अक्सर कई ब्लोग्स पर देखा है और मुंबई ब्लॉगर्स मीट में एक साथी ब्लॉगर ने भी बताया कि वे अक्सर इमेल में आये अच्छे विचारों या बोध कथाओं या चुटकुलों का हिंदी रूपांतरण कर अपने ब्लॉग पर पोस्ट कर देते हैं. मुझे भी एक ख़याल आया पर यहाँ स्थिति थोड़ी सी अलग थी.. एक घटना हुई और करीब साल भर बाद ,ठीक उस से मिलता जुलता एक मेल मेरे पास आया.और देख सुखद आश्चर्य हुआ...कहने को देश,भाषा संस्कृति सब अलग हैं...पर पूरे विश्व में मनुष्य की संवेदनाएं एक जैसी ही हैं.पहले घटना का जिक्र करती हूँ फिर इमेल का.
कुछ साल पहले की घटना है.मेरे छोटे बेटे कनिष्क के स्कूल में फुटबाल टूर्नामेंट्स शुरू हो गए थे.पर इस बार मुझे थोड़ी राहत थी क्यूंकि पास में ही रहने वाली मेरी सहेली का बेटा भी फ़ुटबाल टीम में शामिल हो गया था.और हमने तय किया कि मैच ख़त्म होने के बाद ये दोनों बच्चे एक साथ ऑटो से आ सकते हैं.वरना मुझे ही लेने जाना पड़ता था.हमने आपस में बात करके दोनों को ५०-५० रुपये दे दिए थे.ताकि मन हो तो कुछ खा लेँ.वैसे हम टिफिन तैयार करके देते थे.पर घर का बना, कब भाता है,बच्चों को.
दिन में ३ बजे के करीब इनलोगों ने फोन किया कि हम मैच खेल कर स्कूल पहुँच गए हैं और अब ऑटो से घर आ रहें हैं.हमने जल्दी जल्दी खाना गर्म किया कि बच्चे भूखें होंगे.देर हो रही थी,पर यही सोचा कि शायद ऑटो नहीं मिल रहा होगा. बेटे ने घर में कदम रखा और जब मैंने कहा जल्दी से नहा कर कपड़े बदलो और खाना खा लो तो उसने बोला,'मैं तो अभी अभी CCD (Coffee Cafe Day ) में खा कर आ रहा हूँ". CCD मेरे घर से चार कदम की दूरी पर है और वहाँ से चार कदम पर मेरी सहेली का घर.मैंने आश्चर्य से पूछा,'यहाँ आ कर खाया तुमलोगों ने??"...अब कनिष्क चुप. दरअसल पहली बार अकेले आने का मौका मिला.पास में पैसे भी थे.और मैच ख़तम होते ही कोच ने स्कूल बस में बिठा दिया.इन्हें पैसे खर्च करने का मौका ही नहीं मिला. जाहिर है मुझे गुस्सा आना ही था और उसे जम कर डांट पड़ी.तभी मेरी सहेली का भी फ़ोन आया,'सुना रश्मि ,क्या किया इन दोनों ने?"..थोड़ी देर हम फ़ोन पर ही इनकी शैतानी का जिक्र करते रहें फिर फ़ोन रख कर अपने अपने बेटे की तरफ मुखातिब हो गए,डांटने को.
थोड़ी देर बाद जब वह फ्रेश हो कर आया तब मैंने पूछा,'तुमलोगों ने CCD में खाया क्या?" क्यूंकि वहाँ तो एक कॉफ़ी ही ६५ रुपये की मिलती है.और इनके पास ज्यादा पैसे तो थे नहीं.धूल धूसरित दोनों को CCD वालों ने अन्दर ही कैसे आने दिया ,यही आश्चर्य था.पर ऐसी जगहों पर आपने टूटी चप्पल या फटे कपड़े पहने हों कोई फर्क नहीं पड़ता अगर आपको अच्छी अंग्रेजी आती हो.कनिष्क ने बताया २० रुपये ऑटो में देने के बाद इनके पास ८० रुपये बचे थे.ये लोग 'मेन्यु कार्ड' गौर से पढ़ रहें थे और कुछ इनकी जेब के लायक मिल ही नहीं रहा था.तब एक वेटर ने पास आकर पूछा,'आपलोगों का बजट क्या है?' इनके बताने पर उसने सलाह दी या तो ४० रुपये की पेस्ट्री ले लो या ३५ रुपये का सैंडविच.मैंने पूछा,'हम्म तो तुमलोगों ने पेस्ट्री ली होगी.'क्यूंकि सैंडविच तो ये दोनों घर में भी खाना पसंद नहीं करते.कनिष्क ने बताया ,'नहीं हम लोगों ने सैंडविच लिया. क्यूंकि फिर वेटर को टिप देने के पैसे कहाँ से बचते और उसने हमारी इतनी मदद की थी.इसलिए दस रुपये हमने टिप में दे दिए"

दुनिया के किसी कोने में हो सारे बच्चों के दिल यकसाँ होते हैं.धीरे धीरे वक़्त की धूप उन्हें मजहब,देश,रंग की लकीरें खींचना सीखा देती है.और बंद कर देती है, उन दिलों को अलग कटघरों में. निर्मल साफ़ पानी सा होता है,इनका मन ...और इनमे तरह तरह के विचारों को धोकर इसे कितना प्रदूषित कर देते हैं हम.
कहीं पढ़ा एक शेर याद आ रहा है,
"बच्चो के छोटे हाथो को चांद सितारे छूने दो
चार किताबे पढ़ लिख कर ये भी , हम जैसे हो जायेंगे"