शुक्रवार, 9 जुलाई 2010

जावेद अख्तर की एक नज़्म

आजकल पाठक ही मुझसे एक कहानी लिखवाए जा रहें हैं....हाँ , सच...जिस  कहानी को दो कड़ियों में समेटने की सोची थी...पाठकों को इतनी अच्छी लग रही है कि मैं भी बस लिखती जा रही हूँ...पर उसकी वजह से इस ब्लॉग पर कुछ नहीं लिख पा रही...पहले ही दो कड़ियों में ज्यादा अंतराल, पसंद नहीं आ रहा उन्हें. :)

एक बार, इस ब्लॉग पर जावेद अख्तर की  एक नज़्म डाली  थी और रंगनाथ सिंह जी ने ये फरमाईश की थी.
"जावेद अख्तर की 'वो कमरा' कविता बहुत पसंद है मुझे। आपके पास हो तो कभी लगाएं। मेरे पास उनका संग्रह 'तरकश' अब नहीं रहा वरना मैं स्वयं लगाता।"

मेरे पास भी तरकश नहीं है पर मेरी एक सहेली के पास 'Quiver' है . वो हिंदी नहीं पढ़ पाती पर कविताओं की दीवानी है और हिंदी कविताओं और  उर्दू गजलों और नज्मों के अंग्रेजी अनुवाद  पढ़ती है .लीजिये आप भी एक बार फिर से आनंद उठाइए, उस कविता का.

वो कमरा याद आता है


मैं जब भी


ज़िन्दगी की चिलचिलाती धूप में तपकर

मैं जब भी

दूसरों के और अपने झूठ से थक कर

मैं सब से लड़के और खुद से हार के


जब भी उस इक  कमरे में जाता था


वो हलके और गहरे कत्थई रंगों का इक कमरा


वो बेहद मेहरबाँ कमरा


जो अपनी नर्म मुट्ठी में मुझे ऐसे छुपा लेता था


जैसे कोई माँ


बच्चे को आँचल में छुपा ले

प्यार से डांटे


ये क्या आदत है

जलती दोपहर में मारे मारे घूमते हो तुम


वो कमरा  याद आता है

दबीज़* और खासा भारी

कुछ जरा मुश्किल से खुलने वाला


वो शीशम का दरवाज़ा


कि जैसे कोई अक्खड़ बाप


अपने खुरदुरे सीने  में

शफ्कत* के समंदर को छुपाये हो.


(दबीज़ - ठोस,  शफ्कत - स्नेह)

25 टिप्‍पणियां:

  1. जावेद जी की नज़्म ..वाह...बहुत बहुत शुक्रिया रश्मि...इतनी सुन्दर कृति पढवाने के लिए

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  2. वाह वाह आखिर ये तमन्ना भी प्पूरी कर ही दी आपने ..
    बहुत बहुत शुक्रिया.

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  3. कुछ चीजें हमारे जीवन से इस कदर जुड़ जाती हैं कि उनके बिना उसकी कोई कल्पना भी नहीं की जा सकती। मेरे लिए यह कविता उन्हीं कुछ चीजों में से एक है। इस प्रस्तुत करने के लिए आपका जितना भी आभार जताऊँ वो कम होगा। मैंने इसे सेव भी कर लिया है। सदा के लिए।

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  4. बहुत सुन्दर नज़्म है रश्मि. जावेद साहब और गुलज़ार साहब मुझे हमेशा से पसंद हैं. धन्यवाद इतनी सुन्दर नज़्म पढवाने के लिये.

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  5. सुन्दर नज्म, मेरा कमरा भी ऐसा ही है.

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  6. जावेद साहब की यह निजी अभिव्यक्ति बेहद खूबसूरत है जो बहुत से लोगों की अभिव्यक्ति हो सकती है । कमरा होता ही है इसलिये कि वह आपके लिये केवल शरण स्थल नहीं होता बल्कि वह आपको फिरसे लड़ने की तकत मुहैय्या कराता है ।

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  7. अपना कमरा ऐसा ही होता है ...
    अच्छी नज़्म ...!

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  8. बहुत संवेदना है इस रचना में । आश्रय कमरे का हो या संबंधों का , सभी की ज़रुरत है ।

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  9. @रंगनाथ जी,
    आभार तो हमें आपका व्यक्त करना चाहिए. इसी बहाने हमें एक सुन्दर कविता, दुबारा पढने को मिली .और मेरी सहेली का भी शुक्रिया...जिसके पास से यह किताब मिली.

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  10. @शरद जी,
    सुना है आपने भी एक कविता लिखी थी, "मेरा कमरा"
    हमलोगों को भी पढ़वाइए
    पत्रिकाओं के पाठक तो कब का पढ़ चुके होंगे.हम ब्लॉगर्स पर भी कृपा की जाए.

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  11. जावेद साहब की नज्में लासानी होती हैं.
    उनके फ़िल्मी गानों पर नसरीन मुन्नी कबीर ने लम्बी बात चीत की थी जो पुस्तकाकार होकर ऑक्सफोर्ड से छपी है इंग्लिश में.उसका हिंदी रूपांतरण मैंने किया है, जिसे राजकमल से आना है.

    शहरोज़

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  12. गज़ब की नज़्म पढवा दी……………पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं।

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  13. आपको और रंगनाथ सिंह जी दोनो को आभार एक अच्छी कविता से रूबरू करवाने के लिये...

    इसी कविता के बहाने अज्ञेय जी और शरद जी दोनो की कविता पढने को मिली..

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  14. जावेद अख्तर की बड़ी सुन्दर कृति है यह ।

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  15. जावेद अख्तर के वालिद साहब मुझे बहुत प्रिय हैं , यह कविता बहुत अच्छी लगी .

    व्यक्ति जिस कमरे में रहता है , एक दिन ऐसा आ ही जाता है जब वह भी छूट जाता है , फिर स्थिति उलट सी होती है और व्यक्ति में कमरा रहने लगता है .उसके मन में , उसकी स्मृति में . कविता रहेगी तो ये कमरे कभी खाली नहीँ होंगे ..

    कविता पढ़ाने का शुक्रिया !

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  16. वाह वाह,हमारे पास तो थी तरकश, लेकिन बहन ने वो किताब ले ली हमसे....मैं बहुत बार पढ़ चूका हूँ तरकश :)उसके सारे नज़्म मुझे अच्छे लगते हैं...और ये तो अपना भी फेवरिट है :)

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  17. Javed ji ki yah nazm padte huve na jaane kitni yaaden chal-chitr ki tarah ghoom jaati hain ... ladakpan mein shayad har kisi ke paas aisi kamre ya kone rahte hain ... aaj bhi unki yaaden jaroor gudgudaati hongi sabko ...
    Is kajawaab nazm ke liye bahut bahut shukriya ...

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  18. ये हिन्दी अनुवाद है या नज़्म जैसी उन्होंने लिखी थी वैसे ही.. पर अच्छी है..

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  19. वाह वाह। सुन्दर नज़्म। पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं।

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  20. पहले पढ़ी थी और तबसे ही बहुत पसंद है ...आज यहाँ फिर से पढने का सौभाग्य प्राप्त हुआ ...शुक्रिया

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  21. बहुत बहुत धन्यवाद रश्मि जी इतनी ख़ूबसूरत नज़्म पढ़वाने के लिए

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  22. जावेद जी की नज्में बहुत अच्छी लगती हैं.... जावेद जी से अक्सर उनके लखनऊ वाले घर पर मुलाक़ात होती है.... एक पोस्ट डालूँगा उनके साथ की....

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  23. शरद जी के ब्लॉग पर पता चला इस कमरे का सो देखने चली आई । बेहद अपनासा लगा ।

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