युवक के फोटो के ऊपर चढ़ी माला और सामने जलता दीपक देखे नहीं जा रहे थे. प्रिया की आँखें  वैसी ही सूखी हुई थीं. प्रिया को रंगीन  कपड़ों में देख सुकून  हुआ. पता चला उनके धर्म में तेरहवीं के बाद खुद उनके धर्म गुरु रंगीन कपड़े आशीर्वाद स्वरुप देते हैं. प्रिया अपने पति के अंतिम क्षण बता रही थी की डॉक्टर को बुलाया तो उन्होंने कहा, 'अब अंत निकट है...कहीं ले जाने का कोई फायदा नहीं...परन्तु उसके पति की लाल आंखे उस पर टिकी हुई थीं..."और  मेरे लिए सुनना बहुत मुश्किल हो रहा था क्यूंकि ये सब मैने इसके पहले कभी सुना और देखा नहीं था पर अपनी पहली लम्बी कहानी में बिलकुल ऐसा ही दृश्य लिख चुकी थी, वहाँ शरद अपने दोस्त के लिए  कहता है...(लाल-लाल आँखें, बेचैनी से सारे कमरे में घूमती और मुझपर टिक जातीं
और जावेद को शांति से इस लोक से विदा करने की खातिर, मैंने उसके समक्ष प्रतिज्ञा की, बार-बार कसम खायी कि आज से उसके परिवार का बोझ मेरे कंधे पर आ गया। प्राण-पण से उनके सुख-दुख का ख्याल रखूंगा मैं... उसके बच्चों की सारी जिम्मेवारी अब मुझ पर है ) यहाँ प्रिया कह रही थी, मैने उसे बार-बार कहा...मैं तुम्हारी बेटियों को बहुत अच्छी एडुकेशन दूंगी, उनकी अच्छी शादी करुँगी...मेरी चिंता मत करो...मैं भी खुश रहूंगी तुम शान्ति से जाओ'

पर प्रिया को अपना दुख भूल, अपनी बड़ी बेटी को संभालना पड़ रहा था क्यूंकि वो अपनी माँ और दादी से नाराज़ थी कि  "उसके पापा को हॉस्पिटल क्यूँ नहीं ले गए..."


छब्बीस साल  की उम्र तक कितनी लडकियाँ पढ़ाई ही करती रहती हैं...नौकरी भी करती हैं तो अपना बिस्तर-कपड़े सब यूँ हीं माँ के भरोसे छोड़ चली जाती हैं....और यहाँ प्रिया इसी उम्र में अपने कंधे पर जिम्मेवारियों का बोझ लिए खड़ी है.....पर  चेहरे पर मुस्कान लिए उन्हें बखूबी निभा रही है.


कहते है..अनजान  की दुआ क़ुबूल होती  है....मेरी इल्तजा  है कि आज 'नारी दिवस' पर मन ही मन एक प्रार्थना  'प्रिया' के लिए करें कि उसका आगामी  जीवन कंटकरहित हो.

रविवार, 6 मार्च 2011

पिता से हुए हताहत के परिवार को बेटे से मिल रही राहत

सारंग परसकर और सुनील परसकर
अक्सर हम अपनी रोजमर्रा की दिनचर्या से थोड़ी  निजात पा...अखबार उठा लेते हैं या फिर टी.वी. का रिमोट. पर दोनों जगह, ऐसी खबरे देखने या पढ़ने को मिलती हैं कि सारे पेज पलट कर अखबार वापस रख दिया जाता है और सौ चैनल सर्फ़ कर उलजुलूल  प्रोग्राम्स की झलकियाँ देखने के बाद टी.वी. बंद करने को रिमोट का बटन दब जाता है. लेकिन यही अखबार और टी.वी. कभी-कभी इंसानियत, ईमानदारी, मेहनत,सच्चाई का ऐसा नज़ारा पेश करते हैं कि दुनिया का एक ख़ूबसूरत रूप नज़र आने लगता है.


पहले अखबार की खबर. कुछ दिनों पहले, मुंबई मिरर में एक बहुत ही प्रेरक वाकया पढ़ने को मिला.  जहाँ उन्नीस साल  का एक लड़का, पार्टी-गर्लफ्रेंड-रॉक बैंड- डिस्क की दुनिया से दूर समाजसेवा में लगा हुआ है. DCP सुनील परसकर,  ने  1999 से 2001 तक एनकाउन्टर  स्पेशलिस्ट की एक टीम का नेतृत्व किया था और कई गैन्गस्टर को अपनी गोली का निशाना बनाया था.


बार डांसर की बेटी अपनी टेलरिंग शॉप में
दस साल  बाद उनका बेटा 'सारंग परसकर ' एक NGO चला रहा है . जो उन क्रिमिनल्स के परिवार और उनके बच्चों  के पुनर्स्थापन के लिए  कटिबद्ध है. इनमे  से ज्यादातर क्रिमिनल उसके पिता की गोलियों का शिकार बने थे .2009 में सारंग ने 'रास्ता' नामक एक NGO बनाया और तब से दस परिवार को अपराध की दुनिया से दूर, एक सामान्य  जीवन बिताने में मदद कर चुके हैं. फिलहाल अमेरिका के एक बिजनेस स्कूल में पढ़ रहे सारंग कहते हैं, " अपराधियों या फिर सेक्स वर्कर्स के बच्चे आज ना कल अपराध की दुनिया अपना ही लेते हैं. क्यूंकि समाज उन्हें अपराध मुक्त जीवन जीने नहीं देता. अपराधी के बच्चे का कलंक उनके माथे पर लिख दिया जाता है, जबकि इसमें उनकी कोई गलती नहीं होती."


अब सारंग इस NGO का संचालन अमेरिका से ही करते हैं. इसमें 25 वालंटियर्स हैं. जो उन परिवारों  से संपर्क  करते हैं, जिनके पिता या परिवार का मुखिया, अपराधी थे और मारे गए.  चैरिटेबल और्गनाइजेशन से मिले लोन और डोनेशन पर 'रास्ता' अपने लक्ष्य को अंजाम देती है. किसी को आर्थिक मदद, किसी को कैमरा या  सिलाई मशीन दी जाती है. बार डांसर्स को मेहन्दी लगाने या ब्यूटी पार्लर की ट्रेनिंग दी जाती है, जिस से वे कोई सम्मानजनक पेशा अपना सकें. एक 'बार डांसर' की उन्नीस वर्षीया  बेटी बताती है कि उसके पास भी अपनी माँ का पेशा अपनाने के सिवा कोई चारा नहीं था. पर उसके पहले ही रास्ता ने उसे सहारा  दिया और उसे सिलाई की ट्रेनिंग दी  और एक सिलाई मशीन उपलब्ध करवाई. आज उसकी टेलरिंग शॉप में बार डांसर का पेशा छोड़, तीन और लडकियाँ काम कर रही हैं.


गेटवे ऑफ इण्डिया पर टूरिस्ट का फोटो खींचता एक स्मार्ट सा लड़का, एक अपराधी का बेटा है और खुद भी चेन स्नैचर बन गया था. अब फोटोग्राफर का काम करता है और गर्व से कहता है, " सारंग सर ने मुझे ये कैमरा देकर एक इज्ज़त की ज़िन्दगी बख्शी है " वह  500 से 1000 रुपये रोज कमाता है. जो 'चेन खींचने'  वाले दिनों की तुलना में काफी कम है. पर कहता है.." पैसे कम हैं, पर दिन रात पुलिस का डर तो नहीं है"


सुनील परसकर जो अब Anti-Narcotics cell,  के हेड हैं, 'रास्ता' के प्रयासों की सराहना करते हुए कहते हैं, "अक्सर इन अपराधियों के बच्चे को समाज स्वीकार नहीं करता और वे भी उसी अपराध की दुनिया में धकेल दिए जाते हैं, जिसमे उसके माता-पिता जीते थे और मारे गए." अक्सर ये बच्चे बड़े अपराधकर्मियों  द्वारा ट्रेंड किए जाते हैं और अंडरवर्ल्ड  के लिए काम करने को तैयार किए जाते हैं. बहुत जरूरी है कि  इन्हें सही समय पर उस  दुनिया में जाने से रोक लिया जाए."


गेटवे ऑफ इण्डिया पर फोटोग्राफर जो कभी चेन स्नैचर था
'रास्ता' सिर्फ सारंग के पिता द्वारा मारे गए, क्रिमिनल्स के बच्चों  को ही सहारा नहीं देती, बल्कि पुलिस एन्काउन्टर  में मारे गए किसी भी अपराधी के बच्चे को अपना जीवन पुनः प्रारम्भ करने का प्रयत्न करने में सहायता देती है..

सारंग कहते हैं ," किसी भी व्यक्ति  को एक अपराधी करार देना बहुत आसान है पर उसके लिए इस छवि से छुटकारा पाकर सामान्य  जीवन जीना बहुत ही मुश्किल है."


(लिखते वक्त लगा, टी.वी. वाले प्रकरण  का जिक्र दूसरी  पोस्ट  में  होना चाहिए, )

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