शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

पेंटिंग की बदौलत मिले कुछ यादगार पल..

पिछली पोस्ट में पेंटिंग का जिक्र था और कई लोगों ने सलाह दी...कि पेंटिंग को यूँ दरकिनार नहीं करना चाहिए.,उसे भी जारी रखूं. खैर मन में तो चलता ही रहता है कि 'हाँ ,पेंटिंग करनी है'. और पेंटिंग  ने कई यादगार क्षण भी दिए हैं...उसे कैसे भूल  सकती हूँ. एक तो, जब मैं एक पेंटिंग  में फ्रेम लगवाने गयी थी तो SNDT कॉलेज की प्रिंसिपल भी उसी आर्ट गैलरी में एक पेंटिंग खरीदने आई थीं. उन्हें मेरी पेंटिंग अच्छी लगी और उन्होंने  SNDT कॉलेज में  वोकेशनल कोर्सेस में पेंटिंग सिखाने का ऑफर दे दिया. पर मेरा बड़ा बेटा दसवीं में था, सो वो ऑफर नहीं स्वीकार कर  पायी. पेंटिंग की वजह से एक और दूसरा बहुत ही रोचक अनुभव हुआ.

मैने ये  संस्मरण कभी लिखने की नहीं सोची थी फिर एक बार प्रवीण पाण्डेय जी के ब्लॉग पर किसी का कमेन्ट पढ़ा कि "आप कहीं विशेष अतिथि बन कर जाते हैं..वह संस्मरण भी उसी सहजता से लिख देते हैं." उसके बाद ही मैने सोचा, इसमें आत्मविमुग्धता  जैसी कोई बात नहीं है...और शेयर की जा सकती है.

हमारी सोसायटी में ' डौन बास्को' स्कूल की एक टीचर रहती हैं. कभी कभी सोसायटी के  काम से मेरे घर पर  आती रहती थीं. बाहर मिल जातीं, दो चार बातें हो जातीं. बस, इस से ज्यादा परिचय नहीं था. एक दिन घर पर आई और बोलीं,  ' डौन बास्को' स्कूल के पचास साल पूरे होने पर कई सारे समारोह आयोजित किए जा रहें हैं. उसमे से " ट्रेडिशनल ड्रेस कम्पीटीशन' में आपको जज के रूप में बुलाना चाहती हूँ " तब ,पता चला  वे मेरी पेंटिंग्स से बड़ी प्रभावित थीं. पर मैने पूछ डाला, "मुझे क्यूँ.?.मुझे तो कोई अनुभव नहीं " तो कहने लगीं, " आप पेंटिंग करती हैं,आपको कला की समझ (?) है " . मैने थोड़ी देर सोचा...और फिर यह सोचकर हाँ कर दी कि ऐसे  मौके बार-बार नहीं मिलते"

फिर कुछ दिनों बाद वो स्कूल डायरेक्टर की तरफ से 'निमंत्रण पत्र ' लेकर आयीं और कहा कि कुछ पंक्तियों में अपना परिचय लिख कर दे दें . परिचय में तारीफ़ ही होती है. अब खुद से कैसे लिखूं? बड़ी मुसीबत थी. उन्होंने हंस कर कहा ,"आस्क योर हसबैंड टु  राइट " अब ये तो और बड़ा रिस्क. कही वे अपने मन की भड़ास निकाल दें तो?  उनसे भी कह दिया. वे हंसती हुई चली गयीं. खैर पतिदेव  तो अपनी व्यस्तता में इस सुनहरे अवसर से वंचित रह गए.

बेटे को कहा तो उसने उन पंक्तियों में अपना सारा अंग्रेजी ज्ञान उंडेल दिया. जैसे सुननेवाले ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर्स  हों. उसे भाषण दे ही रही थी कि 'भारी भरकम शब्दों के प्रयोग को अच्छा लेखन नहीं कहते'..आदि आदि. बोल भी रही थी और अंदर से डर भी लग रहा था कि अभी कह देगा, "मैं नहीं लिखता " (पर एक बार भाषण मोड में चले जाओ..तो निकलना कितना मुश्किल है?..सब वाकिफ  होंगे :)).

तभी मेरे छोटे भाई का फोन आ गया. और मैने उस पर ये भार डाल  दिया कि तुम लिखकर भेज दो. उसने भी आनकानी की पर बड़ी बहन का आदेश मानना पड़ा और सहज शब्दों में उसने तीन sms में लिख कर भेज दिया. जिसे तुरंत  कॉपी कर, बेटा उन टीचर को दे आया.

अब  दूसरी परेशानी थी पोशाक कौन सी पहनी जाए? ये हम महिलाओं  के साथ बड़ी मुसीबत है.(सारी महिलाएं,मेरा दर्द समझती होंगी)  शाम पांच बजे का फंक्शन था और एक स्कूल में था, इसलिए साड़ी ही चुनी. जो बहुत सादी भी ना हो और तड़क-भड़क वाली  भी ना हो. घर की हल्की रोशनी में तो ठीक ही लग रहा था पर जब बाहर निकली तो चार बजे की धूप में बेतरह कॉन्शस हो उठी. इतनी धूप में कभी इतना तैयार होकर निकली ही नहीं. स्कूल में जाकर उन टीचर को ढूँढने के बाद पहला सवाल यही किया..." मैं कहीं overdressed तो नहीं लग रही?" उन्होंने आश्वस्त किया..."नो.. नो यू आर लुकिंग वेरी प्रिटी"( दरअसल ऐसे सवाल का हमेशा, यही जबाब होता है :) ) फिर जब बाकी टीचर्स को देखा तो पाया वे सब तो ऐसे सजी धजी थीं मानो किसी फैशन शो में आई हों "
हमें एक कॉन्फ्रेंस रूम में बिठाया गया.  बाकी दो जज भी आ गई थीं. एक किसी  कॉलेज की प्रिंसिपल थीं और दूसरी जे.जे आर्ट कॉलेज की एक लेक्चरर. मैं ही बस एक एमेच्योर पेंटर थी उनके बीच. दो PTA मेम्बर्स को हमारी देखभाल  के लिए सुपुर्द कर दिया गया. जो हमारी तरह ही किसी स्टुडेंट  की माँ  थीं.  वे हर तरह से हमारा पूरा ख़याल  रख रही थीं. बीच-बीच में टीचर्स आकर हमें नियम समझा जातीं कि इतने कॉलम्स बने हुए  हैं..' आत्मविश्वास, परिधान, जेवर , स्टेज प्रेसेंस वगैरह. उन कॉलम्स में ही नंबर देने होंगे. मैं सोच रही थी ,अपने बच्चों के स्कूल में तो कुछ पूछने को हमें टीचर के पीछे - पीछे  घूमना पड़ता है. आज पासा पलटा हुआ सा लग रहा है. PTA मेम्बर्स ने  चाय-बिस्किट भी मंगवाई...शाम का वक्त था, कंपनी भी अच्छी थी...मूड भी था फिर भी मैने चाय नहीं पी. क्यूँ नहीं पी??....एनी गेस?? चलिए ,अब ब्लॉग पर तो मन की बातें लिखनी होती हैं,इसलिए बता ही देती हूँ.."लिपस्टिक खराब ना हो जाए इस डर से :)..सोचा, अभी तो फंक्शन शुरू भी नहीं हुआ. सारी मेहनत बेकार हो जाएगी :)" बाकी दोनों में से भी एक ने कहा ,'एसिडिटी' है और दूसरी ने कहा.."पी कर आई हूँ " सच तो वहीँ जाने,शायद वजह वही हो जो मेरी थी. बस हम मिस इण्डिया स्टाईल में बिस्किट  कुतरते रहें.

फिर हमारी ग्रैंड एंट्री हुई, प्रिंसिपल,डायरेक्टर और मुख्य अतिथि के साथ.(मुख्य अतिथि एक  मंत्री थे ) . रेड कारपेट पर आगे  दोनों  किनारों पर बच्चे लेजियम बजाते हुए चल रहें थे (महाराष्ट्र में किसी का स्वागत
(दो साल तक मेरे बेटे ने भी दूसरों के स्वागत में लेजियम किया है )
लेजियम से ही किया जाता है ) . ओपन एयर में प्रोग्राम थे. दोनों तरफ फील्ड में लोग खचाखच भरे हुए थे .
मैने यूँ ही नज़र घुमाई और देखा, मेरी पास वाली  बिल्डिंग में रहने वाली  मारिया का मुहँ आश्चर्य से खुला हुआ है. वो समझ ही नहीं पा रही थी, "मैं कैसे वहाँ पहुँच गयी?"

दीप जलाने, मुख्य अतिथि के दो शब्द के बाद प्रोग्राम शुरू हुआ और अगली मुसीबत....जज में सबसे पहले मुझे ही बुलाया गया. परिचय पढ़ कर छोटा सा बुके दिया गया. अब मैं समझ नहीं पा रही थी दर्शकों का अभिवादन कैसे करूँ.? दीपिका पादुकोने  की तरह हाथ हिलाकर या झुक कर नमस्ते कर के. फिर नमस्ते ही की . और हमें अपनी कुर्सी तक ले जाया गया. इतनी निराशा हुई. स्टेज के सामने तीन कुर्सी-मेज अलग अलग रखे हुए थे. और हम सोच रहें थे कि टी.वी. प्रोग्राम की तरह तीनो जज एकसाथ बैठेंगे और हंसी-मजाक करते हुए अच्छा समय कट जायेगा. उसपर टीचर्स ने आकर सूचना दी कि खुला निमंत्रण होने से इतने प्रतियोगी आ गए हैं कि तीन राउंड करने पड़ेंगे.

सारे बच्चे देश के अलग-अलग राज्यों के परिधान में इतने सुन्दर लग रहें थे कि किसे ज्यादा नंबर दें,किसे कम. बहुत ही कठिन काम था ये. देख कर गर्व हो रहा था,अपने देश पर, इतनी विविधता है, हमारे  यहाँ. कोई कश्मीरी ड्रेस में था तो कोई राजस्थानी. पंजाबी, मराठी, बंगाली, हर राज्य के पारंपरिक परिधानो में सजे हुए थे बच्चे. आजकल किराए पर पोशाक और जेवरात दोनों मिलते हैं और इतने परफेक्ट होते हैं वे, कि एक नम्बर भी काटना मुश्किल. मैने आत्मविश्वास और स्टेज प्रेजेंस पर ही ध्यान  दिया.करीब  डेढ़  घंटे तक तो हमने सर नहीं उठाया. पर हमसे ज्यादा मुसीबत उन टीचर्स की थी..वो एक शीट पूरी होते ही ले जातीं और तीनो जजों द्वारा दिए नंबर, जोड़ने में लग जातीं. पहला राउंड ख़त्म हुआ तो कुछ नृत्य-संगीत का कार्यक्रम शुरू हुआ. मुझे हमेशा से ही ऐसे प्रोग्राम पसंद हैं. पर उस दिन तो वे मजा से ज्यादा सजा लग रहें थे. मुझे लगा था आठ बजे तक प्रोग्राम ख़त्म हो जाएगा . घर पर खाने का भी कुछ इंतज़ाम नहीं किया था और पता था 'थ्री मेन इन माइ हाउस...खुद से कोई उपक्रम नहीं करेंगे" इतने शोर में फोन करना भी  मुश्किल था,.शुक्र है बेटे को कुछ ही दिन पहले मोबाइल दिलवाई थी. उसे मेसेज किया कि बाहर से खाना ऑर्डर कर लो और जबाब आया, "डोंट वरी...वी विल मैनेज..यू एन्जॉय" .थोड़ी देर स्क्रीन घूरती रही, "वी विल मैनेज' यानि कि अब बच्चे बड़े हो  गए हैं...और अब मुझे 'यू एन्जॉय' भी कह सकते हैं.

दूसरा राउंड ख़त्म होने के बाद कुछ और गीत संगीत हुए. मैं बुरी तरह बोर हो रही थी. मेरी सहेली की कजिन उसी स्कूल में टीचर थीं. मैं उनसे मिल चुकी थी. सोचा उन्हें बुला कर थोड़ा गप्पे मारती हूँ. उन्हें sms किया .वे तुरंत  मिलने आ गयीं. मैं उन्हें देखते ही ख़ुशी से खड़ी हो गयी. तो उन्होंने धीरे से फुसफुसा कर, बिलकुल टीचर वाले  अंदाज़ में कहा.."प्लीज़ सिट ..यू आर अवर  गेस्ट हियर" और जब बैठने लगी तो पता नहीं कैसे कुर्सी उलट गयी और मैं गिर गयी. जल्दी से कुरसी सीधा कर वापस बैठ गयी. सोचा सबकी नज़रें तो स्टेज पर जमी हैं, किसी ने नहीं देखा होगा. वे भी दो मिनट में चली गयीं. कहने लगीं, "रुकुंगी, तो  सब समझेंगे , मैं किसी की सिफारिश करने आई हूँ."

 कुछ और गीत-संगीत और फिर फाइनल राउंड. पीठ  अकड़ गयी थी, बिलकुल. सोचा चलो अब निजात मिली. लेकिन नहीं, उनलोगों ने कहा, प्राइज़ भी जज के हाथों ही दिलवाएंगे. प्रोग्राम ख़त्म होते और प्राइज़ देते ,रात के ग्यारह बज गए.

दूसरे दिन से ही आस-पास के कई लोग   मिलने पर कहते  , "आपको उस प्रोग्राम में देखा था " मैं कहती, "हाँ एंट्री के समय देखा होगा " तो वे कहते ," नहीं बड़ी सी स्क्रीन लगी थी ,ना तो बार-बार जज लोगों पर भी फोकस कर रहें थे." अब ये बात तो मुझे पता ही नहीं थी. मैं सोचती रह जाती, " मैं बोरियत में ,पता नहीं ,कैसे कैसे मुहँ बना रही थी...सब देखा होगा लोगों ने...और अगर बदकिस्मती से उस समय कैमरा मेरी तरफ होगा तो फिर शायद कुर्सी से गिरते भी जरूर देख लिया होगा,  " आज भी सोच रही हूँ.:(

33 टिप्‍पणियां:

  1. परिचय में तारीफ़ ही होती है. अब खुद से कैसे लिखूं? बड़ी मुसीबत थी. उन्होंने हंस कर कहा ,"आस्क योर हसबैंड टु राइट " अब ये तो और बड़ा रिस्क. कही वे अपने मन की भड़ास निकाल दें तो?
    ये खूब रही रश्मि जी...आपकी पोस्ट पढ़कर अलग ही आनन्द आता है...
    हर बिन्दू को इतनी गहराई से प्रस्तुत करना आपकी प्रतिभा का खुला प्रमाण है... बधाई.

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  3. दीदी ,
    बातें दिल को छू गयी हैं
    जिसे आपने आपने ही अंदाज़ में पेश किया है ....शुक्रिया

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  4. हर अन्दाज़ निराला क्या कहें ? बहुत बहुत बधाई शुभकामनायें।

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  5. मैं कहीं overdressed तो नहीं लग रही?" उन्होंने आश्वस्त किया..."नो.. नो यू आर लुकिंग वेरी प्रिटी"( दरअसल ऐसे सवाल का हमेशा, यही जबाब होता है :) )

    पूछते ही इसलिए हैं :):)

    अब ब्लॉग पर तो मन की बातें लिखनी होती हैं,इसलिए बता ही देती हूँ.."लिपस्टिक खराब ना हो जाए इस डर से :).

    ओह, कितनी मजबूरी है यह भी ...:):)

    और अगर बदकिस्मती से उस समय कैमरा मेरी तरफ होगा तो फिर शायद कुर्सी से गिरते भी जरूर देख लिया होगा, " आज भी सोच रही हूँ.:(

    अब :( यह सूरत बनाने से क्या फायदा ?

    संस्मरण बहुत अच्छे से लिखा है ...साधारण से साधारण बात में भी ताज़गी भर देती हो ...अच्छी प्रस्तुति

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  6. बहुत रोचक संस्मरण है और बहुत ही हल्के फुल्के मूड में।

    दीपिका की तरह हाथ हिलाना या नमस्ते में काफी बेहतरीन ह्यूमर पेश किया है आपने।

    शानदार पोस्ट।

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  7. सच रश्मिजी आज तो आनन्द ही आ गया बहुत ही रोचकता के साथ लिखा गया संस्मरण |
    ऐसे ही जज बनती रहिये और अपने अनुभवो हमसे बाँटिये \
    शुभकामनाये |

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  8. बहुत दिनों बाद इतना ताज़गी भरा कोई संस्मरण पढ़ा है कि खुद ब खुद एक बड़ी सी मुस्कुराहट चेहरे पर फ़ैल गयी है ! बहुत ही आनंद आया इसे पढ़ कर ! आप हर बात में प्राण फूंक कर उसे जीवंत बना देती हैं ! इसी तरह लिखती रहें ! आपके आलेखों की बड़ी शिद्दत से प्रतीक्षा रहती है !

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  9. यह संस्‍मरण मन को स्‍फूर्तिमय बना गया। इसमें प्रत्यक्ष अनुभव की बात की गई है, इसलिए सारे शब्द अर्थवान हो उठे हैं।

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  10. अनुभव प्रस्तुतीकरण रोचक और कलात्मक लगा.. :) इसीलिए आपको जज चुना.. स्कूल वालों का सही निर्णय..

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  11. छोटी छोटी चुटकियों ने गज़ब की जीवन्तता ला दी है.वैसे उस समय जो चाय न पीने की वजह बनी शायद आज न बनती आजकल स्पेशल लिपस्टिक जो आती है जो चाय पीने से छूटती नहीं.:) अगली बार जज बने तो वही लगा कर जाइयेगा...
    बेहद रोचक संस्मरण...आपको ऐसे मौके मिलते रहें..

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  12. @शिखा,
    मुझे लग रहा था कोई ना कोई ये बात जरूर कहेगा...(.अब हमलोग कितनी महिलाओं वाली बातें करें ..सब हसेंगे, पर कहना भी जरूरी है ) मिलती तो उस वक्त भी थीं..बस दो साल पहले की घटना है....पर मुझे उनके शेड्स नहीं पसंद आते, आज भी :)

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  13. rochak aur sadgi se paripurn is arth me ki apne mann ki baat bhi aapne likha....

    bahut badhiya...

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  14. हा हा! मस्त संस्मरण रहा...जरुर देखा होगा कुर्सी से गिरते भी..ऐसे समय में कैमरा जरुर आ गया होगा. :)

    परेशानी थी पोशाक कौन सी पहनी जाए? ये हम महिलाओं के साथ बड़ी मुसीबत है.(सारी महिलाएं,मेरा दर्द समझती होंगी)

    (महिला से ज्यादा दुनिया भर के पति इसे समझते हैं)

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  15. @ समीर जी,
    आपको तो बड़ा मजा आ गया ,ना..सोच रहें होंगे, मैं क्यूँ नहीं था वहाँ...

    और पतियों की पोशाक चयन में मदद से ज्यादा मुसीबत तो ये है कि बाद में मन मार कर कहना पड़ता है, "बड़ी अच्छी लग रही हो.." जबकि मन में पता नहीं क्या..क्या..क्या....infinite... बोलते हों

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  16. रश्मि जी ,
    पोस्ट पढते वक्त चेहरे पर तनाव शेष ना रहे तो इसका क्रेडिट ब्लागर को मिलना ही चाहिए :)
    संस्मरण को लाइव कमेंट्री की शक्ल में पेश कर पाना भी आपकी एक उपलब्धि मान रहा हूं :)

    मामला पेंटिंग का हो या ड्रेसिंग का , सौंदर्यबोध ज़रुरी है उन्होंने आपको चुना सही किया ! शुक्र है ,परिचय लिखाने के लिए आपके पास कई विकल्प थे :)
    कौन सी पोशाक पहनी जाये वाला दर्द ज्यादातर पति भी समझते हैं सो मैं भी :)
    बेचारी मारिया ...पड़ोसी हमेशा चिराग तले अन्धेरा ही ढूंढते हैं :)
    आगे के प्रोग्राम्स खुद मैंने भी कई बार भुगते हैं सो आपकी पीड़ा समझ सकता हूं बस कुर्सी से गिरने और कैमरे के द्वारा देख लेने का संकट कभी नहीं आया :(

    पोस्ट की सबसे खास बात ये लगी कि आप अपने 'आस पास' की घटनाओं के प्रति सजग हैं और अपने आब्जर्वेशन्स को इंज्वाय भी कर पा रही हैं !

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  17. मुख्य अतिथि के स्थान पर बैठकर घटनाओं को देखना एक नया रंग लेकर आता है। वह सतरंगी इन्द्रधनुष देखने को मिला आपके संस्मरण में। आनन्द आ गया हर पंक्ति के साथ।

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  18. बहुत अच्‍छा लगा यह संस्‍मरण पढना .. आपका लिखने का स्‍टाइल निराला है .. दिल को छू गयी एक एक पंक्तियां !!

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  19. बहुत अच्छा संस्मरण है... आपके ब्लॉग पर आना अच्छा लगता है...शुभकामनाएं...

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  20. जबरदस्त जज ! जज कभी बोर भी होते हैं..

    खैर चलो आज तो हमें पता चल ही गया चाय न पीने का राज...

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  21. रश्मि जी, इसी बहाने आपके व्‍यक्तित्‍व के कुछ अनछुए पहले भी जानने को मिले। बधाई।

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  22. वाह दी, बड़ा मज़ा आया. आप संस्मरण तो गजब लिखती ही हैं. इस बार छोटी-छोटी लाइनों में हास्य का पुट गजब था--

    पर एक बार भाषण मोड में चले जाओ..तो निकलना कितना मुश्किल है?..सब वाकिफ होंगे
    -दरअसल ऐसे सवाल का हमेशा, यही जबाब होता है
    -...लिपस्टिक खराब ना हो जाए इस डर से
    -...पता था 'थ्री मेन इन माइ हाउस...खुद से कोई उपक्रम नहीं करेंगे"
    -थोड़ी देर स्क्रीन घूरती रही, "वी विल मैनेज' यानि कि अब बच्चे बड़े हो गए हैं...और अब मुझे 'यू एन्जॉय' भी कह सकते हैं.

    और आपकी सोसायटी और उसके आसपास तो आपकी खूब धाक जम गयी होगी... नहीं?
    -मैने यूँ ही नज़र घुमाई और देखा, मेरी पास वाली बिल्डिंग में रहने वाली मारिया का मुहँ आश्चर्य से खुला हुआ है...
    आज बड़े दिनों बाद ब्लॉग पढ़ने बैठी हूँ... जा रही हूँ आपकी कहानी पढ़ने.

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  23. ह्म्म्म...तो स्टाइल से खाने में आप भी माहिर हैं और वो भी मिस इंडिया स्टाइल..और लिपस्टिक की भी फ़िक्र रहती है......वाट ए को-इनसीडेंस ..हा हा :)

    क्या मस्त संस्मरण लिखा है आपने...मजा आ गया..कल से वक्त सही से नहीं मिल रहा था पोस्ट पढ़ने को...अभी पढ़ा :)

    और अगली बार से ध्यान से बैठा कीजिये कुर्सी पे...हद है :)

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  24. इस मामले में तो हम बचे हैं अभी तक.. बिहारियों को वैसे भी कोई जज बनाने के लायक समझता नहीं.. लेकिन आपने जो वृत्तांत लिखा है अगर इतनी परेशानी होती है एक जज बनने में तो.. तोबा कर ली इस जजगीरी से...
    मगर आपने जो स्वगत सम्वाद बताए वो ज़्यादा मज़ा देते हैं... वहाँ लगा हुआ वाईडस्क्रीन आपकी उबासियाँ, कुर्सी से लुढकना वगैरह तो दिखा सकता है मगर आप्के ख़ुद से बोले गए वो सम्वाद, हमारे लिए एक्स्क्ल्यूसिव हो गए! रश्मि जी, मज़ा आया पढकर!! ख़ुद को वहाँ हों जैसा लगा!!

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  25. बढिया संस्मरण. मुझे अपने "जजीय-संस्मरण" याद
    आ गये :). तुम गिरीं, तब किस-किस ने देखा? hehehehe.... मज़ा आया पढ के.

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  26. नमस्ते दीदी।
    मजेदार पोस्ट रही। दीपिका की फैन हो आप? या यूं ही किसी एक्सट्रैस को सिंबोलिक प्रस्तुत किया। बाकि जज बनना आसान नहीं है। आपको दस में से नौ नंबर मिलेंगे। मैंने एक नंबर चेयर मिस्टेक का काट लिया है। प्लीज डोंट एंग्री।

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  27. रोचक अंदाज में बेफिक्री और ईमानदारी से लिखा है तुमने ...
    संगीता जी ने सही कहा , " हम पूछते इसलिए ही हैं कि कोई तारीफ़ कर दे " :):)
    जरा जल्दी में छोटा कमेन्ट लिखा है ...बुरा मत मान जाना ...:)

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  28. बहुत रोचक संस्मरण है और बहुत ही हल्के फुल्के मूड में।

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  29. are is mast aalekh ko maine padha tha, likha bhi tha ... jane kaha wo comments gaya ji

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  30. lekhan shailee aisee thee kee aankho dekha sa lag raha hai .sabhee jo ghata jeevant ho gaya hai........
    kya pahine ye samsya to har naree ko bhoganee hee padtee hai...........
    mazedar sansmran...........

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  31. यह पेंटिंग की रंग-मयता बनी रहनी चाहिए ! आपके लेखन में तो रंग बिखरे ही हैं !

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