सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

पिता का स्नेह भरा साथ कितना जरूरी...

   इसे कोई उपदेशात्मक पोस्ट ना समझ लीजियेगा....बस एक अच्छा आलेख पढ़ा तो हमेशा की तरह शेयर करने की इच्छा हो आई...और यह मौजूं भी था क्यूंकि विषय मेरी पिछली पोस्ट से मिलता-जुलता है.

पिछली पोस्ट में  मैने घरेलू हिंसा पर  बात की थी. उसका सबसे ज्यादा प्रभाव बच्चों पर पड़ता है. खासकर लड़कों पर क्यूंकि उनके  सबकॉन्शस में ही यह बात बैठ जाती है कि ऐसे सिचुएशन में इसी तरह रीएक्ट करना है. और पिता अपनी ज़िन्दगी के साथ साथ अपने बेटे की ज़िन्दगी को भी खुशहाल बनाने का रास्ता बंद  कर देता है क्यूंकि दुनिया तेजी से बदल  रही है...हमसे दो पीढ़ी पहले की  औरतें पति को परमेश्वर मानती थीं और पति द्वारा किए गए ऐसे व्यवहार को सर-माथे लेती थीं. उसके बाद की पीढ़ी समझने लगी थी कि ये गलत है फिर भी प्रतिकार नहीं  कर पाती थी. आज की पीढ़ी इसे बिलकुल गलत मानती है फिर भी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर ना होने के कारण यह पशुवत व्यवहार सहने को मजबूर हो जाती है लेकिन आनेवाली पीढियाँ , ना तो आर्थिक रूप से निर्भर होंगी किसी पर और ना ही चुपचाप ऐसा व्यवहार सहेंगी.इसलिए अनजाने में ही वैसे पिता ,अपने बेटे की ज़िन्दगी में भी कांटे बो रहें हैं.

शनिवार के बॉम्बे टाइम्स में छपे एक आलेख में, लिखा है कि अधिकांशतः बच्चे के पालन-पोषण में उसके माँ का हाथ होने की बात कही  जाती है परन्तु हाल में ही कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी के एक मनोवैज्ञानिक Melanie Mallers ने एक सर्वेक्षण किया कि बेटे के चरित्र निर्माण में पिता की कितनी भूमिका होती है. Mallers ने कहा ,"हमारे सर्वेक्षण से यह बात पता चली कि बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य मेंटल  हेल्थ) पर पिता की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण और प्रभावी होती है"
जिन पिताओं का अपने बेटे के साथ स्वस्थ और प्यार भरा रिश्ता होता है वे जीवन के संकटमय स्थिति  को ज्यादा अच्छी तरह हैंडल  कर सकते हैं.....जिनके रिश्ते में दूरी होती है. वे ऐसी परिस्थिति में बिखर जाते हैं.और कुशलतापूर्वक उस स्थिति का सामना नहीं कर पाते."

डॉक्टर बरखा चुलानी क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट  भी कहती हैं कि बेटे हमेशा पिता की नक़ल करना चाहते हैं.पिता जितना ही स्नेहमय होंगे, उनके बेटे का  जीवन उतना ही शांतिपूर्ण होगा और वे भी अपने बच्चे के साथ वैसा ही स्नेहभरा व्यवहार रखेंगे.

पिता से बेटे के रिश्ते का प्रभाव उसके इमोशनल प्रोग्रेस पर पड़ता  है. प्रसिद्द मनोवैज्ञानिक सीमा हिंगोरानी का कहना है ,पिता का प्यार भरा व्यवहार, उन्हें इमोशनली स्ट्रौंग बनता है और दूसरों से उनके रिश्ते बनाने की प्रक्रिया पर बहुत असर डालता है. एक अच्छे मानसिक विकास के लिए पिता के साथ सुन्दर रिश्ता बहुत जरूरी  है" छोटे लड़के हर बात में अपने पिता की  नक़ल करते हैं, शेव बनाने से लेकर, अखबार पढने के अंदाज तक और अनजाने ही वे उसके सारे गुण- अवगुण आत्मसात करते जाते हैं.

यह बात मैं अपने अनुभव से कह  सकती हूँ, मेरे पति की  एक अच्छी आदत है  (बस एक ही..so sad :(  ) वे खाना खा कर अपनी प्लेट जरूर उठा कर सिंक में रख  देते हैं. मुझे अपने दोनों बेटों को एक बार भी यह नहीं कहना  पड़ा. बल्कि जब वे बहुत छोटे थे, उनके हाथों  से जबरदस्ती प्लेट  ले लेनी पड़ती थी  कि कहीं गिरा ना दें. लेकिन वही गीले टॉवेल बिस्तर, कुर्सी कहीं पर भी छोड़ जाने की  आदत भी पिता से ही ग्रहण कर ली है.चाहे मैं ३६५ दिन में दो बार चिल्लाऊं. कोई असर नहीं होता :(

रोज सुबह मेरे सामने वाली  बिल्डिंग के एक फ़्लैट की बालकनी में एक बड़ा ही प्यारा दृश्य देखने  को मिलता है. एक युवक ने कपड़े फैलाने की जिम्मेवारी अपने ऊपर ले ली है. उसका दो साल का बेटा भी साथ लगा होता है. उसे उसके पिता "विंडो सिल' पे खड़ा  कर देते हैं और वह भी अपने छोटे-छोटे हाथों से मोज़े, रुमाल फैलाने में अपने पिता की मदद करता है. उनकी पत्नी नौकरीपेशा नहीं है फिर भी सोचते  होंगे, ऑफिस जाने से पहले   काम का बोझ कुछ तो हल्का कर  दूँ. अब ये बच्चा जब बड़ा होगा, उसे घर के छोटे-मोटे काम में हाथ बटाने  कभी परहेज नहीं होगा. और जाहिर है ,घर वालों को ख़ुशी ही होगी.

इसलिए पिता लोगों को थोड़ा एक्स्ट्रा कॉन्शस रहना चाहिए.

अगर कोई बेटा अपने पिता से खुलकर बातें  करता है और अपनी समस्याएं शेयर करता  है तो वह अपनी किशोरावस्था में अपने भीतर आते परिवर्तनों से  अच्छी तरह डील कर सकता है.

अक्सर कठिन समय में बच्चे अपने माता-पिता की  तरफ देखते हैं. अगर वे देखते है कि पैरेंट्स , परेशानी को अच्छी तरह हैंडल  नहीं कर पा रहें. खुद पर से नियंत्रण खो दे रहें हैं तो उनकी भी प्रेशर का सामना करने की  क्षमता घट जाती है.

विशेषज्ञों  का कहना है कि अगर किसी  युवक में  डिप्रेशन, चिंता, सोशल स्किल्स की कमी पायी जाती है   तो ज्यादातर इसकी वजह उनके पिता से खराब रिश्ते होते हैं. और वहीँ एक स्वस्थ रिश्ता जो  बचपन की  मधुर यादों से भरा हो, बेटों को इमोशनली स्ट्रौंग बनता  है और जीवन की कठिन परिस्थितियों का  कुशलता से सामना करने के लिए तैयार करता है. 

इसलिए चिंता करने,, गुस्सा करने, किसी पर चिल्लाने से पहले यह देख  लीजिये  कि कहीं आपका छोटा बेटा ,आस-पास तो नहीं. पर महानगरों में बड़े होनेवाले बच्चे अपने पिता की  सूरत तक देखने  को तरस जाते हैं.वे जब सो रहें होते हैं तो पिता ऑफिस से आते हैं और जब सुबह बच्चे स्कूल जाते हैं तो पिता सो रहें होते हैं. पर वीकेंड्स में उसकी पूरी कसर निकाल  लेनी चाहिए.

 इसके पहले कि टिप्पणीकर्ता इस तरफ ध्यान दिलाएं कि यही सारी बातें माँ के साथ भी लागू होती हैं...बिलकुल स्वीकार करती हूँ... उनके भी सारे गुण-अवगुण बेटियाँ ग्रहण करती चली जाती हैं. अक्सर पिता के पास बच्चों के लिए समय नहीं होता और इसके विपरीत माँ अपने  बच्चों की ज़िन्दगी पर कुछ ज्यादा ही नियंत्रण की कोशिश करती है जिसकी वजह से कई  बार,लडकियाँ अपने पति के साथ एडजस्ट नहीं कर पातीं. छोटी से छोटी बात माँ से शेयर करती हैं और उसकी सलाह पर ही कार्य करती हैं. माताओं को भी बेटियों को पूर्ण आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश  करनी चाहिए.

इसलिए पैरेंट्स बनना कोई आसान कार्य नहीं. अपने व्यवहार के सबसे बड़े समीक्षक खुद ही होना पड़ता है. अपनी ज़िन्दगी तो जी ली (जैसी भी थी..). जब बच्चों को इस दुनिया में लेकर आए हैं तो उन्हें एक सुखमय, शांतिपूर्ण जीवन देने का वादा खुद से होना चाहिए.

52 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा आलेख लिखा है और सभी की ज़िन्दगी मे ये पल आते हैं इसलिये थोडा संभलकर चलने से बच्चों का भविष्य ही सुरक्षित होता है।

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  2. @ मेरे पति की एक अच्छी आदत है (बस एक ही..so sad :( ) वे खाना खा कर अपनी प्लेट जरूर उठा कर सिंक में रख देते हैं.
    ओह! यह अच्छी आदत में शुमार है। आपका यह पोस्ट बुक मार्क कर लिया है। अभी तो शहर से बाहर हूं, वापस लौटते ही श्रीमती जी को पढाऊंगा। कहती हैं कि मेरे में कोई भी अच्छी आदत नहीं।

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  3. सुनते आए हैं कि --मां पे पूत , पिता पे घोडा --घणा नहीं तो थोडा थोडा । :)
    लेकिन ऐसी बात नहीं है --बच्चे दोनों पेरेंट्स से सीखते हैं । हाँ , बेटा पिता से ज्यादा सीख सकता है और बेटी मां से ।
    आपने पेरेंट्स को रास्ते पर लाने के लिए सही ध्यान दिलाया है ।

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  4. पेरेंट्स बनना दुनिया का सबसे कठिन काम है ..लेख की सभी बातों से पूर्णत: सहमत.पिता की एक एक गतिविधि को बच्चे हुबहू कॉपी करने की कोशिश करते हैं.अक्सर हम बच्चों के मुंह से सुनते हैं ..पापा भी तो ऐसा ही करते हैं.
    @ "मेरे पति की एक अच्छी आदत है (बस एक ही..so sad :( ) वे खाना खा कर अपनी प्लेट जरूर उठा कर सिंक में रख देते हैं".
    काश ये अच्छी आदत सब में होती :( मुझे मेरे बच्चों को ये सिखाना पड़ा बड़ी मुश्किल से :(

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  5. चरित्र निर्माण एक सतत प्रक्रिया है। बिना मां बाप के भी बच्चे सीख लेते हैं। कोई जेनरलाइज़्ड फ़ॉर्मूला मेरी समझ से नहीं बनाया जा सकता।
    और समय तो सबके पास होता है। उसके उपयोग की बात होती है।
    हां, मां तो ..... मां की सीख और तपस्या ही बच्चों को सफलता के सोपान तक पहुंचाती है। अपने अनुभवों और बच्चों के प्राकृतिक गुण और रुझान को देखकर वह कैरियर के लिए सही दिशा दे सकती है। मां तो पहली गुरु है।


    बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    प्रकृति के सुकुमार कवि, राजभाषा हिन्दी पर मनोज कुमार की प्रस्तुति, पधारें

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  6. हमरा बेटा (हमरे यहाँ भतीजा भतीजी नहीं कहते हैं, अभी भी संजुक्त परिवार है) अभी चौदह साल का है, ऊ पेंटिंग करता है, संगीत सुनता है, निदा फ़ाज़ली अऊर मुनव्वर राना को पढता है अऊर सत्य्जीत रे का सिनेमा देखता है क्योंकि ई सब काम या तो हम करते हैं या थे चाहे उसका पिता (मेरा भाई) करता है. सच बात है. लेकिन हम बिरोध कम करते हैं, इसलिए पूरा तरह से नहीं मन मानता है कि खाली बाप का ही हाथ होता होगा. जो नींव बचपन में पड़ता है ऊ माँ के साथ रहकर पड़ता है, बाप अमूमन सुबह से देर साम तक ऑफिस में रहता है. यहाँ माँ माने हाउसवाइफ.
    एक और बात लोग कहता है कि बेटा माँ के अऊर बेटी पिता के ज़्यादा करीब होती है. इस हिसाब से भी प्यार में बिगड़ना अऊर बन जाना उल्टा होना चाहिए. लेकिन रिसर्च का बात है तो मान लिया. जो भी है, जानकारी बहुत अच्छी है. कम से कम सोचने पर मजबूर करतीहै!
    हमरा बेटा (हमरे यहाँ भतीजा भतीजी नहीं कहते हैं, अभी भी संजुक्त परिवार है) अभी चौदह साल का है, ऊ पेंटिंग करता है, संगीत सुनता है, निदा फ़ाज़ली अऊर मुनव्वर राना को पढता है अऊर सत्य्जीत रे का सिनेमा देखता है क्योंकि ई सब काम या तो हम करते हैं या थे चाहे उसका पिता (मेरा भाई) करता है. सच बात है. लेकिन हम बिरोध कम करते हैं, इसलिए पूरा तरह से नहीं मन मानता है कि खाली बाप का ही हाथ होता होगा. जो नींव बचपन में पड़ता है ऊ माँ के साथ रहकर पड़ता है, बाप अमूमन सुबह से देर साम तक ऑफिस में रहता है. यहाँ माँ माने हाउसवाइफ.
    एक और बात लोग कहता है कि बेटा माँ के अऊर बेटी पिता के ज़्यादा करीब होती है. इस हिसाब से भी प्यार में बिगड़ना अऊर बन जाना उल्टा होना चाहिए. लेकिन रिसर्च का बात है तो मान लिया. जो भी है, जानकारी बहुत अच्छी है. कम से कम सोचने पर मजबूर करतीहै!

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  7. सचमुच यह एक बहुत अच्छा लेख है . अभिभावकों को इन जरुरी बातों का सावधानी पूर्वक ध्यान रखना चाहिए किन्तु वे अक्सर नहीं रखते .

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  8. तुम्हारा कहना सही है, बच्चे स्वभाव के अनुरुप माता और पिता के करीब होते हैं. बिहारी के तरह हमारा परिवार भी संयुक्त है और मेरे यहाँ भी सब हमारी बेटियाँ हैं और जेठ जी की बेटियाँ अपने पापा से कभी नहीं जुड़ी क्योंकि वे कुछ अति क्रोधी स्वभाव के हैं और उन्हें जीवन भर बच्चों के काम से कोई मतलब नहीं रहा. हर काम के लिए और अपनी हर बात चाचा और चाची से शेयर करती रहीं. यही दूरी अब उनके पिता को खलती है . जब बेटियाँ बाहर चली गयीं तो अब उन्हें लगता है कि हमसे कोई बात नहीं करता . अब उनके पास समय है और बच्चों के पास नहीं. जब उन्हें जरूरत थी तो इनको समय नहीं था. इसलिए बच्चों की एक उम्र होती है और उसमें जो छवि आप छोड़ देते हैं वो कभी मिट नहीं पाती.

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  9. पिता का अति स्नेह बच्चों को बिगाड़ भी सकता है। स्नेह के साथ थोड़ा भय भी रहना चाहिये।

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  10. @ जब बच्चों को इस दुनिया में लेकर आए हैं तो उन्हें एक सुखमय, शांतिपूर्ण जीवन देने का वादा खुद से होना चाहिए...
    क्या लिखूं ...बस यही कि मेरे मुंह के शब्द छीन लिए तुमने ...
    बिलकुल यही मैं भी सोचती हूँ ...यदि दो लोंग साथ मिल कर रहते हैं , विवाह करते हैं और बच्चों को जन्म देते हैं तो उनकी जिन्दगी उन बच्चों के प्रति समर्पित होनी चाहिए...इसके लिए यदि थोडा एडजस्टमेंट करना पड़े दोनों पक्षों को तो करना चाहिए ...और यदि नहीं कर सकते तो बच्चों को जन्म नहीं देना चाहिए ...
    बच्चे माता पिता दोनों से ही सीखते हैं , मगर ज्यादा समय माँ के साथ बिताते हैं तो मां का असर और जिम्मेदारी ज्यादा होनी चाहिए ,
    आस्कर बच्चों के पिता हीरो होते हैं , इसलिए वे उनका अनुसरण करने की कोशिश करते हैं इसलिए अच्छे संस्कारी बच्चों की चाहत रखने वाले पिता को अपने व्यवहार पर भी ध्यान देना चाहिए ...
    अच्छी पोस्ट ..!

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  11. हमारा भी संयुक्त परिवार है तो बच्चों ने ज्यादा गुण ग्रहण किए अपने बड़े पापा और अम्मा(भाभी) से। पांचों बहिने एक साथ रही , भैया की तीन और मेरी दो बेटियाँ।
    बचपन उतना ही महत्वपूर्ण होता है जितनी कि मकान की नीव।

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  12. आपने बहुत बढिया आलेख लिखा है .. मां के क्रियाकलापों पर बेटियों का ध्‍यान रहता है .. और पिता के व्‍यवहार का पूरा अनुकरण बेटे किया करते हैं .. खाने की प्‍लेट को उठाकर सिंक में रखने की अच्‍छी आदत तो आजकल के बच्‍चों में आ ही जाती है .. मेरा छोटा तो होटल में भी अक्‍सर प्‍लेट उठाते हुए खडे हो जाता है .. तब जाकर ध्‍यान आता है कि वो आज होटल में है !!

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  13. आप से सहमत है, मां बेटे को अच्छे संस्कार देती है, तो पिता उस मै हिम्मत भरता है उसे दुनिया मै रहने के काविल बनाता है, मेरे दोनो बेटे अब धीरे धीरे मेरी जिम्मेदारिया ले रहे है, जब भी कोई बात होती है तो हम सब इकट्टॆ बेठ कर सलाह करते है, उस समय मै देखता हुं कि बच्चे क्या सोचते है, फ़िर वो ही काम मै बच्चो के पीछे खडा हो कर करवाता हुं, ओर बच्चे खुश होते है, ओर हर बार नयी बात सीखते है, आप के लेख से सहमत हे, धन्यवाद

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  14. रश्मिजी बहुत अच्‍छा आलेख, पूर्णतया सहमत हूँ। मैंने कभी एक आलेख लिखा था कि गृहस्‍थाश्रम भोग नहीं अपितु मर्यादा है। जिन लोगों ने भी गृहस्‍थी को केवल भोग का साधन मान लिया है वे ही संतान पक्ष से अधिक दुखी रहते हैं। आपको बधाई।

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  15. सटीक लेख ....पिता के व्यवहार का बच्चों पर सीधा असर होता है ..बेटे और बेटियों दोनों पर ...और माँ के व्यवहार का भी ...पिता क्यों की कम समय दे पाते हैं बच्चों को इस लिए पिता की बात बच्चों के लिए ज्यादा महत्त्व पूर्ण हो जाती है ....
    माता पिता दोनों के व्यवहार से ही बच्चों में संस्कार आते हैं और वो बहुत कुछ सीख भी लेते हैं ...

    वैसे हम पत्नियों की आदत है कि पतियों में कुछ अच्छा नज़र नहीं आता ...कभी एकांत में बैठ कर निष्पक्ष भाव से सोचें तो पता चलता है कि काफी अच्छाइयां हैं ...हम गलत आदतों के बारे में या जो हमें पसंद नहीं होतीं उनके बारे में सोचते हैं ..और अच्छाइयों को यह समझ लेते हैं कि यह तो होनी ही चाहिए ...यही बात पति के लिए पत्नियों के साथ लागू होती है ...

    असल में दूसरे की थाली में घी ज्यादा दिखता है :):)

    विषय से भटक गयी ...बस बच्चों की परवरिश में माता पिता दोनों की भूमिका महत्त्वपूर्ण है ..

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  16. हम्म... मतलब बहुत सुधार की जरूरत है मुझमें...

    आज से ही ये सारी चीजें व्यवहार में लाऊँगा..

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  17. कुछ निजी घटनाओं से ये पोस्ट को जोड़ के देख रहा हूँ...आपने बहुत सही लिखा है दी..

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  18. आपका लेख बेहतरीन है और आपकी सोच काफी संतुलित है ..सच ..

    लेकिन मुझे लगता है विदेशी खोजें हमेशा आज तक चली आ रही बातों से अलग होती है और शायद सिर्फ और सिर्फ इसिलये ध्यान अपनी और खींचती हैं
    जैसे कोफी के फायदे , और दूध के नुक्सान जैसा कुछ :)))
    जहां तक मैं सोचता हूँ इसे इतनी आसानी से विभाजित नहीं किया जा सकता की बेटी माँ से सीखती है और बेटा पिता से या उनसे प्राप्त समय के अनुपात में ..... ये काफी अधूरा सा विश्लेषण है और आसान भी, है ना ?? :) बचपन में लड़के के नक़ल करने और बाद उनका चरित्र या आदतें प्रभावित होने में फर्क है,अक्सर आपने पाया होगा की बच्चे को उसके बचपन की वही आदतन बातें बतायी जाती हैं इस सन्दर्भ में की वो कितना बदल गया है | शायद चरित्र निर्माण का ये विभाजन प्रभाव पर आधारित होना चाहिए जैसे पिता का प्रभाव बच्चों पर अधिक है तो मामला बदल जाता है चाहे माँ पूरे दिन सामने रहे तो भी :), ऐसा भी संभव है की कोई पक्ष [माता पिता में से]है तो प्रभावी पर उसके द्वारा दी जाने वाली सीख परिपक्व नहीं है तो जेंडर के अनुसार सोशल स्किल पर प्रभाव विश्लेषण तो अप्रभावी सिद्द होगा
    एक बात पर और ध्यान दें कई बार ये भी होता है की बेटा पिता की विचारधारा से बचपन से बिलकुल भिन्न होते हुये भी उनके जैसा ही व्यवहार कुशल या उनसे बेहतर हो सकता है , मेरे कहने का सार ये है की मामला बेहद काम्प्लेक्स है
    स्नेह काफी नहीं है समझ भरा साथ होना चाहिए

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  19. ये कहानी सुनाने से भी समझ सकते हैं

    बच्चे अक्सर सोने से पहले देखी गयी प्रभावी घटना को मन में बसाते होंगे , इसीलिए पहले [शायद आज भी ] उन्हें सोने से पहले कहानियां सुनायी जाती होंगी जिससे उन्होंने दिन भर में जो भी देखा [बुरा या अच्छा ] .. वो भूल कर रात के समय गहरी नींद में उन्हें सिर्फ उन्हें वीर राजा/रानी , भगवान राम, हनुमान के दर्शन हो, वो खुद को सुरक्षित महसूस कर सकें [असुरक्षित हैं तो भी ]
    अब कहानी कौन सुनाता है , कितने प्रभावी ढंग से सुनाता है, कहानी से मिलने वाली सही सीख कैसे बतायी जाती है या बतायी भी जाती है या नहीं इसका जेंडर से कोई लेना देना नहीं होना चाहिए

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  20. कुल मिला कर

    जब बच्चों को इस दुनिया में लेकर आए हैं तो उन्हें एक सुखमय, शांतिपूर्ण जीवन देने का वादा खुद से होना चाहिए.

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  21. अरे!!! ये मेरे और तुम्हारे घर का हाल एक जैसा कैसे??? कहीं कुम्भ में बिछड़े भाई तो नहीं?? प्लेट उमेश जी भी सिंक में रखते हैं ( ये अलग बात है, कि कोई कटोरी जो प्लेट से बाहर रखी होती है, टेबल पर ही छोड़ देते हैं ) पिछले अट्ठारह सालों तक चिल्लाने का अब लाभ हुआ है, गीली टॉवेल अब बिस्तर पर नहीं मिलती.
    मेरे ससुर जी सलाद खुद ही बनाते थे. खूब बढिया से प्लेट में सजाते थे. उनकी ये आदत भी उमेश जी के पास है.
    बढिया आलेख. बधाई.

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  22. बहुत सार्थक और वस्तुपरक आलेख है रश्मिजी ! आपसे पूरी तरह सहमत हूँ ! बच्चों के सुखी और संतुलित भविष्य की नींव बचपन में ही पड़ जाती है अपने माता पिता से मिले संस्कारों से और घर के वातावरण और तौर तरीकों से ! जिन बच्चों का बचपन दुखमय, अशांत और कलहपूर्ण वातावरण में बीतता है उनमें कभी आत्मविश्वास पैदा नहीं हो पाता और ना ही वे अच्छी माता पिता बन पाते हैं ! बच्चों में यदि अच्छी आदतें डालनी हैं तो बच्चों के सामने आचरण करते समय स्वयं माता पिता को भी उन आदतों को आत्मसात करना होगा ! क्योंकि बेटों के लिये पिता आदर्श होते हैं और बेटियों के लिये अपनी माँ से बढ़ कर अन्य कोई महिला अधिक गुणवान नहीं होती ! इसलिए यह आवश्यक हो जाता है कि अपने आचार विचार में एक समुचित संतुलन और अनुशासन को महत्त्व दिया जाए !

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  23. आपके विचार काफी अच्छे हैं.
    धन्यवाद.
    WWW.CHANDERKSONI.BLOGSPOT.COM

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  24. बहुत सटीक आलेख...इसे पढ़ कर दी अब और सजग हो गयी हूँ, लेकिन एक बात और है पति पत्नी के आपसी relations का भी बच्चो पर बहुत असर पड़ता है ...

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  25. रश्मि जी ,
    सबसे पहले तो एक अच्छी / विचारोत्तेजक /गंभीर पोस्ट के लिए बधाई !

    आगे टिप्पणी ये कि कैलीफोर्निया स्टेट यूनीवर्सिटी के सर्वे में पिता की भूमिका और बालमन के स्वास्थ्य पर जो भी निष्कर्ष निकाले गये हैं उनका आशय केवल इतना है कि बच्चे से अधिकतम और निकटतम संपर्क के चलते अभिभावक बच्चे के रोल माडल हो सकते हैं ! किन्तु इसका मतलब ये नहीं कि स्कूल / बालसखा / खेल समूह और ऐसे ही अन्य ढेरों प्रेरक कारक / एजेंसियां , बच्चे के मन: स्वास्थ्य निर्धारण की दृष्टि से भूमिका शून्य हैं !

    अध्ययन नितांत व्यक्तिवादी अमेरिकन समाज में किया गया है जहां पिता और मां बच्चे के लिए ज्यादातर अनुपस्थित संपर्क जैसे हुआ करते हैं और वहां बाल प्रक्षिक्षण के लिहाज़ से दादा दादी नाना नानी भाई बहिनों की उपस्थिति तो और भी नगण्य है इसलिए पिता की भूमिका का महत्त्व अन्धों में काने जैसा हुआ !

    हमारे मुल्क की परिस्थितियां इस लिहाज़ से केवल शहरी क्षेत्रों में ही अमेरिका जैसी मानी जा सकती हैं वर्ना हमारे गांवों में बच्चे का पालन पोषण तीसरी पूर्वज पीढ़ी ही करती आई है और वहां अक्सर ये देखा गया है कि पिता अपनें बुजुर्गों के सामनें बच्चों को छूता तक नहीं ! इसलिए गांव के परिदृश्य में बच्चे का रोल माडल कोई भी हो सकता है जोकि पिता से भी प्रभावी भूमिका रखता हो !

    तो मैं अध्ययन से केवल इतना ही सहमत होउंगा कि बाल मन के निर्धारण में पिता अनेकों में से एक कारक हुआ करता है और मेरा यह मानना भी है कि विपरीत परिस्थितियों से निपटनें में मां , पिता से कमतर नहीं होती तो रोल माडल वो क्यों ना बने ?

    पिता की भूमिका को लेकर एक अलग तरह का ख्याल मेरे मन में है ज़रा मेरे साथ कल्पना कीजिये कि भारत में मर्द / पिता अपनें बेटे को और स्त्रियाँ अपनी बेटियों को अपनें ही रंग में ढालते रहेंगे तो लिंग भेद स्थायी बना रहेगा कि नहीं ?
    बेटे/बेटियों के व्यक्तित्व विकास में ट्रेनर बतौर मां और पिता को स्थायी तौर पर श्रेणीबद्ध किये जाने से , पूर्व प्रचलित स्त्री पुरुषों की भूमिकाओं का बंटवारा यथावत बन रहेगा कि नहीं ?
    यानि कि पुरुष से पुरुष प्रबलता का अहंकार और स्त्री से स्त्री सौम्यता / दीनता का भाव भी स्थायी रूप से लड़के और लड़कियों की अगली पीढ़ी में यंत्रवत ट्रांसमिट होता रहेगा !

    इसलिए पुरुष के पराक्रम से भारतीय बेटों को बचानें और स्त्रियों को स्त्रियों तक सीमित करने की धारणा से बचना शायद आगामी सामाजिक परिदृश्य को बदलनें के लिए उचित होगा !

    तो क्यों ना इस संभावना पर विचार किया जाये कि पिता , बेटियों तथा माता , बेटों से अपनें स्वाभाविक आकर्षण को बाल मन के प्रशिक्षण में भी स्थायी भूमिकाओं की तरह से अपना लें

    मेरे हिसाब से उक्त सर्वे रिपोर्ट लिंग भेदकारी है क्योंकि उसमें बेटे के लिए मां की भूमिका , पिता से कमतर दिखाई देती है जबकि वास्तविकता ऐसी होती नहीं ! दूसरी असहमति यह कि यह रिपोर्ट लैंगिक आधार पर सामाजिक प्रशिक्षण को स्थायित्व प्रदान करती है ! तीसरे ये कि सर्वे चुनिन्दा समुदाय और चुनिन्दा इकाइयों पर आधारित होनें के कारण इसके निष्कर्ष सर्वमान्य सत्य हों ऐसा आवश्यक नहीं ! चौथा ये कि रिपोर्ट भावी समाज में आनें वाले बदलावों , विशेषकर स्त्री पुरुषों की भूमिकाओं में , को बाधित करती है !

    आदर सहित !
    अली

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  26. ये तो हमने भी सीखा हुआ है कि खाना टेबल पर प्यार के साथ खिलाना महिलाओं की ज़िम्मेदारी होती है लेकिन टेबल से अपने झूठे बर्तनों को किसी भी कीमत पर महिलाओं को हाथ नहीं लगाने देना चाहिए, उसे खुद ही सिंक तक पहुंचाना चाहिए...

    रही टावल बिस्तर पर छोड़ने की बात, थोड़ी बहुत मस्ती तो हर पिता और संतान करते हैं...

    वैसे जो पिता बच्चों के लालन-पालन की ज़िम्मेदारी पूरी तरह मां पर छोड़कर निश्चिंत हो जाते हैं, भूल करते हैं...खास तौर पर बेटों को पिता के साथ दोस्त की तरह समझने का प्रयास करना चाहिए...बेटियों को तो मां सब ऊंच-नीच समझा देती हैं...लेकिन बेटे सही जानकारी के अभाव में घर के बाहर दोस्तों या अन्यों से अधकचरी जानकारी ले लेते हैं...जो कई बार साइकोलॉजिकल समस्याएं पैदा कर देती हैं...

    टिप्पणी का स्लॉग ओवर-
    शर्मा जी सब्जी का थैला लेकर घर आ रहे थे...वर्मा जी ने टोका- क्यों भाभी जी की मदद करा रहे हो...शर्मा जी तमक कर बोले...क्यों वो नहीं मेरी मदद कराती, बर्तन साफ़ कराने में...

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  27. बहुत ही बढ़िया लगा यह लेख ,माता पिता दोनों सामान रूप से बच्चे को आची आदते देने के लिए जिम्मेवार हैं ,मेरी बहन का बेटा उसकी बेटी से अधिक घर के काम करता है अभी वह सिर्फ १२ साल का है पर उसको इस तरह से अपनी माँ की मदद करना बहुत पसंद है ..बेटी नहीं करती जबकि वह उस से बड़ी है :)

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  28. अली जी ,
    मुझे ख़ुशी है कि मैने इस विषय पर पोस्ट लिखी ...पर विषय तो मैने उठाया जबकि उसका सही विश्लेषण आपने किया, शुक्रिया

    यह सही है कि कोई भी सर्वेक्षण सार्वभौमिक सत्य नहीं होता. और वह कुछ चुनिन्दा लोगों के ऊपर किया जाता है, इसलिए सर्वमान्य नहीं हो सकता. Millanie Mallers के सर्वेक्षण को सिरे से ही हटा देते हैं (वैसे उन्होंने भी स्कूल / बालसखा / खेल समूह के प्रभाव से इनकार नहीं किया...यह कहा कि पिता की भूमिका ज्यदा प्रभावी होती है.)
    और सिर्फ भारतीय परिपेक्ष्य में सोचते हैं....यहाँ कितना सुदृढ़, सुगम, आत्मीय है पिता-पुत्र का सम्बन्ध? अक्सर माँ को ही संदेशवाहक की भूमिका निभानी पड़ती है. पर पिता के इस उदासीन (या तानाशाह) व्यवहार का असर बेटे की मानसिकता पर नहीं पड़ता...ऐसा कैसे कहा जा सकता है?

    यह सही है कि बड़े होते बच्चों की मानसिकता पर बहुत चीज़ों का असर होता है....पर उनमे से एक पिता के साथ रिश्ता भी होता है. और शायद इसका प्रभाव कुछ ज्यादा ही होता है. अब मैं तो मनोवैज्ञानिक नहीं हूँ, किन्तु कई भारतीय मनोविश्लेषकों ने भी यह बात कही है. और एक भारतीय मनोवैज्ञानिक द्वारा कही इस बात पर मुझे धक्का भी लगा कि "युवको में डिप्रेशन,चिंता,कुंठा , सोशल स्किल की कमी का कारण अक्सर पिता से खराब रिश्ते होते हैं."

    यह किसी के व्यक्तित्व पर निर्भर करता है कि वह अपनी मानसिकता पर कितना इन बातों का असर होने देता है. अगर कमजोर मनःस्थिति का हुआ तो ये बातें ज्यादा असर करेंगी , इसलिए इस स्थिति को ही क्यूँ ना सुधारने कि कोशिश की जाए और पिता, अपने पुत्र के साथ एक प्यार भरा, समझदारी का रिश्ता कायम करे.

    अपने आस-पास,रिश्तेदार, पत्र-पत्रिकाओं में लोगों का आत्मकथ्य पढ़ कर (टिप्पणियों में भी लोगों ने कहा है ) इतना तो मैने भी देखा है, जिन पिता-पुत्र का रिश्ता सहज और स्नेह भरा होता है...वे लोग कुछ ज्यादा ही बेफिक्र होते हैं. और जिनका रिश्ता तनावपूर्ण रहता है...वे अपने बच्चों के साथ उतने सहज नहीं रहते. कई बार तो एकदम विपरीत प्रतिक्रिया होती है, जो कुछ उन्हें ,अपने पिता से नहीं मिला...बच्चों को इतना ज्यादा देने की कोशिश करते हैं कि अति कर जाते हैं.

    यह सिर्फ एक विवेचना थी,सबकुछ अक्षरशः सत्य नहीं होता.बस बच्चों के स्वस्थ मानसिक विकास के लिए आवश्यक बातों पर एक नज़र डालने की कोशिश थी.

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  29. @गौरव
    बिलकुल सही कहा...."मामला बेहद काम्प्लेक्स है
    और किसी एक नतीजे पर पहुँचाना मुश्किल है...
    अगर माँ की जिम्मेवारी है तो पिता का महत्त्व भी कम नहीं.

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  30. @ रश्मि जी,
    मैंने केवल ट्रेनर्स की भूमिकाएं बदलने पर जोर दिया है ! माता पुत्री को ही क्यों ? और पिता पुत्र को ही क्यों ? अगर गौर करें तो मैंने इसका उलट सुझाव दिया है !

    सहमत हूं कि पारिवारिक झगडों / कुंठाओं का असर बच्चों पर पड़ता है पर केवल पुत्र या केवल पुत्री पर ही ?...समझिए इस बिंदु पर असहमत हूं क्योंकि मेरा मानना है कि असर दोनों बच्चों पर समान रूप से पड़ेगा ! अतः संतान द्वय के स्वस्थ मानसिक विकास के लिये अभिभावकों के पारस्परिक संबंधों का स्वस्थ होना बेहद ज़रुरी है ऐसा मेरा अभिमत है !

    मैंने विद्वान / सज्जन पिताओं की नालायक संतानें देखी हैं और शराबी / झगडालू पिताओं की प्रतिभावान संतानें ...बस इसीलिए निर्णय में सरलीकरण नहीं करना चाहता !

    पुनः निवेदन है कि आपकी पोस्ट सार्थक और विचारोत्तेजक है !

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  31. आज पहली बार आपका ब्लॉग पढा।
    अच्छा लगा।

    इस लेख को पढकर एक बात मेरे मन में आती है।
    कुछ परिवारों में कई सारे बेटे होते हैं
    सब एक जैसे नहीं बनते।
    पिता तो एक ही है।
    सोचता हूँ ऐसा क्यों होता है।

    दूसरी बात।
    यह सुनकर खुशी हुई की आपके पति थाली उठाकर सिंक में रखते हैं।
    मैं तो अपनी थाली खुद धोता भी हूँ।
    आशा है इसके लिए मुझे आपके महिला पाठकों से कुछ brownie points हासिल होंगे।

    शुभकामनाएं
    जी विश्वनाथ

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  32. हा हा विश्वनाथ जी,
    क्यूँ नहीं...बहुत सारे borwnie points मिल जायेंगे...पर अगर मिसेज़ विश्वनाथ कह दें तो..:)
    बहरहाल शुक्रिया पहली बार मेरे ब्लॉग पर आने का...

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  33. दीदी,
    आपकी हर बात और लेख से सहमत हूँ लेकिन ये समझ नहीं आता ये खोजें क्या बताने के लिए की जाती हैं ??
    वही बातें जो सबको पता है... विषय की जटिलता खोजों में सुलझाई क्यों नहीं जाती ??
    मैं अभी तक साइकोलोजी विषय में हुयी खोजों से किसी नए ठोस नतीजे को नहीं पा सकने से असंतुष्ट हूँ :(
    [मैं जानता हूँ ये इस पोस्ट के विषय के बाहर की बात है फिर भी कहे बिना रहा नहीं गया :(]

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  34. @ अली जी,
    इस पोस्ट की सार्थकता तो इसी बात से सिद्ध हो गयी कि आपको इतना कुछ कहने पर मजबूर कर दिया.
    सही है, सरलीकरण उचित नहीं.

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  35. @गौरव,
    इन सबको सुलझाना इतना आसान नहीं ...और इन सब चीज़ों की तरफ लोगों का ध्यान खींचने के लिए ये सारे सर्वेक्षण किए जाते हैं...और पता तो बहुत कुछ होता है..क्या हम मनन करते हैं उन सब बातों पे??...कम से कम इन सबने हमें सोचने के लिए उकसाया तो...

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  36. दीदी ,

    हाँ ये भी ठीक है ये खोजें प्रेरित तो करती हैं :)

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  37. दीदी ,
    पिता का अति स्नेह बच्चों को बिगाड़ भी सकता है। स्नेह के साथ थोड़ा भय भी रहना चाहिये।

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  38. रश्मि जी आजकल जरा कार्यालय व्‍यस्‍तता ज्‍यादा है सो ब्‍लाग पर नहीं आ पा रहा हूं। आपका संदेश मिला कि मेरे पास भी कहने को कुछ होगा। इस विषय पर कहने को इतना है कि एक नई पोस्‍ट ही बन जाए। फिर भी संक्षिप्‍त में कहूं तो-

    मेरे पिता जब भी घर में होते थे,घर की झाड़ू लगाने और बरतन और कपड़े धोने में मेरी मां यानी अपनी पत्‍नी को मदद करते थे। शाम के वक्‍त घर में सबके लिए बिस्‍तर और मच्‍छरदानियां लगाने का काम वही करते थे। बाजार का सौदा सामान लाने का काम तो उनका था ही। वे खाना बनाना भी जानते हैं,तो जब ऐसा मौका आता तो घर में खाना भी बनाते थे। मैंने बचपन से यह सब देखा। घर में मैं अपनी मां को बरतन साफ करने में,अपने और भाई बहनों के कपड़े साफ करने में मदद करता था। शादी हुई तो अपने और बच्‍चों के कपड़े जब तक घर में वाशिंग मशीन नहीं आ गई खुद ही धोता रहा। खाने बनाने का का श्रीमती जी करती रहीं,खाना परस कर खाना और अपने थाली उठाकर सिंक में रखना तो अनिवार्य ही था। जब मौका मिलता तो बरतन मांज भी डालता। यह अलग बात है कि श्रीमती जी को हमारे मांजे बरतन कभी पसंद नहीं आए। अभी पिछले दो साल से घर में बरतन साफ करने के बाई आ रही है।
    हां खाना बनाना नहीं सीखा था,सो उसमें कोई मदद नहीं हो कर पाता था। पर जब से यहां बंगलौर में अकेला रह रहा हूं तो वह भी सीख लिया है। मेरे बेटों ने इतना तो सीखा ही है कि वे अपनी थाली ले जाकर सिंक में रखते हैं,अगर मां खाना परसकर न दे सके,तो परसकर खा लेते हैं। अपने अंत:वस्‍त्र खुद रोज धोते हैं। बाकी कपड़े तो खैर अब वांशिग मशीन में धुलते ही हैं।
    रश्मि जी कभी कभी मुझे लगता है एक औसत मध्‍यमवर्गीय परिवार में ये सब बातें बहुत सामान्‍य होती हैं। हम बेवजह इन्‍हें इतना ग्‍लौरीफाई करके देखते हैं।
    बहरहाल कई टिप्‍पणीकारों ने कहा कि स्‍नेह के साथ भय भी जरूरी है। मैं इस बात के सख्‍त खिलाफ हूं। थोड़ा लिखा है बहुत समझना।

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  39. दी ! बहुत ही अच्छा लेख लिखा है आपने. आपको पैरेंट्स के लिए एक गाइड बुक लिखनी चाहिए. मैं मज़ाक नहीं कर रही हूँ. आपकी ये पोस्ट बहुत अच्छी लगी और अली जी का कमेन्ट उसका पूरक लग रहा है. तो आप अली जी की सहायता भी ले सकती हैं गाइड बुक लिखने में. हमारे देश में, अगर पढ़े-लिखे जागरूक लोगों को छोड़ दें तो आमतौर पर लोग बच्चों के पालन-पोषण के मनोवैज्ञानिक पहलू पर ध्यान नहीं देते हैं.
    मैं आपकी इस बात से पूरी तरह से सहमत हूँ...

    "जिन पिताओं का अपने बेटे के साथ स्वस्थ और प्यार भरा रिश्ता होता है वे जीवन के संकटमय स्थिति को ज्यादा अच्छी तरह हैंडल कर सकते हैं.....जिनके रिश्ते में दूरी होती है. वे ऐसी परिस्थिति में बिखर जाते हैं.और कुशलतापूर्वक उस स्थिति का सामना नहीं कर पाते."
    और ये सिर्फ बेटे के लिए ही नहीं बेटी के लिए भी उतना ही सही है. मेरे पिताजी को ये मालूम था कि हमलोगों के बड़े होने के साथ ही वो बूढ़े हो जायेंगे इसलिए उन्होंने शुरू से ही हमें परिस्थितियों से लड़ने के लिए तैयार किया. और अम्मा के जाने के बाद, तो उन्होंने दोनों ही भूमिकाएं निभाईं. इसीलिये इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी मैं हार नहीं मानती.

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  40. लीजिए अभी-अभी यह रिपोर्ट भी आई

    Dads, Too, Get Hormone Boost While Caring for Baby

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  41. @पाबला जी,
    लिंक के लिए शुक्रिया

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  42. @राजेश जी,
    अच्छा हुआ जो मैने यह पोस्ट लिखी....अपने ब्लोगर बंधुओं के एक एक छुपे गुण उजागर हो रहें हैं...बड़ा अच्छा लग,जान आप घर के कामों में इतनी मदद करते हैं.
    वैसे मेरा इसे ग्लोरिफाई करने का कोई इरादा नहीं था...मैने तो बस एक उदाहरण दिया था कि बच्चों को कहते रहो...कपड़े, किताबें, खिलौने ..जगह पर रखो वे नहीं सुनते...पर पिता की देखा-देखी प्लेट जगह पर रख देते हैं.

    और मैने तो उत्तर भारत में मध्यम, निम्न ,उच्च किसी घर में पुरुषों को घर के कामो में ज्यादा हाथ बटाते नहीं देखा है....हाँ अब स्थितियां बदल रही होंगी और यह एक अच्छा संकेत है

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  43. @ मुक्ति,
    यह तो Biggest Compliment दे दिया तुमने. मैं कहाँ से एक्सपर्ट हो गयी...इन चर्चाओं के द्वारा कुछ सीखने की प्रक्रिया में ही हूँ.
    और अली जी मुझसे हेल्प लेंगे या मैं उनसे?? वे एक प्रोफ़ेसर हैं...अपने विषय के अच्छे जानकार.

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  44. रश्मिजी
    मैंने बहुत देर कर दी आपके ब्लाग पर आने में किन्तु एक फायदा हुआ इतनी सारी टिप्पणियों के माध्यम से एक महत्वपूर्ण विषय पर बहुत अच्छे और उपयोगी विचार पढने को मिले |
    मेरे बछो को तो अपने पिता कि तरह कामेडी पिक्चर बेहद पसंद है जो मै ज्यादा नहीं देख सकती |हाँ और आपकी घर कि तरह ही हमारे यहाँ भी झूठी थाली तो उठाकर रख देते है कितु गिले टावेल बिस्तर पर ही छोड़ते है आज तक पहले मै चिढती थी अब दोनों बहुए चिढती है \
    माँ कि ममता कि छाव के साथ पिता के अनुशासन कि धूप भी बहुत जरुरी है बच्चे के लिए |और बहुत सी चीजे तो बच्चे में अपने पिता कि वंशनुगत आ ही जाती है |
    बहुत जानकारी से पूर्ण आलेख |बधाई |

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  45. मेरे पति की एक अच्छी आदत है (बस एक ही..so sad : अरे हर् पति की कम से कम एक आदत तो अच्छी होती ही है मेरे पति की भी है कि वो अपनी बेटिओं का ध्यान मुझ से अधिक रखती हैं और मै जहाँ आज हूँ अपने पिताजी के व्यवहार और मार्गदर्शन से हूँ। बेटी हो या बेटा पिता की भूमिका दोनो मे अहम है माँ से अधिक। माँ की कोमलता पिता की स्थिरता ही बच्चों को जीने की राह सिखाती हैं। शुभकामनायें।

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  46. बहुत अच्छा आलेख...

    एक अच्छे मानसिक विकास के लिए पिता के साथ सुन्दर रिश्ता बहुत जरूरी है

    -बिल्कुल सहमत हूँ..

    मगर मेरे दोनों बेटों ने मुझसे खाना बनाने की आदत नहीं सीखी. हाँ, मेरे बनाने के चक्कर में दोनों को तो क्या, मेरी पत्नी को भी अच्छा खाना खाने की आदत जरुर पड़ गई. :)

    यहाँ तो एक अच्छी आदत का एक्स्टेन्शन भी है कि धोकर डिश वाशर में लगा देते हैं मगर बेटे...हाय!! वो भी न सीख पाये.

    अब बहुएँ झेलें..हम तो पार पाये. :)

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  47. यह विषय दिखने में जितना आसान है उतना ही जटिल है । मेरे एक कवि मित्र नासिर अहमद सिकन्दर का पहला कविता संग्रह आया जिसमें समर्पण के पृष्ठ पर उन्होने लिखा " पिता को ,जो जीवन भर नाराज़ रहे मुझसे " मैं उनके घर आता जाता था ,पिता से कटु रिश्तों का आभास मुझे था लेकिन इस रिश्ते के सार्वजनिक हो जाने के बाद मैने चर्चा की तो बहुत सारे ऐसे तथ्य मालूम हुए जिनके बारे मे सोचना भी असम्भव था ।
    फिलहाल विस्तार से वह यहाँ लिखना सम्भव नही है । मै अली भाई और गौरव जी की बात के सन्दर्भ मे भी यही कहना चाहता हूँ कि हमे वर्गदृष्टि रखते हुए इन रिश्तों के परिणाम को देखना होगा ,साथ ही गाँव व शहर के सन्दर्भ मे अलग अलग । इसके अलावा यह कि एक ही पिता के दो बेटे एक पिता से मिलता जुलता दूसरा अलग इसलिये होता है कि यहाँ समाजीकरण एक प्रमुख कारक हो जाता है । सोसलाइज़ेशन के प्रभाव से हम इंकार नही कर सकते । फिलहाल एक कविता और एक और कविता दोनो इसी सन्दर्भ मे ...

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  48. कोई है

    बिटिया तो होती है ककड़ी की बेल
    कब बढ़ जाती है
    पता ही नहीं चलता

    बेटा होता है
    बाँस का पौधा
    बढ़ता है
    आसमान छूता है
    बच्चे बढ़ते हैं
    किताबें पढ़ते हैं
    सीखते हैं दुनिया का क ख ग
    सीखते हैं मेहनत का पहाड़ा

    प्यार की आँच में पकते हैं बच्चे
    हवा और धूप में बढ़ते हैं बच्चे
    एकता और भाईचारे की सीढ़ीयाँ
    धीरे धीरे चढ़ते हैं बच्चे

    बच्चे गीली मिट्टी होते हैं
    कच्चे बाँस होते हैं
    डोडॆ में बन्द
    नर्म कपास होते हैं

    मगर कोई है जो चाहता है
    बच्चों के बचपन में ज़हर घोलना
    समय से पहले उन्हे पकाना
    सुखाना और बुन डालना ।

    - शरद कोकास

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  49. बचपन

    बच्चों की दुनिया में शामिल हैं
    आकाश में
    पतंग की तरह उड़ती उमंगें
    गर्म लिहाफ में दुबकी
    परी की कहानियाँ
    लट्टू की तरह
    फिरकियाँ लेता उत्साह

    वह अपनी कल्पना में
    कभी होता है
    परीलोक का राजकुमार
    शेर के दाँत गिनने वाला
    नन्हा बालक भरत
    या उसे मज़ा चखाने वाला खरगोश

    लेकिन कभी भी
    वह अपने सपनों में
    राक्षस नहीं होता ।

    - शरद कोकास

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  50. उपयोगी लेख लिखा है.
    घुघूती बासूती

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फिल्म The Wife और महिला लेखन पर बंदिश की कोशिशें

यह संयोग है कि मैंने कल फ़िल्म " The Wife " देखी और उसके बाद ही स्त्री दर्पण पर कार्यक्रम की रेकॉर्डिंग सुनी ,जिसमें सुधा अरोड़ा, मध...